वैदिक युग में राजनीतिक सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक जीवन – वैदिक साहित्य भारतीयों की अमूल्य धरोहर है | उसमें आर्यों की सभ्यता का वर्णन है | हमारे समक्ष यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस साहित्य के अंतर्गत वर्णित विचार कौन-कौन से है ? यह सर्व विदित है कि भारतीय सभ्यता व संस्कृति का स्रोत वेदों को ही माना गया है । इस काल में प्रचलित हुई वर्णव्यवस्था व वर्णाश्रम धर्म भारतीय समाज के मेरुदण्ड माने जाते है । इस अध्ययन से ही पता चलता है कि किस प्रकार वैदिक सभ्यता सैंधव सभ्यता से पृथक् थी।

वैदिक साहित्य

भारतीय सभ्यता व संस्कृति का स्रोत वैदिक सभ्यता को माना जाता है । वैदिक साहित्य बहुत विशाल है इसमें आर्यों के जीवन के संपूर्ण पक्षों का चित्रण है । वैदिक इतिहास के साहित्यिक स्रोत ही हमारे पास उपलब्ध है | जैसाकि सर्वविदित है कि चार प्रमुख वेद माने गये है ऋग, सोम, यजुर, अथर्व । इनमें संहिताऐ अर्थात् मंत्र खंड ही नहीं अपितु गद्य एवं दार्शनिक खंड अर्थात् विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक एवं उपनिषद् वर्गीकृत किये गये हैं । इनमें आर्यों की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति स्पष्ट हो जाती है । इसके अलावा वैदिक आर्यों का दार्शनिक दृष्टिकोण भी स्पष्ट हो जाता है |

वैदिक साहित्य की रचना का श्रेय आर्यों को दिया जाता है | आर्य शब्द का अर्थ एक जाति के रूप में लिया जाता है | किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से आर्य नामक ऐसी जाति की निश्चित पहचान नहीं हो सकी है । वेदों की रचना किसी एक युग विशेष में अथवा किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा नहीं की गयी । विभिन्न युगों में अलग-अलग ऋषि मुनियों ने जो मंत्रादि, स्तुतियां, प्रार्थनाएं आदि बनाये उन्हीं को बाद में संकलित किया गया । इस प्रक्रिया मे हजारों वर्ष लगे हैं | विद्वान यह मानते है कि संपूर्ण वैदिक साहित्य की रचना ईसा से पूर्व 2500 वर्ष से लेकर ईसा पूर्व 200 वर्ष तक के युग में हुई । इसी दीर्घ युग को वैदिक काल कहा गया है | सुविधा की दृष्टि से इस विपुल साहित्य को दो भागों में बांटा जा सकता है: पूर्व वैदिक काल एवं उत्तरवैदिक काल । ऋक् संहिता रचनाकाल को पूर्व वैदिक काल तथा शेष अन्य संहिताओं एवं ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों के रचनाकाल को उत्तरवैदिक काल माना जाता है । ऋग्वेद की रचना ई.पू. 1500 से 1000 तक हुई होगी तथा उतार वैदिक काल ईसा पूर्व लगभग 1000 से 500 तक रहा होगा । इस काल के निर्धारण में एक पुरातात्विक साक्ष्य भी ध्यान में रखा गया है | वह है लोहे का प्रयोग | भारत में लोहे का प्रयोग ई.पू. 1000 से आरंभ माना जाता है । ऋगवेद में लोहे के प्रयोग का उल्लेख नहीं है जबकि उत्तर वैदिक काल में इसका प्रयोग किया जाता था | वैदिक कालीन जीवन की झांकी के लिए हमें पूरी तरह साहित्यिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। वेदों से मेल खाने वाली संस्कृतियों में काले एवं लाल मृदभांड (Black and red ware) चित्रित घूसर मृद्भाण्ड (Painted Hrey ware) की संस्कृतियां आती हैं । लेकिन वैदिक सभ्यता का तादात्म्य पूरी तरह इनसे स्थापित नहीं किया जा सकता है। इनके आधार पर वेदों में वर्णित सभ्यता ग्रामीण प्रतीत होती है । फिर हमारा पुरातात्विक ज्ञान अभी अत्यंत सीमित है।

