राजस्थान -राजवंश


पौराणिक काल

रामायण व महाभारत काल में राजस्थान में मरू-जांगल व मत्स्य जांगल प्रदेश विद्यमान थे। जांगल के पास सपादलक्ष था।
पाण्डवों ने अपने वन प्रवास का तेरहवां वर्ष (अज्ञात वास) राजा विराट की राजधनी विराटपुर (वर्तमान बैराठ) में छद्म रूप से व्यतीत किया।
जांगलदेश की राजधनी अहिच्छत्रापुर (नागौर) थी।
महाभारत में अर्बुद प्रदेश का उल्लेख मिलता है।
रामायण में मरूकान्तार प्रदेश का उल्लेख मिलता है।

जनपद युग (300 ई.पू. से 200 ई.)

राजस्थान में आर्यों के आक्रमण के बाद अनेक जनपद स्थापित हुए।
चौथी शताब्दी ई.पू. में मालव, अर्जुनामन एवं यौध्ेयों का प्रमुख था।
प्रमुख जनपदों में भरतपुर का राजन्य, जयपुर का मत्स्य, चित्तौड़ का शिवि एवं अलवर का साल्व प्रमुख है।
अर्जुनायन तथा योद्धेय जनपद राजस्थान के उत्तर भाग में पाये जाते है।

मौर्ययुग

राजस्थान में मौर्य सम्राट अशोक के दो अभिलेख बैराठ से प्राप्त हुए। इसमें त्रिरत्न अभिलेख (बुद्व, ध्म्म संघ) महत्वपूर्ण है।
कणसवा गांव (कोटा) अभिलेख (738 ई.) से ज्ञात होता है, कि वह मौर्य शासक ध्वल का राज्य था।
मौर्यवंशी राजा चित्रांगद मौर्य ने चित्तौड़गढ़ की स्थापना की जिसके मौर्यवंशी राजा ‘मानमोरी’ को हराकर बप्पा रावल ने चित्तौड़गढ़ जीता। (734 ई.)
यवन शासक मिनाण्डर ने 150 ई.पू. में माध्यमिका (नगरी) को जीता था।
राजस्थान में नलियासर, बैराठ व नगरी से यूनानी राजाओं के सिक्के मिले।

गुप्तकाल

गुप्तों के उदय से पूर्व राजस्थान पर विदेशी शकों का शासन था। रूद्रदामन द्वितीय यहां का महाक्षत्राप था।
समुद्रगुप्त ने रूद्रदामन द्वितीय को हराकर दक्षिणी राजस्थान को अपने साम्राज्य में मिलाया (351 ई. में)
राजस्थान में गुप्तकाल की प्रतिमाएं अमझेरा (डूँगरपुर), कल्याणपुर व जगत (उदयपुर), आम्बानेरी (जयपुर), मण्डोर, ओसियाँ (जोधपुर), नीलकण्ठ, सेचली (अलवर) से प्राप्त हुई है।

हुणों के आक्रमण

हुण राजा तोरमाण ने 503 ई. में गुप्त राजाओं को हराकर राजस्थान में अपना राज्य स्थापित किया था।
तोरमाण के पुत्रा मिहिरकुल ने छठी शताब्दी मे बाड़ोली (चित्तौड़गढ़) में एक शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था।
मेवाड़ के गुहिल शासक अल्लट (आलुराव) ने हुण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया।

वर्धन युग

राज्य में हुण सत्ता के पतन के पश्चात् सातवीं सदी मे गुर्जरों ने अपना राज्य स्थापित किया। गुर्जरों की राजधनी भीनमाल (जालौर) थी, जिसका प्राचीन नाम श्रीमाल था।
प्रभाकर वर्धन ने गुर्जरों की सत्ता समाप्त कर राजस्थान में वर्धन राज्य स्थापित किया।
. प्रभाकर वर्ध्न के पुत्र हर्षवर्ध्न के साम्राज्य में राजस्थान के अधिकांश भाग शामिल थे, जो प्रायः अर्ध स्वतंत्रा थे। जिनमें जांगल प्रदेश (बीकानेर) कोटा क्षेत्र, भीनमाल आदि आते थे।
हर्ष की मृत्यु के पश्चात् प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम (750-780) ने उसकी राजधनी कन्नौज को जीतकर अपने
राज्य में मिलाया तथा उसने सिंध् के मुसलमानों को भी हराया।

राजपूत युग

हर्ष की मृत्यु (647 ई.) के पश्चात् राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में राजपूत की सत्ता स्थापित हुई। सातवीं सदी से बाहरवीं सदी इतिहास में राजपूत काल के नाम से जानी जाती है।
राजपूतों की उत्पति के विषय में अनेक मत प्रचलित है। अतः यह प्रश्न विवादास्पद है। राजपूत शब्द की उत्पति राष्ट्रकूट से हुई।

राजपूतों की उत्पति से संबंध्ति प्रमुख रूप से चार सिधान्त प्रचलित है-

अग्निकुण्ड से उत्पति : इस मत का उल्लेख चंदबरदायी रचित ‘पृथ्वीराज रासों’ में मिलता है। चंदबरदायी के अनुसार मुनि वशिष्ट ने आबू पर्वत पर यज्ञ से चार योधाओं-प्रतिहार, परमार, चौहान, चालुक्य (सोलंकी) को उत्पन्न किया, जिनके चार प्रमुख वंश उत्पन्न हुए। मुहणोत नैणसी व सूर्यमल्ल मिश्रण ने भी इस मत का समर्थन किया।


विदेशी उत्पति सिधान्त : कर्नल जेम्स टॉड, वी.ए. स्मिथ, विलियम क्रुक इसके समर्थक है। इनके अनुसार राजपूत विदेशी जातियों जैसे शकों, पह्लवों व हुणों के वंश है।

प्राचीन क्षत्रियों से उत्पति : इस मत के अनुसार राजपूत सूर्य व चन्द्र वंशीय हैं इस मत के प्रमुख प्रतिपादक डॉ. गौरीशंकर हीराचंद औझा थे। इनके अनुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की संतान है।

मिश्रित उत्पति सिधान्त : डॉ. डी.पी. चटर्जी ;चट्टोपाध्यायद्ध इस मत के प्रमुख प्रतिपादक है। अनेक विद्वान, राजपूतों की उत्पति विदेशी जातियों से होने के साथ-साथ प्राचीन क्षत्रियों की संतान होना भी मानते है तथा ब्राह्मण वंश से भी इनकी उत्पति मानते है।

प्रारम्भिक राजपूत वंश

मारवाड़ – प्रतिहार व राठौड़
मेवाड़ – गुहिल/सिसोदिया
सांभर – चौहान
अजमेर – चौहान
रणथम्भौर – चौहान
जालौर – सोनगरा चौहान
प्रारम्भिक राजपूत वंश
सिरोही – देवड़ा चौहान
हाड़ा चौहान – हाड़ा चौहान
हाड़ौती – झाला चौहान
भीनमाल व आबू – चावड़ा ;चौहानद्ध
आमेर – कछवाहा
जैसलमेर – भाटी

गुर्जर-प्रतिहार

यह वंश अग्निकुण्ड से उत्पन्न चार वंशों (प्रतिहार, परमार, चालुक्य, चौहान) में शामिल है।
आठवीं से दशवीं शताब्दी तक राजस्थान में शासन करने वालें वंशों में प्रतिहार सबसे महत्वपूर्ण वंश था।
उस समय राजस्थान या राजपूताना नाम की कोई राजनैतिक ईकाई विद्यमान नहीं थी तथा सम्पूर्ण प्रदेश गुर्जरत्रा ‘गुर्जर’ नाम से जाना जाता थ। अतः इस क्षेत्रा का स्वामी होने के कारण कालान्तर में ये गुर्जर -प्रतिहार कहलाये। गुर्जर प्रतिहारों का मूल स्थान उज्जैन माना जाता है।
मुहणोत नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया है। जिनमें मण्डोर के शाखा तथा दूसरी भीनमाल की शाखा।

मंडोर के प्रतिहार
मंडोर प्रतिहार वंश के संस्थापक राजा हरिशचन्द्र थे। जिनके वंशजों ने मण्डोर पर शासन किया।
हरिश्चन्द्र की क्षत्रिय पत्नी से चार पुत्रा-रज्जिल, भोगभट्ट, कक्क व दद्द उत्पन्न हुए।
रज्जिल के पुत्रा नरभट्ट ने पेल्लोपेल्लि विरुध धरण किया।
नरभट्ट के पुत्रा नागभट्ट ने मंडोर के स्थान पर मेदन्तक (मेड़ता) को अपनी राजधनी बनाया।
कक्क के प्रतापी एवं विद्वान राजा था।
कक्क के पश्चात बाउक राजा बना।
बाउक के बाद उसका सौतेला भाई कक्कुक मंडोर के प्रतिहारों का शासक बना।
कक्कुक के उत्तराध्किरियों के बारे में हमें कोई जानकारी उपलब्ध् नही हैं। संभव है, वे लोब सुल्तान इल्तुतमिश के समय तक मंडोर के स्वामी बने रहे थे।
1395 ई. में इन्दा प्रतिहार सामन्त उगम सी ने राजा हम्मीद से परेशान होकर राठौर वीरम के पुत्रा राव चुड़ा को मंडोर का दुर्ग दहेज में दिया।
‘‘इंदा तणो उपकार कमध्ज कदै न बिसरे।
चूड़े चंवरी चाड़ दियो मंडावर दायजे।।’’
इस घटना के साथ ही प्रतिहारों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, तथा ध्ीरे-ध्ीरे समूचा मारवाड़ राठौड़ों के अधिकार में चला जाता है

भीनमाल (जालौर) के प्रतिहार

इस शाखा का प्रर्वतक नागभट्ट प्रथम था।
नागभटट प्रथम (750-780 ई.)-
नागभट्ट प्रथम ने संभवतः भीनमाल के चावड़ा शासकों के अध्ीन रहते हुए अरबों (जनैद सेनापति) से युद्ध किया था।
नागभटट् प्रथम ने अपनी राजधनी जाबालीपुर (जालौर) में स्थापित की राष्ट्रकूट अमोघवर्ष के संजन ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है, कि उज्जैन मे हुए हिरण्यर्मदान समारोह (राष्ट्रपति-दंतिदुर्ग का महादान) में वह प्रतिहारी के रूप में उपस्थित था।

वत्सराज (780-805)-

वत्सराज को ‘रणहस्तिन’ कहा गया है। उसके समय कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष (पाल, प्रतिहार, राष्ट्रकूट) प्रारम्भ होता है।
उसने कन्नौज के इन्द्रायु( एवं बंगाल (गौड़) के मुद्गागिरी-(मुंगेर) के यु( में र्ध्मपाल को हराया।
चौहान दुर्लभराज उसका सामन्त था। वह राष्ट्रकूट शासक ध्रुव (धरावर्ष) से परास्त हुआ।
वत्सराज को प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है।
नागभटट द्वितीय (805-833)-
वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभटट द्वितीय ग्ददी पर बैठा।
इसे नागावलोक भी कहते है। उसने कान्यकुब्ज (कन्नौज) पर अधिकार कर उसे प्रतिहार सम्राज्य की राजधनी बनाया।
उसने कन्नौज के चक्रायुध को हराया। ग्वालियर अभिलेख के अनुसार उसने तुरूश्कों (मुसलमानों) को पराजित किया। अंतिम दिनों में राष्ट्रकूटों के भय से नाग द्वितीय ने गंगा में जल समाधि् ली थी।
मिहिर भोज प्रथम (836-885)
वह इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था। ‘मिहिर’ एवं ‘प्रभास’ उसकी उपाध्यिॉं है।
भोज प्रथम मिहिरभोज की उपाधि् आदिवराह (ग्वालियर अभिलेख) थी।
वह परम भागवत् भक्त था। वह विष्णु का उपासक था।
कल्हण एवं अरबी यात्रा सुलेमान (जो इस काल में भारत आया) के विवरण से भी इसकी जानकारी मिलती है।
भोज ने कन्नौज को पुनः प्राप्त कर उसे प्रतिहारों की राजधनी बनाया। (रामभद्र के काल में यह प्रतिहारों के हाथ से निकल गया था) उसने राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय को हराकर मालवा प्राप्त किया।
सुलेमान ने भोज को अरबों का सबसे बड़ा शत्र बताया। भोज ने आदिवराह द्रम्म नामक सिक्का चलाया तथा उसके एक तरफ वराह की आकृति अंकित करवायी। मिहिरभोज पाल देवपाल एवं राष्ट्रकूट ध्रुव से पराजित हुआ था।
महेन्द्रपाल प्रथम –
मिहिरभोज के पश्चात उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम (835-95) शासक बना लेखों में उसे परमभटटारक, महाराजध्रिज, परमेश्वर कहा गया है।
उसकी सभा में प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करता था, जो उसका राजगुरू था।
राजशेखर ने कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, वि(शालभंजिका, बालभारत, बालरामायण, भुवकोश, हरविलास एवं प्रचण्ड पाण्डव जैसे ग्रन्थों की रचना की।
कर्पुरमंजरी प्राकृत भाषा में तथा अन्य ग्रन्थ संस्कृत भाषा में रचित है।
महेन्द्रपाल के शासन काल में राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्ट्रियों से प्रतिहार साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई।
महिपाल प्रथम-
महिपाल (912-943) एक कुशल एवं प्रतापी शासक था, उसके शासन काल में बगदाद निवासी अल मसूदी गुजरात आया। क्षेमेश्वर ने अपने ग्रन्थ चण्डकोशिकम् में महिपाल की विजयों का उललेख किया।
अलमसूदी गुर्जर प्रतिहारों को ‘अल गूजर’ (गुर्जर का अपभ्रंश ) और राजा को ‘बौरा’ कहकर पुकारता था, जो संभवत आदिवराह का अशुद्ध उच्चारण है।
राजशेखर महिपाल का भी राजगुरू था। उसने महिपाल प्रथम को रघुवंश मृकुटमणि’ तथा रघुकुल मुक्तामणि’ कहा। उसने उसे आर्यवर्त का महाराजध्रिज भी कहा। महिपाल प्रथम के बाद प्रतिहार साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो जाता है। ह्वेनसांग ने गूर्जर राज्य को पश्चिम भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य कहा।
इस वंश का अंतिम शासक यशपाल (1036) था।
अलमसूदी, सुलेमान, अबूजैद आदि अरब यात्रियों ने गूर्जर प्रतिहारों को जुज कहा।
सुलेमान-‘‘मिहिरभोज के पास विशाल अश्वसेना है और वह इस्लाम का बड़ा शत्र है। उसका साम्राज्य समृद्ध हे, जिसमें सोने-चाँदी की बहुत सी खानें है। राज्य चोरी-डकैती से मुक्त है।‘‘9वीं सदी में भारत आने वाला अरब यात्रा सुलेमान पाल एवं प्रतिहार शासकों (मिहिरभोज) के तात्कालीन आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक स्थिति का वर्णन करता है।

