भारत में छठी शताब्दी ई. पू. की युगान्तकारी घटना महावीर एवं बुद्ध का जन्म है | यह वह समय था जब विश्व के कई भागों में बौद्धिक एवं धार्मिक क्रांति का जन्म हुआ । महावीर ने जैन मत को व्यवस्थित रूप दिया और महात्मा बुद्ध ने बौद्ध मत की स्थापना की | दोनों धर्म प्रवर्तकों ने उपनिषदों के समान आत्मज्ञान को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बताया। एक विचार यह भी है कि दोनों धर्म उपनिषद् के दर्शन से अनुप्राणित हैं ।

7.2 धार्मिक क्रान्ति के उदय के कारण

(1) नवीन धार्मिक विचारधारा का उदय –

वैदिक धर्म जन साधारण की धार्मिक आकांक्षाओं की पूर्ति न कर सका था । ब्राह्मण ग्रन्थों में जटिल कर्मकाण्ड तथा यज्ञों का विधान था | यज्ञ बहुत लम्बे और खर्चीले हो गये थे । धर्म के क्षेत्र में पुरोहितों के एक संगठित वर्ग का उदय हो चुका था । दूसरी ओर उपनिषदों में दर्शन के रहस्यवाद की प्रधानता थी। इस प्रकार तत्कालीन समाज आध्यात्मिक रूप से घोर संकट में था ऐसी स्थिति में बुद्ध तथा महावीर ने सबके लिए सरल एवं सुबोध धर्म का उपदेश देकर समय की माँग को पूरा किया ।

(2) वर्ण व्यवस्था की जटिलता –

जैन एवं बौद्ध धर्म केवल नैतिक या धार्मिक आन्दोलन ही नहीं, सामाजिक आन्दोलन भी थे । इन धर्मों के उदय से पूर्व-जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था की प्रतिष्ठा थी । बुद्ध तथा महावीर ने जन्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था ‘का खण्डन किया और सबकी समानता की घोषणा की । बिना किसी ऊँच-नीच और भेद-भाव के बौद्ध और जैन धर्म के द्वार सबके लिए खोल दिये गये । बौद्ध धर्म ने नारी को किसी भी संघ में सम्मिलित होने तथा अपना आध्यात्मिक विकास करने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया ।

(3) नई अर्थव्यवस्था का प्रभाव

धार्मिक नवजागृति में तत्कालीन समाज की परिवर्तनशील अर्थव्यवस्था और उससे उत्पन्न स्थितियों की भूमिका को भी उल्लेखनीय माना जा सकता है । छठी शताब्दी ई.पू. में नगरों का विकास हो रहा था । व्यापारिक उन्नति इस युग की एक महत्वपूर्ण घटना है । इस प्रक्रिया में वैश्य वर्ग समृद्धि हुआ और अपने वैभव के बल पर ब्राह्मणों की भाँति सामाजिक श्रेष्ठता का आकांक्षी हो गया । परम्परागत व्यवस्था में उसे ऐसी उम्मीद न थी । अत: वह ऐसी व्यवस्था की खोज में था, जिसमें उसे उच्चतर स्थिति मिल सके | बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म ने उसकी इस आकांक्षा को साकार किया |

(4) निवृत्तिपरक परम्परा –

इन धर्मों के मूल में अवैदिक श्रमण संस्कृति का प्रभाव था, यह श्रमण संस्कृति निवृत्तिपरक थी | निवृत्तिपरक का अर्थ है -वैराग्यपूर्वक कर्मों का त्याग या संन्यास | जैन और बौद्ध मत में संन्यास, वैराग्य और त्याग की जो प्रधानता है, वह इस अवैदिक श्रमण संस्कृति के प्रभाव का ही फल प्रतीत होती है । इन धर्मों के दुःखवाद ने प्रवृत्तिपरक अथवा वैदिक कर्मप्रधान संस्कृति के रूप को ही बदल डाला तथापि इन दोनों धर्मो पर उपनिषद दर्शन का पर्याप्त प्रभाव है । उपनिषदों के कर्मफलवाद तथा पुनर्जन्म के विचार इन धर्मों में ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिए गए।

(अ) जैन धर्म

जैन धर्म की प्राचीनता सम्भवत: प्रागैतिहासिक है । जैन धर्म के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव माने जाते हैं । इनके पश्चात् तेईस तीर्थंकर और हुए | किन्तु 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से पूर्व तक के तीर्थकरों के बारे में ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता है | यह निश्चित है कि आज से 2600 वर्ष पूर्व 24 वें तीर्थंकर महावीर ने जैन धर्म को लोकप्रिय बनाया तथा इसी कारण जनसामान्य उन्हें जैन धर्म का प्रवर्तक मानता है ।

