प्रागैतिहासिक या प्राक् इतिहासकाल जिसे सामान्य भाषा मे पाषाणयुग कहा जाता है की अवस्था के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे | उन पुरातात्विक प्रमाणों की भी जानकारी प्राप्त करेंगे जो राजस्थान से प्राप्त हुई है। उस काल के लोगों के जीवन-यापन में प्रयुक्त औजारों की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे । राजस्थान में प्रागैतिहासिक काल के प्रसार-प्रचार और इतिहास के पुनर्निर्माण की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

2.2 भारत मे प्रागैतिहासिक कल

भारत में पुरापाषाण युगीन सभ्यता का विकास प्लाइस्टोसीन (अतिनूतन) काल या हिमयुग मे हुआ | आद्य इतिहास (होलीसीन) काल के प्रथम अवशेष महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान से मिले हैं । धरती पर मानव की प्रथम उपस्थिति मध्य प्लाइस्टोसीन अर्थात पाँच लाख वर्ष पूर्व की नही ठहरती हैं, इस काल में पृथ्वी की सतह का बहुत अधिक भाग खासकर अधिक ऊँचाई पर और उसके आसपास के स्थान बर्फ की चादरों से ढका रहता था, किन्तु पर्वतों को छोड उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र बर्फ से मुक्त रहता था । पुरापाषाणयुग की अवस्थाएँ

(1) निम्न पुरापाषाण काल – 5 लाख से 50 हजार ई.पू के बीच

(2) मध्य पुरापाषाण काल – 50 हजार से 40 हजार ई.पू के बीच

(3) उच्च पुरापाषाण काल – 40 हजार से 10 हजार ई.पू के बीच

भारतीय निम्न पुरापाषाण कालीन अध्ययन की दृष्टि से विन्ध्य का पठार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, इस क्षेत्र के अन्तर्गत अहमदाबाद और मिर्जापुर जिले आते हैं, इसके उत्तर मे गंगाघाटी है और दक्षिण में सोहन नदी है, विन्ध्य के पठार की प्रमुख नदी बेलन है इस क्षेत्र की पुरा पाषाणकालीन संस्कृतियों का क्रमबद्ध रूप नदी के सेक्सन मे मिलता है।

पश्चिमी भारत में पुरापाषाण कालीन संस्कृतियों की खोज का श्रेय डॉ. एच.डी.सांकलिया और वी.एन.मिश्रा को जाता है, पश्चिमी भारत मे माही, साबरमती, बेडच, वागन, गंभीरी, कदमाली, लूनी आदि नदियों के किनारे से ऍश्युलियन परम्परा के उपकरण खोजे गए, राजस्थान के डीडवाना क्षेत्र में डेकन कॉलेज पूना द्वारा किये गये

शोधकार्य से यह ज्ञात होता है कि निम्न पुरापाषाण कालीन मानव राजस्थान में 3 लाख 90 हजार वर्ष आ गया था । यहाँ से प्राप्त कार्बन 14 तिथि से साबित होता है कि राजस्थान सम्पूर्ण भारत में निम्न पुरापाषाण कालीन मानव का सर्वाधिक प्राचीन केन्द्र था ।

भारत में निम्न पुरापाषाण कालीन संस्कृति की खोज का श्रेय सर्वप्रथम आर.ब्रुस फूट को जाता है उन्होने 1863ई. में मद्रास के पास पल्लवरम नामक स्थान से अवशेष खोजे परन्तु निम्न पुरापाषाणकाल की वैज्ञानिक एवं विधिवत तरीके से खोज का श्रेय येल एवं केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एच.डी.ई. टेरा और टी.टी.पेटरसन को जाता है जिन्होनें कश्मीरघाटी, पोतवार के पठार, मद्रास की कार्ट लॉयर नदी तथा होशंगाबाद घाटी में विधिवत सर्वेक्षण का कार्य प्रारंभ करके निम्न पुरापाषाणकाल की खोज की, इसके पश्चात एम.सी.बीर्कट ने आन्धप्रदेश मे कलकत्ता विश्वविद्यालय ने मयूरभंज में कार्य किया, इस प्रकार यह प्रमाणित हो गया कि भारत में निम्न पुरापाषाणकाल मे मानव कांगड़ा और कश्मीर के हिम क्षेत्र से प्रारम्भ होकर, राजस्थान व कच्छ के रण क्षेत्र, आसाम के अतिवृष्टि वाले क्षेत्र, बिहार के बीहड जंगलों तथा कोंकण, सौराष्ट्र आदि क्षेत्र में फैला हुआ था निम्न पुरापाषाणकाल को पुरातत्ववेत्ता 5 लाख से 50 हजार वर्ष ई.पू के मध्य भारत में विकसित हुआ मानते है ।

