‘भील’ भारत की प्राचीनतम जाति है जिसका उल्लेख पुराणों, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है ‘भील’ भारत की आदिवासी जातियों में से एक प्रमुख जाति है । भील देश के चार राज्यों में पाए जाते हैं – महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान | राजस्थान में मीलों का फैलाव व्यापक है, ये प्रदेश के सभी जिलों में पाये जाते हैं, परंतु इनका बाहुल्य राज्य के दक्षिणी जिलों उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, चित्तौड़गढ़ एवं सिरोही में है । राजस्थान के दक्षिणी भाग को जहाँ भील जाति निवास करती थी, बह क्षेत्र ‘भोमट’ के नाम से जाना जाता था, जिसे मेवाड़ भी कहते हैं । जनसंख्या की दृष्टि से भील राजस्थान राजा की दूसरी बहुसंख्यक जनजाति है, जो मूलत: जंगलों एवं पहाडी अंचलों में निवास करती है | भील जाति मेवाड़ में शहरों से दूर पहाड़ी अंचलों में, पहाड की चोटियों पर या घने जंगलों में एक दूसरे से दूर छोटे-छोटे झोंपडे बना कर रहते हैं । झोपड़ो के समूह को भील बोली में पाल कहा जाता है | पाल का मुखिया पालवी अथवा गर्मती कहलाता है ।

15.2 भील की उत्पत्ति मिथक

भीलों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मत हैं, परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि ये इस देश के मूल निवासी हैं एवं प्राचीन समय से ही निर्जन वनों एवं दूरस्थ स्थानों में निवास करते आ रहे हैं । भील संस्कृत भाषा के ‘भिल्ल’ शब्द का तदभव रूप है, जो संस्कृत के भिल-बिल-भेदने’ धातु से मूलबद्ध है | संस्कृत में ‘भिल्ल’ शब्द मलेच्छ देश और जाति दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है । मलेछ शब्द असित रंग के आर्यात्तरों के लिए शताब्दियों तक प्रयुक्त होता रहा । बाद में इस शब्द का प्रयोग अवहेलना और तिरस्कार के रूप में हुआ |

मिल शब्द का प्रयोग भेदने की प्रक्रिया से भी है | महाभारत काल में यह शब्द निषाद’ के लिए प्रयुक्त किया जाता था । राबर्ट शेफर ने निषादों को भीलों का पूर्वज प्रतिपादित किया है । मेजर केडी अर्सीकन ने मेवाड गजेटियर (1908 ई) में एक पूरा भाग मीलों के विवरण पर दिया है । इनका मत है कि ये भारत के मूल निवासियों में से हैं । कर्नल टॉड ने इन्हें ‘वनपुत्र’ कहा है | गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार यह निश्चित है कि ये आदिवासी अनार्य है, किन्तु जिन अनार्य समूह से इनकी उत्पत्ति हुई उसके शारीरिक गठन एवं रंगरूप के करे में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।

वास्तव में भीलों की मानवशास्त्रीय उत्पति की खोज एक दुष्कर कार्य है । किन्तु भील जाति का इतिहास बड़ा गौरवपूर्ण रहा है । इतिहास के पृष्ठों पर यह जनजाति अपने कृत्यों के कारण सदैव याद की जाती रही है । भीलों ने हमेशा राजपूत राजाओं को सहयोग प्रदान किया । राजपूत मीलों को इस क्षेत्र का सबसे पुराना निवासी मानते हैं एवं राजपूतों का राज्याभिषेक तब तक सम्पन्न नहीं होता जब तब कि भील सरदार अपनी अंगुली काटकर उसके रक्त से उनका राजतिलक नहीं करता । उपर्युक्त उल्लेख से स्पष्ट है कि राजपूत शासक अपने राज्य में मीलों को काफी महत्व देते थे । अनेक राजपूत शासकों ने अपने राज्य के कुछ हिस्से मीलों को राज्याभिषेक के पट्टेदारों के रूप में उपहारस्वरूप दिये और उन्हें सत्ता में भागीदार बनाकर अपने राज्य को सुरक्षित रखने का प्रयास किया ।

15.3 भील जाति की प्रकृति

प्रकृति से मील एक स्वतन्त्र, नियमों में न बंधने वाली युद्धप्रिय जाति है इनके मुख्य हथियार तीर व कमान है । आर्थिक रूप से यह कमजोर व पिछड़ा वर्ग है और इनके आर्थिक संसाधन भी बहुत कम है | आरम्भ में वे भोजन की तलाश मे इधर-उधर नटका करते थे, किन्तु बाद मे वे ‘झिमतो’ विधि से जंगल जलाकर खेती करनाड खेती करने लगे । खेती के अतिरिक्त लकडी काटना, घासफूस, फल, जडी-बूटी, शहद, गोंद एकत्रित करना, मछली पकड़ना जंगली जानवरों का शिकार करना भी उनके अन्य व्यवसाय थे । वे अपने क्षेत्र में सुरक्षित यात्रा के बदले यात्रियों से बोलाई नामक कर तथा गाँव वालों की सुरक्षा के बदले उनसे रखवाली कर लेते थे । अकाल के दिनों में उन्होंने चोरी और डकैती का पेशा भी अपना लिया था । 1838 ई. में मेवाड सरकार और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच एक सन्धि हुई थी जिसके अनुसार इस भोमट क्षेत्र के कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने का उत्तरदायित्य कम्पनी ने अपने ऊपर ले लिया था ।

भील बहुत अन्धविश्वासी होते हैं भूत-प्रेतों से बचने के लिए अपने हाथों मे गोदना गुदवाते हैं तथा गंडे ताबीज भी पहनते हैं | चुडैल या डाकन के जादू टोने में विश्वास करते हैं | यदि किसी स्त्री पर चुडैल होने का सन्देह हो तो उसे अनेक प्रकार की सत्य परीक्षा से गुजरना पड़ता था । यदि वह अपराध स्वीकार कर लेती है, तो उसे मार दिया जाता है अथवा पाल से बाहर निकाल दिया जाता