7.3 महावीर का संक्षिप्त जीवनवृत्त

महावीर स्वामी से पूर्व ही जैन धर्म का विकास हो चुका था । जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र) ने महावीर के जन्म से 250 वर्ष पूर्व अपने अनुयायियों में जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर, उन्हें संघ व्यवस्था में संगठित किया था । उन्होनें चतुर्वतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह-के पालन पर विशेष जोर दिया था ।

महावीर का जन्म 599 ई.पू. के लगभग वैशाली के निकट कुण्डग्राम (मुजफ्फरपुर जिला, बिहार) में हुआ था । उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रधान थे, जो वज्जिसंघ का एक प्रमुख सदस्य था । उनकी माता त्रिशला वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी । इस प्रकार मातृपक्ष से वे मगध के हर्यक राजो-बिम्बिसार के निकट सम्बन्धी थे । महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था । इनका पालन-पोषण राजसी ठाठ-बाट से हुआ । जैन धर्म की एक परम्परा के अनुसार युवावस्था में महावीर का विवाह कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ हुआ । उससे उन्हें अणोज्जा (प्रियदर्शना) नाम की पुत्री उत्पन्न हुई । कालान्तर में उनका विवाह जामालि के साथ हुआ । वह प्रारम्भ में महावीर का शिष्य बना किंतु उसने ही जैन धर्म में प्रथम भेद उत्पन्न किया ।

कल्पसूत्र में कहा गया कि वर्द्धमान के जन्म के समय ज्योतिषियों ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बड़ा होकर चक्रवर्ती राजा बनेगा या महान संन्यासी | कालान्तर में यह भविष्यवाणी सच साबित हुई । वर्द्धमान ने निवृत्ति का मार्ग अपनाकर इतिहास रच दिया । ऐसा होना स्वाभाविक था क्योंकि वर्द्धमान प्रारम्भ से ही चिंतनशील थे | जब वे 30 वर्ष के हुए तो उनके पिता का देहावसान हो गया । तत्पश्चात् वर्द्धमान ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्द्धन की आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया और सत्य एवं मन की शान्ति की खोज में निकल पड़े । गृह त्याग के पश्चात् वर्द्धमान कठोर साधना, काया-क्लेश एवं तपश्चर्या का जीवन व्यतीत करने लगे । आचारांगसूत्र में उनके इस काल के जीवन के बारे में विस्तृत वर्णन किया गया है । उसके अनुसार, “प्रथम 13 महीनों में उन्होंने कभी भी अपना वस्त्र नहीं बदला । सभी प्रकार के जीव जन्तु उनके शरीर पर रेंगते थे । तत्पश्चात् उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया तथा नग्न घूमने लगे |…. लोगों ने उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किये किन्तु उन्होंने अपना कभी धैर्य नहीं खोया । वे मौन तथा शान्त रहे ।” कल्पसूत्र ने उनकी तपस्या का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा, “वे भोजन भी हथेली पर ही ग्रहण करने लगे | 12 वर्षों तक वे अपने शरीर की पूर्ण उपेक्षा कर सब प्रकार के कष्ट सहते रहे | उन्होंने संसार के समस्त बन्धनों का उच्छेद कर दिया | संसार से वे सर्वथा निर्लिप्त हो गये । आकाश की भाँति उन्हें किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं रही । वायु की भाँति वे निर्बाध हो गये। शरद् काल के जल की भाँति उनका हृदय शुद्ध हो गया ।”

1. जैन धर्म के 24 तीर्थकरों के नाम (तीर्थकर परम्परा)

1. ऋषभदेव या आदिनाथ

2. अजितनाथ

3.सम्भवनाथ

4.अभिनन्दन

5. सुमतिनाथ

6.पद्मप्रभु

7. सुपार्श्वनाथ

8 चन्द्रप्रभु

9.पुष्पदंत

10.शीतलनाथ

11 श्रेयांसनाथ

12 वासुपूज्य

13.विमलनाथ

14.अनन्तनाथ

15.धर्मनाथ

16. शान्तिनाथ

17. कुन्थुनाथ

18. अरहनाथ

19. मल्लिनाथ

20. मुनिसुव्रत

21. नमिनाथ

22. नेमिनाथ

23. पार्श्वनाथ

24. महावीर स्वामी

2. कतिपय विद्वान महावीर का जन्म 540 ई.पू. भी मानते हैं ।

12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् वर्द्धमान को 42 वर्ष की अवस्था में जम्भियग्राम (जम्भिकग्रामद्ध के समीप) जुपालिका नदी के तट पर कैवल्य (शुद्धज्ञान) प्राप्त हुआ । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वर्द्धमान ‘केवलिन’, ‘जिन’,विजेताद्ध, ‘अर्हत्’ (योग्य) तथा निर्ग्रन्थ (बन्धन रहित) कहे गये | अपनी साधना में अटल रहने तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें ‘महावीर’ नाम से सम्बोधित किया गया | उनके अनुयायी ‘जैन’ नाम से जाने गये ।

कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् महावीर ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ किया । वे वर्ष में आठ महीने भ्रमण करते तथा वर्षा काल के चार महीने एक ही स्थान पर रहते । जिन नगरों में उन्होंने अपने उपदेश दिये उनमें चम्पा, वैशाली, मिथिला, राजगृह श्रावस्ती आदि थे । बिम्बिसार और अजातशत्रु उनसे कई बार मिले । वैशाली का लिच्छवि सरदार चेटक उनका मामा था तथा जैन धर्म के प्रचार में महावीर का सहायक रहा । ऐसा भी माना जाता है कि अवन्ति का प्रद्योत, चम्पा का दधिवाहन और सिन्दु-सौवीर का उदयन आदि राजा महावीर के श्रद्धालु थे । यद्यपि इनमें से कुछ राजा महात्मा बुद्ध के भी अनुयायी माने जाते हैं | भारतीय शासकों की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण ऐसा हुआ तो इसमें आश्चर्य नहीं मानना चाहिए | जैन श्रुतियों के अनुसार, उनकी सत्यवाणी तथा जीवन के प्रति शाश्वत दृष्टिकोण के कारण हजारों लोग उनके अनुयायी हो गये । धीरे-धीरे उनकी ख्याति काफी बढ़ गई और दूर-दूर से लोग उनके उपदेश सुनने आने लगे। अन्त में 72 वर्ष की आयु में 527 ई.पू. में राजगृह के समीप पावापुरी बिहार शरीफ से 9 मील दूर उन्होनें अपना शरीर त्याग दिया, जिसे जैन धर्म में निर्वाण कहा जाता है । उनके निर्वाण के समय उत्तरी एवं पूर्वी भारत का एक हिस्सा उनके प्रभाव क्षेत्र में आ गया था ।

महावीर के ग्यारह मुख्य शिष्य या गणधर थे, जिन्होंने संघ को उपयुक्त रूप से अनुशासित रखा था । ये सभी गणधर ब्राह्मण थे, जो बिहार की छोटी-छोटी बस्तियों से आये प्रतीत होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर के जीवनकाल में जैनधर्म का प्रसार एवं विस्तार पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में केन्द्रित रहा । इसका यह अर्थ नहीं है कि शेष स्थानों पर जैन धर्म का अस्तित्व नहीं था । महावीर के संगठन, कौशल और उनके गणधरों की निष्ठा ने जैन संघ को सुव्यवस्थित बनाये रखा । यद्यपि आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक श्रावस्ती निवासी गोसाल मक्खलिपुत्त ने महावीर के लिए कुछ परेशानियाँ खड़ी की थी परन्तु आजीवक सम्प्रदाय को अधिक समर्थन न मिल सका । इसी प्रकार महावीर के काल में बहु रय तथा जीवपएसिय नामक दो पृथक संघ अस्तित्व में आये, किन्तु वे भी अल्पकालीन रहे । अंत में दिगम्बर-श्वेताम्बर नामक संघभेद हुआ जो महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग 300 ई.पू. में हुआ था। दिगम्बर-श्वेताम्बर नामक संघभेद ही ऐसा हुआ जिसने जैन धर्म के विकास क्रम, प्रसार-क्षेत्र, मुनिश्चर्या और प्रतिमा-विज्ञान को प्रभावित किया ।

7.4 शिक्षाएँ एवं सिद्धान्त

जैन धर्म का इतिहास निश्चय ही पुराना है । जैन धर्म में तीर्थकरों की परम्परा का अपना इतिहास है । तीर्थंकर शब्द का तात्पर्य संसार रूपी सागर से ओरो को पार कराने के लिए घाट अथवा मार्ग बनाने वाला | 24 वें तीर्थंकर महावीर से जैन धर्म एक सशक्त धर्म एवं विचारधारा के रूप में प्रचारित हुआ । जर्मन विद्धान याकोबी ने जैन शास्त्रीय ग्रंथों का अनुशीलन कर यह बताया कि 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह को अपने सिद्धान्तों का आधार बनाया था किन्तु महावीर ने इसमें अपना ब्रह्मचर्य का पाँचवा सिद्धान्त जोड़ा | पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की परन्तु महावीर ने उन्हें निर्वस्त्र रहने का उपदेश दिया । इस प्रकार महावीर ने जैन धर्म को अधिक कठोर बनाया ।

