भारत में छठी शताब्दी ई.पू. से ही राजनीतिक घटनाओं का प्रामाणिक विवरण लगता है | इस शताब्दी में महात्मा बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषों का अवतरण हुआ था । इस समय तक वैदिक जन किसी क्षेत्र विशेष में स्थायीरूप से बस चुके थे । जनों को भौगोलिक अभिज्ञता ठोस रूप से मिल जाने पर वह क्षेत्र विशेष सम्बन्धित जनपद के नाम से पुकारा जाने लगा |

हमें बुद्धकालीन भारत में राजतन्त्रीय एवं प्रजातन्त्रीय राज्यों के बारे में जानकारी मिलती है | कुछ प्रजातन्त्रीय जनों ने तो मिलकर संघों का निर्माण कर लिया था । इसके अलावा इस काल में एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य पर अधिकार करने की होड़ भी दृष्टिगोचर होती है, जिसमें मगध राज्य को सर्वाधिक सफलता प्राप्त हुई थी । इस काल में जनपदों का महाजनपदों में परिवर्तन हो रहा था | अत: बुद्धकालीन भारत (छठी शताब्दी ई.पू.) को विद्वान महाजनपदों का युग कहकर पुकारते हैं |

मगध के शासकों ने तो अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का परिचय देते हुए मौर्यकाल तक लगभग सम्पूर्ण भारत पर ही अपना अधिकार करके साम्राज्य की कल्पना को साकार स्वरूप प्रदान कर दिया था । मौर्य काल में राजस्थान निश्चित रूप से उनके साम्राज्य का अंग बन चुका था ।

अत: मगध राज्य जिसका विस्तार महात्मा बुद्ध के समय हर्यक वंश की स्थापना के साथ प्रारम्भ हुआ था वह परवर्ती राजवंशों के समय पल्लवित होकर चन्द्रगुप्त मौर्य के समय विशाल साम्राज्य में परिवर्तित हो गया । इस प्रकार वैदिक काल से भारत में साम्राज्य की जो कल्पना की गई और जिसका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है उसे व्यवहार में परिवर्तित करके मौर्य शासकों ने राजनीतिक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित किया ।

4.2 बुद्धकालीन महाजनपद

ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में भारत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था । वैदिक युग में आर्य सभ्यता के प्रतिनिधि नौ राज्यों का वर्णन ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों में मिलता है । जिनके नाम हैं- गन्धार, कैकय, मद्र, वश-उशीनर मत्स्य, कुरु, पंचाल, काशी और कोसल । इससे परे अंग और मगध जनपद थे जिनमें वैदिक धर्म का पूर्णतया प्रचार नहीं हो पाया था | दक्षिणापथ में अभी तक आर्येतर जनों का प्राधान्य था । उनमें शबर, आन्ध्र, पुलिन्द, मुतिब और नैषध प्रमुख थे । पांचवी शताब्दी ई.पू. अर्थात् पाणिनि के काल में भारतदेश जनपदों में विभाजित था | 600 ई.पू. से 100 ई.पू. में रचित बौधायन धर्मसूत्र में सौबीर, आरट्ट, सुराष्ट्र, अवन्ति, मगध, अंग, पुण्ड्र और वंग का उल्लेख मिलता है । महाभारत के भीष्मपर्व में लगभग 250 जनपदों और कर्णपर्व में मुख्य जनपदों की सूचियाँ मिलती हैं । पुराणों के भुवनकोश में भी जनपदों की सूचियाँ मिलती हैं । जिनमें कोसल, वत्स और मगध का जनपद के रूप में उल्लेख उपलब्ध होता है यह विवरण परीक्षित के अभिषेक से लेकर महापद्मनन्द के काल तक का है |

छठी शताब्दी ई.पू. में भारत की राजनीतिक स्थिति का विवरण बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय और जैन ग्रन्थ भगवतीसूत्र में मिलता है । अंगुत्तरनिकाय की सूची में 16 महाजनपदों के नाम मिलते हैं – अंग,मगध, काशी, कोसल, वज्जि मल्ल, चेतिया(चेदि); वंस(वत्स), कुरु, पंचाल, मच्छ(मत्स्य), सूरसेन(शूरसेन), अस्सक (अश्मक), अवन्ति, गन्धार और कम्बोज । महावस्तु में 16 महाजनपदों की सूची दी गई है उसमें गन्धार और कम्बोज के स्थान पर शिवि और दशार्ण का उल्लेख मिलता है । दीघनिकाय में इन जनपदों का दो-दो के जोड़ों में उल्लेख किया गया है- जैसे कासी-कोसल; वज्जि-मल्ल, चेति-वंस, कुरु-पंचाल तथा मच्छ-सूरसेन । जैन ग्रन्थ भगवतीसूत्र में सोलह महाजनपदों की जो सूची दी गई है वह बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय मे दी गई सूची से भिन्न है । इस सूची में सोलह महाजनपदों के नाम इस प्रकार मिलते हैं – अंग, बंग (वंग), मगह(मगध), मलय, मालवक (अवन्ति), अच्छ वच्छ (वत्स), कोच्छ (कच्छ), पाड़ (पुण्ड्र), लाढ़(राढ़), वज्जि (वृज्जि), मोलि (मल्ल), कासी (काशी), कोसल (कोशल), अवाह तथा सम्भुतर (सुम्होतर) |

उपर्युक्त दोनों सूचईयों मे से अंगुत्तरनिकाय में दी गई सूची को अधिक विश्वसनीय माना जाता है । यद्यपि छठी शती ई.पू. में जनपदों की संख्या और भी अधिक थी । हालांकि सिकन्दरकालीन इतिहासकारों ने भी 30 से अधिक जनपदों का उल्लेख किया है ।

जनपद युग में वज्जि और मल्ल गणराज्यों के अलावा कुछ लघुजनपद भी थे जिनके नाम है दर्शाण औदुमर, वंग, सुय, मद्र, योन, शिवि, बाहिक कैकय, उद्यान, सिन्धु-सौवीर, सुराष्ट्र, अपरान्त महाराष्ट्र, महिंसक कलिंग, मूलक और आम | भरतसिंह उपाध्याय ने इन जनपदों पर प्रकाश डाला है । वज्जि गणराज्य के सदस्य लिच्छवि, विदेह, ज्ञातृक, उग्र, भोग, एक्ष्वाकु और कौरव थे । महापरिनिब्बान सुत में बुद्धकालीन निम्न गणज़ातियों के नाम मिलते हैं –

कुशीनारा के मल्ल, पावा के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय पिप्पलिवन के मोरिय, अल्लकप्प के बुलि केसपुत्त के कालाम और सुंसुमार गिरी के भग्ग |

4.3 जनपदयुगीन राजनीति की विशेषताएँ

बुद्धकालीन भारत में सार्वभौम सत्ता का अभाव था । सम्पूर्ण राष्ट्र छोटे-छोटे जनपदों में बँटा हुआ था जो अपने अस्तित्व को बनाये रखने हेतु प्रयत्नशील थे । डॉ. श्रीराम गोयल ने छठी-पाँचवी शती ई.पू. को संघर्षरत जनपदों का युग कहकर पुकारा है । लेकिन विकेन्द्रीकरण के इस काल में हमें केन्द्रीकरण की प्रवृति भी दृष्टिगोचर होती है | महात्मा बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में से कोसल, वत्स, अवन्ति और मगध इस काल के चार सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन चुके थे । उनमें सार्वभौम सत्ता के लिये संघर्ष प्रारम्भ हो चुका था । धीरे-धीरे लघु जनपद मगध में सम्मिलित हो गये और बह साम्राज्यवाद की ओर अग्रसर होने लगा | मौर्यकाल तक पहुँचते मगध ने विशाल साम्राज्य का स्वरूप ग्रहण कर लिया ।

भारतीय इतिहास के लिये विवेच्य काल संक्रमण काल था क्योंकि छठी शताब्दी ई.पू. में हमारे देश के पश्चिमी सीमान्त को ईरानी आक्रमण और फिर मौर्यकाल में सिकन्दर के आक्रमण का सामना करना पड़ा था । जिससे प्रभावित होकर कई गणजातियो ने पंजाब को छोड़कर राजस्थान को अपना निवास स्थान बना लिया था |

4.4 जनपद युग में राजस्थान

4.4.1 मत्स्य जनपद –

बौद्ध ग्रन्थ अंगुतरनिकाय में 16 महाजनपदों की सूची मिलती है उसमें राजस्थान के केवल एक राज्य का उल्लेख आया है । मत्स्य जनपद का उल्लेख प्राय: सूरसेनों के साथ हुआ है । उस लोकप्रिय राज्य का नाम मत्स्य था । मत्स्य जनपद कुरु जनपद के दक्षिण में और सूरसेन के पश्चिम में था । दक्षिण में इसका विस्तार समहतः चम्बल नदी तक था और पश्चिम में सरस्वती नदी तक । इसमें आधुनिक अलवर प्रदेश, धौलपुर, करौली, जयपुर, भरतपुर के कुछ भाग सम्मिलित थे । इसकी राजधानी विराट नगर (आधुनिक बैराट) थी । महाभारत के अनुसार पाँच पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का समय यहीं पर व्यतीत किया था । इसके समीप उपलब्ध नाम का कस्बा था ।

पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अपने ग्रन्थ राजपूताने का इतिहास खण्ड प्रथम में महाभारतकालीन मत्स्य राज्य की चर्चा करने के बाद लिखा है कि चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा साम्राज्य स्थापना तक राजस्थान का इतिहास बिल्कुल अन्धकार में है । डॉ. दशरथ शर्मा ने इस विषय पर केवल कुछ पृष्ठों में प्रकाश डाला है ।

मत्स्य एक प्राचीन राज्य था जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है । शतपथ ब्राह्मण में मत्स्य राजा ध्वसन द्वैतवन का नाम आया है, उसने सरस्वती के निकट अश्वमेघ यज्ञ किया था । गोपथ ब्राह्मण में शाल्व, कौशीतकि उपनिषद् में कुरु-पंचाल तथा महाभारत में जालन्धर दोआब के त्रिगर्त और मध्य भारत के चेदिवंश के साथ मत्स्य का उल्लेख मिलता है । यद्यपि विदेह के समकालीन मत्स्य नरेश का नाम ज्ञात नहीं है लेकिन इतना अवश्य है कि यह राज्य जनपद युग में अत्यन्त महत्वपूर्ण था ।

महाभारत के अनुसार मत्स्य राज्य गौधन से सम्पन्न था इसलिये इस पर अधिकार करने हेतु त्रिगर्त और कुरु राज्य आक्रमण किया करते थे । मनुस्मृति में तो कुरु, मत्स्य. पंचाल और शूरसेन भूमि को ब्रह्मर्षि देश कहा गया है | मत्स्य प्रदेश के लोग ब्राह्मणवाद के अन्य भक्त माने जाते थे | मनुस्मृति में तो यहाँ तक कहा गया है कि मस्त, कुरुक्षेत्र, पंचाल तथा शूरसेन में निवास करने वाले लोग युद्ध क्षेत्र में अपना शौर्य प्रदर्शन करने में निपुण थे । इस प्रकार अपनी वीरता, पवित्र आचरण और परम्पराओं का पालन करने के विशिष्ट गुण के कारण मत्स्य राज्य के निवासियों का समाज में आदरपूर्ण स्थान था | महाभारत के अनुसार मत्स्य नरेश विराट पाण्डवों का मित्र एवं रिश्तेदार था । महाभारत में राजा विराट के वीर पुत्र उत्तर का उल्लेख भी मिलता है । महाभारत के युद्ध में विराट युधिष्ठिर की तरफ से लड़कर वीरगति को प्राप्त हुआ था । द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वस्थामा ने विराट की सेना का संहार किया था । विराट के भाई शतानीक, मदिराज, सूर्यदत्त, श्रुतानीक श्रुतध्वज, बलानीक जयानीक जयाश्व, रथवाहन चन्द्रोदय, समरथ तथा रानियाँ – सुरथा, सुदेष्णा और तीन पुत्र-उत्तर, शंख और श्वेत थे । शंख द्रोणाचार्य और श्वेत भीष्मपितामह के हाथों मारे गये थे । उत्तर ने भी शल्य के हाथों वीर गीत प्राप्त की थी ।