भील पूर्णतया अशिक्षित थे इसलिए रूढिवादी भी अधिक थे । भीलों को अपनी परम्परागत जीवन पद्धति से इतना नगद था कि अपने मुखिया की अनुमति के बिना उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते थे । 1881 ई. में जब मेवाड सरकार ने इस क्षेत्र में प्रशासनिक एवं सामाजिक सुधार लाग करने चाहे तब भीलों ने उन्हें अपनी आजादी पर नियंत्रण समझकर विद्रोह कर दिया क्योंकि आधुनिक सुधार उनकी परम्परागत जीवन पद्धति को बदलने वाले होते थे, जो भीलों की प्रकृति के विपरीत थे, इसलिए उनके मन में विद्रोह की भावना का जागत होना स्वभाविक था ।

15.4 भील आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

गुहिल शासक शिलादित्य द्वारा मेवाड क्षेत्र के भीलों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के बाद से भील मेवाड राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार में पर्याप्त सहयोग दे रहे थे | वे पहाड़ी मार्गों व सुरक्षित स्थानों के जानकार थे । जब-कभी मेवाड पर संकट आया, भीलों ने मेवाड राजपरिवार को जंगलों में रखकर न केवल उसकी सुरक्षा की बल्कि सैनिक मदद भी की उन्होंने शत्रु पक्ष को पहाडी अंचलों में घुसने नहीं दिया | अपनी गुप्तचर व्यवस्था के द्वारा समय-समय पर महाराणाओं तक शत्रु पक्ष की खबर पहुँचायी | मेवाड़ राजवंश के प्रति मीलों के समर्पण भाव को भुलाया नहीं जा सकता है ।

मेवाड के शासकों के अधीन रहते हुए भी भील अपनी स्वतन्त्र प्रकृति को नहीं भूल पाये | जब-कभी इनकी स्वतंत्रता, परम्परा, रीति-रिवाज या विश्वास इत्यादि में मेवाड के शासकों और उनके प्रतिनिधियों ने हस्तक्षेप करने का प्रयास किया तब-तब भीलों ने विद्रोह कर दिया । भील विद्रोह तभी शान्त होता जब इन्हें अपना हक प्राप्त हो जाता था | महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय से हमीर सिंह 2 का अल्पकालीन, महाराणा भीमसिंह का कमजोर शासन व 19वीं सदी के आरम्भ में मराठों एवं पिण्डारियों के मेवाड में प्रदेश ने भीलों को प्रभावित किया । मेवाड की राजसत्ता के कमजोर होने पर मराठों व पिण्डारियों ने भीलों पर काफी अत्याचार किए । भीलों के कई गाँव नष्ट कर दिये गये, उनके साथ अमानविय व्यवहार किया गया । मेवाड की सत्ता कमजोर होने से भील अपना सुरक्षा एवं बचाव भी नहीं कर पासे | भीलों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा | यह पहला अवसर था जब भील जाति अपने आपको असहाय अनुभव करने लगी थी और उनके अन्दर ही अन्दर विद्रोह की आग धधकने लगी थी।

15.5 भील विद्रोह

___मराठों एवं पिण्डारियों के आक्रमणों से मेवाड की स्थिति बिगड़ने लगी ऐसे समय में 13 जनवरी, 1818 ई. में मेवाड ब्रिटिश संधि के तहत पुन: स्थायित्व एवं शान्ति का सूत्रपात हुआ परन्तुभीलों को यह सन्धि रास नहीं आई | सन्धि को भीलों ने अपनी स्वतन्त्रता का हनन समझा । अंग्रेज सरकार की ओर से मेवाड में नियुक्त कर्नल टॉड ने मेवाड राज्य की आय को बढ़ाने का प्रयास किया | भील मुखियओं ने समझा कि बोलाई व रखवाली कर की आय उनके हाथ से निकल रही है ।

15.5.1 1818 ई. के बाद मेवाड में प्रथम विद्रोह का कारण

1. 1818 ई. की संधि के तहत स्थानीय सेना भंग किए जाने के कारण, सेना में कार्यरत भील बेरोजगार हो गये।

2. संधि के तुरन्त बाद मेवाड का आन्तरिक प्रशासन ब्रिटिश रेजीडेंट कर्नल जेम्स टॉड ने संभाल लिया, जिसने भीलों को नियंत्रण में रखने का प्रयास किया |

3. कर्नल टॉड ने भीलों का बोलाई व रखवाली कर वसूलने का अधिकार समाप्त कर दिया जो विद्रोह का तात्कालिक कारण बना ।

भीलों ने अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा में विद्रोह का बिगुल बजा दिया । भीलों को दबाने के लिए कर्नल लूँबे के नेतृत्व में एक सेना भेजी गई ।

अन्तत: भीलों के समर्पण करने पर अंग्रेजों की मध्यस्थता से 12 मई 1825 ई. को भील मुखिया व मेवाड़ के मध्य समझौता हो गया जिसके अनुसार –

1. प्रत्येक भील पाल का गमेती महाराणा की सर्वोच्चता स्वीकार करेगा ।

2. महाराणा पहाडी क्षेत्रों में थाने स्थापित कर सकेंगे ।

3. भील अपने सभी हथियार महाराणा को सौंप देंगे और भविष्य में भी किसी प्रकार के हथियार अपने पास नहीं रखेंगे।

4. भील अपनी कृषि उपज का 1/4 भाग राजस्व देंगे ।

5. भील रखवली कर वसूल नहीं करेंगे ।

6. भील लूटपाट व चोरी न करें, ऐसा करने वालों को गमेती उचित दंड हेतु प्रस्तुत करें ।

7. सभी मामलों में महाराणा एवं पोलिटिकल एजेण्ट का निर्णय स्वीकार करेंगे ।

8. भील गो एवं कन्या वध नहीं करेंगे ।

9. यदि कोई भील उपर्यक्त शर्तो का उल्लंघन करेगा तो अपराधी माना जायेगा व राज्य कानून के अनुसार कार्यवाही की जाएगी ।

उपर्युक्त समझौते से भीलों के विद्रोह को शान्त करने की कोशिश की गई परन्तु भीलों की समस्याओं का समाधान नहीं हुआ | दौलत सिंह व गोविन्दा के नेतृत्व में 1826 का विद्रोह 1825 ई. का समझौता स्थायी न हो सका, क्योंकि समझौते के प्रावधान भीलों की परम्परा, सामाजिक रीति-रिवाजों तथा अर्थव्यवस्था पर आघात करने वाले थे । भीलों का विद्रोह जारी रहा, अब वे लूट खसोट करने लगे ।

