प्राचीन भारत के इतिहास को सामान्यत: मगध के उत्कर्ष एवं जैन तथा बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव से प्रारंभ किया जाता है क्योंकि इस समय तक लेखन कला का विकास हो चुका था, लेकिन प्राचीन भारतीय इतिहास की आधारशिला विभिन्न पाषाणकालीन और ताम्र तथा लौह युगीन संस्कृतियों के निवासियों ने रखी थी । प्रस्तुत इकाई में पाषाणकालीन और हड़प्पा संस्कृति से इतर ताम्र पाषाण कालीन संस्कृतियों को समझने का प्रयत्न किया जाएगा कि मानव ने वर्तमान से लगभग पांच लाख वर्ष पूर्व कैसे पाषाण उपकरणों को निर्मित कर आखेटक, आहार संग्राहक, आहार उत्पादक के विभिन्न चरणों की यात्रा पूर्ण करते हुए भारतीय ग्राम्य संस्कृति की नींव रखी।
2.2 भारत की भौगोलिक विशेषताएँ
किसी भी देश का इतिहास उस देश की भौगोलिक परिस्थितियों का परिणाम होता है । प्राक् एवं आद्यइतिहास के संबंध में यह उक्ति बहुत अधिक सीमा तक प्रभावी होती है क्योंकि प्रारम्भिक मानव की विकास यात्रा पृथ्वी तल पर घटित होने वाली घटनाओं से बहुत अधिक प्रभावित थी क्योंकि उस काल के मानव के भौतिक और सांस्कृतिक उपादान बहुत कम थे जिनसे वह भौगोलिक प्रभावों को अपने जीवन में कम कर सके । इसलिए तत्कालीन जीवन को समझने के लिए उस समय की वनस्पति, जीवजन्तु तथा पृथ्वीतल पर प्रवाहित होने वाले जल की मात्रा का अध्ययन पुरातत्व के संदर्भ में अत्यंत आवश्यक है क्योंकि उसने प्रारम्भिक मानव के सान्निवेश (Settlement pattern) को बहुत अधिक प्रभावित किया था ।
जैसाकि आप सभी इस तथ्य से परिचित है कि भारत एक विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र है । भौगोलिक दृष्टि से भारत को प्रधान रूप से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है – (1) हिमालय, उत्तरपूर्वी और पश्चिमी सीमा के पर्वत (2) सिंधु और गंगा के उत्तर भारतीय मैदान (3) विंध्य मेखला (4) दक्षिण | इनमें सब प्रकार की विविधता है | कहीं ऊँचे पहाड है और कहीं सपाट मैदान, कहीं हरा भरा प्रदेश है और कहीं निर्जल मरू भूमि, आर्द्रतम और शुष्कतम, ठण्डे से ठण्डे और गर्म से गर्म सभी प्रकार की जलवायु, नाना प्रकार के वृक्ष वनस्पति और पशु पक्षी यही मिलते हैं ।(जहां तक भारत की भौगोलिक सीमाओं की व्याख्या का प्रश्न है तो विष्णु पुराण के अनुसार, जो गुप्त कालीन संग्रह माना जाता है, भारत के उत्तर में हिमालय है तथा दक्षिण में समुद्र है ।)
भारत में वानस्पतिक दृष्टि से चार मुख्य क्षेत्र हैं जो वार्षिक औसत वर्षा पर आधारित हैं | भारत को मुख्य रूप से (1) उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत क्षेत्र, कश्मीर, लद्दाख, पंजाब, (2) इण्डो गंगा विभाजक, गंगा घाटी, असाम -राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र, उड़ीसा (3) मध्य प्रदेश तथा (4) उत्तर पूर्व के पर्वतीय क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता
2.3 भारत की पूर्व पाषाणकालीन संस्कृतियाँ
प्रस्तर युग का प्राचीनतम काल पुरापाषाण काल कहा जाता है | इसको पुरा पाषाण काल से संबोधित करने का कारण उसके द्वारा प्रस्तर उपकरणों को निर्मित करने की आदिम तकनीक है जिसमें शनैः-शनै: अपरिष्कृत व अनगढ़ तकनीक से परिष्कृत व सुगढ़ तकनीक का विकास होता गया । इस आधार पर पुरातत्ववेताओं ने पुरापाषाणकाल को पुन: तीन अवस्थाओं निम्न पुरा प्रस्तर युग, मध्य पुरा प्रस्तर युग तथा उच्च पुरा प्रस्तर युग में विभाजित किया है । इस विभाजन का आधार प्रस्तर युगीन मानव द्वारा पाषाण उपकरण निर्माण की तकनीक है जिसमें क्रमश: विकास दृष्टिगोचर होता है ।
प्राय: सभी पुरातत्ववेता इससे सहमत हैं कि भू-भौतिक काल के चतुर्थक काल के प्रतिनूतन काल में मानव का उद्भव हुआ। वर्तमान से लगभग बीस से पच्चीस लाख वर्ष पूर्व और दस हजार मध्य माना जाता है । मानवों की शाखा के विकास का इतिहास इस समय अनेक परिवर्तनों के दौर से गुजरा और विकास की एक अवस्था में पहिले प्राट्रेलोपिथेकस और उपरान्त होमो जीनस के मानव का विकास हुआ जिसमें होमो ए रेक्टस, होमो सेपियन्स, सेपियन्स निप्रण्डर्थलेनिसस तथा विकास हुआ | प्राधुनिक मानव वस्तुत होमो सेपियन्स माना जाता है । होमो सेपियन्स के प्रवशेष व 1868 में फ्रान्स के शिलाश्रय से प्राप्त हुआ था । इसे क्रोमान्यो कहा जाता था इसलिए इस काल का नाम क्रोमान्यो पड़ गया। यह लम्बे कद का सीधा खड़े होकर चलने वाला सुगठित शरीर का प्राणी था यह आखेटक पाषाण तथा पशु अस्थियों के बहु प्रयजनीय उपकरण बनाता था पहली बार उस मानव ने अपने मृतकों का अंतिम संस्कार करना प्रारंभ किया। वह गुफाओं में रह कर कला की अभिव्यक्ति करता था
इस प्रतिनूतन कालीन मानव को अनेक पारिस्थितकीय परिवर्तनों से भी होकर गुजरना पड़ा था । जलवायु की दृष्टि से यह काल अत्यधिक परिवर्तन का था । इस समय पृथ्वी के पर्वतीय भाग में हिम व हिमप्रत्यावर्तन युग विद्यमान थे तो उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में अतिवृष्टि व अल्प वृष्टि के काल आए थे | यूरोप में हिम युगों पर हुए कार्यों के आधार पर यह माना जाता है कि इस अवधि में चार हिम प्रत्यावर्तन युग आए थे । ऐसा ही अध्ययन अफ्रीका महाद्वीप के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में किया गया है जिस आधार पर यह माना जाता है कि इस अवधि में चार अतिवृष्टि चक्र आए थे तथा दो अतिवृष्टि कालों के मध्य अल्प वृष्टि चक्र भी आया था । इस तरह से समस्त पुरा प्रस्तर युगीन संस्कृति का इतिहास पांच हिमयुगों में विस्तार पाए हुए था तथा अंतिम हिम युग के अंतिम दो चरणों में होमोसेपियन्स सेपियन्स द्वारा निर्मित पुरा पाषाणकालीन संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त होते हैं । ऐसा माना जाता है कि वर्तमान से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व के स्थान का प्रयोग होना चाहिए पूर्व नूतन युग प्रारंभ हुआ था तथा इस समय जलवायु में एक स्थिरता उत्पन्न हो गयी थी ।