2.3 राजस्थान का पुरा पर्यावरण एव भूगोल

राजस्थान प्रदेश 23.’ 03 से 30.’ 12 उत्तरी अक्षांश एवं 60.’ 30 से 78.’ 17 पूर्वी देशान्तर रेखाओं के मध्य स्थित है । राज्य का कुल क्षेत्रफल 3,42,274 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थित यह भू-भाग अपनी अनेकता में एकता समेटे हुए है । इसके 66000 वर्ग मील रेतीले क्षेत्र के अतिरिक्त 430 मील लम्बे अरावली पर्वत शृंखला ने भौगोलिक दृष्टि से इसे विभाजित कर रखा है । अरावली पर्वत की शृंखला आबू पर्वत के गुरु शिखर से प्रारम्भ होकर अलवर के सिंघाना तक विस्तृत है । विश्व की इस प्राचीन पर्वत श्रृंखला का उत्तर-पश्चिमी भाग वर्षा के अभाव मे सूखा रह गया है, यह क्षेत्र अरावली पर्वत की सूखी ढाल पर है, उत्तर-पश्चिमी भाग विशेषकर जोधपुर, जैसलमेर व बीकानेर का भू-भाग आता है।

इस प्रदेश की जलवायु शुष्क है । यहां पर विशाल एवं उच्च बालू रेत के टीलों की प्रधानता है इस क्षेत्र मे वर्षा के अभाव के कारण प्रागैतिहासिककाल मे बसावट की गहनता का अभाव दिखाई देता है | इस क्षेत्र मे बहने वाली प्रमुख नदियों मे लूनी नदी महत्वपूर्ण है । यह अजमेर के आनासागर से निकल कर जोधपुर, बाड़मेर व जालौर जिलो का सिंचन कर कच्छ की खाडी मे जा समाप्ती हैं । सूकडी, जोजरी, बांडी सरस्वती, मीठडी आदि इसकी सहायक नदियां है । अरावली पर्वत शृंखला के दक्षिणी – पूर्वी भाग में अच्छी वर्षा होती है तथा यहां कई नदियों बहती है इसलिए राजस्थान का यह भाग अत्यन्त उपजाऊ हैं । इस क्षेत्र मे रहने वाली प्रमुख नदियों मे चम्बल बनास, बेडच,बनास की सहायक कोठारी कालिसिंध, माही, साबरमती आदि नदियां हैं ।

सामाजिक विकास के प्रारंभिक स्तर पर प्रागैतिहासिक मानव के इतिहास का स्वरूप ज्यादा इस पर निर्भर था कि वह किस प्रकार वहां तत्कालीन पर्यावरण के साथ परस्पर सम्पर्क करता था । बिना भूगोल के इतिहास अधूरा रहता है और अपने एक प्रमुख तत्व से वंचित हो जाता हैं । यही कारण है कि इतिहास को मानव जाति के इतिहास और पर्यावरण का इतिहास दोनो ही परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । मिट्टी, वर्षा, वनस्पति, जलवायु और पर्यावरण मानव संस्कृति के विकास मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है ।

राजस्थान की जलवायु का प्रागैतिहासिक काल मे अपना महत्व रहा है 1960 के दशक में पुरावनस्पति शास्त्रियों पुरातत्ववेत्ताओं ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया जिसमें अमलानन्द घोष, गुरुदीपसिंह अल्चिन, गोढी, हेगडे, धीर, वी.एन.मिश्रा, सिन्हा आदि विद्धान सम्मिलित थे । इन्होने सर्वप्रथम लूनी बेसीन मे सर्वेक्षण के दौरान पाया कि यहां ।

10,000 वर्ष पूर्व सांभर, डीडवाना, पुष्कर और लूणकरणसर क्षेत्र का जलवायु मनुष्यों के रहने के अनुकूल था । इस प्रदेश की मिट्टी रेतीली थी यहां पर उष्णकटिबंधीय क्षेत्र अधिक होने से वर्षा का अभाव था जबकि दक्षिणी-पूर्वी भाग में मिट्टी अधिक उपजाऊ थी इसलिए यहां सिचाई के अभाव के बावजूद अच्छी फसलें हों जाती थी । इस भू-भाग मे ताम्रपाषाण युगीन बस्तियां काफी संख्या मे फैली हुई है । इसकी भौगोलिक अवस्थाओं को देखते हुए प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिककालीन संस्कृति का विस्तार इस भू-भाग में जलवायु के अनुकूल रहने के कारण हुआ होगा ।