15.5.2 1826 के विद्रोह का कारण

ब्रिटिश अधिकारियों के अनुसार अव्यवस्था को कारण निम्नलिखित थे –

1. स्थानीय अधिकारियों का दुर्व्यवहार |

2. थाने में सिपाहियों की अनियमित नियुक्तियाँ ।

विद्रोह

1826 ई. में दौलत सिंह व गोविन्दा के नेतृत्व में भीलों ने महाराणा द्वारा बैठाये गये थानों (जवास व जूड़ा) को नष्ट कर दिया व विभिन्न स्थानों पर 250 व्यक्तियों को मार दिया । खेरवाडा के थाने को घेर लिया चूंकि महाराणा इस आन्दोलन को दबाने में असमर्थ रहा, इसलिए उसकी प्रार्थना से ब्रिटिश कप्तान कोब व बांयट सेना के साथ भील विद्रोह को दबाने गये परन्तु ब्रिटिश अधिकारी भील आन्दोलन को पूर्णतया दबाने में असफल रहे क्योंकि एक तो दौलतसिंह व गोविन्दा को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था दूसरा ब्रिटिश सेना उस क्षेत्र से अपरिचित थी ।

ब्रिटिश अभियान की असफलता के पश्चात् अंग्रेज अधिकारियों ने एक पैदल सेना व कुछ घुड़सवार सैनिक कप्तान ब्लैक के नेतृत्व में मेवाड़ की सहायता के लिए भेजे । डूंगरपुर व बाँसवाड़ा में फैली हुई अव्यवस्था व अशान्ति के कारणों का पता लगाकर अन्त में मीलों को बोलाई एकत्रित करने का अधिकार दे दिया था, जिससे इस क्षेत्र में कुछ शान्ति स्थापित हुई ।

15.5.3 महाराणा सरदार सिंह (1838-42 ई) के काल में भील विद्रोह

सरदार सिंह ने मार्च 1839 ई. में भोमट क्षेत्र से भू-लगान वसूल कर अपनी आमदनी बढ़ानी चाही, इसे भोमट के भीलों ने फिर अपनी स्वतंन्त्रता पर कुठाराघात समझा और थे विद्रोह कर उठे । भीलों ने दो थानों पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर दिया व 150 लोगों को मौत के घाट उतार दिया | महाराणा द्वारा सहायता मांगने पर ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट कर्नल राबिंसन ने मेवाड का आन्तरिक मामला बताकर सहायता से इनकार कर दिया । इधर भोमट में भीलों का उपद्रव दिन प्रतिदिन बढ़ रहा |

महाराणा नहीं चाहता था कि मुसीबत के समय में पूर्वजों का साथ देने वाली भील जाति और ज्यादा विद्रोह करें । अत: माहाराणा की और से 16 जनवरी 11840 ई. में मेहतारामसिंह ने पोलिटिकल एजेन्ट को पत्र लिखा कि -भीलों के बार-बार विद्रोह से मेवाड में अव्यवस्था फैल रही है, इसलिए किसी तरह मेवाड मील कोर की स्थापना कर दी जाए | इससे मीलों की आजीविका के साधन का भी हल होगा व भीलों में आत्म विश्वास भी बढ़ेगा |

मेवाड भील कोर की स्थापना

दक्षिणी राजस्थान में निरन्तर भील विद्रोह हो रहे थे | माहीकांठा क्षेत्र में भीलों द्वारा उत्पात मचाया जा रहा था । अत: आउद्रम ने महाराणा को एक अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में मेवाड भील कोर की स्थापना का सुझाव दिया । सन् 1838 ई. में मेवाड़ महाराणा ने मेवाड भील कोर की स्थापना की व 1841 ई. में गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी ने मेवाड़ भील कोर की स्थापना को मंजूरी प्रदान की | विलियम हंटर को उसका कमाण्डेंट बनाया गया तथा उसे खेरवाडा से अच्छे चरित्र वाले भीलों की भर्ती के ओदश दिये गये ।

इस प्रकार मेवाड भील कोर की स्थापना के बाद भीलों का विद्रोह शान्त हो गया । लेकिन विद्रोहों की घटनाओं एवं एम.बी.सी. की स्थापना ने महाराणा एवं ब्रिटिश सरकार को यह पक्का अहसास करा दिया कि मेवाड राज्य की शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए भीलों का सहयोग एएवं विश्वास प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है।

6 दिसम्बर 1871 को मेवाड महाराणा शंभूसिंह को ब्रिटिश सरकार की ओर से उदयपुर में दरबार आयोजित कर जी.सी.एस.आई. (ग्रैंड कमान्डर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया) जो उस समय का सबसे बड़ा खिताब था, से सम्मानित किया गया तथा उसके साथ महाराणा को राजचिन्ह सहित एक झंडा दिया गया । इस राज चिन्ह पर अपनी वेशभूषा में धनुष बाण लिए भील अंकित है ।

अत: भील जाति को यह सम्मान व महल तथा क्षत्रियों के बराबर स्थान देने से स्पष्ट है कि भील जाति का मेवाड की स्वतन्त्रता को कायम रखने में कितना महत्वपूर्ण स्थान है । आदिवासी भीलों को ऐसी इज्जत देना भारत के इतिहास की एक स्मरणीय एवं उल्लेखनीय घटना है ।

महाराणा सज्जन सिंह के समय (1847-1884 ई) भील विद्रोह

___ मेवाड़ भील कोर (एम.बी.सी.) की स्थापना का भीलों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा | वह जितनी ईमानदार एवं वफादार जाति थी, उतनी ही वह अपने पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह करने वाली थी । वह अपनी परम्परागत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप व अत्याचार बर्दाश्त नहीं कर सकती | अत: 1887 से 1883 ई. के बीच मेवाड के भीलों ने ब्रिटिश सरकार एवं महाराणा की प्रभुसत्ता को चुनौती दी ।

15.6 विद्रोह के कारण इस समय भीलों द्वारा किये गये विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे

