राजस्थान के इतिहास लेखन हेतु पुरातात्विक, साहित्यिक और पुरालेखीय सामग्री के रूप में सभी प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं । ये स्रोत राजस्थान का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करते हैं कि किस तरह मानव ने राजस्थान में कालीबंगा, आहड़, गिलूंड, गणेश्वर इत्यादि स्थलों पर सभ्यताएं विकसित की । इससे पूर्व भी मानव ने बागौर जैसे स्थलों पर प्रस्तरयुगीन सभ्यताओं का निर्माण किया था । स्वतन्त्रता से पूर्व राजस्थान का विशाल प्रदेश अनेक छोटी-बड़ी रियासतों में विभाजित था । इन सभी रियासतों का इतिहास अलग-अलग था और यह इतिहास सामान्यतः उस राज्य के संस्थापक तथा उसके घराने से ही प्रारम्भ होता था और उसमें राजनैतिक घटनाओं तथा युद्धों के विवरणों का ही अधिक महत्व था । अन्य राज्यों का उल्लेख प्रसंगवश किया जाता था । समूचे राजस्थान का इतिहास लिखने की दिशा में पहला कदम मुहणोत नैणसी ने उठाया । आधुनिक काल में सबसे पहले जेम्स टॉड ने समूचे राजस्थान का इतिहास लिखा और एक नई दिशा प्रदान की । तदन्तर कविराजा श्यामलदास गौरीशंकर हीराचन्द ओझा जैसे मनुष्यों ने राजस्थान के इतिहास में विविध आयाम जोडकर पूर्णता प्रदान करने की कोशिश की ।
युद्धों की घटनाओं से राजस्थान की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष ऐतिहासिक सामग्री शनै शनै नष्ट होती गई । इसके अतिरिक्त इतिहास के प्रति उदासीनता के भाव ने भी इतिहासकारों के लिए राजस्थान के प्राचीन एवं मध्यकालीन आधुनिक इतिहास लेखन के लिए चुनौती खड़ी की है | राजस्थान इस दृष्टि से सौभाग्यशाली रहा है कि यहीं जेम्स कर्नल टॉड से पहले मुहणोत नैणसी जैसे ख्यात लेखकों ने इस अंचल का इतिहास लिख दिया था जो यद्यपि मूल रूप से मारवाड को केन्द्र में रखकर लिखा गया था । टॉड ने 19 वीं शताब्दी के तीसरे दशक में आधुनिक पद्धति से राजस्थान के इतिहास लेखन की एक अद्वितीय पहल की | टॉड का इतिहास ‘एनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ दोषपूर्ण होते हुए भी आज राजस्थान के सन्दर्भ में मील का पत्थर है । इसमें उसके द्वारा संग्रहित अभिलेखों, सिक्कों, बहियों, खातों आदि के आधार पर लिखा मेवाड, मारबाड, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, बूंदी ब कोटा का इतिहास है । टॉड के इतिहास के प्रकाशन के पश्चात् ही राजस्थान के इतिहास लेखन के प्रति देश-विदेश के विद्वानों की रुचि जागत हुई और राजस्थान के विभिन्न स्रोतों की खोज का जो सिलसिला प्रारम्भ हुआ वह आज भी जारी है । इस शोधपूर्ण खोज में कविराजा श्यामलदास, मुंशी देवीप्रसाद, सूर्यमल्ल मीसण, दयालदास सिंढायच, बांकीदास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, विश्वेश्वरनाथ रेऊ, जगदीश सिंह गहलोत, रामकर्ण आसोपा मुंशी ज्वाला सहाय, रामनाथ रतनू, हरविलास शारदा (सारडा), अगरचन्द नाहटा, लुई जिपिओ तैस्सितोरी, मथुरालाल शर्मा दशरथ शर्मा, गोपीनाथ शर्मा, रघुवीर सिंह आदि का अति महत्वपूर्ण योगदान रहा | सम्प्रति वी.एस. भटनागर, के.एस. गुप्ता, के.सी. जैन, आरपी. बास, जी.एस.एल. देवडा, दिलबाग सिंह, भंवर भादानी, देवीलाल पालीवाल आदि विद्वान इतिहासकारों के द्वारा राजस्थान के इतिहास को समृद्ध बनाने की कोशिश जारी है ।
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(अ) पुरातात्विक स्रोत
पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री का राजस्थान के इतिहास के निर्माण में एक बड़ा स्थान है । इसके अन्तर्गत खोजों और उत्खनन से मिलने वाली ऐतिहासिक सामग्री है | गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है, “यह ठीक है कि ऐसी सामग्री का राजनीतिक इतिहास से सहज और सीधा सम्बन्ध नहीं है, परन्तु इमारतें भवन, किले, राजप्रसाद, घर, बस्तियाँ, भग्नावशेष मुद्राएँ, उत्कीर्ण लेख, मूर्तियाँ, स्मारक आदि से हम ऐतिहासिक काल क्रम का निर्धारण तथा वास्तु और शिल्प-शैलियों का वर्गीकरण कर सकते हैं | जन-जीवन की पूरी झांकी पुरानी बस्तियों तथा अन्य प्रतीकों से प्रस्तुत की जा सकती है । स्मारकों के अध्ययन से न केवल स्थापत्य और मूर्तिकला ही जानी जाती है, अपितु उनसे उस समय के धार्मिक विश्वास, पूजा-पद्धति और सामाजिक जीवन पर भी प्रकाश पडता है । प्रागैतिहासिक काल से मध्यकाल के अनेक भग्नावशेष तत्कालीन अवस्था का चित्र हमारे सम्मुख उपस्थित करते हैं । इसी प्रकार सिक्के, शिलालेख एवं दान-पत्र भी अपने समय की ऐतिहासिक घटनाओं एवं स्थिति के साक्षी है । पुरातात्विक सामग्री का अध्ययन हम निम्न भागो में कर सकते हैं ।
1.2 उत्खनित पुरावशेष
इतिहास लेखन को नए आधार पर खडा करने हेतु इतिहासकारों का ध्यान लम्बे समय से राजस्थान के पुरातत्व की ओर है । प्राक् ऐतिहासिक एवं ऐतिहासिक राजस्थान के इतिहास को जानने के लिए पुरातात्विक साक्ष्य राजस्थान में बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं । पुरातात्विक स्रोतों में उत्खनित पुरावशेष, मृगाण्ड, औजार एवं उपकरण, शैलचित्र, शिलालेख, सिक्के, स्मारक (दुर्ग, मन्दिर, स्तूप, स्तम्भ), मूर्तियाँ आदि प्रमुख हैं | राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य सर्वप्रथम (1871 ई.) प्रारम्भ करने का श्रेय ए.सी.एल. कार्लाइल को जाता है । कालान्तर में राजस्थान में व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया । इसका श्रेय एस.आर. राव, डी.आर. भण्डारकर, दयाराम साहनी, एच.डी. सांकलिया, बी.एन. मिश्र, आर.सी. अग्रवाल, बी.बी. लाल, एस.एन. राजगुरू, डी.पी. अग्रवाल, विजय कुमार, ललित पाण्डे, जीवन खरकवाल जैसे विद्वानों को जाता है । इन विद्वानों द्वारा किये गये उत्खननों से यह प्रमाणित हुआ कि यहाँ पाषाणयुगीन एवं ताम्रपाषाण कालीन संस्कृतियाँ अवस्थित थी । उत्खननों द्वारा जो पुरावशेष प्राप्त हुए हैं वे वस्तुत इतिहास लेखन के लिए सामग्री उपलब्ध करवाते हैं । इन पुरातत्ववेत्ताओं की बागौर कालीबंगा, नगरी, बैराठ, आहड, गिलुण्ड, तिलवाडा, गणेश्वर रंगमहल, रेढ़ सांभर, मण्डोर डीडवाना सुनारी, नोह, जोधपुरा बालाथल आदि के उत्खनन कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका रही | इन स्थानों से प्राप्त सामग्री के आधार पर राजस्थान की कई नवीन संस्मृतियों का ज्ञान होता है । यहाँ से प्राप्त पाषाण उपकरण, मृद्भाण्ड, धातु उपकरण, आभूषण तथा दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेकानेक वस्तुएँ आदि की सहायता से संस्तृतियों के विकासक्रम को समझने में सहायता मिलती है।
राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला में तथा चम्बल नदी की घाटी में ऐसे शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं, जिनसे प्रागैतिहासिक काल के मानव द्वारा प्रयोग में लाये गये पाषाण उपकरण, अस्थि अवशेष एवं अन्य पुरा सामग्री प्राप्त हुई है । इन शैलाश्रयों की छत भित्ति आदि पर प्राचीन मानव द्वारा उकेरे गये शैलचित्र तत्कालीन मानव जीवन की झलक देते हैं । इनमें सर्वाधिक आखेट दृष्य उपलब्ध होते हैं । बूंदी में छाजा नदी तथा कोटा में चम्बल नदी क्षेत्र उल्लेखनीय है | इनके अतिरिक्त विराटनगर (जयपुर), सोहनपुरा (सीकर) तथा हरसौरा (अलवर) आदि स्थलों से चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं ।