आर्यों का निवास स्थान

अब प्रश्न उठता है कि आर्यों का मूल निवास स्थान कहां था ? ऋग्वेद में आर्य निवास स्थल के लिए स्वेत्र “सप्तसैधव” का प्रयोग किया गया है । वर्तमान में पंजाब के क्षेत्र से ऋगवेद में वर्णित सप्तसैधव का तादात्मय स्थापित किया जाता है । ऋग्वैदिक काल में पूर्वी अफगानिसतान से लेकर गंगा की घाटी के उत्तरी भाग तक के प्रदेश में आर्यों का आधिपत्य स्थापित हो चुका था | गंगा को ऋग्वैदिक कालीन आर्यों के निवास स्थल की पूर्वी सीमा माना जा सकता है ।

उत्तरवैदिक काल में आर्यों की भौगोलिक सीमा का विस्तार पूर्वी प्रदेशों में होने लगा । सप्त सैंधव प्रदेश से पूर्व की ओर बढ़ते हुए आर्यों ने लगभग संपूर्ण गंगा घाटी पर अपना प्रभुत्व जमा लिया । इसी प्रक्रिया के दौरान कुरू-पंचाल प्रदेशों ने अत्यधिक महत्ता प्राप्त कर लीं इसके अतिरिक्त विदेह, कोसल, काशी, मगध तथा अंग देशों का उल्लेख भी ब्राह्मण ग्रंथों में होने लगा | आर्यों ने हिमालय व विन्ध्याचल के मध्य के समस्त क्षेत्र पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार आर्यों का क्षेत्र उत्तर में फैला था ।

वैदिक सभ्यता

अब प्रश्न उठता है कि वेदों में कैसा भारत प्रतिबिम्बित हुआ ? वैदिक कालीन लोगों के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन तथा उनकी दार्शनिक अवधारणाओं को जानने के लिए हम इस युग को पुन: उसी प्रकार दो भागों में बाटेंगे |

1. ऋग्वैदिक काल 2. उत्तरवैदिक काल | यहां हम यह देखेंगे कि विवेच्य काल में विभिन्न क्षेत्रों में क्या-क्या परिवर्तन हुए।

ऋग्वैदिक काल

ऋग्वेद व कुछ पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्य स्थायी जीवन व्यतीत नहीं कर रहे थ। उनका संगठन कबायली आधार पर था । ऋग्वैदिक जनजीवन में युद्धों आक्रमणों एवं जनसंहार का बोल-बाला था । जातियों के आंतरिक एवं अंतर्जातीय युद्धों के अनेक उदाहरण इस संहिता में बिखरे पड़े हैं । देशराज्ञ युद्ध इसका उदाहरण हैं इस युद्ध में तीस से भी अधिक राजाओं ने भाग लिया था । इनमें सुदास का नाम उल्लेखनीय है | आर्य अनेक वर्गो में विभक्त थे जिन्हें “जन” कहा गया है । ऋग्वेद में पंचजनों का उल्लेख है- पुरू, तुर्वस, युद्, अनु तथा द्रहयु ।