मेवाड़ का गुहिल/सिसौदिया वंश

मेवाड़ को प्राचीन काल में शिवि, प्राग्वाट, मेदपाट कहा गया है।

गुहिल वंश को गुहिलोत, गोहिल्य, गोहिल, गोमिल भी कहा गया है। मेवाड़ का राजवंश विश्व के सबसे प्राचीन राजवंशों में शामिल है। मेवाड़ के महाराणा ‘हिन्दुआ सूरज’ कहलाते थे। मेवाड़ के राज्य चिह्न में राजपूत व्यक्ति के साथ एक भील सरदार का चित्र अंकित है।

गुहिल

गुहिल या गुहादित्य गुहिल वंश का संस्थापक था।

भगवान राज के पुत्र कुश व वंशज माना जाने वाला गुहिल आनन्दपुर (गुजरात) का निवासी था।

गुहिल ने 565ई. में नागदा (उदयपुर) को अपनी राजधनी बनाकर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

इनके पिता का नाम शिलादित्य एवं माता का नाम पुष्पवती था।

बप्पा रावल या काल भोज (734-753 ई.)

बप्पा का मूल नाम कालभोज था तथा ‘बप्पा’ इसकी उपाधि् थी।

बप्पा रावल महेन्द्र द्वितीय का पुत्र था।

हारित ऋषि के शिष्य बापा रावल ने 734 ई. में मार्य राजा मान मोरी से चित्तौड़ दुर्ग जीता।

बप्पा रावल ने कैलाशपुरी में एकलिंग मंदिर का निर्माण करवाया। बापा रावल भगवान एकलिंग नाथ को अपना कुलदेवता मानता था।

बप्पा ने सोने के सिक्के चलाए थे।

एकलिंग जी के पास इनकी समाधि् ‘बप्पा रावल’ नाम से प्रसिद्ध है।

इतिहासकार सी. वी. वैध् ने बप्पा का ‘ ‘चाल्स र् मार्टल’ कहा ह।ै

अल्लट (आलूराव)

बप्पा रावल के वंशज अल्लट (आलूराव) के समय मेवाड़ में बड़ी उन्नति हुई।

उसने आहड़ को अपनी दूसरी राजधनी बनाया।

उसने मेवाड़ ने सर्वप्रथम नौकरशाही का गठन किया।

उसने हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया।

क्षेमसिंह

गुहिल शासक क्षेमसिंह ;रणसिंहद्ध ने मेवाड़ की रावल शाखा को जन्म दिया।

जेत्रसिंह (1213-53 ई.)

तुर्क शासक इल्तुतमिश के नागदा आक्रमण (1222-29 ई.) का सफल प्रतिरोध् किया।

जयसिंह सूरी के नाटक हम्मीर मान-मर्दन में इसका वर्णन मिलता है।

इन्होंने नागदा के स्थान पर चित्तौड़ को मेवाड़ की राजधनी बनाया।

सन् 1248 ई. में सुल्तान नासिरूददीन महमूद ने मेवाड़ पर आक्रमण किया किन्तु उसे जैत्रासिंह ने हराया।

जत्रासिंह के वंशज कुम्भकरण ने नेपाल में इस वंश की नींव डाली।

तेजसिंह (1253-1267 ई.)-

तेजसिंह ने महाराजध्रिज, परमेश्वर व परमभट्टारक उपलब्धियां धरण की।

उसके शासन काल में ‘श्रावक प्रतिक्रमण सुत्राचुर्णी’ पुस्तक की रचना की गयी थी।

रतनसिंह (1302-1303ई.)

1303 ई. में समरसिंह का पुत्र रतनसिंह चित्तौड़ का शासक बना, जो सन् 1303 ई. में अलाउददीन खिलजी के आक्रमण के समय लड़ते हुए शहीद हुआ।

राजा रतनसिंह की रानी पद्मिनी के जौहर की गाथा विश्व प्रसिद्ध है।

गौरा-बादल रत्नसिंह के सेनापति थे।

रतनसिंह की मृत्यु के साथ रावल शाखा समाप्त हो गई।

उनके समय चित्तौड़ का प्रथम साका (26 अगस्त 1303 ई.) हुआ था।

अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का राज्य अपने पुत्र खिज्र खां को सौंपकर उसका नाम खिज्राबाद रखा।

इस युद्ध (1303 ई.) में इतिहासकार अमीर खुसरों उपस्थित था। अलाउद्दीन के आक्रमण के कारणों में उसकी महत्वाकांक्षा, चित्तौड़ की महत्वूपर्ण भागौलिक स्थिति एवं रानी पद्मिनी को प्राप्त करना प्रमुख था।

हम्मीर (1326-64 ई.) सिसोदा गांव का जागीरदार तथा राणा अरिसिंह का पुत्र था।

गुहिल वंश को एक शासक रणसिंह के पुत्र राहुप ने सिसौदा में राणा शाखा की नींव रखी। मालदेव सोनगरा एवं उसके पुत्र जैसा (जालौर) को हराकर उसने चित्तौड़ को पुनः जीता था।

हम्मीर सिसोदिया वंश का संस्थापक तथा मेवाड़ का उधारक माना जाता है।

हम्मीर को कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में वीर राजा व विषमघाटी पंचानन (विकट आक्रमणों में सिंह के समान) कहा गया है।

हम्मीर ने चित्तौड़ में बरवड़ी माता का भव्य मंदिर बनाया जो आज अन्नपूर्णा मंदिर के नाम से विद्यमान है।

क्षेत्रसिंह (1364-1382 ई.)

हम्मीर के पश्चात उसका पुत्र खेता उर्फ क्षेत्रसिंह मेवाड़ का शासक बना।

लाखा (लक्षसिंह) (1382-1421 ई.)

क्षेत्रसिंह के पश्चात उसका पुत्र लाखा मेवाड़ शासक बना।

इनके काल में जावर में चांदी की खानों का पता चला।

इनके काल में एक बंजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया।

लाखा ने मारवाड़ के शासक राव चूड़ा की पुत्र हंसाबाई से विवाह किया था।

कुंवर चूंडा

चूंडा राणा लाखा का बड़ा पुत्र था। जिसे राजपूताने का भीष्म कहा जाता है।

जब मारवाड़ के राव चूड़ा की पुत्र हॅंसाबाई का विवाह मेवाड़ के राणा लाखा के साथ कर दिया गया एवं उसके पुत्र मोकल को उत्तराध्किरी बनाने का पश्चिम किया गया तब चूंडा ने मेवाड़ से आजीवन निर्वासन पालन का व्रत कर लिया।

मोकल (1421-1433ई.)

राणा लाखा का हंसाबाई से उत्पन्न पुत्र था। छोटी अवस्था होने के कारण मेवाड़ का राज काज इनके मामा रणमल (मारवाड़) के सहायोग से चला गया।

मोकल ने सम्सिधेस्वर मंदिर का जीर्णोद्वार करवाया था।

मोकल की हत्या चाचा, मेरा तथा महपा पंवार द्वारा की गयी।

कुम्भा या कुम्भकर्ण (1433-68 ई.)

कुम्भा मोकल का ज्येष्ठ पुत्र था, उसकी माता का नाम सौभाग्य देवी था।

कुम्भा मेवाड़ का महानतम शासक था।

कुम्भा की उपलब्धियां – अभिनव भरताचार्य, हिन्दु सुरताण, छापगुरू, दानगुरू, शैलगुरू, राजगुरू, टोडरमल, हाल गुरू (गिरी, दुर्गा का स्वामी), राणों रासों (विद्वानों का आश्रय दाता)।

कुम्भा के काम में गुजरात के पांच शासकों ने उससे युद्ध किया किन्तु सदैव कुम्भा ही विजय हुआ।

उसने सारंगपुर के प्रसिद्ध युद्ध (1437 ई.) मे मालवा (राजधनी-मांडू) के महमूद खिलजी प्रथम को हराया। इस विजय के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ (चित्तौड़ 122 फुट, 9 मंजिलो) का निर्माण कराया। इसे भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष तथा ‘हिन्दू-देवताओं का अजायबघर’ कहा जाता है।

विजय स्तम्भ के शिल्पी जैता एवं उसके पुत्र नाथा, पूजा, पोमा थे।

विजय स्तम्भ के मुख्य द्वार पर विष्णु की प्रतिमा होने के कारण इसे विष्णु ध्वज स्तम्भ कहते है। इसे कीर्तिस्तम्भ भी कहा जाता है।

कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति का लेखक कवि अत्रि भट्ट व उसका पुत्र महेश भटट था।

चम्पानेर (गुजरात) की सन्धि् (1456)-यह सन्धि् मालवा के महमूद खिलजी प्रथम व गुजरात के कुतुबद्दीन के बीच हुई। जिसकी अनुसार कुम्भा को हराकर उसके राज्य को आपस में बाँट लेना था।, किन्तु दोनों कुम्भा को हरा नहीं पाये थे।

रणकपुर मंदिर का निर्माण पोरवाल जैन श्रावक ध्रणकशाह था। इसका प्रधन शिल्पी दैपाक था।

कुम्भा ने मेवाड़ की रक्षा पंक्ति के कुल 84 दुर्गों में से कुम्भलगढ़, अचलगढ़ (आबू पर्वत), बसन्ती दुर्ग, मचान दुर्ग, बदनोर, दुर्ग, भोराट दुर्ग (सिरोही) सहित 32 दुर्गों का निर्माण करवाया।

कुम्भा ने कुम्भास्वामी मंदिर, एकलिंगजी मंदिर श्रृंगार गारै ी मंदिर तथा चित्तौड़ दुर्ग का पुनः निर्माण करवाया तथा कैलाशपुरी में विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया।

महाराणा कुंभा ने बदनोर (भीलवाड़ा) में कुशलामाता के मंदिर का निर्माण करवाया।

कान्ह व्यास द्वारा रचित एकलिंग-माहात्म्य पुस्तक का प्रथम भाग ‘राजवर्णन’ स्वयं कुम्भा द्वारा लिखा।

राणा कुम्भा ने संगीत राज, संगीत मीमांसा, रसिक प्रिया (जयदेव रचित गीतगोविन्द पर टीका), कामराज-रतिसार, सुध-प्रबन्ध् आदि पुस्तकों की रचना की। उसने संगीतरत्नाकर व चण्डी शतक पर टीका लिखी।

कुम्भा ने प्रसिद्ध वास्तुकार मण्डन को आश्रय दिया।

जैनाचार्य हीरानन्द कुम्भा के गुरू थे। तथा सारंग व्यास कुम्भा के संगीत गुरू थे।

मण्डन ने वास्तुशास्त्र, प्रासाद-मण्डल, देवमूर्ति -प्रकरण, वास्तुआर, कोदंड मण्डन, शकुनमण्डन, रूप मण्डन

(रूपावतार), वास्तुमण्डन, राजवल्लभ आदि पुस्तके लिखी।

कुम्भा की हत्या उसके पुत्र उदा (उदयकरण) ने 1468 में की।

राणा सांगा/संग्राम सिंह (1509-28 ई.)

राणा सांगा रायसिंह या रायमल का पुत्र था। इनकी माता का नाम रतन कुंवरी था।

सांगा मेवाड़ का सबसे प्रतापी शासक था, जो हिन्दुपत कहलाता था।

राणा सांगा को ‘सि नकों का भग्नावशेष’ कहत े ह।ै

कर्नट टॉड के अनुसार सांगा के दरबार में 7 राजा, 9 राव, 104 सरदार बैठते थे।

सन् 1519 में को गागरोन (झालावाड़) युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी द्वितीय को हराकर बंदी बनाया फिर रिहा किया।

प्रसिद्ध भक्त कवयित्रा मीरा, सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज की पत्नी थी।

सांगा ने खातोली (बूंदी) के युद्ध (1517 ई.) व बाड़ी (धैलपुर) के युद्ध (1518 ई.) में दिल्ली के अफगाना शासक इब्राहीम लोदी को हराया।

फरवरी 1527 ई. को बाबर तथा राणा सांगा के बीच खानवा का युद्ध लड़ा गया जिसमें सांग विजयी रहे।

ऐतिहासिक खानवा के युद्ध (17 मार्च, 1527 ई.) में सांगा मुगल शासक बाबर से हारा।

30 जनवरी, 1528 को कालपी में सरदारों द्वारा विष दिये जाने के कारण सांगा की मृत्यु हुई। माण्डलगढ़ में सांगा का अंतिम संस्कार किया गया।

सांगा वह अंतिम हिन्दू राजा था, जिसके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियाँ विदेशियों को भारत से बाहर निकालने के लिए सम्मिलित हुई थी।

विक्रमादित्य (1531-1536 ई.)

