रावल रतन सिंह की चित्तौड युद्ध में मृत्यूपरान्त चित्तौड पर 1314 ई. तक सुलान अलाउद्दीन के शासन में उसका पुत्र खिज्र खां प्रान्तपति रहा था । किन्तु मेवाड के सामन्तों की विद्रोहालक कार्यवाहियो के कारण जालोर के सोनगरा मालदेव को खिज्र खां के स्थान पर मेवाड का प्रान्तपति बनाया गया । उसने 1322 ई. तक उसके पुत्र जयसिंह ने 1325 ई. तक तथा उसकी मृत्यूपरान्त मालदेव का तीसरा पुत्र रणवीर प्रान्तपति रहा था । इसने 1336 ई. तक शासन किया । किन्तु इसी वर्ष मेवाड के गुहिल वंश की एक शाखा सीसोदा के हमीर ने चित्तौड पर पुन: अधिकार कर मेवाडू पर सल्तनत के शासन को मिटा दिया | सीसोदा गाँव (जिला राजसमन्द) के सामन्त राणा कहलाते थे । अत: अब से रावल की जगह मेवाड़ के शासकों का नाम महाराणा हो गया | महाराणा हमीर ने सिंहासन पर बैठने के बाद मेवाड का क्षेत्र विस्तार करना आरम्भ किया | उसने परमारों, राठौडों को परास्त किया तथा वनवासी जाति के लोगों के साथ मित्रवत् नीति का प्रचलन करते हुए राज्य को स्थायित्व भी प्रदान किया | 1364 ई. में हणीर का पुत्र क्षेत्रसिंह गद्दी पर बैठा । जिसने हाडौती, गुजरात, ईडर, मालवा तथा उत्तरी मेवाड़ की उवद्रवी मेर जाति पर विजय प्राप्त की । 1405 ई. में उसका पुत्र लक्ष सिंह (लाखा) गद्दी पर बैठा | उसने भी अपने पिता की नीति का पालन करते हुए मेवाड को शक्तिशाली बनाया । इसके समय में ही मेवाड में जावर की चांदी की खान निकली थी | महाराणा लाखा का उत्तराधिकारी अल्पवयस्क महाराणा मोकल 1415 ई. के लगभग गद्दी पर बैठा । उसके काल में मण्डोर के राठौडों का प्रभाव मेवाड में बढ्ने, उसके बड़े भाई चुणडा का मालवा चले जाने, मालवा, नागौर व गुजरात के शासकों के आक्रमण आदि की विषम परिस्थिति में मेवाड निर्बल हुआ । ऐसे में ही मोकल की हत्या ने मेवाड के प्रभुत्व एवं प्रभाव पर गहरा आघात किया । परन्तु उसके पुत्र राणा कुम्भा ने परिस्थितियों को सम्भाल लिया | तब मेवाड का वैभव उत्कर्ष की सीमा पर पहुँच गया । महाराणा सागा ने भी इस संदर्भ में प्रयास अवश्य किया और मेवाड की सीमाएँ काफी विस्तृत हो गई थी परंतु सांगा के समय प्रारंभ हुआ मुगल प्रतिरोध प्रताप के समय तक काफी बढ़ गया था | प्रताप अपनी स्वतन्त्रता के लिए आजीवन संघर्षरत अवश्य रहा किन्तु मेवाड गरिमा में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आने दी ।
7.2 महाराणा कुम्भा
कुंभा का जन्म 1403 ई. में हुआ था । उसकी मला परमारवंशीय राजकुमारी सौभाग्य देवी थी । अपने पिता मोकल की हत्या के बाद कुंभा 1433 ई. में मेवाड के राजसिंहासन पर बैठा । तब मेवाड में प्रतिकूल परिस्थितियाँ थीं, जिनका प्रभाव कुंभा की विदेश नीति पर पडना स्वाभाविक था । ऐसे समय में युद्ध की प्रतिधीन गूंजती दिखाई दे रही थी । उसके पिता के हत्यारे चाचा मेरा (महाराणा खेता की उप-पत्नी के पुत्र) व उनका समर्थक महपा पंवार स्वतंत्र थे और विद्रोह का झंडा खड़ा कर चुनौती दे रहे थे । मेवाड दरबार भी सिसोदिया व राठौड़ दो गुटों में बंटा हुआ था | कुंभा के छोटे भाई खेमा की महत्वाकांक्षा मेवाड राज्य प्राप्त करने की थी और इसकी पूर्ति के लिये वह मांडू पहुँच कर वहाँ के सुल्तान की सहायता प्राप्त करने के प्रयास में लगा हुआ था । उधर फिरोज तुगलक के बाद दिल्ली सल्तनत कमजोर हो गई और 1398 ई. में तैमूरी आक्रमण से केन्द्रीय शक्ति पूर्ण रूप से छिन्न-भिन्न हो गई थी । दिल्ली के तख्त पर कमजोर सैययद आसीन थे जिससे विरोधी तल सक्रिय हो गए थे । फलत: दूरवर्ती प्रदेश जिनमें जौनपुर, मालवा, गुजरात, ग्वालियर व नागौर आदि स्वतंत्र होकर, शक्ति एवं साम्राज्य प्रसार में जुट गये थे ।
उपर्युक्त वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए कुंभा ने अपना ध्यान सर्वप्रथम आंतरिक समस्याओं के समाधान की ओर केन्द्रित किया । अपने पिता के हत्यारों को सजी देनी चाही जिसमें उसे मारवाड के रणमल राठौड की तरफ से पूर्ण सहयोग मिला । परिणामस्वरूप चाचा व मेरा की मृत्यु हो गई । चाचा के लड़के एक्का तथा महपा पँवार को मेवाड छोड्कर मालवा के सुल्तान के यहीं शरण लेनी पड़ी । यों कुंभा ने अपने प्रतिद्वंदियों से मुक्त होकर सीमांत-सुरक्षा की ओर ध्यान आकर्षित किया | वह मेवाड से अलग हुए क्षेत्रों को पुन: अपने अधीन करना चाहता था । अत: उसने विजय-अभियान शुरू किया । 7.3 राजनीतिक उपलब्धियाँ बूंदी-विजय – बूंदी के हाड़ा शासकों का मेवाड से तनावपूर्ण संबंध हो गया था | उस समय राव बैरीसाल वहाँ का शासक था | उसने मॉडलगढ़ दुर्ग सहित ऊपरमाल के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था । अत: कुंभा ने 1436 ई. में बूंदी के विरूद्ध सैनिक अभियान प्रारंभ किया । जहाजपुर के पास दोनों ही सेनाओं में गंभीर युद्ध हुआ जिसमें बूंदी की हार हुई । बूंदी ने मेवाड की अधीनता स्वीकार कर ली | माँडलगढ बिजौलिया, जहाजपुर व पूर्वी-पठारी क्षेत्र भी मेवाड-राज्य में मिला लिये गये ।
गागरोन-विजय :- इसी समय कुंभा ने मेवाड के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित गागरोन-दुर्ग पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया ।
सिरोही-विजय – सिरोही के शासक शेषमल ने मेवाड राज्य की सीमा के अनेक गाँवों पर अधिकार कर लिया था । अत: कुंभा ने डोडिया नरसिंह के नेतृत्व में वहाँ सेना भेजी | नरसिंह ने अचानक आक्रमण कर (1437 ई.) आबू तथा सिरोही राज्य के कई हिस्सों को जीत लिया । शेषमल ने आबू को पुन: जीतने के प्रयास में गुजरात के सुल्तान से भी सहायता ली परन्तु असफलता ही हाथ लगी | कुंभा की आबू-विजय का बड़ा महल है । मारवाड से सम्बन्ध मारवाड के रणमल का मेवाड में प्रभाव बढ़ता जा रहा था | कुंभा ने इसे संतुलित करने के लिए मेवाड से गये हुए सामन्तों को पुन: मेवाड में आश्रय देना शुरू किया । महपा पंवार और चाचा के पुत्र एक्का के अपराधों को भी क्षमा कर अपने यहाँ शरण दे दी । राघवदेव का बड़ा भाई चुणडा जो मालवा में था, वह भी मेवाड लौट आया । कुंभा ने धीरे-धीरे रणमल के विरूद्ध ऐसा व्यूह तैयार किया कि उसकी हत्या तक कर दी । रणमल की हत्या के समाचार फैलते ही उसका पुत्र जोधा अन्य राठौड़ों के साथ मारवाड की तरफ भागा । तब चुणडा ने भागते हुए राठौड़ों पर आक्रमण किया | मारवाड की ख्यात के अनुसार जोधा के साथ 700 सवार थे और मारवाड पहुँचने तक केवल सात ही शेष रहे | मेवाड की सेना ने आगे बढ़कर मंडोर पर अधिकार कर लिया; किन्तु महाराणा की दादी हंसाबाई के बीच-बचाव करने के कारण जोधा इसको पुन: लेने में सफल हुआ |
वागड-विजय___ कुंभा ने डूंगरपुर पर भी आक्रमण किया और बिना कठिनाई के सफलता मिली । इसी भाँति वागड-प्रदेश की विजय से जावर मेवाड़ राज्य में मिला लिया गया । मेरों का दमन मेरों के विद्रोह को दबाने में भी वह सफल रहा | बदनोर के आस-पास ही मेरो की बडी बस्ती थी । ये लोग सदैव विद्रोह करते रहते थे । कुंभा ने इनके विद्रोह का दमन कर विद्रोही नेताओं को कडा दंड दिया ।
पूर्वी राजस्थान का संघर्ष:
यह भाग मुसलमानों की शक्ति का केन्द्र बनता जा रहा था । बयाना व मेवात में इनका राज्य बहुत पहले से ही हो चुका था । रणथंभौर की पराजय के बाद चौहानों के हाथ से भी यह क्षेत्र जाता रहा । इस क्षेत्र को प्राप्त करने के लिए कछावा और मुस्लिम शासकों के अतिरिक्त मेवाड और मालवा के शासक भी प्रयत्नशील थे | फरिश्ता के अनुसार कुंभा ने इस क्षेत्र पर आक्रमण करके रणथंभौर पर अधिकार कर लिया था । साथ ही चाटसू वगैरह के भाग के भी उसने जीत लिया था |
अन्य विजयें
कुंभलगढ़-प्रशस्ति के अनुसार कुंभा ने कुछ नगरों को जीता था | जिनकी मौगौलिक स्थिति और नाम ज्ञात नहीं हो सके हैं । इसका कारण स्थानीय नामों को संस्कृत में रूपान्तरित करके इस प्रशस्ति में अंकित किया है, जैसे – नारदीय नगर, वायसपुर आदि । इस भांति कुंभा ने अपनी विजयों से मेवाड के लिए एक वैद्यानिक सीमा निर्धारित की जो मेवाड़ के प्रभुत्व को बढ़ाने में सहायक रही।
मालवा-गुजरात से समन्य
__कुंभा की प्रसारवादी नीति के कारण मालदा-गुजरात से संघर्ष अवश्यभावी थे । मालवा के लिए एक शक्तिशाली मेवाड सबसे बड़ा खतरा था | मेवाड-मालवा संघर्ष का मूल कारण दिल्ली सलनत की कमजोरी थी फलत प्रांतीय शक्तियों को अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता का विकास करने की चिन्ता थी । दूसरा कारण मालवा के उत्तराधिकारी संघर्ष में कुंभा का सक्रिय भाग लेना था । तीसरा कारण मेवाड के विद्रोही सामन्तों को मालवा में शरण देना था | कुंभा द्वारा इन्हें लौटाने की माँग को सुल्तान ने अस्वीकार कर दिया था । इसलिए दोनों राज्यों के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गये । दोनों राज्यों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण दोनों ही राज्यों की विस्तारवादी नीति थी । मेवाड-मालवा संघर्ष सारंगपुर का युद्ध (1437 ई.)
विद्रोही महपा जिसको मालवा के सुल्तान ने शरण दे रखी थी, कुंभा ने उसे लौटाने की माँग की; किन्तु सुल्तान ने मना कर दिया । तब 1437 ई. में कुंभा ने एक विशाल सेना के साथ मालवा पर आक्रमण कर दिया । वह मंदसौर, जावरा आदि स्थानों को जीतता हुआ सारंगपुर पहुँचा जहाँ युद्ध में सुल्तान महमूद खलजी की हार हुई । कुंभा ने महमूद खलजी को बंदी बनाया और उदारता का परिचय देते हुए उसे मुक्त भी कर दिया । निःसन्देह महाराणा की यह नीति उदारता स्वाभिमान व दूरदर्शिता की परिचायक है ।
महाराणा कुंभा सारंगपुर से गागरोन मंदसौर आदि स्थानों पर अधिकार करता हुआ मेवाड़ लौट आया । इस युद्ध से मेवाड की गिनती एक शक्तिशाली राज्य के रूप में की जाने लगी परंतु महमूद खलजी उसका स्थायी रूप से शत्रु हो गया और दोनों राज्यों के बीच में एक संघर्ष की परम्परा चली | हरबिलास शारदा का तो यह मानना है कि सारंगपुर में हुए अपमान का बदला लेने के लिए उसने मेवाड पर पाँच बार आक्रमण किये |
कुंभलगढ़ एवं चित्तौड़ पर आक्रमण
महमूद का इस शृंखला में प्रथम आक्रमण 1442-43 ई. में हुआ है । वास्तव में सुल्तान ने यह समय काफी उपयुक्त चुना क्योंकि इस समय महाराणा बून्दी की ओर व्यस्त था । कुंभा का विद्रोही भाई खेमकरण मालवा के सुल्तान की शरण में पहले ही जा चुका था, जिससे सुल्तान को पर्याप्त सहायता मिली । तभी गुजरात के शासक अहमदशाह की मृत्यु भी हो गई थी । उसका उत्तराधिकारी महमूदशाह काफी निर्बल था । अतएव गुजरात की ओर से मालवा को आक्रमण का डर नही रहा । महमूद खलजी ने सारंगपुर की हार का बदला लेने के लिए सबसे पहले 1442 ई. में कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया । मेवाड के सेनापति दीपसिंह को मार कर वाणमाता के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट किया । इतने पर भी जब यह दुर्ग जीता नहीं जा सका तो शत्रु-सेना ने चित्तौड को जीतना चाहा | परंतु चित्तौङ-विजय की उसकी यह योजना सफल नहीं हो सकी और महाराणा ने उसे पराजित कर मांडू भगा दिया |
गागरौन-विजय (1443-44 ई.)