2.3.1 भारत की पुरा पाषाणकालीन संस्कृतियाँ
पुरातत्व में अभी तक संपादित हुई खोजों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में अभी तक कोई भी ऐसा पुरास्थल प्राप्त नहीं हुआ है जहां से पुरा पाषाणकालीन मानव के अस्थि अवशेष प्रकाश में आए हों, अत: भारत में इस काल का मानव कैसा था, इस संबंध में कुछ भी कह सकना संभव नहीं है लेकिन उसके द्वारा निर्मित उपकरण उसकी तत्कालीन उपलब्धियों को समझने में बहुत बड़ी सीमा तक सहायक होते हैं, भारत में प्रथम पाषाण उपकरण खोजने का श्रेय राबर्ट ब्रूस फ्रूट को दिया जाता है जिन्होंने 1863 में पल्लवरम् (तमिलनाडु) नामक स्थान से इसे खोजा था । यह उपकरण फ्रांस की एशूलियन तकनीक से बना विदलक था | 1935 में येल व केम्ब्रिज विश्वविद्यालयों के एक दल ने भारत के उत्तर पश्चिमी पर्वतीय नदी घाटियों (शिवालिक), मध्य प्रदेश में नर्मदा की घाटी तथा मद्रास के निकट कोलयार नदी घाटी का सर्वेक्षणकर भारत में पुरापाषाण काल के अध्ययन की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि निर्मित की । इस अध्ययन का यह लाभ हुआ कि भारत में प्रतिनूतन काल के सांस्कृतिक अवशेष तो प्राप्त हुए ही साथ ही तत्कालीन जलवायु व पशु जगत की जानकारी भी प्राप्त हुई ।
इन खोजों के आधार पर भारत में निम्न पुरापाषाण काल के स्थलों को भौगोलिक परिवेश के आधार पर चार वर्गों में विभाजित किया गया है –
(1) प्राकृतिक गुफा या शैल गृहों के स्थल (2) घाटियों में स्थित खुले आवास स्थल (3) उपकरण बनाने के स्थल (4) नदियों के जमाव वाले स्थल
विभिन्न खोजों के परिणामस्वरूप यह कहा जा सकता है कि निम्न पुरापाषाण कालीन उपकरण बड़े व खुरदरे प्रस्तरों पर बने हैं जिनको नदी की घाटियों में गुहिकाओं या पर्वतों की ढाल से पाषाण खण्डों के रूप में प्राप्त किया जाता था। अभी तक सम्पन्न खोजों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निम्न पुरा पाषाणकालीन मानव स्वयं के द्वारा निर्मित पाषाण उपकरणों से पहचाना गया है तथा इस काल में तत्कालीन मानव ने भारत के सभी क्षेत्रों में विस्तार पा लिया था । विभिन्न पुरात्तवेत्ताओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों एवं उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर अब यह निश्चित हो गया है कि निम्न पुरा पाषाण कालीन मानव ने कश्मीर और कांगड़ा घाटी से लेकर राजस्थान और कच्छ के शुष्क और अर्ध शुष्क भागों, आसाम जैसे अतिवृष्टि वाले क्षेत्र, बिहार के घने जंगलों के साथ ही कोंकण, सौराष्ट्र और तमिलनाडु तक अपनी संस्कृति का विस्तार कर लिया था ।
निम्न पुरापाषाणकालीन संस्कृति के मानव द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रस्तर उपकरण उपयोग में लाए जाते थे जो संभावित किए जाने वाले कार्य के आधार पर नामित किए गए हैं, जिनके प्रमुख नाम निम्न है: हस्तकुठार – यह अण्डाकार उपकरण होता है तथा इसको बारीक तराशा जाता था तथा यह तराश का कार्य दोनों धरातलों पर पाया जाता है ।
विदलक – निम्न पुरापाषाणकालीन कुल्हाड़ी के आकार का उपकरण जिसका प्रयोग लकड़ी आदि के टुकड़े काटने के लिए किया जाता था |
कुट्टव्यक – गुटिका पर बना एक धरातल से तराश खुट्ठल धार वाला उपकरण (पानी के बहाव द्वारा पाषाण के घिसे टुकड़े को गुटिका कहा जाता है) । छोलनी – एक या अधिक धार वाले उपकरण जिनसे खुरचने का काम लिया जाता था । छिद्रक – लम्बी नोक वाले उपकरण (जिनको बांधने के लिए प्रयुक्त किया जाता था) |
नुकीले शीर्षक – तीखी नोक वाले तिकोने उपकरण शल्क अथवा चिप्पड़ छोटा टूटा पाषाण खण्ड निम्न पुरापाषाणकाल के सर्वाधिक प्रमुख उपकरण हस्तकुठार उपकरण थे जो संपूर्ण प्रायद्वीपीय भारत में पाए जाते हैं। ये उपकरण विभिन्न आकारों में उपलब्ध हुए हैं तथा इनको लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई के आधार पर विभाजित किया जा सकता है । इन उपकरणों को प्रकार विन्यास के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम वर्ग के अन्तर्गत अनगढ़ अथवा अपरिष्कृत प्रकार से निकाले गए लगते है क्योंकि इन उपकरणों की सतह पर अनियमित गर्त या निशान दिखाई देते हैं तथा इनका आकार अत्यंत मोटा व अनियमित है जबकि दूसरे वर्ग के हस्तकुठार की सतह चिकनी व समतल है । ऐसा प्रतीत होता है कि इन उपकरणों को निर्मित करते समय खण्डक (पाषाण खण्ड जिसमें से तराश कर चिप्पड़ प्राप्त किए जाते हैं) से चिप्पड नियंत्रित विधि से निकाले गए हैं ।
निम्न पुरापाषाण कालीन संस्कृति के समग्र अध्ययन हेतु इसे भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया है ।
प्रमुख क्षेत्र हैं: शिवालिक – सोहन घाटी के हिमायनो तथा प्रागेतिहासिक पुरावशेषो के लिए विख्यात | पश्चिमी क्षेत्र – राजस्थान तथा गुजरात प्रान्त के पुरावशेष | राजस्थान में मारवाड तथा मेवाड़
विशेष रूप से, राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र में बूनी तथा मेवाड़ क्षेत्र में बेराच, बामन, गम्भीरी, कादमली और बनास नदियों का क्षेत्रगुजरात में सावरमती,माही तथा ओरसंग का क्षेत्र । दक्षिण का – पश्चिमी महाराष्ट्र तथा कर्नाटक का क्षेत्र, गोदावरी, प्रवरा, कष्णा, तुंगभद्रा पठारी क्षेत्र – नदियों का विस्तृत क्षेत्र । दक्षिण क्षेत्र – तमिलनाडू तथा आंध्र प्रदेश विशेषतया पठारी क्षेत्र | मध्य क्षेत्र – मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश का दक्षिणी पठारी भाग, नर्मदा एवंताप्ती, चम्बल, महानदी, टोस, केन, पयसवनी आदि नदियों का क्षेत्र | पूर्वी क्षेत्र – पूर्वी बिहार, पश्चिमी बंगाल तथा उड़ीसा का क्षेत्र, गंगा, घाघरा, गंडक, कोसी आदि का क्षेत्र । भारत में निम्न पुरापाषाण काल में मानव प्रवास के प्रमाण अपवादों को छोड़ कर देश के अधिकांश भागो में प्राप्त होते है | आरम्भिक पुराविदो के अनुसार पुरापाषाणिक संस्कृति के उपकरणों के दो स्थूल विभाजन किए गए है-अर्थात उन्हें चापर चापीग पेबुल उपकरण तथा हेण्ड एक्स उपकरणों के अनुसार सांस्कृतिक स्वरूप प्रदान किया गया है । समप्रति अन्वेषणो के अनुसार उक्त विभाजन सारगर्भित प्रतीत नहीं होता ।