1. भारतीय राज्यों में ब्रिटिश पद्धति के नवीन सुधारों ने भीलों के अनेक अधिकारों पर रोक लगा दी।

2. नागरिक अधिकारी भीलों से क्रूरतापूर्ण व अमानवीय घवहार करते व जबरन धन वसूली करते थे।

3. हकीम रघुनाथसिंह व उसके मातहत मोतीसिंह भीलों से क्रूरतापूर्ण व अन्यायपूर्ण व्यवहार करते थे । ये अधिकांश भीलों से दुगना कर व भारी जुर्माना जबरदस्ती वसूल करते थे ।

4. नवीन प्रशासनिक सुधारों ने मीलों पर नए-नए कर लगा दिये | तम्बाकू अफीम व नमक पर नए कर लगा दिये।

5. विलायती पठान भीलों को थोडे से रुपये उधार देकर उनसे कई गुना धन वसूलने लगे | कभी-कभी वे मीलों के बच्चों को छीनकर दास बना लेते थे । अत: इन अत्याचारों से तंग आकर भीलों ने विद्रोह किया ।

6. महाराणा सज्जनसिंह द्वारा सुधार लागू करना जिसके तहत निम्नलिखित सुधार कार्य किए गये (i) भीलों की जनगणना कराना । (ii) भील क्षेत्र में पुलिस, चुंगी चौकी की स्थापना | (iii) अन्धविश्वास पर नियंत्रण | (iv) मद्यपान पर रोक लगाना ।

इन सुधारों को भीलों ने अपनी स्वतन्त्रता एवं परम्परागत रीति-रिवाजो में हस्तक्षेप समझा | यह भी अफवाह फैल गई कि जनगणना के तहत मोटे पुरूष मोटी स्त्रियों को तथा छोटे पुरुष छोटी स्त्रियों को दिये जायेंगे, जिससे भीलों में उत्तेजना फैली । तात्कालिक कारण

पुलिस अत्याचार – बारापाल के थानेदार ने किसी भूमि विवाद सम्बन्धी मामले में गवाही देने के लिए पढना गाद के दो गमेतियों को बुलाने के लिए सवार भेजा था । गमेती के इनकार करने पर सवार ने उसे जबरदस्ती ले जाना चाहा तो भीलों ने उसे मार दिया । इस पर थानेदार सिपाहियों के साथ गाँव जाकर गमेती को गिरफ्तार कर थाने ले आया, जहाँ अमानवीय यातनाओं से गमेती की मृत्यु हो गई । इस घटना से भील उत्तेजित होने लगे ।

विद्रोहः

उपर्युक्त कारणों से भीलों ने विद्रोह आरम्भ कर दिया | जब थाने में हुई गमेती की मृत्यु की खबर खेरवाडा पहुँची तो वहाँ के भील भी उत्तेजित हो गये । श्यामलदास ने लिखा है कि दो चार हजार भीलों ने बारहपाल के जावद की माता गाँव के मंदिर पर इकट्ठे होकर हलफ के साथ इकरार किया कि सब इकट्ठे होकर सरकारी आदमियों का सामना करें । अत: भीलों ने बारहपाल पहुँचकर थानेदार शराब के ठेकेदार तथा कुछ और लोगों को मारकर थाना, चौकी व दुकानों में आग लगा दी । महाराणा सज्जनसिंह ने विद्रोह को दबाने के लिए सैनिक टुकड़ी भेजी किन्तु भीलों की छापामार पद्धति के आगे सैनिक टुकडी असफल रही । उसी समय अलसीगढ व पई कोटडा के भील विद्रोह कर उठे । कुछ ही समय में यह विद्रोह मेवाड भर में फैल गया | समझौता मेवाड में शान्ति स्थापित करने के लिए महाराणा ने भीलों से समझौता करने का निर्णय किया व मीलों के प्रतिनिधियों को सुरक्षा का आश्वासन दिया | महाराणा ने श्यामलदास को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया तथा भीलों के साथ उदार शर्त लागू करने को कहा | समझौते की वार्ता ऋभषदेव मन्दिर के पुजारी ‘खेमराज भण्डारी’ की मध्यस्थता में 18 अप्रेल 1882 ई. को प्रारम्भ हुई । लगभग 6-7 हजार मील ऋषभदेव मन्दिर में एकत्रित हुए । अन्तत मेवाड राज्य व भीलों के मध्य 19 अप्रैल, 1881 एक समझौता हो गया जिसमें 21 धाराएँ थी ।

मुख्य शर्त निम्नलिखत हैं – 1. भीलों के गाँव में जनगणना का कार्य नहीं किया जायेगा | 2. भील पुरुषों व स्त्रियों का वजन नहीं लिया जायेगा | 3. बडे पाल व वधुना हत्याकाण्ड के लिए उन्हें क्षमादान दिया जायेगा । 4. भील क्षेत्र में थानों की बढ़ोत्तरी नहीं की जायेगी । 5. भीलों की भूमि का मापन नहीं किया जायेगा | 6. बिना मूल्य दिये उनसे घास व लकड़ी नहीं ली जायेगी । 7. अफीम, तम्बाकू व नमक का ठेका नहीं दिया जायेगा | 8. उन तीर्थ यात्रियों से जो ऋषभदेव व श्रीनाथजी के दर्शन के लिए जा रहे हैं, पुरानी प्रथा के अनुसार भीलों को बोलाई कर लेने का अधिकार होगा । 9. राज्य के पहाडी क्षेत्र में घास व लकडी ठेके पर नहीं दी जायेगी । 10. उन भीलों को जो पिछले तीन बर्षों से जेलों में बंद है, जुर्माना देने पर छोड़ दिया जायेगा | 11. भीलों से आम व महुआ की पत्तियाँ एकत्रित करने पर किसी मी प्रकार का कर नहीं लिया जायेगा। 12. भीलों की पाल पर लगने वाला वार्षिक कर ‘आधाबराड टेक्स’ माफ कर दिया गया ।

इस तरह भीलों का व्यापक विद्रोह शान्त हुआ | यह पहला मौका था जब भीलों ने सामूहिक रूप से संगठित होकर एक साथ विद्रोह किया एवं महाराणा से सुविधाए प्राप्त की |

15.7 गोविन्द गिरि का भीलों में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार व भील आन्दोलन