___मालवा के सुजान ने कुंभा की शक्ति को तोडना कठिन समझ कर मेवाड पर आक्रमण करने के बजाय सीमावर्ती दुर्गा पर अधिकार करने की चेष्टा की । अत: उसने नवम्बर 1443 ई. में गागरौन पर आक्रमण किया । गागरोन खींची चौहानों के अधिकार में था | मालवा और हाडौती के बीच होने से मेवाड और मालवा के लिये इस दुर्ग का बडा महल था । अतएव खलजी ने आगे बढ़ते हुए 1444 ई. में इस दुर्ग को येर लिया और सात दिन के संघर्ष के बाद सेनापति दाहिर की मृत्यु हो जाने से राजपूतों का मनोबल गिर गया और गागरोन पर खलजी का अधिकार हो गया । डॉ यू.एन.डे का मानना है कि इसका मालवा के हाथ में चला जाना मेवाड की सुरक्षा को खतरा था ।
मांडलगढ़ पर आक्रमण:
1444 ई. में महमूद खलजी ने गागरोन पर अधिकार कर लिया | गागरोन की सफलता ने उसको माँडलगढ पर आक्रमण करने के लिये प्रोत्साहित किया । कुंभा ने इसकी रक्षा का पूर्ण प्रबंध कर रखा था और तीन दिन के कडे संघर्ष के बाद खलजी को करारी हार का सामना करना पड़ा । माँडलगढ़ का दूसरा घेरा 11 अक्टूबर 1446 ई. को महमूद खलजी माँडलगढ़ अभियान के लिये रवाना हुआ । किन्तु इस बार भी उसे कोई सफलता नहीं मिली और अगले 7-6 वर्षा तक वह मेवाड पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सका |
अजमेर-मॉडलगढ अभियान
पहले की हार का बदला लेने के लिये अगले ही वर्ष 1455 ई. में सुल्तान ने कुंभा के विरूद्ध अभियान प्रारम्भ किया 1 मंदसौर पहुँच ने पर उसने अपने पुत्र गयासुद्दीन को रणथंभौर की ओर भेजा और स्वयं सुल्तान ने जाइन का दुर्ग जीत लिया । इस विजय के बाद सुलान अजमेर की ओर रवाना हुआ | अजमेर तब कुंभा के पास में था और उसके प्रतिनिधि के रूप में राजा गजधरसिंह वहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था को देख रहा था | सुल्तान को इस बार भी पराजित होकर मांडू लौटना पड़ा था | 1457 ई. में वह माँडलगढ लेने के लिये फिर इधर आया । अक्टूबर 1457 ई. में उसका मॉडलगढू पर अधिकार हो गया । कारण कि तब कुंभा गुजरात से युद्ध करने में व्यस्त था किन्तु शीघ्र ही उसने मॉडलगढ को पुन: हस्तगत कर लिया ।
कुंभलगढ़ आक्रमण (1459 ई)
मालवा के सुल्तान ने 1459 ई. में कुंभलगढ़ पर फिर आक्रमण किया । इस युद्ध में महमूद को गुजरात के सुल्तान ने भी सहायता दी थी; किन्तु सफलता नहीं मिली | जावर आक्रमण 1467 ई. में एक बार और सुल्तान (मालवा) जावर तक पहुँचा परन्तु इस बार भी कुंभा ने उसको यहाँ से जाने के लिए बाध्य कर दिया । वास्तव में 1459 ई. के पश्चात् ही सुल्तान का मेवाड में दबाव कम हो गया था इसलिए 1467 ई. में वह जावर तक पहुंचा तब उसको आसानी से खदेड दिया गया । मेवाड-गुजरात समन्य – (1455 ई. से 1460 ई)
कुंभा का गुजरात से भी संघर्ष होता है और नागौर प्रश्न ने दोनों को आमने-सामने ला खडा कर दिया । नागौर के तत्कालीन शासक फिरोज खां की मृत्यु होने पर और उसके छोटे पुत्र मुजाहिद खां द्वारा नागौर पर अधिकार करने हेतु बडे लड़के शम्सखां ने नागौर प्राप्त करने में कुंभा की सहायता माँगी | कुंभा को इससे अच्छा अवसर क्या मिलता | वह एक बड़ी सेना लेकर नागौर पहुँचा | मुजाहिद को वहाँ से हटा कर महाराणा ने शम्सखां को गद्दी पर बिठाया परंतु गद्दी पर बैठते ही शम्सखां अपने सारे वायदे मूल गया और उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया । स्थिति की गम्भीरता को समझ कर कुंभा ने शम्सखां को नागौर से निकाल कर उसे अपने अधिकार में कर लिया । शम्सखां भाग कर गुजरात पहुँचा और अपनी लडकी की शादी सुल्तान से कर, गुजरात से सैनिक सहायता प्राप्त कर महाराणा की सेना के साथ युद्ध करने को बढ़ा परंतु विजय का सेहरा मेवाड के सिर बंधा | मेवाड-गुजरात संघर्ष का यह तात्कालिक कारण था |
1455 से 1460 ई. के बीच मेवाड-गुजरात संघर्षों के दौरान निम्नांकित युद्ध हुए –
1. नागौर युद्ध (1456 ई)
नागौर के पहले युद्ध में शम्सखां की सहायता के लिए भेजे गये गुजरात के सेनापति रायरामचंद्र व मलिक गिदई महाराणा कुंभा से हार गये थे । अतएव इस हार का बदला लेने तथा शम्सखां को नागौर की गद्दी पर बिताने के लिए 1456 ई. में गुजरात का सुलान कुतुबुद्दीन ससैन्य मेवाड पर बढ़ आया । तब सिरोही को जीतकर कुंभलगढ़ का घेरा डाल दिया किन्तु इसमें उसे असफल होकर लौटना पड़ा । यों प्रथम युद्ध में नागौर पर राणा की जीत हुई और उसने नागौर के किले को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
2. सुलान कुतुबुद्दीन का आक्रमण
सिरोही के देवडा राजा ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से प्रार्थना की कि वह आबू जीतकर सिरोही उसे दे दे । सुल्तान ने इसे स्वीकार कर लिया । आबू को कुंभा ने देवडा से जीता था । सुल्तान ने अपने सेनापति इमादुलमुल्क को आबू पर आक्रमण करने भेजा किन्तु उसकी पराजय हुई । इसके बाद सुजान ने कुंभलगढ़ पर चढ़ाई कर तीन दिन तक युद्ध किया । बेले ने इस युद्ध में कुम्भा की पराजय बताई है किन्तु गौ. ही. ओझा, हरबिलास शारदा ने इस कथन को असत्य बताते हुए कुंभा की जीत ही मानी है । उनका मानना है कि यदि सुल्तान जीत कर लौटता तो पुन: मालवा के साथ मिलकर मेवाड पर आक्रमण नहीं करता । सुल्तान का दूसरा प्रयास भी असफल रहा |
3. मालवा-गुजरात ला संयुक्त अभियान (1457)
गुजरात एवं मालवा के सुल्तानों ने चांपानेर स्थान पर समझौता किया | इतिहास में यह चम्पानेर की संधि के नाम से जाना जाता है इसके अनुसार दोनों की सम्मिलित सेनाएँ मेवाड़ पर आक्रमण करेंगी तथा विजय के बाद मेवाड़ का दक्षिण भाग गुजरात में तथा शेष भाग मालवा में मिला लिया जाएगा | कुतुबुद्दीन आबू को विजय करता हुआ आगे बढ़ा और मालवा का सुल्तान दूसरी ओर से बढ़ा | कुंभा ने दोनों की संयुक्त सेना का साहस के साथ सामना किया और कीर्ति स्तम्भ-प्रशस्ति व ‘रसिक प्रिया’ के अनुसार कुंभा विजयी रहा ।
4. नागौर-विजय (1458)
कुंभा ने 1458 ई. में नागौर पर आक्रमण किया जिसका कारण श्यामलदास के अनुसार 1. नागौर का हाकिम शम्सखां और मुसलमानों द्वारा गो-वध बहुत होने लगा था । 2. मालवा के सुल्तान के मेवाड़ आक्रमण के समय शम्सखां ने उसकी महाराणा के विरूद्ध सहायता की थी । 3. शम्सखां ने किले की मरम्मत शुरू कर दी थी । अत: महाराणा ने नागौर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया ।
5. कुंभलगढ़-अभियान (1458 ई)
कुतुबुद्दीन का 1458 ई में कुंभलगढ़ पर अंतिम आक्रमण हुआ जिसमें उसे कुंभा से पराजित होकर लौटना पड़ा । तभी 25 मई व 458 ई. को उसका देहान्त हो गया ।
6. महमूद बेगड़ा का आक्रमण (1459 ई)
कुतुबुद्दीन के बाद महमूद बेगड़ा गुजरात का सुल्तान बना । उसने 1459 ई. में जूनागढ़ पर आक्रमण किया | वहाँ का शासक कुंभा का दामाद था । अत: महाराणा उसकी सहायतार्थ जूनागढ़ गया और सुल्तान को पराजित कर भगा दिया ।
इस प्रकार से कुंभा ने अपनी सैनिक शक्ति द्वारा सम्पूर्ण राजपूताने पर अपना अधिकार ही स्थापित नहीं किया बल्कि मेवाड की राज्य सीमा का विस्तार कर अपनी कीर्ति में चार चाँद लगाये जिसका प्रमाण चित्तौड की धरती पर खडा कीर्ति स्तम्भ है | कुंभा ने अपने रणचातुर्य एवं कूटनीति से मेवाड में आंतरिक शांति व समृद्धि की स्थापना ही नहीं की अपितु मेवाड की बाह्य शत्रुओं से रक्षा भी की।
7.4 कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
महाराणा कुंभा के व्यक्तित्व में कटार, कलम और कला की त्रिवेणी का अदभुत समन्वय था । सांस्कृतिक दृष्टि से यह काल मेवाड के इतिहास का स्वर्णयुग था । निःसन्देह कुंभा का इतिहास में विजेता के रूप में जो स्थान सुरक्षित है उससे भी महत्वपूर्ण स्थान उसका स्थापत्य और विद्या-उन्नति के सम्बन्ध में हैं । सांस्कृतिक क्षेत्र में भी वास्तु-कला का महत्व सर्वाधिक है । वास्तुकला कुंभा वास्तु या स्थापत्य कला का मर्मज्ञ था | उसकी स्थापत्य कला को निम्नांकित भागों में बांट सकते हैं – मंदिर, दुर्ग, एवं भवन |
मेवाड़ में मंदिर निर्माण की परम्परा बहुत प्राचीन व गौखपूर्ण रही है जिसको महाराणा कुंभा ने एक नई दिशा दी | उसके निर्माण कार्य के तीन प्रमुख केन्द्र थे – कुंभलगढ़, चित्तौड़गढ़ और अचलगढ़ | कुंभाकालीन मंदिरों का निर्माण नागर शैली के शिखरों से अलंकृत तथा ऊँची प्रसाद पीठ पर अवस्थित है । इसमें प्राय: भूरे रंग का बलुहा पत्थर का प्रयोग हुआ है । उनमें सारे गर्भ-गृह, अर्द्ध-मण्डप, सभा-मण्डप, प्रदक्षिणा-पथ एवं आमलक युक्त शिखर पाये जाते हैं । चित्तौड़ दुर्ग स्थितकुंभ स्वामी का मंदिर इनमें सबसे पुराना (1445-46 ई. के लगभग) एवं मध्यकालीन स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण हैं | कुंभा ने अचलगढ के समते कुंभा स्वामी का मंदिर भी बनवाया जिसमें विष्णु के 24 अवतारों की प्रतिमायें लगी हैं । आबू में भी कई मंदिर कुमायुगीन हैं । उदयपुर के निकट एकीलंगजी के मंदिर में कुंभ मंडप का निर्माण करवाया । यह मंदिर भी तत्कालीन स्थापत्य व मूर्तिकला का अदभुत नमूना कुंभा बहुत ही सहिष्णु था अतएव विभिन्न धर्मावलंबियों ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया जिसमें रणकपुर का जैन मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । इसका निर्माता धरणाशाह पोरवाल था | उत्तरी भारत मे ऐसे स्तम्भों वाला विशाल मंदिर अन्यत्र कहीं नहीं हैं । रणकपुर-मंदिर की कला वास्तव में कुंभा के समय के स्थापत्य की महानता को प्रदर्शित करती हैं । इस काल के बने जैन मंदिरों में अजारी पिंडबाडा, नागदा आदि के मंदिर सुप्रसिद्ध है | नये मंदिरों के निर्माण के साथ-साथ पुराने मंदिरों का जीणोद्धार भी किया गया था ।
दुर्ग: मेवाड के 84 दुर्गा में से 32 दुर्ग अकेले कुंभा ने बनवाये थे । इस निर्माण में सामरिक महत्व का सर्वाधिक ध्यान रखा गया था । अपने राज्य की पश्चिमी सीमा और सिरोही के बीच तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिए नाकाबंदी की और सिरोही के निकट बसन्ती का दुर्ग बनवाया । मेरो के प्रभाव को रोकने के लिए मचान के दुर्ग का निर्माण कराया तो भीलों की शक्ति पर नियन्त्रण हेतु भोमट का दुर्ग बनवाया । आबू में अचलगढ़ का दुर्ग और अरावली के पश्चिमी शाखा के एक घेरे में सादड़ी, मेवाड और मारवाड की सीमा पर कुंभलगढ़ नामक दुर्ग बनवाया |
महाराणा ने चित्तौडगढ दुर्ग को भी पुनर्निर्मित कराया । इस दुर्ग को सात द्वारों से सुरक्षित कर, कई बुर्जा का निर्माण करकया | उसने वहीं सुप्रसिद्ध कीर्ति स्तम्भ भी बनवाया । इसका वर्ण इकाई 13 में किया गया है । आश्चर्य है कि भवन निर्माण कराने वाले कुंभा के स्वयं के निवास स्थान साधारण व सात्विक थे | कुंभा द्वारा अन्य निर्माणों में तालाब, जलाशय भी थे । उसने बसन्तपुर को पुन: बसाया और बही सात सुन्दर जलाशय बनवाये ।
मूर्तिकला:
कुंभा के समय मूर्तिकला उन्नत अवस्था में थी । चित्तौड़गढ़-दुर्ग स्थित कीर्ति स्तंभ तो भारतीय मूर्तिकला का शब्द कोष ही है | इसे हिन्दू देवी-देवताओ का अजायबघर भी कहते हैं | कला की दृष्टि से कर्नल टॉड ने इसे कुतुबमीनार से भी श्रेष्ठ माना हैं | फर्ग्युसन ने भी कीर्ति स्तंभ को रोम के टार्जन के समान स्वीकार किया हँ । किन्तु वह इसकी कला को टार्जन से भी अधिक उन्नत बताता है । कुंभ स्वामी के मंदिर की मूर्तियों का तक्षण भी उच्च कोटि का है । एकलिंगजी के मंदिर में निर्मित कुम्भ-मण्डप की बाह्य भित्ति की तीन रथिकाओं में नृसिंह, वराह, विष्णु भाव की प्रतीक तीन मूर्तियाँ हैं । उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित बीस हाथों वाली प्रतिमा भी कुंभा काल की ही ज्ञात होती है । साहित्यानुरागी