महावीर ने सत्य को जानने में वेदों को प्रमाण नहीं माना | जैन मत में सृष्टि करने वाले किसी ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता | उनके अनुसार सृष्टि अनादि तथा अनन्त है और सृष्टि का क्रम एक प्रवाह के रूप में चलता रहता है । जैन धर्म में कर्मों का बड़ा महत्व है और वह मानता है कि व्यक्ति कर्मों के कारण ही बन्धन में पड़ता है | जैन धर्म किसी भी प्रकार के ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखता है | इस दृष्टि से उसे अनीश्वरवादी कहा गया है | वस्तुत: जैन धर्म एक ऐसा धर्म है, जो रूढ़ियों को अस्वीकृत करता है तथा वैज्ञानिक आधार पर सृष्टि जीवन, कर्म, बन्धन, मोक्ष आदि की व्याख्या करता है । जैन धर्म भी बौद्ध धर्म की तरह आचार-प्रधान कर्म है परन्तु यहाँ कठोरता एवं अनम्यता अधिक है ।

7.5 जैन धर्म के सात तत्व

जैन धर्म के अनुसार मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य है और मोक्ष का अर्थ है-जीव की कर्मबन्धन से पूर्ण मुक्ति | यह समझाने के लिए कि जीव किस तरह कर्म से सम्बद्ध होता है और किस तरह से उससे मुक्त हो सकता है । जैन दर्शन सात तत्वों की योजना प्रस्तुत करता है । ये सात तत्त्व हैं-जीव, अजीव, बन्ध, आस्त्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष।

जीव-जैन दर्शन समस्त जगत् को दो नित्य द्रव्यों में विभाजित करता है-जीव और अजीव | जीव चेतन द्रव्य है और अजीव अचेतन । चेतन जीव का विशिष्ट लक्षण है । (चैतन्य लक्षणों जीव:) जीव-अपने शुद्ध रूप में सर्वज्ञ और स्वयं प्रकाशवान है । वह चेतन तत्त्व आत्मा है । वह अनन्त, अपार और सर्वव्यापक है । जीव की यह जैन दर्शन की धारणा यद्यपि अन्य भारतीय दर्शनों की आत्मा की धारणा के समान ही है किन्तु जैन मत बहुसंख्यक जीवों की सत्ता में विश्वास करता है । इस प्रकार जैन मत में जीवों की संख्या अनन्त है और सब नित्य है । बन्धन की अवस्था में जीव तब पड़ता है जब वह पुद्गल या भूतद्रव्य से संयुक्त हो जाता है । ऐसी स्थिति में उसका शुद्ध स्वरूप विलुप्त हो जाता है ।

अजीव- अजीव अचेतन है । अजीव को पुद्गल (भूतद्रव्य) आकाश (स्थान), धर्म (गति की अवस्था), अधर्म (विश्राम की अवस्था) तथा काल (समय) में विभाजित किया जाता है । ये सब द्रव्य जीवन और चेतना से शून्य होते हैं । पुद्गल का जैन धर्म में एक विशिष्ट अर्थ है | पुद्गल वह है, जिस जोड़ा या तोड़ा जा सके | संसार की सभी वस्तुएँ भूत द्रव्य के अणुओं से मिलकर बनी हैं | धर्म और अधर्म का अर्थ पुण्य या पाप नहीं अपितु गति और विश्राम की अवस्थाएँ हैं। प्रत्येक वस्तु कुछ स्थान घेरती है, जिसे आकाश कहा गया है । काल का अर्थ समय है ।

बन्ध- बन्धन से मुक्ति दिलाना जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य है । बन्धन का अर्थ है, जन्म ग्रहण | जीव चेतन तत्त्व है किन्तु शरीर धारण करने से वह बन्धन की अवस्था में आ जाता है | जीव का अजीव द्वारा आवरण ही बन्धन है । जिस प्रकार प्रकाशमान मणि के ऊपर मिट्टी का आवरण चढ़ जाने से उसका प्रकाश छिप जाता है, उसी प्रकार अजीव का आवरण चढ़ जाने पर जीव का मूल स्वरूप छिप जाता है । कर्म ही वह कड़ी है, जो जीव को अपने शरीर से जोड़ती है। अत: कर्म ही बन्धन का कारण है | जैन धर्म में चार कषाय (चिपचिपे पदार्थ) बताए गये है-क्रोध, मान, लोभ और माया (भ्रम) । जब व्यक्ति अविद्या (सत्य का उचित ज्ञान न होना) और कषायों के प्रभाव में कार्य करता है तब कर्म के रूप में पुद्गल जीव की ओर आकृष्ट होते हैं और उसे आवृत कर लेते हैं । यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।