राजनीतिक व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकी थी | ऋग्वैदिक आर्यों की राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था का आधार पितृ सत्तात्मक परिवार था । कुलों या परिवारों के समूहों से ग्राम बने । ग्राम का शासन “ग्रामीण” के अधीन होता था । अनेक ग्रामों के समुदाय को “विश” कहते थे जो “विशपति” की अध्यक्षता में रहता था । अनेक “विशों” के समूह को “जन” कहते थे । “जन” के प्रधान को “राजा’ कहा जाता था । देश के लिए “राष्ट्र” शब्द का प्रयोग किया जाता था । ऋग्वैदिक शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी । राजपद वंशानुगत होता था लेकिन कभी-कभी राजा का निर्वाचन भी किया जा सकता था । राजा के लिए प्रजा का अनुमोदन व स्वीकृति आवश्यक थी | निरंकुश राजा को जनता पदचयुत भी कर सकती थी । राजा के हाथ में सर्वोच्च सजा रहती थी । वह प्रमुख सेनानायक के साथ-साथ न्यायाधीश भी था। राजा के अलावा अन्य प्रशासनिक अधिकारी थे, “सेनानी” “पुरोहित” व “ग्रामीण” | इन सभी की नियुक्ति राजा द्वारा ही होती थी । राजा पर अंकुश लगाने के लिए दो समितियां होती थी- सभा व समिति । इनके वास्तविक स्वरूप को लेकर विद्वानों में मतभेद है । सभा को ग्राम सभा माना जा सकता है । समिति केन्द्रीय राजनीतिक संस्था थी, राज्य प्रशासन की बागडोर इसके हाथ में रहती थी । संभव है कि सभा धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कार्य समान रूप से संचालित करती हो । हो सकता है इन संस्थाओं में कबीले की विभिन्न समस्याओं पर विचार विमर्ष किया जाता है ।

सामाजिक जीवन

ऋग्वैदिक काल में परिवार का स्वरूप पितृसतात्मक था | गृहपति ही परिवार के धन व जन की सुरक्षा करता था, जीवन संचालन एवं यज्ञादि करता था | ऋग्वैदिक कालीन समाज में दो वर्ण दिखायी देते हैं, आर्य व दस्यु । प्रथम गौर वर्ण के थे व दूसरे श्याम वर्ण के | आर्य और दस्यु में से पाश्चात्य इतिहासकारों ने दस्यु को भारत का मूल निवासी माना है दोनों वर्गों में धार्मिक और सांस्कृतिक असमानताएं थी । धीरे-धीरे विभिन्न कार्यों के संपादन हेतु चार वर्गो का प्रादुर्भाव हुआ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का प्रादुर्भाव ऋगवैदिक काल के अंतिम चरण में हुआ | ऋग्वैदिक समाज में स्त्री को भी पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे । बौद्धिक, आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में स्त्रियों को प्रतिष्ठा प्राप्त थी । स्त्रियां गृह कार्यों के अतिरिक्त ललितकलाओं में प्रवीण होती थी | पर्दा प्रथा, सती प्रथा बाल विवाह का अभाव था | ऋग्वैदिक समाज में वयस्क होने पर ही विवाह होते थे । आर्यों की वेशभूषा साधारण थी । उनकी पोशाक के तीन वस्त्र थे- अधोवस्त्र, वास व अधिवास | वस्त्र सूत, मृगचर्म तथा ऊन के बनते थे । स्त्री-पुरुष दोनों ही समान रूप से आभूषण प्रेमी थे । आर्यों की भोजन सामग्री अत्यंत सादा थी । गेहूं जो चावल, उड़द, दूध का वे प्रयोग करते थे आर्य मांसाहारी थे व वे सुरा का प्रयोग भी करते थे । आर्यों के मनोविनोद के साधन द्यूतकीड़ा, युद्ध नृत्य, घुड-दौड, रथ-दौड़, आखेट मल्ल-युद्ध आदि थे । आर्यों का नैतिक जीवन बड़ा उच्च था |