2.4 राजस्थान मे प्रागैतिहासिक चरण

राजस्थान के मरूभूमि क्षेत्र मे प्रारंभिक पुरापाषाणकालीन संस्कृति के पाए जाने वाले प्रस्तर उपकरणों मे हस्तकुठार (हैण्ड एक्स) कुल्हाडी, क्लीवर और खंडक(चौपर) मुख्य है यहाँ से प्राप्त प्रस्तर उपकरण सोहनघाटी क्षेत्र में पाए जाने वाले प्रस्तर उपकरणों की तरह ही है । प्राप्त उपकरण पंजाब की सोन संस्कृति एवं मद्रास की हस्त कुल्हाडी संस्कृति के मध्य संबंध स्थापित करती है |

चित्तौडगढ (मेवाड) मे सर्वेक्षण कर डॉ.वी.एन मिश्रा ने 1959 में गंभीरी नदी के पेटे से जो चित्तौड़गढ़ के किले के दक्षिणी किनारे पर स्थित है 242 पाषाण उपकरण खोजे थे । यह 242 उपकरण दो कर सर्वेक्षण कर एकत्रित किए गए । प्रथम संग्रह मे 135 उपकरण तथा दूसरे संग्रह मे 107 उपकरण एकत्र किए गए हैं । 135 उपकरणों मे से तीन हस्त कुल्हाड़ी दो छीलनी (स्क्रेपर) एक कछुए की पीठ, के सदृश क्रोड और नौ फलक हैं । द्वितीय संग्रह में सात हस्त कुल्हाड़ी दो विदलक (क्लीवर) तथा चार क्रोड हैं । वि.एन.मिश्रा से पूर्व 1953-54 में भारतीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण दिमाग के प्रयासों से

चित्तौडगढ के गंभीरी और बेड़च नदी के पेटे से (चौपर हस्त कुल्हाडी तथा फलक) प्रस्तर उपकरण खोजे थे । राजस्थान के प्रागैतिहासिक कालीन संस्कृति को जानने के लिए यह खोज अत्यन्त महत्वपूर्ण थी और इससे प्रारंभिक पाषाण संस्कृतियों के अध्ययन की व्यापक संभावनाएँ निर्मित हुई थी इसी क्रम में 1954-55 से 1963-64 तक इस मेवाड के भू-भाग मे आने बाले पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा प्राकइतिहास की दृष्टि से सर्वेक्षण किया गया । जिसके अन्तर्गत गंभीरी बेडच, कादमली और चंबल नदी के समीपवर्ती क्षेत्रों से जिसमें चित्तौड़ नगरी और भैसरोड़गढ, सोन्नीता, बल्लूखेडा, बानसेन, भूटिया, चांपाखेडी, हाजारी खेड़ी, सिरडी तथा टुकरडा से क्वार्टजाईट, चर्ट जैस्पर, चेल्सीडोनी तथा नोट आदि के प्रस्तर उपकरण मिले |राजस्थान मे प्रागैतिहासिक काल का विकास कई चरणों मे हुआ है । अरवली पर्वतमाला यहां के क्षेत्र को उत्तरी-पूर्वी और दक्षिणी-पश्चिमी भागों में विभाजित करती है, पश्चिमी भाग मरूस्थलीय है और मारवाड के नाम से जाना जाता है, जहां पर छोटी-छोटी पहाड़िया रेत के टीलों के रूप में विकीसत हुई हैं । इस क्षेत्र मे लूणी नदी बहती है पूर्वी भाग मे बेडच, गंभीरी, वाजन, कांदमली और चंबल नदियां बहती हैं, यह क्षेत्र मेवाड के नाम से जाना जाता हैं । इस क्षेत्र में पुरावनस्पति वैज्ञानिकों, पुराविदो एवं अन्य विद्धानों को समय-समय पर किये गये उत्खननों सर्वेक्षणों से नदियों के किनारों पर विभिन्न प्रकार के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जो तत्कालीन मानव के क्रिया कलापों के बारे में जानकारी देते हैं । राजस्थान के इस भू-भाग से प्राप्त पाषाण उपकरणों के आकार प्रकार एवं इन पर धार बनाने के लिए फलकीकरण के आधार पर किये गये परिवर्तनों को देखते हुए उपकरणों के निर्माण व विकास को निम्न भागों में बांटा गया है

2.4.1 निम्न पुरापाषाणकालीन उपकरण

इस काल के उपकरणों में मुख्यत: पेबुल, उपकरण, हैन्डएक्स, क्लीवर फ्लेक्स पर बने ब्लेड और स्क्रेपर, चौपर और चांपिंग उपकरण आदि हैं, इन्हें कोर उपकरण समूह मे सम्मिलित किया जाता है, इन उपकरणों के निर्माण हेतु क्वार्टजाइट (Quartzit) ट्रेप (Trap) जैसे कठोर पाषाणों का प्रयोग किया जाता था | राजस्थान मे इन उपकरणों को प्रकाश मे लाने का श्रेय प्रो.वी.एनमिश्रा, एस.एन.राजगुरू, डी.पी अग्रवाल, गोढी, गुरुदीप सिंह वासन, आर.पी.धीर को जाता हैं, इन्होनें जायल और डीडवाना मेवाड मे चित्तौड़गढ(गंभीरी बेसीन) कोटा (चम्बल बेसीन) और नगरी (बेड़च बेसीन) क्षेत्रों में अनेक निम्न पुरापाषाणकालीन स्थल स्तरीकृत ग्रेवेल से प्राप्त किये । इन ग्रेवेलो से तत्कालीन समय की जलवायु पर भी पर्याप्त प्रकाश पडता हैं ।