2.3.2 मध्यपुराषाण कालीन संस्कृतियाँ
पुरापाषाण कालीन संस्कृति की इस अवस्था को फलक ब्लेड स्क्रेपर संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि अधिकांश उपकरणों का निर्माण फलक-ब्लेड पर हुआ है । एचडी. सांकलिया द्वारा 1954 में प्रवरा (महाराष्ट्र) में नेवासा नामक स्थान से प्रथम बार इस संस्कृति के अवशेषों को खोजा गया था ।सांकलिया ने यहां से प्राप्त फलकों द्वारा निर्मित उपकरणों को द्वितीय सिरीज और के.डी. बनर्जी ने नेवासियन कहा है । सांकलिया को नेवासा से नुकीलेगीर्शक छोलनी जैसे उपकरण मिले थे जो चिप्पड़ पर बने थे तथा इन पाषाण उपकरणों को बनाने में सिलिका युक्त प्रस्तरों जैसे चर्ट, चेल्सीडोनी, अगेट तथा जेस्पर से बनाया गया था । गत वर्षों में की गयी अनेक खोजों से अब यह ज्ञात हो गया है कि मध्य पुरापाषाण कालीन संस्कृति महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु उड़ीसा, बिहार, उतर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा गुजरात के अलावा केरल, मेघालय, पंजाब और कश्मीर के भागों में भी आंशिक रूप से छोटे-छोटे स्थलों में विद्यमान थी | अभी तक कृष्णा और गोदावरी नदियों के मुहानों में और संभवत: तमिलनाडु के दक्षिणी भूभाग में इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं ।
महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश से प्राप्त मध्यकालीन पुरापाषाण कालीन संस्कृति के अवशेषों के आधार पर यह प्रकाश में आया है कि इस काल में निम्न पुरापाषाण काल की तुलना में जनसंख्या में वृद्धि हो गयी थी । अब तक उपलब्ध मध्यपुरापाषाण कालीन संस्कृति के स्थलों को निम्न तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –
(1) गढ़न स्थल (2) शैलगृह (3) नदी की घाटियों में स्थित स्थल इस संस्कृति के गढ़न स्थल निम्न पुरापाषाणकाल की तुलना में कम प्राप्त हुए हैं । अभी तक हुई खोजों के आधार पर अभी तक इस अवस्था में 9 गढ़न स्थल उत्तर प्रदेश की बेलन घाटी के समीपवर्ती पर्वत ढलानों से ही प्रकाश में आए हैं । इसके अलावा भीम बैठका से भी इस अवस्था के गढ़न स्थल प्रकाश में आए हैं ।
मध्यपुरापाषाण काल का दूसरा वर्ग शैलगृह हैं, इसके प्रमाण भी निम्न पुरा पाषाण की तुलना में कम ही है । शैलगृहों के स्थल भीम बैठका व आदमगढ़ से प्रमुख रूप से प्राप्त होते है जो ठीक निम्न पुरापाषाणकाल के ऊपर है । इसके अवलोकन से यह आभास होता हैं कि निम्न पुरापाषाणकालीन एशूलियन परम्परा से ही मध्य पुरापाषाणकाल का विकास हुआ होगा। इस संस्कृति का तीसरा वर्ग नदी घाटियों में स्थित स्थल हैं । इस वर्ग के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश की बेलन घाटी से उपलब्ध प्रमाण अधिक उल्लेखनीय है । बेलन घाटी से तीन वर्ग के मध्य पुरापाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं । इन तीन वर्गों में सबसे निचले स्तर में प्राप्त उपकरण मुख्यत: क्वार्टजाईट से बनाए गए हैं, जबकि मध्य वर्ग के उपकरण क्वार्टजाईट व चर्ट से भी निर्मित हैं और तीसरे वर्ग के उपकरण केवल चर्ट से ही निर्मित किए गए हैं । इन उपकरणों की एक विशेषता इनका निम्न पुरापाषाणकालीन उपकरणों से आकार में छोटा होना है । इस सांस्कृतिक अवस्था के मुख्य उपकरण हैं जिनमें अनेक आकारों वाली धार बनाई गयी है जैसे सीधी, घुमावदार, खांचेदार व आरीदार । इसके अलावा मध्यपुरापाषाणकालीन मानव द्वारा पोईन्ट और बोर भी बनाए गए थे । इस अवस्था का सर्वाधिक उल्लेखनीय उपकरण चिप्पड़ से बनाया गया चाकू है ।
मध्यपुरापाषाण काल को उत्तर प्रतिनूतन काल की संस्कृति माना जाता है । इस अवस्था को 17000 से 39000 वर्ष पूर्व की अवधि की संस्कृति माना जाता है । पैठान से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि संभवत: इस संस्कृति का जन्म 40,000 वर्ष पूर्व ही हो गया था । इस संस्कृति के संदर्भ में सम्पन्न हुई खोजों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस काल का मानव प्राकृतिक गुफाओं में निवास करने के अलावा जानवरों के चमड़ों के तम्बुओं का भी निर्माण करने लगा था तथा संभवत: वह जादू-टोने आदि का भी ज्ञान रखता था |
2.3.3 उच्च पुरा पाषाण कालीन संस्कृतियाँ
वर्तमान में अभी तक संपन्न हुई खोजों के पश्चात यह माना जाता है कि यूरोप और पश्चिम एशिया में उच्च पुरापाषाण काल का प्रारंभ अंतिम हिम युग के उत्तरार्ध में वर्तमान से लगभग 40,000 वर्ष पूर्व हुआ था तथा संस्कृति की इस अवस्था में मानव का बहुत तीव्र गति से तकनीकी विकास हुआ था तथा उसमें कल्पना शक्ति और कलात्मक चेतना की भी अभिवृद्धि हुई । उच्च पुरापाषाण काल की भारतीय उपमहाद्वीप में खोज का श्रेय प्रो. गोवर्धन राय शर्मा को प्रदान किया जाता है। उन्होंने सर्वप्रथम बेलन घाटी का सर्वेक्षण कर पुरापाषाण काल की इस अवस्था को प्रकाश में लाने का कार्य किया था। प्रो. शर्मा की खोज से पूर्व पुरातत्ववेत्ता यह मत बना चुके थे कि भारतीय उपमहाद्वीप में उच्च पुरापाषाण युग का अस्तित्व ही नहीं था |
