राजस्थान, भारत के अन्य प्रदेशों की भांति कृषि प्रधान प्राप्त है, जिसमें कृषकों का सीधा सम्बन्ध राज्य से या जागीरदार से रहा है । परम्परा के अनुसार कृषकों और राज्य या जागीरदार के सम्बन्ध मधुर थे । वे अपनी उपज का कुछ भाग अपने स्वामी को उपहार के रूप में देते थे और आवश्यकता पड़ने पर अपनी सेवाएं संघर्ष समर्पित करने में अपना गौरव समझते थे । राज्य या जागीरदार उन्हे अपना वात्सल्य प्रेम देकर प्रसन्न रखते थे और युद्ध के अवसर पर उनकी हर प्रकार की सुरक्षा की अवस्था कर उनकी सहायता करते थे ।

उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ से राज्यों का ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सम्बन्ध स्थापित हो जाने के पश्चात स्थिति में एक नयापीरवर्तन आया । इधर राजा-महाराजा तो अंग्रेजों की छत्रछाया में मौज शौक का जीवन बिताने लगे और उधर उनके सामन्त या जागीरदार भी अपने स्वामियों का अनुसरण करने में पीछे न रहे । जब अंग्रेजों को एक निश्चित खिराज राज्यों से प्राप्त होने लगा तो राज्यों ने भी अपने जागीरदारों से सेवा के बदले एक निश्चित कर लेना आरम्भ कर दिया । जागीरदार राज्यों को अपनी निश्चित कर देने के बाद पूर्णत: निश्चित हो गये और बे अपनी जागीर में स्वच्छन्द हो गये | शनै: शनै: ये मच्छन्दता निरंकुशता में परिणित होती गई । क्रमश: यही से कृषकों का शोषण आरम्भ हो गया।

ज्यों-ज्यों जागीरदारों के खर्च और निरंकुशता बढ़ती गई त्यों-त्यों कृषकों पर आर्थिक मार बढ़ता गया । लगान के अतिरिक्त कई लागतें ली जाने लगी जिनकी संख्या 100 से अधिक तक जा पहुंची । यदि -जागीरदार के यहां विवाह, जन्म-मृत्यु, त्यौहार आदि का अवसर आता तो किसानों को विशेष लागतों की अदायगी करनी पड़ती थी । ठिकानेदार या कामदार लोग-बागों अमानवीय ढंग से वसूल करते थे । फसल की बुवाई हो या कटाई, शादी हो या मरण, दुष्काल हो या महामारी, ठिकाना बिना विवेक के कर वसूली करता था । इसके अतिरिक्त बेगार प्रथा से किसान इतना ग्रसित था कि उसके न करने पर उसे कठोर यातनाएं भोगनी पडती थी । न्याय प्राप्त करने की किसान कल्पना भी नही कर सकता था ।

14.2 राजस्थान में कृषक असन्तोष के कारण

प्राचीन काल से मध्य काल तक शासक तथा सामन्तों या जागीरदार के बीच सम्बन्ध मधुर थे । इसी प्रकार समिन्त, जागीरदार तथा उनकी रैरयत के मध्य भी सम्बन्धों में सदभावना तथा सहयोग देखने को मिलता हैं रैयत अपनी आर्थिक स्थिति तथा इच्छानुसार उदार होता था । खालसा तथा जागीर दोनों ही क्षेत्रों के किसान अपने स्वामी को सम्मान देते थे । इधर शासक तथा सामन्त भी अपने किसानों को सन्तुष्ट रखने के लिए प्रयास में रहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि राज्य तथा जागीरों की समृद्धि केवल किसानों पर निर्भर थी । किन्तु उन्नीसवी शताब्दी के मध्य से इस व्यवस्था में बदलाव आने लगा । और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कृषक असन्तोष का स्वरूप अत्यन्त विस्तृत हो गया |

कृषक असन्तोष के मुख्य कारण निम्नलिखित थे :

14.2.1 जागीरदारों एवं सामन्तों का पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति की ओर झुकाव बढ़ना

उन्नीसवी शताब्दी के आरम्भ में देशी राज्यों तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच सन्धियां स्थापित हो गयी थी, जिससे इन राज्यों को अपनी सुरक्षा व्यवस्था की चिन्ता से मुक्ति मिल गयी थी । इन सन्धियों को ब्रिटिश सरकार ने यथावत मान लिया था । इससे शासन वर्ग, जागीरदार वर्ग, अपनी रेययत के प्रति उदासीन हो गया । ऐसी स्थिति में राजा तथा सामन्त दोनों ही वर्ग विलासप्रिय हो गये । अंग्रेज अधिकारियों से सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद उन पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बढ्ने लगा, जिससे उनके रहन-सहन में भारी परिवर्तन आ गया | मेयो कॉलेज (अजमेर) में पढ़ने वाली शासकीय पीढ़ियाँ पश्चिमी शैली की वेशभूषा खान-पान, दावतें तथा अंग्रेजी शराब के प्रति अत्यधिक आकृष्ट हो गई । यह नई जीवन शैली ठिकानों में उत्पादित वस्तुओं से पूरी हो सकती थी जिन्हे केवल धातु-मुद्रा से ही प्राप्त किया जा सकता था । इसी तरह इन जागीरदारों के पुत्रों का मन अब जागीरों में नहीं लगता था । अत: राज्यों की राजधानियों में आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पन्न हवेलियो का निर्माण आरम्भ हुआ । जिसके लिए नकद धन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी । अत: जागीरदारों ने किसानों पर नई लागतें थोप दी । ज्यों-ज्यों इन जागीरदारों की आवश्यकताए बढ़ती गई, किसानों का शोषण भी बढ़ता गया । इससे कृषकों में असंतोष फैलना स्वाभाविक ही था ।

14.2.2 कृषि पर आधारित लोगों की संख्या में बढ़ोतरी

कृषक असंतोष का दूसरा मुख्य कारण जनसंख्या के एक बड़े भाग का कृषि पर निर्भर होना था । अठारहवीं सदी में कृषि भूमि की कमी नहीं थी और सामन्तों को यह भय बना रहता था कि यदि किसान जागीर छोड़कर अन्यत्र चले गये अथवा कृषि कार्य के स्थान पर अन्य व्यवसाय अपनाने लगे तो उन्हे भारी आर्थिक हानि हो सकती थी । अत: सामान्यत: कृषकों के साथ उन्होंने उदार व्यवहार किया था, किन्तु अब परिस्थितियां बदल चुकी थी । अंगेजो के आगमन से राजस्थान के कुटीर एवं लघु उद्योगों को क्षति पहुंची थी । अब अधिक लोग कृषि व्यवसाय की ओर आकर्षित होने लगे । 1891 ई. में राजस्थान में 54 प्रतिशत जनसंख्या ही कृषि पर आधारित थी जबकि 1931 ई. में कृषि पर आधारित लोगों की संख्या बढ़कर 73 प्रतिशत हो गई । इस काल में जनसंख्या में भी बड़ा परिवर्तन नहीं आया । इस समय में कृषि भूमि की मांग बढ़ती जा रही थी । श्रमिक अपेक्षाकृत कम मजदूरी पर काम करने को तैयार थे । अत: समानतों को अब किसानों के असंतोष का भय नहीं रहा । ऐसी स्थिति में सामन्त अपनी इच्छानुसार लागतों की संख्या वृद्धि करते रहे ।

14.2.3 जागीरदारों का अमानवीय व्यवहार

किसानों के असंतोष का सर्वाधिक उल्लेखनीय कारण यह था कि जागीरदार अपने किसानों के साथ अमानहीय व्यवहार करते थे । छोटी-छोटी बात पर किसानों को बेरहमी से पीटा जाता था । जागीरदार अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते थे और किसानों पर झूठा मुकदमा चलाते थे, जिससे भारी जुर्माना वसूला जा सके | किसानों को अपने परिहार सहित बेगार करनी पड़ती थी क्योंकि बेगार से इन्कार करने पर उनको और अधिक कठिनाइयों का सामना कला पड़ सकता था | इनके अतिरिक्त किसानों की बहू-बेटियों की इज्जत भी सदैव खतरे में खती थी । लगान न चुकाने पर किसानों को अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर दिया जाता था । कीमती सामान पर कच्छा व मवेशियों को ले जाना, फसल काट लेना तो सामान्य सी घटना होती थी । जागीर में न्याय व कानून कुछ भी नहीं थे । जागीरदार ही कानून था और जागीरदार के अन्याय करने पर कृषक कहीं भी शिकायत नहीं कर सकता था । ऐसी स्थिति में किसानों के लिए आन्दोलन के मार्ग पर जाने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था । अत: किसानों ने संगठित होकर जागीरदारों के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना आरम्भ कर दिया ।