आर्थिक जीवन

ऋग्वैदिक आर्य अधिकतर ग्रामों में बसे हुए थे । आर्यों का प्रमुख धन्धा कृषि एवं पशुपालन था । इनके जीवन में गायों का प्रमुख स्थान था । गविष्टि “अर्थात” गायों की गवेषणा” ही युद्ध का पर्याय माना जाता था । गायों के अतिरिक्त बकरियां, भेड़ें भी पाले जाते थे । ऋग्वैदिक लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते थे और इस प्रक्रिया में वे अपनी पशु संपदा भी साथ लेकर अवश्य चलते होंगे । आर्य कृषि की लगभग सभी क्रियाविधियों से परिचित थे । ये चावल, जौ, गेहूं की खेती करते थे । ऋग्वैदिक आर्या विभिन्न उद्योग धंधों से भी परिचित थे । बुनाई रंगसाजी, कसीदा, कताई, कढ़ाई आदि के कार्य प्राय: नारियां करती थीं । बढ़ई सुनार, धातुकार, चर्मकार, कुंभ कार आदि भी अपने व्यवसायों के लिए प्रसिद्ध थे । चिकित्सक का व्यावसाय भी लोकप्रिय था । व्यवसाय के आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव कहीं दिखाई नहीं देता है । कुछ व्यवसायिक संघों जैसे “गण” या ” ब्रात्य” का उल्लेख भी मिलता है । ऋग्वैदिक आर्य देशी तथा अन्तर्देशीय दोनों प्रकार का व्यापार करते थे । व्यापार की प्रमुख वस्तुऐं: कपड़ा, खालें व चादरे थी | व्यापार स्थल मार्ग व जल मार्ग दोनों से होता था । क्रय-विक्रय के लिए वस्तु विनिमय का प्रचलन था ।

धार्मिक जीवन

ऋग्वैदिक कालीन धार्मिक मान्यताओं पर भौतिक जीवन का प्रभाव था । ऋग्वैदिक धर्म अत्यंत विकसित था । आर्यों ने प्रकृति की शक्तियों का दैवीकरण किया था । वे सूर्य, चन्द्र, आकाश ऊषा, मेघ, ध्वनि, वायु आदि की उपासना करते थे। जहां कहीं भी आर्यों को किसी जीवित शक्ति का आभास मिलता वे उसे ही देवता मानते थे । आर्यों के देवी देवताओं की तीन श्रेणियां दिखाई देती हैं:- स्वर्गस्थ, अनतरिक्षवासी और पृथ्वीवासी | प्रथम वर्ग में यौस, अश्विन, सूर्य, वरूण, सविता, मित्र तन, विष्णु, अदिति, ऊषा आदि थे । द्वितीय वर्ग में इन्द्र, वायु, मरूत, पर्जन्य, रूद्र आदि थे एवं तृतीय वर्ग में पृथ्वी, सोम, अग्नि, बृहस्पति, सरस्वती आदि थे | ऋग्वेद की ऋत की अवधारणा उस समय के आर्यों की सैद्धांतिक मान्यताओं को स्पष्ट करती है | ऋत की व्याख्या “सृष्टि की नियमितता” भौतिक एवं नैतिक व्यवस्था, अंतरिक्षयी एवं नैतिक व्यवस्था आदि रूपों में की गयी है । उत्तरवैदिक काल के साहित्य में ऋत की अवधारणा का लोप दिखाई देता है । यद्यपि ऋग्वैदिक धर्म बहुदेववादी था लेकिन परवर्ती काल में एकेश्वरवाद की अवधारण दिखायी देती है | आर्यों ने प्रकृति के रहस्यों को समझने का प्रयास किया था । ऋग्वैदिक आर्यों का धर्म प्रगतिशील माना जा सकता है । वे प्रकृति के सृजनकर्ता ईश्वर की ओर बढ़ रहे थे ।

उत्तर वैदिक काल

काल यह वह काल था जब लगभग संपूर्ण उत्तरी भारत में जीवन के सभी पक्षों में एक निश्चित दिशा की ओर परिवर्तन हो रहे थे । इस काल में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्रों में एक ऐसे ढाँचे का आविर्भाव हुआ जो छोटेमोटे परिवर्तनों के साथ काल चक्र के साथ सदैव चलता रहा । इस काल ढांचे की प्रमुख विशेषताएं थी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था, कबायली संरचना में विघटन होना और वर्ण व्यवस्था का जन्म तथा क्षेत्रगत साम्राज्यों का उदय |