प्रो. शर्मा को मिर्जापुर और इलाहाबाद जिले में स्थित बेलन नदो की घाटी में छुरीफल पर बने हुए उपकरण पुरातात्विक खोज के पश्चात प्राप्त हुए थे । ब्लेड अथवा छुरीफल समानान्तर धारों वाले लम्बे व संकरे चिप्पड़ को कहा जाता है । गत दशकों में अनेक पुरातत्ववेताओं के प्रयासों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में उच्च पुरापाषाणकाल गुजरात और राजस्थान के रेत के टूहों से लेकर पर्वतीय क्षेत्रों की गुफाओं और मध्य भारत तथा आंध्र प्रदेश के घने जंगलों तक विस्तार पाए हुए था तथा उच्च पुरापाषाणकालीन मानव चिप्पड़ पर निर्मित छुरीफल तथा छुरीफलएवं तक्षणी तथा केवल छुरी जैसे पाषाण उपकरण निर्मित करने लगा था । ब्यूरिन तथा तक्षणी एक छोटी विषेश धार वाला उपकरण होता है जो कुरेदने के काम में लाया जाता है । इस काल में चिप्पड़ पर बने छुरीफल इस तथ्य को प्रदर्शित करते हैं कि उच्च पुरापाषाणकालीन मानव में छुरी बनाने की तकनीक विकसित कर ली थी लेकिन अभी तक वह पूर्ण रूप से छुरीफल और तक्षणी को कुशलता से निर्मित करना नहीं सीख पाया था एवं अभी भी वह दोलनी, नुकीले शीर्षक ही प्रधानता से प्रयुक्त कर रहा था । ऐसे अनेक स्थल बिहार के धेकूला, प्रतापपुर तथा मरवनिया से प्राप्त हुए है । यह सभी स्थान सिंहभूम क्षेत्र में पाए गए है । इस अवस्था के उपकरणों के अनेक प्रमाण मध्य प्रदेश के महेश्वर से भी प्राप्त हुए हैं ।
उच्च पुरापाषाण काल के मानव द्वारा निर्मित छुरीफलों में बृहदाकार तथा लघु दोनों आकार के छुरीफल बनाए गए, इसके अलावा वह तक्षणी दोलनी, नुकीले शीर्षक तथा सुआ बनाना भी सीख गया था । इस काल के मानव ने अपने उपकरणों को बनाने में चर्ट, जेस्पर, अगेट तथा चेल्सीडेनी पाषाण खण्डों का ही प्रयुक्त किया था, यद्यपि यदाकदा उसने क्वार्टजाइट तथा क्वार्टज को भी पाषाण उपकरण निर्मित करने में प्रयोग किया था | पुरातात्विक सर्वेक्षणों एवं उत्खननों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं की यह धारणा निर्मित हुई है कि छुरी बनाने के लिए इस अवस्था के मानव द्वारा बूढा पुष्कर में टिजाइट और क्वार्टज को प्रयुक्त किया गया था तथा गुजरात के विसांडी से प्राप्त प्रमाणों से यह भी ज्ञात होता है कि उच्च पुरापाषाणकालीन मानव द्वारा क्वार्टज प्रस्तर को छुरी और तक्षणी बनाने में भी प्रयुक्त किया गया था ।
उच्च पुरापाषाणकालीन खोजों की दृष्टि से आर. वी. फ्रूट तथा एच. बी. फ्रूट का कुरनूल जिले के बिल्ला सुरगम गुफाओं में किया गया कार्य अत्यंत महत्व का है | फ्रूट ने 1885 में इस अवस्था के अनेक अस्थि उपकरण खोजे थे तथा उन्होंने इनकी तुलना फ्रांस के मेग्डालिनियन नामक स्थान से प्राप्त उपकरणों से की थी । अभी कुछ दशक पूर्व मुच्छट्ला चिंतामणी गावी नामक स्थान में किए उत्खनन से भी अस्थि उपकरणों के प्रमाण प्रकाश में आए हैं जिनके साथ प्रस्तर उपकरण भी मिले हैं । इन अस्थि उपकरणों में दोलनी, छिद्रक, छेनी, बेलचा, तीर आदि प्रमुख है । उच्च पुरापाषाण कालीन तकनीक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समयार्श्व पाषाण खण्ड से छरीफल का निर्माण करना था ।
अभी तक संपन्न हुई खोजों से भारत में ऐसा कोई पुराविशेष नहीं प्राप्त हुआ है जिससे तत्कालीन मानव की कलात्मक अभिरूचि परिलक्षित हो सकती है | केवल एक शुतुरमुर्ग के अण्डे का छिलका जिस पर आड़ी तिरछी रेखाओं जैसी संरचना बनाई गयी है, कलात्मक अभिरूचि का ज्ञान कराता है । इसके अलावा बेलन घाटी से अस्थि पर बनी आकृति प्राप्त हुई है जिसे संदिग्ध रूप से मातृदेवी माना गया है | बेलन, पाटने, तथा बड़ा पुष्कर से तत्कालीन पर्यावरण की जानकारी अवश्य प्राप्त होती है । पुरापर्यावरणविदों के अनुसार इस काल में संभवत: नदियों के पानी का स्तर एक ही गति से वर्ष पर्यन्त प्रवाहित होता था । इसके अलावा उच्च पुरा पाषाण कालीन जीव जन्तुओं के जो प्रमाण कुरनूल से मिले हैं उसके अन्तर्गत अनेक स्तनपायी प्रजाति के पशुओं जैसे गेंडा, नीलगाय, चिंकारा, काले नर खरगोश, चार सींग वाला हिरण, सांभर तथा चीतल आदि के अवशेष प्रमुख है । इसके आधार पर य ह अनुमान किया जा सकता है कि इस समय पशु जीवन अत्यंत समृद्ध था तथा घने आच्छादित वन थे तथा हरे भरे घास वाले मैदानों की प्रचुरता थी | यह उसी अवस्था में संभव हो सकता था जब नदी नालों में पर्याप्त पानी की मात्रा बनी रहती हो । इस आधार पर इस काल के पर्यावरण को पर्याप्त नमीयुक्त माना जा सकता है | विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता इस काल को 18000 से 22000 की अवधि के मध्य निर्धारित करते है ।
उच्च पुरापाषाण कालीन संस्कृति को समझने की दृष्टि से बागौर प्रथम से प्राप्त प्रमाण चौंकाने वाले हैं । यहां से लघु आकृति वाले खण्डित पाषाण के टुकड़ों का एक चबूतरा प्राप्त हुआ है जिसका व्यास 85 सेमी. है । इसके समीप से ही एक प्राकृतिक प्रस्तर खण्ड भी प्राप्त हुआ जो 15 सेमी. ऊँचा, 65 सेमी. चौड़ा और समान मोटाई का है । इसके समीपवर्ती भूभाग में चर्ट के पुरावशेष प्राप्त हुए है जो उच्च पुरापाषाणकालीन आखेटक और संग्राहक के आवास की पुष्टि करते है।
उच्च पुरापाषाण काल पर किए गए शोधकार्यों से यह स्पष्ट होता है कि इस काल का मानव जल के निकट निवास करता था क्योंकि इस अवस्था के सभी पुरास्थल प्राकृतिक जल स्त्रोतों के निकट थे तथा वृक्षों की जड़े और कंद आदि उसका मुख्य भोजन थे । दिलीप चक्रवर्ती के शब्दों में पुरापाषाणकालीन मानव वास्तविकता में भारतीय स्थल प्रकृति के प्रथम खोजकर्ता थे।
2.4 भारत की मध्यपाषाणकालीन संस्कृतियाँ