चीनी यात्री युवान च्वांग ने अपने यात्रा विवरण में वैराट का उल्लेख किया है । उसने सातवीं शताब्दी के मध्य में यहाँ यात्रा की थी | उसने लिखा है कि बैराट 14 या 15 ली अर्थात 25 मील के घेरे में फैला हुआ था । यहाँ के लोग वीर और पुष्ट होते थे, यहाँ के राजा फी-शे (वैश्य) जाति का था और युद्ध में अपनी बहादुरी के लिये प्रसिद्ध था | कनिंघम फी-शे का तात्पर्य बैस राजपूतों से लेते हैं|

मत्स्यों के एक अन्य नगर उपलब्ध का नाम महाभारत में मिलता है । जहाँ पाण्डवों ने वैराट में अपना वनवास समाप्त किया था । उपलब्ध की भौगोलिक स्थिति के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कहना कठिन है ।

पाली साहित्य में मत्स्यों को शूरसेन तथा कुरु से सम्बन्धित बतलाया गया है । लेकिन मत्स्य राज्य का उन दिनों राजनीतिक वर्चस्व समाप्त हो गया था क्योंकि उसके पडौसी राज्य अवन्ति, शूरसेन तथा गन्धार अत्यन्त शक्तिशाली थे । जनपद काल में राजस्थान अवन्ति तथा गन्धार को जोड़ने वाली कड़ी मात्र था । एक परम्परा के अनुसार गन्धार नरेश पुक्कुसाती ने अवन्ति के प्रद्योत पर आक्रमण कर उसे पराजित किया था । ऐसी परिस्थिति में प्रद्योत द्वारा अपना राज्य विस्तार करते हुए राजस्थान के बड़े भू-भाग को भी अधिकृत करने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उन दिनों जनपदों में अपने पडौसी राज्यों पर आक्रमण करके राज्य का विस्तार करने की होड़ मची हुई थी । तत्पश्चात् उत्तर बुद्ध युग में भारत को विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा ।

छठी शती ई.पू. उत्तर पश्चिमी भारत पर ईरानी शासक साइरस (558-530 ई.पू.) के नेतृत्व में आक्रमण हुआ था । भारतीय सीमान्त पर ईरानियों का प्रभुत्व डेरियस तृतीय के काल में 330 ई.पू. तक रहा । तत्पश्चात् भारत पर सिकन्दर का (330-326 ई.पू.) आक्रमण हो गया | राजस्थान पर ईरानी एवं यूनानी आक्रमण का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । पूर्वी भारत में यह समय मगध साम्राज्य के उत्कर्ष का था । मगध के शासकों का ध्यान कोसल और वत्स राज्य को अधिकृत करने में लगा रहा । इसलिये मध्यदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित राजस्थान मगध साम्राज्य के दबाव से बचा रहा । हेमचन्द रायचौधरी की मान्यता है कि राजस्थान का नाम कौटिल्य द्वारा गिनाये गये संघ राज्यों या गैर राजतन्त्रात्मक राज्यों की सूची में नही मिलता । इसलिये यह सम्भावना है कि मत्स्य राज्य अपनी स्वाधीनता खोने तक राजतन्त्रात्मक ही बना रहा । उन्होंने यह सम्भावना व्यक्त की है कि किसी समय चेदि राज्य ने मत्स्य राज्य पर आक्रमण किया था । महाभारत में भी चेदि और मत्स्य के राजा सहज का उल्लेख मिलता है | डॉ. डी.सी. शुक्ल ने रायचौधरी की इस मान्यता को अस्वीकार किया है कि राजस्थान पर चेदि नरेश ने कभी अधिकार किया था ।

4.5 मगध साम्राज्य की राजनीति और उसका राजस्थान पर प्रभाव -:

छठी शताब्दी ई.पू. में जो राजतंत्रीय एवं गणतांत्रिक जातियों के राज्य थे उनकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है | उनमें चार राजतन्त्र- कोसल, मगध, वत्स और अवन्ति प्रमुख थे । प्रारंभ में कोसल और मगध में तथा वत्स और अवन्ति में संघर्ष था | बाद में मगध ने कोसल, वत्स, और अवन्ति को जीत लिया और एक विशाल साम्राज्य का निर्माण करने में सफल हुआ ।

छठी शताब्दी ई. पू. मगध में हर्यक वंश का शासन था । उसने 543 ई.पू. अपने राजवंश की स्थापना की थी । बुद्ध का समकालीन मगध का राजा बिम्बसार (543-491 ई.पू.) था । उसने बिहार के पूर्वोत्तर अंग राज्य को जीतकर मगध में मिला लिया । उसे काशी का प्राप्त विवाह में कोसल राज्य से मिला था | उसने वज्जिसंघ का विघटन किया और कोसल राज्य को पराजित किया । उसकी राजधानी प्रारम्भ में गिरिव्रज थी लेकिन बाद में उसने राजगह को अपनी राजधानी बनाया । उसने वत्स, मद, गन्धार और कम्बोज से मैत्री पूर्ण सम्बन्ध बनाये | 491 ई.पू. बिम्बसार को बन्दीगह में डालकर अजातशत्रु शासक बना उसे काशी प्रान्त हेतु कोसल से संघर्ष करना पड़ा । उसने गणराज्यों के बज्जिसंघ को भी पराजित कर दिया । उसके बाद उदायी (459-443ई.पू) मगध का शासक बना उसने गंगा तथा सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्र नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया । सिंहली ख्यातों के अनुसार उदायी के बाद अनुरुद्ध, मुण्ड, नागदासक (443-411 ई.पू.) ने राज्य किया | लेकिन मगध में षड्यन्त्रों से तंग आकर जनता ने काशी प्राप्त के शासक शिशुनाग (411 -393 ई.पू.) को बुलाकर उसे मगध के सिंहासन पर बैठाया | उसने अवन्ति को जीतकर मगध में मिला लिया । उसने पुन: राजगृह को राजधानी बनाया और वैशाली को अपनी दूसरी राजधानी बनाया ।

शिशुनाग का अवन्ति पर अधिकार था इसलिये उसके पडौसी राज्य मत्स्य पर भी उसका प्रभाव अवश्य रहा होगा क्योंकि साम्राज्यवाद के युग में स्वतन्त्रता पूर्वक रहना कठिन था |

शिशुनाग के बाद कालाशोक (393-365 ई.पू.) मगध का शासक बना उसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया | कालाशोक के 10 पुत्र (365-343ई.पू.) हुए जिन्होंने संयुक्त शासन किया | उनमें नन्दिबर्धन सबसे योग्य था लेकिन विलासी भी था | उसके समय राजपरिवार में व्याभिचार और षड़यन्त्र बढ़ गये थे उसकी शूद्रा स्त्री से उत्पन्न महापद्मनन्द ने लगभग चौथी शती ई.पू. शैशुनाग वंश का अन्त करके मगध में नन्दवंश की स्थापना की ।

नन्दवंश में नौ राजा हुए जिन्हें नव नन्द (343-321 ई.पू.) कहते हैं | महाबोधिवंश के अनुसार उनके नाम थे- उग्रसेन, पण्डुक, पण्डुगति भूतकाल, राष्ट्रपाल, गोविषाणक दशासिद्धक, कैवर्त और धननन्द । इनमें उग्रसेन पिता था और शेष पुत्र | उग्रसेन को ही पुराणों में महापद्मनन्द कहा गया है।

पुराणों में महापद्मनन्द को अत्यन्त बलवान, लोभी और क्षत्रिय राजाओं का विनाश करने वाला कहा गया है । पुराणों में कहा गया है कि वह इक्ष्वाकुवंशियो, पात्रचालों, कौरवों, हैहयों, कालको, एकलिंगो, शूरसेनों, मैथिलों और अन्य राजाओं को जीतकर दूसरे परशुराम के समान एकराट और एकछत्र होकर शासन करेगा । हिमालय और विंध्य के बीच सम्पूर्ण द्यी के ऊपर सर्वमान्य राजा होगा । इस विवरण से स्पष्ट है कि उसकी विजयों से मगध साम्राज्य का बहुत विस्तार हो गया था ।

हमारा विचार है कि महापद्मनन्द एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था और राजस्थान (मत्स्य राज्य) के समीप शूरसेन पर उसने विजय प्राप्त की थी । अत: राजस्थान क्षेत्र को उसके प्रभाव क्षेत्र में अवश्य रखा जा सकता है । लेकिन इस सम्बन्य में डी.सी.शुक्ल का मत विचारणीय है । उनकी मान्यता है कि महापद्मनन्द द्वारा पराजित राज्यों की सूची में मत्स्य राज्य का नाम नहीं मिलता है । अत: यह माना जा सकता है कि राजस्थान क्षेत्र उस समय स्वतन्त्रता का उपभोग करता रहा ।

महापद्मनन्द के पुत्रों में धननन्द ही प्रसिद्ध हुआ । यूनानी लेखकों ने उसे अग्रामीज कहा है | उसको अपने पिता से विशाल धनराशि और साम्राज्य तथा विशाल सेना प्राप्त हुई । यूनानी लेखक कर्टियस के शब्दों में गंगा घाटी और प्राची के राजा अग्रामीज ने अपने राज्य में (पश्चिम से) प्रदेश करने बाले मार्गों की रक्षा करने के लिये दो लाख पैदल, बीस हजार घुड़सवार, दो हजार रथ और तीन हजार हाथी रखे थे लेकिन नन्द सम्राट् जनता के प्रिय न थे उन्होंने ब्राह्मण परम्परा से अपना अभिषेक नहीं करवाया था | उनकी उग्र नीति और लोभी आर्थिक नीति के कारण प्रजा उनसे घृणा करती थी । शूद्र स्त्री की सन्तान होने से समाज में उन्हे विशेष आदर प्राप्त नहीं था | इन परिस्थितियों में चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य ने मिलकर नन्द साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया और उन्हें पराजित करके मगध में मौर्य वंश की स्थापना की।

4.6 मौर्य सम्राट और राजस्थान

नन्द वंश के पतन के पश्चात् मगध में मौर्य वंश का राज्य 321 ई.पू. स्थापित हुआ | चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठने के पश्चात सम्पूर्ण आर्यावर्त पर विजय प्राप्त की जिसमें सुदूर पश्चिम तथा पूर्व के प्राप्त सम्मिलित थे । पश्चिम अप्रान्त में सुराष्ट्र प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में सम्मिलित होने का प्रमाण रुद्रदामा के गिरनार अभिलेख में मिलता है । विन्ध्य के कुछ प्रदेश भी चन्द्रगुप्त के साम्राज्य में सम्मिलित थे । सिकन्दर के स्वदेश लौट जाने के बाद पंजाब पर भी चन्द्रगुप्त मौर्य का अधिकार हो गया था । यूनानी लेखक प्लुटार्क और जस्टिन ने उल्लेख किया है कि चन्द्रगुप्त ने 6 लाख सैनिक लेकर सारे भारत पर अपना अधिकार कर लिया | महावंस में तो चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्पूर्ण जम्बू-द्वीप का स्वामी कहा गया है ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल में सिकन्दर का सेनापति सैल्यूकस निकेटर हुआ | उसने 305 ई. पू. भारत पर आक्रमण किया । किन्तु उत्तरापथ में मौर्य सेनाओं की सशक्त स्थिति देखकर सैल्यूकस को छोटे-मोटे युद्ध के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य से सन्धि करनी पड़ी । इस सन्धि के अनुसार सैल्यूकस द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य को हेरात, कन्धार, काबुल और बलूचिस्तान देने पडे | उसने अपनी पुत्री हेलन का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया, उपहार स्वरूप चन्द्रगुप्त ने उसे 500 हाथी प्रदान लिये । इसके बाद दूत विनिमय भी हुआ | मेगस्थनीज सैल्यूकस के दूत के रूप में पाटलिपुत्र में रहने लगा । इससे चन्द्रगुप्त मौर्य की पश्चिमोत्तर सीमा हिन्दुकुश तक पहुँच गई ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के समय साम्राज्य सीमा पश्चिमोत्तर में हिन्दुकुश से दक्षिण पूर्व में बंगाल की खाड़ी और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक थी, परन्तु इसमें कश्मीर, कलिंग और दक्षिण के कुछ भाग सम्मिलित न थे । साम्राज्य के कुछ भाग ऐसे थे जिन्हे आन्तरिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी । इनमें कुछ जीते हुए गणतन्त्र पश्चिमोत्तर में यवन, कम्बोज, दक्षिण पश्चिम सुराष्ट्र तथा महाराष्ट्र के आसपास की जातियों को आन्तरिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी ।