14.2.4 कृषि उत्पादित वस्तुओं की कीमतों में अस्थिरता

राजस्थान में कृषक आन्दोलनों के लिए एक अन्य कारण उन समसामयिक परिस्थितियों का है जिनमें कृषि उत्पादन की वस्तुओं का मूल गिरता एवं बढ़ता गया । कृषक दोनों ही स्थितियों मे घाटे में रहते थे । गिरते मूल्यों में उनकी बचत का मूल्य बहुत कम रहता था और बढ़ते मूल्यों का उन्हे लाभ नहीं मिलता था, क्योंकि जागीरदार लगान जिन्स में लेता था । प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के तुरन्त बाद तथा विश्वद्यापी आर्थिक मन्दी की अवधि में कृषि उत्पादनों का मूल्य बहुत कम रहा | इसके अतिरिक्त 1916 के पश्चात अफीम की खेती कम होती गई और कृषकों को धातु मुद्रा की उपलब्धि भी उसी मात्रा में कम होती गई | 1913 से पहले मालवा अफीम की खेती 5,62,000 एकड भूमि में होती थी जो 1930 तक केवल 36,476 एकड़ भूमि रह गयी और 1937 तक 20 हजार एकड भूमि ही रह गई । इस नकद जिन्स की खेती कम होने से कृषकों की धातु मुद्रा की अवश्यकता पूरी नहीं हो सकी । बेंगू की कृषकों की मुख्य शिकायत अफीम की खेती का कम होना ही था |

उपर्युक्त कारणों से यह स्पष्ट था कि किसानों की दयनीय स्थिति ही उनको आन्दोलन करने के लिए मजबूर कर रही थी | कृषकों का असंतोष मुख्यत: जागीरदार के विरूद्ध होता था, क्योंकि वही सब प्रकार के अधिकार अपने पास केन्द्रित किये हुए था ।

14.3 बिजौलीय किसान आंदोलन

राजस्थान के किसान आन्दोलन के इतिहास में पहला संगठित किसान आन्दोलन उदयपुर राज्य की रिजौलिया जागीर में हुआ जिससे प्रभावित होकर राजस्थान के अन्य राज्यों के किसानों ने भी आन्दोलन आरम्भ किये । बिजौलिया जो वर्तमान भीलवाडा जिले में स्थित है, मेवाड राज्य में प्रथम श्रेणी की जागीर थी । इसका क्षेत्रफल लगभग एक सौ वर्ग मील था । इसके अन्तर्गत 40 गाँव थे । 1891 में बिजौलिया कस्बे की जनसंख्या 4000 तथा सम्पूर्ण जागीर की जनसंख्या 12000 थी । धाकड जाति के किसानों का यहां बाहुल्य था । वे अपने परिश्रम तथा दक्षता के लिए प्रसिद्ध थे और जातिगत आधार पर संगठित थे तथा पंचायत व्यवस्था में उनकी दृढ़ निष्ठा थी । रिजौलिया जागीर क्षेत्र के पूर्ति में कोटा बूंदी के राज्य थे, दक्षिण ग्वालियर राज्य की सीमा थी और उत्तर-पश्चिम में मेवाड राज्य के क्षेत्र थे । इस जागीर की भौगोलिक बनावट इस प्रकार थी कि यहां के कृषक आन्दोलन के समय बडी आसानी से पड़ौसी सीमावर्ती राज्यों में पलायन कर सकते थे । यहां के अधिकांश लोगों का जीवन-निर्वाह कृषि पर आधारित था । ।

14.4 बिजौलिया किसान आन्दोलन का चरणबद्ध विकास

बिजौलीय किसान आंदोलन को तीन प्रमुख चरणों में बांटा जा सकता हैं । पहला चरण 1897 1915, जिसे स्वत: स्फूर्त आन्दोलन की संज्ञा दी जा सकती है, जिसे स्थानीय नेतृत्व ने आगे बढ़ाया । दूसरा चरण 1915-1923 तक रहा जिसे किसानों की नई चेतना का काल कहा जा सकता है, जिसका नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर के प्रशिक्षित एवं परिपक्व नेताओं ने किया, जिससे यह आन्दोलन राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ गया । तीसरा चरण 1923-1941 तक चला । इस आन्दोलन के मुख्य मुद्दे भूराजस्व प्रणाली, लाग-बाग, किसानों की कर्जदारी, निर्धनता, बेगार, शिक्षा व्यवस्थाओं की सुविधाओं से संबन्धित थे । कुल मिलाकर सामन्ती शोषण से किसानों की मुक्ति प्राप्त करने की उत्कंठा इस आन्दोलन के मुख्य कारण थे ।

14.4.1 आन्दोलन का प्रथम चरण (1897-1915 ई.)

वर्ष 1987 में बिजौलिया ठिकाने के हजारों धाकड जाति के किसान एक मृत्यु-भोज के अवसर पर गिरधरपुरा गाँव में एकत्रित हुए | शोषित एवं उत्पीडित किसानों ने अपने-अपने कष्टों एवं दुर्दशा के बारे में एक-दूसरे से चर्चा की और निर्णय लिया कि उनके प्रतिनिधि उदयपुर जाकर महाराणा फतेहसिंह से नेट कर न्याय की मांग करेंगे । इस निर्णय के अनुसार उन्होने बैरीवाल पाद के निवासी नानजी पटेल और गोपाल निवास के ठाकरी पटेल को महाराणा से मिलने के लिए उदयपुर भेजा । इस प्रतिनिधि मण्डल की शिकायत पर महाराणा ने जांच करवायी और यह पाया कि किसानों की शिकायत सही थी | महाराणा ने बिजौलिया के जागीरदार को किसानों के प्रति अपने व्यवहार एवं प्रशासन में परिवर्तन करने की सलाह दी । जागीरदार ने इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा प्रतिनिधि मण्डल के सदस्यों को जागीर क्षेत्र से निष्कासित कर दिया ।

वर्ष 1899-1900 के अकाल के दौरान किसानों की आर्थिक स्थिति अत्यधिक दयनीय हो गयी थी। 1903 की एक घटना से किसानों को खुले आम जागीरदार की सज्ञा को चुनौती देने के लिए मजबूर होना पड़ा । इस वर्ष ‘चंवरी’ नामक एक नई लाग किसानों पर थोप दी गयी थी, जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पुत्री की शादी के समय 13 रूपये चंवरी लाग देना निर्धारित किया गया था । इस नई लगान का विरोध करने हेतु लगभग 200 विवाह योग्य कुंवारी लडकियों के साथ भारी संख्या में किसान जागीरदार के समक्ष प्रस्तुत हुए | जागीरदर ने किसानों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया और यहां तक कह दिया कि इन लड़कियों को बाजार में बेच दो तथा चंवरी लाग जमा करा दो | इस बात पर किसानों ने निर्णय लिया कि वे ऐसे स्थान पर नहीं रहेंगे जहां जागीरदार हमारी लडकियों को बिकवाना चाहता है । उसी रात को अनेक गांवों के किसान सीमावर्ती ग्वालियर राज्य के लिए प्रस्थान कर गये । किसानों के निष्ठमण से जागीरदार का चिन्तित होना स्वाभाविक था । अत: जागीरदार ने निष्ठमण करने वाले किसानों को 1904 में वापस बुलवाकर ‘चंवरी लाग’ को समाप्त करने के साथ-साथ भू-राजस्व लाग-बाग एवं बेगार सम्बन्धी कई रियायतें देने की घोषणा की । इन रियायतों का किसानों को अधिक समय तक लाभ नहीं मिल पाया, क्योंकि 1906 में इन रियायतों को समाप्त कर दिया गया था | 1906 में बिजौलिया के जागीरदार कृष्णीसंह की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी पृथीसिंह ने न केवल उपर्युक्त रियायतों को समाप्त कर दिया बल्कि एक नई लाग ‘तलवार बंधाई (उत्तराधिकारी लाग) किसानों पर थोंप दी थी | नये जागीरदार ने निर्दयतापूर्वक अवैध करों की वसूली करना आरम्भ कर दिया था । इसके परिणामस्वरूप किसानों का असंतोष बढ़ता रहा । इस असंतोष को कम करने का कोई प्रयास नहीं किया गया ।