आसव- कर्म पुद्गल के जीव के ओर प्रवाह ही आस्रव है । दूषित मनोवेग एवं सत्य के ज्ञान के अभाव में कर्म पुद्गल जीव की ओर खिंचते हैं । ऐसी अवस्था में जीव अपना मूल स्वरूप खोकर आवागमन के चक्र में फंस जाता है।

संवर एवं निर्जरा – मोक्ष के लिए आवश्यक है कि जीव को कर्म के बन्धन से मुक्त किया जावे । इसके लिए पहले तो नये कमी के आगमन को रोकना आवश्यक है । कषायों के न रहने पर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के द्वारा यह सम्भव होता है । नए कर्मों के आगमन को रोकने की प्रक्रिया संवर कहलाती हैं | जैन धर्म पूर्व संचित कर्मों से छुटकारा दिलाने के बारे में भी सुझाव प्रस्तुत करता है । क्योंकि संचिता के विनाश के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है । जैन धर्म में इस हेतु कठोर तप का मार्ग दर्शाया गया है । इसे निर्जरा कह गाया है ।

मोक्ष – साधना का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, जिसमें जीव और कर्म के सम्बन्ध का पूर्ण विच्छेद हो जाता है । जीव कर्म बन्धन के कारण ही भौतिक तत्त्व शरीर से बँधा है । भौतिक तत्व के पृथक् होने पर जीव शुद्ध हो जाता है और उसे आत्मा में निहित ज्ञान का साक्षात्कार होने लगता है । इस भौतिक तत्त्व (कर्म पुद्गल) से आत्मा को मुक्त कर देना ही मोक्ष है ।

7.6 अनेकान्तवाद और स्यादवाद

जैन धर्म के अनुसार सत्य नानात्मक है अर्थात् इसके कई पहलू हैं । इस बात को जैन धर्म में एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है-जन्म से ही अन्धे लोगों के गाँव में एक हाथी आया | उन्हें हाथी का कोई ज्ञान नहीं था । सबने हाथी के अलग-अलग अंगों को स्पर्श कर हाथी के बारे में अपना ज्ञान निश्चित किया । जिसने उसके पैर को छुआ उसने उसे खम्भे की तरह, जिसने पीठ को छुआ उसने दीवाल की तरह और जिसने सूंड को छुआ, उसने उसे पेड़ के तने के समान बताया । कहने का अर्थ यह है कि इनमें से कोई कथन पूर्ण सत्य नहीं है, परन्तु असत्य भी नहीं है । जैनियों के अनुसार इसी प्रकार सत्य के विषय में समझना चाहिए ।

अनेकान्तवाद जैन दर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त है । इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का एक गुण या धर्म नहीं होता, दूसरे शब्दों में कोई भी वस्तु एकान्तवादी नहीं होती है । जैन धर्म में कहा भी गया है ‘अनन्तधर्मक वस्तु’ । इस दृष्टि से सत्य अथवा तत्व भी अनेकान्तमूलक हैं । जैन धर्म की मान्यता है कि केवलिन (पूर्णज्ञानी) ही पूर्ण सत्य को जान सकता है । इस प्रकार जैन दर्शन के इस तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त को, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु अनेक धर्म (गुण) वाली मानी जाती है, अनेकान्तवाद कहा जाता है । इस अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर ही जैन दर्शन का स्यादवाद् सिद्धान्त आधारित है । चूंकि प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं, इसलिए किसी भी कथन में उस वस्तु के आंशिक या सापेक्षिक सत्य की ही अभिव्यक्ति हो सकती है-यही स्याद्वाद है | तत्त्व या सत्ता की दृष्टि से जो अनेकान्तवाद है,ज्ञान की दृष्टि से वही स्याद्वाद है । स्यावाद जिसे सप्तभंगीनय भी कहा जाता है, जैन सिद्धान्त के अनुसार सांसारिक वस्तुओं के विषय में हमारे सभी निर्णय सापेक्ष या सीमित होते हैं । न तो हम किसी को पूर्णरूपेण स्वीकार कर सकते हैं और न ही अस्वीकार। अत: प्रत्येक निर्णय के पूर्व स्यात् (शायद) लगाना उचित है ।

स्याद्वाद के अनुसार किसी वस्तु अथवा सत्य के बारे में 7 प्रकार के कथन हो सकते हैं –