चन्द्रगुप्त मौर्य का राजस्थान पर आधिपत्य था जिसकी पुष्टि निम्न प्रमाणों के आधार पर की जा सकती है 1. प्लुटार्क के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने छ: लाख सैनिकों की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त की थी। 2. वैराट से अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है । हम जानते हैं कि अशोक ने केवल कलिंग पर ही विजय प्राप्त की थी, इसलिये मत्स्य प्रदेश (वैराट) पर विजय प्राप्त करने का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य को दिया जा सकता है । 3. महावंस में चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्पूर्ण जम्बू-द्वीप का स्वामी कहा गया है जिसमें राजस्थान का प्रदेश भी सम्मिलित था । 4. 7वी. शताब्दी के प्रारम्भ में किसी मौर्य शासक का दक्षिण-पश्चिम राजस्थान तथा पूर्वी मालवा पर अधिकार था । चित्रांग नामक मौर्य राजा ने चित्तौड़ दुर्ग का निर्माण करवाया था । डा. दशरथ शर्मा ने भी चित्तौड़ पर मौर्यो के शासन की पुष्टि करते हुए लिखा है कि चौहान नरेश सम्भरीश ने जब मेवाड पर आक्रमण किया तब चित्तौड़ पर मौर्य शासक शासन कर रहा था यद्यपि चित्तौड़ पर चौहान आक्रमण होना विवाद का विषय है । सम्भवत: चित्तौड़ पर शासन करने वाला चित्रांग साम्राज्यिक मौर्या का ही कोई वंशज था ।

डी.सी. शुक्ल का मत है कि मौर्यकाल में राजस्थान के आसपास के क्षेत्र – उत्तर प्रदेश, सिन्ध, गुजरात और मालवा पर मगध साम्राज्य का अधिकार था । ऐसी परिस्थिति में यह सम्भव नहीं था कि यह प्रदेश मौर्य साम्राज्य से बाहर रहकर अपनी स्वतन्त्रता का उपभोग करता रहे ।

अब प्रश्न उठता है कि राजस्थान पर अधिकार करने वाला प्रथम मौर्य शासक कौनसा था? हमें जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं उनसे संकेतित है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही पहली बार राजस्थान पर अधिकार किया था । इसका प्रमाण यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपनी साम्राज्य की सीमा का विस्तार सौराष्ट्र तथा काठियाबाड़ तक किया था जिसकी पुष्टि रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख से होती है जिसमें चन्द्रगुप्त के राष्ट्रीय वैश्य पुष्यगुप्त द्वारा सुदर्शन झील के निर्माण का विवरण मिलता है । हेमचन्द्र रायचौधरी का मत है कि अवन्ति पर मौर्यों का पूरा प्रभाव था । इसलिये इस बात की सम्भावना है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जिसका साम्राज्य अवन्ति तथा सुराष्ट्र में फैला हुआ था उसने राजस्थान पर भी अवश्य अधिकार किया होगा ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के निधन (297 या 300 ई.पू.) के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी बिन्दुसार बना । यूनानी लेखकों ने उसे अमिट्रोचेटि या अमित्रघाती (शत्रुओं का संहार करने वाला) कहकर पुकारा है | उसने चन्द्रगुप्त मौर्य से प्राप्त साम्राज्य को सुरक्षित बनाये रखा । सीरिया के शासक एण्टिओकस सोटर ने अपने डिमैकस को और मिश्र के सम्राट टालमी फिलाडेल्फस ने डायोनिसिअस को उसके दरबार में राजदूत बनाकर भेजा | बिन्दुसार ने 25 वर्ष तक राज्य किया था । तारानाथ के अनुसार बिन्दुसार और चाणक्य ने लगभग 16 नगरों को नष्ट किया और पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों के बीच के सारे प्रदेशों को अपने आधिपत्य में ले लिया । सम्भवत: दक्षिण भारत पर विजय उसी ने की थी | प्रो. श्रीराम गोयल इस मत से सहमत नहीं है ।

बिन्दुसार के समय तक्षशिला में विद्रोह हुआ था जिसे अशोक ने दबाया । अशोक ने तक्षशिला के विद्रोह को दबाकर खसों के प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया था । खसों का कश्मीर में राज्य था । लेकिन बिन्दुसार के राज्यकाल में कश्मीर पर विजय की गई। इस मत को प्राय: स्वीकार नहीं किया जाता ।

जहाँ तक राजस्थान का प्रश्न है बह बिन्दुसार के राज्यकाल में भी मौर्य साम्राज्य का अंग बना रहा |

बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् अशोक (273 ई.पू.) चार वर्ष बाद मगध का सम्राट बना । उसने अपने पितामह और पिता से प्राप्त साम्राज्य को असुष्ण बनाये रखा । अभिलेखों से जात होता है कि अशोक ने अपने राज्यकाल में कलिंग को जीतकर उसे मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था ।

राजस्थान चन्द्रगुप्त मौर्य के समय से ही मगध साम्राज्य का अंग बनकर देश की मुख्य धारा में समिलित हो गया था | बिन्दुसार के समय भी यही स्थिति बनी रही । अशोक के समय राजस्थान बौद्ध धर्म की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया जिसकी पुष्टि जयपुर के निकट बैराट नामक स्थल से प्राप्त अशोक के भाब्रू अभिलेख से होती है जो अब कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है ।

अशोक ने एक राजा के रूप में बौद्ध साहित्य के प्रचार में रुचि ली थी । इस विषय में उसके भाब्रु पाषाण शिला फलक लेख का साक्ष्य इस प्रकार है:- ” मगध के राजा प्रियदर्शी ने संघ को अभिवादन करके कहा – (मैं आपके) स्वास्थ्य और सुखविहार की (कामना करता हूँ। आप लोगों को विदित है (की) बुद्ध, धम्म और संघ में मेरी कितनी श्रद्धा और अनुरक्ति है । भदन्तो । जो कुछ भी भगवान बुद्ध द्वारा भाषित है वह सब सुभाशित है | किन्तु भदन्तो! जो कुछ मुझे दिखाई देता है (अर्थात् प्रतीत होता है) कि धर्म चिरस्थायी होगा योग्य हूँ मैं उसे कहने को (अर्थात् उसे कहना, उसकी घोषणा करना मेरा कर्तव्य है । भदन्तो! ये धर्म पर्याय है- विनय समुकस, अलयवसानि अनागत भयानि मुनिगाथा मोनेयसुत उपतिसपसिन तथा लाधुलोवाद में मुशावाद का विवेचन करते हुए भगवान् बुद्ध द्वारा जो कुछ कहा गया है । भदन्तो। मैं चाहता हूँ क्या? – कि इन धर्म पर्यायों को बहुसंख्यक भिक्षुपाद व भिक्षुणियाँ प्रतिक्षण सुने और उन पर मनन करें । इसी प्रकार उपासक और उपासिकाएँ भी । भदन्तो! इसी प्रयोजन के लिये इसे लिखवाता हूँ कि लोग मेरे अभिप्राय को जान लें । ” इस विवरण से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्मावलम्बी अशोक ने लोगों से प्रार्थना की कि वे विनय समुत्कर्ष आर्यवंशा: अनागत भयानि, मुनिगाथा, मोनेय सूत्रम, उप्पलिव्य के प्रश्न तथा राहुलवाद आदि ग्रन्थो का अध्ययन करें ।

4.6.1 बैराट स्थित बीजक की पहाड़ी से प्राप्त बौद्ध अबशेष

बैराट से 1837 ई. में कैप्टन बर्ट को भाब्रु अभिलेख मिला था । इसके पश्चात् कार्लाइल (1871 -72) कनिंघम (1864-65) और डी.आर. भण्डारकर ने इस क्षेत्र का अध्ययन किया था । अशोक ने बैराट को अति महत्त्वपूर्ण स्थान मानते हुए यहाँ पर शिलालेख उत्कीर्ण करवाया तथा बौद्ध स्तूप, गुहागृह, सौर श्रावक गृह का निर्माण करवाया | अशोक ने बौद्ध स्तूप में बुद्ध के अस्थि अवशेष भी स्थापित करवाये | वर्तमान में बीजक की पहाड़ी पर केवल मौर्यकालीन अवशेष ही बचे हैं जो अपने स्वर्णिम अतीत की कहानी कहते हुए प्रतीत होते हैं । महावीर प्रसाद शर्मा ने तोरावटी का इतिहास में लिखा है कि बैराट चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म स्थान था लेकिन बौद्ध ग्रन्थों से इस मत की पुष्टि नहीं होती है | बीजक की पहाडी पर जो बौद्ध मन्दिर या स्तूप के अवशेष मिलते हैं वे मौर्यकालीन है । पहाडी पर प्लेट फार्म की लम्बाई चौड़ाई 60-70 मीटर है । इस मैदान के बीच में गोलाकार परिक्रमा युक्त ईटों का मन्दिर दृष्टिगोचर होता है । मन्दिर के गोलाकार भीतरी द्वार पर इस समय 27 लकडी के खम्भे लगने के स्थान स्पष्ट दिखलाई देते हैं । यहाँ से प्राप्त ईटों पर बुद्ध उपदेशों के अक्षर दृष्टिगोचर होते हैं । गोलाकार मन्दिर या बौद्ध स्तूप आयताकार चारदीवारी से घिरा हुआ है । यह दीवार 12 इंच मोटी ईटों से बनी है । इसके अन्दर का क्षेत्र 70 फीट उत्तर से दक्षिण तक लम्बा एवं 44 फीट 6 इंच पूर्व से पश्चिम को चौडा है | इन दीवारों में जिन ईटों का प्रयोग किया गया है उनकी माप 20″ x 10.5″ x 3″ है | इस प्लेटफार्म पर भिक्षु-भिक्षुणीयों के श्रवण-मनन करने हेतु श्रावक गृह के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं | बार-बार उत्खनन करने से इसका मूल स्वरूप विलुप्त हो गया है । इसके अलावा बहुत बड़ा समतल मैदान बना हुआ है । इस मैदान के सामने पश्चिम की तरफ ऊँचाई पर एक छोटा प्लेट फार्म या चबूतरा बना है । जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यहाँ कोई पूजनीय वस्तु रखी गई थी । जिसको लक्ष्य कर साधक उपासना करते थे । इस बौद्ध स्तूप या मन्दिर को देखने से ऐसा लगता है कि इसकी कई बार मरम्मत की गई थी, परन्तु इसके मूल ढाँचे को नहीं बदला गया । यह ढाँचा चूने के बजाय गारे तथा मिट्टी से बनाया गया है तथा उस पर चूने का प्लास्टर किया हुआ है । डॉ. दयाराम साहनी ने इस स्थल का सर्वेक्षण कार्य किया था ।

पहाड़ी के नीचे भिक्षु-भिक्षुणियों के निवासगृह के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं जिनकी संख्या 25 हैं । पूर्व की तरफ 12 कोठरियाँ स्पष्ट दिखलाई देती हैं इनमे से 6 बड़े और 6 छोटे आकार की हैं । ये तीन समानान्तर कतारों में बनी हुई थी तथा परस्पर एक बरामदे से जुडी हुई थी । चीनी यात्री युवान-च्वांग ने यहाँ पर बौद्ध विहार होने की सम्भावना प्रकट की थी । पहाड़ी पर दो गुफाएँ भी देखी जा सकती हैं । पुराविद् आर.सी. अग्रवाल का मत है कि ढूँढने पर बीजक पहाड़ी क्षेत्र में अशोक के कुल 8 अभिलेख मिलने की सम्भावना है । दो अभिलेख तो प्राप्त हो चुके हैं । विराटनगर में भीमसेन की डूंगरी से भी अशोक का अभिलेख मिला है, इसे कार्लाइल ने 1871 -72 ई. में खोज निकाला था | कनिंघम ने इसे पढ़कर विचार प्रकट किया कि यह अशोक का पूरा लेख है जो पाली भाषा में लिखा हुआ था ।