2.4.2 मध्य पुरापाषाण कालीन उपकरण

इस काल की संस्कृति के अवशेष भारत में सर्वप्रथम नेवासा (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुए है इसलिए प्रो.एच.डी. सांकलिया ने इस संस्कृति के उपकरणों को नवासा उपकरण का नाम दिया हैं । बीसवी शताब्दी के साठवें दशक के बाद हुई खोजों के फलस्वरूप मध्य पुरापाषाणकाल का भारत के सभी भागों मे विस्तार मिला हैं । इस काल की संस्कृति के अवशेष महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्धप्रदेश, तमिलनाडु उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तरी केरल, मेघालय, पंजाब और कश्मीर के विभिन्न स्थलों से प्राप्त हुए हैं ।

महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा उत्तरप्रदेश की नदी घाटियों के क्षेत्र से इस संस्कृति के प्रमाण निम्नपुरापाषाण काल और उच्च पुरापाषाण काल के बीच मे मिलते है इसलिए इस संस्कृति को मध्यपुरा पाषाणकाल के नाम से जाना जाता हैं | मध्य पुरापाषाण काल के स्थल निम्न पुरापाषाणकाल की तुलना में संख्या में अधिक प्राप्त हुए हैं, जिसके आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं ने यह माना हैं कि इस काल में जनसंख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई थी । मध्य पुरापाषाणकालीन संस्कृति के स्थलों को मुख्य रूप से तीन भागो मे विभाजित किया जा सकता है –

(i) Cave & Rock Shelter Site इस प्रकार के उपकरणों के उदाहरण भीम बैठका के शैलाश्रयों से मिलते है, जो मध्य प्रदेश में स्थित हैं ।

(ii) Open air work Shopes site ऐसे पुरास्थलों से तात्पर्य यह हैं कि मध्यपुरापाषाणकालीन मानव उपकरण बनाता था, यह क्षेत्र कई हैक्टयर मे फैला हुआ होता हैं इस प्रकार के पुरास्थल कर्नाटक में काफी संख्या मे मिले हैं ।

(iii) River site ऐसे पुरास्थल कृष्णागोदावरी, नर्बदा पंजाब के सोहन नदी आदि के किनारों से प्राप्त होते हैं । नदी किनारों के पुरास्थलों से एक लाभ यह होता हैं कि इनके उपकरणों का सापेक्ष निर्धारण किया जा सकता है |

पुरापाषाण काल के द्वितीय चरण से संबंधित संस्कृति को मध्यपुरापाषाण के नाम से जाना जाता हैं । स्तरीकरण की शृंखला में इस संस्कृति के अवशेष निम्न पुरापाषाणकाल के ऊपरी स्तरों से प्राप्त होते हैं । दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में इस संस्कृति के अवशेष कंदमाली नदी के किनारे भूटिया, हजारा खेड़ी, चांपाखेडी तथा पश्चिमी राजस्थान में सूनी बेसीन से प्राप्त होते है । प्रो.वी.एन मिश्रा ने बताया कि चित्तौड के निकटवर्ती क्षेत्र में निम्न पुरापाषाण व मध्य पुरापाषाण काल के मध्य कोई अन्तराल नहीं था, निम्न पुरापाषाणकाल में जो हैन्डएक्स और क्लीवर क्वार्टजाईट के निर्मित होते थे, वे मध्य पाषाणकाल में चर्ट से निर्मित होने लगे थे । इस काल के उपकरणों के निर्माण मे फ्लेक्स तकनीक का प्रयोग किया गया हैं, राजस्थान इस संस्कृति के पुरास्थलों मे एकाएक संख्या में वृद्धि दिखाई देती हैं, पुराविदो ने इसका कारण जनसंख्या मे वृद्धि माना हैं इस काल में हैन्डएक्स, स्क्रेपर, बोरर पोइन्ट आदि उपकरण बनाये जाते थे ।