राणा सांगा का अल्पवयस्क पुत्र ।

माता का नाम हाडारानी कर्णावती अथवा कमलावती।

माता कमलावती ने संरक्षिका के रूप में कार्य किया।

कर्णावती ने बहादुरशाह ;गुजरातद्ध के आक्रमण के समय (1533 ई. में) हुमायुं को सहायता हेतु राखी भेजी लेकिन हुमांयु ने सहायक नहीं की।

सन् 1534 में बहादुरशाह ने पुनः चित्तौड़ पर आक्रमण किया।

उस समय कर्णावती ने अपने पुत्र विक्रमादित्य एवं उदयसिंह को उनके ननिहाल बूंदी भेज दिया था। इस युद्ध में चित्तौड़ की सेना का नेतृत्व देवलिया के रावत बाघ सिंह ने किया। रानी कर्णावती ने जौहर किया। यह चित्तौड़ का दूसरा साका कहलाता है।

बनवीर (1536-37 ई.)

बनवीर सांगा के भाई पृथ्वीराज का अनौरस (दासी) पुत्र था।

बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर दी।

पन्नाधयने अपने पुत्र चन्दन का बलिदान देकर राजकुमार उदयसिंह की रक्षा की।

राणा उदयसिंह द्वितीय (1537-72 ई.)

उदयसिंह द्वितीय सन् 1537 में मालदेव (मारवाड़) की सहायता से मेवाड़ का शासक बना।

सन् 1544 में शेरशाह के चित्तौड़ आक्रमण के समय उसने अध्ीनता स्वीकार कर सन्धि् कर ली।

सन् 1567-68 में अकबर द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण के समय उसने किले की रक्षा का भार जयमल राठौड़ (मेड़ता निवासी व बदनोर का जागीरदार) व पफतहसिंह सिसोदिया उर्फ र्फत्ता (आमेट का सामान्त) को सौंपकर अरावली पहाड़ियों में प्रस्थान किया।

सन् 1568 में अकबर ने चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया। इस युद्ध में जयमल व फत्ता शहीद हुए। पफूलकंवर के नेतृत्व में जौहर हुआ। यह चित्तौड का तीसरा साका कहलाता है।

अकबर ने जयमल व फत्ता की वीरता से प्रभावित होकर आगरे के किले के दरवाजे पर इनकी पाषाण मूर्तियाँ स्थापित करवायी।

प्रसिद्ध लोकदेवता कल्लाजी राठौड़ भी इसी युद्ध में शहीद हुए थे।

गोगुन्दा में 1572 ई. उदयसिंह की मृत्यु हुई एवं वहीं इनकी छतरी बनी हुई है।

राणा उदयसिंह ने अपनी रानी भटियाणी पुत्र जगमाल को अपना उत्तराध्किरी बनाया।

अखैराज सोनगरा जो प्रताप के नाना थे, जिन्होंने जगमाल को हटाकर प्रताप को गद्दी पर बैठाया। सलूम्बर के सरदार

कृष्णदास चुंडावत ने प्रताप के कमरे में राजकीय तलवार बांध्ी।

महाराणा प्रताप (1572-97 ई.)

उदयसिंह व जयवन्ता बाई के पुत्र प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. कुम्भंलगढ़ दुर्ग में हुआ।

इनको 26 फरवरी, 1572 ई. को गोगुन्दा में सिंहासन पर बिठाया गया।

प्रताप का राज्यभिषेक समारोह कुम्भलगढ़ में किया गया।

प्रताप को मेवाड़ केसरी, हल्दीघाटी का शेर, राणा कीका (छोटा बच्चा) व पाथल के नाम से भी जाना जाता है।

महाराणा प्रताप अकबर की अध्ीनता स्वीकार कराने के लिए अनेक मुगल दूत आये उनमें जलाल खॉं कोरची (1572 ई.) मानसिंह (1572), भगवानदास (1573 ई.) टोडमरल (1573 ई.) प्रमुख थे।

हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून, 1576 को महाराणा प्रताप एवं अकबर की सैना के बीच लड़ा गया जिसमें महाराणा प्रताप की पराजय हुई।

हल्दीघाटी युद्ध को कर्नल टॉड ने ‘‘मेवाड़ की थर्मोपल्ली’’ कहा।

अबुल पफजल ने हल्दीघाटी के युद्ध को ‘‘खमनौर का युद्ध’’ कहा।

बदायुनी ने हल्दीघाटी के युद्धों को ‘‘गोगुन्दा का युद्ध’’ कहा।

हल्दीघाटी के युद्ध में विख्यात मुगल लेखक बंदायुनी भी उपस्थित था। उसने अपनी पुस्तक मुतखाब-उत-तवारिख’ में इस युद्ध का वर्णन किया।

हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात अकबर ने मेवाड़ में चार प्रमुख थाने स्थापित करवाये जो मेवाड़ के चारों ओर स्थित थे वे डूंगरपुर की घाटियों में ‘देवल’, उदयपुर में दोबारी, पानी में देसूरी व अजमेर में दिवेर थे।

हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप के हरावल दस्ते में अफगान हकीम खाँ सूर, राणा पूँजा भील, रामसिंह तंवर (ग्वालियर) शमिल थे।

महाराणा प्रताप का मुस्लिम सैनापति ‘‘हकिम खां सूर’’ था।

हकीम खां सूर का मकबरा खमनोर (राजसमंद) में स्थित है।

प्रताप के अश्व का नाम चेतक था।

हल्दी घाटी के पास चेतक स्मारक बना हुआ है।

प्रताप के हाथी का नाम ‘रामप्रसाद’ था। हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात मानसिंह कछवाह ने इसे अकबर को भेंट किया।

अकबर ने इस हाथी का नाम ‘पीरप्रसाद’ रखा।

कुम्भलगढ़ का युद्ध (1578 ई.)- इस युद्ध में मुगल सेनापति शाहवाज खॉ ने महाराणा प्रताप को हराया।

प्रताप ने अपनी राजधनी गोगुन्दा से कैलवाड़ा बनाई फिर चावण्ड में स्थानांतरित की।

दिवेर के युद्ध (1582 ई.)- में प्रताप ने अकबर के चाचा व मुगल सेनापति सुल्तान खां को हराया यहाँ इनके पुत्र अमरसिंह ने अद्भूत वीरता प्रदर्शित की। दिवेर युद्ध के बाद में ही प्रताप की विजयों का पुनः श्री गणेश माना जाता है। दिवेर के युद्ध को कर्नल टॉड ने ‘मेवाड का मेराथन’ कहा। वास्तविक

मेराथन का युद्ध (490 बी.सी.) में हुआ जिसमें एथेस वासियों ने ईरानियों (दारा अथवा डेरियस) को हराया।

सन् 1585 से 1615 ई. तक चावण्ड मेवाड़ की राजधनी रही। यही 19 जनवरी, 1597 को प्रताप का 57वर्ष की आयु में देहान्त हो गया।

चावण्ड मेवाड़ की संकटकालीन राजधनी रही थी।

बाण्डोली गांव में प्रताप की 8 खम्भों वाली छतरी बनी हुई है, जिसका निर्माण अमर सिंह ने करवाया।

महाराणा अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ई.)

अमरसिंह प्रथम महाराणा प्रताप के पुत्र थे। प्रताप के देहान्त के बाद चावण्ड में उनका राज्याभिषेक हुआ।

सन् 1615 ई. में जहांगीर की अनुमति से खुर्रम व अमरसिंह के बीच सन्धि् हुई जिसे मुगल-मेवाड़ सन्धि् के नाम से जाना जाता है। इसके द्वारा मेवाड़ ने भी मुगलों की अध्ीनता स्वीकाय कर ली। संधि् से मुगल-मेवाड़ संघर्ष का अंत हुआ।

कला व साहित्य में प्रगति के कारण अमरसिंह का काल ‘राजपूत काल का अभ्युदय’ कहा जाता है।

26 जनवरी, 1620 ई. को उदयपुर में अमरसिंह का देहान्त हो गया। उनका अंतिम संस्कार आहड़ के निकट गंगोद्भव के पास किया गया।

महाराणा अमरसिंह प्रथम के बाद सभी महाराणाओं की छतरीयां गंगों गांव में बनाई गयी।

महाराणा कर्णसिंह (1620-28 ई.)

अमरसिंह प्रथम के पुत्र।

जहांगीर के विरुध विद्रोह करने वाला इसका पुत्र खुर्रम इनके पास भी आया था। वह देलवाड़ा की हवेली व जगमंदिर में रहा।

कर्णसिंह ने ही पिछोला झील में जगमंदिर महलों को बनवाना शुरू किया, जिसे उसके पुत्र जगत सिंह प्रथम ने पूरा करवाया।

महाराणा जगतसिंह प्रथम (1628-52 ई.)

कर्णसिंह के पश्चात शासक बने, जो बहुत दानी थे।

उन्होंने जगन्नाथ राय ;जगदीशद्ध, का भव्य विष्णु मंदिर बनवाया। यह पंचायतन मन्दिर शैली में बनाया गया गया है।

इसे ‘सपनों से बना मंदिर’ भी कहते है। यह मन्दिर अर्जुन की देखरेख में शिल्पी भाणा सुथार व उसके पुत्र मुकुन्द द्वारा बनाया गया। जगदीश मंदिर के पास धय का मंदिर महाराणा की धाय नौजुबाई द्वारा बनवाया गया।

जगन्नाथ राय प्रशस्ति के रचयिता कृष्ण भट्ट थे।

महाराणा राजसिंह (1652-80 ई.)

जगतसिंह प्रथम के पश्चात राजसिंह मेवाड़ के महाराणा बने।

इन्होंने राजसंमद झील का निर्माण करवाया (गोमती नदी पर)।

राजसिंह ने किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती (रूपसिंह की बहन) से विवाह किया जिससे औरंगजेब स्वंय विवाह करना चाहता था।

औरंगजैब की राजसिंह के प्रति नाराजगी का कारण चारूमति प्रकरण था।

राजसिंह ने औरंगजेब द्वारा लगाये गये ‘‘जजिया कर’’ को देने से मना कर दिया।

राजसिंह ने जोधपुर के अजीत सिंह को ‘आश्रय दिया, मुगलों को जजिया देना स्वीकार नहीं किया। उनहोंने श्रीनाथजी की मूर्ति को सिंहाड़ में प्रतिष्ठित करवाया।

राजसिंह ने उदयपुर में अम्बामाता का तथा कांकरोली में द्वारकाध्ीश का मंदिर बनवाया।

राजसिंह ने राजसमंद के पास राजनगर कस्बा बसाया।

महाराणा जयसिंह (1680-98 ई.)

राजसिंह के बाद उनके पुत्र जयसिंह महाराणा बने।

जयसिंह ने गौमती, झामरी, रूपारेल, बगार नदियों के पानी को रोककर ढेबर नामक पर संगमरमर की झील बनवायी (1961) जिसे ढ़ेबर या जयसमंद झील कहते है।

इन्हौने औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर को बगावत करने में मदद की।

जयसिंह ने कुछ समय तक औरंगजेब से युद्ध किया, किन्तु अंत में शहजामे आजम से संन्धि् कर ली।

महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1968-1710 ई.)

जयंसिह के पश्चात उनके पुत्र अमरसिंह द्वितीय शासक बने जोधपुर के अजीतसिंह व आमेर के सवाई जयसिंह की सहायता।

उन्होंने मेवाड़ मारवाड़ एवं आमेर में एकता स्थापित करवायी।

मारवाड़ के दुर्गादास राठौड़ ने इनके यहॉं सामन्त के रूप में सेवाए दी।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (1710-34 ई.)

अमरसिंह द्वितीय के बाद संग्रामसिंह द्वितीय शासक बने।

उन्होंने ही मराठों के विरुध राजस्थान के राजपूत नरेशों को संगठित करने के लिए हरड़ा सम्मेलन की योजना बनायी, परन्तु सम्मेलन के पूर्व ही उनका देहान्त हो गया।

संग्राम सिंह द्वितीय ने ही सहेलियों की बाड़ी (उदयपुर) व सीसरमा गांव में वैद्यनाथ का विशाल मंदिर बनवाया।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय (1734-41 ई.)