इस लेख में कहा गया है कि – देवताओं के प्रिय इस प्रकार कहते हैं – ढाई वर्ष से अधिक हुए जब मैं उपासक हुआ पर मैंने उद्योग नहीं किया परन्तु एक वर्ष से अधिक हुए जब मैं संघ में आया हूँ तब से मैंने अच्छी तरह उद्योग किया है…… …………. |

बीजक की पहाड़ी से अशोक स्तम्भ के 100 पालिश युक्त चुनार पत्थर के टुकडे मिले हैं । दयाराम साहनी का मत है कि यहाँ पर दो अशोक स्तम्भ थे | बीजक की पहाड़ी से कुछ पंचमाकं मुद्राएँ भी मिली हैं । यहाँ से मिट्टी के बर्तन, मिट्टी की मूर्तियाँ, तश्तरियाँ, थालियाँ आदि प्राप्त हुई हैं । जिससे अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बैराट मौर्यकालीन धर्म एवं संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र था |

अशोक के निधन (236 ई.पू।) के पश्चात् मौर्य साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया |

4.6.2 अशोक के पश्चात् मगध साम्राज्य और राजस्थान

स्मिथ के अनुसार अशोक की मृत्यु 232 ई.पू. के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी कुणाल बना और उसका दूसरा पुत्र जालौक कश्मीर राज्य का अधिपति बना | कुणाल का पुराणों में सुयश नाम भी मिलता है | उसने आठ वर्ष राज्य किया । उसके पश्चात् दशरथ मगध का शासक बना उसके अभिलेख नागार्जुनी की गुहाओं से मिले हैं जो उसने आजीवकों को दान में दिये थे । बौद्ध ग्रन्थ परिशिष्ट पर्वण में कुणाल के पुत्र का नाम समप्रति मिलता है । पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का मत है कि मौर्य साम्राज्य कुणाल के दो पुत्रों-दशरथ और सम्प्रति में बँट गया था । सम्प्रति को राज्य का पश्चिमी और दशरथ को पूर्वी भाग मिला । सम्प्रति की राजधानी कहीं पाटलिपुत्र और कहीं उज्जैन बतलाई गयी है | राजस्थान, मालवा गुजरात तथा काठियावाड़ के कई मन्दिर जिनको बनवाने वाले का नाम ज्ञात नहीं है । जैन लोग उसे राजा सम्पति का बनवाया हुआ मान लेते हैं । रामबल्लभ सोमानी ने लिखा है कि मेवाड की स्थानीय परम्पराओं में मौर्य सम्राट सम्प्रति का सम्बन्ध महत्वपूर्ण स्थलों से जोड़ा जाता है । यद्यपि जिन जैन मन्दिरों का सम्बन्ध सम्प्रति से जोड़ा जाता रहा है उन्हें उसके द्वारा निर्मित नहीं माना जा सकता है । लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि उन क्षेत्रों पर सम्प्रति का राज्य अदृश्य रहा होगा ।

पुराणों के अनुसार दशरथ के बाद पाटलिपुत्र के राज सिंहासन पर शालिशुक, देव वर्मा, शतधनुष और बृहद्रथ ने शासन किया | बृहद्रथ विलासी प्रवृत्ति का व्यक्ति था इसलिये उसके द्वारा सेना का निरीक्षण करते समय सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उसकी हत्या कर दी । पुराणों से संकेतित है कि यह घटना 185 ई.पू में घटित हुई ।

बृहद्रथ की हत्या के बाद भी राजस्थान में मौर्यवंशीय शासक विभिन्न स्थानों पर शासन करते रहे | मेवाड के इतिहास से ज्ञातव्य है कि मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) ने चित्तौड का दुर्ग बनवाया था । चित्तौड़ का एक तालाब भी मौर्य का बनवाया हुआ माना जाता है । इसी प्रकार कोटा के कनसुआ के शिलालेख (738 ई.) में मौर्य राजा धवल का नाम मिलता है ।

शुंग वंश में पुष्यमित्र शुंग प्रथम शासक था । जो बृहद्रथ के समय उज्जयिनी का गवर्नर रह चुका था । उसने 60 वर्ष शासन किया जबकि जैन ग्रन्थों में उसका राज्यकाल 36 वर्ष बतलाया गया है । शायद उसके 60 वर्ष के राज्यकाल में गवर्नर रहने का कार्यकाल भी जोड़ दिया गया है । इस प्रकार यदि पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य गवर्नर के रूप में पश्चिमी मालदा में शासन किया तब उसके पडौस में स्थित राजस्थान पर उसका शासकीय नियन्त्रण अवश्य रहा होगा । 4.7 शुंग काल में राजस्थान पर यवन आक्रमण 187- 75 ई.पू. यह घटना भारत पर यवन आक्रमण है । जिसके परिणामस्वरूप पंजाब की कई जातियाँ राजस्थान में आई और आकर यही पर बस गई ।

भारत पर यवन आक्रमण का संकट उत्तर मौर्यकालीन सम्राटों के समय उपस्थित हो गया था । पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में यवनों (बाख्त्री) ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण किया | पतजील ने अपने महाभाष्य में लिखा है कि वतनों ने मध्यमिका (चित्तौड के पास नगरी नामक स्थान) और साकेत पर आक्रमण किया और उसे घेर लिया | गार्गी संहिता के अनुसार दुष्ट विक्रान्त यवनों ने मथुरा, पांचाल, (गंगा-यमुना का दोआब), साकेत और कुसुमध्वज को अपने अधीन कर लिया परन्तु उनमें आपस में ही घोर युद्ध छिड गया । इसलिये वे मध्यदेश में ठहरे नहीं | पुष्यमित्र शुंग ने यवनों का घोर प्रतिरोध किया और उनको मध्यदेश से निकाल कर सिन्धु के किनारे तक खदेड़ दिया । मालविकाग्निमित्र के अनुसार पुष्यमित्र की सेना उसके पौत्र वसुमित्र के नेतृत्व में पश्चिमोत्तर भारत में घूम रही थी । इस सेना की मुठभेड़ यवनों से सिन्धु नदी के किनारे पर हुई । इसमें यवन पराजित हुए । इस यवन आक्रमण का नेता कौन था? इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । कुछ इतिहासकारों के अनुसार पुष्यमित्र के समय भारत पर हुए यवन आक्रमण का नेता डिमिट्रियस और कुछ के अनुसार मीनाण्डर था । कुछ विद्वानों के अनुसार भारत पर यवनों का एक आक्रमण हुआ था जबकि कुछ लोग दो आक्रमणों की कल्पना करते हैं । टार्न ने एक यूनानी आक्रमण के पक्ष में तर्क रखा है । साकल नरेश मीनाण्डर के पाटलिपुत्र के मार्ग में साकेत (अयोध्या) और मध्यमिका दोनो एक सिलसिले में नहीं हो सकते । ऐसी परिस्थिति में डिमिट्रियस और उसके दामाद मीनाण्डर ने एक साथ ही दोनों ओर युद्ध की घोषणा कर आक्रमण किया । डिमिट्रियस स्वयं सिन्धु की सीमाओं को पार करता हुआ चित्तौड के समीपस्थ नगर माध्यमिका को जीतता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचा और मीनाण्डर मथुरा, पात्रचाल तथा साकेत होता हुआ ।

उपर्युक्त वितरण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत पर यवन आक्रमण पुष्यमित्र शुंग के राज्यारोहण से कुछ पहले या उसके राज्य काल में हुआ । वदनों ने राजस्थान में मध्यमिका पर अधिकार कर लिया लेकिन शुंग सम्राट ने उन्हें पराजित कर दिया और सिन्धु नदी तक के भू-भाग पर अधिकार कर लिया । इसलिये सम्भवत: राजस्थान पुष्यमित्र शुंग के साम्राज्य में सम्मिलित था । लेकिन इसे प्रमाणित करना कुछ कठिन है । हाँ इतना अवश्य है कि राजस्थान यवन आक्रमण की गूंज से प्रभावित अवश्य हुआ ।

4.8 यवन आक्रमण का प्रभाव और विभिन्न गणजातियों का राजस्थान में अधिवासन

मौर्य साम्राज्य के विघटन के पश्चात् भारत पर हुए यवन आक्रमण का राजस्थान के इतिहास पर विशेष प्रभाव पडा । पंजाब की कई गणजातियाँ शुंग-कण्व काल में राजस्थान में आई और यहीं पर बस गई । राजस्थान अपने पड़ोसी राज्यों हेतु शरण-स्थली था । जब भी इसके पड़ोसी राज्यों या गंगा घाटी पर आक्रमणकारियों का दबाव पडता तो वहाँ के लोग यहाँ पर आकर शरण लिया करते थे | यवनों के आक्रमण से मालव, शिवि, आर्जुनायन, आभीर आदि गणजातियाँ पंजाब से स्थानान्तरित होकर राजस्थान आ गई । शुंग-कण्व काल में पंजाब से राजस्थान आने वाली गणजातियों के इतिहास पर बहुत कम शोध कार्य हुआ है क्योंकि शोध सामग्री स्वरूप उनकीमुद्राएं तथा कुछ शिलालेख मात्र ही उपलब्ध हैं।

प्रस्तुत विवेचन में हम पंजाब से राजस्थान आने वाली गणजातियों के इतिहास को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे । जिन्होंने राजस्थान के इतिहास को प्रभावित किया है ।

इण्डो यूनानी आक्रमण के फलस्वरूप भारत के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र में निवास कर रही गणजातियाँ अनुमानत: द्वितीय शताब्दी ई.पू. के प्रारम्भिक दशकों में राजस्थान आई थीं । इन गण अथवा जनजातियों में शिवि, आर्जुनायन, राजन्य तथा मालव प्रमुख थे । इसके अलावा यौधेयों, सम्भवत: पहले से ही पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ साथ उत्तर-पूर्वी राजस्थान में शासन कर रहे थे । इस अवधि में राजस्थान को प्रभावित करने वाली अन्य जनजातियों में आभीर, उत्तमभद्र तथा शुद्रक भी थे । मत्स्य जनपद राजस्थान में पहिले विद्यमान था तथा यह जनपद मगध के उत्कर्ष के समय उसमें विलीन हो गया था । शूरसेन में मथुरा स्थित था लेकिन इसकी गतिविधियों का राजस्थान के पूर्वी भाग पर प्रभाव पड़ा । इसके अलावा यह तथ्य भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि पूर्वकाल में राजस्थान में आहत सिक्के लोकप्रिय थे । गणजातियों ने पहली बार अपने सिक्के ढलवाये या तथा लगाकर जारी किये । उन सिक्कों पर गणजातियों ने अपने लेख भी उत्कीर्ण करवाये । यह तथ्य सूचित करता है कि ईसा पूर्व की अन्तिम शताब्दी और ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में राजस्थान में व्यापार वाणिज्य का विकास तेजी से हुआ और यहाँ पर संस्कृत भाषा का पर्याप्त उत्थान हुआ।

राजस्थान में जो जातियाँ इण्डोयूनानी आक्रमण के बाद यहाँ आई थीं उनके लिये अंग्रेजी में ट्राइब शब्द काम में लिया जाता है । जायसवाल ने उनके लिये गण शब्द का प्रयोग किया है । उन्होंने गण को एक विशिष्ट शासन पद्धति मानते हुए संघ शब्द को भी इसका पर्यायवाची माना है । पाणिनि ने संघ अथवा गण को एक सहकारी समूह की तरह स्वीकार किया है जिसमें उच्च एवं निम्न वर्ग में भेद नहीं होता है । वैदिक साहित्य, महाभारत, अंगुत्तर-निकाय और पाणिनि के व्याकरण ग्रन्थ में प्राचीन गणों का उल्लेख मिलता है जो अपनी आवश्यकता के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर पलायन कर जाते थे । उसी परम्परा के आधार पर ही उत्तरी-पश्चिमी सीमान्त की गणजातियाँ पलायन कर राजस्थान में आ पहुंची थीं ।