1.3 शिलालेख
पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत अन्य महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं । इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है । ये साधारणत पाषाण पट्टिकाओं, स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं । इनमें वंशवली, तिथियाँ, विजय, दान, उपाधियाँ, शासकीय नियम, उपनियम, सामाजिक नियमावली अथवा आचार संहिता, विशेष घटना आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है । इनके द्वारा सामन्तों, रानियों, मन्त्रियों एवं अन्य गणमान्य नागरिकों द्वारा किये गये निर्माण कार्य, वीर पुरुषों का योगदान, सतियों की महिमा आदि जानकारी मिलती है । इनकी सहायता से संस्कृतियों के विकास क्रम को समझने में भी सहायता मिलती है । प्रारम्भिक शिलालेखों की भाषा संस्कृत है, जबकि मध्यकालीन शिलालेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू राजस्थानी आदि है । जिन शिलालेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे ‘प्रशस्ति’ भी कहते हैं । महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कीर्ति स्तम्भ की प्रशस्ति तथा महाराणा राजसिंह की राज प्रशस्ति विशेष महत्वपूर्ण मानी जाती है । शिलालेखों में वर्णित घटनाओं के आधार पर हमें तिथिक्रम निर्धारित करने में सहायता मिलती है । बहुत से शिलालेख राजस्थान के विभिन्न शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल सम्राटों के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं । शिलालेखों की जानकारी सामान्यत विश्वसनीय होती है परन्तु यदा कदा उनमें अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी पाया जाता है, जिनकी पुष्टि अन्य साधनों से करना आवश्यक हो जाता है | यहीं हम राजस्थान के चुने हुए प्रमुख शिलालेखों का ही अध्ययन करेंगे, जिससे उनकी उपयोगिता का उचित मूल्यांकन हो सके |
1.3.1 संस्कृत शिलालेख
घोसुण्डी शिलालेख (द्वतीय शताब्दी ईसा पूर्व) यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है । इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं । इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है । यह लेख घीसुण्डी गाँव (नगरी, चित्तौड) से प्राप्त हुआ था | इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है । प्रस्तुत लेख में संकर्शण और वासुदेव के पूजा ग्रह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है । इस लेख का महत्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्शण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।
मानमोरी अभिलेख (713 ई.) यह लेख चित्तौड के पास मानसरोवर झील के तट से कर्नल टॉड को मिला था । चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति एवं मोरी वंश के इतिहास के लिए यह अभिलेख उपयोगी है । इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि धार्मिक भावना से अनुप्राणित होकर मानसरोवर झील का निर्माण करवाया गया था ।
सारणेश्वर प्रशस्ति (953 ई.) उदयपुर के श्मशान के सारणेश्वर नामक शिवालय पर स्थित इस प्रशस्ति से बराह मन्दिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है | गोपीनाथ शर्मा की मान्यता है कि मूलत यह प्रशस्ति उदयपुर के आहड गाँव के किसी वराह मन्दिर में लगी होगी । बाद में इसे वहाँ से हटाकर वर्तमान सारणेश्वर मन्दिर के निर्माण के समय में सभा मण्डप के छबने के काम में ले ली हो ।
बिजौलिया अभिलेख (1170 ई.) यह लेख बिजौलिया कस्बे के पार्श्वनाथ मन्दिर परिसर की एक बड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण है | लेख संस्कृत भाषा में है और इसमें 93 पद्य हैं । यह अभिलेख चौहानों का इतिहास जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है । इस अभिलेख में उल्लिखित ‘विप्र: श्रीवत्सगोत्रेभूत्’ के आधार पर डॉ. दशरथ शर्मा ने चौहनों का वत्सगोत्र का ब्रहामण कहा है | इस अभिलेख से तत्कालीन कृषि धर्म तथा शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है । लेख के द्वारा हमें कई स्थानों के प्राचीन नामों की जानकारी मिलती है जैसे कि जाबालिपुर (जालौर), शाकम्भरी (सांभर), श्रीमाल (भीनमाल) आदि ।
चीरवे का शिलालेख (1273 ई.) चीरवा (उदयपुर) गाँव के एक मन्दिर से प्राप्त संस्कृत में 51 श्लोकों के इस शिलालेख से मेवाड के प्रारम्भिक गुहिलवंशीय शासकों, चीरवा गाँव की स्थिति, विष्णु मन्दिर की स्थापना शिव मन्दिर के लिए भू-अनुदान आदि का ज्ञान होता है ।
इस लेख द्वारा हमे प्रशस्तिकार रत्नप्रभसूरि, लेखक पार्श्वचन्द्र तथा शिल्पी देलहण का बोध होता है जो उस युग के साहित्यकारों तथा कलाकारों की परम्परा में थे । लेख से गोचर भूमि, पाशुपत षैवधर्म सही प्रथा आदि पर प्रभूत प्रकाश पडता है ।
__ रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.) रणकपुर के जैन चौमुख मंदिर से लगे इस प्रशस्ति में मेवाड के शासक बापा से कुम्भा तक वंशावली है । इसमें महाराणा कुम्भा की विजयी का वर्णन है । इस लेख में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है । स्थानीय भाषा में आज भी नाणा शब्द मुद्रा के लिए प्रयुक्त होता है । इस प्रशस्ति में मन्दिर के सूत्रधार दीपा का उल्लेख है ।
कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति (1460 ई.) यह प्रशस्ति कई शिलाओं पर खुदी हुई थी औरसंभवत कीर्ति स्तम्भ की अन्तिम मंजिल की ताकों पर लगाई गई थी। किंतु अब केवल दो शिलाएँ ही उपलब्ध हैं जिन पर प्रशस्ति है । हो सकता है कि कीर्ति स्तम्भ पर पड़ने वाली बिजली के कारण ये शिलाएँ टूट गयी हों । वर्तमान में 1 से 28 तथा 162 से 187 श्लोक ही उपलब्ध हैं । इनमें बापा, हम्मीर, कुम्भा आदि शासकों का वर्णन विस्तार से मिलता है । इससे कुम्भा के व्यक्तिगत गुणों पर प्रकाश पडता है और उसे दानगुरु, षैलगुरू आदि विरुदों से सम्बोधित किया गया है । इससे हमें कुम्भा द्वारा विरचित ग्रंथों का ज्ञान होता है जिनमें चण्डीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि मुख्य हैं । कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को हटाना प्रशस्ति 179 वे श्लोक में वर्णित है | इस प्रशस्ति के रचयिता अत्रि और महेष थे |
रायसिंह की प्रशस्ति (1594 ई.)कृबीकानेर दुर्ग के द्वार के एक पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति बीकानेर नरेश रायसिंह के समय की है । इस प्रशस्ति में बीकानेर के संस्थापक राव बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का जिक्र है । इस प्रशस्ति से रायसिंह की मुगलों की सेवा के अन्तर्गत प्राप्त उपलब्धियों पर प्रकाश पडता है । इसमें उसकी काबुल, सिन्ध, कच्छ पर विजयों का वर्णन किया गया है । इस प्रशस्ति से गढ़ निर्माण के कार्य के सम्पादन का ज्ञान होता है । इस प्रशस्ति में रायसिंह के धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का उल्लेख है । इस प्रशस्ति का रचयिता जाता नामक एक जैन मुनि था । यह संस्कृत भाषा में है ।