मध्य पुरापाषाणकालीन संस्कृति में तृतीय श्रेणी के प्राप्त पुरास्थलों का विशेष महत्व था, क्योंकि नदी के किनारे के सेक्शन में विभिन्न कालों में हुई मिट्टी के जमन से पाषाणकालीन उपकरणों की तुलनात्मक स्थिति ज्ञात की जा सकती है और इस अवस्था के ऐसे अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं । सामान्यत: मध्य पुरापाषाणकालीन उपकरण ग्रेवल डिपोजिट के मिलते हैं । ग्रेवल डिपोजिट से तात्पर्य छोटे-छोटे कंकरों की सतह से है, राजस्थान में ग्रेवल डिपोजिट के साथ रेत का जमाव भी मिलता हैं | राजस्थान के कुछ ऐसे स्थलों के नाम लूनी बेसिन क्षेत्रों मे मिले हैं, इसी के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं ने यह मत व्यक्त किया हैं कि मध्य पुरापाषाणकाल में रेत का जमाव इस तथ्य का सूचक हैं कि इस समय पर्यावरण ने कुछ समय के लिए शुष्क अवस्था आई थी परन्तु मध्य पुरापाषाणकाल की संस्कृति के समय की किसी भी प्रकार की वनस्पति के परागकण नहीं मिलने के कारण इस काल की जलवायु के सम्बन्ध में कुछ निश्चित रूप से कहना संभव नही हैं । महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश की बेलनघाटी से कुछ जानवरों के जीवाश्म मिले हैं जिसके आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं ने अनुमान लगाया है कि इस काल में हिरण जंगली सांड और गैंडे जैसे जानवर थे । मध्यपुरारगषाणकाल के औजारों को फ्लेक उपकरण फैक्ट्री भी कहा जाता है । क्योंकि इस काल की संस्कृति के अधिकांश उपकरण फ्लेक(चिप्पड़) पर बने हुए मिले हैं ।

मध्य पुरापाषाणकाल के उपकरण सामान्यत: दो विधियों से बनाये गये थे –

(1) Levdious इस पद्धति से तात्पर्य यह हैं कि मूल पत्थर जिसे कोर कहा जाता हैं इस पर एक – दूसरे पत्थर की सहायता से फ्लेक निकाला जाता था, उस फ्लेक की सतह उभरी हुई होती थी इस विधि से मनचाहे आकार का फ्लेक्स प्राप्त किया जाता था, इस पद्धति को Levdious पद्वति इसलिए कहा जाता हैं क्यों इस प्रकार के उपकरण प्रथम बार पेरिस के Levdious नामक स्थान से मिले थे ।

(2) Block on Block तकनीकी – इस पद्धति के अन्तर्गत जिस पेबुल से फ्लेक्स निकाला जाता था, उसको हाथ मे पकड़ लिया जाता था और इस पेबुल को जमीन पर स्थिर पत्थर पर रखकर जिस पत्थर का कोना नुकीला होता था उसे जोर से मारा जाता था, इस प्रकार जो फ्लेक्स प्राप्त होता था, उससे स्क्रेपर बनाया जाता था ।

मध्य पुरापाषाणकालीन संस्कृति के मुख्य प्रस्तर उपकरण

(1) स्क्रेपर- इनके विभिन्न प्रकार होते हैं । कुछ स्क्रेपर तीखी और सीधी धार बाले हैं, इन सीधी धार बाले स्क्रेपर को पुन: दो भागो मे बांटा जाता है, कुछ मे धार एक ओर होती थी तो कुछ में दोनो ओर होती थी, इसके अतिरिक्त स्क्रेपर, उतलधार वाले व अवतल धार वाले होते थे ।

(2) पोइन्टस् (3) बोरर (4) नाईफ (चाकू जैसे) मध्य पुरा पाषाण काल में निम्न पुरापाषाणकालीन संस्कृति के मनुष्यों द्वारा प्रयुक्त उपकरणों में हैण्डएक्स और क्लीवर परम्परा का चलन मिलता हैं |