आर्यों का विस्तार

ऋग्वैदिक काल में आर्य आधुनिक अफगानिस्तान के क्षेत्र से लेकर गंगा की ऊपरी घाटी के क्षेत्र में बस गये थे और यहां इन्होंने अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिये थे । आर्यों की जनसंख्या में वृद्धि हो रही थी और वे पंजाब से दक्षिण पूर्व की ओर बढ़ने लगे थे । विंध्य के सघन दुर्गम वनों को काटते हुए वे दक्षिण की ओर बढ़ने लगे । इस समय उत्तरी भारत में लोहे का प्रयोग प्रारंभ हुआ | लोहे का प्रयोग युद्धास्त्रों व कृषि सम्बन्धी कार्यों में होने लगा था । इतिहासकार डी.डी कौशाम्बी ने लोहे के इस क्रांतिकारी उपयोग पर बल दिया है और आर्यों के विस्तार का एक मुख्य कारण माना है ।

राजनीतिक जीवन

ऋग्वैदिक कालीन छोटे कबीले अब एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे । उदाहरणार्थ- पुरू एवं भरत मिलकर कुरू और तुर्वश एवं किवि मिल कर पंचाल कहलाए । बड़े-बड़े जनपदों के निर्माण में लौह तकनीक ने भी सहयोग दिया । हस्तिनापुर, आलमगीर पुर, नोह, अतरंतीखेड़ा आदि (प्राचीन कुरू पंचाल प्रदेश) स्थानों से लोहे की वस्तुएं प्राप्त हुई हैं । कुरू पंचाल के राजाओं ने अश्वमेघयज्ञ संपन्न कराये । स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न राष्ट्रों ने अपनी-अपनी सैन्य शक्ति का विकास कर लिया था । इस समय राज्य के दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत का विकास हो चुका था । यद्यपि राजतंत्र ही महत्वपूर्ण शासन प्रणाली थी तथापि कुछ स्थलों पर “वैराज्य” नामक राज्यों का उल्लेख आया है । एक से राज्यों में राजा नहीं होता था । राजपद सर्वाधिक योग्य व्यक्ति को ही मिलता था । राजा के निर्वाचन में लोकहित की भावना दिखाई देती है । उत्तरवैदिक युग में राजा प्रजा से सहयोग व अनुमोदन प्राप्त करता था । इस समय राजसत्ता में वृद्धि हो चुकी थी । सफल और कुशल राजा एक राष्ट्र, विराट, अधिराज, सार्वभौम आदि प्रतिष्ठित पदों को प्राप्त करने का दावा करते थे । वे वाजपेय राजसूय,अश्वमेघ यज्ञों द्वारा अपनी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई शक्ति का परिचय देने लगे थे | ये शब्द साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के द्योतक है । राजा की शक्ति पर धर्म, रत्नियों, मंत्रियों पुरोहित, सभाव समिति आदि का नियंत्रण रहता था । ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरवैदिक यूग में शासन अपेक्षाकृत अधिक प्रजातंत्रवादी था | डॉ. अल्तेकर का मत है कि उत्तर वैदिक युग में “सभा” ग्राम संस्था की अपेक्षा राजनीतिक संस्था थी । समिति राज्य की केन्द्रीय संस्था प्रतीत होती हैं संभव है कानून व नीतियों का निर्धारण समिति करती हो | इस काल में समिति में राजनीतिक विषयों के अतिरिक्त धार्मिक और दार्शनिक विषयों पर बाद विवाद होते थे । इस समय शासन के पदाधिकारियों की वृद्धि हो चुकी थी । इन्हें रत्नी भी कहा गया है । इनमें संग्रहोत्री (कोशाध्यक्ष), भागदूध, (कर एकत्र करने वाला) सूत (राज्य का वृतांत रखने वाला) क्षत्री (राजपरिवार का निरीक्षक), आक्षावाप (सूत का प्रबनधक व हिसाब रखने वाला), गोविकर्तन (वन निरीक्षक) पालागल (सन्देशवाहक) तथा तीन प्राचीनतम अधिकारी (सेनानी, पुरोहित व ग्रामीण) प्रमुख थे । प्रजा की ओर से राजा को नियमित कर मिलता था जिसे “बलि” कहा गया है । राजकर अन्न व पशुओं के रूप में दिया जाता था । न्याय का अंतिम निर्णयकर्ता राजा होता था । जाति व कबीलों की सभा भी न्यायकार्य करती थी ।