आमेर का लेख (1612 ई.)कृआमेर के कछवाह वंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख महत्वपूर्ण है । इसमें कछवाह शासकों को रघुवंशीतलक कहा गया है । इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवन्तदास और मानसिंह का उल्लेख है । इस लेख में मानसिंह को भगवन्तदास का पुत्र बताया गया है । मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का उल्लेख है । लेख संस्कृत एवं नागरी लिपि में है ।
जगन्नाथराय का शिलालेख (1652 ई.) उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर के सभा मण्डप के प्रवेश हार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है | यह शिलालेख मेवाड के इतिहास के लिए उपयोगी है । इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है । इसमें हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्यों का वर्णन आदि किया गया है । इसका रचयिता तैलंग ब्राह्मण कृष्णभट्ट तथा मन्दिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुन्द था |
__राजप्रशस्ति (1676 ई) उदयपुर सम्भाग के राजनगर में राजसमुद्र की नौचौकी नामक बांध पर सीढ़ियों के पास वाली ताको पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण · राजप्रशस्ति महाकाव्य’ देश का सबसे बड़ा शिलालेख है । इसकी रचना बांध तैयार होने के समय रायसिंह के कल में हुई । इसकारचनाकार रणछोड़ भट्ट था । यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है, परन्तु अन्त में कुछ पंक्तियों हिन्दी भाषा में है | इसमे तालाब के काम के लिए नियुक्त निरीक्षकों एवं मुख्य शिल्पियों के नाम है | इसमे तिथियों तथा एतिहासिक घटनाओं का सटीक वर्णन है । इसमें वर्णित मेवाड़ क प्रारम्भिक में उल्लिखित है की राजसमुद्र के बांध बनवाने के कार्य का प्रारम्भ दुष्काल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था । महाराणा राज सिंह की उपलब्धियों की जानकारी के लिय यह प्रशस्ति अत्यन्त उपयोगी है । इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि राजसमुद्र तालाब की प्रतिष्ठा के अवसर पर 46,000 ब्राह्मण तथा अन्य लोग आये थे । तालाब बनवाने में महाराणा ने 1,05,07,608 रुपये व्यय किये थे । यह प्रशस्ति 17वीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है |
1.3.2 फारसी शिलालेख
भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् फारसी भाषा के लेख भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं । ये लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, सरायों, तालाबों की घाटों, पत्थरों आदि पर उत्कीर्ण करके लगाये गये थे । राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के निर्माण में इन लेखों से महत्वपूर्ण सहायता मिलती है | इनके माध्यम से हम राजपूत शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल शासकों के मध्य लड़े गये युद्धों, राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर समय-समय पर होने वाले मुस्लिम आक्रमणों, राजनीतिक सम्बन्धों आदि का मूल्यांकन कर सकते हैं । इस प्रकार के लेख सांभर, नागौर, मेड़ता, जालौर, सांचोर, जयपुर, अलवर, टोंक, कोटा आदि क्षेत्रों में अधिक पाये गये हैं ।
फारसी भाषा में लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढ़ाई दिन के झोंपडे के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है । यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में संस्कृत पाठशाला तोडकर मस्जिद का निर्माण करवाया गया । चित्तौड़ की गैबी पीर की दरगाह से 1325 ई. का फारसी लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया था । जालौर और नागौर से जो फारसी लेख में मिले हैं, उनसे इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक मुस्लिम प्रभुत्व की जानकारी मिलती है । पुष्कर के जहाँगीर महल के लेख (1615 ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है । इस घटना की पुष्टि 1637 ई. के शाहजहानी मस्जिद, अजमेर के लेख से भी होती है ।
1.4 ताम्रपत्र
इतिहास के निर्माण में तामपत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है । प्राय राजा या ठिकाने के सामन्तों द्वारा ताम्रपत्र दिये जाते थे । ईनाम, दान-पुण्य, जागीर आदि अनुदानों को ताम्रपत्रों पर खुदवाकर अनुदान-प्राप्तकर्ता को दे दिया जाता था जिसे वह अपने पास संभाल कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी रख सकता था | ताम्रपत्रों में पहले संगत भाषा का प्रयोग किया गया परन्तु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा | दानपत्र में राजा अथवा दानदाता का नाम, अनुदान पाने वाले का नाम, अनुदान देने का कारण, अनुदान में दी गई भूमि का विवरण, समय तथा अन्य जानकारी का उल्लेख किया जाता था | इसलिए दानपत्रों से हमें कई राजनीतिक घटनाओं, आर्थिक स्थिति, धार्मिक विश्वासों, जातिगत स्थिति आदि के बारे में उपयोगी जानकारी मिलती है | कई बार दान पत्रों से विविध राजवंश के वंश क्रम को निर्धारित करने में सहायता मिलती है । आहड के ताम्रपत्र (1206 ई.) में गुजरात के मूलराज से लेकर भीमदेव द्वितीय तक सोलंकी राजाओं की वंशावली दी गई है । इससे यह भी पता चलता है कि भीमदेव के समय में मेवाड़ पर गुजरात का प्रभुत्व था । खेरोदा के ताम्रपत्र (1437 ई.) से एकलिंगजी में महाराणा कुम्भा द्वारा दान दिये गये खेतों के आस-पास से गुजरने वाले मुख्य मार्गो, उस समय में प्रचलित मुद्रा धार्मिक स्थिति आदि की जानकारी मिलती है | चौकली ताम्रपत्र (1483 ई.) से किसानों से वसूल की जाने वाली विविध लाग-बागों का पता चलता है । पुर के ताम्रपत्र (1535 ई.) से हाडी रानी कर्मावती द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिये गये भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है ।
1.5 सिक्के
राजस्थान के इतिहास लेखन में सिक्कों (मुद्राओं) से बडी सहायता मिलती है । ये सोने, चांदी, तांबे या मिश्रित धातुओं के होते थे । सिक्के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं भौतिक जीवन पर उल्लेखनीय प्रकाश डालते हैं । इनके प्राप्ति स्थलों से काफी सीमा तक राज्यों के विस्तार का ज्ञान होता है । सिक्कों के ढेर राजस्थान में काफी मात्रा में विभिन्न स्थानों पर मिले हैं । 1871 ई. में कार्लायल को नगर (उणियारा) से लगभग 6000 मालव सिक्के मिले थे जिससे वहां मालवों के आधिपत्य तथा उनकी समृद्धि का पता चलता है |
रैढ़ (टोंक) की खुदाई से वहाँ 3075 चांदी के पंचमार्क सिक्के मिले । ये सिक्के भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं । इन पर विशेष प्रकार का चिह्न अंकित हैं और कोई लेप नहीं है | ये सिक्के मौर्य काल के थे । 1948 ई. में बयाना में 1921 गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के मिले थे । तत्कालीन राजपूताना की रियासतों के सिक्कों के विषय पर केब ने 1893 में ‘द करेंसीज आफ दि हिन्दू स्टेट्स ऑफ राजपूताना’ नामक पुस्तक लिखी, जो आज भी अद्वितीय मानी जाती है । विद्वान पुरातत्ववेत्ता एवं मुद्राशास्त्री कनिंघम, रेपसन, रेऊ आदि के अध्ययन से राजपूताना के सिक्कों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है | 10-11वीं शताब्दी में प्रचलित सिक्कों पर गधे के समान आकृति का अंकन मिलता है, इसलिए इन्हें गधिया सिक्के कहा जाता है । इस प्रकार के सिक्के राजस्थान के कई हिस्सों से प्राप्त होते हैं | मेवाड में कुम्भा के काल में सोने, चाँदी व ताँबे के गोल व चौकोर सिक्के प्रचलित थे | महाराणा अमरसिंह के समय में मुगलों के संधि हो जाने के बाद यहाँ मुगलिया सिक्कों का चलन शुरू हो गया | मुगल शासकों के साथ अधिक मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के कारण जयपुर के कछवाह शासकों को अपने राज्य में टकसाल खोलने की स्वीकृति अन्य राज्यों से पहले मिल गई थी । यहाँ के सिक्कों को ‘झाडशाही’ कहा जाता था | जोधपुर में विजयशाही सिक्कों का प्रचलन हुआ । बीकानेर में ‘आलमशाही’ नामक मुगलिया सिक्कों का काफी प्रचलन हुआ । ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के बाद कलदार रुपये का प्रचलन हुआ और धीरेधीरे राजपूत राज्यों में ढलने वाले सिक्कों का प्रचलन बन्द हो गया ।