मध्य पाषाणकालीन संस्कृति, पाषाणकाल के अन्तर्गत उस अवस्था की द्योतक है जब मानव ने लघु आकार के प्रस्तर उपकरणों का निर्माण करना प्रारंभ कर दिया था | भारतीय उपमहाद्वीप में लघु पाषाण उपकरणों वाली इस संस्कृति की खोज सर्वप्रथम एसी एल कार्लाईल ने 1867-68 में की थी | कार्लाईल के पश्चात् ब्रूस, फ्रूट, ए.एल.का मियाडे ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया । उन्होंने उत्तरी गुजरात का विधिवत सर्वेक्षण किया । मध्यपाषाण काल का प्रारंभ प्रतिनूतन काल के समापन व नूतन काल के प्रारंभ से जुड़ा हुआ है । ऐसा माना जाता है कि आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व, पृथ्वी की उत्पति के चतुर्थ चरण का अंतिम युग, नूतन युग प्रारंभ हुआ। आज हम इसी युग में है । इस संदर्भ में यह भी मान्यता है कि तब से आज तक पृथ्वी के स्थल में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुए हैं जिस कारण से मध्यपाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष पर्याप्त संख्या में काफी सुरक्षित रूप से प्राप्त होते हैं । इस कारण भी मध्यपाषाण काल के अनेक स्थल प्रकाश में आए हैं और उनका उत्खनन भी संभव हो सका है । इस काल का महत्व इस दृष्टि से अधिक बढ़ जाता है क्योंकि इस काल की हमारे पास 24 कार्बन तिथियां उपलब्ध है जो छ: स्थानों से प्राप्त हुई है ।
इस काल के लघु पाषाण उपकरण अपनी 1 से 5 सेमी. की विशिष्ट आकृति के कारण सुगमता से पहचाने जा सकते हैं जो समानांतर पार्श्व वाले फलक हैं । इनको चर्ट, चेल्सीडोनी, क्रिस्टल, जेस्पर व अगेट से बनाया गया है | इस काल पर अभी तक किए गए पुरातात्विक शोध से एक तथ्य स्पष्ट होता है कि भारत में पाषाण संस्कृति की यह अवस्था गंगा के मैदानी भूभाग, आसाम और पश्चिमी समुद्री तट को छोड़कर संपूर्ण भारत में समान रूप से फैली हुई थी तथा गुजरात के मैदानों, मारवाड़ और मेवाड़ में इस अवस्था के पुरास्थलों का घनत्व अधिक था । मध्यपाषाण काल के संबंध में यह मान्यता भविष्य में किए जाने वाले शोधकार्यों से परिवर्तित भी हो सकती है । उदाहरण के लिए गत वर्षों में गोदावरी और महानदी के बीच के भूभाग में जो मध्यपाषाण की दृष्टि से रिक्त माना जाता था, इस सांस्कृतिक अवस्था के सौ से अधिक स्थान प्रकाश में आए हैं ।
मध्यपाषाणकालीन संस्कृति को अध्ययन की दृष्टि से अधोलिखित भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है
1. गुजरात और मारवाड़ के रेत के थूहे – इनमें गुजरात में वह रेत के थूहे, जहां से मध्यपाषाणकालीन संस्कृति के स्थल प्राप्त हुए है उथले पानी के सरोवर के निकट हैं जिनसे तत्कालीन मानव को सुगमता से भोजन उपलब्ध हो जाता था। जबकि मारवाड़ में
ऐसे रेत के थूहे वर्षपर्यन्त पानी की उपलब्धता वाले सरोवरों के निकट है । 2. शैलाश्रय – जैसा कि हम जानते हैं कि विध्य, सतपुड़ा और कैमुर के पर्वत शैल गुहा की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं । मध्यपाषाणकालीन मानव ने इन शैल गुहाओं को अपना आवास बनाया जिसके प्रमाण, भीम बैठका, आदमगढ़ से प्राप्त हुए है। 3. जलोड़ मैदान – नदियों से बहाकर लाई गई मिट्टी रेत से बनी भूमि आदि काल से मानव के आकर्षण का केन्द्र रही है । अत: ऐसे स्थलों को भी तत्कालीन मानव ने अपने आवास के उपयुक्त समहुआ और आवास स्थल बनाए |
4. चट्टानी मैदान – राजस्थान के मेवाड़ के चट्टानी मैदान भी मध्यपाषाण कालीन मानव को रूचिकर प्रतीत हुए थे तथा उन्होंने इन स्थानों पर भी अपने आवास स्थल बनाए । तत्कालीन मानव के आवास स्थल मेवाड़ के चट्टानी मैदानों के अलावा दक्खन के पठार में भी प्रकाश में आए है ।
5. सरोवरों के तट – गंगा घाटी में विशेषकर नदियों के मार्ग परिवर्तित करने के कारण निर्मित सरोवरों के तटों पर भी मध्यपाषाण कालीन स्थल प्रकाश में आए है ।
6. समुद्रतटीय पर्यावरण – तिरुनेवेली से समुद्रतट के निकट भी मध्यपाषाणकालीन स्थल प्रकाश में आए हैं |
पुरापर्यावरणविदों द्वारा की गई खोजों के आधार पर अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मध्यपाषाणकाल में पश्चिम भारत की जलवायु अपेक्षाकृत अधिक नमीयुक्त थी तथा यह तत्कालीन मानव के अनुकूल थी । राजस्थान में सांभर और डीडवाना की नमकीन झीलें, वर्तमान से 10000 वर्ष से 3500 वर्ष की अवधि में मीठे पानी की झीलें थी। इसके अलावा बागोर, तिलवाड़ा तथा लंघनाज से भेड़, मृगछौना, चीतल और नीलगाय जैसे पशुओं के अवशेषों के आधार सर यह कहा जा सकता है कि मध्यपाषाण काल में इस भू भाग में कांटेदार वृक्षों की बहुतायात थी।
मध्यपाषाण कालीन संस्कृति के निवासी अत्यंत लघु समानान्तर पार्श्व वाले पाषाण फलक बनाते थे | इनका उत्पादन विस्तृत पैमाने पर किया जाता था | इन समानांतर पार्श्व वाले फलकों को फिर तराश जाता था और तराश करके भोथरे आधार वाले फलक, तिरछा काटकर छोटा किनारे वाले फलक, नुकीले शीर्षक, त्रिकोण व अर्धचन्द्राकार पाषाण उपकरण बनाए जाते थे । भारत में अभी तक किसी भी पुरास्थान से हत्थे के प्रमाण नहीं मिले हैं लेकिन विश्व के अन्य भागों से अस्थि अथवा लकड़ी के बने हत्थों के प्राप्त होने के आधार पर यह कहा जा सकता हैं कि इन लघु पाषाण उपकरणों को गोंद अथवा रेजीन की सहायता से चिपका कर मध्यपाषाणकालीन मानव बाण, भाले, चाकू व दरांती जैसे उपकरण निर्मित करना सीख गया था।
मध्यपाषाण कालीन संस्कृति के किसी भी स्थल से अभी तक वनस्पति के प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं लेकिन तिलवाड़ा बागोर और भीमबैठका से उथले सिलबट्टों का प्राप्त होना इस ओर संकेत करता है कि तत्कालीन मानव विभिन्न वनस्पतियों को भोजन की भांति प्रयुक्त करता था | इस काल के मानव के जीविकोपार्जन के संबंध में जानकारी का स्रोत पशुओं के अवशेष है । बागोर से पशुओं के अवशेष सर्वाधिक प्रचुर संख्या में प्राप्त हुए हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये मांस को भूनकर खाते थे । बागोर से प्राप्त अस्थियां खण्डित व चीरी हुई प्राप्त हुई है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि तत्कालीन मानव को मज्जा के महत्व का ज्ञान हो गया था । इसके अलावा इस संस्कृति का मानव पशु पालने भी लगा था ।