1. स्यात् अस्ति – अर्थात् सापेक्षिक दृष्टि से वस्तु है ।

2. स्यात् नास्ति – अर्थात् सापेक्षिक दृष्टि से वस्तु नहीं है ।

3. स्यात् अस्ति च नास्ति – अर्थात् सापेक्षिक दृष्टि से वस्तु है और नहीं है ।

4. स्यात् अवक्तव्यम् – अर्थात् सापेक्षिक दृष्टि से वस्तु के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता

5. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् – अर्थात् सापेक्षिक दृष्टि से वस्तु है और अवक्तव्य है ।

6. स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् – अर्थात् सापेक्षिक दृष्टि से वस्तु नहीं है और अवक्तव्य है।

7. स्यात् अस्ति व नास्ति च अवक्तव्यम् – अर्थात् सापेक्षित दृष्टि से वस्तु है, नहीं है और अवक्तव्य है ।

‘स्यात्’ शब्द का सामान्य अर्थ ‘सम्भवत:’ या ‘शायद’ किया जाता है, जिसमें संशय का बोध होता है | किन्तु जैन दर्शन के अनुसार स्यात् का प्रयोग ज्ञान की सापेक्षता का सूचक है । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि स्यात् सापेक्ष सत्य का सूचक है । जैनियों के अनुसार, स्यावाद (सप्तभंगीनय) उदार और सहिष्णु सिद्धान्त है, न कि संशयवाद जैसा कि वेदान्ती कहते

अनेकात्मवाद – जैन धर्म की मान्यता है कि जीव भिन्न-भिन्न होते हैं और उनमें आत्माएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं । आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन का यह विचार उपनिषदों के आत्मा सिद्धान्त से बिल्कुल भिन्न है । उपनिषद् सारे संसार में व्याप्त एक आत्मा की सत्ता स्वीकार करते हैं, परन्तु जैन धर्म एक आत्मा पर विश्वास नहीं करता । अनेक आत्माओं के अस्तित्व को मानना ही अनेकात्मवाद है ।

7.7 मोक्ष प्राप्ति के साधन : त्रिरत्न एवं पंच महाव्रत

कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए जैन धर्म त्रिरत्न का अनुशीलन एवं अभ्यास की शिक्षा देता है । ये त्रिरत्न हैं –

(अ) सम्यक् दर्शन- जैन तीर्थकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक् दर्शन या श्रद्धा है । इसके आठ अंग बताये गये हैं – (1) सन्देह से दूर रहना, (2) सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, (3) शरीर के मोहराग से दूर रहना, (4) भ्रामक मार्ग पर न चलना, (5) अधूरे विश्वासों से विचलित न होना, (6) सही विश्वासों पर अटल रहना, (7) सबके प्रति प्रेम का भाव रखना, (8) जैन सिद्धान्तों को सर्वश्रेष्ठ समझना । इनके अतिरिक्त लौकिक अन्धविश्वासों, पाखण्डों आदि से दूर रहने की हिदायत दी गई है ।

(ब) सम्यक् ज्ञान- जैन धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है । सम्यक् ज्ञान के पाँच प्रकार बताये गये हैं- (1) मति अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, (2) श्रुति अर्थात् सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान, (3) अवधि अर्थात् कहीं रखी हुई किसी भी वस्तु का दिव्य ज्ञान, (4) मनःपर्याय अर्थात् व्यक्तियों के मन की बातें जान लेने का ज्ञान, (5) कैवल्य अर्थात् पूर्ण ज्ञान, जो केवल तीर्थकरों को प्राप्त है ।।

(स) सम्यक् चरित्र – जिसे पूर्णत: जाना जा चुका है और जिसमें पूर्ण श्रद्धा है, उसे जीवन में लाग करने की क्रिया सम्यक् चरित्र है । यह जैन साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है क्योंकि सम्यक् चरित्र या आचरण द्वारा ही जीव अपने कर्मों से मुक्त हो सकता है । जैन दर्शन की आधारशिला ‘आचरण एवं व्यवहार’ है । इसमें व्यक्ति के लिये कर्मों का फल उसे और सिर्फ उसे ही भुगतना पड़ता है । ये बैंक के खाते के समान किसी को स्थानान्तरित नहीं किये जा सकते हैं और न जोड़ अथवा बाकी के द्वारा इनका हल किया जा सकता है । जैन धर्म में अच्छे अथवा बुरे दोनों ही कर्म बन्धन के कारण हैं । अत: यहाँ आचरण एवं क्रियाएँ ही समाधान हैं ।

सम्यक् चरित्र के अन्तर्गत साधुओं के लिए पंच महाव्रत और गृहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत बताये गये हैं, जिनमें मूल भेद केवल उनके पालन की कठोरता अथवा लचीलेपन में है ।