1.6 स्मारक एवं मूर्तियों (दुर्ग, मंदिर, स्तूप तथा स्तम्भ)
राजस्थान में अनेक स्थलों से प्राप्त भवन, दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तम्भ आदि स्तूप तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है । प्राचीन दुर्ग एवं भवन राजस्थान में स्थान-स्थान पर देखे जा सकते हैं । चित्तौड़, जालौर, गागरोन, रणथम्भौर, आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, कुम्भलगढ, अचलगढ़ आदि दुर्ग इतिहास के बोलते साक्ष्य हैं । दुर्गों में बने महल, मन्दिर, जलाशय आदि तत्कालीन समाज एवं धर्म की जानकारी देते हैं ।
राजस्थान के प्रसिद्ध मन्दिर यथा देलवाडा एवं रणकपुर के जैन मन्दिर आमेर का जगत शिरोमणि मंदिर, नागदा का सास-बहू का मंदिर, उदयपुर का जगदीश मंदिर, ओसियां का सच्चिमाता एवं जैन मंदिर, झालरापाटन का सूर्य मंदिर आदि उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त किराडू, बाडोली, पुष्कर आदि स्थानों के मंदिर भी इतिहास के अध्ययन के लिए उपयोगी है । ये मंदिर धर्म एवं कला के अध्ययन के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं | मूर्तियों के गहन अध्ययन से तत्कालीन वेशभूषा, श्रृंगार के तौर-तरीकों, आभूषणों, विविध वाद्य यंत्रों, नृत्य की मुद्राओं आदि का बोध होता है | राजस्थान में स्थापत्य एवं तक्षणकला के लिए चित्तौड़ दुर्ग स्थित कीर्ति स्तम्भ एक श्रेष्ठ उदाहरण है | आमेर का जगत शिरोमणि का मंदिर, मुगल-राजपूत समन्वय की दृष्टि से उल्लेखनीय है ।
1.7 चित्रकला
राजस्थान के लोगों की चित्रकला में रुचि आदि काल से रही है । शैलचित्र इसके उदाहरण हैं । जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राचीनतम सचित्र ग्रंथ प्राप्त हुए हैं । ग्यारहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के सचित्र ग्रंथों में निशीथचूर्णि त्रिषीष्टश्लाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, सुपासन चरित्रम्, गीत गोविन्द आदि प्रमुख हैं । विभिन्न राज दरबारों में आश्रित चित्रकारो ने अपने-अपने ढंग से चित्र बनाने प्रारम्भ किये । अत विभिन्न चित्र शैलियों मेवाड शैली आमेर शैली, मारवाड शैली, बूंदी शैली, किशनगढ़ शैली, कोटा शैली, नाथद्वारा शैली आदि का विकास हुआ | मारवाड शैली के अन्तर्गत चित्रित उत्तराध्ययन सूत्र, पंचतन्त्र तथा जयपुर शैली में बारहमासा, रागमाला आदि राजस्थानी चित्र शैली के तो श्रेष्ठ उदाहरण है ही, साथ ही इतिहास के स्रोत भी । नाथद्वारा की कलम से बने पुष्टिमार्ग से प्रभावित श्रीनाथजी के चित्र तथा प्राकृतिक चित्रण अत्यन्त सजीव हैं । किशनगढ़ एवं बूंदी का नारी का श्रृंगार चित्रण तथा कोटा का शिकार दृश्य उल्लेखनीय हैं । राजस्थान चित्रकला से सांस्कृतिक इतिहास को लिखने में काफी सहायता मिलती है ।
(ब) साहित्यिक स्रोत
राजस्थान इतिहास लेखन के लिए संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी, फारसी आदि कृतियाँ बड़ी उपयोगी हैं । इन कृतियों के रचयिता या तो राज्याश्रय प्राप्त थे या स्वांत सुखाय की दृष्टि से लिखने वाले थे । इन कृतियों से तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन, युद्ध प्रणाली आदि पर काफी प्रकाश पडता है । यद्यपि इन ग्रंथों में अक्सर अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है, फिर भी इसका ऐतिहासिक महत्त्व कम नहीं हो जाता है । निसन्देह ये ग्रंथ अपने रचना काल की । प्रवृत्तियों तथा गतिविधियों के बहुमूल्य साक्ष्य हैं किन्तु इनका उपयोग सन्तुलित एवं पैनी दृष्टि से करने की जरूरत है।
1.8 संस्कृत साहित्य
ऐतिहासिक साहित्यिक स्रोतों में संस्कृत साहित्य का बड़ा महल है | मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास के लिए कई ग्रंथ हैं जो अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर; पुस्तक प्रकाश, जोधपुर; प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर; उदयपुर साहित्य संस्थान, उदयपुर, प्रताप शोध संस्थान, उदयपुर; नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ (मध्यप्रदेश) आदि में सुरक्षित हैं ।
– पृथ्वीराज विजयजयानक ने 12वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में पृथ्वीराज विजय महाकाव्य लिखा था | इस काय में सपादलक्ष चौहानों की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है । यह अजमेर के उत्तरोत्तर विकास को जानने के लिए भी उपयोगी है ।
हम्मीर महाकाव्यनयनचन्द्र सूरी कृत 1403 ई. का हम्मीर महाकाव्य चौहानों के इतिहास की जानकारी तो उपलब्ध कराता ही है, साथ ही, अलाउद्दीन खिलजी की रणथभौर विजय एवं उस समय की सामाजिक, धार्मिक अवस्था का बोध कराने में बड़ा सहायक है । इसमें दिये गये वर्णन को यदि फारसी तवारीखों से तुलना करते हैं तो प्रतीत होता है कि लेखक ने बडे छानबीन के साथ तथा समसामयिक इतिहास सामग्री के आधार पर रणथम्भौर के चौहानों का वर्णन किया है । अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा किये गये रणथम्भौर के आक्रमण की कई घटनाओं को समझने के लिए इसका एक स्वतन्त्र महत्व है | इससे हम्मीर के चरित्र पर अच्छा प्रकाश पड़ता है |
राजवल्लभमहाराणा कुम्भा के मुख्य शिल्पी मण्डन ने 15वी शताब्दी में इसकी रचना की थी | यह ग्रंथ स्थापत्य कला को समझने की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है । इसके द्वारा नगर, ग्राम, दुर्ग, राजप्रसाद, मन्दिर, बाजार आदि के निर्माण की पद्धति पर पूरा प्रकाश पडता है । इस ग्रंथ में कुल 14 अध्याय हैं ।
भीट्टकाव्ययह काव्य 15वीं शताब्दी में रचा गया था | इसमें जैसलमेर की राजनीतिक तथा सामाजिक स्थिति का वर्णन है । महाराजा अक्षयसिंह के प्रासादों का तथा तुलादान आदि का इसमें रोचक वर्णन है ।
राजविनोद इस ग्रंथ की रचना भट्ट सदाशिव ने बीकानेर के महाराजा कल्याणमल (16वीं शताब्दी) की आज्ञा से की थी । इसमें विविध विषयों जैसे सामाजिक, आर्थिक, सैन्य आदि का वर्णन है । लेखक ने इसमें किलों के निर्माण तथा सैनिक उपकरणों संम्बन्धी विषयों पर भी प्रकाश डाला है।
एकलिंग महात्म्यमहाराणा कुम्भा रचित एकलिंग महात्म्य से गुहिल शासकों की वंशावली तथा मेवाड के सामाजिक संगठन की झांकी मिलती है ।
कर्मचन्द्र वंशोत्कीर्तनकं काव्यम्जयसोम विरचित 16वि शताब्दी का यह ग्रंथ बीकानेर के शासकों के वैभव और विद्यानुराग पर अच्छा प्रकाश डालता है । इस युग के पुस्तकालय, मन्दिर, पाठशालाएँ, भिक्षुग्रह, नगर, फाटक, बाजार, बस्तियों, राजप्रसाद आदि से सम्बन्धित जानकारी के लिए भी यह ग्रंथ उपयोगी है ।