मध्यपाषाणकालीन मानव ने मृतकों को दफनाना सीख लिया था तथा वे आवास स्थल पर मृतक को दफनाते थे, ऐसे प्रमाण सराय नाहरराय तथा बागोर से प्राप्त हुए हैं । मृतक के साथ रखी गयी विभिन्न जीविकोपार्जन की वस्तुओं को रखना इस ओर इंगित करता है कि इनका मृत्यु पश्चात जीवन में विश्वास था ।
2.4.1 मध्यपाषाण कालीन कला
मध्यपाषाणकालीन कला की खोज सर्वप्रथम ए. सी. एल. कार्लाईल ने पूर्वी विंध्य में की । भारत में मध्यपाषाणकालीन कला का खजाना भीम बैठका है जो भोपाल से 45 किमी. दक्षिण पश्चिम में स्थित है । भीम बैठका में लगभग दस ऐसे स्थल खोजे गए हैं जिनमें 642 शैलाश्रय हैं तथा जिनमें से 55 प्रतिशत पर चित्र निर्मित किए गए हैं । भीम बैठका के अलावा इस संस्कृति अवस्था की कला के प्रमाण रेयासेन पंचमढी, मिर्जापुर व राबर्टस गंज से प्राप्त हुए है । इन सभी चित्रों की आभा लोहित, जामुनी, भूरी व नारंगी है । यह चित्र मुख्यत: रेखा प्रधान हैं । इनके मुख्य विषय वस्तु जंगली पशुओं से सम्बद्ध है जिसमें गाय भैंस, हाथी, चीता, जंगली, सूअर, सांभर, चीतल, नील गाय, चिंकारा, लोमड़ी, सियार, कुत्ता, साही, चूहा आदि प्रमुख है । जानवरों को विभिन्न मुद्राओं में जैसे खड़े हुए चलते हुए तथा चरते हुए चित्रित किया गया है । इसके अलावा मानव आकृतियों का चित्रण सांकेतिक है क्योंकि विभिन्न दृश्यों में उनकी उपस्थिति रेखाओं व बिंदुओं की संयोजना से अंकित की गयी है । इन चित्रों में मानव चित्र पशुओं की तुलना में कम सशक्त है
मध्यपाषाणकाल मानव ने चित्रण करते समय सर्वाधिक महत्व आखेट के दृश्यों को प्रदान किया है । आखेट के इन दृश्यों में एक ही पशु या पशु समूहों का शिकार मानव समूहों द्वारा दर्शाया गया है । आखेट के अलावा तत्कालीन मानव में स्त्री-पुरुषों के समूह द्वारा नृत्य करने, दौड़ने तथा खाद्य सामग्री को एकत्र करने के दृश्यों को भी चित्रित किया है । इन चित्रों के माध्यम से तत्कालीन मानव की दिनचर्या व उसके व्यवहार को समझने में सहायता प्राप्त होती
2.5 भारत की नवपाषाणकालीन संस्कृतियाँ
गत पांच दशकों में अनुभव एवं प्रयोग पर आधारित ज्ञान के आधार पर, जो नवपाषाण कालीन पुरावशेषों के विश्लेषण पर किया गया है, यह कहा जा सकता है कि संस्कृति के प्रारंभिक चरण में आखेटक तथा आहार संग्राहक अवस्था से मानव समुदाय क्यों और कैसे आहार उत्पादक बना । इस दृष्टि से ब्रेडवुड और होम द्वारा किया गया कार्य अत्यंत महत्व का है । इन्होंने अपने अध्ययन के पश्चात यह मत प्रतिपादित किया कि आखेटक और आहार संग्राहक से आहार उत्पादक होने की अवस्था मानव समुदायों में सांस्कृतिक भेद एवं विशेषज्ञता की परकाष्ठा पर पहुंचने का परिणाम थी । इस परिकल्पना को आधार बना कर अभी तक जो अध्ययन किए गए हैं उनसे यह स्पष्ट होता है कि संभवत: अधोलिखित कारणों ने तत्कालीन मानव समुदायों को कृषक अथवा आहार उत्पादक होने की ओर प्रेरित किया होगा – (1) इस अवस्था में जनसंख्या में काफी वृद्धि हुई थी । इस बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण संभवत एक स्थान पर निवास करने की बाध्यता आवश्यक हो गयी थी । (2) नव पाषाण काल तक आते-आते नूतन काल की सौम्य जलवायु प्रारंभ हो गयी थी । इसके परिणामस्वरूप वर्तमान वार्षिक ऋतु चक्रों की श्रृंखला प्रारंभ होने के कारण भी जीवन में स्थायित्व आया होगा । (3) इस काल में विशिष्ट प्रकार की ऐसी तकनीक का विकास हुआ जिससे प्राकृतिक संपदा का दोहन अधिक सुगमता से संपन्न हो सकता था । अत: यह कहा जा सकता है कि नवपाषाण काल में दो प्रमुख परिवर्तन व्यापक रूप से हुए | इनमें से प्रथम परिवर्तन अर्थव्यवस्था की दृष्टि से महत्वपूर्ण था तो द्वितीय परिवर्तन तकनीक पर आधारित उपलब्धि थी । इस काल में विभिन्न मानव समुदायों ने प्राकृतिक रूप से उपलब्ध खाद्यान्न जैसे अनाज की खेती तथा जंगली पशुओं को पालने की प्रथा प्रारंभ हुई । सामान्यत यह माना जाता है कि नवपाषाण काल में छ: प्रकार की वानस्पतिक तथा पाशविक जातियां थी जिनका प्रारंभ में चयन किया गया । ये जातियां गेहूं, जौ, बकरी, सूअर, और मवेशी थे । मानव ने इन छ: को जंगली अवस्था से अलग कर कृत्रिम परिवेश में जीवित रखा और उनका उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया और इस प्रयोग में वह सफल रहा और इस तरीके से मानव के जीवन में स्थायित्व आवश्यक हो गया और वह आहार उत्पादक बन गया ।
नवपाषाण काल में पशुओं का पालतूकरण कैसे हुआ होगा इसका भी पुराविदों ने अध्ययन कर कुछ निष्कर्ष निकाले है जो निम्न है – (1) मानव और पशु जगत के मध्य अस्थायी संपर्क (2) पालतू बनाने के लिए बंधक बनाना (3) चयनात्मक नस्ल ही केवल उत्पन्न होने देना (4) प्रारंभिक अवस्था का पालतुकरण (5) नस्लों का नियोजित विकास तथा (6) जंगली प्रजातियों का क्रमिक विनाश । इसी प्रकार से संस्कृति की इस अवस्था में वनस्पतियों का भी क्रमिक चयन किया गया और उन्हें मानव उपयोगी बनाया गया ।
मानव के एक स्थान पर ही आवासन ने उसके लिए यह आवश्यक बना दिया कि वह ऐसीतकनीक को भी विकसित करे जो उसके चारों ओर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग कर सके | इस दृष्टि से खेती प्रारंभ करने से पूर्व यह आवश्यक हो गया कि नवपाषाणकालीन उन उपकरणों का विकास करे जो विभिन्न प्रकार की जैसे दोमट और जलोड़ मिट्टी पर कार्य कर सकने में सक्षम हो । इन सभी दृष्टियों को आधार बनाते हुए भारत में नवपाषाण कालीन सांस्कृतिक चरण को अधोलिखित क्षेत्रों में विभाजित किया गया है – (अ) पाकिस्तान – यहां पाकिस्तान को इन्डो-पाक उपमहाद्वीप के रूप में लिया गया है जिसके अन्तर्गत बलुचिस्तान, स्वात और ऊपरी सिंध घाटी का समीपवर्ती क्षेत्र सम्मिलित किया जाता हैं। उत्तरी पश्चिमी भूभाग के अन्तर्गत कश्मीर भी सम्मिलित है । पूर्वी भाग इसके अन्तर्गत आसाम, चिटगांव तथा दार्जिलिंग सहित उप हिमालयी क्षेत्र आते है। छोटा नागपुर का पठार तथा उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल के मैदान मध्यपूर्व के अन्तर्गत बिहार का सरन जिला | (र) प्रायद्वीपीय भारत ।