संग्राम सिंह द्वितीय के बाद उनके पुत्र जगतसिंह द्वितीय शासक बने।

इन्होंने हुरड़ा सम्मेलन (1734 ई.) की अध्यक्षता की।

इन्होंने पिछोला झील में जगतनिवास महल बनवाया।

मराठों ने सर्वप्रथम इन्हीं के काल में मेवाड़ में प्रवेश कर उनसे कर वसूला।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय के बाद क्रमशः महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय (1741-54 ई.), महाराणा राजसिंह द्वितीय (1754-1761ई.), महाराणा अरिसिंह (1761 ई.) मेवाड़ के शासक बने।

महाराणा भीमसिंह

इनकी लड़की कृष्णाकुमारी के विवाह को लेकर जयपुर एवं जोधपुर में संघर्ष हुआ।

महाराणा भीमसिंह ने ही 1818 ई. में ईस्ट कम्पनी से सन्धि् कर विदेशी दासता स्वीकार की।

महाराणा स्वरूप सिंह

ये सन् 1857 की क्रांति के समय मेवाड़ के राजा थे। क्रांति के समय इन्होंने अंग्रेजों की बढ़-चढ़कर सहायता की।

महाराणा शम्भूसिंह

इनको सन् 1871 ई. में अंग्रेजों द्वारा ‘ग्राण्ड कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इंडिया उपाधि् प्रदान की गयी।

महाराणा सज्जन सिंह

इनके काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती उदयपुर आये थे।

राज्य का प्रथम समाचार पत्र सज्जन कीर्ति सुधकर प्रकाशित (1876 ई.) किया गया।

महाराणा पफतेहसिंह

इन्होंने 1903 के कर्जन के दिल्ली दरबार में भाग लेने से इंकार किया, (कारण-‘चेतावनी चुंगटिया’ का प्रभाव -केसरी सिंह बारहट द्वारा रचित)

इन्होंने पफतहसागर झील का निर्माण करवाया।

महाराणा भोपालसिंह (1921-47)

ये स्वतंत्राता के समय मेवाड़ के शासक थे तथा राजस्थान के प्रथम महाराज प्रमुख बनाये गये।

चौहान वंश

‘चौहान वंश की उत्पत्ति चाहमान से हुई, जो संभवतः इनका आदिपुरूष रहा होगा।

चंदबरदायी रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ में चौहानों को ‘अग्निकुण्ड’ से उत्पन्न बताया गया।

जयानक रचित ‘पृथ्वीराज विजय’ एवं नयनचंद्र सूरी द्वारा रचित ‘हम्मीद महाकाव्य’ ग्रन्थ में इन्हें सूर्यवंशी माना गया है।

पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा भी चौहानों को सूर्यवंशी मानते है।

आबू अभिलेख (1320 ई.) में इन्हें चन्द्रवंशी बताया गया है।

कर्नल टॉड एवं डॉं. स्मिथ चौहानों को विदेशी मानते है।

डॉ. दशरथ शर्मा बिजोलिया लेख (1170 ई.) के आधर पर चौहानों को वत्स गौत्राय ब्राहृण वंश की संतान मानते है।

चौहानों का प्रारम्भिक राज्य नाडोल जूना खेड़ा (पाली) था।

हर्षनाथ अभिलेख (973ई.) में चौहानों की प्राचीन राजस्थानी अनन्त प्रदेश (विग्रह राज द्वितीय कालीन सीकर के आस-पास) बतलायी गयी है। इस अभिलेख में चौहान शासक गुवक से लेकर दुर्लभराज द्वितीय तक की वंशावली दी गयी है।

शाकम्भरी एवं अजमेर के चौहान

चौहानों का मूल स्थान जांगलदेश में शाकम्भरी (सांभर) के आसपास सपादलक्ष माना जाता है। उनकी राजधनी अहिच्छत्रापुर (नागौर) थी सवा लाख गाँव होने के कारण इसे सपादलक्ष कहा जाता था।

वासुदेव –

शाकम्भरी के चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव को माना जाता हैं जिसने 551 ई. के आसपास यह राज्य स्थापित किया।

सांभर झील का निर्माण वासुदेव द्वारा करवाया गया।

गुवक प्रथम

इसने सीकर में हर्षनाथ मंदिर का निर्माण करवाया जो चाहमानों के ईष्टदेव माने जाते है।

विग्रह राज द्वितीय

यह चौहान वंश के प्रारम्भिक शासकों में बड़ा प्रभावशाली व योग्य शासक था।

उसने गुजरात के मूलराज चालुक्य को हराया था।

अजयराज

ये पृथ्वीराज प्रथम के पुत्र थे।

अजयराज ने 1113 ई. में अजयमेरू (अजमेर) नगर बसाया।

उसने इसी नगर को अपनी राजधनी बनाया एवं उसमें दुर्ग बनाया। जिसें ‘पूर्व का दूसरा जिब्राल्टर’ कहा जाता है।

उसने चांदी व तांबे के सिक्के जारी करवाये।

कुछ मुद्राओं पर उसकी रानी सोमल्ल देवी का नाम भी अंकित।

अर्णाराज (1133-53 ई.)

यह अजयराज का पुत्र था।

अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणकारियों को बुरी तरह हराया।

अजमेर में बाड़ी नदी पर अन्नासागर झील का निर्माण करवाया

1135 ई. पुष्कर के वराह मंदिर का निर्माण कराया।

अर्णोराज की हत्या उसके पुत्र जग्गदेव ने की।

विग्रहराज चतुर्थ (1153-1164 ई.)

अर्णोराज के पुत्र।

जगदेव की हत्या करके शासक बने।

विग्रहराज चतुर्थ जिसे बीसलदेव भी कहा जाता है शाकम्भरी व अजमेर का महान चौहान शासक था।

इनका शासनकाल सपादलक्ष का स्वर्णयुग माना जाता है।

इन्होंने संस्कृत भाषा में ‘हरिकेली’ नामक नाटक की रचना की।

हरिकेली नाटक के कुछ अंश अजमेर के ‘अढ़ाई दिन का झोपड़े की दीवारों’ पर उत्कीर्ण है।

समकालीन लोग विग्रहराज चतुर्थ को ‘कवि बान्ध्व’ नाम से पुकारते थे।

ललित विग्रह राज नामक नाटक का रचयिता सोमदेव उनका दरबारी राजकवि था।

इन्होंने अजमेर में संस्कृत विद्यालय की स्थापना की जिसे बाद में कुतुबद्दीन ऐबक ने तोड़कर ढाई दिन का झोपड़ा बनवा दिया। जिसे कर्नल टॉड ने हिन्दु शिल्पकला का प्राचीनतम और पूर्ण परिष्कृत नमूना बताया।

विग्रहराज चतुर्थ ने बीसलपुर नामक कस्बे व झील निर्माण करवाया।

पृथ्वीराज-तृतीय (1177-1192 ई.)

पृथ्वीराज चौहान तृतीय प्रतापी राजा व श्रेष्ठ सेनानायक था।

इनका जन्म 1166 ई. में हुआ।

इनके पिता का नाम सोमेश्वर व माता का नाम कर्पुरी देवी था जो कल्चुरी राजा की पुत्र थी।

11 वर्ष की आयु में अजमेर का शासन संभाला था।

प्रारम्भ में एक वर्ष तक कर्पुरी देवी ने राजकार्य में पृथ्वीराज को सहयोग दिया था।

भुवनमल्ल, खाण्डेराव उसके सेनापति थे तथा कदम्ब वास (कैमास) इनका मुख्यमंत्रा था।

चंदबरदायी ने पृथ्वीराज रासो लिखा जिसे उसके पुत्र जल्हण ने पूरा किया।

कन्नौज के राजा जयचंद के साथ पृथ्वीराज चौहान तृतीय के संबंध् कटुंतापूर्ण थे।

जयचंद की पुत्र संयोगिता को स्वंयबर से उठा कर वह अजमेर ले आया और उससे विवाह किया। जयचंद उनका मौसेरा भाई था।

पृथ्वीराज चौहान तृतीय ने चन्दबरदायी, जयानक, जनार्दन, विश्वरूप, विद्यापती, गौड़ व गागीश्वर जैसे विद्वानों को आश्रय दिया।

आल्हा व उदल महोबा के चंदेल शासक परमर्दीदेव के सेनानायक थे। दोनों वीर एवं साहसी थे। जो पृथ्वीराज के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुए। (1182 ई. महेबा युद्ध)

तराईन के प्रथम युद्ध (1191ई.) में उसने तुर्क आक्रमणकारी शहाबुददीन मुहम्मद गौरी को बूरी तरह हरायां।

तराईन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) में वह मुहम्मद गौरी से पृथ्वीराज चौहान हार गया तथा गौरी द्वारा बंदी बना लिया गया।

ख्वाजा मुइनुददीन चिश्ती पृथ्वीराज चौहान के समय अजमेर आये।

रणथम्भौर के चौहान

रणथम्भौर के चाहौन वंश की स्थापना पृथ्वीराज तृतीय के पुत्र गोविन्द राज ने की थी। गोविन्दराज ने दिल्ली सल्तनत की अध्निता स्वीकार कर ली थी।

गोविन्दराज के पश्चात वाल्हण (वल्लनदेव), प्रल्हादन, वीरनारायण, वागभट्ट व जैत्रासिंह (जयसिम्हा), शासक बने।

रणथम्भौर की चौहान शाखा का सबसे प्रतापी शासक हम्मीद देव को अपनाप उत्तराध्किरी नियुक्त किया।

हम्मीर ने 17 युद्ध लड़े जिसमें 16 में वह विजय रहा। 16 युद्धों में विजय के उपलक्ष में उसने कोटियजन यज्ञ का आयोजन पंविश्वरू प भटट के निर्देशन में कराया।

सन् 1291 ई. में उसने जलालुददीन खिलजी के आक्रमण को विफल किया।

उसने अलाउद्दीन के विद्रोही सेनानायक मुहम्मदशाह को शरण दी अतः अलाउद्दीन ने रणथम्भौर पर 1301 ई. में आक्रमण कर दिया। हम्मीर लड़ता हुआ मारा गया और उसकी पत्नी

रंगदेवी ने जौहर किया (जल जाहौर)

यह राजस्थान के इतिहास का प्रथम जौहर है।

हम्मीर के सेनापति रणमल व रतिपाल ने इस युद्ध में हम्मीर के साथ विश्वासघात किया।

अलाऊददीन खिलजी का प्रमुख सेनापति नुसरतखॉं इसी युद्ध में मारा गया।

रणथम्भौर के युद्ध में प्रसिद् इतिहासकार अमीर खुसरों भी उपस्थित था।

जालौर के चौहान

जालौर का प्राचीन नाम जबालीपुर था।

यहां के शासक सोनगरा चौहान कहलाते थे।

जालौर के चौहान वंश का संस्थापक कीर्तिपाल (कीतु) को माना जाता है।

कीर्तिपाल के उत्तराध्किरियों में समरसिंह, उदयसिंह, चाचिगदेव, सामन्त सिंह एवं कान्हड़देव थे।

यहॉं के अंतिम शासक कान्हड़देव (1296-1312 ई.)

अलाउददीन खिलजी के आक्रमण के समय 1312 ई. में अपने पुत्र वीरमदेव के साथ मारा गया।

1312 ई. को अलाउददीन के आक्रमण के समय जालौर में साका हुआ।

बीका दहीया ने कान्हड़देव के साथ विश्वासघात किया था।

धय गुलविहिश्त (अलाउददीन की पुत्र फिरोजा की धय) ने कान्हड़देव के विरुद् जालौर आक्रमण का नेतृत्व किया था।

पदमनाथ ने ‘कान्हड़देव प्रबन्ध् की रचना की।

सिरोही के चौहान

यहॉ देवड़ा शाखा के चौहान थे। स्थापना 1311 ई. आस-पास लुम्बा द्वारा की गयी, उसकी राजधनी चन्द्रावती थी।

इसी वंश के सहसमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर इसे राजधनी बनाया।

11 सितम्बर, 1823 ई. में यहॉं के शासक शिवसिंह ने कम्पनी से संधि् कर ली। कम्पनी के साथ संधि् करने वाला राजस्थान का अंतिम राज्य था।

हाड़ौती के चौहान

हाड़ा वंश का चौहानों से उत्पन्न माना जाता है। उनका आदिपुरूष हाड़ा नामक शासक था।

हाड़ौती के अंतर्गत बूंदी, कोटा, झालावाड़, बाराँ आदि जिले आते है।

बूंदी राज्य का इतिहास

बूंदी शहर बूंदा मीणा के नाम पर बसा था।

इसका प्राचीन नाम वृन्दावती था।

यहाँ चौहान वंश की स्थापना देवीसिंह (देवा) ने जैता मीणा को हराकर 1242 ई. को की थी।

देवी सिंह के पुत्र जैत्रासिंह ने कोटा को विजय कर राजधनी बनाया (1274 ई.), वहां दुर्ग का निर्माण करवाया। इसके वंशज सुर्जन हाड़ा ने 1569 ई. में अकबर की अध्ीनता स्वीकार कर तथा रणथम्भौर दुर्ग मुगलों को सौंप दिया।

राव बरसिंह हाड़ा वंश के प्रतापी शासक हुए। इन्होने मेवाड़ के लाखा को हराया। राव बरसिंह को ही तारागढ़ दुर्ग का वास्तविक निर्माता माना गया।

बूंदी के शासक विष्णु सिंह ने 1818 ई. में कम्पनी से संधि् की।

कोटा राज्य का इतिहास

कोटा प्रारम्भ में बूंदी रियासत का ही एक भाग था यहॉ हाड़ा चौहानों का शासक था।

शाहजहाँ के समय 1631 ई. में बूंदी नरेश राव रतनसिंह के पुत्र राव माधेसिंह हाड़ा को कोटा का पृथक राज्य देकर उसे बूंदी से स्वतंत्र कर दिया। तभी से कोटा स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।

कोटा पूर्व में कोटिया भील के नियंत्राण में था। जिसे बूंदी के चौहान वंश कें संस्थापक देवा के पौत्र जैत्र सिंह ने मारकर अपने अधिकार में कर दिया।

कोटिया भील के कारण इसका नाम कोटा पड़ा।

माधेंसंह के बाद उसका पुत्र यहां का शासक बना जो औंरगजेब के विरुद्धध्रमत के उत्तराध्किर युद्ध में मारा गया।

झाला जालिमसिंह (1858-1823 ई.)