कुंभा स्वयं विद्वान था और कई विद्वानों एवं साहित्यकारों का आश्रयदाता था | वेद, स्मृति, मीमांसा का उसे अच्छा ज्ञान था । उसने कई ग्रन्थो की रचना की जिसमें ‘संगीतराज, ‘संगीत मीमांसा, ‘सुद्ध प्रबंध प्रमुख हैं | कुंभा ने जयदेव कृत गीत गोविन्द की ‘रसिकप्रिया टीका और संगीत रत्नाकार की टीका लिखी तथा चंडीशतक की व्याख्या की । वह चार नाटकों का रचयिता भी था जिसमें उसने मेवाडी, कर्नाटकी और मराठी भाषाओं का प्रयोग किया । उसे वाद्य यन्त्रों की भी अच्छी जानकारी थी | कुंभा वेद, शास्त्र, उपनिषद, मीमांसा, स्मृति, राजनीति, गणित, न्यायकरण व तर्कशास्त्र का अच्छा ज्ञाता व विद्वान था ।
कुंभा के दरबार के विद्वानो में सबसे प्रमुख अत्रि था । वह एक विद्वान् परिवार से आया हुआ था | कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति लेखन इसी के पुत्र महेश ने पूरा किया । सूत्रधार मण्डन, कवि कान्ह कास, सकलकीर्ति आदि विद्वान साहित्यकार थे । जैन-साहित्य के विद्वानों में सोमसुन्दर, मुनिसुन्दर, जयचन्दसूरि, सुन्दर सूरि, सोमदेव आदि के नाम गिनाये जा सकते है | जैन श्रेष्ठियों ने विद्वानों को पर्याप्त आर्थिक सहायता दी । श्रेष्ठियों ने अपने पुस्तक भंडार भी बनवाये । इन गतिविधियों से स्थानीय भाषा का पर्याप्त विकास हुआ । वास्तव में कुंभा विद्वान प्रतिभासंपन्न साहित्यकार तथा कलाकारों व विद्वानों का आश्रयदाता था । संगीत एवं चित्राकला कुंभा स्वयं एक महान संगीतज्ञ था | उसने संगीत पर तीन ग्रन्थ भी लिखे । संगीतज्ञों को प्रश्रय मिला हुआ था । सोमसौभाग्यकाव्य से ज्ञात होता है कि संगीत का प्रचलन जनमानस में भी
था । रणकपुर की मूर्तियों के अंकन से संगीत मंडलियों की जानकारी मिलती है । चित्तौड, देलकडा, एकलिंगजी आदि स्थानों पर अंकित प्रतिमाओं से वादक मंडलियों एवं विविध वाद्य यंत्रों का बोध होता है । रणकपुर, चित्तौड के मंदिरों एवं कीर्ति स्तंभ की नृत्य मुद्राओं की मूर्तियों से स्पष्ट है कि तब समाज में नृत्यकला का प्रचलन भी था |
चित्रकला की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण युग था ‘सुपासनाहचीरत्रम’ चित्रित ग्रन्थ महाराणा कुंभा के काल की देन है इसमें स्वर्ण स्याही का खूब प्रयोग किया गया है । श्रेष्ठियों के रहने के घर भित्ति-चित्रों से अलंकृत थे | कुंभा के राजप्रासादों में भी झाणी रेखायें देखने को मिलती हैं । नाट्यशालाओं को भित्ति-चित्रों से अलंकृत किया जाता था सांस्कृतिक क्षेत्र में मेवाड को कुंभा की अद्वितीय देन है । निःसन्देह कुंभा के शासन काल में मेवाड ने चहुंमुखी प्रगति की |
7.5 कुंभा का देहान्त
ऐसे वीर, प्रतापी, विद्वान महाराणा का अंत बहुत दुःखद हुआ | उसके पुत्र ऊदा या उदयसिंह ने उसकी हत्या 1468 ई. में कर दी और स्वयं गद्दी पर बैठ गया कुंभा की मृत्यु के साथ ही सम्पूर्ण कला, साहित्य, शौर्य आदि की परम्परा की गति में अवरोध आ गया । फिर भी उसने अपनी युद्ध-नीति, कूटनीति एवं दूरदर्शिता से मेवाड को महाराज्य बना दिया था | कुंभा के थक्तित्व की सबसे बड़ी बात विजय नीति तथा कूटनीति है । धार्मिक क्षेत्र में भी वह समय से आगे था।
इधर अपने पिता के हत्यारे ऊदा को शासक रूप में स्वीकार करने को कोई तैयार नहीं था । मेवाड में ऊदा एवं उसके भाईयों के बीच रक्तपूर्ण उत्तराधिकार संघर्ष प्रारम्भ हुआ, जिसमें अंतत: उसका भाई रायमल गद्दी प्राप्त करने में सफल हुआ | उसने मेवाड की स्थिति को दृढ़ करना प्रारम्भ किया किन्तु इस बीच उसके पुत्रों में संघर्ष हो जाने और दो पुत्रों की मृत्यु तथा सांगा के मेवाड छोड चले जाने से उसका जीवन दुःखमय हो गया; परंतु उसकी मृत्यु के पूर्व सांगा मे वाड में आ गया था । अत: रायमल ने उसको अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो उसकी (रायमल की) मृत्यु के बाद मेवाड की गद्दी पर बैठा ।
7.6 महाराणा सांगा
महाराणा संग्रामसिंह, जो इतिहास में सांगा के नाम से प्रसिद्ध है, का जन्म मार्च 24,1481 ई. को हुआ था । रायमल के 13 पुत्र थे जिनमें पृथ्वीराज, जयमल, संग्रामसिंह विशेष उल्लेखनीय हैं | सांगा के उत्तराधिकारी होने के बारे में एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी के कारण सांगा और पृथ्वीराज में ऐसी गंभीर लड़ाई हुई कि दोनों लहूलुहान हो गये और सांगाकी एक आँख भी जाती रही । तब सांगा भाग कर अजमेर के पास श्रीनगर में करमचंद पंवार के यहाँ रहा । उसने अपनी पुत्री का विवाह सांगा के साथ कर दिया । इधर मेवाड़ में जयमल और पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई थी । अत: सांगा को बुलाकर रायमल ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो उसकी मृत्यु के बाद 1509 ई. में मेवाड की गद्दी पर बैठा । प्रारंभिक कठिनाइयाँ सांगा गद्दी पर बैठा तब मेवाड़ आतरिक कलह और बाह्य आक्रमणों का शिकार बना हुआ था | अनेक सामन्त और शासक मेवाड के प्रभाव से मुक्त होने से ही संतुष्ट नहीं थे अपितु मेवाड का अस्तित्व मिटाने का उत्सुक थे । राजपूत शासक ही नहीं, बल्कि पडौसी मुस्लिम सुलानों ने भी मेवाड को अपना आखेट-स्थल बना रखा था । मालवा व गुजरात के सुल्तान मेवाड के घोर शत्रु थे । दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी की निगाहें भी इसी ओर लगी हुई थी । सांगा ने इन सारी परिस्थितियों का अदम्य साहस से सामना किया । उसने करमचंद पंवार का अजमेर, परबतसर, मॉडल, फूलिया बनेडा के परगने जागीर में दिये और अपनी उत्तरी-पूर्वी सीमा को उसके माध्यम से सुदृढ़ किया । दक्षिण और पश्चिमी मेवाड की सुरक्षा हेतु उसने सिरोही तथा बागडू के शासकों को अपना मित्र बनाया तथा ईडर के राजसिंहासन पर अपने गुट के रायमल को बिठा कर राणा ने राजपूतों के मैत्री संघ को शक्तिशाली बना लिया । सांगा के नेतृत्व में मेवाड की बढ़ती हुई शक्ति ने पड़ोसी मुस्लिम राज्यों से संघर्ष आवश्यक कर दिया |
7.7 मालवा संघर्ष के कारण एवं युद्ध
1. मालवा और मेवाड की परम्परागत शत्रुता चली आ रही थी । 1401 ई. से 1530 ई. में अपनी स्वतन्त्रता के अन्त तक मालवा, मेवाड का शत्रु बना रहा ।
2. दोनों प्रदेशों के शासक प्रसारवादी नीति में विश्वास रखते थे अत: वे एक दूसरे की निर्बलता का लाभ उठाना चाहते थे । ।
3. मालवा मुस्लिम व मेवाड़ हिन्दू धर्म के पोषक व रक्षक थे । मालवा के सुल्तान जब तब भी अवसर मिलता तो वे अपने राज्य के हिन्दुओं के साथ-साथ पड़ौसी सीमावर्ती हिन्दू राज्यों के हिन्दुओं पर शत्याचार करते, मंदिर-मूर्तियां तोड़ने से नहीं चूकते थे । इधर महाराणा सांगा अपने को हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का पोषक व रक्षक मानता था । अत: यह उसका नैतिक कर्तव था कि वह विरोधियों से लड़कर धर्म व संस्कृति की रक्षा करें ।।
4. तात्कालिक काराण मालवा का उत्तराधिकारी संघर्ष था । इसमें सांगा ने मालवा के प्रधान मंत्री एवं विरोधी मेदिनीराय को सहायता देने तथा गागरोन, चंदेरी आदि प्रदेशों कॊ जागीर उसे देने से मालवा का सुल्तान महमूद खलजी द्वितीय महाराणा से प्रतिशोध लेना चाहता था ।
मालवा युद्ध (1519 ई)
____ 1519 ई. में महमूद ने पूर्ण शक्ति एवं साहस के साथ गागरोन पर आक्रमण कर दिया, जिसमें मुसलमानों की करारी हार हुई तथा काफी जन-धन की हानि हुई । स्वयं सुल्तान बंदी बना कर चित्तौड लाया गया जहाँ उसका इलाज कराने के बाद काफी धन देकर सम्मान मांडू भेज दिया । सुल्तान ने भी महाराणा को अधीनतास्वरूप रत्नजडित मुकुट तथा सोने की कमर पेटी भेंट की | राणा के इस व्यवहार की निजामुद्दीन अहमद ने बड़ी प्रशंसा की है । श्यामलदास एवं हरबिलास शारदा के अनुसार “सांगा ने सुल्तान को छोड़ दिया किन्तु उसके एक पुत्र को ‘ओल’ (जामिन) के तौर पर चित्तौड में रख लिया ।” निःसन्देह यह सांगा की दूरदर्शिता का परिचायक था | मालवा विजय से मेवाड़ को काफी उपजाऊ प्रदेश प्राप्त हुए तथा यहाँ की आर्थिक स्थिति में निश्चित लाभ हुआ ।
7.8 गुजरात संघर्ष के कारण
1. नागौर के मुस्लिम राज्य को कुंभा ने जीत लिया था | अत: गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर नागौर को पूर्णत: स्वतंत्र कराना चाहता था |
2. गुजरात के सुल्तान ने महमूद की सहायता कर मेदिनीराय को मालवा से बाहर निकाला था | अत: मेवाड के लिए यह आवश्यक था कि वह अपने शत्रु के मित्र को भी यथोचित दण्ड दे ।
3. गुजरात व मेवाड़ अपनी विस्तारवादी नीति के कारण परस्पर परम्परागत शत्रु थे ।
4. ईडर का मामला इनके बीच संघर्ष का तात्कालिक कारण बन गया था | दोनों राज्यों की सीमा के मध्य होने से ईडर का सामरिक महत्व बढ़- गया था । ईडर के राह भाण के दो पुत्र थे – सूर्यमल व भीम | भाण की मृत्यु के बाद सूर्यमल गद्दी पर बैठा और 18 महीने बाद उसकी भी मृत्यु हो गई । तब उसका पुत्र रायमल गद्दी पर बैठा किन्तु उझके काका भीम ने उसे गद्दी से हटा दिया और स्वम राब बन गया । रायमल सांगा की शरण में गया । उधर भीम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र गद्दी पर बैठ गया । तब सांगा ने रायमल को पुन: ईडर का राव बना दिया । भारमल ने गुजरात की सहायता से पुन: ईडर का राज प्राप्त कर लिया । रायमल ने गुजराती सेनापति जहीरूलमुत्क को पराजित कर मार डाला । तब गुजरात के सुलान ने सय ईडर पर आक्रमण कर ईडर को लूटा । युद्ध उपर्युक्त कारणों एवं विशेषतया गुजरात के सुलान की कार्यवाहियों को देखकर सांगा ने 1519 ई. में चित्तौड से प्रयाण कर एक ही दिन में ईडर को विजय कर लिया | गुजराती सेना अहमद नगर की ओर भागी । सांगा ने उसका पीछा करते हुए अहमदनगस्दुर्ग को घेर लिया और दुर्ग के किंवाड तोड कर राजपूत दुर्ग में पुस गये और खूब लूटा | सांगा बड़नगर, बीसलनगर तथा गुजरात के अन्य इलाकों को लूटता द्वा चित्तौड आ गया |
इस पराजय का बदला लेने के लिए सुल्तान ने मलिक अयाज को दिसम्बर 1520 ई. में मेवाड पर आक्रमण करने भेजा । साथ ही किवामुत्मुल्क के नेतृत्व में 20 हजार सवार तथा 20 हाथियों की दूसरी सेना भी मलिक अवाज की सहायता के लिए भेजी । ये सेनायें मोडासा होते हुए डूंगरपुर को जलाकर बांसवाडा पहुँची । इसके बाद गुजराती सेना ने मंदसौर को घेर लिया | महाराणा सांगा भी ससैन्य मंदसौर से कोई 25 कि.मी. दूर नांदसा गाँव में आ गया | मालदा का सुल्तान भी मलिक अयाज की सहायता के लिए आ गया । तब मंदसौर में भीषण युद्ध होने को था, इस बीच सुल्तान के सेनापति मलिक अयाज़ और उसके अधिकारियों में कटुता उत्पन्न हो जाने से अयाज को संधि करनी पड़ी और वह गुजरात चला गया |
सांगा ने गुजरात को लूटा, ईडर पर पुन: अपना प्रभुत्व स्थापित किया तथा गुजरात के उत्तराधिकारी को चित्तौड में शरण देकर अपना प्रभाव जमा लिया ।
7.9 सांगा व इब्राहिम लोदी
सांगा और इब्राहीम लोदी विस्तारवादी नीति में विश्वास करते थे । अत: दोनों ही शासकों की महत्वाकांक्षा ने उन्हें संघर्ष हेतु आमने-सामने ला दिया । राणा ने अपना राज्य विस्तार बयाना तक फैला दिया था जो दिल्ली और आगरा के सुल्तान के लिए एक चुनौती था । डॉ. अवध बिहारी पाण्डे के मतानुसार “मालवा का राष्य राणा सांगा और इब्राहीम लोदी के बीच कबाब में हड्डी की तरह था ।” सांगा ने गद्दी पर बैठते ही अजमेर पर अधिकार कर, करमचंद पवार के नाम अजमेर का पट्टा लिख दिया । अजमेर दिल्ली सल्तनत के अधीन था । अत: इब्राहीम लोदी चुप न रह सका और ससैन्य मेवाड की ओर प्रस्थान किया ।
युद्ध (1517 ई.)