वर्ष 1913 में बिजौलिया के किसानों ने पुन: आन्दोलन का रास्ता अपनाया, जिसका नेतृत्व सीतारामदास नामक साधु ने किया । अभी तक किसान स्वयं अपना नेतृत्व कर रहे थे, किन्तु अब एक धार्मिक व्यक्ति उसका नेतृत्व कर रहा था, इससे किसानों में नई शक्ति एवं साहस का संचार हुआ | मार्च 1913 में साधु सीतारामदास के नेतृत्व में लगभग एक हजार किसान जागीरदार के महल में सामने अपनी शिकायतें प्रस्तुत करने के लिए एकत्रित हुए | जागीरदार ने इनसे मिलने से इन्कार कर दिया । जागीरदार के इस अशिष्ट व्यवहार से किसान नाराज हो गये | किसानों ने 1913-1914 में खेत न जोतने का निर्णय लिया । इससे जागीरदार को बड़ी हानि उठानी पड़ी । किसानों ने ग्वालियर, बूंदी एवं उदयपुर की खालसा भूमि पर खेती करके गुजारा किया । जागीरदार ने किसान आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों के विरुद्ध दमनकारी नीति अपनाई । इसी बीच दिसम्बर, 1913 में जागीरदार पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गयी तथा उसका अल्प वयस्क पुत्र केसरीसिंह जागीरदार बना | जागीरदार की अल्पवयस्कता के कारण जागीर का नियन्त्रण सीधे उदयपुर राज्य के अन्तर्गत आ गया था | उदयपुर राज्य ने स्थिति से निपटने के लिए जनश्री, 1914 में बिजौलिया के किसानों की समस्याओं की जांच करके 24जून, 1914 को किसानों के लिए कुछ रियायते देने की घोषणा की । किन्तु इन रियायतों का वास्तविक लाभ किसानों तक नहीं पहुंचा ।

किसान आन्दोलन के पहले चरण का मूल्यांकन करते हुए निष्कर्षत यह कहा जा सकता है कि इस चरण में किसानों में नई चेतना एवं साहस का संचार हुआ | इसने ऐसी पृष्ठभूमि तैयार की जिस पर सामन्त विरोधी भावनाओं को प्रकाश में लाया जा सका ।

14.4.2 आन्दोलन का द्वितीय चरण (1915-1923)

बिजौलिया किसान आन्दोलन के दूसरे चरण का मुख्य नायक विजयसिंह पथिक था । 1915 में साधु सीतारामदास ने विजय सिंह पथिक को इस किसान आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालने के लिए आमन्त्रित किया था । विजयसिंह पथिक, रासबिहारी तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल के क्रान्तिकारी संगठन का सदस्य था । उसका वास्तविक नाम भूपसिंह था तथा वह उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर जिले के गांव गुढावली का रहने वाला था | उन्हे राजस्थान में क्रान्तिकारी गतिविधियों का संगठित करने हेतु भेजा गया था | उनके दल के साथियों ने 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में गवर्नर जनरल हॉर्डिग पर बम फेंका था । इस घटना से क्रान्तिकारी गतिविधियों में गतिरोध पैदा हो गया । रासबिहारी बोस जापान चले गये तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल को सजा हो गयी थी । राजस्थान में विजयीसंह पथिक को भी इन घटनाओं से जुड़े होने के संदेह में गिरफ्तार कर लिया गया तथा टाडगढ की जैल में रखा गया । कुछ समय पश्चात ही दे जैल से भाग गये तथा अपना नाम विजयीसंह पथिक रखकर राजस्थान में ही सामाजिक कार्य करने लगे ।

विजयीसंह पथिक ने चित्तौड़गढ़ के समीप ओछरी नामक गांव में किसानों के बीच विद्या प्रचारणी सभा स्थापित की । 1 जनवरी, 1915 में इस सभा का एक समारोह आयोजित किया गया जिसमें साधु सीतारामदास भी सम्मिलित हुए | साधु सीतारामदास विजयीसिंह पथिक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने पथिक से बिजौलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व संभालने के लिए कहा । पथिक 1916 में बिजौलिया पहुंचे तथा आन्दोलन का नेतृत्व सम्भाला । उन्होने वही पर विद्या प्रचारणी सभा स्थापित की जिसके अनतर्गत एक स्कूल, एक पुस्तकालय एवं एक अखाड़ा स्थापित किया । वे संस्थान किसान आन्दोलन के केन्द्र बन गये । इस समय माणिक्यलाल वर्मा जो जागीर के कर्मचारी थे, वे अपनी जागीर सेवा से त्याग पत्र देकर विजयसिंह पथिक के साथ कार्य करने लगे । अब तक बिजौलिया का किसान आन्दोलन सामाजिक आधार पर धाकड जाति के किसानों की जाति पंचायत द्वारा चलाया जा रहा था । 1916 में विजयसिंह पथिक ने बिजौलिया किसान पंचायत की स्थापना की तथा प्रत्येक गांव में इसकी शाखाएं खोली | एक केन्द्रीय पंचायत कोष भी स्थापित किया गया था, जिसमें पंचायत के सदस्यों से धनराशि एकत्रित की गयी थी | मन्नालाल पटेल को बिजौलिया किसान पंचायत का अध्यक्ष (सरपंच) बनाया गया तथा उसके अधीन आन्दोलन संचालन हेतु 13 सदस्यीय समिति गठित की गयी | 1918 में जागीरदार द्वारा किसानों पर थोंपे गये युद्धकर (बोल्ड) ने किसान पंचायत को आन्दोलन के लिए प्रेरित किया । पंचायत ने गांब-गांब जाकर सभाएं आयोजित की एवं किसानों से उनकी शिकायतों के बारे में मांग पत्र एकत्रित किये । 1917 में हजारों किसानों के हस्ताक्षरों से युक्त शिकायते एवं निवेदन पत्र जागीरदार एवं उदयपुर के महाराणा के पास भिजवाये | राज्य एवं जागीरदार की अनदेखी पर किसान पंचायत ने अगस्त, 1918 में असहयोग आन्दोलन के साथ-साथ बन्दी आन्दोलन की घोषणा कर दी | पंचायत के निर्णयानुसार किसानों ने भू-राजस्व अदा न करने, ठिकाने के आदेश कौन मानने तथा ठिकाने की पुलिस एवं न्यायालयों के बहिष्कार का निर्णय लिया । इन सब बातों के अतिरिक्त किसानों ने अपने दूसरे शोषक महाजनों का भी बहिष्कार किया, जिसमें किसानों ने कस्वे में खरीददारी के लिए नहीं जाने तथा विवाह एवं मृत्युभोज न करने का निर्णय लिया ।

उदयपुर के महाराणा इस आन्दोलन को कुचलने के पक्ष में थे, क्योंकि यदि इस प्रकार के किसान आन्दोलन सम्पूर्ण मेवाड़ राज्य में फैलते तो इससे राज्य में अशान्ति फैल सकती थी अत: जागीरदार की मदद से किसान आन्दोलन के नेता माणिक्यलाल वर्मा एवं साधु सीतारमदास सहित पचास लोगों थे गिरफ्तार कर लिया गया । विजयसिंह पथिक इसी बीच भूमिगत होकर आन्दोलन का संचालन करने लगे । किसानों ने सत्याग्रह आरम्भ करते हुए जैल भरना आरम्भ किया । मजदूर होकर उदयपुर राज्य ने एक जांच आयोग गठित किया । यह आयोग अप्रैल 1919 में बिजौलिया पहुंचा । इस जांच आयोग ने सबसे पहले माणिक्यलाल वर्मा तथा साधु सीतारामदास को जैल से मुक्त किया तथा 51 अन्य बन्दियों को छोड़ दिया गया । इस आयोग ने पाया कि वास्तव में किसानों की हालत दयनीय हैं और औसतन 13 या 14 रूपयों की बारिक आय साधारण किसान की हैं इस आयोग ने सिफारिश की, कि रिजौलिया के किसानों की शिकायते न्याय संगत है, किन्तु इस आयोग की सिफारिशों का ठिकानों पर कोई असर नहीं हुआ।