कोटा राज्य का मुख्य प्रशासक एवं फौजदार था। वह बड़ा कूटनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक था। मराठों, अंग्रेजों एवं पिंडारियों से अच्छे संबंध् होने के कारण कोटा इनसे बचा रहा।

झाला जालसिंह कोटा नरेश किशोर सिंह एवं उम्मेदसिंह के काल के थे। इनके काल में कोटा की वास्तविक शक्ति झाला जालमसिंह के पास में थी।

झाला जालिमसिंह को कोटा राज्य का दुर्गादास कहा जाता है।

दिसम्बर, 1817 ई. में यहां के पफौजदार जालिमसिंह झाला ने कोटा राज्य की और से ईस्ट इंडिया से संधि् की।

इस प्रकार 1838 ई. में झालावाड़ एक स्वतंत्रा रियासत बनी। यह राजस्थान में अंग्रेजों द्वारा बनायी गई आखिरी रियासत थी।

इसकी राजधनी झालरापाटन बनाई गई।

मारवाड़ का राठौड़ वंश

स्वतंत्रता पूर्व केवल कश्मीर एवं हैदराबाद सियासत ही जोधपुर सियासत से बड़ी थी।

राजस्थान के उत्तरी व पश्चिमी भागों में राठौड वंशीय राजपूतों का साम्राज्य स्थापित हुआ जिसे मारवाड़ कहते है।

राठौड़ का शाब्दिक अर्थ राष्ट्रकूट होता है जो दक्षिण का एक राजवंश है। जोधपुर राठौड़ों का मूल स्थान कन्नौज था।

राव सीहा

राव सीहां जोधपुर के राठौड़ वंश का संस्थापक था, जो जयचंद गहड़वाल (कन्नौज) का प्रपौत्र था।

उसने पाली के उत्तर पश्चिम में खेंड में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया।

सीहा मुसलमानों के विरुद्ध पाली प्रदेश की रक्षा करते हुए 1273 ई. में शहीद हुआ था।

रावचूड़ा

राव वीरमदेव का पुत्र चूड़ा मारवाड़ का प्रथम बड़ा शासक था।

उसने मंडोर को मारवाड़ की राजधनी बनाया।

चुड़ा पुत्र हंसाबाई का विवाह मेवाड़ के राणा लाखा के साथ हुआ जिससे मोकल का जन्म हुआ।

चुड़ा के पुत्र रणमल की हत्या मेवाड़ के सामन्तों द्वारा धोके से (सोते हुए चारपाई से बांध्कर) सन् 1438 में चित्तौड़ में की गई। एक नगारसी द्वारा रणमल के पुत्र जोध को चेतावनी दी गयी। जिससे वह बच निकला – जोधा भाग सके तो भाग थारों, रिड़मल मारयों जाय’।

राव जोधा (438-88)

राव जोधा, रणमल का पुत्र था।

राव जोधा ने मेवाड़ के अक्का सिसोदिया या अहाड़ा हिंगोला को हराकर मंडोर पर पुनः अधिकार किया।

उसने अपनी पुत्री का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल से कर मेवाड़ मारवाड़ वैमनस्य कम किया।

जोधा ने सन् 12 मई, 1459 जोधपुर नगर की स्थापना कर अपनी राजधनी बनाया तथा चिड़ियाटूक पहाड़ी पर दुर्ग (मेहरानगढ़) बनवाया जोधा के पाँचवे पुत्र बीका ने 1465 ईमें बीकानेर राज्य की स्थापना की।

राव जोधा के बाद उसका पुत्र सातलदेव, उसके पश्चात उसका भाई सुजा, सुजा के बाद बाधा तथा बाधा के बाद उसका पुत्र गंगा जोधपुर का शासक बना।

राव गंगा का राजतिलक बगड़ी के ठाकुर ने तलवार से अपने अंगूठे का चीरा लगाकर रक्त से किया।

राव मालदेव (1532-62 ई.)

राव मालदेव राव गंगा का बड़ा पुत्र था, जो गंगा की हत्या कर मारवाड़ का शासक बना।

मारवाड़ की ख्यात के अनुसार मालदेव 52 युधों का विजेता

था। केवल सुमेल युद्ध में हारे थे।

मालदेव ने उदयसिंह को मेवाड़ का शासक बनाने में मदद की।

मालदेव ने 1542 ई. में पोहोबा या साहोबा के युद्ध में बीकानेर के राव जैतसी को हराकर बीकानेर पर कब्जा किया।

मालदेव की पत्नी उमादे, जो जैसलमेर के रावल लुणकर्ण की पुत्र थी, जिसको रूठीरानी के नाम से जाना जाता था। जिसने तारागढ़ दुर्ग, अजमेर में अपना जीवन गुजारा तथा वह मालदेव की मृत्यु बाद सती हुई।

शेरशाह सूरी व मालदेव के दो सेनापतियों जैता व कुम्पा के बीच 5 जनवरी, 1544 ई. में गिरी सुमेल का युद्धहुआ जिसमें शेरशाह बड़ी मुश्किल से जीत सका।

गिरी सुमेल के युद्ध के समय ही शेरशाह के मुख से निकला कि ‘‘मैं मुटठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता’’।

हरमाड़ का युद्ध (1557 ई.)-जयपुर के पास स्थित हरमाड़ा के मैदान में मालदेव एवं अजमेर के पठान सेनानायक हाजी खां की संयुक्त सेना में मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह एवं मेडता जयमल राठौड़ की सेनाओं को हराया। मालदेव में मेडता पर पुनः अधिकार कर लिया।

राव मालदेव ने पोकरण, मेडता (मालकोट), सोजय, रीयां के किलों का निर्माण करवाया तथा जोधपुर दुर्ग व शहर के परकोटे का निर्माण करवाया।

राव चन्द्रसेन (1562-1581 ई.)

राव चन्द्रसेन मालदेव का तीसरा पुत्र था चन्द्रसेन को प्रताप का अग्रगामी, भूला विसरा नायक व मारवाड़ का प्रताप कहा जाता है।

सन् 1570 ई. नागौर दरबार में वह अकबर से मिला था। लेकिन शीघ्र ही उसने नागौर छोड़ दिया।

चन्द्रसेन पहला राजपूत शासक था जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और मरते दम तक संघर्ष किया।

सोजत परगने में सारण के पास सचियाय नामक स्थान पर चन्द्रसेन का देहान्त हुआ।

राजा उदयसिंह (1583-95 ई.)

उदयसिंह राव मालदेव का दूसरे नम्बर का पुत्र था। राव उदयसिंह को ‘मोटा राजा’ के नाम से भी जाना जाता।

उदयसिंह मारवाड़ के प्रथम शासक थे जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर वैवाहिक संबंध् स्थापित किये।

उसने अपनी पुत्र जोधबाई (जगत गुंसाई) उपर्फ मानी बाई का विवाह शहजादे सलीम से किया था। जोधपुर की राजकुमारी होने के कारण मानीबाई, जोधबाई के रूप में प्रसिद्ध हुई।

उदयसिंह के पुत्र किशनसिंह ने किशनगढ़ राज्य की स्थापना की।

सिवाणा ‘‘मारवाड़ राजाओं कीसंकटकालीन राजधनी’’ रही।

सवाई राजा सुरसिंह (1595-1619 ई.)

उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात 1595 ई. में उनके पुत्र सूरसिंह ने जोधपुर का शासन संभाला।

मुगल सम्राट अकबर ने इन्हें ‘सवाई राजा’ की उपधि् दी।

राजा गजसिंह प्रथम (1619-1638 ई.)

सूरसिंह के पश्चात उनके पुत्र गजसिंह प्रथम जोधपुर के शासक बने, गजसिंह प्रथम सुरसिंह के पुत्र थे।

जहांगीर ने इन्हें ‘दलथम्मन’ की उपधि् दी व इनके घोड़ों को ‘शाही दाग’ से मुक्त किया।

गजसिंह प्रथम की मृत्यु 1638 ई. में आगरा में हुई।

महाराजा जसवंत सिंह प्रथम (1638-78 ई.)

महाराजा गजसिंह ने अपने जीवन काल में छोटे पुत्र जसवन्त सिंह को उतराधिकारी बनाया क्योंकि बड़ा पुत्र अमरसिंह हठी व उदण्ड प्रकृति का था। अमरसिंह का नागौर की जागीर दी गयी।

जसवन्त सिंह प्रथम की गिनती मारवाड़ के सर्वाधिक प्रतापी राजाओं में होती है।

शाहजहॉं ने जसवन्त सिंह प्रथम को ‘महाराजा’ की उपाधि् प्रदान की। वे ‘ महाराजा उपाधि् प्राप्त करने वाले जोधपुर के प्रथम शासक थे।

जसवन्त सिंह ने मुगलों की और से शिवाजी के विरुद्ध भी युद्ध में भाग लिया था तथा शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को औरंगजेब के दरबार में बिना शस्त्र के चीते से लड़ाई की थी।

बाद में औरंगजेब ने जहरीले वस्त्र पहना कर पृथ्वीसिंह की हत्या करवा दी थी।

मुहणौत नेणसी इन्ही का दरबारी था। जिसने ‘नैणसी री ख्यात’ व ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ पुस्तक लिखी।

जसवंत सिंह ने भाषा-भूषण व आनन्द विलास ग्रंथ लिखे।

इनकी मृत्यु सन् 1678 ई. में काबुल के पास जामरूद नामक स्थान पर हुई थी। इनकी मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा ‘आज कुफ्र का दरवाजा टुट गया।

अजीत सिंह (1708-1724 ई.)

औरंगजेब ने जसवन्त सिंह की मृत्यु के पश्चात उत्पन्न पुत्र अजीतसिंह को शासक बनाया।

वीर दुर्गादास राठौड़ ने अजीतसिंह को औरंगजेब के चुंगल से मुक्त कराकर कालिन्द्री (सिरोही) में छिपाकर रखा तथा बाद में मारवाड़ का शासक बनाया।

बहादुरशाह ने अजीतसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार किया।

अजीतसिंह की हत्या के बाद उसका बड़ा पुत्र अभयसिंह राजा बना था।

वीर दुर्गादास राठौड़ (1638-1718 ई.)

वीर दुर्गादास जसवन्तसिंह प्रथम के मंत्रा आसकरण का पुत्र था।

उसने अजीतसिंह को मुगलों के चंगुल से मुक्त कराया। उसने मेवाड़ व मारवाड़ में संधि् करवायी।

अजीतसिंह ने बहकावे में आकर दुर्गादास को देश निकाला दे दिया तब वे उदयपुर के महाराणा अमरसिंह द्वितीय की सेवा में रहें। महाराणा ने उसको रामपुरा का जगीरदार बनाया।

दुर्गादास का निधन 1718 ई. में उज्जैन में हुआ और वही उसकी छतरी बनी हुई है।

ये वीरता एवं स्वामिभक्ति के लिए प्रसिद्ध है।

कर्नट टॉड ने दुर्गादास को ‘राठौड़ का युलिसीज’ एवं ‘राजपुतानें का गेरिबाल्डी’ कहा।

अमरसिंह जोधपुर के महाराजा गजसिंह प्रथम का बड़ा भाई था। जो नाराज होकर शाहजहॅां की सेवा में चला गया। अमरसिंह को नागौर का शासक बनाया गया।

सन् 1644 ई. में शाहजहॉं के साले व मीरबक्शी सलावत खाँ को गॅंवार कहने पर आगरा में भरें दरबार में उसकी हत्या कर दी गई।

मतीरे की राड नामक युद्ध 1644 ई. में अमरसिंह राठौर व बीकानेर के कर्णसिंह के मध्य लड़ा गया। जिसने अमरसिंह की हार हुई। वीरता के कारण उसे आज भी राजस्थान की ख्यालों में स्थान प्राप्त है।

महाराजा अभयसिंह

महाराजा अजीतसिंह की मृत्यु (1724 ई.) के पश्चात् उसके ज्येष्ठ पुत्र अभयसिंह को शासक बनाया।

अभयसिंह के काल में सन् 1730 ई. में अमृता देवी के नेतृत्व में खेजड़ली गांव के 363 स्त्रा-पुरूषों में वृक्षों को बचाने के लिए अपनी जान न्यौछावर की थी।

अभयसिंह के बाद उसका पुत्र रामसिंह शासक बना, जो निकक्मा व अयोग्य शासक था। सरदारों ने उसके विरुद्धविद्रोह कर पितृहन्ता बख्तसिंह को गद्दी पर बिठाया।

बख्तसिंह की हत्या जयपुर नरेश माधेसिंह प्रथम द्वार धोके से जहरीले वस्त्रा पहनाकर) करवायी गयी।

महाराजा विजयसिंह

बख्तसिंह की मृत्यु के बाद 1752 ई. में उसका पुत्र विजयसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उसके काल में मारवाड़ पर मराठा आक्रमण हुआ।

विजयसिंह काल में राठौर सैनिकों ने धोके से मराठा सेनापति जयअप्पा सिंध्यि की हत्या कर दी। गुलाबराय विजयसिंह की पासवान (उपपत्नी) थी, जिसने जोधपुर शहर में गुलाब सागर तालाब बनवाया।

महाराजा भीवसिंह (भीमसिंह)

विजयसिंह की मृत्यु के बाद 1739 ई.में उसका पोता भीवसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा किन्तु दस वर्ष के शासन के पश्चात उसकी मृत्यु हो गई।

उदयपुर की राजकुमारी की सगाई पहले भीवसिंह के साथ तय की गयी थी किन्तु विवाह से पहले भीवसिंह की मृत्यु हो गई।

महाराजा मानसिंह

भीवसिंह (भीमसिंह) की मृत्यु के पश्चात मानसिंह शासक बना।

मानसिंह का जयपुर नरेश जगतसिंह के साथ उदयपुर की राजकुमारी कृष्णाकुमारी के विवाह को लेकर गिंगोली का युद्ध (1807 ई.) हुआ जिसने मानसिंह की हार हुई। जगतसिंह का साथ अमीर खाँ पिण्डारी ने दिया था।

मानसिंह के काल में मारवाड़ में नाथ सम्प्रदाय के साधुओं का प्रभाव अत्यंत बढ़ गया था। आयस देवनाथ मानसिंह का गुरू था। अन्त में पिण्डोरी नेता अमीर खाँ ने देवनाथ की हत्या करवा दी।