अमरसार इसकी रचना पंडित जीवाधार ने 16वीं शताब्दी में की थी । इस काक से महाराणा प्रताप और अमरसिंह प्रथम के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश पडता है । तत्कालीन रहन-सहन, आमोद-प्रमोद, जनजीवन की झांकी के लिए अमरसार एक महत्वपूर्ण स्रोत है ।
राजरत्नाकर इस ग्रंथ की रचना 17वीं शताब्दी में विद्वान लेखक सदाशिव ने महाराणा राजसिंह के समय में की थी । इसमें 22 सर्ग हैं । महाराणा राजसिंह के समय के समाज चित्रण तथा दरबारी जीवन के वर्णन में लेखक ने अपनी निपुणता का परिचय दिया है । तत्कालीन शिक्षण व्यवस्था एवं पाठ्यक्रम के लिए भी यह ग्रंथ उपयोगी है ।
अजितोदय जोधपुर नरेश अजीतसिंह के दरबारी कवि जगजीवन भट्ट द्वारा रचित अजितोदय (17वीं शताब्दी) मारवाड के इतिहास की रचना के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इस ग्रंथ में महाराजा जसवंतसिंह और अजीतसिंह के समय में युद्धों, सन्धियों, विजयों के साथ-साथ उस समय के प्रचलित रीतिरिवाजों और परम्पराओं की भी जानकारी मिलती है | मारवाड की कई ऐतिहासिक घटनाओं के अध्ययन के लिए इस ग्रंथ का बड़ा उपयोग है |
1.9 राजस्थानी साहित्य ।
इतिहास विषयक राजस्थानी कृतियाँ गद्य और पद्य दोनों में मिलती हैं । सामान्यत ये रचनाएँ राज्याश्रय में लिखी गई | ऐसी ऐतिहासिक गद्य कृतियों में ख्यात, बात, विगत, वंशावली, हाल, हकीकत, याददास्त, बही आदि को ले सकते हैं | राजस्थानी पद्य कृतियों में रासो, विलास, प्रकाश, रूपक, वचनिका वैलि, भमाल, झूलणा, दूहा, छंद आदि को लिया जा सकता हैं | 16वी शताब्दी से पूर्व रासो साहित्य प्रचुर मात्रा में मिलता है । इसके पश्चात राजस्थान के ऐतिहासिक गद्य के अनेक रूप देखे जा सकते हैं जैसे कि ख्यात, बात, वंशावली, पीढ़ियावली, पट्टावली, विगत हकीकत, हाल, याद, वचनिका आदि । राजस्थानी परम्परा में ख्यात इतिहास को कहते हैं । वात में किसी व्यक्ति या जाति या घटना या प्रसंग का संक्षिप्त इतिहास होता है । ख्यात बड़ी होती है और वात छोटी होती है । वंशावली और पीढ़ियावली में पीढ़ियाँ दी जाती हैं, जिनके साथ में प्राय व्यक्तियों का संक्षिप्त या विस्तृत परिचय रहता है | पट्टावली में जागीरदारों के पट्टे अर्थात् जागीरों का विवरण रहता है । हकीकत
और हाल में किसी घटना या प्रसंग का विस्तृत विवरण होता है । याद याददाश्त को कहते हैं । वचनिका ऐतिहासिक काव्य होता है । कतिपय ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी राजस्थानी साहित्य निम्न हैं
1.9.1 साहित्यिक स्रोत
कान्हड़दे प्रबन्ध इसकी रचना कवि पद्मनाभ ने जालौर के शासक अखैराज के आश्रय में 15वी शताब्दी में की थी । इस काव्य का आधार अलाउद्दीन द्वारा जालौर आक्रमण है जिसमें जालौर शासक कान्हड़दे, उसका लड़का वीरमदे तथा उसके अनेक साथी तुर्की सेना से लड़कर काम आये परन्तु इसमें कई महत्वपूर्ण राजनीतिक तथा सामाजिक तथ्य भी छिपे पडे है । इस कृति में कुछ अनैतिहासिक अंश में जुड़े हुए हैं । इस अवसर पर किये गये जौहर का भी कवि ने अच्छा वर्णन किया है । इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने इसमें वर्णित अंशों को राजकीय ऐतिहासिक सामग्री से पुष्ट किया था ।
राव जैतसी रो छन्द इसकी रचना बीठू सूजे ने 16वीं शताब्दी में की थी । इस ग्रंथ दवारा बीकानेर के शासक जैतसी की युद्ध प्रणाली का बोध होता है तथा स्थानीय रीति-रिवाजों की जानकारी मिलती है । इस कृति में कामरान द्वारा भटनेर किले पर किये गये आक्रमण का वर्णन है जिसमें बीकानेर के कई वीर किले को मुगलों के चंगुल से बचाने के प्रयास में खेत रहे ।
वेलि क्रिसन रुकमणी रीइसकी रचना कुँवर पृथ्वीराज राठौड ने की थी । वह अकबर के दरबार का सम्मानित दरबारी था । यह कृति मूलत भक्ति रस से सम्बन्धित है परन्तु इससे तत्कालीन रहन-सहन, रीति-रिवाज उत्सव, त्योहार, वेशभूषा आदि पर मी अच्छा प्रकाश पडता है |
राजरूपक इसकी रचना वीरभाण ने की थी । यह जोधपुर के महाराजा अभयसिंह का समकालीन था । इसमें अभयसिंह द्वारा लडे गये कई युद्धों का आँखों देखा वर्णन है ।
सूरज प्रकाशकृइसकी रचना जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के दरबारी कवि करणीदान ने की थी । इसमें भी अभयसिंह के समय के युद्धों का आँखों देखा वर्णन है । उस समय के सामाजिक इतिहास के अध्ययन के लिए इसका अधिक उपयोग है । तत्कालीन वेशभूषा, खानपान, रीति-रिवाज, विवाह उत्सव, आखेट, यज्ञ, दान, पुण्य यात्रा आदि का सजीव वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है | वर्णन धारा प्रवाह तथा भाषा लावण्य इस ग्रंथ की विशेषता है |
1.9.2 रासो साहित्य
मध्यकाल में राजस्थानी विद्वानों ने राजाओं एवं राजघराने की प्रशंसा में काव्यों की रचना की । इस प्रकार के काव्यों में इतिहास की भी सामग्री उपलब्ध है । ऐसे काव्यों को रासो साहित्य कहा जाता है । रासो ग्रंथ में चन्दरबरदाई का पृथ्वीराज रासो, नरपति नाल्ह का विसलदेव रासो, कविया गोपालदास का लावा रासो, कविजान का क्यामखाँ रासो, दौलत विजय का खुमाण रासो, गिरधर आसिया का संगत रासो, जोधराज का हम्मीर रासो आदि प्रमुख हैं । ज्यादातर रासो साहित्य व 16वीं शताब्दी के पूर्व लिखा गया । रासो साहित्य का ऐतिहासिक उपयोग अत्यन्त छानबीन से करने की जरूरत है । रासो साहित्य से हमें तत्कालीन राजपूत राज्यों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के बारे में उपयोगी जानकारों उपलब्ध होती है |
1.9.3 ख्यात साहित्य
ये राजस्थानी भाषा में लिखा ऐसा साहित्य है जो 16वीं शताब्दी के आस-पास लिखा जाने लगा । ऐसा साहित्य जो ख्याति को प्रतिपादित करे, ख्यात साहित्य कहलाता है । ख्यात शब्द संस्कृत के शब्द प्रख्यात का अपभ्रंश है । अधिकांशत ख्यात लेखक दरबारी चारण या भाट होते थे किन्तु मुहणोत नैणसी इसके अपवाद हैं । खातों में प्राय प्रसिद्ध राजपूत राजवंशों की स्थापना राजाओं का वंशक्रम, घटनाओं, उनकी उपलब्धियों एवं कार्यकलापों आदि का वर्णन मिलता है । ख्यातों से विभिन्न ठिकानों के बारे में भी जानकारी मिलती है । इसके अतिरिक्त प्रसंगवश ये ख्यातें सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास को जानने के लिए विशेष रूप से उपयोगी हैं | यदयपि ख्यातों का वर्णन अक्सर अतिश्योक्तिपूर्ण होता है परन्तु सावधानीपूर्वक इनके उपयोग से स्थानीय इतिहास का ताना-बाना अच्छी तरह से बुना जा सकता
राजस्थान की प्रसिद्ध ख्यातें है-मुहणोत नैणसी री ख्यात, दयालदास री ख्यात, जोधपुर राज्य री ख्यात, जैसलमेर री ख्यात, मुण्डियार री ख्यात, बांकीदास री ख्यात, राठौड री खात आदि । कतिपय प्रमुख ख्यातकारों एवं उनकी रचनाओं का वर्णन आगे के पृष्ठों में किया गया है ।
मुहणोत नैणसी (1610-1670 ई.) नैणसी जोधपुर के दीवान जयमल का ज्येष्ठ पुत्र था तथा 27 वर्ष की आयु में राज्य सेवा में नियुक्त हुआ था । शीघ्र ही वह देश दीवान बनकर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का विश्वासपात्र अधिकारी बन गया । दुर्भाग्यवश अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वह महाराजा का कोपभाजन बन गया और मजबूरी में आत्महत्या करनी पड़ी |