4.9 राजस्थान की प्रमुख गणजातियों का एतिहासिक विवरण

4.9.1 मालव – मालव जाति ने प्राचीन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही है | इस जाति का मूल निवास स्थान पंजाब था, बही से इसका प्रसार उत्तरी भारत, राजस्थान, मध्य भारत, लाट देश, वर्तमान में भड़ौच, कच्छ, बड़नगर तथा अहमदाबाद में हुआ और अन्त में मालवा में इस जाति ने अपने राज्य की स्थापना की । मालवो का सर्वप्रथम उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी में मिलता है | मालवों ने अपने गणस्वरूप को 600 ई.पू. से 400 ई. तक बनाये रखा । समुद्रगुप्त द्वारा पराजित मालवों ने अब गणशासन पद्धति को त्याग कर एकतन्त्र को स्वीकार कर लिया । उन्होंने दशपुर मध्यमिका (चित्तौड) क्षेत्र में औलिकर वंश के नाम से शासन किया । पाणिनि के अनुसार मालव और क्षुद्रक वाहीक देश के दो प्रसिद्ध गणराज्य थे । दोनों की राजनीतिक सत्ता और पृथक् भौगोलिक स्थिति थी । युद्ध के समय ये दोनों गण मिलकर साथ लड़ते थे । इस संयुक्त सेना की संज्ञा क्षौद्रक मालवी थी । सिकन्दर के आक्रमण के समय मालव-क्षुद्रक गणों की सेना को साथ-साथ लडना था परन्तु सेनापति के चुनाव को लेकर उनमें मतभेद उत्पन्न हो गया । डायोडोरेस के अनुसार उन्होंने शत्रु का अलग-अलग मुकाबला किया । पाणिनि ने दोनों जातियों को आयुधजीवी संघ कहकर पुकारा है । उन दिनों दे समृद्ध दशा में थे, भण्डारकर के अनुसार यूनानी लेखकों के द्वारा वर्णित औक्सिद्रकाई क्षुद्रक ही थे | पतंजलि के महाभाष्य तथा जैन ग्रन्थ भगवतीसूत्र में मालवों का उल्लेख मिलता है | सिकन्दर के आक्रमण के पूर्व वे पंजाब में स्थित थे । स्मिथ के अनुसार मालव झेलम और चिनाब के संगम के निचले भाग में निवास करते थे । मैक्रिण्डल का मत है कि चिनाब और रावी के मध्य का मैदानी भू-भाग जो सिन्धु और चिनाब के संगम तक फैला हुआ था मालवों के अधीन था । हेमचन्द्र रायचौधरी मालवों को निचली रावी घाटी में नदी के दोनो किनारो पर अवस्थित मानते हैं । एरियन के अनुसार मालव क्षुद्रकों के साथ सिकन्दर के विरुद्ध संघ निर्मित करने को सहमत हो गये थे परन्तु शत्रु का आक्रमण अकस्मात हो जाने के कारण दोनों गणों को शत्रु के विरुद्ध कार्यवाही करने का अवसर नहीं मिला । इस विस्मयकारी आक्रमण से मालव पराजित हुए | मालवों ने अपने किलानुमा नगरों से निरन्तर संघर्ष किया परन्तु सदैव पराजित हुए | मालवों ने समर्पण करने की अपेक्षा नगरों को त्याग कर वनों और रेतीले क्षेत्र में निवास करना उचित समझा । मैक्रिण्डल का मत है कि मालवों के आक्रमण में स्वयं सिकन्दर भी घायल हो गया था तब उसने उनकी स्त्रियों और बालक-बालिकाओं का संहार करने का आदेश तक दे दिया था । लेकिन मालव निराश नहीं हुए | एरियन की मान्यता है कि सिकन्दर ने गालवों को बुलाकर उनसे सन्धिवार्ता की थी जिसमें वे सफल हुए | मालवों तथा क्षुद्रकों की संयुक्त सेना में 90,000 या 80,000 पदाति, 10,000 घुड़सवार, 900 या 700 रथ थे | कर्टियस के अनुसार मालवों ने सिकन्दर को कुछ बहु मूल्य वस्तुएँ तथा घोडे और रथ भेंट किये थे ।

संस्कृत साहित्य में मालदों के शारीरिक गठन का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि दे असाधारण कद काठी के थे । इनकी लम्बाई 104 अंगुल अथवा 6 फीट 4 इंच के लगभग होती थी ।

कौटिल्य ने गणों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने की सलाह अर्थशास्त्र में दी है | इससे प्रतीत होता है कि मौर्यकाल मे भी गणजातियों ने अपनी स्वतन्त्रता बनाए रखी थी । यद्यपि कौटिल्य की सूची में मुद्रक, कुकुर, कुरु, पाचाल आदि पंजाब या मध्य देश की गणजातियों का उल्लेख मिलता है मालवों का नहीं । इसलिए इस बात की सम्भावना है कि मौर्यकाल या शुंगकाल में मालवों ने अपना मूल निवास स्थान छोड दिया और राजपूताना की ओर पलायन कर गये । इस बात की पूर्ण सम्भावना है कि पलायन काल में मालव और क्षुद्रकों में समागम हो गया इसलिये बाद में क्षुद्रकों का उल्लेख नहीं मिलता है । जायसवाल का मत है कि मालवों ने भटिण्डा के मार्ग से राजपूताना में प्रवेश किया । इसकी पुष्टि करते हुए उन्होंने लिखा है कि वर्तमान में भी मालवी बोली फिरोजपुर से भटिण्डा तक बोली जाती है । प्रारम्भ में मालवों के पंजाब तथा राजपूताना में निवास करने की जानकारी महाभारत में भी उपलब्ध है । एरियन ने लिखा है कि अर्कीसनेज (चेनाब) मल्लोई अर्थात् मालवों के अधीन क्षेत्र में सिन्धु में जाकर मिलती है । इस प्रकार मल्ल (मालव) जाति चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के राज्यकाल तक तो पंजाब में रही । मौर्य साम्राज्य के निर्बल होने तथा उस पर इण्डो ग्रीक आक्रमण होने पर वह पंजाब छोड्कर राजस्थान में आ गई । उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार मालव सर्वप्रथम पूर्वी राजस्थान मे आकर बसे थे । विभिन्न साक्ष्यों से संकेतित है कि यह स्थान टौंक जिले का नगर या कर्कोट नगर नामक स्थान था जो आधुनिक राजस्थान के निर्माण से पूर्व उणियारा ठिकाने के अन्तर्गत आता था।

इस स्थल की खोज 1871 -72 ई. में सर्वप्रथम कार्लाइल ने की थी । उन्हें यहाँ से 6000 ताम्र मुद्राएँ प्राप्त हुई थी । उनमें से 110 मुद्राएँ इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता में संगृहीत की गई थीं । उन मुद्राओं का अध्ययन बिन्सेण्ट स्मिथ ने किया था | डॉ. स्मिथ का विचार था कि इन सिक्कों में से 35 सिक्के ऐसे थे जो बाहर से लाये गये और शेष 75 सिक्के नगर में ही ढाले गये थे ।

कार्लाइल ने इन सिक्कों का अध्ययन करके 40 मुख्य नामों की पहचान की थी उनमें से 20 तो मालवगण प्रमुखों के नाम हैं । इन मुद्राओं पर ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया था और उनका निर्माण काल मुद्राशास्त्रियों ने द्वितीय शताब्दी ई.पू. से चतुर्थ शताब्दी ई. के मध्य माना है | इन मुद्राओं की लिखावट में कम अक्षरों का प्रयोग किया गया है । इनका भार तथा आकार भी न्यूनतम है | गण प्रमुखों का नाम लिखने में भी लिपिक्रम एक समान नहीं रखा गया है | कुछ सिक्कों पर ब्राह्मी वर्ण इस प्रकार लिखे गये हैं कि उनको बाँये से दाएँ पढ़ना पड़ता है ।

मालव आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे । कर्कोट नगर से मुद्राओं के अलावा मन्दिर, बाँध, तालाब तथा माला की मणियाँ उत्खनन में प्राप्त हुई हैं ।

जयपुर नगर से 56 मील की दूरी पर स्थित रेढ़े से भी मलावों के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है । रेढ़े तीसरी शती ई.पू. से द्वितीय शताब्दी ई. तक आबाद रहा था । उस समय यहाँ मालव निवास कर रहे थे । यहाँ से मालवों की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं । है से 2 खाई से एक लेड सील प्राप्त हुई थी जो मालवगण से सम्बंधित है । उस पर ब्राह्मी में लिखा हुआ है । लेड सील पर (मा.) ल-व-ज-न-प-द उत्कीर्ण है जिसे द्वितीय शताब्दी ई.पू का माना जाता है । यह सील राज्य के अधिकारी काम में लेते थे । रेढ़ से 300 मालवगण के सिक्के प्राप्त हो चुके हैं | मालव सिक्कों की विशेषताएँ निम्न रूप में कही जा सकती हैं –

मालव सिक्के गोलाकार थे । इन पर मालव नाम अथवा मालवानाम् जय लिखा हुआ था । कुछ मुद्राओं पर लेख मुद्राओं के पृष्ठ भाग पर लिखा है । सिक्कों पर उज्जैन चिहन, सांप, लहरदार नदी नन्दिपाद, त्रिकोण, परशु माला, वृक्ष, कूबड वाला बैल भी उत्कीर्ण है । स्मिथ ने मालव सिक्कों का न्यूनतम भार व 7 ग्रेन तथा डायामीटर 2 इंच बताया है जबकि रेढ़ के सिक्कों का न्यूनतम भार 2.41 ग्रेन तथा अधिकतम भार 43.84 ग्रेन है । उनका आकार .3 इंच, .6 इंच के मध्य है ।

मलावों का क्षहरात शकों से संघर्ष का उल्लेख नासिक गुहालेख में मिलता है, जो द्वितीय शती ई. के प्रारम्भ का माना जाता है । इस अभिलेख में ऋषमदत्त द्वारा उत्तम भद्रों की सहायता हेतु आना तथा मालवों को पराजित करने का विवरण मिलता है । दशरथ शर्मा का मत है कि उत्तम भद्र पंजाब के क्षत्रियों की एक शाखा थी जिसने अजमेर पुष्कर के उर्वरक क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था । इस तरह मालवों की शक्ति कुछ समय के लिए क्षीण हो गई | उधर रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख से भी ध्वनि निकलती है कि 150 ई. के बाद पश्चिमी राजस्थान के अधिकांश भाग पर शकों का अधिकार हो गया था । ऐसी स्थिति में मालवों का स्वाधीनतापूर्वक रहना कठिन था |

नान्दसा यूप लेख से संकेतित है कि बाद में शकों के गृह युद्ध में लिप्त हो जाने का लाभ उठाकर मालव पुन: स्वतन्त्र हो गये थे । नान्दसा यूप लेख 226 ई. का है उससे ज्ञातव्य है कि मालव नेता श्रीसोम अथवा नन्दिसोम ने एक षष्ठिरात्र यज्ञ करके अपने गण की स्वतन्त्रता की घोषणा की थी । नान्दसा के एक अन्य लेख में उनके सेनापति भीट्टसोम का नाम मिलता है । इससे स्पष्ट है कि दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान पर मालवों का शासन था । अब मालवगण धीरे-धीरे कुलीन तन्त्र में परिवर्तित हो गया था । नान्दसा यूप लेख मालवों की आनुवांशिक शासन प्रणाली का संकेत देकर तथा उन्हें ईक्ष्वाकु वंश से जोड़कर गौरव अनुभव करने की सूचना देता है ।

काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि द्वितीय शताब्दी ईस्वी में नाग वंश शक्तिशाली होकर मालवा, गुजरात और राजस्थान तथा पूर्वी पंजाब के अधिपति हो गये थे, तब मालव उनके प्रतिनिधि के रूप में जयपुर, अजमेर, मेवाड क्षेत्र में राज्य कर रहे थे । लेकिन तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के पश्चात् मालवों में फूट पड गई । डॉ. डी.सी शुक्ल का मत है कि तीसरी शताब्दी ईस्वी के पश्चात् मालव तीन शाखाओं में विभाजित हो गये जो विजयगढ़, बड़वा, दशपुर और मन्दसौर में निकस करती थीं । औलिकर (दशपुर-मन्दसौर) तो स्वयं को मालावों से संबन्धित मानते थे । उनके अभिलेखों में कृत मालव संवत् का प्रयोग मिलता है । ऐसा माना जाता है कि बड़वा और विजयगढ़ के शासक मालवों की ही शाखा थे । वैसे राजस्थान के अधिकांश यूप लेख मालवगण के भू-भाग के आसपास पाये गये हैं ।