दोनों ही तरफ की सेनाओं में हाड़ौती सीमा पर 1517 ई. में खातोली गाँव के पास युद्ध हुआ | एक पहर तक युद्ध होने के बाद इब्राहीम लोदी सेना सहित भाग गया । युद्ध में महाराणा के घुटने पर तीर लगने से वह लंगडा हो गया तथा उसका बाँया हाथ भी तलवार से कट गया था ।
इब्राहीम लोदी ने इस हार का बदला लेने के लिए 1518 ई. में मियां मक्खन के नेतृत्व में एक सेना भेजी, किन्तु इस बार भी उसे पराजित होना पड़ा ।
7.10 सांगा व बाबर संघर्ष
जब मध्य एशिया में बाबर अपना राज्य स्थापित करने में असफल रहा तो लोदी सरदारों के आमन्त्रण पर तह भारत आया और यहाँ उसने अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहा । इस क्रम में उसने दिल्ली को जीत लिया । बाबर के लिए दिल्ली पर अधिकार करना सरल था; किन्तु अपनी शक्ति को दृढ़ बनाये रखना कठिन था । उत्तर-पश्चिम भारत की विजय और पानीपत में इब्राहीम लोदी की हार ने बाबर को केन्द्रीय हिन्दुस्तान का स्वामी बना दिया था। लेकिन अब भी उसके समक्ष दो प्रीतवंदी थे- राजपूत और अफगान । युद्ध परिषद ने अफगान शक्ति का सामना करने को सुझाया फिर भी इस बीच के घटनाक्रमों ने बाबर का ध्यान सांगा की ओर केन्द्रित कर दिया । सांगा व मुगल सम्बन्धों में युद्ध के निम्नांकित कारण थे –
युद्ध के कारण 1. समझौते का उल्लंघन
बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में लिखा है कि राणा सांगा का दूत काबुल में उसके पास एक संधि प्रस्थताव लेकर उपस्थित हुआ और यह निश्चित हुआ कि’बाबर पंजाब की ओर से इब्राहीम पर आक्रमण करेगा और राणा सांगा आगरा की ओर से । आधुनिक शोध से यह स्पष्ट हो गया हैं कि इस प्रकार का समझौता अवश्य हुआ था किन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार ‘पहल राणा की ओर से न की जाकर बाबर की ओर से की गई । तथा उल्लंघन सांगा द्वारा ही किया गया था । अत: बाबर सांगा से युद्ध करना चाहता था |
2. धार्मिक कारण
पानीपत युद्ध के परिणाम ज्ञात होते ही राणा ने अपना साम्राज्य विस्तार प्रारम्भ कर दिया । रणथंभौर के पास खंडार दुर्ग सहित करीब 200 स्थानों पर उसने अधिकार कर लिया जो इससे पूर्व सल्तनत के अधीन थे । अत: बाबर का चिंतित होना स्वाभाविक ही था । राणा स्वयं को हिन्दू धर्म का रक्षक मानता था | उधर बाबर चाहता था कि उस इस्लामी शासन को बनाये रखा जाय जो दिगत कुछ शताब्दियों से भारत पर चला आ रहा था ।
3. राजपूत-अफगान गठबंधन
राणा ने महमूद लोदी तथा हसनखां मेवाती को अपने पक्ष में मिला लिया । यह अफगान-राजपूत मैत्री बाबर के लिए अत्यधिक खतरनाक सिद्ध हो सकती थी । अनेक अफगान राणा के पास ससैन्य पहुँचने लगे । इस मैत्री से बाबर चिन्तित हुआ तथा संघर्षअनिवार्य हो गया ।
4. दोनों की महत्वाकांक्षा
बाबर एवं सांगा दोनों ही महत्वाकांक्षी थे । अत: युद्ध अवश्यंभावी हो गया था । दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ होने लगी ।
7.11 खानवा का युद्ध (16,1527 ई.)
बाबर की गतिविधियों का अवलोकन कर राणा सांगा ससैन्य जनवरी 1527ई. के अंत में चित्तौड़ से रवाना हुआ । रणथंभौर होता हुआ दह बयाना पहुँचा और16 फरवरी को महँदीख्वाजा से बयाना दुर्ग छीन लिया । इसके बाद राजपूत सेना ने भुसावर में पड़ाव डालकर बाबर को काबुल एवं दिल्ली से मिलने वाली सहायता को रोक दिया | मार्च 1,1527 ई. को राणा सांगा फतहपुर सीकरी से 16 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में स्थित खानवा के मैदान में आ गया । बाबर आगरा से 16 फरवरी को रवाना हुआ | उसकी सेना की दशा बड़ी दयनीय थी | बयाना-युद्ध से भागे हुए सैनिकों ने राजपूत शक्ति का बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया तथा मुगल सेना को हतोत्साहित कर दिया । सभी कायरता की बातें करने लगे । ईरान के ज्योतिषी मुहमद शरीफ की भविष्यवाणी “विजय में संदेह’ ने स्थिति को और अधिक जटिल बना दिया था । बाबर चिंतित तो था किन्तु विचलित नहीं हुआ | उसने अपने शराब पीने के सभी पात्र तुडवा दिये तथा भविष्य में कभी भी शराब न पीने की कसम खाई । साथ ही सेना के समक्ष उसने एक कूटनीतिक ओजस्वी भाषण भी दिया जिससे सेना में नवीन उत्साह का संचार हुआ और सैनिक युद्ध करने को तैयार हो गये ।
सांगा व बाबर के नेतृत्व में दोनों सेनायें आमने-सामने डटी रही और शनिवार मार्च 16,1527 ई. को प्रातः 930 बजे भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ | बाबर ने पानीपत के आधार पर ही सेना की गृह रचना की । मुगल तोपखाने द्वारा भयंकर आग बरसाने पर भी वीर राजपूतों ने अपने निरंतर आक्रमणों से बाबर के होश गुम कर दिये थे । इस बीच राणा सांगा के तीर लग जाने से बेहोशी की हालत में उसे मैदान से हटा लिया गया । राणा के बाद सलूम्बर के रावत रतनसिंह और झाला अज्जा ने युद्ध जारी रखा; किन्तु राजपूतों की हार हुई ।
राणा की हार के कारण
सैनिक संख्या की अधिकता एवं सांगा जैसे योग्य नेतृत्व के उपरान्त भी राजपूत पराजित हुए. इस पराजय के निम्नांकित कारण हैं:
1. विश्वासघात:- कर्नल टॉड, श्यामलदास ने राणा की हार का प्रमुख कारण सिलहदी तंवर का विश्वासघात माना है । जब युद्ध चल रहा था तब तंवर बाबर से मिल गया तथा सांगा की सैनिक कमजोरियों का ज्ञान कराया जिसका लाभ बाबर ने उठाया ।
2. दैविक प्रभाव:- हरविलास शारदा का मानना है कि युद्ध के समय सांगा की आँख में तीर लग जाने से वह सैन्य संचालन नहीं कर पाया । युद्ध-क्षेत्र से उसके हटने के समाचार मिलते ही सेना में भगदड मच गई और यह हार का कारण बना ।
3. सांगा की सेना में एकता का अभाव:– राणा की सेना में विविध वंशीय सैनिक थे जो अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार युद्ध में सम्मिलित हुए थे और उनका सम्बन्ध जितना राणा से नहीं था उतना अपने वंशीय नेता से था । संपूर्ण सेना पर राणा का प्रभाव इन वंशीय नेताओं के माध्यम से था । इस प्रकार की सेना में एकसूत्र अनुशासन का रहना संभव नहीं था ।
4. अपवित्र गठबंधन:– रशब्रुक विलियम ने अफगान-राजपूत गठबंधन को अपवित्र माना है । दोनों में जो उत्साह होना चाहिए था, वह नहीं था । दोनों के उद्देश्य व आदर्श भिन्न थे । दोनों वर्ग एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते थे । युद्ध के समय इस प्रकार का आपसी संदेह हार में बदल सकता था
5. राणा की निष्क्रियता:- एलीफन्स्टन के अनुसार यदि राणा सांगा मुगलों की प्रथम घबराहट पर ही आगे बढ़ जाता तो उसकी विजय निश्चित थी | डॉ. ओझा के अनुसार राणा को बयाना-विजय के बाद खानवा पहुँच जाना चाहिए था । यों उसने पहली विजय के बाद एकदम युद्ध न करके बाबर को तैयारी करने का सुअवसर प्रदान कर दिया था ।
6. पैदल सेना की अधिकता:- राजपूतों में पैदल सैनिक अधिक थे, जबकि मुगलों की सेना अधिकांश में घुडसवारों की थी । दुतगति व पैंतरेबाजी की चाल में पैदल और घुड़सवारों का कोई मुकाबला नहीं था |
7. बाबर का तोपखाना:- राजस्थानी योद्धाओं को पहली बार तोप का सामना करना पड़ा था । बारूद के प्रयोग, तोपों और बंदूकों की तुलना में तीर-कमान भाले तलवारें बर्छियाँ आदि निम्न कोटि के थे । ‘तीर गोलियों का प्रत्युत्तर नहीं दे सके।
8. उन्नत मुगल सैनिक पद्धति:- मुगल रिजर्व तथा घुमाव पद्धति को प्रधानता देते थे और बारी-बारी से इनका प्रयोग करते थे । साथ ही इनमें तोपों और घुडसवारों की आक्रमण विधि में एक सन्तुलन था । मुगल नेता व सेनापति सुरक्षित रहते हुए युद्ध का संचालन करते थे वहाँ राजपूत एक धक्के की विधि से शत्रु दल में भगदड मचा कर, राजपूत नेता सजधज के साथ हाथी पर बैठकर स्वयं अपना शौर्य प्रदर्शित करता था जिससे वह शीघ्र ही सभी बातें का शिकार बन जाता था । राजपूत सैनिक परम्परागत युद्ध की गतिविधि से परिचित थे और उसी में विश्वास रखते थे । मुगल-व्यवस्था एक परिष्कृत सैनिक अवस्था थी जिसमें अफगान, उजबेग, तुर्क, मंगोल, फारसी, भारतीय आदि युद्ध प्रणालियों को समाविष्ट किया गया था । अत: पुरातन और नवीन पद्धति की कोई तुलना न थी । इन कारणों से सांगा व राजपूती सेना खानवा के मैदान में बाबर से लडती हुई पराजित हुई। युद्ध के परिणाम:- खानवा का युद्ध जो कोई 10 घंटे चला अविस्मरणीय युद्धों में से एक था । युद्ध का निर्णय अंत समय तक तुला में लटका रहा | पानीपत के युद्ध का कार्य खानवा के युद्ध ने पूरा किया | इसने राजपूतों के भारतीय राज्य के स्वप्न को भंग कर दिया ।
इसके परिणाम निम्नांकित रहे –
1. बाबर की कठिनाइयों का अंत:- खानवा का युद्ध एक निर्णायक युद्ध था । इस युद्ध ने बाबर की कठिनाइयों का अंत कर दिया । उसे अपने जीवन की रक्षार्थ जगह-जगह घूमना पड़ा था | काबुल से भारत आने पर भी उसे शांति नहीं मिली थी । राणा सांगा पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त बाबर तथा उसके सैनिकों को किसी प्रकार की चिन्ता न रही और उनके लिए भारत में आगे विजय करना सरल हो गया ।
2. राजपूत-शक्ति खंडित:- रशब्रुक विलियम्स ने बताया कि इस युद्ध से भारतवर्ष की सर्वभौमिकता राजपूतों के हाथ से निकल कर मुगलों के हाथ में चली गई थी । लेनपूल ने इस विजय को अंतिम और पूर्ण माना है | उसका तो मानना है कि यदि बाबर राजपूतों का पीछा करता तो एक भी राजपूत जीवित नहीं रह सकता था । निःसंदेह यह कथन अतिशयोक्ति पूर्ण है | राजपूतों की सैनिक शक्ति खंडित हो गई थी किन्तु पूर्णत: नष्ट नहीं हुई । सय बाबर ने भी यह माना है कि राजपूत हारे है परन्तु उनकी शक्ति नष्ट नहीं हुई । अत उसने खानवा-युद्ध के बाद राजस्थान पर आक्रमण करने की नही सोची ।
3. राणा का स्वप्न भंग:- मेवाड के लिए तो इस युद्ध के घातक प्रभाव ही हुए | सांगा का यह सम था कि वह बाबर को परास्त कर दिल्ली पर हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करेगा परंतु उसका स्वप्न साकार न हो सका और सांगा की पराजय उसकी मृत्यु का कारण बनी ।
4. मुगल साम्राज्य की स्थापना:- इस युद्ध के परिणाम स्वरूप भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई जो आगामी 200 वर्षों तक बना रहा । तब कोई ऐसा नरेश नहीं था जो कि मुगलों का सामना कर पाता | वास्तव में इस युद्ध ने पानीप्रत के कार्य को पूरा कर दिया । इसके बाद राजपूत कभी भी संगठित नहीं हो सके ।
5. बाबर के स्थाई राज्य की स्थापना:- इस युद्ध के राजनीतिक परिणाम भी महत्वपूर्ण रहे थे । जैसा कि बताया गया बाबर का घुमक्कडू जीवन समाप्त हो गया । अब तक वह काबुल के गीत गाया करता था । उसे यह देश अच्छा नहीं लगता था किन्तु इस विजय ने उसे काबुल को भुला दिया और शेष जीवन उसने भारत में ही बिताया ।
6. बाबर की राजल भावना में परिवर्तन- अब बाबर की राजत्व भावना में भी बड़ा परिबर्तन आया । उसने बादशाह की उपाधि धारण की । वह शासक के दैवी सिद्धांतों में विश्वास करता हुआ अपने आपको ईश्वर की प्रतिछाया मानता था जिसे धीरे-धीरे लोगों के हृदय में भी स्थान कर लिया ।