उसने 1643 ई. से ही स्वतन्त्र रूप से इतिहास लेखन विषयक सामग्री इकट्ठी करना प्रारम्भ कर दिया था । नैणसी की प्रसिद्ध रचना नैणसी री ख्यात एवं मारवाड रा परगना री विगत है । ख्यात से राजस्थान विशेष रूप से मारवाड के अतिरिक्त गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, बघेलखण्ड और मध्यभारत के राजनीतिक इतिहास पर अच्छा प्रकाश पडता है | बह मारवाड के सभी परगनों का क्रमबद्ध विस्तृत ब्योरा भी लिखना चाहता था । इसके लिए उसने परगनों का सर्वेक्षण करवाये । उसने जगह-जगह के चारण-भाटों, आदि से भिन्न-भिन्न देशों या राज्यों का इतिहास मंगवाकर संग्रह किया | वह जहाँ भी जाता था तो स्थानीय कानूनगो से पुराना हाल मालूम करके लिख लेता था । इसी भाँति अपने रिश्तेदारों एवं परिचितों से भी संग्रह मंगवाया करता था ।
नैणसी री ख्यात का रचनाकाल 1643 से 1666 ई. तक का है । ख्यात में चौहानों तथा भाटियों का काफी विस्तार से विवरण दिया गया है । चौदहवीं शताब्दी के बाद के राजपूतों के राजनीतिक इतिहास के लिए यह ख्यात फारसी ग्रंथों से भी ज्यादा महल की है । विभिन्न रियासतों की भूगोल विषयक जानकारी के लिए ख्यात उपयोगी है | नैणसी री ख्यात की सत्यता तथा यथार्थता की सभी लेखकों ने एक मर में प्रशंसा की है । ‘मारवाड रा परगना री विगत’ से मारवाड के परगनों, कलों की आबादी, वही के जन-जीवन, सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश पडता है । मुंशी देवीप्रसाद ने नैणसी को ‘राजस्थान का अबुल फजल’ कहा है | कालीकारंजन कानूनगो ने उसे अबुल फजल से भी अधिक योग्य बतलाया है | नैणसी अबुल फजल की भाँति राज्याश्रित इतिहासकार नहीं था । उसका इतिहास संयोजन संभवत अबुल फजल से अधिक वैज्ञानिक, स्पष्ट तथा निष्पक्ष है । राजस्थान इतिहास लेखन में नैणसी के ग्रंथ निसन्देह अमूल्य आधार ग्रंथ हैं ।
बांकीदास आशिया (1781 – 1833) चारण लेखकों में बांकीदास का काफी महत्वपूर्ण स्थान है । मुनि जिनविजय ने उसे एक महान् कवि और इतिहासकार स्वीकार किया है । वह जोधपुर के महाराजा मानसिंह का विश्वासपात्र व्यक्ति था । महाराजा मानसिंह उससे प्रथम भेंट में इतने प्रभावित हो गये थे कि बांकीदास को लाख पसाव के सम्मान से सम्मानित किया । जोधपुर राज्य दरबार के अलावा अन्य राज्यों के शासक भी बांकीदास की विद्वता का सम्मान करते थे | बांकीदास डिंगल, पिंगल, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं का अच्छा जानकार था । वह स्मरण शक्ति का भी धनी था | बांकीदास स्वाभिमानी एवं निर्भीक था । उसकी प्रसिद्ध रचना उसकी ख्यात है जिसे ऐतिहासिक टिप्पणी संग्रह कहना अधिक उपयुक्त है । इसमें लगभग 3000 फुटकर बातें है जो एक पंक्ति से लेकर छ: पंक्ति तक है । याददास्त के रूप में लिखी कई बातें बड़ी उपयोगी व महत्वपूर्ण हैं | कइ ऐसी बातें हैं जो अन्यत्र नहीं मिलती । उसकी ख्यात की एक कमी यह है कि इसके वर्णन में क्रमबद्धता का अभाव है और कई बार इनकी पुनरावृत्ति हुई है | गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार बांकीदास की ख्यात इतिहास का खजाना है । राजपूताना व तमाम राज्यों के इतिहास सम्बन्धी रत्न उसमें भरे पड़े हैं | गोपीनाथ शर्मा ने ख्यात के महत्त्व के बारे में लिखा है, “इनकी बातों में अनेक प्रकार के भौगोलिक विषयों, रहन-सहन, रीति-रिवाज, वाणिज्य-व्यवस्था आदि पर प्रकाश पडता है | ” मध्यकालीन समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए ख्यात की उपादेयता असंदिग्ध है |
दयालदास सिंढायच (1798-1891 ई.) बीकानेर के चारण जाति के दयालदास में कई खूबियाँ एक साथ थी । वह इतिहासकार. ख्यातकार, कवि और तत्कालीन मारवाड़ी भाषा का उच्चकोटि का गद्य लेखक था । बह बीकानेर के महाराजा रतनसिंह का राजदरबारी था । बीकानेर नरेश को इस बात का बडा दुख था कि कर्नल टॉड ने बीकानेर राजवंश को राजस्थान के राज्यों में द्वितीय श्रेणी का माना था । वह चाहते थे कि टॉड की यह मान्यता निरस्त हो । इस कारण महाराजा ने दयालदास को बीकानेर राज्य का इतिहास लिखने का आदेश दिया । दयालदास की रचनाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति ‘बीकानेर रै राठौड़ा री ख्यात’ है, जो ‘दयालदास री ख्यात’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध है ।
दयालदास एक राज्याश्रित इतिहासकार था और उसने बीकानेर नरेशों की उच्चता बतलाने में ही अपनी लेखनी का भरपूर प्रयोग किया जिससे उसकी ख्यात कई स्थानों पर एकपक्षीय वर्णन चित्रित करती है । फिर भी उसका ग्रंथ राजस्थान के इतिहास लेखन की स्रोत सामग्री की दृष्टि से उपयोगी है । सबसे बड़ी बात यह है कि बीकानेर राज्य का क्रमबद्ध इतिहास हमें सर्वप्रथम दयालदास की खात से ही मिलता है।
सूर्यमल्ल मीसण (1815-1888 ई) बूंदी के महाकवि सूर्यमल्ल मीसण की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘वंश भास्कर’ है । यह पद्य में लिखा गया महाकाव्य है । सुनीति कुमार चाटुर्या का कहना है, ‘सूर्यमल्ल मीसण अपनी कारयित्री और सांस्कृतिक शिक्षा का उपयोगी काल बीत जाने के बाद संसार में आए | संस्कृत के महाभारत का प्रतिस्पर्धी पिंगल और प्राकृत मिश्रित भाषा में रचा हुआ यह विशाल ऐतिहासिक महाकाव्य वंश भास्कर इनकी महती कृति है ।
आलमशाह खान की टिपणी है कि, “वंश भास्कर जिसके पारायण से राजाओं ने राजत्व समझा, पण्डित-शास्त्रियों ने नीति और शस्त्र गुना, कलावन्तों ने कलाएँ जानी, कवि-आचार्य साहित्य की परख करने में समर्थ बने और राजस्थान के इतिहास प्रणेताओं ने इसे आधार बनाकर चलने में ही अपनी सिद्धि देखी । युवा मरुवीरों ने इसमें अपने रक्त का रंग देखा, बालवृन्द ने, केसरिया रंग का जादू समझा तो वृद्धजनों ने इसे पढ़कर मूंछों पर अपने हाथ धरे । इस प्रकार वंश भास्कर काव्य और इतिहास के रूप में ही नहीं, अपितु भारतीय ज्ञान परम्परा के समृद्ध कोष और राजस्थानी सभ्यता-संस्कृति के स्मारक के रूप में प्रख्यात हुआ।”
चार हजार मुद्रित पृष्ठों में सदा लाख छंदों के वंश भास्कर में मूलत: बूंदी के हाडा चौहानों का इतिहास है । बूंदी राज्य के इतिहास को लिपिबद्ध करते समय प्रसंगवश उन राज्यों और शासकों का वर्णन भी मिलता है, जिनके बूंदी नरेशों के साथ दूर-पास के सम्बन्ध थे । यह ग्रन्थ वीर प्रसंगों, युद्ध वर्णनों तथा उपयोगी ज्ञान की विस्तृत जानकारी देने वाला अद्वितीय ग्रंथ है । आलमशाह खान के अनुसार “नगर जीवन और क्षयमान सामन्तकाल के जन-जीवन का साकार चित्र जिस प्रकार वंश भास्कर में मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है ।” सूर्यमल्ल मीसण ने बूंदी के शासक महाराव रामसिंह के आदेश पर 1840 ई. में लिखना प्रारम्भ किया लेकिन 1856 ई. में यकायक उसने लिखना बन्द कर दिया । यद्यपि उसकी कृति त्रुटि रहित नहीं है । उसने बिना ऐतिहासिक परख के सामग्री को जोड दिया तथा घटनाओं और तथ्यों का विश्लेषण नहीं किया | वह मूलत: एक कवि था, अत: साहित्यिक कृति में अधिक तथ्यों की तलाश बेईमानी होगी । सूर्यमल्ल मीसण की अन्य रचना वीर सतसई है । यह वीर रस प्रधान कृति है । इसकी पृष्ठभूमि 1857 ई. की क्रांति है । परन्तु कृति को क्रांति का प्रतीक मानना अति उत्साही कदम होगा ।
1.10 फारसी भाषा में लिपिबद्ध साहित्य