उपर्युक्त भौगोलिक क्षेत्रों के अलावा इलाहाबाद जिले का कोल्डीहवा, जो बेलन नदी के किनारे पर स्थित है नवपाषाण कालीन सांस्कृतिक विशिष्टताओं का एक अन्य महत्वपूर्ण भूभाग है । गत वर्षों में गुजरात के लंघनाज से प्राप्त प्रमाण इस तथ्य की ओर इंगित करते है कि भविष्य में गुजरात और राजस्थान में भी नवीन शोध होने पर नवपाषाण कालीन संस्कृतियों के स्थल खोजे जा सकते हैं ।
नवपाषाण काल में आहार संग्राहक से आहार उत्पादक अवस्था में विकास कैसे संपन्न हुआ इसका सबसे अच्छा प्रमाण बुर्जहोम (कश्मीर) से प्राप्त हुआ है । बुर्जहोम कश्मीर में नवपाषाण काल की दो अवस्थाओं का निर्धारण पुरातत्ववेताओं द्वारा किया गया है । यहां से प्राप्त अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रथम अवस्था के निवासी आहार संग्रहण और मछली पकड़ने के साधनों पर निर्भर थे । उसी प्रकार इस अवस्था के अन्तर्गत प्राप्त पाषाण निर्मित कुल्हाड़ी, बसूला, फली (अंग्रेजी के वी आकार का धातु का टुकड़ा जो लकड़ी फाड़ने के कार्य में आता है) तथा बरमा आदि का प्राप्त होना उनकी जीवन पद्धति को समझने में सहायक होते हैं | बुर्जहोम की प्रथम अवस्था के नवपाषाणकालीन मानव समुदाय पृथ्वी के अंदर गर्त निर्मित कर निवास करते थे । यह पूर्णरूप से हस्तनिर्मित मृगाण्ड प्रयोग में लाते थे, इनके मृद्भाण्डों की भीतरी ओर चटाई के चिन्ह प्राप्त हुए हैं । इस अवस्था से प्राप्त अन्य अवशेषों से यह भी ज्ञात होता है कि यह अधिकतर हिरण का शिकार करते थे ।
बुर्जहोम की नवपाषाण काल की द्वितीय अवस्था से छिद्रित पाषाण छल्ले (जो संभवत: गदाशीर्ष के रूप में प्रयोग किए जाते थे) चौड़ी धार वाले घर्षित पाषाण उपकरण का प्राप्त होना यह संभावना व्यक्त करते हैं कि इस अवस्था के निवासी वनस्पतियों की प्रारंभिक खेती में किसी न किसी प्रकार से संलग्न थे । इस अवस्था में दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन यह आया कि अब नवपाषाण कालीन मानव पृथ्वी के ऊपर आवास निर्मित करने लगा था । इस अवस्था में चाक का भी ज्ञान तत्कालीन मानव को हो गया था और वह अब चाक से मृदभाण्ड निर्मित करने लगा था, इसके अलावा धातु का ज्ञान भी उसको हो गया था, यद्यपि शिकार और मछली पकड़ने का कार्य भी उसके जीवनयापन का अंग बने हुए थे ।
संक्षेप में नवपाषाण काल की प्रमुख विशिष्टताओं को अधोलिखित बिंदुओं के द्वारा चिन्हित किया जा सकता है –
(1) नवपाषाणाकाल में पॉलिश की गयी कुल्हाडियों का निर्मित होना इस काल की एक प्रमुख विशिष्टता है । इस पॉलिश अथवा घिसने की प्रक्रिया में अनेक बार उपकरणों की सतह चिकनी होने के साथ चमकदार भी हो जाती थी । ये कुल्हाड़ियां चौडीधार वाली लगभग तिकोनी होती थी तथा इनके दोनो किनारे मोटे, धार तीक्ष्ण व मूठ भारी होती थी (2) भारत में गुफकराल (कश्मीर) के अलावा नवपाषाण काल में मृदाण्डों का अस्तित्व लगभग सभी नवप्रस्तर कालीन स्थलों से प्राप्त होता है । यह केवल मृदभाण्ड निर्मित करना सीखे ही नहीं थे अपितु पात्रों की उपयोगिता के साथ ही यह उनको अलंकृत भी करने लगे थे । इन मृद्भाण्डों का प्रयोग मुख्यत: खाना पकाने व खाने हेतु किया जाता था क्योंकि उत्खनन के दौरान प्राप्त मृदाण्डों में मुख्यत: कटोरा, तवा तथा हांडिया प्रमुख रूप से मिली हैं । नवपाषाण काल में डोरे की छाप वाले मृदभाण्ड़ों का प्राप्त होना इस काल की एक विशिष्टता है । ऐसे पात्र उत्तरप्रदेश, बिहार व आसाम से मुख्य रूप से प्राप्त हुए हैं । इसी तरह से खुरदरी सतह वाले मृदभाण्ड भी नवपाषाण काल की एक विशिष्ट पहचान है, इस वर्ग के अन्तर्गत सादे कटोरे, टोंटीदार कटोरे, मर्तबान प्रमुख रूप से मिलते हैं । इस प्रकार के मृदभांड उत्तर प्रदेश के गांगेय व दक्षिण के पठारी भाग से प्रमुखता से मिलते हैं । नवपाषाण काल में मार्जिन लोहित मृदभाण्ड भी प्राप्त हुए हैं । इसके अन्तर्गत टोंटीदार और सादे कटोरे, तथा हॉडी प्राप्त होते है | यह मृदभाण्ड कश्मीर घाटी, उत्तर प्रदेश व बिहार के मैदानी भाग तथा दक्षिण भारत से प्रमुखता से प्राप्त हुए
(3) आस्थि उपकरण भी नवपाषाणकाल की एक महत्वपूर्ण पहचान हैं जो कश्मीर की घाटी में तथा बिहार के मैदानी भाग में अधिक प्राप्त होते हैं । अस्थि उपकरणों में छेनी, नुकेले अस्त्र, सूइयों तथा मतस्य भाले प्रमुखता से प्राप्त हुए हैं |
(4) नवपाषाण का मानव पशुओं को पालतू बनाना भी सीख गया था, इसके प्रमाण मास्की, उतनूर, टी. नरसीपुर, संगनकल्लू, हल्लूर, कोडेकल तथा आदमगढ़ से प्राप्त हुए हैं । इन स्थलों से प्राप्त अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि इस काल के मानव ने गाय बैल, भेड़, बकरी को सामान्य रूप से पालना सीख लिया था । नवपाषाणकालीन स्थलों से प्राप्त अस्थि अवशेषों में 80 से 85 प्रतिशत अस्थियां गाय बैल की है जो इस ओर संकेत करती हैं कि पशु संसाधन का प्रबंधन उनकी अर्थव्यवस्था का प्रधान तत्व था । इस काल से चीरी हुई ओर जली हुई अस्थियों के अवशेषों का प्राप्त होना काफी महत्वपूर्ण है
जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मांस इनके भोजन का मुख्य अंश था ।
(5) नवप्रस्तर मानव ने संभवत: चावल, रागी व काले धान की खेती से परिचय कर लिया था और वह सागौन तथा खजूर से भी परिचित था । चिरांड से यह भी ज्ञात होता है कि नवपाषाण कालीन मानव को गेहूँ जो चावल व मसूर की दाल का भी ज्ञान हो गया ।