7. अफगानों के विध्वंस में सरलता:- खानवा के युद्ध में राजपूतों की शक्ति का विनाश हो जाने से बाबर को अफगानों की बची हुई शक्ति का विध्वंस करने में तथा विद्रोह का दबाने में बड़ी सहायता मिली ।
8. युद्ध प्रणाली में परिवर्तन:- खानवा युद्ध के बाद युद्ध के तरीकों में भी भारी परिवर्तन हो गया था । राजपूत भी गोला-बारूद के प्रयोग से परिचित हुए तथा हाथियों का महत्व घटने लगा | नई रणनीति तुलुगमा पद्धति का प्रयोग प्रारम्भ हुआ |
7.12 सांगा की मृत्यु
राणा सांगा को खानवा के युद्ध से घायल अवस्था मे बसवा ले जाया गया । पुन: होश आने पर उसने बाबर से युद्ध कर बदला लेने की इच्छा बक्त की | उसने चित्तौड लौटने के बजाय ससैन्य चंदेरी पहुँच कर युद्ध करना चाहा किन्तु उसके सरदारों ने, जो युद्ध के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थे, राणा को विष दे दिया । जिससे जनवरी 30,1528 ई. को उसका देहांत हो गया । उसका पार्थिव शरीर कालपी से माँडलगढ लाया गया और वही उसकी दाह-क्रिया की गई, जहाँ आज भी उसका स्मारक छत्री के रूप में अवस्थित हैं ।
राणा सांगा मझोले कद का हृष्ट-पुष्ट योद्धा था | बदन गठा हुआ, चेहरा भरा हुआलम्बे हाथ, बड़ी-बड़ी आँखें और रंग गेहुँआ था । मृत्यु के समय उसके एक आँख, एक हाथ और एक टाँग ही थी और उसके शरीर पर 80 घावों के निशान भी मौजूद थे फिर भी उसका यश, प्रभुत्व और जोश कम नहीं हुआ था । वास्तव में मेवाड़ के महाराणाओं में सांगा ऐसा प्रतापी शासक था जिसने अपने पुरुषार्थ से मेवाड को उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया । बाबर ने भी स्वीकार किया कि ‘राणा सांगा अपनी बहादुरी और तलवार के बल पर बहुत बड़ा हो गया था | मालवा, दिल्ली और गुजरात का कोई अकेला सुल्तान उसे हरा नहीं सकता था ।
7.13 सांगा के बाद मेवाड़
खानवा के निर्णायक युद्ध के पश्चात भी बाबर हो राजस्थान की ओर बढ़ने का साहस नहीं हुआ परंतु मेवाड की आन्तरिक घटनाओं ने उसको अधिक निर्बल बनाने में सहयोग दिया | सांगा ने अपने जीवन काल में ही राज्य का विभाजन कर दिया था । रणथंभौर का क्षेत्र उसने अपने छोटे पुत्र विक्रमादित्य व उदयसिंह को दे दिया था और रानी कर्मवती को जो इन राजकुमारों की माँ थी, संरक्षक नियुक्त कर दिया । सांगा के बाद उसका बड़ा लड़का रतनसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा । उसने यह विभाजन कभी मन से स्वीकार नहीं किया था । अत: गद्दी पर बैठने के पश्चात रणथंभौर को लेने का पुन: प्रयास किया परंतु कर्मवती और उसके भाई सूरजमल हाडा (बून्दी) ने दुर्ग देने में आना-कानी ही नहीं की अपितु सम्पूर्ण मेवाड़ का विक्रमादित्य को शासक बनाने का प्रयास किया । कर्मवती ने तो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाबर तक का सहयोग मांगा । मेवाड के सौभाग्य से बाबर अन्य क्षेत्रों में व्यस्त होने अथवा कर्मवती के प्रस्ताव को गम्भीरता से न लेने से उसकी स्वतंत्रता को आँच नहीं आई । परंतु आपसी मनोमालिन्य का प्रभाव यह पड़ा कि रतनसिंह एवं सूरजमल ने एक दूसरे को मारने के प्रयास में अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली । रतन सिंह के कोई सन्तान न होने से विक्रमादित्य 1531 ई. में मेवाड का महाराणा बना ।
इस प्रकार गृह कलह का तो अन्त हो गया परंतु मेवाड की दुर्दशा का अन्त नहीं हुआ | विक्रमादित्य के कार्य कलापों से सामन्तों के विद्रोह होने लगे, प्रशासनिक अवस्था छिन्न-भिन्न हो गई तथा आर्थिक दशा पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था । ऐसे समय में गुजरात के बहादुरशाह के दो आक्रमणों का सामना मेवाड को करना पड़ा । परिणामस्वरूप बडी संख्या में सैनिक मारे गये और बहादुरशाह का अधिकार हो गया | कर्मवती ने हजारों स्त्रियों के साथ जौहर किया |कुछ समय बाद राजपूतों ने चित्तौड को पुन: अधिकार में कर लिया । राणा विक्रमादित्य, जिसे युद्ध के समय बून्दी भेज दिया गया था, पुन: चित्तौड की गद्दी पर बैठा | परंतु विक्रमादित्य ने इतना सब होते हुए भी अपनी कार्य प्रणाली में कुछ भी परिवर्तन नहीं किया | बाध्य होकर सामन्तों ने सागा के बड़े भाई पृथवीराज के ओरस पुत्र बनबीर के नेतृत्व में संगठित होकर विक्रमादित्य की हत्या कर डाली मेवाड का राज्य निष्कंटक बनबीर को मिल जाए इसलिए उसने विक्रमादित्य के अनुज उदयसिंह को भी मारने का प्रयास किया परंतु पन्नाधाय के अनुपम त्याग से उदयसिंह को सुरक्षित कुम्भलगढ पहुँचा दिया गया । बनबीर काव्यवहार भी सामन्तों के प्रति ठीक नहीं था । अत: कुछ सामन्तों ने अब उदयसिंह का नेतृत्व स्वीकार कर लिया और बड़े प्रयासों के बाद बनबीर पर हमला कर 1540 ई. में उदयसिंह को चित्तौड का महाराणा बना दिया ।
उदयसिंह को गद्दी पर बैठते ही दिल्ली के सुल्तान शेरशाह की समस्या का सामना करना पड़ा । इन समस्याओं से निपटने के बाद उदयसिंह का ध्यान मेवाड में प्रशासनिक अवस्था स्थापित करने, विद्रोहियों का दमन करने, सामरिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने की ओर गया ही था कि तब तक मेवाड को अकबर के आक्रमण का सामना करना पड़ा । अकबर ने राजस्थान में अपने साम्राज्य-विस्तार कार्यक्रम में मुख्य बाधा मेवाड को मान चित्तौड पर आक्रमण किया | अक्टूबर 1567ई. में उसने चित्तौड़ को जा घेरा । इसके पूर्व ही मेवाड की युद्ध परिषद के निर्णय के अनुसार चित्तौड को जयमल व पत्ता के नेतृत्व में रख उदयसिंह राज्य की दक्षिणी पहाड़ियों में चला गया | अकबर ने चार मास के कडे संघर्ष के पश्चात चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया | इस युद्ध में मेवाड के आठ हजार योद्धा काम आये तथा करीब तीस हजार निरीह जनता का अकबर की आज्ञा से मुगल सैनिकों ने वध किया । इस युद्ध के कुछ वर्षों बाद फरवरी 28,1572 ई. को उदयसिंह का गोगुन्दा में देहान्त हो गया । उदयसिंह की इच्छानुसार उसके छोटे लडके जगमाल का राजतिलक हुआ | परंतु उसके बड़े पुत्र प्रताप के साथ हुए अन्याय को सामन्तों ने बर्दाश्त नहीं किया और जगमाल को हटा प्रताप का राजतिलक किया । इन विषम परिस्थितियों में प्रताप मेवाड का महाराणा बना ।
7.14 महाराणा प्रताप
प्रताप का जन्म मई 9,1540 ई. को हुआ था । उसकी माता जयवंता बाई पाली के अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री थी । फरवरी 1572 ई. में प्रताप के पिता महाराणा उदयसिंह की गोगुन्दा में मृत्यु हो गई । उसने प्रताप के अधिकारों की अवहेलना कर अपने दूसरे पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, क्योंकि जगमाल की माता भटियाणी पर उसकी विशेष कृपा थी | अत: उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल को राजगद्दी पर भी बैठा दिया था, किन्तु यह स्थिति अधिक देर तक न रही । जालोर के अखैराज सोनगरा व ग्वालियर के रामशाह तंवर ने इसका विरोध किया । तब रावत कृष्णदास व रावत सांगा ने अन्य प्रमुख सामन्त-सरदारों की सहमति से प्रताप को गद्दी पर बिठाने का निर्णय कर, उदयसिंह की दाह क्रिया से लौटते ही फरवरी 26,1572 ई. को प्रताप को गोगुन्दा मे मेवाड की राजगद्दी पर बिठाया । इससे क्रुद्ध हो जगमाल मेवाड छोड़कर चला गया | अजमेर के सूबेदार के प्रयत्नों से उसे अकबर ने पहले जहाजपुर का परगना और फिर सिरोही का आधा राज्य प्रदान किया । परंतु दुर्भाग्य ने जगमाल का वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा और अक्टूबर 17,1583 ई. को हुए दताणी युद्ध में वह काम आया ।
7.15 मेवाड़ की दशा
जब प्रताप गद्दी पर बैठा उस समय मेवाड में कुछ भी नहीं बचा था । आर्थिक एवं सामाजिक जीवन नष्ट हो गया था, व्यापार एवं उद्योग-धन्धे समाप्त से हो गये थे । प्रशासनिक व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त थी | मेवाड का उपजाऊ प्रदेश मुगलों के पास था । चित्तौड़ पतन के बाद उदयसिंह आर्थिक स्थिति में अधिक सुधार भी नहीं कर पाया था । सभी महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग अवरूद्ध थे । ऐसी कठिन परिस्थितियों में प्रताप मेवाड का महाराणा बना । उस समय उसकी आयु 31 वर्ष के लगभग थी | मेवाड में इस समय ग्वालियर और सिरोही के शासक आश्रय पा रहे थे तथा मेवाड को छोड, शेष राजस्थान के शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और कई एक ने तो मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित कर लिए थे । इन परिस्थितियों में मुगलों से युद्ध अवश्यभावी था । अबकर एक महत्वकांक्षी शासक था । उत्तरी भारतवर्ष में मेवाड को, जिसका क्षेत्रफल भले ही कम हो किन्तु एक स्वतंत्र राज्य के रूप में उसका महत्व था, अकबर मेवाड को अपने अधीन करना चाहता था किन्तु वह यह भी जानता था कि मेवाड़ पर एकाएक विजय प्राप्त करना भी आसान नहीं हैं । यों देखा जाय तो अकबर की साम्राज्यवादी लिप्सा में मेवाड के स्वतंत्र अस्तित्व का कोई स्थान नहीं था । तत्कालीन सर्व शक्तिमान शासक के लिए तो मेवाड की स्वतंत्रता वस्तुत: एक बहुत बड़ी चुनौती थी । ऐसे समय में महाराणा प्रताप के सामने दो ही मार्ग थे- 1. या तो वह अन्य राज्यों के अनुरूप अकबर की अधीनता स्वीकार कर अकबरी साम्राज्य में उच्च ओहदा (स्थान, पद) प्राप्त करे अथवा 2. संघर्ष के लिए तैयार रहे | दूसरा मार्ग कंटकमय था । परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल थीं । परंतु इन सब विपरीत परिस्थितियों के उपरान्त महाराणा के सामने स्पष्ट आदर्श था । प्रताप को स्वतंत्रता प्रिय थी । इसकी रक्षा के लिए वह सब कुछ बलिदान करने को तत्पर था । इस उच्च आदर्श से प्रेरित होकर प्रताप ने दूसरा ही विकल्प ग्रहण किया ।
7.16 संघर्ष की प्रारम्भिक तैयारियां
यों अकबर और प्रताप का संघर्षसाम्राज्य-विस्तार और स्वातंन्य-प्रियता के बीच का संघर्ष था | प्रताप ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति से मेवाड में एकता स्थापित करने का प्रयास किया | उसने राज्य के दो प्रमुख आधार स्तम्भों-सामन्तों और भीलों को एक सूत्र में संगठित किया | डॉ.गोपीनाथ शर्मा के मतानुसार “प्रताप प्रथम शासक था जिसने भीलों के महत्व को समझा तथा भील-राजपूत शासन व्यवस्था की नीव डाली | प्रताप ने संघर्ष की तैयारी हेतु गोगुन्दा के बजाय कुम्भलगढ को अपनी राजधानी बनाया । यही पर प्रताप ने जब अपने सिंहासनारूढ़ होने का उत्सव मनाया तब मारवाड का सब चन्द्रसेन भी उस समय कुम्भलगढ में उपस्थित था । इस घटना से यह प्रतीत होता है कि प्रारम्भ से ही प्रताप ने अपने सीमित साधनों का अधिक से अधिक लाभ उठाने की दृष्टि से राजस्थान की अन्य शक्तियों से संगठन वार्ता शुरू कर दी । तब राजस्थान में राव चन्द्रसेन मुगल-विरोध का प्रतीक था और कुम्भलगढ में उसकी उपस्थिति, राठौड़-सिसोदिया गतवचन का एक कारण बन सकती थी तथा दोनों ही जातियों का संगठन मुगलों के लिये काफी कठिनाई उत्पन्न कर सकता था । दोनों के बीच वार्ता हुई और दोनों ने मुगलों का विरोध करने का निश्चय किया तथा एक-दूसरे को सहायता देने का आशवासन भी दिया। संधि वार्ता