भीलो में समाज सुधार का कार्य गुरु गोविन्द गिरि ने आरम्भ किया था उन्होंने मीलों के नैतिक एवं भौतिक जीवन को सामाजिक एवं धार्मिक शिक्षाओं के आधार पर सुधारने का प्रयास किया | गिरि की शिक्षाओं ने भीलों में नविन जागृति उत्पन्न की और धार्मिक व समाजिक सुधार आन्दोलन राजनीतिक व आर्थिक विद्रोह में परिणत हो गया | जीवन परिचय

___गोविन्द गिरि का जन्म 1858 ई. में डूंगरपुर के बेदसा ग्राम में एक बनजारे के घर मे हुआ | गाँव में मन्दिर के पुजारी से अक्षर ज्ञान प्राप्त किया । स्वामी दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से युवावस्था में जनजातियों की सेवा में जुट गये । गिरि ने बासिया गाँव में धूनी व निशान स्थापित किये व आसपास के भीलों को आध्यात्मिक शिक्षा देने लगे |

गिरि का आरम्भिक जीवन अपने पैतृक व्यवसाय बन्जारे के रूप में बैलों पर सामान ढोकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में बीता | इस वजह से मेवाड क्षेत्र, सिरोही, आबू पालनपुर, सन्तरामपुर, दाहोद आदि विभिन्न क्षेत्रों के सम्पर्क में आये | उन्होंने सभी जगह आदिवासियों में व्याप्त बुराइयों तथा उन पर होने वाले शोषण को देखा और उन्हें सत मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया व इसी उद्देश्य की पूर्ति में उन्होंने अपना जीवन लगाने का निश्चय किया । 15.8 गुरू गोविन्द गिरि की शिक्षाएँ

भीलों के सम्बन्ध में उनकी मुख्य शिक्षा उन्ही के शब्दो में इस प्रकार थी

“मैंने जब भीलों के मध्य रहना आरम्भ किया तब उन्हे सृष्टिकर्ता का कोई ज्ञान नहीं था | जो भील मेरे पास आए, मैंने उन्हें धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने तथा ईश्वर की आराधना करने को कहा । मैंने उनसे कहा कि वे नफरत की भावना न रखे, सभी को एक ही परमात्मा की संतान समझें व दूसरों के साथ शान्ति से रहने का प्रयास करें | वे भूत प्रेत चुडैल में विश्वास न करें । बल्कि उनको भागाने के लिए ‘धूनी व ‘निशान’ की पूजा करें । गोविन्द गिरि ने भीलों से आहान किया कि वे मांस एवं मदिरा सेवन न करे ।

गुरू गोविन्द गिरि एक कुशल एवं योग्य नेता थे । वे ज्ञानी एवं सन्त पुरुष भी थे । अपनी शिक्षा एवं लोककल्याणकारी कार्यों से शीघ्र ही भीलों में लोकप्रिय हो गये । सम्पूर्ण भील समाज उनका पर्याप्त आदर करता था और उनके द्वारा निर्देशित दिशा-निर्देश पर कार्य करता था । भीलों में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से उन्होंने 1905 ई. में सम्प सभा की स्थापना की । उन्होंने भीलों को हिन्दू धर्म के दायरे में रखने के लिए ‘भगत पंथ’ की स्थापना की । गोविन्द गिरि ने सम्प सभा के माध्यम से मेवाड, डूंगरपुर, ईडर, गुजरात, विजयनगर, और मालवा के भीलों को संगठित किया । उनमें व्यापत सामाजिक बुराईयों और कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया तथा उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों का एवंसास कराया । गोविन्द के प्रयास से आदिवासी लोग चोरी करना, मांस खाना तथा शराब पीना छोड़ रहे थे । भीलों में बढ़ती हुई जागृति से आस-पास की रियासतों में शासक सशंकित हो उठे । राज्य अधिकारी अपने क्षेत्र से गोविन्द गिरि तथा उसके पंथ को उखाड़ने का प्रयास करने लगे । भीलों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जाने लगा तथा भीलों को ‘भगतपंथ’ छोड़ने को विवश किया जाने लगा | राज्याधिकारियों के इस व्यवहार से भीलों के मन में घृणा उत्पन्न हो गई और दे राज्याधिकारियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ करने को विवश हो गये | भीलों के आदोलन के कुछ अन्य कारण भी थे | प्राचीनकाल से भील जंगल से एकत्रित वस्तुओं पर निर्वाह करते थे, किन्तु अब उन्हें कृषि कार्य के लिए विवश किया गया । अब वे सीधे अंग्रेजों, देशी राज्यों और जागीरदारों के नियंत्रण में आ गये । चूंकि भील स्वभाव से स्वतंत्रताप्रिय थे, अत: उन्होंने किसी के नियन्त्रण में रहना पसंद नहीं किया ।

राज्य व जागीदार उनसे भारी कर ले रहे थे । बटाई प्रथा के अन्तर्गत वे उनसे भारी लगान वसूलते थे । यदि वे लगान नहीं दे पाते थे तो राज्याधिकारी उनके साथ क्रूर व निर्मम व्यवहार करते थे । कृषि भूमि पर उनका कोई अधिकार नहीं था । वे सिर्फ खेती करने वाले दास थे । वे जंगली वास्तुएँ बिना कर दिए नहीं ले जा सकते थे । बैठ-बेगार प्रथा सामान्य थी । वे बिना वेतन के जागीरदार की जमीन में खेती करने, उसके मकान बनाने के लिए विवश थे । ऐसे समय में गोविन्द गिरि की शिक्षाओं ने भीलों में जागीत उत्पन्न करने व सामाजिक अन्याय के विरूद्ध उठ खड़े होने को तैयार किया ।

राज्य की दोषपूर्ण आबकारी नीति ने भीलों को उद्वेलित कर दिया | मेवाड़ क्षेत्र के भील बहुसंख्यक भाग में राजस्व का मुख्य स्रोत शराब की बिक्री थी | मीलों को देशी शराब बनाने का अधिकार लम्बे समय से प्राप्त था | वे महुआ के फूलों से शराब बनाते थे, जिसे राज्य ने अब प्रीतबन्धित कर दिया | भीलों में इससे रोष बढ़ गया दूसरी ओर सुधार आन्दोलन के प्रचार से भीलों ने शराब पीना बन्द कर दिया जिससे राज्य व ठेकेदारों को भारी नुकसान होने लगा । ऐसे समय में राज्य के ठेकेदारों द्वारा भीलों को जबरदस्ती शराब पिलाने का प्रयास किया ।