2.4.3 उच्च पुरापाषाणकाल –

1970 से पूर्व तक यह माना जाता था कि भारत में उच्च पुरापाषाण काल का अभाव रहा हैं परन्तु बीसवीं शताब्दी के सातवें एवं आठवे दशक में पुरातत्व वेत्ताओं ने इस काल की संस्कृति के अध्ययन हेतु सर्वेक्षण कर इस ओर शोधकार्य आरंभ किया । जिसमें उत्तर प्रदेश तथा बिहार के दक्षिणी पठारी क्षेत्र मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और राजस्थान से इस काल की संस्कृति के प्रमाण अस्तित्व में आयें | उच्च पुरापाषाणकाल के प्रस्तर उपकरणों की मुख्य विशेषता ब्लेड उपकरणों की प्रधानता रही । ब्लेड सामान्यत: पतले और संकरे आकार के लगभग समानान्तर पार्श वाले उन पाषाण फलकों को कहते हैं, जिनकी लम्बाई उनकी चौड़ाई की कम से कम दुगुनी होती हैं । उच्च पुरापाषाणकाल मे मनुष्यों ने अपने प्रत्येक कार्यो के लिए विशिष्ट प्रकार के उपकरण बनाने की तकनीकी विकीसत कर ली थी । इस काल की संस्कृति का प्रधान उपकरण ब्यूरीन (burin) था । इससे तात्पर्य ऐसे उपकरण से हैं जो छिलने अथवा नक्काशी करने के काम में प्रयुक्त होता था दूसरे शब्दों मे तक्षणी भी कहा जा सकता हैं । इसका प्रयोग हड्डी, हाथीदाँत, सींग आदि की नक्काशी करने के काम मे लिया जाता था इस काल की संगति की दूसरी विशेषता यह रही कि आधुनिक मानव जिसे जीव विज्ञान की भाषा में होमोसेपियन्स (Homo Sapines) कहते है | इसी काल मे पृथ्वी पर अवतरित हुआ था।

उच्च पुरापाषाणकाल से संबंधित संस्कृति के उपकरणों की खोज का श्रेय आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, कैनबरा के ग्रुप के साथ, गुरुदीपसिंह, वी.एन.मिश्रा आदि को जाता हैं, राजस्थान में बूढ़ा पुष्कर से इस संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए हैं ये उपकरण मुख्यत: ब्लेड पर निर्मित हैं यहां से प्राप्त उपकरण मध्य पुरापाषाणकाल की तुलना में अधिक विकसित है और फलक ब कोर पर निर्मित उपकरण

भी मिले हैं । ये उपकरण अपेक्षाकृत अधिक लम्बे एवं पतले हैं, ब्लेड ब्यूरिन इस संस्कृति के प्रमुख उपकरण हैं । पाषाण निर्मित उपकरणों के निर्माण में चर्ट, चेल्सीडोनी, अगेट और जैस्पर जैसे मुलायम प्रस्तरों का प्रयोग उपकरणों के निर्माण में किया गया हैं, कहीं-कहीं पर क्वार्टजाइट जैसे कठोर पाषाण का प्रयोग भी किया गया हैं | उच्च पुरापाषाणकाल के उपकरण लाइम स्टोन की पहाडियों सोजत से जो सूनी नदी की घाटी में भी सर्वेक्षण के दौरान प्रकाश में आये है ।

2.5 मध्य पाषाण

मध्य पाषाण का मानव इतिहास में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक क्रम माना जाता हैं । पुराविदो का मानना है कि इस काल में पृथ्वी के धरातल पर नदियों, पहाड़ों व जंगलों का स्थिरीकरण हो गया था तथा अब पुराप्रमाण भी अधिक संख्या में मिलने लगते हैं ।

भारत में मध्य पाषाणकालीन स्थल निम्न स्थलों से प्राप्त होते हैं –

1. बाडमेर मे स्थित तिलवाडा

2. भीलवाड़ा मे स्थित बागोर,

3. मेहसाणा मे स्थित लंघनाज

4. प्रतापगढ़ मे स्थित सरायनाहर,

5. उत्तरप्रदेश मे स्थित लेकडुआ,

6. मध्य प्रदेश होशंगाबाद मे स्थित आदमगढ़

7. वर्धमान (बंगाल) जिले ने स्थित वीरभानपुर,

8. दक्षिण भारत के वेल्लारी जिले में स्थित संघन कल्लू ।

मध्य पाषाणकालीन सर्वाधिक पुरास्थल गुजरात मारवड़ एवं मेवाड के क्षेत्रों से प्राप्त होते हैं इस काल में एक ओर यहां देखने में आता हैं कि मध्यपाषाणकालीन मानवों ने अब अनेक ऐसी बस्तियों की और प्रस्थान किया था जो पुरापाषाणकाल की अपेक्षा नये थे इस कारण यह माना जा सकता है कि इस काल मे जनसंख्या की वृद्धि हुई होगी ।

मध्यपाषाणकालीन मानव ने प्रधान रूप से जिन स्थलों को अपने निवास के लिए चुना उनको निम्न भागो मे विभक्त किया जा सकता हैं –

1. रेत के थुहे-

मध्यपापाणकालीन मानव ने रेत के थुहों को अपना निवास स्थान बनाया था । रेगिस्तानी क्षेत्रों मे रेत के थुहों की बालू अपेक्षाकृत अधिक जमाव वाली होती है इसलिए इन स्थानों मे तत्कालीन मानव ने अपना निवास स्थान बनायें जिनके समीप पानी पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध रहा होगा | नागौर जिले में स्थित डीडवाना और सांभर झील जो अब नमक के प्रमुख स्रोत हैं दस हजार वर्ष पूर्व मीठे पानी की झीलें थी इससे यह सिद्ध होता हैं कि इन स्थानों में मध्यपाषाणकालीन मानव रहा होगा | सांभर और डीडवाना से लिये गये मिट्टी के नमूनों से तत्कालीन वनस्पति की सूचना प्राप्त होते हैं जिसके आधार पर यहां कहा जा सकता है कि मध्यपाषाणकालीन मानव झाड़ी और कांटेनुमा वनस्पति से परिचित था |