उधर अकबर की भी मान्यता थी कि मेवाड की अस्त-व्यस्त स्थिति के उपरान्त भी प्रताप से युद्ध करना आसान नहीं, अत: अकबर ने वार्तालाप द्वारा प्रताप को अधीनता स्वीकार कराने का प्रयास किया | 1572 ई. से 1576 ई. के बीच एक के बाद एक करके चार शिष्ट मण्डल प्रताप के पास इसी उद्देश्य से भेजे | महाराणा जानता था कि वार्तालाप से कोई हल नहीं निकलने वाला है, परंतु भावी संघर्षकी तैयारी के लिये आवश्यक समय प्राप्त किया जा सकता हैं । अत: बातचीत के द्वार अपनी ओर से बन्द नहीं किये । वास्तव में अपने व्यवहार से महान कूटनीतिज्ञ होने का उसने परिचय दिया | अकबर ने प्रताप से संधि कर अधीनता स्वीकार कर लेने हेतु निम्न प्रकार से शिष्ट मण्डल भेजे । शिष्ट मण्डल के प्रयास अगस्त 1572 ई. में अकबर ने जलालखाँ कोरजी को वार्ता के लिए मेवाड भेजा । जलालखाँ बुद्धिमान व वाक्पटु दरबारी था । प्रताप ने भी उसका स्वागत किया परंतु उसे असफल ही लौटना पड़ा । यों अपने प्रथम प्रयास के अनुकूल परिणाम न देख अकबर ने इस कार्य के लिये राजस्थानी सामन्तों में से किसी को भेजने की सोची । इस नीति के पीछे अकबर का दोहरा उद्देश्य हो सकता था । उसका मानना था कि सजातीय होने से उनमें घनिष्ठता की भावना हो सकती है और बातचीत संभव हो सकती है । वार्ता असफल हो जाने पर प्रताप विरोधी भावना राजपूत शासकों में प्रज्जवलित हो जावेगी जिसकी अकबर को आवश्यकता थी । इसलिये गुजरात-विजय के पश्चात् मानसिंह को मेवाड में भेजा । किन्तु उसके असफल लौट आने पर अकबर 1573 ई. में राजा भगवंतदास को भेजा परन्तु वह भी असफल ही आया ।
इसके कुछ समय पश्चात् अकबर ने एक और प्रयास किया और राजा टोडरमल को भेजा किन्तु उसे भी अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली । यों वार्तालाप से अधीनता स्वीकार कराने मे जब अकबर सफल नहीं हुआ तो उसने अब शक्तिप्रदर्शन के माध्यम का आश्रय लिया । मानसिंह की नियुक्ति काबुल एवं अन्य स्थानों से छुटकारा पाकर अकबर 1576 ई के प्रारम्भिक महीनों में मेवाड-अभियान प्रारम्भ करने के उद्देश्य से अजमेर पहुँचा | यहाँ रहकर वह युद्ध क्षेत्र की नवीनतम गतिविधियों से सम्पर्क रख सकता था । यहीं उसने अप्रेल 3,1576 ई को मानसिंह के नेतृत्व में मुगल अभियान प्रारम्भ करने की घोषणा की । जे.एम. शैलेट के मतानुसार मानसिंह को नेतृत्व देना अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है । हेमू को छोड़कर यह पहला अबसर था जब मुस्लिम सेना का नेतृत्व किसी हिन्दू को दिया गया हो । मुस्लिम सामन्तों में इसका विरोध था । स्वयं अकबर भी विरोध से परिचित था इसलिये मानसिंह की नियुक्ति की घोषणा आगरा से न कर अजमेर से की । बदायूँनी का कहना है कि नकीब खाँ इस युद्ध में सम्मिलित होना चाहता था परन्तु हिन्दू के हाथ में नेतृत्व होने के कारण उसने इसमें सम्मिलित होना उचित नहीं समझा । मुगल मनसबदारों के अतिरिक्त मानसिंह की नियुक्ति के पीछे अकबर के कुछ निश्चित उद्देश्य होने चाहिए । ऐसा प्रतीत होता है कि उसका मुख्य उद्देश्य राजपूतों में प्रताप के विरूद्ध लड़ने की अनिच्छा को समाप्त करना था ।
अकबर का मानना था कि मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेनायें होने के कारण प्रताप पहाडों की सहायता न लेकर खुले मैदान में लडेगा क्योंकि आमेर के शासक कुछ समय पूर्व तक मेवाड की अधीनता में थे । ऐसे वंश के व्यक्ति के नेतृत्व में मेवाड के विरुद्ध आने वाली सेना का मुकाबला करने के लिये प्रताप पहाड़ी की बजाय खुले मैदान में लडना चाहेगा | क्योंकि अकबर यह जानता था कि यदि प्रताप खुले मैदान में लडेगा तो मुगलों को सफलता प्राप्त हो सकेगी ।
प्रताप को मानसिंह के नेतृत्व में आने शली मुगल सेना के बारे में समाचार मिला तो उसने माँडलगढ तक पहुँचकर सामना करने का निश्चय किया परंतु अपने सामंतों के विरोध के कारण उसे अपना यह विचार छोडना पड़ा उधर मानसिंह अजमेर से रवाना हो माँडलगढ पहुँचा जहाँ वह दो माह तक ठहरा रहा ।
इतने लम्बे समय तक ठहरे रहने के पीछे उसके दो उद्देश्य थे –
1 अपने रसद माल को सुरक्षित रखना तथा
2. प्रताप के धैर्य को समाप्त करना |
माँडलगढ से रवाना हो बनास नदी के किनारे मोलेला नामक स्थान पर मुगल सेना ने पडाव डाला | प्रताप को जब शाही सेना के माँडलगढ से प्रयाण के समाचार मिले तो वह भी ससैन्य गोगुन्दा से लोसिंग पहुँचा । सामरिक दृष्टि से प्रताप के लिये यह बड़ा ही उपयुक्त स्थान था । प्रताप के लिए सबसे अच्छी रणनीति यह होती कि मानसिंह को वही आने को बाध्य करता और संकरे मार्ग में घेर कर उसकी सेना को नष्ट कर देता । किन्तु एक तो राजपूतों ने तब तक छापामार युद्ध की कला को पूरी तरह समझा न था, दूसरे प्रताप के बीर सरदार शत्रु पर टूट पडने को आतुर थे । इसलिये प्रताप इस दुर्गम मार्ग से होकर आगे बढ़ा | सेना का जमाव प्रताप ने अपनी सेना का विभाजन करते हुए हरवल का नेतृत्व पठान हकीमखां सूर को दिया तथा मुख्य सेना के दाहिने पार्श्व में भामाशाह तथा उसका भाई ताराचन्द और ग्वालियर को भूतपूर्व राजा रामशाह को अपने पुत्रों सहित तैनात किया | बायें पार्श्व में मानसिंह, अखैराजोत सोनगरा मानसिंह झाला, बीदा झाला आदि के साथ नियुक्त था | पृष्ठ भाग में मील धनुर्धारी और केन्द्र में प्रताप था | चन्दावल में अपने साथियों सहित पानरवा का राणा-पूँजा था । मुगल सेना का जमाव
उधर मानसिंह ने शाही सेना को जमाते हुए हरवल में जगन्नाथ कछवाहा और आसफखां को रखा तथा सैयद हाशिम बारहा की देखरेख में कोई 80 योद्धाओं को रखा गया था जिन्हें चूजे इरावल कहा जाता है । मुख्य सेना के बायें भाग का नेतृत्व गाजीखां बदख्शी कर रहा था । दाहिने भाग का नेतृत्व सैयद अहमद खां बारहा कर रहा था और पृष्ठ भाग में चन्दावल का नेतृत्व महतर खां के अधीन था । मानसिंह केन्द्र में था ।
ख्यातों में आये वर्णन के अनुसार मानसिंह के अधीन मुगल सेना में अस्सी हजार और राणा की सेना में 20 हजार घुडसवार थे । नैणसी, मानसिंह की सेना की संख्या चालीस हजार और राणा की 9-10 हजार बताता है लेकिन टॉड का मत है कि बाईस हजार वीर राजपूत युद्ध क्षेत्र में उतारे उनमें से 14 हजार युद्ध-क्षेत्र में मारे गये । बदायूनी मानसिंह की सैनिक संख्या पाँच हजार तथा राणा की तीन हजार बताता है । इस प्रकार दोनों सेनाओं की संख्या को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं ।।
7.17 हल्दीघाटी का युद्ध
दोनों सेनायें कुछ दिनों तक प्रतीक्षा करती रही परंतु अन्त में व 8 जून 1576 ई. को प्रताप की सेना के अग्रभाग ने, जिसका नेतृत्व हकीम खां कर रहा था, पहाडों से निकल कर मुगल सेना पर आक्रमण किया । इस आक्रमण से मुगल सेना का हरावल छिन्न-भिन्न हो गया । यहाँ तक कि वाम पार्श्व में नियुक्त मुगल सैनिक भी भेडों के झुण्ड की तरह भाग निकले । इसी प्रकार मेवाड की सेना का दूसरा भाग जो प्रताप के नेतृत्व में था उसने भी आक्रमण कर मुगल सेना में खलबली मचा दी । अच्छे-अच्छे मुगल योद्धा युद्ध भूमि से 15-20 किमी से भी अधिक दूर भाग कर जीवन सुरक्षित रख सके । राणा और मानसिंह का भी आमना-सामना हो गया | मानसिंह सौभाग्य से ही बच सका | राणा ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया । हाथियों का युद्ध भी रोमांचक था जैसे ही प्रथम आक्रमण के बाद मुगल पुन: व्यवस्थित हुये तो प्रताप ने युद्ध को खुले मैदान से हटाकर पहाडी क्षेत्र में मोड़ना चाहा | इसी उद्देश्य से अपनी सेना के दोनों भागों को एकत्रित कर पहाड की ओर रवाना हुआ | परंतु मुगल सेना में प्रताप का पीछा करने का साहस व शक्ति नहीं थी । मुगलों को भय था कि प्रताप की सेना पहाड़ों में घात लगाकर न बैठी हो । वास्तव में अगर प्रताप का पीछा करती हुई मुगल सेना पहाडी क्षेत्र के आन्तरिक भाग में पहुँच जाती तो थकी हुई मुगल सेना परकहर गिर पड़ता | अत: वे अपने पडाव में लौट गये । युद्ध का प्रारंभ घाटी के मुहाने से हुआ था और यहाँ मिट्टी का रंग हल्दी जैसा होने से इसे हल्दीघाटी का युद्ध कहते हैं । प्रमुख युद्ध रक्तताल-क्षेत्र में हुआ । यह क्षेत्र खमनोर गाँव के पास स्थित होने से इसे खमनोर का युद्ध भी कहते हैं । अबुल फजल ने इसे गोगुन्दा का युद्ध लिखा है ।
युद्ध किसके पक्ष में
इस युद्ध के दौरान सब बातों की पहल प्रताप ने अपने पास रखी । उसने मुगलों को अपने ही चुने हुए स्थान समय व तरीके से लडने को बाध्य किया । आक्रमण का प्रारम्भ भी उसने ही किया | हाथियों को भी उसने ही अपने चुने हुए स्थान पर लड़ाया तथा मैदान से पहाड़ों की ओर युद्ध को स्थानान्तरित करने का प्रयास भी उसी ने किया । प्रताप, हकीमखां सूर, ग्वालियर के रामशाह के नेतृत्व में हुये मेवाडी आक्रमण की भयंकरता को स्वयं बदायूँनी स्वीकार करता है । उसका मानना है कि इन आक्रमणों ने मुगलों की रक्षा पंक्ति छिन्न-भिन्न कर दी । अच्छे-अच्छे मुगल योद्धा युद्ध भूमि से 15-20 किमी. से भी अधिक दूर भाग कर जीवन सुरक्षित रख सके | मानसिंह भी सौभाग्य से ही बच पाया | मुगलों की सैनिक संख्या प्रताप से करीब तीन गुना थी । अत: जैसे ही प्रथम आक्रमण के बाद मुगल सैनिक पुन: व्यवस्थित हुये तो प्रताप ने युद्ध को खुले मैदान से हटा पहाड़ी क्षेत्र की ओर मोडना चाहा | इस उद्देश्य की पूर्ति के सन्दर्भ में बदायूँनी लिखता है कि मैदान से हटने के पहले प्रताप की सेना के दोनों भाग मिले और पहाड़ों की ओर लौट गये, ऐसी स्थिति में इस भय से कि प्रताप सेना सहित पहाड़ों में छिपा हुआ है मुगल सेना का उधर जाने का साहस नहीं हुआ | मानसिंह स्थिति को जानता था | प्रताप के पहाडी में नये चुने हुये स्थान पर लड़ने का अर्थ सम्पूर्ण मुगल सेना की जान खतरे में डाल देना होता । अगर मानसिंह चतुराई न करता और प्रताप के जाल में आ जाता तो उसे करारी हार का सामना करना पड़ता | प्रताप का पलड़ा भारी परिस्थितियों को देखें तो स्पष्ट है कि प्रताप हारा नहीं । अगर ऐसा होता तो मुगल संघर्षमें प्रताप के अनुयायी ही उसका नेतृत्व सीकार नहीं करते | 50 वर्ष पूर्व खानवा युद्ध की हार के पश्चात् सांगा बाबर से लड़ने के लिये चंदेरी की ओर रवाना हुआ परन्तु उसके सामन्तों ने उसके नेत्व में लड़ने के बजाय सांगा को विष देकर उसका जीवन समाप्त कर दिया | हल्दीघाटी के युद्ध के चालीस वर्ष बाद प्रताप के उत्तराधिकारी अमरसिंह ने लम्बे संघर्ष के बाद 1615 ई. में मुगलों से संधि कर ली | यह संधि मेवाड के लिये पूर्ण सम्मानजनक थी फिर भी समझौता कर लेने से अमरसिंह को इतनी आत्मग्लानि हुई कि अपने शेष जीवन काल में महलों से बाहर नहीं आया । उसने राज्य कार्य अपने पुत्र के हाथों में सौप दिया । प्रताप का शासक बनने के बाद यह पहला ही युद्ध था इसमें हार जाने पर किसी भी स्थिति में उसका नेतृत्व स्वीकार नहीं होता |