1913 ई. के भील आन्दोलन का तात्कालिक कारण गोविन्द गिरि के नेतृत्व में धार्मिक आन्दोलन एवं भगत पंथ की स्थापना था । उन्हीं के प्रयासों से राजस्थान के मेवाड़ी क्षेत्र के भील पूरी तरह संगठित हुए ।

15.8.1 भीलों का विद्रोह

गोविन्द गिरि के नेतृत्व में भील राज्य के दमन, शोषण और अत्याचार का मुकाबला करने के लिए हर प्रकार से तैयार हो रहे थे । सिरोही, बाँसवाडा, डूंगरपुर तथा उदयपुर के शासक इससे चिंतित हो उठे । उन्होंने भीलों के विद्रोह को कुचलने व शक्ति को छिन्न-भिन्न करने के हर संभव प्रयास किये, परन्तु असफल रहे । अप्रेल 1913 में डूंगरपुर राज्य ने गोविन्द गिरि को गिरफ्तार कर लिया, परन्तु तीन दिन बाद रिहा कर दिया, व डूंगरपुर राज्य से बाहर चले जाने को कहा । वे गुजरात के ईडर राज्य में चले गये ।

राज्य द्वारा किये गये अमानविय व्यवहार ने गोविन्द गिरि को भील राज्य बनाने तथा सामन्तवाद के पंजो से मुक्त होने को विवश कर दिया । वे अपने साथियों व शिष्यों के साथ मानगढ़ की पहाड़ी पर चले गये । यह स्थान बाँसवाडा में पहाड़ियों से घिरा हुआ एवं प्राकृतिक रूप से सुरक्षित था | 1903 ई. से प्रतिवर्ष इस पहाड़ी पर भीलों का वार्षिक धार्मिक सम्मेलन हुआ करता था । अत: 1913 को भीलों को मानगढ़ में एकत्रित होने के लिए चारों ओर संदेश भेजा गया । भील अपने साथ रसद एवं हथियार काफी मात्रा में ले आये । मानगढ़ के लिए चलते वक्त भील पालों को अधिकारियों के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही के लिए तैयार रहने को कह गये ।

15.8.2 मानगढ़ हत्याकांड 1913 .

नवंबर 1913 ई में मानगढ़ पहाडी पर भीलों का वार्षिक धार्मिक सम्मेलन शुरू हुआ । हजारो की संख्या में मील एकत्रित हुए । गिरि व उनके अनुयायी पहाडी पर बने चबूतरे की पूनी में हवन कर रहे थे । उसी दौरान अंग्रेजी सेना मानगढ़ पहाड़ी पर भीलों को तितर बितर करने के लिए पहुँची जिन्होंने मानगढ़ की पहाड़ी पर अन्धाधुन्ध गोलियों की बौछार शुरू कर दी । पहाडी को चारो ओर से घेर लिया गया । लगभग 1500 मील मारे गये तथा गिरि को गिरफ्तार कर लिया गया । उन्हें अहमदाबाद जेल में भेज दिया व भील आन्दोलन को निर्दयता ईक कुचल दिया गया ।

गोविन्द गिरि पर मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई । परन्तु बाद में फांसी की सजा को 20 वर्ष के कठोर कारावास में परिवर्तित कर दिया गया । किन्तु 1930 ई में इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि वे सूथ, ईडर, डूंगरपुर, बाँसवाडा, कुशलगढ़ राज्य की सीमाओं में प्रवेश नहीं करेंगे

भीलों का गुरु गोविन्द गिरि के नेतृत्व में आन्दोलन सफल नहीं हो सका किन्तु इसके दूरगामी परिणाम सिद्ध हुए । वैसे मूलत: यह धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक आन्दोलन था । लेकिन राजा, सामन्तों एंव अधिकारियों के शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने में इसने राजनीतिक रूप ले लिया । अत: यह उच्चवर्ग, जागीदार तथा अधिकारी वर्ग के विरूद्ध किया गया संघर्ष भी था । गिरि द्वारा मीलों को आत्मनिर्भरता की प्रेरणा देना, बैठ-बेगार के विरुद्ध आवाज उठाना, सामन्तों तथा अधिकारियों के विरूद्ध शोषण के विरोध में चेतना उत्पन्न करना तथा मद्यपान निषेध इत्यादि ने शासकों को विचलित कर दिया ।

इस आन्दोलन ने भीलो में चेतना जाग्रत कर दी अपने अधिकारो के प्रति सजग किया । इससे न केवल भीलो में अपितु दक्षिण राजस्थान के दूसरे समाज के लोगों में भी चेतना उत्पन्न हुई । कृषक आन्दोलन एवं स्वतंत्रता आन्दोलन को काफी प्रोत्साहन मिला |

भील आन्दोलन से चिन्तित होकर अग्रेज अधिकारियों ने राजस्थान, मध्यप्रदेश व गुजरात के भीलों की समस्याओं की जाँच की । भीलों के जंगल के अधिकारों को बहुत हद तक स्वीकार किया गया | भीलों के भू-राजस्व व बेगार में भी कमी की गई । इस प्रकार यह आन्दोलन भीलों की मुक्ति का प्रतीक बन गया | 15.9 मोतीलाल तेजावत व मील आन्दोलन

1917 ई. में मेवाड के बिजोलिया आन्दोलन से प्रेरित होकर भीलों ने पुन: आन्दोलन आरम्भ कर दिया जिसमें गरासियों ने भी भीलों का साथ दिया । दोनों ने जागीरदार द्वारा बेगार, अत्यधिक लगान, अवैध “लाग-बाग” एवं दमनकारी साधनों का विरोध किया । महाराणा ने स्थिति की जांच करने एवं करों की अधिकता को समझते हुए 16 नवम्बर, 1918 को कुछ रियायतें दी जिन्हें भीलों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया । धीरे-धीरे यह आन्दोलन मेवाड़ के समस्त भील क्षेत्र में फैल गया ।