बिजौलिया का किसान आन्दोलन अपने दूसरे चरण में जाति एवं क्षेत्र की संकीर्णताओं को लांघकर राष्ट्रीय धारा के साथ जुड़ने की प्रकिया में था | विजयीसंह पथिक ने 1919 में “राजस्थान सेवा संघ नामक संस्था स्थापित की, जिसका मुख्यालय अजमेर में स्थापित किया गया । पथिक अब अजमेर से बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे । पथिक राष्ट्रीय नेता गणेश शंकर विद्यार्थी के अत्यधिक समीप थे । अत: पथिक विद्यार्थी के कानपुर से निकलने वाले समाचार पत्र “प्रताप” के माध्यम से बिजौलिया किसान आन्दोलन को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करके जनसमर्थन जुटाने का प्रयास कर रहे थे । बिजौलिया के किसानों ने अपनी मांगे न माने जाने तक अपनी भूमि न जीतने का निर्णय लिया । इस आन्दोलन के नेताओं ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया, किन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली, क्योंकि कांग्रेस इस समय तक देशी राज्यों में आन्दोलन, फैलाने के पक्ष में नहीं थी क्योंकि इससे कांग्रेस को स्थानीय राजाओ से भी संघर्ष में उलझना पड सकता था ।

बिजौलिया किसान आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव एवं लोकप्रियता के कारण मजबूर होकर फरवरी, 1920 में उदयपुर राज्य ने दूसरा जांच आयोग नियुक्त किया । किसानों ने इस आयोग का स्वागत करते हुए घोषणा की कि दें तब तक आन्दोलन जारी रखेंगे जब तक कि उनकी मांगें स्वीकार नहीं कर ली जाती । इस आयोग के समक्ष किसानों की मांगों को प्रस्तुत करने के लिए एक 15 सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल माणिक्यलाल वर्मा के गेल में उदयपुर गया जांच आयोग ने सम्पूर्ण जांच पड़ताल के उपरान्त आन्दोलन के कारणों को सही मानते हुए अनुशंसा की कि किसानों की समस्याओं का समाधान किया चाय किन्तु राज्य की अनुशंसा पर भी जागीरदार ने कोई कार्यवाही नहीं की | जून, 1920 तक किसानों व जागीरदारो के मध्य समझौते के प्रयास असफल हो गये । अत: किसानों को मजबूर होकर इस आदोलन को तेज करना पड़ा । किसानों ने असहयोग द्वारा जागीर प्रशासन को अव्यवस्थित कर दिया एवं किसान पंचायत की समानान्तर सरकार स्थापित हो गयी थी । दिसम्बर, 1920 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग आन्दोलन के आरम्भ हो जाने से बिजौलिया के किसान आन्दोलन को बल मिला |

वर्ष 1920 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में विजयीसंह पथिक, साधु सीतारामदास, रामनारायण चौधरी, माणिक्य लाल वर्मा, हरिभाई किंकर एवं कई किसान नेता बिजौलिया आन्दोलन के समन्द में महात्मा गांधी से मिले और उनसे असहयोग आन्दोलन के समन्द में आशीर्वाद प्राप्त किया । नागपुर अधिवेशन से लौटकर बिजौलिया आने पर माणिक्यलाल वर्मा एवं अन्य साथियों ने किसान आन्दोलन को और तेज कर दिया | किसानों के लगान, लागते और बेगार बन्द कर देने से ठिकाने की आय के सब स्रोत बन्द हो गये । इससे ठिकानों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गयी |

अब बिजौलिया के आन्दोलन का असर मेवाड के अन्य किसानों तथा सीमावर्ती राज्यों पर पड़ने लगा । वर्ष 1921 में यह आन्दोलन पारसौली, भिण्डर, भैंसरोडूगढ बस्ती, बेंगू को आदि ठिकानों में भी फैल गया । इससे बिजौलिया किसान आन्दोलन के क्षेत्र में काफी विस्तार हुआ । ब्रिटिश सरकार इस आन्दोलन से काफी भयभीत थी, क्योंकि इस समय बिजौलिया जैसा किसान आन्दोलन सम्पूर्ण उदयपुर में फैल चुका था । इसी समय मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में मेवाड़, सिरोही, मारवाड़, पालनपुर, दांता एवं सूथरामपुर में भी विद्रोही हो गये थे । ब्रिटिश सरकार ने बिजौलीया आन्दोलन को समाज करने के उद्धेश्य से एक ‘उच्च क्षमता समिति गठित की जिसमें एजेन्ट दू गवर्नर जनरल इन राजपूताना रॉबर्ट हालैण्ड, उसका सचिव कर्नल आगाल्वी, उदयपुर का रैजीडेन्ट विल्किनसन, उदयपुर का दीवान प्रभातचन्द्र चटर्जी एवं उदयपुर का सीमा शुल्क हाकिम बिहारी लाल कौशिक सदस्य थे | यह समिति 4 फरवरी, 1922 को बिजौलिया पहुंची तथा 5 फरवरी को बार्ता आरम्भ हुई । इसमें बिजौलिया किसान पंचायत की ओर से पंचायत का सरपंच मोतीचन्द्र तथा मन्त्री नारायण पटेल तथा राम नारायण चौधरी एवं माणिक्यलाल वर्मा सम्मिलित हुए | 11 जून, 1922 को एक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत किसानों की अनेक मांगे स्वीकार कर ली गयी । 35 लागते माफ कर दी गई । ठिकाने के जुली कामदार हटा दिये गये । किसानों पर चलने वाले मुकदमे उठा लिये गये | जिन किसानों की जमीन दूसरों के कस्बे में थी, वह उन्हे पुन: सौंप दी गयी । तीन साल के अन्दर बिजौलिया जागीर में जमीन का बन्दोबस्त कर लगान जिन्स की बजाय नकदी में परिणत करने का आश्वासन दिया गया । किसान पंचायत को मान्यता प्रदान की गयी । यह समझौता बिजौलिया के किसानों की भारी सफलता थी । पहली बार किसान

प्रतिनिधियों ने राज्य के बड़े अधिकारियों के साथ सीधा सम्पर्क किया | 1897 में आरम्भ हुआ किसान आन्दोलन 25 वर्षा की अवधि के बाद सम्मानजनक शर्तों पर समाप्त हुआ |

14.4.3 आन्दोलन का तीसरा चरण (19231941)

वर्ष 1922 का समझौता किसानों की बड़ी सफलता तो थी किन्तु दुर्भाग्य से ठिकाने की बदनीयति के कारण यह समझौता मात्र छलावा बनकर रह गया था । सर्वप्रथम तो इस समझौते को पूरी तरह से लाग नहीं किया गया था तथा समझौते के बाद जागीरदार एवं उसके अधिकारियों को किसानों के साथ व्यवहार अधिक कठोर हो गया था | फरवरी, 1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने के बाद समपूर्ण भारत में किसान आन्दोलनों के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति में परिवर्तन आ गया | 1923 के अन्त तक भारत के सभी भागों में किसान आन्दोलनों को दमनात्मक साधनों से कुचल दिया गया था । इसी बीच बेंगू किसान आन्दोलन के सिलसिले में विजयसिंह पथिक को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हे पांच वर्ष की सजा दी गयी । साधु सीतारामदास खादी कार्यकम में लग गये और मध्यप्रदेश में रहने लगे | अब बिजौलिया के किसान आन्दोलन की सारी जिम्मेदारी माणिक्यलाल वर्मा के हाथ में थी ।