मालवों के सम्बन्ध में समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति से भी जानकारी मिलती है । प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार मालव, यौधेयों, अर्जुनायन, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक काक, खरपरिक आदि प्रत्यन्त गणराज्यों ने समुद्रगुप्त को कर देकर उसकी सभा में उपस्थित होने का वचन दिया, लेकिन 371 ई. के विजयगढ़ अभिलेख का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि यौधेयों गण अभी तक स्वतन्त्रता का उपभोग कर रहे थे । कलवों का उल्लेख पुराणों(भागवत) में भी मिलता है । भागवत पुराण में मालवों का स्वतन्त्र शासक रूप में और विष्णु पुराण में आबू के शासक के रूप में उल्लेख मिलता है । समुद्रगुप्त के बाद मालव मन्दसौर की ओर पलायन कर गये । स्कन्दगुप्त के समय वे प्रयाग तक चले गये ।

उदयपुर जिले के वल्लभनगर तहसील के ग्राम बालाथल जहाँ डॉ ललित पाण्डेय ने उत्खनन करवाया था, वहाँ से प्राप्त मृदाण्डों पर ब्राह्मी का ‘म’ उत्कीर्ण है । इसलिये इसे मालव प्रभावित क्षेत्र माना जा सकता है । इनकी दो मुद्राएँ मेवाड के नगरी मध्यमिका से प्राप्त हुई है जिससे स्पष्ट है कि मालव राजस्थान के पूर्वी एवं दक्षिणी भाग के शासक थे ।

ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में मालवों का शकों के साथ संघर्ष होने का विविरण नासिक गुहा लेख में मिलता है । यह संघर्ष क्षहरात वंश के साथ हुआ था । जूनागढ़ अभिलेख में प्रथम रुद्रदामा (130- 150 ई.) का मालदा, गुजरात, काठियावाड़, सिन्धु सौबीर पश्चिमी विनध्य तथा अरावली क्षेत्र (निषाद) और मरुक्षेत्र पर विजय करने का उल्लेख आता है । इसलिये यह निश्चित है कि उसका राजस्थान के मालवों के साथ फिर से संघर्ष हुआ होगा । ऐसी सम्भावना है कि मालव रुद्रदामा प्रथम के पश्चात् कार्दमक शकों में जो पारिवारिक संघर्ष हुआ उसका लाभ उठाकर पुन: स्वतन्त्र हो गये जिसकी पुष्टि नान्दसा यूप लेख जो 226 ई. का है उससे होती है ।

4.9.2 यौधेयों-गण

मालवों की तरह यौधेय भी एक स्वतन्त्रता प्रिय जाति थी | पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुसार यौधेयों एक कुलीन तन्त्रीय गण था । इस आधार पर यौधेयो की प्राचीनता छठी शताब्दी ई. पू तक सिद्ध होती है | पाणिनि ने यौधेयो का उल्लेख त्रिगतां के साथ किया है तथा लिखा है कि आयुधजीवी संघ थे अर्थात् यह संघ आयुधों पर निर्भर था | पुराणों में उन्हें उशी नरों का उत्तराधिकारी बताया गया है । पर्जीटर के अनुसार उशीनर ने पंजाब में कई जातियों को बसाया था | वायुपुराण और विष्णु पुराण में यौधेयो का उशीनरों के संदर्भ में उल्लेख मिलता है | मजूमदार तथा पुसालकर के अनुसार यौधेयों ‘योध’ शब्द से बना है । महाभारत में यौधेयों युधिष्ठिर का पुत्र बतलाया गया है । इस प्रकार दे युधिष्ठिर की संतान थे । बुद्ध प्रकाश इस मत के समर्थक है जबकि स्वामी ओमानन्द ने इस मत को भ्रान्तिपूर्ण बतलाया है । उनका विचार है कि महाभारत में द्रोण एवं कर्णपर्व में अर्जुन द्वारा यौधेयो को पराजित करने का उल्लेख आता है । साथ ही उन्हें युधिष्ठिर को कर देने वाला भी कहा गया है । यौधेयों का उल्लेख पुराणों के अलावा शकटायन व्याकरण, जैमिनीय ब्राह्मण में भी मिलता है । जैमिनीय ब्राह्मण में यौधेयों राजा शैब्य पुण्यकेश द्वारा यज्ञ करने का विवरण मिलता

समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति तथा रुद्रदामा प्रथम के जूनागढ़ अभिलेख तथा नवीं शताब्दी के सोमदेव सूरि के ग्रन्थ यशस तिलक चम्पू महाकाव्य में यौधेयो की चर्चा मिलती है । दसवीं शताब्दी के अपभ्रंश ग्रन्थो में भी यौधेयो का वर्णन आता है । इस प्रकार यौधेयों गण जाति का 600 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक का निरन्तर विवरण मिलता है ।

एरियन के अनुसार जब सिकन्दर व्यास नदी पर पहुंचा तो उसेव्यास नदी के पार एक उपजाऊ देश की जानकारी मिली जहाँ के लोग साहसी और योद्धा थे । जायसवाल के अनुसार एरियन द्वारा जिस जाति का विवरण दिया गया है वह यौधेयों जाति थी । यौधेयो का राज्य सहारनपुर पश्चिमी उत्तरप्रदेश तक विस्तृत था जहाँ से उनकी मुद्राएँ मिली हैं । यौधेयो का साम्राज्य पूर्व की ओर मगध साम्राज्य की सीमा तक फैला हुआ था । सिकन्दर के आक्रमण के समय कुछ गणों का नाम न मिलने का कारण यह था कि वह ऐसे कई गणों को जीत भी नहीं पाया था । यौधेयो ने सिकन्दर के आक्रमण का सामना नहीं किया था इसलिये यूनानी लेखकों ने उनका उल्लेख नहीं किया है । संभवत: चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के समय यौधेयो से उनके सच मैत्रीपूर्ण रहे होंगे । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में गणों के साथ सन्धि करने का उल्लेख किया है ।

यौधेयो शुंगकाल में विशेष रूप से अवतरित हुए | मालव-यौधेयों गण ऐसे थे जो सम्भवत: मौर्य शुंग काल में भी जीवित रहे और शक कुषाणों से भी संघर्ष करके अपना अस्तित्व बनाए रखा |

अ.स. अल्तेकर के अनुसार यौधेयो का शासन का विस्तार तथा क्षेत्र पूर्व में सहारनपुर से पश्चिम में बहावलपुर तक तथा उत्तर पश्चिम में लुधियाना से दक्षिण पूर्व में दिल्ली तक था जहाँ से उनकी मुद्राएँ मिली हैं | यौधेयों तीन गणों का एक संघ था | इनमें से एक की राजधानी पंजाब में रोहतक, द्वितीय गण उत्तरी पांचाल में था जो बहुधान्यक कहा जाता था तथा तृतीय गण उत्तरी राजपूताना का क्षेत्र था । अष्टम शती के महाकवि स्वंयभू का विचार था कि मरूभूमि के निकट शूरसेन यौधेयों का ही भाग क्षेत्र था | जायसवाल का मत है कि सतलज के किनारे पर रहने वाले जोहिया राजपूत यौधेयों से ही सम्बन्धित थे | कंनिघम ने यौधेयों का मूल राज्य जोहियाबार माना था जो मुलान जिले में स्थित था । यौधेयों की कांस्य-ताम्र धातु मुद्राएँ बहुधान्यक से मिली हैं जिन पर यौधेयोंना बहुधान्यके या बहु धन यौधेयों लिखा है | इनकी एक मुद्रा पर यौधेयोनां भूधान्यके लेख उत्कीर्ण है | राजस्थान में यौधेयों का

विस्तार बीकानेर राज्य के उत्तरी प्रदेश गंगानगर आदि पर बतलाया जाता है । संभवत: यौधेयों का वर्चस्व द्वितीय शताब्दी ई पू. से समुद्रगुप्त के राज्यकाल तक बना रहा । साँचों में ढली हुई उनकी मुद्राएँ रोहतक, हरियाणा से प्राप्त हुई हैं जिन पर बीरबल साहनी ने पूरा ग्रन्थ ही लिख डाला था | यौधेयो को समुद्रगुप्त से पूर्व शकों से पराजित होना पड़ा था | उस समय भी वे उत्तरी राजस्थान में राज्य कर रहे थे । लेकिन बाद में कुषाणों ने अहाने राज्य का विस्तार कर लिया जब यौधेयो का क्षेत्र उत्तरी राजस्थान उनके हाथ से चला गया । द्वितीय शती ई. से राजस्थान के सूरतगढ़ और हनुमानगढ़ में कुषाण मुद्राएँ प्राप्त होने लगती हैं । उनके सिक्के रंगमहल तथा सांभर से भी मिले हैं | सुई विहार अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुषाणों का उत्तरी राजस्थान पर अधिकार था | रुद्रदामा प्रथम के उत्कर्ष के बाद कुषाण राजस्थान पर अपना प्रभुत्व बनाये न रख सके | रुद्रदामा प्रथम की विजयों के फलस्वरूप मतन्त्रता प्रेमी यौधेयो को कुचल दिया गया और उन्हें अपने अधीन कर लिया लेकिन उन्होंने द्वितीय शताब्दी ई. में अपनी स्वतन्त्रता के लिये फिर प्रयास किया जिसमें वे सफल रहे उन्होंने कुषाणों को सतलज के पार भगा दिया ।

अल्तेकर का मत है कि कुषाणकाल तक यौधेयों राजतन्त्र शासन पद्धति अपना चुके थे । वे वीरता में अग्रणी और कार्तिकेय के उपासक थे । महाभारत में उन्हें मत्त मयूरक कहा गया है | कुषाणों के पतन के बाद उनका फिर उत्तरी राजस्थान पर अधिकार हो गया था । समुद्रगुप्त के राज्यकाल तक बे अपने अस्तित्व को बनाये रहे | यौधेयो का एक अभिलेख राजस्थान के भरतपुर जिले से प्राप्त हुआ है जिससे ज्ञात होता है कि दे अपने नेता का चुनाव करते थे । इस लेख को अभिलेख शास्त्री गुप्तकाल

का मानते हैं । इस लेख में यौधेयोंगण के नेता के लिए महाराज तथा महासेनापति उपाधियों का प्रयोग किया गया है । इस प्रकार यौधेयो का शासन शुंगकाल से चौथी शताब्दी ईस्वी तक पूर्वी पंजाब, सतलज तथा यमुना नदी के मध्य के क्षेत्र, पश्चिम उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी राजस्थान तक विस्तृत था । इनकी मुद्रा निधियाँ दिल्ली एवं करनाल के मध्य स्थित सोनपत से प्राप्त हुई हैं । सम्भवत: यौधेयों राजस्थान में द्वितीय शताब्दी ईस्वी के मध्य तक अवश्य आ गये थे । उनकी मुद्राएँ तीन प्रकार की हैं – प्रथम – शुंगकालीन मुद्राएँ जिन पर चलता हुआ हाथी तथा वृषभ अंकित हैं । द्वितीय- दे मुद्राएँ जिन पर कार्तिकेय अंकित हैं । तृतीय- वे मुद्राएँ जिन पर यौधेयों गणस्य जय: उत्कीर्ण है । इन पर एक योद्धा का अंकन है, जो हाथ में भाला लिये हुए है इसकी त्रिभंगी मुद्रा है | कुछ सिक्कों पर द्वि तथा त्रि लिखा है जिसका तात्पर्य कुषाणों से दो या तीन बार संघर्ष करना माना जाता है । अलेक्लजेण्डर को उनका मुद्रांक मिला था जिस पर “यौधेयगेनां जय मन्त्रधराणाम उत्कीर्ण था । मुद्रांक के नीचे चलता हुआ ननिद प्रदर्शित है । अग्रोहा से भी यौधेयो का मुद्रांक मिला है ।