मई, 1921 ई. में भील मेवाड राज्य के कृषको के साथ मिल गये व अपने दुःख-दर्द, बेगार, भारी कर, करों में भेदभाव, जागीरदारों का तानाशाही रवैया इत्यादि को लेकर महाराणा से मिले किन्तु उचित उत्तर न मिलने पर खालसा भूमि पर रहने वाले भीलों ने झाडोल कोलियारी मगरा व मेवाड़ के अन्य मील गांवों में भू-राजस, लागे व बेगार न देने के लिए सन्देश भेजें । अत: 8 जुलाई, 1921 ई. को मेवाड की खालसा क्षेत्र के भीलों की प्रेरणा से मादडी पट्टा के भीलों ने कर व लागबाग देने से इनकार कर दिया । ऐसे समय में भीलों को मोतीलाल तेजावत का नेतृत्व प्राप्त हुआ जिसने भीलों को किसी भी प्रकार का कर न देने का आहान किया । यही आहान एकी आन्दोलन के नाम से विख्यात हुआ क्योंकि उन्होंने सभी भील व अन्य जातियों को संगठित (एकी) करने का प्रयास किया था ।

यह प्रथम अवसर था जब समस्त भील मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में राज्य और ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध उठ खड़े हुए । भील उन्हें अपना मसीहा सम्झने लगे जो उनकी मुक्ति के लिए अवतरित हुआ है ।

15.10 मोतीलाल तेजावत का जीवन परिचय व भीलों से सम्पर्क

तेजावत का जन्म 1887 ई. के कालियारी गाँव, जिला उदयपुर में ओसवाल परिवार में हुआ । झाडोल ठिकाने में स्थानीय जागीरदार के यहाँ कामदार का कार्य करने लगे | नौकरी के दौरान उन्हें मेवाड महाराणा फतह सिंह जी के दौरे में जहाजपुर, नाहरमगरा जयसमन्द आदि स्थानों पर जाने का मौका मिला जिसमें उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि जहां महाराणा का मुकाम होता, वहां कई कोस चलकर उनका सामान घोडो, ऊँटों, बैलों पर लाद कर लोग ले जाते थे किन्तु मजदूरी में न के बराबर पैसे चुकाये जाते थे । इसी प्रकार भीलों गरासियों को कई दिन पहले पकडा जाता उनसे बेगार में काम लिया जाता किन्तु मजदूरी के नाम पर एक पाई भी नहीं चुकाई जाती थी यदि कार्य में कोई कमी रह जाती थी तो बुरी तरह पीटा जाता ।

इस प्रकार भीलों पर होने वाले जुर्म ‘मोतीलाल तेजावत’ से देखे नहीं गये फलस्वरूप ठिकाने की नौकरी छोड़ दी और चित्तौड़ जिले में सर्वप्रथम मेवाड राज्य के जुल्मों के खिलाफ एकी आन्दोलन का श्रीगणेश किया ।

15.10.1 आन्दोलन का नेतृत्व व संचालन

मोतीलाल तेजावत ने झाडोल, कोटडा मावडी के भीलों को जगीरदार द्वारा ली जाने बाली लाग न देने को प्रेरित किया । धीरे-धीरे यह आदोलन पालनपुर, दांता, ईडर, विजयनगर, आदि स्थानों में भी फैल गया । मोतीलाल तेजावत की सलाह पर भीलों ने कर देने से इनकार कर दिया । डूंगरपुर के महारावल ने यह सोचकर कि कहीं आन्दोलन उनके राज्य में भी न भडक जाए जुलाई, 1921 तक सभी प्रकार की बेगार को हटा दिया | जुलाई, 1921 के प्रथम सप्ताह में मेवाड महराणा ने भीलों व खालसा भूमि के अन्य कृषकों के लिए कुछ रियायतें घोषित की, लेकिन जागीरदारों ने किसी प्रकार की रियायत नहीं दी इसलिए आन्दोलन फैलने लगा ।

1921 ई. को मातृकुण्डिया में तेजावत के नेतृत्व में भील व किसानों का सम्मेलन हुआ जिसमें लाग-बाग, बैठ-बेगार तथा विभिन्न करों के विरूद्ध चर्चा हुई व अन्त में महाराणा को इस शोषण से अगात कराने का निश्चय किया जिसके पर्चे गाँव-गाँव पहुँचाये गये । इसका भारी असर हुआ | फलासिया गाँव में एक बैठक हुई जिसमें तेजावत ने सारी स्थिति समझाई व भीलों एवं मैदानी कृषकों में एकी की गई जिसे एकी आन्दोलन कहा जाता है । तत्सम्बन्धी सूचना आस पास के अन्य गाँवों में भेजी । इसी वर्ष जेठ में एक दूसरी बैठक बादराणा गाँव में हुई । जिसमें 700 भील व काश्तकार शामिल

तेजावत एकी आन्दोलन के प्रचार हेतु चित्तौड गये व पाण्डोली के पास बैठक हुई जिसमें आषष्ठ वि. सं. 1979 को उदयपुर में एकत्रित होने का निर्णय हुआ । अतः आषाढ़ बदी एकम को भील, कास्तकार, कृषक तेजावत के नेतृत्व में उदयपुर पहुँचे । लगभग आठ हजार भील काश्तकार पिछोला झील की पाल पर एकत्रित हुए | बैठक शुरू हुई । सभी के कष्टों को एक पुस्तक मेंलिखा गया जिसे मोतीलाल ने मेवाड की पुकार शीर्षक से तैयार की ।

मोतीलाल ने ब्रिटिश रेजीडेन्ट से मिलकर सारी शिकायतें महाराणा को बताई | महाराणा ने तीन मांगों- जंगल में बेरोक-टोक लकडी काटना, बीडों से घास काटने ब सूअरों को मारने आदि को छोड़ कर सभी माँगों को मान लिया ।