सामाजिक जीवन

उत्तर वैदिक काल में आयी का सामाजिक जीवन स्थिर हो गया था इस समय सामाजिक ढांचे में बहुत से परिवर्तन हुए उत्तरवैदिक युग में नगरों में वृद्धि हो चुकी थी, यद्यपि अभी भी आर्य गांवो में निवास करते थे वणाश्रम धर्म की अवधारणा का प्रचलन हो चुका था | जीवन को चार कालों में विभाजित किया गया है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास । प्रत्येक काल को पच्चीस वर्ष का माना गया है | बह्मचर्याश्रम में अविवाहित रहकर शिक्षा ग्रहण की जाती थी । गृहस्थाश्रम में धनोपार्जन, सन्तानोत्पत्ति और सन्तान का पालन पोशण होता था । वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम में व्यक्ति लोक कल्याण में रत रहते थे | यह माना जाता था कि “ब्रह्मचर्य” का सम्बन्ध धर्म से, गृहस्थ का सम्बन्ध अर्थ तथा काम से और वानप्रस्थ व सन्यास का सम्बन्ध मोक्ष से था । विश्व की अन्य किसी सभ्यता में मानव जीवन का ऐसा परिष्कृत विभाजन नहीं मिलता है । समाज का स्पष्ट विभाजन वर्ण व्यवस्था के आधार पर हो चुका था । ब्राह्मण व क्षत्रिय उच्च वर्ग में व वैश्व व शूद्र निम्न वर्ण के माने गये ।

प्रथम दो वर्ण विशेषाधिकार सम्पन्न थे, लेकिन उत्तरवैदिक काल में इनके सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गए थे | उत्तरवैदिक साहित्य में ब्रह्म एवं क्षेत्र के द्वन्द्व का उल्लेख मिलता है | वैश्यों का स्थान शूद्रों से उच्च रहता था | इन चार वर्णों के अलावा अन्य वर्ग भी थे | वैदिक साहित्य में आंध्र, पुण्ड्र, शबर, ब्रात्य, निशाद आदि लोगों का उल्लेख मिलता है | उत्तरवैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था कठोर नहीं थी । अव्यवसाय भी परिवर्तित हो सकता था । उन्तर्जातीय विवाहों के भी उल्लेख मिलते है । ऊंचे वर्ण के पुरूष नीचे वर्ण की स्त्री के साथ विवाह कर सकते थे । उत्तरवैदिक काल में विधवा विवाह का प्रचलन था । लेकिन सगोत्रीय विवाह की प्रथा प्रचलित नहीं थी स्त्रियां शिक्षित थीं, यावलक्य, गार्गी संवाद से इस स्थिति का आभास होता है | सामान्यतया एक पति या एक पत्नी की प्रथा का प्रचलन था । उच्च वर्गो में बहु विवाह का भी प्रचलन था । उत्तरवैदिक काल में आर्यों के भोजन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए परे अब मांस भक्षण और सुरापान को अनुचित समझा जाने लगा था | भोजन की वस्तुओं में विविधता अवश्य आ गयी थी । इस समय शिक्षा का विशेष प्रसार हो चुका था । आर्यो ने चिकित्सा विज्ञान और ज्योतिष शास्त्र में विशेष ज्ञान प्राप्त कर लिया था । धातु-विज्ञान का भी ज्ञान आर्यों को था | आर्यों को सोना, चांदी, लोहा, तांबा, सीसा टीन आदि के उपयोग का ज्ञान था |