जोधपुर के महामंदिर का निर्माण मानसिंह ने अपने गुरू के सम्मानार्थ  करवाया था।

मराठों व मुस्लिम सरदार अमीर खॉं से परेशान होकर मानसिंह को अंग्रेजों से संधि् करनी पड़ी (सन् 1818 ई.) यद्यपि मानसिंह अंग्रेज विरोधी थे। मानसिंह के पुत्र छत्रासिंह ने संधि् पर हस्ताक्षर किये।

मेहरानगढ में ‘‘पुस्तक प्रकाश’’ नामक ग्रंथालय स्थापित करवाया।

बांकिदास आसिया मानसिंह के आश्रित कवि एवं उनके काव्य गुंज थे, जिन्हे मारवाड़ का बीरबल कहा जाता है।

मानसिंह का काल कला एवं साहित्य की दृष्टि से उत्तम काल माना जाता है। स्वंय मानसिंह ने अनेक भजनों की रचना की।

वर्तमान काल में सबसे अध्कि शोध् महाराजा मानसिंह पर हुए है।

मृत्यु के समय मानसिंह निःसन्तान था, उसके पश्चात महाराजा अजीतसिंह के पड़पोते तख्तसिंह को ईडर गुजरात) से लाकर जोधपुर का शासक बनाया गया।

महाराजा तख्तसिंह

तख्तसिंह अंग्रेजों का समर्थन शासक था।

उनके काल में 1857 ई. का प्रथम भारतीय स्वतंत्राता संग्राम लड़ा गया। तख्तसिंह ने अंग्रेजों की भरपूर सहायता की थी।

9 अगस्त, 1857 को जोधपुर किले के बारूद के गोदाम पर बिजली गिरने से लगभग 200 व्यक्ति मारे गये। किले की दीवार व चामुण्डा माता का मंदिर को भारी क्षति पहुंची।

मारवाड़ का पहला अंग्रेजी स्कूल छापखाना तख्तसिंह के समय ही आरम्भ हुआ।

महाराजा जसवन्त सिंह द्वितीय (1875 ई.)

तख्तसिंह की मृत्यु (1872 ई.) के बाद जसवन्त सिंह गद्दी पर बैठे।

इनके काल में वायसराय नार्थबु्रक जोधपुर आया (1875 ई.)।

 जसवन्तसिंह का कनिष्ठ भ्राता सर प्रतापसिंह राज्य का प्रधनमंत्रा बना, जो आध्ुनिक जोधपुर का निर्माता कहलाता

है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती को कांच पिलाने वाली नन्ही भगतन (नन्हीजान) जसवन्तसिंह द्वितीय की गणिका थी।

जसवन्त सागर बाँध् (पिचियाक बाँध्) का निर्माण 1889 ईमें उन्ही के द्वारा किया गया।

महाराजा सरदार सिंह

जसवन्तसिंह द्वितीय के पश्चात उसका पुत्र सरदार सिंह गद्दी पर बैठा (1895 ई.)

उसके शासन काल में सन् 1899 ई. को मारवाड़ में भयंकर अकाल पड़ा (वि.स. 1956) जो इतिहास में ‘छपनिया का अकाल’ नाम से जाना जाता है।

उन्होंने गिरदीकोट में घंटाघर तथा अपने पिता की स्मृति में जसवन्त थड़ा बनवाया।

महाराजा सुमेर सिंह

सरदार सिंह के बाद उसका पुत्र सुमेर सिंह शासक बना।

उन्होंने प्रथम विश्व युद्धमें अंग्रेजों सेना की तरफ से भागम लिया तथा फ़्रांस के मोर्चे पर रहा।

उनके शासन काल में जोधपुर नगर में बिजली की आपूर्ति आरम्भ (1917 ई.) हुई थी।

मात्रा 21 वर्ष की आयु में सुमेरसिंह की मलेरिया से मृत्यु हो गयी थी।

महाराजा उम्मेदसिंह

सुमेरसिंह के बाद उसका छोटा भाई उम्मेदसिंह जोधपुर राज्य को गद्दी पर बैठा।

महाराजा उम्मेदसिंह ने छीत्तर की पहाड़ी पर एक भव्य और विशाल राजप्रसाद बनवाया (1929-1939 ई.) जो अब छीत्तर पेलेस या उम्मेद भवन कहलाता है।

उनके काल में 1933 ई. मारवाड़ राज्य का नाम बदलकर जोधपुर राज्य कर दिया गया।

सन् 1936 ई. में लार्ड विलिगंडन जोधपुर आया जिसने सरदार सग्रहालय और समुर पब्लिक लाइब्रेरी का उद्घाटन किया।

सन् 1946 ई. को उम्मेदसिंह ने ऐरनपुरा रेल्वे स्टेशन के पास एक विशाल बाँध् की नींव रखी जो अब जवाई बाँध् के नाम से प्रसिद्धहै तथा वर्तमान में पाली जिले में स्थित है।

महाराजा हनवन्त सिंह

9 जून, 1947 को उम्मेदसिंह की मृत्यु हो जाने के पश्चात् उसका पुत्र हनवन्त सिंह उतराधिकारी बना।

हनवन्त सिंह जोधपुर रियासत के अंतिम शासक थे।

प्रसिद्ध अभिनेत्र जुबैदा हनुवन्त सिंह की पत्नी थी।

हनवन्त सिंह की मृत्यु सुमेरसिंह के पास विमान दुर्घटना में हुई थी (1952 ई.) यहीं उसकी छतरी निर्मित है। वर्तमान मे पूर्व नरेश गजसिंह द्वितीय हनवन्तसिंह के पुत्र है।

बीकानेर का राठौड़ राजवंश

राव बीका (1488-1504 ई.)

बीकानेर के राठौड़ वंश का संस्थापक राव जोध का पांचवा पुत्र बीका था।

राव बीका ने करणी माता के आशीर्वाद से 1456 ई. में जांगल प्रदेश में राठौड़ वंश की स्थापना की तथा सन् 1488 ई. में नेरा जाट के सहयोग से नगर की स्थापना की।

राव बीका ने जोधपुर के राजा राव सुजा को पराजित किया तथा राठौड़ वंश के सारे राजकीय चिह्न छीनकर बीकानेर ले गये।

राव लुणकरण (1504-1526 ई.)

अपने बड़े भाई राव नरा की मृत्यु हो जाने के कारण राव लुणकरण राजा बना।

 राव लुणकरण दानी, धर्मिक प्रजापालक व गुणीजनों का सम्मान करने वाला शासक था।

दानशीलता के कारण बीठू सूजा ने अपने प्रसिद्धग्रन्थ ‘राव जैतसी रो छंद में इसे ‘कर्ण’ अथवा कलियुग का कर्ण कहा।

कर्मचन्द्र वंशोत्कीर्तनक काव्यम् में लुणकरण की दानशीलता की तुलना कर्ण से की गई है।

सन् 1526 ई. में इसने नारनौल के नवाब पर आक्रमण कर दिया परन्तु धैंसा नामक स्थान पर हुए युद्धमें लुणकरण वीरगति को प्राप्त हो गया।

राव जैतसी (1526-1542 ई.)

लूणकरण के बाद राव जैतसी बीकानेर का शासक बना।

बाबर के पुत्र कामरान ने 1534 ई. में भटनेर पर अधिकार करके राव जैतसी को अधीनता स्वीकार करने के लिए कहाँ परन्तु जैतसी ने अपनी बड़ी सेना के साथ 26 अक्टूबर, 1534 को अचानक कामरान पर आक्रमण कर दिया और उन्हें गढ़ छोड़ने के लिए बाध्य किया। इस युद्धका वर्णन बीठू सूजा के

प्रसिद्धग्रन्थ ‘राव जैतसी रो छन्द’ में मिलता है।

 राज जैतसी राव मालदेव (मारवाड़ ) के साथ पाहोबा के युद्ध (1542 ई.) में वीरगति को प्राप्त हुआ।

राव कल्याणमल (-1544-1574 ई.)

1544 ई. में गिरी सुमेल के युद्धमें शेरशाह सूरी ने मारवाड़ के राव मालदेव को पराजित किया। इस युद्धमें कल्याणमल, न े शेरशाह की सहायता की थी। तथा शेरशाह ने बीकानेर का राज्य राव कल्याणमल को दे दिया।

कल्याणमल ने नागौर दरबार (1570 ई.) में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अपनी पुत्र का विवाह अकबर से किया।

अकबर ने नागौर दरबार के बाद सन् 1572 ई. में कल्याणमल के पुत्र रायसिंह को जोधपुर की देखरेख हेतु उसे प्रतिनिधि बनाकर जोधपुर भेज दिया।

कवि पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) कल्याणमल का ही पुत्र था।

पृथ्वीराज राठौड़ की प्रसिद्धरचना ‘बेलि क्रिसन रूकमणी री’ है। कवि दूसरा आढ़ इस रचना को ‘पाँचवा वेद’ एव ‘19 वां पुराण’ कहा है। इतालियन कवि डॉं तेस्सितोरी ने कवि पृथ्वीराज राठाडै ़ का े ‘डिगं ल का होरेस’ कहॉ ह।ै

अकबर ने कवि पृथ्वीराज राठौड़ को गागरोन का किला जागीर में दिया था।

महाराजा रायसिंह (1574-1612 ई.)

कल्याणमल का उतराधिकारी रायसिंह बना जिसे दानशीलता के कारण प्रसिद्धइतिहासकार मुंशी देवीप्रसाद ने ‘राजपुताने का कर्ण’ कहा है।

बीकानेर का शासक बनते ही रायसिंह ने ‘महाराजध्जि’ और ‘महाराज’ की उपाधियाँ धरण की। बीकानेर के राठौर नरेशों में रायिंसह पहला नरेश था जिसने इस प्रकार की उपाधियाँ धारण की थी।

रायसिंह ने शहजादे सलीम (जहाँगीर) को बादशाह बनने में सहायता की जिससे खुश होकर जहाँगीर ने उन्हें 5000 का मनसब प्रदान कर दक्षिण का सुबेदार बनाया।

रायसिंह मृत्युपर्यन्त मुगल सेवा करता रहा। अपने विरोचित तथा स्वमिभक्ति के गुणों के कारण वह अकबर का विश्वास पात्र बन गया। मानसिंह (आमेर) के बाद सम्मान की दृष्टि से मुगल दरबार में रायसिंह ही आता था।

मुगल बादशाह अकबर ने रायसिंह को 1572 ई. में जोधपुर का अधिकारी नियुक्त किया था।

रायसिंह ने अपने मंत्रा कर्मचन्द की देखरेख में राव बीका द्वारा बनवाये गये पुराने (जुना) किले पर ही नये किले जुनागढ़ का निर्माण सन् 1594 में पूर्ण करवाया।

किले के अन्दर रायसिंह ने एक प्रशस्ति भी लिखाई जिसे अब ‘रायसिंह प्रशस्ति’ कहते है। किले के मुख्य प्रवेश द्वार सूरजपोल के बाहर जयमल-पता की हाथी पर सवार पाषाण मुर्तियाँ रायसिंह ने ही स्थापित करवाई।

रायसिंह ने ‘रायसिंह महोत्सव’ व ‘ज्योतिष रत्नमाला’ ग्रन्थ की रचना की।

कर्मचन्द्रवंशोकीर्तनकं काव्यम में महाराजा रायसिंह को राजेन्द्र कहा गया तथा उसमें लिखा गया है कि वह हारे हुए पुत्र शत्राओं के साथ बड़े सम्मान का व्यवहार करता है।

रायसिंह की मृत्यु बुरहानुपर (मध्यप्रदेश) में 1612 ई. में हुई थी।

महाराजा कर्णसिंह (1631-1669 ई.)

सुरसिंह के पुत्र कर्णसिंह को औरंगजेब ने जालंधर  बादशाह की उपाधि् प्रदान की (कुछ विद्वानों ने दी थी)

कर्णसिंह ने दो मुगल शासकों शाहजहाँ व औरंगजेब की सेवा की।

कर्णसिंह ने विद्वानों के सहयोग से ‘साहित्यकल्पद्रुम ग्रन्थ’ की रचना की।

1644 ई. में बीकानेर के कर्णसिंह व नागौर के अमरसिंह राठौड़ के बीच ‘मतीरा री राड’ नामक युद्धहुआ। जिसमें कर्णसिंह की विजय हुई।

इसके आश्रित विद्वान गंगानगर मेथिल ने ‘कर्णभूषण एवं काव्यडाकिनी’ नामक ग्रन्थों की रचना की।

कर्णसिंह ने देशनोक (बीकानेर) में करणी माता के मंदिर का निर्माण करवाया।

महाराजा अनूपसिंह (1669-1698 ई.)

महाराजा अनूपसिंह द्वारा दक्षिण में मराठों के विरुद्धकी गई कार्यवाहियों से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने इन्हें ‘महाराजा’ एवं ‘माही भरातिव’ की उपाधि् से सम्मानित किया।

महाराज अनूपसिंह एक प्रकाण्ड विद्वान कूटनीतिज्ञ, विद्यानुरागी एवं संगीत प्रेमी थे। इन्होंने अनेक संस्कृत ग्रन्थों- अनूपविवेक, काम-प्रबोध्, अनूपोदय आदि की रचना की। इनके दरबारी विद्वानों ने अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। इनमें मणिराम कृत ‘अनूप व्यवहार सागर एवं अनूपविलास, अनंत

भट्ट कृत ‘तीर्थ रत्नाकर’ तथा संगीताचार्य भावभट्ट द्वारा रचित ‘संगीत अनूपांकुश’ ‘अनूप संगीतर रत्नाकर आदि प्रमुख है।

दयालदास की ‘बीकानेर रा राठौडां री ख्यात’ में जोधपुर व बीकानेर के राठौड़ वंश का वर्णन है।

महाराजा सूरतसिंह

16 अप्रैल, 1805 को मंगलवार के दिन भाटियों को हराकर इन्होंने भटनेर को बीकानेर राज्य में मिला तथा इन्होंने हनुमानजी के वार मंगलवार को यह जीत हासिल करने के कारण भटनरे का नाम हनुमानगढ़ रख दिया।

1818 ई. में बीकानेर के राजा सूरतसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से सुरक्षा संधि् कर ली और बीकानेर में शांति व्यवस्था कायम करने में लग गये।

अन्य बिंदु.