पुराणों में यौधेयो का राजतन्त्र की तरह वर्णन किया गया है लेकिन कालान्तर में यह कुलीन तन्त्र में परिवर्तित हो गया तथा इस गण में 5000 सदस्यों की सभा होती थी । जबकि उनके भरतपुर अभिलेख तथा अग्रोहा मुद्रांक लेख से संकेतित होता है कि उनके नेता का चुनाव होता था शासन व्यवस्था गणतान्त्रिक थी । कहा जाता है कि यौधेयो ने युद्धक प्रकार के सिक्के कुषाण मुद्रा माला से प्रभावित होकर जारी किये थे । बी. स्मिथ का मत है कि यौधेयो के युद्धक सिक्के चन्द्रगुपा विक्रमादित्य की उत्तरी विजय पूर्ण होने तक अर्थात् 360 ई. तक विद्यमान थे । अत: निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि यौधेयो का राजनीतिक वर्चस्व चौथी शताब्दी ईस्वी तक विद्यमान रहा । विजयगढ लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति तथा अन्य परवर्ती साहित्य से यौधेयों के अस्तित्व की पूर्ण जानकारी मिलती है ।

4.9.3 आर्जुनायन

आर्जुनायन भी एक प्राचीन गण जाति थी । उनका पाणिनि की अष्टाध्यायी, पतंजलि के महाभाष्य तथा महाभारत में उल्लेख मिलता है | गण पाठ में उनका उल्लेख राजन्य के साथ किया गया है । ऐसा माना जाता है कि आर्जुनायन एक नवीन समुदाय था और उसकी स्थापना शुंगों के बाद हुई थी । शकों और कुषाणों को पराजित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी । समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में उनका उल्लेख गुज साम्राज्य के सीमान्त क्षेत्र के निवासियों के संदर्भ में आता है । इस प्रकार यौधेयों 380 ई. तक वर्तमान थे । उन्होंने 100 ई.पू. के आसपास अल्प मात्रा में सिक्के चलाये थे । अन्तत: दे राजपूताना में निवास करने लगे थे । इनका निवास स्थान आगरा और मथुरा के पश्चिमी भाग में भरतपुर और अलवर क्षेत्र में था । वे स्वयं को पाण्डव राजकुमार अर्जुन का वंशज मानते थे | पाणिनि की अष्टाध्यायी में आर्जुनको का उल्लेख मिलता है जो वासुदेव के उपासक थे अत: उन्हें वासुदेवक कहा जाता था । डी.सी. शुक्ल के अनुसार आर्जुनायन तथा प्रराग -प्रशस्ति के आर्जुन सम्मदत: प्राचीन आर्जुनकों की शाखा थी । बुद्ध प्रकाश का मत है कि आर्जुनायन सीथियन जाति से सम्बन्धित थे । दशरथ शर्मा के अनुसार उन्होंने शकों तथा कुषाणों के विरूद्ध मालवों से मिलकर संघर्ष किया था । इनकी मुद्राएँ धातु निर्मित हैं । उन पर आर्जुनायना जय अंकित हैं जिसका तात्पर्य है आर्जुनायनों की जय हो | ये मुद्राएँ उत्तर क्षत्रपों, यौधेयो, औदश्वरों तथा राजन्यों के सिक्के जैसे हैं तथा उन पर ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया है | कनिंघम ने प्राचीन सतलज के किनारे पर स्थित अजुधन नामक स्थान उनकी स्मृति को जीवित रखे हुए हैं।

आर्जुनायनों की मुद्राओं पर एक खड़ी हुई आकृति तथा कूबडूब्बाला वृषभ, हाथी तथा ऊँट का अंकन प्रमुख रूप से है । मैकिण्डल का मत है कि यूनानी लेखकों ने जिस अगलसी या अगलसोई जाति का उल्लेख किया है वे अर्धनायन ही थे ।

4.9.4 राजन्य –

राजन्य एक प्राचीन जनपद था । उनका उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी; पंतजलि के महाभाष्य और महाभारत में प्राप्त होता है | पाणिनि के अनुसार अंधकवृष्णियों के दो राज्य थे | काशिका के अनुसार राजन्य ऐसे परिवारों के नेता थे जो शासन करने हेतु चिहिनत किये गये थे | हम जानते हैं कि अंधकवृणि एक संघ था तथा इस संघ में कार्यपालिका की शक्ति दो राजन्यों में निहित थी । इनका विधिवत चुनाव होता था । रण संघों में गण व राजन्य दोनों के नाम से सिक्के ढाले जाते थे | उनके कुछ सिक्कों पर केवल राजन्य नाम ही मिलता है । स्मिथ ने इनके सिक्कों की व्याख्या करते हुए उन्हें क्षत्रिय देश के सिक्के माना था जबकि काशीप्रसाद जायसवाल का मत था कि राजन्य एक स्वतन्त्र राजनीतिक इकाई थे । उनकी मुद्राएँ 200 से 100 ई.पू. के मध्य जारी की गई थी। स्मिथ ने राजन्यों का क्षेत्र मथुरा, भरतपुर तथा पूर्वी राजपूताना स्वीकार किया था । काशीप्रसाद जायसशल को उनके सिक्के होशियारपुर जिले के मनसवाल से प्राप्त हुए थे । इसलिए उन्होंने होशियारपुर उनका मूल निवास स्थान माना है । राजन्यों की मुद्राओं तथा मथुरा के उत्तरी शकों की मुद्राओं में काफी समानता है | उन पर ब्राह्मी तथा खरोष्ठी में लेख उत्कीर्ण है । सिक्कों पर एक मानव आकृति अंकित हौ जो शायद कोई देवता है, जिसका दायाँ हाथ ऊपर उठा हुआ है। इन पर खरोष्ठी में ‘राजन जनपदस’ उत्कीर्ण है । उनके इस प्रकार के सिक्कों पर कूबडवाला बैल अंकित है एवं उन पर ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है । इसके अलाबा उनकी मुद्राओं पर वृक्ष एवं चीते का अंकन भी मिलता है । डी.सी शुक्ल का मत है कि राजन्य गुंगकाल में उत्तरी और उत्तरी पश्चिमी राजस्थान आये थे ।

4.9.5 आभीर –

शुंग कुषाण काल में जिन गणों का उत्कर्ष हुआ उनमें आभीर गण भी प्रसिद्ध है । आभीरों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विवाद है । कुछ विद्वान उन्हें विदेशी उत्पत्ति का मानते हैं । वे पाँचवी शती ई.पू. के आसपास पंजाब से निर्वासित हो गये थे तथा वहाँ से पश्चिमी, मध्य तथा र्दाक्षेणी भारत चले गये । बुद्ध प्रकाश के अनुसार आभीरों का सम्बन्ध पश्चिमी एशिया के अपिरु नामक स्थान से था | महाभारत में भी आभीरों का उल्लेख मिलता है । इस विवरण में कहा गया है कि आभीरों के अपवित्र स्पर्श से सरस्वती नदी विनशन नामक स्थान पर लुप्त हो गई थी । इसका अर्थ यह लिया जाता है कि कुरुक्षेत्र के आसपास कुरुओं की शक्ति क्षीण हो गई थी | महाभारत के अनुसार आभीरों ने अर्जुन को जब वह महाभारत के युद्ध के पश्चात् द्वारका लौट रहा था, पराजित किया था । पुराणों में आभीरों को चतुर, म्लेच्छ तथा दस्यु की तरह अभिहित किया गया है | परवर्ती काल में आभीर दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान में अवस्थित हो गये इसकी सूचना यूनानी लेखकों से भी प्राप्त होती है । टॉलेमी ने आभीरों का वर्णन अबीरिया नाम से किया है, जिन्हें सामान्य भाषा में अहीर कहा जाता है | अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार बे पश्चिमी भारत में शासन करते थे, इन्होंने प्रतिहारों पर आक्रमण किया था | आभीरों का मण्डोर के कक्कुक से 861 ई. में युद्ध हुआ था | कक्कुक ने उन्हें पराजित किया था । आभीरों पर विजय के उपलक्ष में घटियाला में स्तम्भ स्थापित किया गया था । मार्कण्डेय पुराण में आभीरों को दक्षिण भारत का निवासी कहा गया है । हेमचन्द्र रायचौधरी के अनुसार वे उत्तरी महाराष्ट्र में शासक थे ।

4.9.6 शूद्रगण

यहाँ शूद्र अथवा शूद्रयाण का तात्पर्य वर्ण व्यवस्था के चतुर्थ वर्ण से भिन्न है । सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तब यह उत्तरी पश्चिमी भारत की प्रमुख जनजाति थी । यूनानी लेखकों ने इसका विवरण सोग्दी, सोद्र, सोन्द्री, सोगदोई नाम से किया है । इसको मस्सनोई से भी संबन्धित किया जाता है । संस्कृत-साहित्य में उनका नाम आभीरों के विवरण के साथ आया है । महाभारत के अनुसार शूद्रों और आभीरों के क्षेत्र में सरस्वती विलुप्त हो गई थी । पुराणों में शूद्रों को उदिच्य निवासी कहा गया है । सम्भवत: उनका प्रारम्भिक मूल निवास उत्तरी-पश्चिमी भारत में था । वायुपुराण, कूर्म पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण से भी यही सूचना मिलती है । अर्थवेद में एक शूद्र स्त्री का मूजवन्त तथा बाद्दीलक के साथ वर्णन मिलता है । सभी विवरणो में शूद्रों का सम्बन्ध उत्तरी-पश्चिमी भारत से बतलाया गया है । यूनानी लेखक डायोडोरस के अनुसार सिकन्दर ने सादई गण में अलेक्जेण्ड्रिया नामक नगर को स्थापित किया था एवं उस नगर में 10,000 व्यक्तियों को बसाया गया था । सम्भवत: किसी समय इस गण के निवासी राजस्थान में पलायन करके आये होंगे ।

4.9.7 शिबि जनपद

मौर्यो के बढ़ते हुए प्रभाव सिकन्दर के आक्रमण और इण्डो-यूनानियों के आक्रमण से बाध्य होकर कई गण जातियाँ पंजाब छोड़कर राजस्थान आई थीं । उनमें से शिवि गण के लोग मेवाड के नगरी नामक स्थान पर राजस्थान में स्थानान्तरित हुए | काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि गण जातियों का पलायन उनका स्वतन्त्रता के प्रति प्रेम प्रदर्शित करता है । यूनानी क्लासिकल लेखकों, कर्टिअस, स्ट्रेबो तथा एरियन के अनुसार चौथी शताब्दी ई.पू. में सिकन्दर के स्वदेश लौटते समय सिब्रोई (शिबि) जनजाति द्वारा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया गया था । एरियन के अनुसार शिबिजन के निवासी वीर और साहसी थे । उनके पास 40 हजार पदाति तथा 3000 घुडसवार सैनिक थे । वे जंगली जानवरों की खाल पहनते थे और उनकी युद्ध पद्धति बिचित्र थी | युद्ध में वे गदा और लाठियों का प्रयोग करते थे । क्लासिकल लेखकों के विवरण से तो ऐसा लगता है कि शिबि जाति के लोग असभ्य तथा बर्बर थे । सम्भवत: यह विवरण उनके पंजाब निवास का है जबकि राजस्थान के शिबि सुसंस्कृत और संस्कार सम्पन्न थे ।

शिबि जाति का उल्लेख ऋग्वेद में अलिनों, पक्यों, भलानसो, और विषणियो के साथ आया है जिन्हें सुदास ने पराजित किया था । ऐतरेय ब्राह्मण में शिबि राजा अमित्रतनय का उल्लेख आया है । महात्मा बुद्ध (महाजन पदयुग) के समय के सोलह महाजन पदों की सूची जो अंगुत्तरनिकाय में मिलती है उसमें शिबि जनपद का उल्लेख नहीं है परन्तु महावस्तु में बुद्ध ज्ञान को जिन देशों और जनपदों में वितरित किये जाने की बात कही गई है उनमें शिवि देश सम्मिलित है । महावस्तु की सूची में गन्धार और कम्बोज जनपदों का नाम न देकर उसकी जगह शिबि और दर्शाण का नाम मिलता है । बिनयपिटक के अनुसार शिबि देश बहुमूल्य और सुन्दर दशालों के लिये प्रसिद्ध था । अवन्ती नरेश चण्ड प्रद्योत ने शिबि देश का एक दशाले का जोडा बैद्य जीवक को भेंट किया था और उसने उसे भगवान् बुद्ध को अर्पित कर दिया । उम्मदन्ती जातक से ज्ञात होता है कि शिबियों के राज्य में शिबि धर्म नामक नैतिक विधान प्रचलित था जिसका पालन करना राज्य के प्रत्येक नागरिक का कर्तथ था । शिबि जातक, उम्मदन्ती जातक और वेस्सन्तर जातक में शिबिदेश तथा उसके राजाओं का वर्णन मिलता है ।