वर्ष 1923 से 1926 के मध्य बिजौलिया के किसानों की कठिनाइयों और अधिक बढ़ गयी थी । इन वर्षा में निरन्तर अतिवर्षा अथवा कम वर्षा के फलस्वरूप बिजौलिया में अकाल की स्थिति बनी रही । फसलें प्राय: नष्ट हो गयी । किसानों ने अकाल के कारण लगान में छूट व माफी के लिए बिजौलिया के जागीरदार एवं उदयपुर के महकमा खास में अपने आवेदन पत्र भेजे, किन्तु उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई । 1926 में 1922 के समझौते के अनुसार बिजौलिया ठिकाने में भूमि का बन्दोबस्त किया गया । बन्दोबस्त में जो लगान निर्धारित किया गया बह बहुत अधिक था । बारानी क्षेत्र (माल भूमि) की लगान दरे बहुत बढ़ा दी गयी और सिंचित क्षेत्र के लिए लगान अपेक्षाकृत कुछ कम रखा गया अत: किसानों में इस भेदभाव के कारण असंतोष था । मार्च, 1927 में किसान पंचायत की बैठक हुई इस बैठक में रामनारायण चौधरी और माणिक्य लाल वर्मा भी उपस्थित थे । इस बैठक में माल भूमि छोड़ने का प्रश्न उठा अन्तिम निर्णय विजयसिंह पथिक पर छोड दिया जो जैल से मुक्त होने शले थे । जैल से छूटने पर विजय सिंह पथिक को मेवाड़ से निर्वासित कर दिया गया, अत: वे ग्वालियर राज्य में चले गये और वही से बिजौलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व करने लगे । विजयसिंह पथिक का मानना था कि किसानों को माल भूमि तभी छोड़नी चाहिए जबकि उन्हें यह पक्का विश्वास हो जाय कि उनके द्वारा छोड़ी गयी भूमि को और कोई लेने को तैयार नहीं होगा | मई 1927 में किसानों ने अपनी-अपनी माल भूमि से इस्तीफे दे दिये । ठिकाने ने इस भूमि को नीलाम किया । किसानों के दुर्भाग्य से इन जमीनों के अन्य खरीददार मिल गये । इस निर्णय पर किसान मात जा गये । इस निर्णय को लेकर विजयसिंह पथिक तथा माणिक्यलाल वर्मा के सम्बन्ध बिगड़ गये । अत: विजयसिंह पथिक इस आन्दोलन से अलग हो गया । किसान अपनी-अपनी इस्तीफा शुदा जमीनों को वापस प्राप्त करने के लिए व्यग्र हो गये ।

अब किसान आन्दोलन का नेतृत्व माणिक्यलाल वर्मा तथा हरिभाऊ उपाध्याय को सौंपा गया । इन नेताओं ने सेटलमेन्ट कमिश्नर ट्रेंच से मिलकर एक समझौता करवाया जिसमें किसानों को भूमि लौटाने का आश्वासन दिया गया । किन्तु वास्तव में कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो सकी । माणिक्यलाल वर्मा ने इस कार्य हेतु सत्याग्रह करने का निर्णय लिया । अक्षय तृतीय वर्ष 1931 को प्रातःकाल 4000 किसानों ने अपनी इस्तीफा शुदा जमीनों पर हल चलाना आरम्भ किया । ठिकानों के कर्मचारियों सहित सेना, पुलिस के सिपाही तथा जमीनों के नये मालिकों के मध्य संघर्ष आरम्भ हो गया । ठिकाने ने सत्याग्रह को कुचलने के लिए दमनकारी नीति अपनायी । माणिक्यलाल वर्मा तथा अन किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया । इस समय तक हरिभाऊ उपाध्याय के मेवाड प्रदेश पर रोक लग चुकी थी । उपाध्याय ने मेवाड राज्य के अधिकारियों को किसानों की जमीन वापस लौटाने के समय में कई पत्र लिखे, किन्तु उनके प्रयत्न सफल न हुए । अब यह मामला अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद ने अपने हाथ में लिया । महात्मा गांधी को भी बिजौलिया आन्दोलन में किसानों पर होने वाले अत्याचार के समन्ध में बताया गया । महात्मा गांधी की सलाह पर मदनमोहन मालदीव ने मेवाड के प्रधानमंत्री को इस समय में पत्र लिखा । इस पर जमनालाल बजाज को वार्ता के लिए उदयपुर बुलाया गया । जमनालाल बजाज ने उदयपुर के महाराणा एवं उनके प्रधानमंत्री सुखदेव प्रसाद से वार्ता कर एक समझौते पर हस्ताक्षर किये । इस समझौते के अनुसार मेवाड सरकार ने आश्वासन दिया कि माल की जमीन धीरे-धीरे पुराने कपीदारों को लौटा दी जायेगी, सत्याग्रह में गिरफ्तार लोगों को रिहा कर दिया जायेगा, और 1922 के समझौते का पालन होगा | इस समझौते के अनुसार सत्याग्रही तो जेल से मुक्त हो गये, किन्तु माल भूमि के समज में कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो सकी । अत: माणिक्यलाल वर्मा पुन: किसानों का एक प्रतिनिधि मण्डल लेकर मेवाड राज्य के प्रधानमंत्री सुखदेव प्रसाद से मिलने उदयपुर गये । वहां माणिक्यलाल वर्मा को गिरफ्तार करके कुम्भलगढ के किले में नजरबन्द कर दिया । नवंबर, 1933 को माणिक्यलाल वर्मा को नजरबन्दी से मुक्त कर दिया गया तथा मेवाड छोडने को मजबूर कर दिया ।

बिजौलिया किसान आन्दोलन का पटापेक्ष वर्ष 1941 में हुआ जबकि मेवाड में सर टी.विजय राघवाचार्य प्रधानमंत्री बने । उस समय मेवाड प्रजामण्डल से पाबन्दी उठायी जा चुकी थी और माणिक्यलाल वर्मा आदि प्रजामण्डल के नेता मुक्त किये जा चुके थे । प्रधानमंत्री राघवाचार्य के आदेश से तत्कालीन राजस्व मंत्री मोहनसिंह मेहता बिजौलिया गये और माणिक्यलाल वर्मा तथा अन्य किसान नेताओं से बातचीत की । एक समझौता जिसके अनुसार किसानों को अपनी जमीने वापस मिल गयी | माणिक्यलाल वर्मा के जीवन की यह प्रथम बड़ी सफलता थी । भारत के इतिहास में यह अपने ढंग का अनूठा किसान आन्दोलन था जो राज्य की सीमाएं लांघकर पडौसी राज्यों में भी फैला । इस आन्दोलन ने राजस्थान की रियासतों में एक नयी जागति पैदा की । वर्ष 1938 में मेवाड, शाहपुरा, बूंदी आदि रियासतों में प्रजामण्डलों की स्थापना हुई उनकी पृष्ठ भूमि में यही किसान आन्दोलन था | इस आन्दोलन ने माणिक्यलाल वर्मा जैसे तेजस्वी नेता को जन्म दिया जो आगे चलकर राजस्थान के राजनीतिक आन्दोलन के एक प्रमुख कर्णधार बने ।

14.6 शेखावटी किसान आन्दोलन

बिजौलिया किसान आन्दोलन के बाद राजस्थान में दूसरा महत्वपूर्ण किसान आन्दोलन जयपुर राज्य के शेखावटी क्षेत्र में हुआ जो अन्य सभी आन्दोलनों की तुलना में अधिक तीव्र था | शेखावटी का भू-भाग वर्तमान में मुख्य रूप से राजस्थान के सीकर एवं झुंझुनू जिलों में विभाजित है । पूर्व में यह क्षेत्र तत्कालीन जयपुर राज्य का अंग था । शेखावटी का सम्पूर्ण भू-भाग विभिन्न ठिकानों एय जागीरों के अन्तर्गत था । इनमें सीकर एवं खेतड़ी के बडे ठिकाने थे, मध्यम स्तर के ठिकानों में मण्डाया कुंडलोद, बिसाऊ, सूरजगढ़, नवलगढ़, खण्डेला, पाटन, मलसीसर, इस्माइलपुर, हिरवा आदि थे तथा छोटी जागीरों में उदयपुरवाटी एवं अन्य क्षेत्रों के भौमिया जागीरदार थे । शेखावटी के किसान प्रशासन के तिहरे भार क्रमश: अंग्रेजी राज, जयपुर राज्य एवं जागीरदार से दबे हुए थे । जहां एक ओर तिहरे प्रशासन के दम एवं शोषण से कृषक वर्ग दबा हुआ था वही दूसरी और भौगोलिक तथा प्राकृतिक स्थितियों भी उनके अनुकूल नहीं थी । शेखावटी के किसानों को भू-स्वामित्व सचन्दी कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे तथा राजस्व का निर्धारण जागीरदारों की इच्छानुसार दोषपूर्ण ‘लाटा’ एवं ‘कूता’ पद्धति द्वारा किया जाता था | संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र के किसान अत्यधिक शोषण, दमनकारी औपनिवेशिक एवं सामन्ती व्यवस्था के तहत अभाव स्प कष्टपूर्ण जीवन-यापन कर रहे थे । यही कारण है कि शेखावटी के किसानों में भारी असन्तोष बाज था ।