1857 की क्रांति के समय बीकानेर के महाराजा सरदार सिंह थे जो अंग्रेजों के पक्ष में क्रांतिकारियों का दमन करने के लिए राजस्थान के बाहर पंजाब तक गये।

बीकानेर के लालसिंह ऐसे व्यक्ति हुए जो स्वंय कभी राजा नहीं बने परन्तु जिसके पुत्र डूंगरसिंह के समय 1886 ई. को राजस्थान में सर्वप्रथम बीकानेर रियासत में बिजली का शुभारम्भ हुआ।

. 1927 ई. में बीकानेर के महाराजा गंगासिंह (आध्ुनिक भारत का भागीरथ) राजस्थान में गंगानहर लेकर आये जिसका उद्घाटन वायसराय लॉर्ड इरविन ने किया।

गंगा सिंह अपनी विख्यात गंगा रियाला सेना के साथ द्वितीय विश्व युद्धमें अंग्रेजों के पक्ष में युद्धलड़ने के लिये ब्रिटेन गये।

महाराजा गंगासिंह को 1919 ई. वर्साय शांति सम्मेलन (पेरिस) में एक पूर्ण सत्ता सम्पन्न प्रतिनिधि् बनाया।

1921 ई. में गठित नरेन्द्र मण्डल (चेम्बर ऑफ प्रिंसेज) के प्रथम चांलसर महाराजा गंगासिंह थे।

महाराजा गंगासिंह ने लंदन में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन (1930 ई.) में भाग लिया था।

कच्छवाह वंश

दूलहराय (तेजकरण)

ढूढ़ाड़ में कछवाह राज्य का संस्थापक था, जो नरवर (ग्वालियर) के शासक सोढ़ासिंह के पुत्र था।

1137 ई. में दुलहराय ने दौसा के बड़गूजरों को हराकर नवीन ढूँढ़ाड़ राज्य की स्थापना की तथा दौसा को अपनी राजधनी बनाया।

रामगढ़ में उसने कुलदेवी जमुवाय माता का मंदिर बनवाया।

कोकिलदेव

दुलहराय के पौत्रा कोकिलदेव ने 1207 ई. में मीणों से आमेर जीतकर अपनी राजधनी बनाया, जो 1722 ई. तक कछवाह वंश की राजधनी रहा।

इसी वंश का पृथ्वीराज मेवाड़ के राणा सांगा का सामान्त था, जो खानवा के युद्ध में सांगा इसी वंश का शेखां, सांगा को घायलावस्था में बसवा (दौसा) लाया था। उसने शेखावटी में अपना अलग राज्य बनाया।

पृथ्वीराज के पुत्र सांगा ने सांगानेर बसाया था।

राजा भारमंल या बिहारीमल (1547-1574 ई.)

भारमल, भीमदेव का पुत्र था जो 1547 ई. में आमेर का शासक बना।

भारमल प्रथम राजस्थानी शासक था, जिसने अकबर की अध्ीनता स्वीकार की तथा 1562 ई. में अपनी पुत्र हरखाबाई उर्फ मानमति या शाही बाई (मरियम उज्जमानी)  का विवाह अकबर से किया।

भारमल को अध्ीनता स्वीकार कराने में चगताई खाँ ने मदद की थी।

भारमल के सहयोग से ही अकबर ने 1570 ई. में ‘नागौर दरबार’ का आयोजन किया।

अकबर ने भारमल को ‘राजा व ‘आमीर-उल-उमरा’ की उपाधि् प्रदान की।

मुगल बादशाह जहाँंगीर हरखाबाई का ही पुत्र था।

राजा भगवन्त दास (1574-1589 ई.)

भगवन्त दास या भगवान दास भारमल का पुत्र था।

उसने अपने पुत्र मानबाई या मनभावनी का विवाह शहजादे सलीम (जहाँगीर) से किया। मानबाई को ‘सुल्तान-ए निस्सा’ की उपाधि् प्राप्त थी। शहजादा खुसरों इसी मानबाई का पुत्र था।

भगवानदास अकबर ने नवरत्नों में शामिल था।

भगवानदास की मृत्यु-लाहौर में हुई।

राजा मानसिंह (1589-1614 ई.)

मानसिंह भगवन्तदास का दत्तक पुत्र था, जिसका राज्याभिषेक 14 पफरवरी, 1590 ई. को किया गया।

मानसिंह आमेर के शासकों में सर्वाध्कि प्रतापी एवं महान राजा था।

मानसिंह ने 52 वर्ष तक मुगलों की सेवा की। मानसिंह अकबर द्वारा प्रथम पंचहजारी हिन्दू मनसबदार बना। 1573 ई. में वह अकबर के दूत के रूप में राणा प्रताप से मिला था।

1576 ई. में हल्दीघाटी के युद्ध ने उसने शाही सेना का नेतृत्व किया था, वह गोगुन्दा के आगे नहीं बढ़ा था इस अभियान के बाद वह दिल्ली लौटा तो अकबर ने कुछ समय के लिए दरबार प्रवेश (डयोडी) पर रोक लगा दी।

अकबर ने उसे फर्जन्द (पुत्र) एवं राजा की उपाधि् प्रदान की।

वह अकबर के नवरत्नों में शामिल था।

वह काबुल, बंगाल एवं बिहार का गवर्नर रहा।

मानसिंह स्वयं कवि विद्वान, साहित्य प्रेमी व विद्वानों का आश्रयदाता रहा।

संगीतकार पुण्डरिक विट्ठल इनके भाई माधेसिंह के आश्रय में था। जिसने रागमंजरी, रागचन्द्रोदय व नर्तन निर्णय ग्रन्थ लिखे।

मानसिंह ने मानपुर (बिहार) व अकबर नगर या राजमहल (बंगाल) नामक दो नये नगर बसाये।

मानसिंह ने बंगाल के राजा कैदार को हराकर वहॉं से शीलादेवी की मूर्ति आमेर स्थापित करवायी।

शीलादेवी मंदिर (आमेर), जगत शिरोमणी मंदिर (कृष्ण मंदिर), (आमेर) तथा राध गोविन्द मंदिर (वृंदावन) उसी ने बनवाये थे।

जगत शिरोमणी मंदिर (कृष्ण मंदिर) (आमेर), उसने अपने पुत्र जगतसिंह की याद में बनवाया था।

इनकी मृत्यु इलिचपुर दक्षिण भारत में 1614 ई. में हुई थी।

मानसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भावसिंह शासक बना (1614-1667 ई.)।

महाराजा जयसिंह प्रथम उपर्फ मिर्जा राजा जयसिंह  शासक बनने के समय जयसिंह (1621-1667 ई.) की आयु मात्रा 11 वर्ष थी।

इसने तीन मुगल बादशाहों जहाँंगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब को अपनी सेवाएँ दी।

उसने औरंगजेब की तरपफ से शिवाजी को संधि् के लिए बाध्य किया यह संधि् इतिहास में ‘पुरन्दर की संधि्’ (11 जून,1665) के नाम से प्रसिद्ध है।

उसकी योग्यता एवं सेवाओं से प्रसन्न होकर शाहजहाँ ने उसे ‘मिर्जाराजा’ की उपाधि् प्रदान की।

उसने जयगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया तथा यहाँ तोप बनाने का कारखाना स्थापित करवाया था।

बिहारी सतसई के रचयिता कवि बिहारी उसके दरबार में रहता था।

बिहारी का भानजा कुलपति मिश्र भी बड़ा विद्वान था जिसने 52 ग्रन्थों की रचना की वह जयसिंह का दरबारी था।

मिर्जा राजा जयसिंह के एक अन्य दरबारी रामकवि ने ‘जयसिंह चरित्रा’ की रचना की।

इनकी मृत्यु बुरहानुपर के पास हुई थी। (ऐसा भी कहा जाता है कि औरंगजेब ने उसको मरवा डाला)

मिर्जाराजा जयसिंह के बाद उसके उत्तराध्किरी रामसिंह, बिशनसिंह और सवाई जयसिंह आमेर की गददी पर बैठा।

महाराजा जयसिंह द्वितीय या सवाई जयसिंह

इनका वास्तविक नाम विजयसिंह (1700-1743ई.) था जो विशनसिंह का पुत्र था।

जयसिंह ने मारवाड़ के अजीतसिंह व मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय के साथ मिलकर मुगल शक्ति के विरुद्ध लड़ने की योजना। (देबारी समझौता) बनायी और आमेर पुनः प्राप्त कर लिया।

सवाई जयसिंह ने मुगलों के लिए तीन बार मराठों से युद्ध किये। पिलसूद के युद्ध (1715 ई.) में मराठों पर विजय मिली किन्तु मंदसौर के युद्ध (1733 ई.) में हारे।

सवाई जयसिंह द्वारा जाटों पर मुगलों की विजय होने के उपलक्ष में बादशाह मुहम्मद शाह ने जयसिंह को ‘राज राजेश्वर, श्री राजाध्रिज’ सवाई की उपाधि् प्रदान की।

सवाई जयसिंह ने मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह द्वितीय के साथ मिलकर 17 जुलाई, 1734 ई. में हुरड़ा (भीलवाड़ा) में राजस्थान के राजपूत राजाओं का सम्मलेन आयोजित किया जिसका उद्देश्य सामूहिक शक्ति द्वारा मराठा आक्रमण को रोकना था। हुरडा सम्मेलन में भाग लेने वाले अन्य शासक अभयसिंह (जोधपुर), बख्तसिंह(नागौर), दुर्जनसाल (कोटा), जोरावरसिंह (बीकानेर), दलेलसिंह (बूंदी) आदि थे।

ये संस्कृत पफारसी, गणित एवं ज्योतिष का प्रकाण्ड विद्वान थे।

उन्हें र्ज्योतष शासक भी कहा गया।

उसने ‘सम्राट सिद्वान्त’ ‘सिधान्त कौस्तुभ’ ग्रन्थ तथा ‘जयसिंह कारिका’ नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना भी की।

ज्योतिष ग्रन्थ ‘जीज-ए-मुहम्मदशाही’ लिखवाया।

उसने जयपुर, दिल्ली, बनारस, उज्जैन व मथुरा में वेध शालाएं (ग्रह-नक्षत्र शालाएं)। जिसमें सबसे बड़ी वेधशाला (जंतर-मंतर) जयपुर की (यूनेस्कों की सूची में शामिल) है। तथा सबसे पहली वैध्शाला दिल्ली की है।

उन्होंने ये वैध् शालाएं पुर्तगाल के ज्योतिष जोवियर-डी-सिल्वा की गणना के आधार पर बनवायी।

उसने 18 नव, 1727 ई. में जयपुर (नगर) की स्थापना की।

जयपुर शहर की नींव राजगुरू पं जगन्नाथ द्वारा रखी गयी थी।

इसका प्रधान वास्तुकार बंगाली ब्राह्मण विद्याध्र भट्टाचार्य था। जयुपर की स्थापना सिन्ध्ु घाटी सभ्यता के नगरों के र्तज पर की गयी।

जयसिंह ने नाहरगढ़ दुर्ग (सुदर्शनगढ़) का निर्माण शुरू करवाया तथा इसमें जयनिवास महल का निर्माण भी करवाया।

नाहरगढ़ दुर्ग में माधेसिंह द्वितीय ने एक जैसे नौ महल बनवाये।

उसने चन्द्रमहल (सिटीपैलेस) एवं जलमहल का निर्माण करवाया।

सवाई जयसिंह के समय ही आमेर राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ।

वह अंतिम हिन्दु शासक था जिसने 1740 ई. में अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करवाया जिसका पुरोहित पुण्डरिक रत्नाकर था।

पुण्डरिक रत्नाकर ने ‘जयसिंह कल्पदु्रम’ ग्रन्थ की रचना की महाराजा सवाई ईश्वरीय सिंह (1743-50 ई.)

सवाई जयसिंह के बड़े पुत्र थे।

उनके छोटे भाई माधेसिंह प्रथम ने मराठों व कोटा, बूंदी से मिलकर 1747 ई. में उन पर आक्रमण में त्रिपोलिया बाजार जयपुर में ईसरलाट (सरगासूली) का निर्माण करवाया गया।

राजमहन का युद्ध 1778 ई. में बगरू के युद्ध में माधेसिंह से हारे।

1750 में मराठा मल्हारराव का आक्रमण हुआ तब भारी चौथ की मांग से परेशान होकर आत्महत्या कर ली।

महाराजा सवाई माधेसिंह प्रथम (1750-1768 ई.)

इनके काल में मराठा हस्तक्षेप से क्रुद्ध जयपुर के नागरिकों ने मराठा सैनिकों का कत्लेआम किया।

1763 ई. में सवाई माधेपुर नगर बसाया।

जयपुर के मोती डूंगरी महलों का निर्माण भी इन्होंने करवाया था।

भटवाड़ का युद्ध (1761ई.)-जब मुगल बादशाह अहमदशाह ने रणथम्भौर दुर्ग माधेसिंह को दे दिया तो कोटा महराव नाराज हो गया। उसने जयपुर पर आक्रमण कर दिया और जयपुर की सेना को हराया। रणथम्भौर पर पुनः कोटा का अधिकार हो गया।

सवाई माधेसिंह प्रथम पश्चात पृथ्वीसिंह तथा उसके बाद 1778 ई. में प्रतापसिंह शासक बने।

महाराजा सवाई प्रतापसिंह (1778-1803 ई.)