पाणिनि ने उशीनर का बाहीक जनपद नाम से उल्लेख किया है । उसनो शिबि का कहीं उल्लेख नहीं किया है । सम्भवत: बाद में उशीनर शिबि कहे जाने लगे महाभारत के वन पर्व में शिबि राष्ट्र और उसके राजा उशीनर का उल्लेख मिलता है । नन्दलाल दे ने महाभारत के इस शिबि राज्य को स्वात घाटी में स्थित बतलाया है । महाभारत में शिबि औशीनर के बाज हेतु बलिदान की कथा बडी लोकप्रिय है । फाहियान के अनुसार यह घटना उद्यान के दक्षिण या आधुनिक स्वात घाटी में घटी थी | महाभारत बाली शिबि राजा की कथा शिबि जातक में मिलती है । इस प्रकार पालि साहित्य के शिबि देश की राजधानी स्वात घाटी मानकर उसे वर्तमान सीवी(विलोचिस्तान) के आसपास माना जा सकता है या पश्चिमी पंजाब के शोरकोट के आसपास का प्रदेश और उसकी राजधानी अरिथपुर को शिदापुर से मिला सकते हैं । लेकिन वेस्सन्तर जातक में जेतुतर को शिबि राज्य की राजधानी बतलाया गया है । यह बुद्धकालीन 20 बडे नगरों में एक नगर था । बेस्सन्तर जातक में जेत्तुर को चेतरह के मातुल नगर से 30 योजन की दूरी पर बताया गया है । नन्दोलाल दे ने जेतुतर को आधुनिक चित्तौड़ से 11 मील उत्तर में स्थित नगरी नामक स्थान से अभिन्न माना है । अलबरूनी ने जिस जत्तररूर या जत्तरौर का उल्लेख किया है बह कुछ विद्वानो के अनुसार जेत्ततुर ही है । यह सम्भावना है कि बुद्धकालीन जेत्रातर से बिगडकर वर्तमान चित्तौड़ बना हो । नगरी में बहुत सी ताम्र मुद्राएँ मिली हैं जिन पर मज्जिमिका य सिवि जनपदस लिखा हुआ है । इससे स्पष्ट है कि चित्तौड के समीप मध्यमिका में भी शिबि लोगों का जनपद था । अत: जिस शिबि राज्य की राजधानी वेस्सन्तर जातक में जेतुतर नामक नगरी बतलाई गई है उसे भरतसिंह उपाध्याय (बुद्धकालीन भारतीय भूगोल) ने चित्तौड़ (राजस्थान) के आसपास का क्षेत्र माना है । इस प्रकार पालि साहित्य के आधार पर हमें शिबि लोगों के दो निवास स्थान मानने पडेंगे एक स्वात घाटी में और दूसरा चित्तौड के आसपास | दशकुमारचरित से ज्ञात होता है शिबि जाति का एक जनपद दक्षिण में कावेरी नदी के तट पर भी स्थित था ।

महाभारत में शिबियों के पंजाब से राजस्थान स्थानान्तरित होने का प्रमाण उपलब्ध है । सभापर्व में शिबि, मालव और त्रिगर्त का एक स्थान पर मरु (राजस्थान) क्षेत्र में उल्लेख आया है । ऐसा प्रतीत होता है कि शिबि गण मध्यमिका में महात्मा बुद्ध के समय विद्यमान था | 200 ई.पू. से 200 ई. के मध्य वहाँ लोग पंजाब से आये होंगे । शिबि जाति का राजस्थान में पदार्पण सिकन्दर के आक्रमण के बाद न होकर इण्डो-यूनानी आक्रमण के पश्चात् होना अधिक तर्कपूर्ण है । पुष्यमित्र शुंग द्वारा इण्डो-यूनानी आक्रमण के बाद शिवि जाति लगभग 187 ई.पू. मध्यमिका में आकर पूर्णतया बस गई होगी । इसकी पुष्टि उनकी मुद्राओं से होती है । प्रसिद्ध विद्वान एच.डी. सांकलिया ने नगरी से शिबिगण के 16 सिक्के एकत्रित किये थे जिससे संकेतित है कि यह क्षेत्र शिबिगण के अन्तर्गत था । शिबियों की मुद्राओं का श्रीमती शोभना गोखले तथा एस.जे. मंगलम् ने अध्ययन किया था ।

शिबि-मुद्राओं पर सामान्य रूप से स्वस्तिक का वृषभ के साथ संयुक्त रूप से अंकन उसके चारों कोनों पर हुआ है । इन मुद्राओं पर वृक्ष का अंकन भी मिलता है | वृक्ष पूर्ण चक्र में उत्पन्न होता हुआ प्रदर्शित किया गया है । सिक्के के अग्रभाग पर अर्ध वर्तुलाकार उपाख्यान उत्कीर्ण है और छ: मेहराब युक्त पहाड के चिहन का भी अंकन है | कुछ सिक्कों पर पहाडी संरचना के ऊपर अलंकरण युक्त नन्दीपद है तथा पहाडी के नीचे नदी का अंकन सिक्कों के पृष्ठ भाग पर किया गया है । वृक्ष अंकन की परम्परा शिबिगण के सिक्कों में अन्य गणों के सिक्कों से भिन्न है । अन्य गणों के सिक्कों में ‘ट्री इन रेलिंग ‘ के विपरीत शिबि गण के सिक्के में वृक्ष वृत्ताकार या चक्राकार रचना के ऊपर अथवा उसमें से उत्पन्न होते हुए दिखलाया गया है ।

सांकलिया को प्राप्त सिक्कों में से एक सिक्के पर वृक्ष का चित्र नहीं है तथा उसके पृष्ठ भाग पर कोई अंकन नहीं है । इस पर केवल उपाख्यान ही अंकित किया गया है । इसी प्रकार यहाँ से प्राप्त एक अन्य सिक्के के अग्रभाग पर सामान्य रूप से अंकित आठ या दस शाखाओं के वृक्ष और वृषभ युक्त स्वस्तिक के स्थान पर केवल वृक्ष की छोटी सी शाखा ही उत्कीर्ण है । इसमें कोई वर्तुलाकार संरचना भी नहीं है । वैसे वृषभ युक्त स्वस्तिक या वृष भयुक्त क्रास की संख्या शिबिगण की मुद्राओं की विशेषता थी | कनिंघम छ: मेहराबयुक्त पहाड को जो एक विस्तृत नन्दीपद से ढका हुआ है उसे धर्मचक्र मानते हैं | रोशनलाल सागर को प्राप्त शिबिगण के सिक्के पर नन्दीपद के आधार पर विद्वान शिबियों को शैव धर्मावलम्बी मानते हैं ।

पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्कों को देखने से ऐसा लगता है कि मेहराब, पहाड, नदी का अंकन मानो उन्होंने शिबियों की नकल करके किया था ।

शिबियो की मुद्राओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि

(1) सभी मुद्राएँ 1.5 सेमी. से 200 से.मी. व्यास की हैं । (2) इनकी मोटाई 0.1 सेमी. से 0.3 से.मी. के मध्य की है । (3) इनका भार 1.865 ग्राम से 6.442 ग्राम के मध्य है ।

(4) इनके अग्रभाग पर (10 सिक्कों पर) स्वस्तिक चिहन, 15 पर वृषभ अंकन, 16 पर वृक्ष का अंकन है । इन सिक्कों पर उपाख्यान शिबि, शिबिजनपदस्य, झामिकया, शिबिजा मझमिकय शिबिज उत्कीर्ण किया गया है | 13 सिक्कों पर मेहराब, पहाडी, नदी का अंकन है । एक सिक्के के पृष्ठ भाग पर रूभयुक्त स्वस्तिक चिहन है । पीच सिक्के दूषित या बिगड़े हुए हैं ।

शिबियों के सिक्कों के भार में अन्तर बतलाता है कि मुद्रा निर्माण पर कोई केन्द्रीय नियन्त्रण नहीं था | कुछ सिक्के घिस गये तो भी चलन में थे जो मुद्रास्फीति फैलने का प्रमाण है ।

नगरी (चित्तौड) से एक अभिलेख मिला था जिसे 200 ई.पू. से 150 ई.पू. का माना जाता है | इस अभिलेख के अनुसार एक पाराशर गौत्रीय महिला के पुत्र गज ने पूजा शिला-प्राकार का नारायण वाटिका में संकर्षण और वासुदेव की पूजा के लिये निर्माण करवाया था | नगरी के ही हाथी बाडा के ब्राह्मी अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रस्तर के चारों ओर दीवार का निर्माण नारायण वाटिका में संकर्षण

और वासुदेव की पूजा के लिये सर्वतात जो गाजायन पाराशर गौत्रीय महिला का पुत्र था ने बनवाया तथा उसने अवश्मेघ यज्ञ भी किया | डी.आर. भण्डारकर के अनुसार उपर्युक्त अभिलेख से सिद्ध होता है कि दक्षिणी राजस्थान में उन दिनों भागवत धर्म प्रचलित था ।

वासुदेव कृष्ण का अब नारायण से तादात्मय स्थापित हो चुका था । इस प्रकार लगभग 200 ई.पू. से 100 ई.पू. के मध्य मध्यमिका क्षेत्र जो शिबिगण के अधीन था वहाँ संकर्षण-वासुदेव की पूजा प्रचलित थी । इसके पश्चात् शिबियों का विवरण बृहद्संहिता तथा दशकुमारचरित तथा दक्षिण भारत के अभिलेखों में मिलता है । इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि 200 ई.पू. शिबियो का नगरी पर अधिकार था । बाद में वहाँ पश्चिमी क्षत्रपों के उत्थान के बाद बे लगभग 200 ई. के आसपास नगरी से भी पलायन करके दक्षिणी भारत में चले गये होंगे ।

4.9.8 उदिहिक जनपद

यह जनपद राजन्य जनपद से अधिक दूर नहीं था । वराहमिहिर ने उन्हें मध्यदेश निशसी माना है । अलबरूनी ने उन्हें भरतपुर के निकट बजाना का मूल निवासी कह कर पुकारा है । कुछ मुद्राएँ जिन पर उदिहिक तथा सूर्यमित्रस नाम उत्कीर्ण है, प्राप्त हुई है । सम्भवत: उदिहिक जनपद की मुद्राएँ प्रथम शती ई.पू. के मध्य में कभी जारी की गई थी । अत: स्पष्ट है कि उदिहिक जनपद शुंगकाल में अवतीर्ण हुआ था ।

4.9.9 शाल्व जनपद

राजस्थान में प्राचीन शाल जाति का भी विभिन्न स्थानों पर शासन था । महाभारत में शाल्वपुत्र की चर्चा मिलती है । आधुनिक अलवर उसी का बिगड़ा हुआ स्वरूप है । शाल्व जाति मत्स्य के उत्तर में ही बीकानेर में निवास करती थी । इसी प्रकार उत्तमभद्र जिन्होंने शक सेनापति उषवदात्त से संघर्ष किया था इसी परिवार का अंग था जिनका निवास स्थल बीकानेर राज्य के पूर्वी भाग में स्थित भाद्रा को माना जाता है । इनके पश्चिम में सार्वसेनी या शाल्वसेनी रहते थे | काशिका में उन्हें शुष्क क्षेत्र का निवासी कहा गया है । डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार अरावली के उत्तर पश्चिम में भूलिंग जाति के लोग रहते थे वे भी सम्भवत: शालों की ही शाखा थे । शालों का अपने समय में राजस्थान के बड़े भू-भाग पर प्रभाव था ।