पूर्व मध्यकालीन एवं उत्तर मध्यकालीन ऐतिहासिक विवरणों को क्रमबद्ध करने अथवा सत्यापित करने अथवा रिक्त स्थान को भरने के लिए फारसी तवारीखों का अपना महत्व है । मध्यकालीन फारसी स्रोत ग्रन्थ अधिकांशत: उन लोगों द्वारा लिखे गये अथवा लिखवाये गये हैं, जो घटनाओं के न्यूनाधिक रूप से साक्षी रहे हैं । अत: इनकी विश्वसनीयता है । यद्यपि इन्हें सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इन्होंने अपने मुस्लिम शासक अथवा उत्तराधिकारियों की तारीफ आलंकारिक भाषा में करने में न तो परहेज किया और न उनकी कमियों अथवा पराजय को ईमानदारी से अभिव्यक्त किया । कतिपय बादशाहों द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं में तथा कुछ की जीवनियों में भी राजस्थान इतिहास से सम्बन्धित सामग्री मिलती है । हसन निजामी कृत ताजुल मआसिर (12वीं शताब्दी) से अजमेर नगर की समृद्धि, पृथ्वीराज चौहान तृतीय के अंतिम दिनों तथा मुस्लिम विजय का अभिज्ञान होता है | अजमेर, जालौर तथा नागौर आदि स्थानों पर मुस्लिम प्रभाव के वर्णन के लिए मिनहाज उस सिराज कृत तबकाते नासिरी (13वी शताब्दी) उल्लेखनीय है । हजरत अमीर खुसरो की तारीख-ए-अलाई, देवलरानी खिज्रखाँ, खजाइनुल फुतूह (13 वीं- 14वीं शताब्दी), इत्यादि रचनाओं में अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड एवं रणथम्भौर विजय की जानकारी उपलब्ध होती है । जियाउद्दीन बरनी की तारीख-ए-फिरोजशाही एवं याहया बिन अहमद सरहिन्द की तारीख-ए-मुबारकशाही (14 शताब्दी) में खिलजी वंश के शासकों के साथ-साथ राजस्थान इतिहास से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामग्री भी इनमें उपलब्ध है।
इसी प्रकार बाबर की आत्मकथा बाबरनामा तथा जहाँगीर की तुजुके जहाँगीरी और जीवनियों में गुलबदन बेगम कृत हुमायूँनामा आदि से राजस्थान सम्बन्धित उपयोगी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं | बाबरनामा से बाबर के साथ सांगा के सम्बन्ध, तुजुके जहाँगीर से जहाँगीर एवं मेवाड के साथ सन्धि की परिस्थितियों एवं शर्तों का पता चलता है । इसके अतिरिक्त राजपूतों का मद्य प्रेम, राजपूत राजकुमारियों का शाही घरानों में विवाह, दशहरा, होली, दीपावली आदि पर्वो के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है । हुमायूँनामा से हुमरों के मारवाड और मेवाड के शासकों के साथ सम्बन्धो की जानकारी मिलती है । अबुल फजल कृत अकबरनामा में मेवाड, अलवर, भरतपुर और जयपुर के आस-पास के क्षेत्रों की विस्तृत भौगोलिक जानकारी दे रखी है | प्रताप एवं अकबर के सबको के एक पक्षीय विवरण को भी जानने के लिए भी अकबरनामा उपयोगी है । इसी प्रकार अबुल फजल का ही आईने अकबरी अजमेर की जलवायु राजस्थान की वेश-भूषा, राजस्थान में मनाये जाने वाले पर्व-त्यौहार, मुद्रा आदि के बारे में जानकारी उपलब्ध कराती है । अब्बास खाँ सरवानी की तारीख-ए-शेरशाही से मारवाड के शासक व मालदेव के सम्बन्धों का ज्ञान होता है, चाहे एक पक्षीय । इसी प्रकार अब्दुल हमीद लाहौरी कृत बादशाहनामा, मुहम्मद साकी मुस्तैदखां द्वारा रचित मासिर-ए-आलमगिरि शाहजहाँकालीन राजस्थान के लिए उपयोगी है । बादशाहों द्वारा जारी किये गये फरमानों, दरबार के अखबारों आदि से भी राजस्थान के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है ।
(स) पुरालेखीय सामग्री
राजस्थान इतिहास जानने के मूल स्रोतों में लेखबद्ध सामग्री का बड़ा महत्व है । वर्तमान काल से पूर्व लिखे अथवा लिखवाये गये राजकीय, अर्द्ध राजकीय अथवा लोक लिखित साधन पुरालेखीय सामग्री के अन्तर्गत आते हैं । विशिष्ट प्रशासकीय सामग्री को जिस अधिकृत रूप से कार्यालय विशेष या पुरालेखागार की अभिरक्षा और भावी संदर्भ के लिए सुरक्षित रखा जाता है, पुरालेखागार कहलाता है । पुरालेखागार में रखे पुराने अभिलेखों का शोध आदि प्रयोजन के लिए पाठक बिना किसी प्रतिबन्ध के देख एवं प्रयोग कर सकते हैं । मध्यकाल एवं आधुनिक काल में राजस्थान की विभिन्न रियासतों में प्रशासकीय प्रलेखों को व्यवस्थित रूप से रखा जाता था, साथ ही, पाण्डुलिपियों, ग्रंथों आदि का भी संग्रह किया जाता था । ऐसे संग्रह स्वतन्त्र रूप से भी मन्दिरों, मठों, हवेलियों, ठिकानेदारों के आवासों आदि में भी मिलते हैं ।
.1.11 प्रमुख पुरालेखीय सामाग्री
मुगल प्रशासन में सरकारी कागज पत्रों को संग्रहित करने की प्रवृत्ति थी । मुगलों का प्रभाव राजपूत शासकों पर भी पड़ा । इन्होंने भी राजकीय पत्रावलियों के संग्रह की ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया । राजस्थान में पुरालेखीय स्रोत का विशाल संग्रह राज्य अभिलेखागार, बीकानेर और उसके अधीन विभिन्न वृत्त अथवा जिला अभिलेखागारों में सुरक्षित है ।
राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में भी राजस्थान से संबन्धित काफी रिकॉर्ड उपलब्ध हैं । यह रिकॉर्ड उत्तर मध्यकालीन और आधुनिक काल के इतिहास के मुगल शासन एवं ब्रिटिश सरकार से सम्बन्धित हैं ।
सम्पूर्ण अभिलेख सामग्री को राजकीय संग्रह तथा संस्थागत या निजी सामग्री को व्यक्तिगत संग्रह के रूप में विभाजित करते हुए फारसी, उर्दू राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा में लिखित पुरालेख साधन में वर्गीकृत किया जा सकता है
(अ) फारसी / उर्दू भाषा में लिखित सामग्री में फरमान, मन्सूर, रुक्का, निशान, अर्जदाश्त, हस्बुलहुक्म सनद, इन्शा, वकील रिपोर्ट और अखबारात आदि उपलब्ध होते हैं |
(ब) राजस्थानी / हिन्दी भाषा में पट्टे परवाने, बहियाँ, खरीदे, खतत, अर्जियाँ, हकीकतें याददाश्त, रोजनामचे, गाँवों के नक्शे, हाले-हवाले पानडी, अखबार आदि मुख्य है ।
(स) अंग्रेजी भाषा में लिखी अथवा प्रकाशित पुरालेख सामग्री में राजपूताना एजेन्सी रिकॉर्ड, रिकॉर्ड्स ऑफ फॉरेन एण्ड पॉलिटिकल डिपार्टमेन्ट, टूर मेमाइर्स पत्रादि संकलन आदि आते हैं । उपर्युका सामग्री क्षेत्र अथवा प्राचीन रजवाडों के सम्बन्धानुसार निम्न रूप में भी जानी जाती:
1. जोधपुर रिकॉर्ड, बीकानेर रिकॉर्ड अथवा मारवाड रिकॉर्ड्स | 2. जयपुर रिकॉर्ड 3. कोटा रिकॉर्ड अथवा हाडौती रिकॉर्ड्स 4. उदयपुर रिकॉर्ड अथवा मेवाड रिकॉर्ड्स |
संस्थागत या निजी संग्रहालयों में राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी, जोधपुर में सुरक्षित शाहपुरा राज्य का रिकॉर्ड, प्रताप शोध संस्थान उदयपुर में गौरीशंकर हीराचन्द ओझा संग्रह, शोध संस्थान, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर में नाथूलाल व्यास संग्रह तथा राजस्थान के इतिहास एवं साहित्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर का आबू कलेक्शन, नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ (म. प्र.) में सुरक्षित गुलगुले रिकॉर्ड्स, अगरचन्द नाहटा कलेक्शन, बीकानेर आदि मुख्य हैं ।
जयपुर राज्य से संबन्धित रिकॉर्ड्स भी अत्यधिक महल के हैं । डी. वी.एस. भटनागर के अनुसार, यह भण्डार (जयपुर रिकॉईस) ऐतिहासिक तथ्यों को जानने के लिए एक विशाल खजाना है और भण्डार का गहन अध्ययन निश्चित रूप से राजस्थान के इतिहास की अनेक मूलों को सुधारने में सहायक हो सकता है | जयपुर रिकॉर्ड्स को मुख्य रूप से पाँच भागों में बाँटा जा सकता है
(1) खरीता खरीता उन पत्रों को कहते हैं जो एक शासक के द्वारा दूसरे शासक को भेजे जाते थे । इन पत्रों से जयपुर के शासकों की नीति, उनका मुगलों-मराठों से संबंध तथा राजाओं के गोपनीय समझौते, आदि की जानकारी मिलती है |