इनके काल में अंग्रेज सेनापति जार्ज थॉमस का आक्रमण हुआ।

प्रतापसिंह ने जोधपुरके विजयसिंह के साथ मिलकर तुंगा के युद्ध (1787ई.) में मराठा सेनापति महादजी सिंध्यि को बूरी तरह हराया था, किन्तु पाटन के युद्ध (1790 ई.) में प्रतापसिंह को सिंध्यि से हार का मुँह देखना पड़ा।

प्रतापसिंह स्वंय ब्रजनिधि् नाम से काव्य रचना करते थे।

‘ब्रजनिधि् ग्रन्थावली’ इनकी रचनाओं का संग्रह है। इन्होंने जयपुर में एक संगीत सम्मेलन करवाकर राध गोविन्द संगीत सार की रचना करवायी। इसके रचियता देवर्षि भटट ब्रजपाल थे।

इन्होंने हवा महल का निर्माण 1799 ई. में करवाया।

सवाई प्रतापसिंह के दरबार में बाइस (22) प्रसिद्धसंगीतज्ञों एवं विद्वानों की मण्डली ‘गर्ध्व बाइसी’ थी। इनमें देवर्षि भटट ब्रजपाल, उस्ताद चाँद खाँ (जो प्रतापसिंह के संगीत गुरू थे),

गणपति भारती (जो प्रतापसिंह के काव्य गुरू थे) तथा द्वारकादास प्रमुख थे।

महाराजा सवाई जगतसिंह द्वितीय (1803-18 ई.)

सवाई जगतसिंह ने राजकुमारी कृष्णा कुमारी को लेकर (1807ई. में) जोधपुर के मानसिंह से युद्ध किया तथा जोधपुरकी सेना को गिंगोली (नागौर) में हराया।

सन् 1818 ई. में मराठा आतंक से मुक्ति हेतु कम्पनी से संधि् करली।

जगतसिंह की मृत्यु के पश्चात् सन 1818 ई. में उसका नाबालिग पुत्र जयसिंह तृतीय सन् 1835 ई. तक शासक रहा।

महाराजा रामसिंह द्वितीय (1835-80 ई.)

रामसिंह द्वितीय नाबालिग होने के कारण ब्रिटिश संरक्षण स्थापित हुआ। 1843 ई. में प्रशासक जॉन लुडलों ने प्रशासन चलाया।

उसने सतीप्रथा, दास प्रथा, दहेज प्रथा व कन्या वध् पर रोक लगायी।

1857 ई. के विद्रोह में सहायता के उपलक्ष में उन्हें ‘सितारे हिन्द’ उपाधि् प्रदान की गयी।

सन् 1870 ई. में लार्ड मेयो, 1875 ई. में लार्डनार्थ ब्रुक, 1876 ई. में प्रिंस ऑफ वेल्स अल्बर्ट ने जयपुर यात्रा की।

रामसिंह द्वितीय ने जयपुर में कला संस्थान ‘मदरसा हूनरी’ (महाराजा स्कूल ऑ आर्ट) अथवा ‘तस्वीरों रो

कारखानों’ की स्थापना करवायी।

अल्बर्ट की यात्रा की स्मृति में जयपुर में अल्बर्ट हॉल म्यूजियम का शिलान्यास करवाया ।

1869 ई. में महाराजा रामसिंह को वायसराय की विधन परिषद का सदस्य बनाया गया।

रामसिंह द्वितीय के आदेश से जयपुर को गुलाबी रंग से रंगवाया जबकि वास्तव में यह रंग गेरू है।

महाराजा माधेसिंह द्वितीय (1880-1922 ई.)

माधेसिंह द्वितीय रामसिंह का दत्तक पुत्र था।

वे 1902 ई. में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में इंग्लैण्ड गये।

इन्होंने बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के लिए 5 लाख रूपये का सहयोग पं. मदनमोहन मालवीया को भेंट किया।

नाहरगढ़ में इन्होंने एक जैसे नो महल बनवाये।

उनकी मृत्यु के बाद उनके दत्तक पुत्र मानसिंह द्वितीय गददी पर बैठा।

महाराजा मानसिंह द्वितीय (1922-72 ई.)

मानसिंह द्वितीय स्वतंत्राता प्राप्ति के समय जयपुर के शासक थे।

वे राजस्थान के प्रथम राजप्रमुख थे।

इनके प्रधनमंत्रा मिर्जा इस्माइल को आध्ुनिक जयपुर का निर्माता कहा जाता है।

महारानी गायत्रा देवी उनकी पत्नी थी, जो राजस्थान से 1962 ई. के चुनाव में जयपुर सीट से लोकसभा की प्रथम महिला सदस्य बनी थी। (स्वतंत्रत पार्टी)

मानसिंह द्वितीय की मृत्यु 1972 ई. में लंदन में पोलो खेलते समय हुई।

यादव वंश

जैसलमेर का भाटी राजवंश

जैसलमेर में भाटी वंश का शासन था जो स्वंय को चन्द्रवंशी यादव एवं श्री कृष्ण के वंशज मानते हैं।

भाटी शासकों की प्रारम्भिक राजधनियॉं- गजनी, लाहौर, भटनेर, देरावर व लोद्रवा रही थी।

यदुवंशी बालद के पुत्र भट्टी ने 285 ई. भेटनेर (हनुमानगढ़) के किले का निर्माण कर वहॉ अपना राज्य स्थापित किया।

इसके वंशज भाटी कहलाने लगे। भाटी वंश को ‘उत्तर भड़ किवाड’ का विरुद्ध प्राप्त था।

भाटियों का व्यवस्थित इतिहास विजयराम से प्रारम्भ होता है।

उसके बाद भौज व जैसल शासक बने।

1155 ई. में रावल जैसलदेव भाटी ने जैसलमेर दुर्ग का निर्माण करवाया तथा अपनी राजधनी लोद्रवा से जैसलमेर स्थानान्तरित की। (जैसलमेर दुर्ग ढाई साको के लिये जाना जाता है)

जैसलमेर के उत्तराध्किरी शालिवान ने दुर्ग का निर्माण पूर्ण करवाया।

यहाँ के परवर्ती शासक हरराय ने अकबर के नागौर दरबार में मुगल अध्ीनता स्वीकार कर अपनी पुत्र का विवाह अकबर से 1570 ई. में किया।

औरंगजेब के समय यहाँ का शासन महारावल अमरसिंह के हाथो में था जो ‘अमरकास’ नाला बनाकर सिंध्ु नदी का पानी अपने राज्य में लाया।

1818 ई. में यहॉं के शासक मूलराज II ने ईस्ट इंडिया कम्पनी में संधि् कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा अंग्रेजों को दे दिया।

जैसलमेर राज्य की कम्पनी को रिश्वत देने से मुक्त रखा गया था।

यहॉं के अंतिम शासक जवाहरसिंह के काल में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सागरमल गोपा को जेल में अमानवीय यातनाये देकर 3 अप्रैल 1946 ई. को जलाकर मार डाला।

30 मार्च 1949 को जैसलमेर रियासत का राजस्थान में विलय हो गया।

करौली राज्य का यादव वंश

राजस्थान में यादवों की दो रियासतें थी-पहला जैसलमेर व दूसरी करौली।

प्राचीनकाल में इस रियासत का कुछ भाग मत्स्य जनपद में तथा कुछ भाग शूरसेन जनपद में आता था।

करौली में यादव वंश के शासक की स्थापना विजयपाल यादव द्वारा 1040 ई. में की गई। यहाँ के शासन तिमनपाल ने तिमनगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।

1327 ई. अर्जुनपाल यादव ने तिमनगढ़ मुस्लिमों से छीनकर यहाँ पुनः यादवों का शासन स्थापित किया। उसने 1348 ई. में कल्याणपुर नगर बसाया जो अब करौली के नाम से जाना जाता है।

1605 ई. में धर्मपाल द्वितीय ने करौली को अपनी राजधनी बनाया।

15 नवम्बर, 1817 ई. में करौली नरेश हरवक्षपाल ने ब्रिटिश सरकार की अधीनस्थ मैत्री संधि् कर ली तथा करौली अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया। लार्ड हेस्टिंग्स की इस नीति के तहत संधि् कर ली तथा अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया। लार्ड हेस्टिंग्स की इस नीति के तहत संधि् करने वाला करौली राजस्थान का प्रथम राज्य था।

सन1857 ई. के स्वतंत्राता आन्दोलन में कोटा नरेश को स्वतंत्राता सेनारियों के कब्जे से मुक्त कराने हेतु करौली राज्य की सेना भेजी गई थी। इस समय करौली के शासक मदनपाल थे।

स्वतंत्राता के बाद करौली रियासत मत्स्य संघ में मिल गई जो अंततः राजस्थान का हिस्सा बनी। उसके बाद उसको सवाई माधेपुर जिले में शामिल किया गया।

स्वतंत्राता के समय यहाँ के शासक गणेशपाल थे।

भरतपुर राज्य का जाट वंश

भरतपुर राज्य की स्थापना सिनसिनी गाँव के जाटों ने की थी।

उनका पुत्र सिनसिनवार था।

राजस्थान के पूर्वी भाग- भरतपुर, धेलपुर, डीग आदि क्षेत्रों पर जाट वंश का शासन था। यहाँ जाट शक्ति का उदय औरंगजेब के शासन काल से हुआ था।

औरंगजेब के काल में गोकुल, भज्जा व राजाराम के नेतृत्व में जाट संगठित होने लगे।

औरंगजेब की मृत्यु, के आसपास जाट सरदार चूड़ामन ने थून (आगरा के पास) में किला बनाकर अपना राज्य स्थापित कर लिया था।

बहादुरशाह ने चूड़ामन को 1500 जात व 500 सवारों का मनसबरदार बनाया।

चूड़ामन के बाद उसके भतीजे बदनसिंह को जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने 1722 ई. में डीग की जागीर दी एवं ‘ब्रजराज’ की उपाधि् प्रदान की । इस प्रकार एक नये जाट राज्य का गठन हुआ।

बदनसिंह ने डीग, कुम्हेर, भरतपुर तथा वैर में किले बनवाये।

बदनसिंह के पुत्र सूरजमल ने सोध्र के निकट दुर्ग का निर्माण करवाया, जो बाद में भरतपुर के दुर्ग या लोहगढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बदनसिंह ने उसे अपनी राजधनी बनाया। बीस वर्ष शासन के पश्चात इसने जीते जी अपने पुत्र सूरजमल को शासन की बागडोर सौंप दी। 1736 ई. को बदनसिंह की मृत्यु हो गयी।

सूरजमल को ‘जाटों का प्लेटों (अफलातून) या ‘सिनसिनवार प्लेटो’ कहा जाता है।

सूरजमल ने डीग के महलों का निर्माण करवाया। सूरजमल ने 12 जून, 1761 ई. को आगरे के किले पर अध्किर कर लिया।

सूरजमल 1763 ई. में नजीब खाँ रोहिला के विरुद्ध हुए युद्ध में मारा गया।

रजमल के शासन में अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया। पानीपत के तृतीय युद्ध (1761ई.) में बचे हुए मराठी सैनिकों को सूरजमल व उसकी महारानी किशोरी देवी ने रसद सामग्री उपलब्ध् कराई।

सूरजमल के बाद उसका पुत्र जवाहरसिंह भरतपुर का राजा बना।

उसने दिल्ली पर आक्रमण किया तथा विजय के उपलक्ष में लाल किले के दरवाजे को भरतपुर लेकर आया। इसने विदेशी लड़कों की एक पेशेवर सेना तैयार की।

अब्दाली के भारत से लौटने के बाद क्रमशः रतनसिंह, केशरसिंह व रणजीतसिंह शासक बने।

रणजीतसिंह के काल में मराठों व अंग्रेजों का आक्रमण हुआ।

1805 ई. में अंग्रेज जनरल लेक डाउन वेल ने भरतपुर दुर्ग को घेर लिया किन्तु उसे जीत न सका।

29 सितम्बर, 1803 ई. में रणजीतसिंह ने अंग्रेजों से सर्वप्रथम सहायक संधि् कर ली।

महाराजा ब्रजेन्द्रसिंह आजादी के समय भरतपुर के शासक थे।

स्वतंत्रता के बाद भरतपुर, मत्स्य संघ में विलय हुआ जो 1949 ई. में राजस्थान में शामिल हो गया।

प्रमुख नगर – समय संस्थापक

चित्तौड़ गढ़ 734 ई.    –     चित्रांगद मौर्य

अलवर 1103 ई.      –     अलघुराय

अजमेर 1113 ई.      –     अजयपाल

जैसलमेर 1155 ई.     –     रावजैसल भाटी

बून्दी 1242 ई.       –     हाडाराव देवा

बाड़मेर 1246 ई.      –     बाहड़देव

करौली 1348 ई.      –     राव अर्जुनदेव

सिरोही 1425 ई.      –     महाराव सहसमल

जोधपुर 1459 ई.      –     रावजोध

बीकानेर 1488 ई.     –     राव बीका

उदयपुर 1559 ई.      –     उदयसिंह

किशनगढ़ 1609 ई.    –     किशनसिंह

जयपुर 1727 ई.      –     सवाई जयसिंह

भरतपुर 1733 ई.      –     राजा सूरजमल

गंगानगर 1927 ई.     –     गंगासिंह

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