(1) अहिंसा – जैन धर्म में ‘अहिंसा परमोधर्म:’ कहा गया है । जैन दर्शन के अनुसार ज्ञानी होने का सार यही है कि वह किसी भी प्राणि की हिंसा न करे । वस्तुत: अहिंसामूलक समता को जैन दर्शन में धर्म कहा गया है | जैन दर्शन के अनुसार सब जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । अत: जीव हत्या पाप है | मन, वचन और काय से दूसरे का दिल दुखाना भी हिंसा माना गया है | जैन मतानुसार चराचर जगत्, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, दानव-मानव सभी में जीव है | यहाँ तक कि वायु पानी, मिट्टी में भी असंख्य अदृश्य जीव हैं । अत: इनके प्रयोग में सावधानी बरतना चाहिए, तभी अहिंसा का पालन हो सकेगा | कठोर वाणी से किसी को पीड़ा पहुँचाना भी हिंसा मानी गयी है । वस्तुत: जैन दर्शन में अहिंसा का विवेचन सूक्ष्म से सूक्ष्मतर किया गया है ।

(2) सत्य – जैन धर्म के अनुसार सदैव ऐसी वाणी बोलना चाहिए जो सत्य एवं मधुर हो । सत्य बोलने में पाँच बातों का ध्यान रखने को कहा गया है –

(1) सोच-विचार कर बोलना चाहिए | (2) क्रोध आने पर शान्त रहना चाहिए | (3) लोभ होने पर मौन रहना चाहिए । (4) हँसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिए | (5) भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिए |

(3) स्तेय- चोरी न करना अस्तेय है । बिना अनुमति के किसी अन्य की वस्तु को ग्रहण करना भी अस्तेय की श्रेणी में आता है । बिना आज्ञा के न तो किसी के घर में प्रवेश किया जाये और न उसकी किसी वस्तु का प्रयोग किया जाये।

(4) अपरिग्रह -किसी भी वस्तु का आवश्यकता से अधिक संचय न करना ही अपरिग्रह है । महावीर स्वामी का कहना था कि संचय करने से ही मानव हृदय में नाना प्रकार की कामनाएँ उत्पन्न होती हैं | जैन धर्म में माना गया कि वस्तुओं का संग्रह करने से वस्तुओं के साथ लगाव पैदा होता है और यह अन्तत: बन्धन का कारण बनता है ।

(5) ब्रह्मचर्य-पार्श्वनाथ ने चार व्रतों का निर्देश किया था, उनमें महावीर ने ब्रह्मचर्य का पाँचवीं व्रत जोड़ दिया । उन्होंने मोक्ष के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक माना | नारी से वार्तालाप, उसका दर्शन, उसका ध्यान, उसका सामीप्य और उसके साथ अन्तरंग सम्बन्ध ब्रह्मचर्य में बाधक माने गये |

7.7.1 अणुव्रत एवं महाव्रत में अन्तर

उपर्युक्त पाँच व्रतों का विधान सभी के लिए आवश्यक है, चाहे वह साधु हो या गृहस्थ । जहाँ साधु के लिए कठोरता से इनके पालन की अपेक्षा की गई है, वहीं गृहस्थ को इनके पालन में कुछ ढिलाई दी गई है । साधुओं द्वारा कठोरता से पालन किये गये व्रत महाव्रत हैं, जबकि गृहस्थ अथवा श्रावक द्वारा पालन किये गये व्रत अणुव्रत हैं । पाँच महाव्रतों की कठोरता एवं अतिवादिता को कम करके इनका विधान जैन गृहस्थ अनुयायियों के लिए रखा गया है । उदाहरणार्थ-ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अन्तर्गत विवाह तो कर सकता है, परन्तु परस्त्रीगमन निषेध है । अपरिग्रह अणुव्रत के अनुसार व्यक्ति वस्तुएँ तो रखे परन्तु आवश्यकतानुसार । परन्तु महाव्रतधारी के लिए किसी भी वस्तु का संग्रह उसके मार्ग में बाधक माना गया है ।