शेखावटी के किसान आनदोलन के सन्दर्भ में एक बात महत्वपूर्ण थी कि यहां के आन्दोलन के पीछे पूंजीपतियों की शक्ति एक महत्वपूर्ण कारण थी । इस समय तक शेखावटी के मूल निवासी पूंजीपति घराने बजाज, बिडला, डालमिया, पोद्दार, कानोडिया, मोदी, तोदी, चमडिया, सिंघानिया आदि ब्रिटिश भारत में अपनी पूंजी एवं शक्ति का बहुत विकास कर चुके थे । इनमें से अधिकांश पूंजीपति घराने अपने मूल स्थानों से सकिय रूप से जुड़े हुए थे । इन लोगों के पास अपार धन था किन्तु शेखावटी में इनको कोई विशेष सामाजिक एवं राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे । यह वर्ग सामन्तवाद विरोधी वर्ग का अगुआ था क्योंकि सामन्तवाद एवं पूंजीवाद में मौलिक अन्तविरोध होता है । पूंजीपति वर्ग सामन्त विरोधी शक्ति के रूप में किसानों का उपयोग करना चाहते थे । अत: शेखावटी के किसान आन्दोलन को पूंजीपति वर्ग का नैतिक एवं आर्थिक समर्थन प्राप्त था । शेखावटी किसान आन्दोलन का उदय (1922-1930)

शेखावटी के किसान आन्दोलन का आरम्भ सीकर ठिकाने से हुआ था । 28जून, 1922 को रावराजा माधोसिंह की मृत्यु के उपरान्त उनका भतीजा कल्याणसिंह सीकर के रावराजा पद पर आसीन हुआ | नये राजा ने मृत रावराजा के मृत्यु संस्कार एवं अपनी गद्दी नशीनी के समारोहों में अधिक राशि के खर्च होने के वहाने प्रचलित भू-राजस्व दर से 25 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक अधिक भू-राजस्व वसूल करना आरम्भ कर दिया था । किसानों ने इस बस्ती के विरोध में जयपुर के महाराजा के समुख अपनी शिकायतें पेश की । महाराजा के कहने पर सीकर के रावराजा ने अगले वर्ष छूट देने का आश्वासन दे दिया लेकिन 1924 में पुन: अपने आशवासन को नही माना और कृषकों से 25 प्रतिशत अधिक लगान मांगा गया, इससे सीकर के किसानों में असंतोष बढ़ता गया |

राजस्थान सेवा संघ जिसकी स्थापना 1920 में अजमेर में हुई थी ने सम्पूर्ण राजस्थान की शोषित एवं उत्पीडित जनता को उपनिवेशवाद तथा सामन्तवाद के विरूद्ध संगठित करना आरम्भ कर दिया था । 1922 में बिजौलिया किसान आन्दोलन में समझौता हो जाने के कारण रामनारायण चौधरी ने अब सीकर को अपना कार्य क्षेत्र वनाया । रामनारायण चौधरी ने तरूण राजस्थान समाचार पत्र के माध्यम से सीकर के किसानों की समस्याओं को प्रचारित करना आरम्भ किया । उन्होने इंग्लैण्ड से प्रकाशित होने वाले ‘डेली हैराल्ड’ समाचार पत्र में भी सीकर के किसानों की समस्याओं के सन्दर्भ में लेख लिखे तथा इंग्लैण्ड में भी सीकर के किसानों के समर्थन में वातावरण तैयार करने का महत्वपूर्ण कार्य किया । रामनारायण चौधरी के प्रयासों से मई, 1925 में इंग्लैण्ड के ‘हाउस ऑफ कामन्स’ के सदस्य पथिक लारेन्स ने सीकर के किसानों की समस्याओं के सन्दर्भ में प्रश्न पूछे । लन्दन स्थित भारत सचिव ने मजबूर होकर भारत सरकार के राजनीतिक सचिब को सीकर के किसानों की समस्याओं के सन्दर्भ में जांच पड़ताल के आदेश दिये | भारत सरकार ने इस प्रश्न के जवाब में यह आश्वासन दिया था कि सीकर में भू-राजस्व की गैर सैद्धान्तिक वृद्धि नहीं होगी एवं नियमित भूमि की पैमाइश एवं बन्दोबस्त होता रहेगा । यह निर्णय किसानों के पक्ष में था | सीकर के रावराजा ने 1925 में एक जांच आयोग गठित किया इस आयोग ने लगान की मात्रा उत्पादन पर निर्धारित कर दी । इस आयोग की सिफारिश पर सीकर में भूमि बन्दोबस्त आरम्भ हुआ जो 1928 तक चलता रहा ।

सीकर के रावराजा को यह विश्वास था कि एक स्थायी बन्दोबस्त हो जाने पर कृषक असंतोष कम हो जायेगा | उसने बड़ी चालाकी से पहले सर्वेक्षण करवाया और जरीब को छोटा करवा दिया, ताकि बीघों की संख्या बढ़ जाए । ऐसी स्थिति में स्थायी लगान निश्चित हो जाना ठिकाने के लिए लाभदायक रहेगा । 1928 तक यह व्यापक रूप से मालूम हो गया कि जरीब में बेईमानी की गई थी। किसानों ने जयपुर महाराजा तथा अंग्रेज रेजिडेन्ट से सर्वेक्षण के खिलाफ विरोध प्रकट किया और अनुरोध किया कि जरीब निर्धारित लम्बाई की होनी चाहिए | सीकर ठिकाने ने 1929 में पुन: बढ़ा हुआ लगान वसूलना आरम्भ कर दिया । जब कृषि उत्पादनों का मूल्य विश्व भर में गिर रहा था, अंग्रेज रेजीडेन्ट और जयपुर के राजस्व मंत्री के परामर्श पर भी सीकर ठिकाने को कृषकों की कठिनाई समझ में नहीं आयी । जयपुर महाराजा का परामर्श व्यर्थ हो गया । अब कृषकों के समक्ष संगठित होकर कुछ करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहा । शेखावटी किसान आन्दोलन के प्रथम चरण में किसानों की उपलखियां विशेष नहीं थी किन्तु किसान चेतना की दृष्टि से यह काल महत्वपूर्ण था । इस दौरान किसानों के स्वत: स्फूर्त आन्दोलन ने संगठन का रूप धारण कर लिया था । राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शेखावटी के किसानों की समस्याओं का प्रचारित होना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ।

14.7 शेखावटी किसान आन्दोलन का विकास (1930-1938)

वर्ष 1928-1930 के मध्य भारतीय राजनीति में क्रान्तिकारी एवं समाजवादी विचारधाराएं एक शक्ति के रूप में उभरकर सामने आ रही थी । कांग्रेस ने भी इन नये सन्दभों में मार्च, 1930 में सश्निय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ किया था, जो 1920-22 के असहयोग आन्दोलन के बाद दूसरा बड़ा राष्ट्रष्पापी जन आन्दोलन था । शेखावटी के किसानों पर इन स्थितियों का प्रभाव पडना स्वाभाविक ही था । दिसम्बर, 1930 में सीकर के किसानों ने जयपुर के महाराजा को सीकर के ठिकाने की दमनात्मक नीति के एक ज्ञापन प्रस्तुत किया और अपनी मांगे नहीं मानने तक वहां सत्याग्रह आरम्भ कर दिया

| अप्रैल 1931 में जयपुर राज्य कौंसिल के राजस्व सदस्य सी.एल. अलेस्वेण्डर जिसे सीकर के किसानों की समस्याएं सुलझाने का कार्य सौंपा था, उन्होंने अपनी राय प्रकट की कि सीकर का रावराजा प्रतिवर्ष राजस्व निर्धारित करने का एक मनमाना ढंग अपनाता हैं | यह स्पष्ट दिखाई देता हैं कि 287 गांबवों में से 220 गांवों में रावराजा ने पिछले वर्षा के सामान्य राजस्व से अधिक राजस्व वसूला | यह कार्य ऐसे दर्श में किया गया जब कम वर्षा हुई तथा कृषि मूल्यों में गिरनट आयी थी । जयपुर राज्य एवं अन्य सभी राज्य सामान्य राजस्व वसूल करने में कठिनाई अनुभव कर रहे है । 16 अप्रैल 1931 को सीकर के रावराजा डी जयपुर के महाराणा के साथ बैठक हुई और यह निर्णय हुआ कि किसानों के राजस्व में रुपये में दो आना की छूट दी जाय । इस छूट की घोषणा सीकर के रावराजा ने जून, 1931 में कर दी थी, किन्तु इसकी कार्यायति नहीं की गई अत: कृषक असंतोष पुन: बढ़ने लगा |