2. शैलाश्रय-

मध्यभारत के रिमझिम सतपुड़ा और कैमुर पर्वतों मे शिलाओं और शैलाश्रयों में मध्यपाषाणकालीन मानव के सर्वाधिक निवास स्थल थे, इन शैलाश्रयों से मध्यपाषाणकालीन मानवों के सर्वाधिक प्रमाण मिलते है ।

3. चट्टानी क्षेत्र –

मेवाड मे चट्टानों से संलग्न मैदानी क्षेत्रों में मध्यपाषाणकालीन स्थल मिलते हैं दक्षिण में भी ऐसे स्थल मिलते हैं इन चट्टानी मैदानों के क्षेत्रो से जो मध्य पाषाणकालीन स्थल मिले हैं वह छोटी अवधि के होते थे क्योंकि चट्टानी क्षेत्रों में पानी वर्ष भर मे तीन या चार माह से अधिक नही रहता था | मध्यपाषाणकालीन संस्कृति के अवशेष ही एवं पश्चिमी राजस्थान में सर्वप्रथम अस्तित्व में आये तिलवाड़ा पुरास्थल बाडमेर जिले के पूर्वी हिस्से मे है, वी.एन.मिश्रा ने इस पुरास्थल पर उत्खन्न कर प्रस्तर निर्मित लघु अष्म उपकरणों को खोजा, इन उपकरणों के निर्माण में प्रेशर तकनीक का प्रयोग किया गया था । उपकरणों को बनाने में प्रयुक्त मुख्य प्रस्तर चर्ट चेल्सीडोनी था | राजस्थान मे इस काल की तिथि 8000 B.C. निर्धारित की है ।

बागोर – अक्षांश 25.° 23 एवं 74.° 23 पूर्वी देशान्तर पर पूर्वी राजस्थान के अभी तक ज्ञात मध्य पुरा पाषाणिक पुरास्थलों में सबसे महत्वपूर्ण है । जो बनास नदी की सहायक कोठारी नदी के बायें तट पर भीलवाड़ा से पश्चिम में स्थित हैं | बागोर के लगभग 7 मीटर ऊँचे वायु जनित निक्षेप से निर्मित रेतीले टीले को स्थानीय लोग महासती कहते है । यह टीला पूर्व से पश्चिम 200 मीटर लम्बा और उदर से दक्षिण में 150 मीटर चौड़ा हैं | बागोर नामक गाँव में एक किमी. पूर्व दिशा में स्थित इस पुरास्थल की खोज सन् 1967 में दकन कॉलेज पूणे के वी.एन. मिश्र एवं साउथ एशिया इंस्टीट्यूट हीडल बर्ग जर्मनी के एल.एस.लेश्निक ने की थी । सन् 1968-1970 के मध्य डेकन कॉलेज, पूना विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग तथा राजस्थान के पुरातत्व एक संग्रहालय विभाग के संयुक्त तत्वावधान में वी.एन.मिश्रा के निर्देशन में इस पुरास्थल का उत्खनन किया गया | पाँच स्तरों बाले 1.50 मीटर से 1.75 मीटर मोटे जमाव को प्रारम्भ में तीन सांस्कृतिक कालों में विभाजित किया गया था । बागोर में दो सांस्कृतिक कालों (1) मध्य पाषाणकाल और (2) लौह पाषाणकाल के पुरावशेष मिले हैं । दोनो के मध्य एक लम्बे समय का अन्तराल रहा होगा । प्रथम सांस्कृतिक काल को पुन: दो उपकालों में विभाजित किया गया हैं । प्रथम उपकाल – बागोर के प्रथम उपकाल का जमाव 50 सेमी से 80 सेमी के बीच मिला है । इस उपकाल के स्तरों से बहुसंख्यक लघु पाषाण उपकरण तथा पशुओं की हड्डियां मिली हैं | लघुपाषाण उपकरणों के निर्माण के लिये क्वार्टजाईट एवं चर्ट का मुख्य रूप से उपयोग किया गया हैं । अधिकांश उपकरण ब्लेड पर बने हुए हैं । विषम बहु समलम्बचतुर्भुज, चन्द्रिक बाणान तथा स्करेपर आदि उल्लेखनीय हैं । क्रोड तथा फलक पर बने हुए स्कोपर तथा ब्यूरिन अत्यल्प हैं । इस प्रकार बागोर के प्रथम उपकाल के मध्यपाषाणिक उपकरणों को मृदभाण्ड, पूर्व के ज्यामितिय चरण से सम्बन्धित किया जा सकता हैं । पत्थर के हथौड़े सील लोढ़े आदि यही से प्राप्त अन्य पाषाणिक पुरावशेष हैं । बागोर के प्रथम उपकाल से चीतल, सांभर, चिंकारा आदि हिरण, खरगोश, लोमड़ी, भेड़, बकरी, सूअर, गाय, बैल तथा भैंस आदि पशुओं की हड्डियाँ मिली हैं । इनमें जंगली तथा पालतू दोनो ही प्रकार के पशुओं की हड्डियां प्राप्त हुई हैं । इस प्रकार प्रथम उपकाल के लोगों का आर्थिक जीवन जंगली पशुओं के शिकार तथा पशुपालन पर आधारित रहा प्रतीत होता हैं । लोग रहने के लिए झोंपड़ियां बनाते थे उनके फर्श का निर्माण पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ो से किया जाता था । झोंपड़ियां बांस बल्ली तथा घास-फूस से बनाई जाती थी । इस उपकाल से एक मानव कंकाल प्राप्त हुआ है । जिसे पश्चिम से पूर्व दिशा में सिर, करके चित लैटाकर आवास क्षेत्र के अन्दर ही दफनाया गया था । यह कंकाल लगभग 17 से 19 वर्ष की महिला का हैं। द्वितीय उपकाल – इस उपकाल का सांस्कृतिक जमाव 30 से 59 सेमी के बीच मे मिला है । यद्यपि लघु पाषाण उपकरण इस उपकाल गे भी चलते रहे किन्तु उनकी संख्या में उलरोलर कमी दृष्टिगोचर होती है । पशुओं की जो हड्डियाँ मिली उनमें से कुछ जंगली पशुओं की और कुछ पालतू पशुओं की,जिनमें भेड़, बकरी, गाय तथा बैल प्रमुख थे | लोगो का जीवन आखेट एवं पशु पालन पर आधारित था, इस उपकाल में उत्कीर्ण अलंकरण से युक्त हस्त निर्मित मृदभाण्ड तथा ताम्र उपकरण प्रचलित हो गये थे । द्वितीय उपकाल मे बागोर के लोग सम्भवत: मेवाड तथा मालवा की ताम्र पाषाणिक संस्कृतियों के सम्पर्क में आए | ताम्र उपकरणों में एक भाला तथा तीन बाणान उल्लेखनीय हैं ।