आर्थिक जीवन

उत्तरवैदिक काल में आर्थिक जीवन में परिवर्तन आर्यों के स्थायित्व में दिखायी देता है । इस समय कृषि का अधिकाधिक प्रसार हो चुका था । कृषि ही लोगों का प्रमुख धंधा था जो पैमाने पर होती थी । हल इतने विशाल होते थे कि उनमें 4 से लेकर 24 बैल तक जोत दिये जाते थे । कृषि के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के शिल्पों का उदय भी उत्तरवैदिक कालीन अर्थव्यवस्था की अन्य विशेषता थी । धातु शोधक, रथकार, बढई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्हार, व्यापारी आदि उल्लेखनीय है। व्यवसायों के आधार पर व्यापारियों के संघों का निर्माण हो चुका था । “श्रेष्ठी”, “गण,” “गणपति” आदि शब्दों के प्रयोग से बोध होता है कि समान व्यवसाय के करने वाले किसी एक संघ में संगठित होते थे । व्यापारी नावों व जहाजों का प्रयोग करते थे और विदेश यात्रा से परिचित थे यद्यपि व्यापार में आधुनिक ढंग के सिक्कों का अभी प्रचलन नहीं हुआ था फिर भी निष्क, षतमान, कृष्णल आदि कई प्रकार की मुद्राएं प्रचलित थीं जिनके प्रयोग से व्यापार सुगम था ।

धार्मिक जीवन

उत्तरवैदिक कालीन धार्मिक जीवन में भी परिवर्तन दिखाई देता है । नवीन धार्मिक विचार धाराओं क्रिया विधियों और परम्पराओं का प्रादुर्भाव हुआ । इस समय ऋग्वैदिक युग के देवी-देवताओं का गौरव क्रमश: कम होता जा रहा था । प्रजापति का महत्व सभी देवताओं की अपेक्षा अधिक हो गया था । अब रूद्र और विष्णु का महत्व बढ़ गया था, इन्द्र और वरूण का महत्व कम हो गया था । इस समय यज्ञों का रूप सरल न होकर जटिल हो गया था व वे अधिक खर्चीले भी हो गये थे । धार्मिक कर्मकाण्डों (जादू-टोने, वषीकरण इन्द्रजाल) का महत्व बढ़ गया था | पुरोहितों व ब्राह्मणों के महत्व में वृद्धि हो चुकी थी । इस समय नवीन दार्शनिक विचारो का प्रादुर्भाव हुआ व शड्दर्शन (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा) का विकास हुआ । इन विचारधाराओं का प्रतिपादन उपनिषदों में किया गया है । उत्तरवैदिक काल में अध्यात्म बाद के प्रमुख सिद्धांत जैसे ब्रह्म, कर्म पुनर्जन्म, मोक्ष आदि का विकास हुआ । ब्रह्म को एक माना गया है। आत्मा उसका ही एक अंश है । व्यक्ति के कर्मों से ही उसे पुनर्जन्म धारण करना पड़ता है | कर्मों के प्रभाव से मुक्ति होने पर पुनर्जन्म नहीं होगा | आत्मा का ब्रह्म से एकाकार होना ही मोक्ष की स्थिति मानी गयी है | उत्तरवैदिक काल में तप और सन्यास पर जोर दिया गया है । तप करने वाला वह व्यक्ति होता था जो सांसारिक जीवन को त्याग करके वन की निर्जनता में जीवन की आध्यात्मिक समस्याओं पर निष्ठा और एकाग्रता से मनन और चिंतन करता है । इस प्रकार वैदिक युग में दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं चली-प्रथम में जटिल कर्मकाण्डों पर जोर दिया गया हैं व दूसरी में तप, ज्ञान, ब्रह्म, आत्मा की विशद व्याख्या पर जोर दिया गया है । सूत्र ग्रंथों, ज्योतिष, व्याकरण की रचना हुई । पुरातात्विक साक्ष्यों से भी आर्यों के धार्मिक जीवन की पुष्टि होती है । अतरंजीखेड़ा, कौशाम्बी, श्रावस्ती की खुदाई से कुछ ऐसे संकेत मिले हैं, जिनसे आयी के कर्मकांडीय व्यवहार का पता चलता है ।