शेखावटी के जाट किसानों की मांग पर अखिल भारतीय जाट महासभा एवं राजस्थान जाट सभा के प्रतिनिधि मण्डल ने अक्टूबर 1931 में शेखावटी के गांवों का दौरा किया । इसने किसानों की समस्याओं की जांच की एवं विभिन्न सभाओं के द्वारा किसानों को अपना संघर्ष तेज करने की सलाह दी । इस प्रकार शेखावटी के जाट किसानों ने जातीय आधार पर संगठित होना आरम किया । इसी क्रम में 11 फरवरी से 13 फरवरी 1932 के बीच बसन्त पंचमी के अवसर पर झुंझुनू में अखिल भारतीय जाट महासभा का 23वां अधिवेशन आयोजित हुआ था । इसमें लगभग 60 हजार स्त्री-पुरूषों ने भाग लिया । इस सम्मेलन में जाटों की एकता, बच्चों की शिक्षा, बाल-विवाह पर रोक एवं सामाजिक उत्सवों पर धन के अपव्यय को रोकने सम्बन्धी प्रस्ताव पास किये गये थे । इसके अतिरिक्त एक आर्थिक प्रस्ताव पास करके जयपुर के महाराजा के पास भेजा जिसमें निम्न प्रस्ताव थे:

1. सभा महाराज द्वारा राजस्व में दी गयी छूट के लिए महाराजा को धन्यवाद ज्ञापित करती

2. सभा महाराज से निवेदन करती है कि वह अपने जमीदारों को आदेश दे कि वे भू-राजस्व पुरानी दरों के आधार पर ही ले ।

3. समा सभी ठिकानेदारों से आग्रह करती है कि हे प्रतिवर्ष अपने राजस्व की 5 प्रतिशत राशि शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर खर्च करें।

4. सभा जयपुर महाराज से प्रार्थना करती है कि पिछले दो वर्षा से अकाल की मार एवं अनाज के मूल्यों में गिरावट को ध्यान में रखते हुए सभी दीवानी मुकदमों की कुर्की समाप्त करें ।

5. सभा जयपुर महाराज से सहकारी बैंकों की स्थापना का नियेदन करती है, जिससे किसान ब्याज की भारी दरों से बच सकें ।

जाट महासभा के उपर्युक्त सम्मेलन से शेखावटी के किसानों में नई चेतना का संचार हुआ | इस सम्मेलन से प्रेरणा प्राप्त कर सीकर के किसानों ने सितम्बर, 1993 में पलथाना में जाट सभा का आयोजन किया । इस सभा ने 20 जनवरी से 26 जनवरी 1934 तक सीकर में जाट महायज्ञ का आयोजन किया । महायज्ञ के आयोजकों ने ठिकाने के प्रति कटुता दिखाते हुए उत्तेजनापूर्ण भाषण दिये | समाज सुथार के जयघोष में वर्ग कटुता एवं वर्ग घृणा को बढ़ावा मिला जिससे किसान आन्दोलन अधिक तीव्र हो गया । किसानों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने के उद्देश्य से ठिकानें ने महायज्ञ समिति के सचिव मास्टर चन्द्रभानसिंह को गिरफ्तार कर लिया तथा छ: सप्ताह की साधारण कैद एवं 51 रूपये जुर्माना लगाया गया | जाट किसानों ने सीकर ठिकाने की इस कार्यवाही के विरोध में करबन्दी, अभियान आरम्भ कर दिया । सैकड़ों की संख्या में किसानों ने भाग लिया । 18 फरवरी, 1934 ले जयपुर राज्य कौन्सिल के उपाध्यक्ष ने सीकर रावराजा से इन मांगों पर विचार करके किसानों की समस्याओं के समाधान हेतु एक अधिकारी नियुक्त किया । सीकर ठिकाने ने अगस्त, 1934 के किसानों की मांगों को स्वीकार करते हुए लाग-बागों की समाप्ति, आन्तरिक चुंगी समाप्ति, भू-राजस्व कम करने एवं भूमि का वर्गीकरण करने, सीकर जाट पंचायत को मान्यता देने, लैगर समाप्त करने, गोचर भूमि का निःशुल्क उपयोग करने तथा शिक्षा एवं स्वास्थ सुविधाएं प्रदान करने समबंधी घोषणा की । किसानों ने इस घोषणा के आधार पर समझौता कर लिया था, किन्तु ठिकाने एवं जाट किसानों के बीच तनाव समाप्त नहीं हुआ।

अगस्त, 1934 में सीकर के किसानों की सफलता से प्रेरित होकर शेखावटी के अन्य ठिकानों विशेषकर खेतडी, डूंडलोद, नवलगढ, बिसाउ सूरजगढ़ खण्डेला, मलसीसर आदि के किसानों ने भी अपने आन्दोलन तेज कर दिये । 15 सितम्बर, 1934 को इन किसानों ने भू-राजस्व एवं अन्य लाग-बागों के भुगतान न करने का निर्णय लिया एवं धमकी दी गयी कि यदि कोई किसान भुगतान करेगा तो उसे जाति से बाहर कर दिया जायेगा | जयपुर राज्य कौन्सिल ने किसानों एवं ठिकानों के मध्य विवादों को निपटाने हेतु सीकर के सीनियर अधिकारी कैप्टन वेब, जिसने अगस्त, 1934 में सीकर ठिकाने का समझौता करवाया था, को नियुक्त किया । दिसम्बर, 1934 में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार ठिकानों ने रूपयों में चार आना भू-राजस्व में कमी करने पर अपनी सहमति दी । जनवरी, 1935 में किसानों ने इस घटी हुई दर पर भूराजस्व की अदायगी स्वीकार कर ली | किन्तु वास्तव में भू-राजस्व की बस्ती का कार्य पुरानी दरों पर ही किया जा रहा था । अत: किसानों ने ठिकानों का विरोध आरम्भ कर दिया । जयपुर राज्य कौन्सिल के पुन: प्रयासों से 14 मार्च, 1935 को एक समझौता हुआ जिसके अनुसार राजस्व निर्धारण का कार्य ठिकानों के स्थान पर राज्य के अधिकारियों द्वारा किये जाने पर सहमति हुई । दिसम्बर, 1935 में भू-राजस्व की दर कुल उत्पादन के 1/2 भाग के स्थान पर 2/5 भाग निर्धारित की गयी । 1936 में ठिकानों में भूमि सर्वेक्षण और भूमि बन्दोबस्त की प्रकिया आरम्भ हो गयी ।

14.8 शेखावटी किसान आन्दोलन का चरमोत्कर्ष (1938- 1947ई.)

वर्ष 1938 तक शेखावटी के किसानों में शान्ति बनी रही । शेखावटी जाट सभा ने कोई व्यापक रूप से जन आन्दोलन नहीं चलाया | किन्तु स्मरण-पत्रों, पंचायत पत्रिका आदि के माध्यम से वह ठिकानों व सरकार का ध्यान किसानों की मांगों के प्रति निरन्तर आकर्षित करती रही । किसान नेताओं को भी विश्वास हो गया कि उनकी शिकायतों का समाधान उत्तरदायी सरकार की स्थापना के बाद ही सम्भव हो सकेगा । 1938 में ‘राज्य प्रजा मण्डल’ के तत्वावधान में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । प्रजा मण्डल ने किसानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयास किये | 1939 में हिंडोन और तोरावाटी निजामत के खालसा क्षेत्र में प्रजा मण्डल के नेतृत्व में किसानों को अकाल से राहत दिलाने के लिए आन्दोलन हुआ। उनियारा ठिकाने में बैरवा जाति के लोगों ने जातीय भेदभाव के विरोध में आन्दोलन किया किन्तु इनके कोई विशेष परिणाम नहीं निकले । जयपुर राज्य प्रजा मण्डल ने अपना दायरा विगत करने के उद्देश्य से ही किसानों को समर्थन करना आरम्भ किया था | जयपुर राज्य प्रजा मण्डल ने 8 मार्च, 1938 को अपने प्रथम सम्मेलन में ठिकानों के सफल में निम्नलिखित प्रस्ताव पास किये :