इस काल के लोग भी घास-फूस की झोपड़ी बनाते थे । जिनके फर्श पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़ों से निर्मित होते थे पर इस काल में तीन मानव के कंकाल मिले है, जिन्हे पूर्व-पश्चिम दिशा में मुड़ी हुई अवस्था में लेटा कर आवास क्षेत्र के अन्दर ही दफनाया गया था । द्वितीय सांस्कृतिक काल में आवास क्षेत्र बागोर के मध्यवर्ती भाग तक ही सीमित था । इस काल का जमाव 35 से 75 सेमी. के बीच मिला है । इस काल से लघु पाषाण उपकरण तथा पशुओं की हड्डियाँ बहुत कम संख्या में मिलती हैं । इस काल के वर्तन पूर्णत: चाक निर्मित हैं । लौह उपकरण, कांच के मनके, ईंटों से बनी हुई इमारतें इस काल की अन्य प्रमुख विशेषताएं हैं । इस काल से एक मानव कंकाल मिला हैं । यह कंकाल 40-42 वर्ष की आयु की किसी महिला का हैं | कंकाल के गले में चिपका हुआ एक धातु का मुस्लिम काल का सिक्का हैं ।

बागोर के प्रथम काल के दोनो उपकालों की तिथि निर्धारण के लिए रेडियो कार्बन तिथियां उपलब्ध हैं | पांच में से 3 तिथियां प्रथम उपकाल तथा 2 तिथियां द्वितीय उपकाल से सम्बन्धित हैं । ये सभी तिथियां हड्डियों के नमूनों पर आधारित हैं | प्रथम उपकाल 5000 ई.पू. से 2800 ई.पू के बीच से तथा द्वितीय उपकाल का समय 2800 ई.पू से 700 ई.पू के बीच निर्धारित किया हैं ।

मध्यपाषाणकालीन संस्कृति के प्रचार-प्रसार के बाद भारत में अन्य स्थानों की तरह राजस्थान में नवपाषाणकाल के कोई प्रमाण नही मिले हैं । राजस्थान मे तत्कालीन मानव में सीधे ही मध्यपाषाणकाल से ताम्रपाषाणकाल मे पर्दापण किया ।