बदायूँनी भी जीकार करता है जब युद्ध के समाचार लेकर वह अकबर के पास जा रहा था तब मार्ग में मुगल-विजय के बारे में बताता तो कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता । यहाँ तक कि अकबर ने भी मानसिंह द्वारा भेजे गये संदेश पर विश्वास नहीं किया । अत: महमूद खां को वास्तविक स्थिति का पता लगाने मेवाड़ भेजा । परिणाम इस युद्ध का सर्वाधिक महत्व इस बात में है कि गत अर्द्ध शताब्दी से चले आ रहे राजस्थान मुगल संघर्षमें पहली बार मुगल मेवाड़ को हरा न सके | मुगलों की निरन्तर विजयों से उनके अजेय होने का जो भ्रम भारतीय राजनीतिक क्षितिज में व्याप्त था उसे इस युद्ध ने ध्वस्त कर दिया । कतिपय इतिहासकारों ने इस युद्ध में प्रताप की हार बताई तथा युद्ध क्षेत्र से भाग जाने की बात कही । लेकिन पर्शियन इतिहासकार बदायूँनी जो सय युद्ध क्षेत्र में मुगलों की ओर से लड़ने के लिए उपस्थित था उसकी पुस्तक के आलोचनात्मक अध्ययन से उपर्युक्त कथन निर्मूल सिद्ध होता है । ‘राजप्रशसित’ ‘राजप्रकाश’ सूरखण्ड शिलालेख व ‘जगदीश मंदिर प्रशस्ति’ ने स्पष्ट रूप से प्रताप को विजयी माना हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस प्रकार के साधनों में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन की सम्भावना रहती है परंतु हार को विजय में परिणत कर दे इतनी नहीं । किसी भी राजस्थानी स्त्रोतों में पूर्ण पराजय को विजय में बदलने का उदाहरण नहीं मिलता हैं । खानवा की हार को किसी ने न तो जीत कहा न ही अनिर्णायक युद्ध माना, न ही 1568 ई. में अकबर के चित्तौड अधिकार को नकारा है । अत: यह दोष उपर्युक्त प्रशस्तियों के निर्माता अथवा उत्कीर्णकर्ताओं पर भी नहीं लगाया जा सकता |
अगर मुगल विजयी होते तो मानसिंह व आसफखां को पारितोषिक मिलता | इसके विपरीत मुगल दरबार में उनकी उपस्थिति पर भी पाबन्दी लगा दी । यद्यपि यह आज्ञा कुछ समय पश्चात् वापिस ले ली गई परंतु इससे इतना तो निश्चित है कि युद्ध का संचालन एवं परिणाम आशा के अनुकूल नहीं रहा | कई इतिहासकार इसे अनिर्णायक युद्ध भी मानते हैं | प्रताप के नेतृत्व में विश्वास की वृद्धि इस युद्ध का अन्य परिणाम यह रहा कि इससे एक ओर प्रताप का स्वयं में आत्मविश्वास बढ़ा तो दूसरी ओर उसके नेतृत्व की जन-मानस में प्रगाढ़ आस्था । खानवा-युद्ध के पश्चात् ही भारत विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करने के लिये नेतृत्व विहीन हो गया था । अब इस रिक्तता की पूर्ति प्रताप के रूप में हुई । इसीलिये राजस्थान में छोटे छोटे राज्यों ने अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा की आकांक्षा में प्रताप के नेतृत्व को स्वीकार किया | बांसवाडा, डूंगरपुर, ईडर, सिरोही, जालोर, बून्दी आदि सभी ने प्रताप से संधि सम्बन्ध स्थापित किये । अकबर प्रताप के एक संगठन को तोड़ता तो प्रताप दूसरा संगठन खडा कर देता । वह इस युद्ध के बाद शेष संघर्षमें कभी अकेला नहीं रहा । अगर मुगल ईडर के नारायणदास को प्रताप से अलग करता तो प्रताप जालोर के ताजखां व जोधपुर के चन्द्रसेन से सैनिक गठबंधन कर लेता | मुगल सेनायें इनके विरूद्ध पहुँचती तो सिरोही प्रताप के साथ मुगलविरोधी अभियान के लिए तैयार मिलता । इसी प्रकार डूंगरपुर, बांसवाडा बराबर प्रताप से सैनिक सन्धि में बंधे रहे | नीति में परिवर्तन हल्दीघाटी युद्ध का राजनीतिक ही नहीं अपितु प्रताप की युद्ध नीति पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव रहा ।
इस युद्ध के अनुभव से प्रताप ने मुगल आक्रमणों का सामना करने के लिये त्रि-सूत्री युद्ध नीति अपनाई
1. जनमानस का विशाल पैमाने पर सहयोग
2. मित्र राज्यों की सेनाओं से अपने-अपने स्थानों पर मुगल-विरोधी अभियान कराना और
3. केवल मात्र छापामार युद्ध प्रणाली को अपनाना ।
प्रताप ने स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं अथवा राज्य के सैनिकों तक ही सीमित नहीं रखा । समस्त जनमानस को भी इस उच्च आदर्श के लिए प्रेरित किया । उसकी प्रेरणा से ही राज्य का प्रत्येक नागरिक स्वतन्त्रता का सैनिक बन गया । यह बहुत ही आश्र्चयजनक है कि मुगलों के सब प्रकार के प्रलोभनों के बाद भी अकबर प्रताप संघर्षमें एक भी व्यक्ति ने प्रताप का साथ नहीं छोड़ा । छापामार प्रणाली को इतना प्रभावशाली ढंग से अपनाया कि प्रताप हल्दीघाटी का युद्ध भी नहीं हारा और मुगल-मेवाड संघर्षमें वह अन्त में विजयी रहा । गोगुन्दा में मुगल सेना की दुर्दशा
युद्ध स्थल से चलकर मुगल सेना ने गोगुन्दा मे अपना पडाव डाला परन्तु प्रताप ने सुरक्षा एवं रसद सामग्री की ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि मुगल सेना बन्दियों की तरह पड़ी रही । प्रताप ने पहाड़ी प्रदेश में पूरी नाकेबन्दी कर मुगलों का रसद मार्ग अवरूद्ध कर दिया । सैनिक खाद्य पदार्थ के अभाव में भूख से व्याकुल हो गये । मुगल पड़ाव की भयावह स्थिति का वर्णन बदायूनी के विवरण से भी स्पष्ट होता है । उसने लिखा है कि महाराणा के आकस्मिक आक्रमण से भयभीत होकर अमीरों ने गोगुन्दा की गलियों में अवधान खडे कर दिये और नगर के चारों और खाई खुदवा दी और इतनी ऊँची दीवार बनवादी कि कोई भी प्रताप की सेना का सवार उसको लांघ न सके । बदायूंनी के अनुसार खाद्य सामग्री के अभाव ने सैनिकों के लिए और विकट समस्या पैदा कर दी | मेवाडी सेना के आक्रमण के भय से खाद्य-सामग्री एकत्रित करने के लिए मुगल गोगुन्दा से बाहर आने का साहस नहीं कर सकते थे । उनको अपने ही जानवरों के मांस तथा आम जो उस क्षेत्र में विशेष होते थे उनको खा कर ही सन्तोष करना पड़ा | परंतु इसका साख्य की दृष्टि से मुगल सैनिकों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा और अनेक बीमार हो गये | अत: करीब तीन माह बाद ही सैनिकों को गोगुन्दा छोडना पड़ा |
7.18 अकबर के पुन: प्रयास
मुगल सेना के गोगुन्दा से लौटते ही अकबर 1576 ई. के अन्तिम महीनों में मेवाड में आया परंतु उसको भी खाली हाथ लौटना पड़ा | उसके जाते ही प्रताप ने मेवाड़ के सममतल प्रदेशों पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया । अत: अकबर ने शाहबाज खां को अक्टूबर 1577 ई. में ससैन्य भेजा । यद्यपि वह कुम्भलगढू को लेने में सफल हुआ परंतु प्रताप को पकड़ न सका | शाहबाज खां दुबारा दिसम्बर 1578 ई. में तथा नवम्बर 1579 ई. में तीसरी बार मेवाड़ में आया परंतु प्रताप की छापामार युद्ध नीति ने इस सेना को इतना परेशान कर दिया कि सेना को असफल होकर लौटना पड़ा | 1580 ई. में अब्दुर्ररहीम खानखाना के नेतृत्व में मुगल सेना आई परन्तु प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने अचानक आक्रमण किया और खानखाना के हरम को भी अपने अधिकार में ले लिया परंतु प्रताप के आदेश से मुगल स्त्रियों को सम्मान खानखाना के पास भेज दिया । इस विजय ने प्रताप की कीर्ति को चारों ओर प्रकाशित किया तथा प्रताप को आक्रमक रूख अपनाने की प्रेरणा भी मिली | दिवेर युद्ध:- इस बीच कुम्भलगढू छोड़ने के बाद प्रताप ने अपनी सैनिक तैयारियों में कोई कमी नहीं आने दी । उसने अपना केन्द्र गोगुन्दा से उत्तर-पश्चिम में 16 कि.मी. दूर स्थित ढोलाण (ढोल) गाँव में स्थापित किया |
अकबर को अन्य क्षेत्र में व्यस्त पाकर प्रताप ने अपना सैनिक अभियान पश्चिमी मेवाड के पहाडी क्षेत्रों में स्थित मुगल थानों और चौकियों पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधिकार में लेना शुरू कर किया | उसने अपना सर्वप्रथम सम दिवेर पर अधिकार करने का रखा | दिवेर कुम्भलगढ से 40 कि.मी. दूर स्थित है । यह स्थान भौगोलिक एवं सामरिक महत्व का था । सन् 1582 ई. में विजयादशमी के आसपास प्रताप ने दिवेर पर जबरदस्त आक्रमण किया । युद्ध में कुंवर अमरसिंह ने भी अद्वितीय शौर्य का प्रदर्शन किया । ‘अमर काव्य’ के अनुसार उसने दिवेर थाने के मुखिया अकबर के काका सेरिमा सुल्तान खां पर भाले का ऐसा बार किया कि एक ही बार में सुल्तान खां एवं उसका घोड़ा मारा गया तथा उसके टोप व बख्तर के भी टुकडे-टुकडे हो गये । इस अप्रत्याशित आक्रमण तथा युद्ध में मेवाड की शानदार सफलता के कारण शेष मुगल सेनायें भाग खडी हुई । प्रताप ने उनका आमेर तक पीछा किया । दिवेर-विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई ओर मुगल सैनिक अपने शेष थाने स्वयं खाली करके भागने लग गये । वास्तव में प्रताप के भावी जीवन के बहुत बडे विजय अभियान का यह शुभारम्भ सिद्ध हुआ । परिणाम:- दिवेर है युद्ध में प्रताप को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई जिससे एक ओर मेवाड के सैनिकों तथा जनसाधारण में नये उत्साह का संचार हुआ तथा दूसरी ओर मेवाड में स्थित मुगल थानों में नियुक्त सैनिकों का मनोबल उसी अनुपात से गिरने लगा | इस युद्ध ने प्रताप की रणनीति में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया । अब तक अपनाई गयी सुरक्षात्मक नीति का स्थान आक्रामक नीति ने ले लिया । इसके बाद प्रताप को मुडकर नहीं देखना पड़ा । अब मेवाड के मुगल अधीन क्षेत्रों को मुक्त कराने में निरन्तर सफलता प्राप्त होती रही । कर्नल टॉड ने इस युद्ध को प्रताप के गौरव का प्रतीक माना तथा दिवेर को ‘मेराथन’ की संज्ञा दी है । मुक्ति अभियान:- दिवेर विजय के पश्चात प्रताप कुम्भलगढ पहुँचा | बही पर सरलता से प्रताप का अधिकार हो गया । अब वह जावर की ओर बढ़ा तथा इसको अधिकार में करने के पश्चात् चावण्ड पहुँचा
| इँगरपुर, बांसवाडा को भी अधीनता स्वीकार करने के लिये बाध्य किया । इधर अकबर का ध्यान पुन: मेवाड की ओर गया । उसने 1584 ई. में जगन्नाथ कछवाहा को मेवाड में भेजा परंतु उसे निकल लौटना पड़ा । इसके बाद प्रताप को अपने शेष जीवन के 12 वर्ष तक मुगल आक्रमणों का सामना नहीं करना पड़ा । इस अवधि में एक-एक करके माण्डलगढ एवं चित्तौड़ दुर्ग को छोड समस्त मेवाड पर प्रताप ने अधिकार कर लिया | चावण्ड में नयी राजधानी का निर्माण किया व राज्य की प्रशासनिक व आर्थिक व्यवस्था को सुचारू बनाया | साहित्य व कला के क्षेत्र में भी राज्य की आशातीत प्रगति हुई | चावण्ड में ही प्रताप का 19 जनवरी 1597 ई. के दिन स्वर्गवास हुआ |
इस प्रकार लगभग पच्चीस वर्ष तक भारतीय राजनीतिक मंच पर महत्वपूर्ण भाग लेकर प्रताप एक ऐसी वीरगाथा का निर्माण कर गया जो देश व काल के स्वतन्त्रता प्रेमियों को प्रेरणा देती रहेगी । यों प्रताप को एक राष्ट्र नायक कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा | वह भारतीय संस्कृति की परम्परा का अक्षुण्ण प्रतीक माना गया है । उसका बलिदान, सीहणुता और आदर्शों के लिये त्याग, बलिदान, शासक एवं शासित के बीच सौहार्द्र एवं घनिष्ठता पूर्ण सम्बन्ध, नेतृत्व के गुण, नैतिकता, नीतिज्ञता एवं संयम से ओत-प्रोत, राष्ट्रीयता का उन्नायक, अवस्था,विकास एवं संगठन का आलोक स्तंभ प्रताप निश्चित ही वर्तमान में भी अनुकरणीय है ।
7.19 क्या प्रताप ने अकबर से संधि न कर भूल की ?