“जयपुर रियासत के अधिकांश ठिकानों में बसने वाली जनता के प्रति ठिकानेदारों का जो व्यवहार है वह, अधिकांश में गैर-कानूनी कष्टदायक और विकास कार्यों के विरूद्ध हैं । इससे न केवल जनता को बल्कि ठिकानों और ठिकानेदारों को भी बहुत हानि हैं जयपु राज्य प्रजा मण्डल की यह निश्चित राय है कि ठिकानों की जनता को भी वही कानूनी, आर्थिक, सामाजिक और व्यक्तिगत अधिकार व सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए जो राज्य की जनता के लिए आकांक्षित है ।”

इन बदलती परिस्थितियों में सीकर के किसानों में अपनी शक्ति को संगठित करना आरम्भ कर दिया था । इसके लिए 11-12 सितम्बर, 1938 को सीकर के गोढरा नामक गांव में जाट-क्षत्रिय किसान पंचायत का आयोजन किया गया । इस सम्मेलन में दस से ग्यारह हजार लोगों ने भाग लिया | इस सम्मेलन में पारित प्रस्तावों का ज्ञापन 15 सितम्बर, 1938 को किसानों ने जयपुर राज्य के प्रधानमंत्री समक्ष प्रस्तुत किया गया । प्रधानमंत्री ने किसानों को उनकी समस्याओं के शीघ्र समाधान का आश्वासन देते हुए सूचित किया कि मिस्टर ब्राउन को बन्दोबस्त आयुक्त नियुक्त किया गया है | यह नया अधिकारी लखे समय से चले आ रहे विवादों को सुलझा देगा | जयपुर राज्य सभी प्रकार के राजनीतिक एवं जन आन्दोलनों का समाधान भूमि बन्दोबस्त में देख रहा था । दिसचर, 1939 तक सीकर के खालसा क्षेत्रों का बन्दोबस्त पूरा हो गया था जिससे किसानों को कुछ भूमि अधिकार प्रदान कर दिये गये थे । अब सीकर के जागीर क्षेत्रों का मुद्दा किसान आन्दोलन का आधार रह गया था ।

शेखावटी के अन्य ठिकानों के किसानों ने प्रजामण्डल के सहयोग से जुलाई, 1939 में सत्याग्रह आरम्भ किया था । अक्टूबर, 1939 तक हजारों किसान गिरफ्तारी के लिए पहुंचे। आन्दोलनों को बढ़ता हुआ देख जनवरी, 1940 में शेखावटी किसान जाट पंचायत के गिरफ्तार नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को

जेल से रिहा कर दिया गया था किन्तु इसके बावजूद भी किसान आन्दोलन समाज नहीं हुआ । जागीरदारों द्वारा किसानों को निरन्तर उत्पीडित किया जा रहा था | 10 जनवरी, 1941 को जयपुर पुलिस महानिरीक्षक ने जयपुर के प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि “ठिकानों और उनके कर्मचारियों के किसानों पर अत्याचार के कई उदाहरण देखने को मिल रहे है । हत्याएं भी हो रही है । मैं सरकार से प्रार्थना करता हूए कि ठिकानेदारों एवं उनके लोगों के उपयुक्त व्यवहार हेतु समझाने के लिए ठोस कदम उठाये जावे |” जयपुर राज्य प्रजा मण्डल अभी तक अपनी मान्यता के लिए संघर्षरत था | सरकार जयपुर पब्लिक सोसयटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत प्रजा मण्डल का पंजीकरण करने में आना-कानी कर रही थी । अप्रैल 15- 16, 1941 को जयपुर राज्य प्रजामण्डल का तीसरा वार्षिक अधिवेशन झुंझुनू में आयोजित हुआ । इसमें एक ही प्रस्ताव पास झा था कि अब धैर्य की सीमा टूट गयी है एवं प्रजामण्डल को मजबूर होकर अपनी मांगों के समर्थन में सत्याग्रह की योजना बनानी पड रही है । प्रजा मण्डल के इस निर्णय के दबाव में जयपुर भूमि बन्दोबस्त के कार्यों को अन्तिम रूप देने के लिए 12 अप्रैल, 1941 को जयपुर राज्य कौन्सिल ने एक समिति का गठन किया जिसमें 7 व्यक्तियों में से दो राजस्व विभाग के उच्चाधिकारी एवं 5 ठिकानेदारों को सदस्य बनाया गया । यह समिति कोई विशेष कार्य नहीं कर सकी क्योंकि इसके अधिकांश ठिकानेदार सदस्य किसानों को किसी भी प्रकार के अधिकार देने के पक्ष में नही थे । अगस्त,1942 में अखिल भारतीय कांग्रेस के भारत छोड़ो आन्दोलन प्रस्ताव के साथ जयपुर राज्य में भी इस आन्दोलन के आरम्भ होने की सम्भावना थी । शेखावटी के किसानों को इससे अलग रखने के उद्देश्य से जयपुर सरकार ने जल्दबाजी में लम्बे समय से चले आ रहे शेखावटी भूमि बन्दोबस्त को पूर्ण कर लेने की घोषणा कर दी । 15 अगस्त, 1942 को भूमि बन्दोबस्त के प्रावधानों को भी घोषित कर दिया गया । किन्तु 1942 में बन्दोबस्त की घोषणा केवल एक घोषणा ही बनकर रही गयी थी ।

12 फरवरी, 1943 को किसान नेता हरलाल सिंह ने इस समथ में जयपुर के प्रधानमंत्री से शिकायत भी की थी | जयपुर राज्य ने 3 दिसम्बर, 1943 को विशेष भूमि बन्दोबस्त आयुका को यह कार्य सौंपा किन्तु कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई।

जयपुर राज्य की शेखावटी के किसानों के प्रति कठोर नीति अपनाने के दो प्रमुख कारण थे, किसानो का प्रजामण्डल के साथ सहयोग तथा शेखावटी के जागीरदारों द्वारा किसानों का संगठित विरोध । वास्तविकता यह थी कि किसानों की बढ़ती हुई शक्ति से सामन्त तथा शासक वर्ग एकजुट हो गये । जयपुर सरकार ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार बिना अनुमति के शेखावटी में जुलुस निकालने, सभा करने तथा एकत्रित होने पर पाबन्दी लगा दी गई । 1945 के अन्त तक सीकर तथा शेखावटी का किसान आन्दोलन पुन: शक्तिशाली रूप से आरम्भ हो गया था । इस समय आन्दोलन का नेतृत्व पूर्णत: प्रजामण्डल के हाथों में था । 20 नवम्बर, 1945 से 10 दिसम्बर, 1945 तक जयपुर राज्य प्रजामण्डल के नेता हीरालाल शास्त्री, लादूराम जोशी, नरोत्तमदास वकील, हरलाल सिंह जाट एवं लादूराम जाट ने झुंझुनू में रहकर किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया । किसानों ने करबन्दी आन्दोलन को सफल बनाने के उद्देश्य से ठिकानों के राजस्व अधिकारियों को भू-राजस्व वसूल करने से रोकना आरम्भ कर दिया । किसानों और ठिकाना कर्मचारियों के बीच जबरदस्त हिंसक वारदातें हुई । किसान जागीरदारी यदस्था को समूल नष्ट कर सदैव के लिए सामन्ती शोषण से मुक्ति प्राप्त करने के लिए लालायित थे । 23 दिसम्बर, 1946 को जयपुर राज्य महकमाखास परिसर में प्रजाण्डल एवं किसाम नेताओं ने शेखावटी के किसानों की सभा का आयोजन किया । इस सभा में जागीरदारी व्यवस्था की पूर्ण समाप्ति की मांग की गयी । अन्तत: जयपुर महाराजा ने 30 दिसम्बर, 1946 को प्रजामण्डल के नेताओं के साथ समझौता किया | जनवरी, 1947 को जयपुर राज्य प्रजामण्डल ने महाराजा की छत्रछाया में उत्तरदायी सरकार गठित की । इससे किसानों को जागीरदारों के अत्याचारों से मुक्ति एवं भूमि बन्दोबस्त की व्यवस्था स्थापित होने की आशा बंधी ।