किन्तु असन्तुष्ट भील तेजावत के साथ जगदीश चौक में एकत्रित हुए जहाँ तेजावत व अन्य पंचों ने मिलकर यह घोषणा की कि महाराणा ने 21 मांगों में से 18 को मान लिया है शेष तीन माँगे -जंगल से लकडी काटना, बीड से घास काटना व सूअर मारना महाराणा ने नहीं माना है अत: मेवाड के पंच इन मांगों को मान रहे हैं । मेवाड पंचों का स्तर महाराणा से कम नहीं है । इसके बाद सभी वहाँ से वापस अपने अपने घरों में लौट गये | तेजावत ने गाँव-गाँव घूमकर एकी आन्दोलन एवं उसकी सफलता के बारे में बताया जिससे लोगों में उत्साह बढ़ा ।

वैसे अब तक यह आन्दोलन भील एवं मेवाड के मैदानी भागों के किसानों का संयुक्त रूप से था, महाराणा फतहसिंह द्वारा मांगे स्वीकारने पर मैदानी क्षेत्र के किसान सन्तुष्ट हो गये किन्तु भील लोग इससे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि यह एक स्वतंत्रताप्रिय जाति थी । उनकी मुख्य मांगे – जंगल से लकड़ी काटना, बीड़ से घास काटना, सूअर मारना महाराणा द्वारा मंजूर नहीं हुई परन्तु म्वाड पंचों ने इन माँगों को मान लिया फिर भी महाराणा के कर्मचारियों ने मेवाड़ पंचों के निर्णय को नहीं स्वीकारा व इस निर्णय के विरूद्ध भीलों का शोषण एवं अत्याचार बढ़ने लगा । अत: मोतीलाल तेजावत ने भीलों में पुन: साहस पैदा करने की नीति अपनाई इसलिए आस-पास के ठिकानेदार तेजावत से नाराज हुए । झाडोल के राजराणा ने कमाल खां सिपाही के सहयोग से तेजावत की हत्या करने का प्रयास किया परन्तु भीलों द्वारा उन्हें बचा लिया गया । हत्या के प्रयास के समाचार आग की तरह फैल गये व करीब 15 हजार भील सशस्त्र झाबोल पर बढ़ आये | उनके विरूद्ध भेजी गयी मेवाड की सेना भी कुछ नहीं कर पायी ।

इस घटना से तेजावत की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई । भीलों को लगा कि उनको अपना नेता, धणी और मसीहा मिल गया । अपने नेता की सुरक्षा का सारा भार भीलों ने स्वयं संभाल लिया । अत: तेजावत भीलों के साथ उनकी पालों-फलों व झोपड़ों में ही रहने लगे और उनके साथ रहते हुए भीलों की बुरी आदतों को छोड़ने, जागीरदारों, महाराणा एवं सेठ साहूकारों द्वारा शोषण के विरूद्ध विद्रोह करने का मानस बनाने लगे |

15.10.2 आन्दोलन का प्रसार एवं हत्या काण्ड

तेजावत का आन्दोलन मेवाड़ तक ही सीमित नही रहा अपितु राजस्थान के अन्य भागों सिरोही, डूंगरपुर, बाँसवाडा व गुजरात आदि पड़ोसी राज्यों में भी इसकी ध्वनि सुनाई पढ़ने लगी और वहाँ भी भीलों ने तेजावत को अपना नेता मान लिया । तेजावत द्वारा नीली को संगठित करने व ‘एकी आन्दोलन’ को चलाने का जो कार्य हाथ में लिया इससे मेवाड ही नहीं पड़ोसी राज्य के शासक भी सतर्क हो गये | ब्रिटिश सरकार ने भी इसका दमन करने का निश्चय किया । 7 अप्रेल, 1922 को जब तेजावत अपने 2000 अनुयायियों के साथ ईडर राज्य में पाल नामक स्थान पर ठहरा हुआ था | मेजर सटन के अधीन मेवाड मील कोर ने उन्हें घेरकर गोलियों से भूनना आरम्भ कर दिया जिससे अनेक भील मारे गये तथा अनेक घायल हुए | मई 1922 ई. में जूरा ठिकाने के तीन गांवों को जलाकर राज कर दिया गया | सिरोही व ईडर राज्यों में मोतीलाल तेजावत को पकडने के लिए इनामों की घोषणा कर दी | सिरोही में इस दमन कार्यवाही का विभत्स रूप नजर आया जहाँ 8 मई, 1922 ई. को भीलों के दो गाँवों में आग लगा दी गई व साथ ही रोहिडा तहसील में भी आदिवासियों को भून डाला | इस नृशंस हत्याकाण्ड में लगभग 1800 आदिवासी मौत के घाट सुला दिये गये । इस घटना के बाद तेजावत का आन्दोलन ठण्डा अवश्य पड गया लेकिन भीलों का महाराणा को असहयोग अवश्य जारी रहा | गुजरात में भी आदोलन का प्रमाव होने लगा | पालनपुर, दांता, बनासकांठा, रेवाकांठा आदि में भी आदिवासियों को संगठित किया जाने लगा | विजयनगर तहसील में स्थित पालतितीरया के कांड में 1200 आदिवासी शहीद हो गये ।

इस पर ब्रिटिश सरकार एवं राज्य सरकार भील आन्दोलन को कुचलने के लिए सक्रिय हुई व अन्तत: 4 जून, 1929 में तेजावत को गिरफ्तार करने का वारंट जारी हुआ अगले महीने गिरफ्तार कर मेवाड सरकार को सौंप दिया । जहाँ से उन्हें केन्द्रीय कारागार में बन्द कर दिया गया । मणीलाल कोठारी के प्रयत्नों से 23 अप्रैल, 1936 को रिहा हो गये । उसके बाद मारत छोडो आन्दोलन के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया व आजाद होने से छ: माह पूर्व रिहा कर दिया गया |

वास्तव में तेजावत आजादी के ऐसे दीवाने थे जिन्होंने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया । दिल दहला देने वाले सामंती अत्याचार का जिस प्रकार लोहा लिया आज भी कल्पना कर मन सिहर जाता है । यह कर्मठ भील नेता तो आदिवासी समाज का मोती बावजी हो गया । उन्होंने अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग ही नहीं बताया अपितु उनके नेतृत्व में भीलों में एक नई चेतना आई और उन्होंने अपनी स्वातन्त्रय भावना को बनाये रखा व अंग्रेजों से भील कभी प्रसन्न नहीं रहे वे उन्हें चमडी से गोरे किन्तु धोखेबाज मानते थे ।