सैंधव सभ्यता व वैदिक सभ्यता-तुलनात्मक अध्ययन

आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में सिन्धु घाटी, पंजाब, सौराष्ट्र, गुजरात एवं राजस्थान के क्षेत्रों में समृद्ध और विकसित सभ्यता प्रसारित थी । इन दोनो सभ्यताओं की तुलता हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते है ।

सामाजिक जीवन

____ आर्यों का जीवन सरल व सादा था | वे ग्रामों में निवास करते थे जबकि सैंधव निवासी नगरों में निवास करते थे दोनों ही सभ्यता के निवासी सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्रों का प्रयोग करते थे और अलंकार प्रेमी थे । आर्यों के सामाजिक जीवन में गाय का बड़ा महत्व था जबकि सैंधव सभ्यता में बैल का प्रमुख स्थान माना गया है ।

आर्थिक जीवन

आर्यों का जीवन ग्रामीण अर्थ व्यवस्था पर आधारित था जबकि सैंधव सभ्यता में आर्थिक जीवन समृद्ध और उन्नत था। वे विभिन्न प्रकार के व्यवसाय करते थे । आर्य लोग विभिन्न धातुओं का उपयोग करते थे । वे सोना, चांदी, तांबे, कांसे व लोहे के प्रयोग से परिचित थे । दैनिक जीवन के मिट्टी के पात्र भी बनाते थे । लेकिन सैंधव निवासी धातु-काल में अत्यंत दक्ष थे | लोहे के उपयोग से वे अपरिचित थे । मिट्टी के खिलौने, बर्तन, बनाने व उन पर चमकीली पालिश करने में वे अत्यंत दक्ष थे । सिंधु निवासी घोड़े के ज्ञान से परिचित नहीं थे, जबकि आर्यो को घोड़ो का ज्ञान था ।

धार्मिक जीवन

आर्यों प्रकृति की विभिन्न शक्तियों की उपासना करते थे । सैंधव जन शिव शक्ति को प्रधान मानते थे | आर्यों के जीवन मे अग्नि, यज्ञ, हवन कुण्ड का विशेष महत्व था | वे विविध प्रकार के यज्ञ करते थे तथा अग्नि को पवित्र मानते थे इसके विपरीत सैंधव सभ्यता में अग्नि, हवन, यज्ञ का कोई महत्व नहीं था |

राजनीतिक जीवन

आर्यों में राजतंत्र का प्रचलन था । राजा में प्रजा वत्सलता और जन कल्याण के उच्च आदर्श थे । सैंधव सभ्यता में राज्य सत्ता जन प्रतिनिधियों के हाथों में निहित थी । प्रशासन में विकेन्द्रीकरण और शासन व्यवस्था लोकतन्त्रात्मक थी । सैंधव सभ्यता में राजनीतिक उत्तेजना, विपलव और क्रांति की भावना नहीं थी । उनका राजनीतिक जीवन सुखी और शांतिपूर्ण था आर्यो में युद्धप्रियता थी | उनके हथियार पैने होते थे जबकि सैंधव सभ्यता मे अस्त्र-शस्त्र सादे होते थे ।

ये लोग युद्धप्रिय नहीं थे अपितु शांतिप्रिय थे ।

बहुत से इतिहासकार सैंधव सभ्यता और वैदिक सभ्यता को एक ही मानते है । लेकिन अभी इस बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । लेकिन यह स्पष्ट है कि सैंधव सभ्यता आर्यो की वैदिक सभ्यता से अधिक प्राचीन है ।