__ (2) अखबारात यह मुगल दरबार द्वारा प्रकाशित दैनिक समाचारों का संग्रह है । इनसे मुगल दरबार की महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ एवं राजस्थान के विभिन्न शासकों के कार्य-कलापों की जानकारियाँ मिलती हैं ।
(3) वकील रिपोर्ट्स मुगल दरबार में राजपूत राज्यों का एक प्रतिनिधि रहता था, जिसे वकील कहा जाता था | इन वकीलों के माध्यम से शासकों को मुगल दरबार की गतिविधियों की रिपोर्ट प्राप्त होती थी, जो वकील रिपोर्ट कहलाती थी । इनके अध्ययन से न केवल राजपूत शासकों और मुगल सम्राटों के आपसी सम्बन्धो का पता चलता है, अपितु मुगल दरबार में होने वाली कूटनीतिक घटनाओं राजनीतिक षड्यन्त्रों, उत्तराधिकार संघर्षों और अमीरों की दलबन्दी की भी जानकारी मिलती है । वकील रिपोर्ट्स से राजस्थान के तिथिक्रम को ठीक से निर्धारित करने में भी सहायता मिलती है । मुगलकालीन इन सम्बन्धों से हिन्दु-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय की भी जानकारी मिलती है । इनसे मुगलकालीन जनजीवन की भी जानकारी मिलती है ।
(4) परवाना शासक द्वारा अपने अधीन कर्मचारियों अथवा अन्य कर्मचारियों को भेजे गये पत्र फरमान कहलाते थे । इन पत्रों से विभिन्न राज्यों की राजनीतिक घटनाओं के अतिरिक्त सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति की भी जानकारी मिलती है । जयपुर के अलावा अन्य अभिलेखागारों यथा उदयपुर, जोधपुर, कोटा आदि में भी पर्याप्त सामग्री मिलती है । 1878 ई. से कोटा अनुभाग का रिकॉर्ड शुरू होता है । इसमें करीब 6000 बस्ते हैं । प्रत्येक बस्ते में लगभग 6 पत्र सुरक्षित हैं, जो तिथिक्रम में व्यवस्थित हैं | इन्हें चार भागों में विभक्त किया जा सकता है
(अ) दोवर्की दो परतों वाले दस्तावेज दोवर्की नाम से जाने जाते हैं । इन पत्रों में मुख्य रूप से दैनिक प्रशासन, युद्ध संबन्धित खर्चा, घायलों के उपचार आदि पर प्रकाश पड़ता है ।
(ब) जमाबंदी ये पत्र राजस्व से संबन्धित हैं । अधिकतर पत्रों में चुंगी तथा जंगलात का हिसाब आदि है । ये पत्र राज्य की आर्थिक स्थिति जानने के लिए उपयोगी हैं ।
(स) मुल्की ये हिसाब सम्बन्धित बहियाँ हैं जिनमें 3 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक का हिसाब मिलता है । इनमें राज्य की आमदनी, कर्मचारियों के वेतन आदि से सम्बन्धित ब्यौरा है |
(द) तलकी इनमें राजाओं के आदेश तथा अन्य राज्य के शासकों, सामन्तों एवं अन्य कर्मचारियों को भेजे हुए पत्रों की नकलें हैं ।
(5) सियाद हजूर तथा दस्तूर कौमवार जयपुर राज्य से सम्बन्धित ये पुरालेख बड़े महत्व के हैं । राज परिवार की दैनिक आवश्यकताओं के खर्च का विवरण हमें सियादहजूर के प्रलेखों में मिलता है । दस्तूर कौमवार में हमें राज्य के अधिकारियों के नाम एवं जातिवार ब्यौरा मिलता है, जिससे उस समय की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है |
1.12 अन्य अभिलेखीय सामाग्री
अन्य अभिलेखागार सामग्री में आमेर रिकॉर्ड जयपुर अभिलेखागार से सम्बन्धित ही हैं । यद्यपि इनमें जयपुर राजस्व से सम्बन्धित सामग्री अधिक है, फिर भी अन्य राज्यों के राजनीतिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक इतिहास को लिखने में इसका बड़ा महत्व है | यहीं सुरक्षित पत्रों में विभिन्न राज्यों के उच्च अधिकारियों द्वारा जयपुर के अधिकारियों को लिखे गये पत्र उल्लेखनीय हैं ।
1585 से 1799 ई. के मध्य दिल्ली बादशाहों द्वारा लिखे गये 140 फरमान, 18 मन्सूर तथा 132 निशान जयपुर रिकॉर्ड में सुरक्षित हैं | फरमान और मन्सूर बादशाह द्वारा अपने सामन्तों, शाहजादों, शासकों या प्रजा को स्वयं अन्य से लिखवाकर भेजा जाता था । इन पत्रों पर तुगरा या राजा का पंजा लगा रहता था । निशान नामक पत्र शाहजादों या बेगमों द्वारा बादशाह के अतिरिक्त अन्य को लिखे गये पत्र कहलाते थे । फरमान एक ओर राजपूत राजाओं की तत्कालीन मुगल शासन की स्थितियों से अवगत कराते हैं तो दूसरी ओर उनके जन-प्रभाव को भी इंगित करते हैं |
हमें अभिलेखागार में संग्रहित पुरालेख सामग्री में अन्य कई प्रकार के प्रलेख प्राप्त होते हैं । जैसा पूर्व में बताया जा चुका हैं । इनमें अर्जदास्त, हस्बुलहुक्म, रम्ज, अहकाम, सनद, रूक्का, दस्तक, अखबरात आदि हैं । अर्जदाश्त प्रजा द्वारा बादशाहों या शाहजादों द्वारा बादशाहों को लिखे जाने वाले पत्र थे । हस्बुलहुक्म बादशाही आज्ञा से सम्बन्धित थे, जो वजीर अपनी ओर से लिखता था । रम्ज तथा अहकाम बादशाहों द्वारा अपने सचिव को लिखवाई गई टिप्पणी थी, जिसके आधार पर सचिव पूरा पत्र तैयार करता था | सनद नियुक्ति अथवा अधिकार हेतु प्रदान किया जाता था | रूक्का निजी पत्र कहलाता था | परवर्तीकाल में राजा की ओर से प्राप्त पत्र को खास रुक्का कहते थे | दस्तक के आधार पर सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ला-ले जा सकते थे | यह आधुनिक परमिट के समान था । राज्य और दरबार की कार्यवाहियों की प्रोसिडिंग्स को अखबारात कहा जाता था ।
17वीं शताब्दी से प्राप्त खरीता नामक सामग्री शासकों के पारस्परिक पत्र-व्यवहार हैं । इनका संग्रह खतूत संग्रह कहलाता है । उदाहरणार्थ, जयपुर रिकॉर्ड संग्रहित फारसी-उर्दू लिपि में लिखित खरीता संग्रह को खतूते-महाराजन (1657-1719 ई) कहा जाता है । इसी प्रकार 1712 से 1947 ई. तक के जोधपुर राज्य के संग्रहित खरीते 32 फाइलों को खतूत फाइल के रूप में जाना जाता है । खरीतों से तत्कालीन शासकों की मनोवृत्तियों का अभिज्ञान होता है । साथ ही, इनसे तत्कालीन युग की सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक स्थितियों का मूल्यांकन भी होता है ।
राजपूत राज्यों में बहियां लिखने की परम्परा मध्यकाल से ही शुरू हो चुकी थी । जिन बहियों में राजा की दैनिक चर्या का उल्लेख रहता था, उन्हें हकीकत बीहयें कहा जाता था । जिनमें शासकीय आदेशों की नकल होती थी, उन्हें हकूमत री बही, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से प्राप्त पत्रों की नकल जिसमें रहती थी, उसे खरीता बही, विवाह आदि से संबन्धित बही, ‘ब्याह री बही’ सरकारी भवनों के निर्माण से सम्बन्धित बहियाँ, कमठाना बही इत्यादि प्रकार की बहियाँ राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में उपलब्ध हैं । सबसे प्राचीन बही राणा राजसिंह (1652-1680 ई) के समय की है | इस बही से राजसिंह के काल में मेवाड राज्य के परगनों की, उनकी आर्थिक आमदनी तथा अन्य प्रकार के हिसाब-किताब की जानकारी मिलती है । दूसरी प्राचीन रही जोधपुर हुकुमत री वही है | इस बही का उपयोग मुगल बादशाह शाहजहाँ की बीमारी से औरंगजेब की मृत्यु तक के सन्दर्भ में महाराजा जसवन्तसिंह युगीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों को जानने के लिए किया जा सकता है ।
ठिकाना दस्तावेजों में बहियों की अपनी विशिष्टता है । इन बहियों के माध्यम से त्यौहार और उन्हें मनाने की विधि, शादी आदि अवसरों पर होने वाले खर्चे तथा विभिन्न वस्तुओं के मूल्यों का लेखा-जोखा प्राप्त होता है । इनसे नगर में जातियों की संरचना, स्त्रियों की स्थिति आदि के बारे में जानकारी मिलती है । इस प्रकार बहियाँ सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के लिए महत्वपूर्ण साधन हँ