(6) भारत में अभी तक नवपाषाण काल पर जो भी शोध कार्य हुआ है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में नवपाषाणकालीन संस्कृति का कोई एक नाभिकीय क्षेत्र नहीं था जहां से इस संस्कृति का अन्य क्षेत्रों में विस्तार हुआ| भारत में नवपाषाण काल की जो तिथियाँ प्राप्त हुई है वे 2550-1400 ई. पू. तथा 1200 ई. के मध्य निर्धारित की गयी है | जबकि पाकिस्तान में यह तिथियां 3775-2250 ई. पू. के मध्य निर्धारित की गयी है |
(7) कश्मीर की बुर्जहोम घाटी से नवपाषाण कालीन शव क्रिया के संबंध में भी ज्ञान प्राप्त होता है जहां से मानवों और पशुओं दोनो के शवागार प्राप्त होते हैं । मानव शवागार आवास स्थल की फर्श को खोदकर ही बनाए गए हैं जो ऊपर से संकरे और आधार से चौड़े हैं । इन शवों के साथ राख, प्रस्तर के टुकड़े तथा मृदभाण्ड रखे गए हैं । शव के उत्तर पूर्व से दक्षिण-पूर्व दिशा में रखा गया है तथा शिशुओं के शव का पूर्व-पश्चिम मेंरखा गया है।
2.6 भारत की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ
जब किसी संस्कृति में ताँबे के उपकरणों के साथ ही पाषाण के बने हुए उपकरण भी मिलते है तो उस संस्कृति को ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति कहते है | भारत में विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति का उद्भव एवं विकास हुआ । अधिकांशत ये सभी संस्कृतियाँ ग्राम्य संस्कृतियाँ थी । अभी तक यह माना जाता था कि इन ताम्रपाषाणकालीन संस्कृतियों का उदय द्वितीय सहस्त्राब्दी ई. पू. में हुआ था लेकिन गत एक दशक में संपन्न हुई खोजों से अब यह सिद्ध हो गया है कि इनमें से कुछ ताम्रपाषाणकालीन संस्कृतियों का विकास तीसरी सहस्त्राब्दी ई.पू. में या इससे भी पहिले हो गया था, ऐसी एक प्रमुख संस्कृति राजस्थान के दक्षिण पूर्वी भू भाग में विस्तार पाए हुए भी थी जिसे आहाइ संस्कृति के नाम से जाना जाता है ।
अनेक पुरातत्ववेत्ताओं ने उत्खननों से प्राप्त उपलब्ध पुरावशेषों के आधार पर भारत की प्रमुख ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का अनुक्रम निम्न प्रकार से निर्धारित किया है –
1. कायथा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति
2. आहाड़ की ताम्रपाषाणिक संस्कृति
3. मालवा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति
4. जोर्वे की ताम्र पाषाणिक संस्कृति कायथा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति नर्मदा और उसकी सहायक ताप्ती एवं माही और यमुना की सहायक चम्बल तथा बेतवा द्वारा सिंचित मालवा के पठार मे फैली हुई थी ।
इस संस्कृति की खोज का श्रेय प्रो.वी.एस वाकणकर को जाता है । इस संस्कृति का पहिला पुरास्थल कायथा था जिसमें 1964 में उत्खनन कराया गया था । इस संस्कृति के निवासी भूरे रंग के मजबूत तथा पतली गर्दन वाले मृगाण्डों के अलावा पाण्डुरंग के एवं सादे लाल मृद्भाण्ड प्रयुक्त करते थे । आहाइ संस्कृति दक्षिणी पूर्वी राजस्थान में प्रसार पाए हुए थी तथा इस संस्कृति की खोज 1953-54 में श्री रत्नचन्द अग्रवाल ने की थी। उसके बाद सन् 1959 में डॉ. बी.बी. लाल और डॉ. बी.के. थापर ने गिलुण्ड में, 1962-63 में डॉ. सांकलिया ने पुन: आहड में, सन् 1993-94 से सन् 2000 तक बालाथल में डॉ. वी.एस. मिश्र, डॉ. वी.एस. शिन्दे, डॉ. आर.के. मोहन्दी डॉ. ललित पाण्डेय और डॉ. जीवन खरकवाल ने उत्खनन कराया । सन् 1999-2000 मे एक बार पुन: डॉ. जी.एल. पोसेल डॉ. वी.एस शिन्दे तथा डॉ. ललित पाण्डे ने गिलुण्ड में उत्खनन कराया । इसके अलावा ओझियाना में डॉ. बी. आर. मीणा ने उत्खनन कराया । इन सभी उल्खननों से यह ज्ञात होता है कि इस संस्कृति के काले एवं लाल मृद्भाण्डों का प्रयोग करते थे तथा इस संस्कृति का उद्भव तीसरी सहस्त्राब्दी ई.पू. में हो गया था ।
ताम्रपाषाणिक संस्कृति का तीसरा महत्वपूर्ण भौगौलिक क्षेत्र मालवा था । पुरातत्वेत्ता ने इस संस्कृति को नवदाटोली ताम्रपाषाणिक संस्कृति के नाम से भी पुकारते है । इस संस्कृति की खोज सन् 1952-54 में हुई थी तथा यहाँ पर डेकन कॉलेज पूना तथा एम.एस. यूनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा, वडोदरा द्वारा उत्खनन कराया गया था । इस संस्कृति के निवासी चार प्रकार के मृदाण्ड प्रयुक्त करते थे । यह मृद्भाण्ड हल्के लाल से गुलाबी रंग के अलावा श्वेत रंग वाले, दूधिया रंग वाले तथा गहरे लाल रंग के होते थे । ताम्रपाषाणिक संस्कृति का एक अन्य केन्द्र जोर्वे भी था | जोर्वे संस्कृति आधुनिक महाराष्ट्र में फैली हुई थी । इसकी सबसे पहले जानकारी अहमद नगर में स्थित जीर्वे नामक पुरास्थल से हुई थी । इस संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल ईनाम गांव है जहाँ डॉ. एम.के.धवलीकर ने निरंतर दस वर्षों तक उत्खनन कराया था । |वे संस्कृति की मुख्य मृदाण्ड परम्परा, जिससे इस संस्कृति को पहचाना जाता है, लाल रंग के प्रलेख वाले मृदभाण्ड है । इन मृदाण्डों को रगड़ कर चमकाया जाता था ।
2.7 सारांश
ऊपर वर्णित स्थलों के अलावा ताम्रपाषाणिक संस्कृति के प्रमाण आंध्र प्रदेश के अनेक स्थलों से भी प्राप्त हुए हैं जिनमें सिंगनपल्ली और रामपुरम प्रमुख है । यहाँ से चाक पर निर्मित काले लाल मृद्भाण्ड प्राप्त हुए है । इसी प्रकार से पूर्वी भारत में उड़ीसा, उत्तर पूर्व के राज्यों तथा पश्चिमी बंगाल एवं बिहार से भी ताम्र संस्कृतियों के प्रमाण-प्राप्त होते है । ताम्र संस्कृतियों की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का भी महत्वपूर्ण स्थान है । उत्तर प्रदेश को ताम्र संस्कृति की दृष्टि से पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा ऊपरी गंगा घाटी में विभाजित किया जा सकता है ।
सारांशत: यह कहा जा सकता है कि भारत का नवपाषाणिक एवं ताम्रपाषाणिक काल भारतीय इतिहास का वह महत्व पूर्ण कालखण्ड था जिस पर आधुनिक भारत के ग्रामो की नींव स्थापित हुई । आज भी भारत में क्षेत्रीय ग्रामीण संस्कृति की विशिष्टताएँ देखी जा सकती है जो इस काल में विकसित हुई थी ।