आधुनिक काल में कुछ इतिहासकारों ने प्रताप द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकार न करने को एक भारी मूल बताया है । गोपीनाथ शर्मा का कहना है कि इस लम्बे संघर्षमें मेवाड की आर्थिक स्थिति खराब हो गई । इससे मेवाड को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला क्योंकि जर्जरित आर्थिक दशा ने प्रताप के उत्तराधिकारी अमरसिंह को बीस वर्ष बाद ही मुगल सम्राट जहाँगीर से संधि करने को बाध्य कर दिया | आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार संधि की शर्त भी लगभग वही थी जो अकबर ने विभिन्न शिष्टमण्डलों द्वारा प्रताप के सामने रखी थी । यदि प्रताप संधि की शर्ता को स्वीकार कर लेता तो प्रताप और अमरसिंह काल में जो पचास वर्षीय संघर्षचला और मेवाड सदैव के लिए पिछड़ गया, वह स्थिति नहीं आती । भारतीय एकता के रूप में भी त्रिपाठी ने प्रताप को बाधक माना है । उसका कहना है कि अकबर एक राष्ट्रीय शासक था जो समस्त भारतवर्ष को राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधना चाहता था | प्रताप के नकारात्मक विरोध के कारण उसे सफलता नहीं मिली । इतना ही नहीं त्रिपाठी ने तो अकबर के आदर्शों को बहुत उच्च मानते हुए प्रताप के संघर्षको ठीक नहींमाना है | उसने मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की नीति को भी उचित ठहराया है क्योंकि तत्कालीन समाज में इसका विरोध नहीं हुआ और इसीलिये मेवाड इस संघर्षमें बिल्कुल अकेला रहा । अकेला रहने का त्रिपाठी ने एक कारण यह भी माना है कि मेवाड जब-जब भी शक्तिशाली हुआ तो पडोसी राज्यों की स्वतन्त्रता का हनन हुआ और इसीलिये राजपूत राज्यों ने प्रताप का साथ देना ठीक नहीं समझा । यह अनावश्यक दीर्घ संघर्षत्रिपाठी के अनुसार विघटनकारी, व्यक्तिगत अहंभाव एवं तुच्छ स्वार्थो के लिये था | अकबर के महानतम आदर्शों के प्रति विरोध विरोध प्रताप की एक भयंकर भूल थी | परंतु आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने त्रिपाठी के इस मत का खंडन करते हुए कहा कि अकबर से संधि न करने का दोष प्रताप का न होकर अकबर की हठधर्मी का था | प्रताप ने सम्मानित आधार पर हमेशा समझौता करना चाहा परंतु अपमानजनक शर्तो के कारण यह समय नहीं हुआ | यदि अबुलफजल पर विश्वास करें तो यह स्पष्ट है कि प्रताप ने व्यक्तिगत दरबार में उपस्थित होने की बात छोड, समझौता करने में उत्साह दिखाया । अकबर द्वारा, भेजे गये शिष्ट मण्डल के प्रति उसने सम्मान की भावना बताई | मानसिंह के स्वागत के समय अबुलफजल ने स्पष्ट लिखा है कि अकबर ने खिल्लत धारणकी । भगवानदास के साथ प्रताप अपने लडके को भी मुगल दरबार में भेजने को तैयार था और स्वयं ने कुछ समय पश्चात् दरबार में उपस्थित होने का आश्वासन दिया । इतना होते हुए भी अकबर ने संधि की शर्तों को स्वीकार नहीं किया, अत: श्रीवास्तव के अनुसार दोष प्रताप का न होकर अकबर का है । इतना लम्बा संघर्षमेवाड न करता तो कभी भी इतनी उदार शर्त उसे नहीं मिल सकती थीं ।
वास्तव में अकबर की वास्तविक नीति का ज्ञान इसी से प्रकट होता है कि शांतिकाल में प्रताप पर चारों ओर से सैनिक दबाव डाले जा रहे थे, मेवाड के पूर्वी हिस्सों को अकबर ने मुस्लिम पदाधिकारियों को दे दिया या मेवाड से रूष्ट होकर आने वाले व्यक्तियों को सौंप दिया | यों उसने मेवाड को मित्रविहीन करने का पूर्ण प्रयास भी किया था । उसने ईडर, डूंगरपुर, बांसवाडा व बून्दी पर सैनिक दबाव डालकर मेवाड राज्य से अलग करने का प्रयास किया । इसलिये श्रीवास्तव के मतानुसार त्रिपाठी का यह कथन कि, “यदि प्रताप दो ही शर्ते अकबर के सामने रखता जिन शर्तो पर जहाँगीर से अमरसिंह से समझौता हुआ तो अकबर अवश्य स्वीकार कर लेता ।’ निराधार है क्योंकि अकबर हमेशा प्रताप की व्यक्तिगत उपस्थिति पर जोर देता रहा |
त्रिपाठी की यह मान्यता कि वैवाहिक सम्बन्धो को तत्कालीन राजपूत समाज में बुरा नहीं माना गया, श्रीवास्तव को यह बात ठीक नहीं लगी है । उसका कहना है कि आधुनिक काल में भी जहाँ अन्तर्जातीय विवाह होते है, सामाजिक दृष्टि से अच्छे नहीं माने जाते है तो 16 वीं शताब्दी में जबकि सामाजिक बंधन कग्रेर थे इनको उपयुक्त मानना ठीक मही । वैवाहिक समज स्थापित करने चले राजपूत राज्यों ने भी यह बात प्रचारित की कि उन्होंने अपनी राजकुमारियों की शादी मुगल परिवारों से न कर उनके स्थान पर अन्य से कराई है । यों श्रीवास्तव के अनुसार आज भी यदि ऐसे विवाह ठीक नहीं माने जाते हैं तो उस समय उनको ठीक मानना उचित प्रतीत नहीं होता है ।
त्रिपाठी का यह मत है कि “सिसोदियों के इस युद्ध में अन्य राजपूतों राज्यों की कोई दिलचस्पी नहीं थी, उन्होने या तो विरोधी रूप अपनाया या तटस्थ बने रहे ।” परंतु वास्तविक स्थिति इसके विपरीत है । इस पूरे संघर्षकाल में कोई भी क्षण ऐसा नहीं था जब प्रताप ने अकेले ही युद्ध लडा हो । मुगल सेना का सामना करने के लिए उसने हर बार संयुक्त मोर्चे स्थापित किये | श्रीराम शर्मा का कथन है कि अकबर एक संगठन को तोड़ने का प्रयास करता तो प्रताप दूसरा संगठन खड़ा कर देता । इन छोटे-छोटे राज्यों को मुगल सेनाओं ने अनेक यार पदाक्रांत किया, किन्तु प्रताप से प्रेरणा प्राप्त कर अवसर आते ही अपने आपको स्वतन्त्र कर लेते । यदि मेवाड के उत्थान के कारण अपने अस्तित्व को खतरा था तो इन पडौस के छोटे-छोटे राज्यों को ही सबसे अधिक था । प्रताप का विरोध सर्वाधिक इन्हीं राज्यों में होना चाहिए था किन्तु प्रताप के सम्पूर्ण शासन काल में उसे हर सम्भव सहयोग इन राज्यों से ही मिलता रहा । इसी कारण मेवाड मुगलों का बारबार सामना कर सका | इनसब घटनाओं को ध्यान में रखते हुए श्रीवास्तव ने अकबर से समझौता न होने का उत्तरदायित्व प्रताप को न देकर अकबर पर डाला है । अकबर के प्रारम्भिक काल को देखा जाये तो उसकी विजयों के पीछे केवल साम्राज्यवादी लिप्सा थी । भारतीय एकता तथा राष्ट्रीयता के लिए उस समय कोई स्थान नहीं था ।
श्रीवास्तव का मत है कि यदि इस देश में सबको समान समझने और सभी जातियों को समान अवसर प्रदान करने की अकबर की धर्म-निरपेक्षता की नीति पूरे मुगल काल में अपनाई गई होती तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ियाँ महाराणा प्रताप को भारतीय एकता में बाधक मीकार कर लेती, परंतु ऐसा नहीं हुआ | श्रीवास्तव तो गोपीनाथ शर्मा के इस कथन से भी सहमत नहीं हैं कि आखिरकार राणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह के समय में मेवाड को अपनी स्वतन्त्रता खोनी पड़ी और अगर राणा ने इसे 1572 ई. में स्वीकार कर लिया होता तो बहुत से बलिदान बच गये होते | यह तर्क युक्ति संगत नहीं हैं | अमरसिंह ने 1615 ई. में जहाँगीर से जो सम्मानपूर्ण शर्त प्राप्त की थीं दे राणा प्रताप के दीर्घ व दृढ़ संघर्षतथा सय अमरसिंह के 18 वर्षा के संघर्षके कारण ही प्राप्त हो सकी थीं | इन बलिदानों के बिना मेवाड मुगलों से एक विशेष व्यवहार की आशा नहीं कर सकता था | प्रताप का अगर कोई दोष था तो यही था कि वह अपनी स्वतन्त्रता के लिये लड रहा था | यदि यह सिद्धान्त स्वीकार कर लिया जाय कि एक शक्तिहीन राज्य को शक्तिशाली राज्य की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए तो आज भी एक ही शक्तिशाली देश ही स्वतंत्र रह सकता है । अत: प्रताप के त्याग एवं बलिदान को कम आँकना ठीक नहीं हैं । जहाँ तक इस वीर के त्याग और बलिदान का प्रश्न है सभी इतिहासकार एकमत हैं कि प्रताप एक वीरगाथा का निर्माण कर गये जो देश व काल के स्वतन्त्रता प्रेमियों को प्रेरणा देती रहेगी।
आर.पी. त्रिपाठी ने प्रताप की नीति से असहमति बताते हुए भी स्वीकार किया है कि ” प्रताप ने लगभग पच्चीस वर्ष तक भारतीय राजनीतिक मंच पर एक महत्वपूर्ण भाग लिया और अपनी अधिकांश प्रजा के मत का नेतृल किया । उसने अपने शौर्य, उदारता और अच्छे गुणों से जन-समुदाय का सौहार्द्र और श्रद्धा अर्जित कर ली थी | उसने अपनी कर्तवपरायणता से तथा सफलता से अपने सैनिकों को कर्तव्यारूढ, प्रजा को आशावादी और शत्रु को भयातुर बनाया । एक सेनाध्यक्ष और जन नेता के रूप में बह अपने जमाने के लिए उपयुक्त था | उसकी मृत्यु ने हर प्रकार से एक युग की समाप्ति कर दी थी । प्रताप का नाम हमारे देश में स्वाभिमान और देश-गौरव के रक्षक के रूप में अमर है । “
डॉ. रघुबीरसिंह के मतानुसार ” प्रताप ने अंत तक अपना प्रण निभाया । उसकी दृढ़ता, धीरज, अडिग आत्मविश्वास तथा अनवरत प्रयत्न संसार के इतिहास में अनोखे और अनुकरणीय हैं ।” प्रताप की वीरगाथा ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को जो प्रेरणा दी उससे प्रताप की गिनती भारतीय राष्ट्र के पूजनीय स्वातन्नय वीरों में की जाने लगी और भारत की स्वाधीनता के बाद भी प्रताप का प्रभाव और महत्व किसी प्रकार कम नहीं हुआ, क्योंकि प्रताप एक ऐसी अनुपम वीरगाथा का निर्माण कर गया, जो आगे भी सभी देशकाल के स्वातच्य साधकों को निरन्तर प्रेरणा देती रहेगी ।” गौ.ही. ओझा ने लिखा है कि “प्रात: स्मरणीय हिन्दूपति वीर शिरोमणि महाराणा प्रतापसिंह का नाम राजपूताने के इतिहास में सबसे अधिक महत्वपूर्ण और गौरवास्पद है । राजपूताने के इतिहास को इतना उज्जल और गौरवमय बनाने का श्रेय उसी को है । वह स्वदेशामिमानी, स्वतन्त्रता का पुजारी, रण-कुशल, स्वार्थ त्यागी, नीतिज्ञ, सच्चा वीर और उदार क्षत्रिय तथा कवि था । उसका आदर्श था, कि बापा रावल का वंशज किसी के आगे सिर नहीं झुकायेगा । स्वदेश प्रेम, स्वतन्त्रता और स्वदेशाभिमान उसके मूल मंत्र थे । उसको अपने वीर पूर्वजों के गौरव का गर्व था । वह ऐसे समय मेवाड़ की गद्दी पर बैठा जब कि उसकी राजधानी चित्तौड़ और प्राय: सारी समान भूमि पर मुसलमानों का अधिकार हो गया था । मेवाड के बडे-बडे सरदार भी पहले की लड़ाइयों में मारे जा चुके थे । ऐसी स्थिति में उसके विरूद्ध बादशाह अकबर ने उसके विध्वंस करने के लिये अपने सम्पूर्ण साम्राज्य का बुद्धिबल, बाहुबल और धनबल लगा दिया था । बहुत से राजपूत राजा भी अकबर के ही सहायक बने हुये थे