7.8 महावीर के पश्चात जैन धर्म का प्रसार

महावीर के जीवनकाल में ही उनके मत का मगध तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में व्यापक प्रचार हो गया था | मगध नरेश अजातशत्रु तथा उसके उत्तराधिकारी उदायिन ने इसके प्रचार में योगदान दिया | महावीर ने अपने जीवन काल में एक संघ की स्थापना की | उसमें 11 गणधर (प्रमुख अनुयायी) रखे गये और इन्हें अलग-अलग समूहों का अध्यक्ष बनाया गया | महावीर के निर्वाण के पश्चात् केवल एक गणधर सुधर्मन बचा, जो जैन संघ का प्रथम अध्यक्ष बना । इस प्रकार महावीर अपने निर्वाण के समय तक इस धर्म को लोकप्रिय बना चुके थे । महावीर के निर्वाण के पश्चात् जैन धर्म का मगध से पश्चिम और दक्षिण की ओर प्रसार हुआ । जैन साहित्य के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य तथा जैन साधु भद्रबाहु बहुत से जैन भिक्षुओं के साथ दक्षिण में श्रवणबेलगोला (मैसूर) में बसे थे । सम्राट अशोक के पौत्र सम्पति को जैन धर्मावलम्बी बताया गया है | कलिंगराज खारवेल जैन धर्म का महान् संरक्षक था । प्रथम से तीसरी शताब्दी ई. के मध्य जैन धर्म उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों, विशेषत: मगध, मथुरा, मालवा, गुजरात आदि में प्रसारित हो चुका था | इसी काल में दक्षिण में आन्ध्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रचार हो चुका था | पाँचवीं शताब्दी ईस्वी के बाद दक्षिणी भारत के बहुत से राजवंशों जैसे गंग, कदम्ब, चालुक्य तथा राष्ट्रकूटों ने भी जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया । इसी समय गुजरात में जैन धर्म प्रभावी हो गया था । बाद में चालुक्य नरेश कुमारपाल और जयसिंह सिद्धराज(12 वीं शताब्दी) दोनों ही जैन धर्म के महान् संरक्षक सिद्ध हुए । पूर्व मध्यकाल में राजस्थान में जैन धर्म का विशेष प्रसार हुआ । भीनमाल जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । बारहवीं शताब्दी से पूर्व राजस्थान में झालरापाटन, रणकपुर, माउन्ट आबू ओसियाँ आदि जैन धर्म के रूप में स्थापित हो चुके थे । आज भी गुजरात एवं राजस्थान में इस धर्म के अनुयायी बड़ी संख्या में हैं |

7.9 जैन धर्म के सम्प्रदाय

महावीर के पश्चात् कालान्तर में जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया-श्वेताम्बर और दिगम्बर । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के समय लगभग 310 ई.पू. मगध में 12 वर्षों का लम्बा दुर्भिक्ष पड़ा । इस विपदा से बचने के लिए आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में 12000 भिक्षु दक्षिण चले गये, वे पूर्ण नग्नता के नियम का पालन करते थे । उनकी अनुपस्थिति में मगध में आचार्य स्थूलभद्र ने इसमें छूट दे दी और भिक्षुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान कर दी | साथ ही, इसी समय स्थूलभद्र ने मगध में एक संगीति बुलाकर भगवान महावीर के वचनों का संग्रह और संकलन कार्य करवाया । संगीति 11 अंगो को ही प्रस्तुत कर सकी किन्तु 12 वाँ अंग प्रस्तुत नहीं कर सकी । अकाल पश्चात् भद्रबाहु मगध वापस लौटे तो उन्हें स्थूलभद्र के कृत्य एवं व्यवहार उचित नहीं लगे । उसने स्थूलभद्र द्वारा संकलित ग्रंथों को भी मान्यता नहीं दी । इन सब बातों को लेकर मूल संघ दो सम्प्रदायों में बँट गया, यथा श्वेताम्बर एवं दिगम्बर | जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में मुख्य अन्तर निम्न हैं –

(1) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा वस्त्र धारण को वे मोक्ष प्राप्ति में बाधक नहीं मानते हैं । इसके विपरीत दिगम्बर मतानुयायी पूर्णतया नग्न रहकर तपस्या करते हैं तथा वस्त्र धारण को मोक्ष के मार्ग में बाधक मानते हैं |

(2) श्वेताम्बर मत के अनुसार स्त्री मोक्ष की अधिकारिणी है, जबकि दिगम्बर मत के अनुसार स्त्री का स्त्रीत्व ही मोक्ष में बाधक है ।

(3) श्वेताम्बर मत के अनुसार महावीर का यशोदा से विवाह हुआ, दिगम्बर इसे नहीं मानते हैं और कहते हैं कि वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे |

(4) श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार 19 वें तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार वे पुरुष ही थे |

(5) श्वेताम्बर समुदाय के साधु जैन धर्म के सिद्धान्तों में लचीलापन दिखाते हैं जबकि दिगम्बर परम्परा में समुदाय के साधु को नियमों का कठोरता से पालन करना अपेक्षित

7.10 जैन धर्म के सीमित प्रचार के कारण

जैन धर्म का प्रचार क्षेत्र बहुत सीमित दिखाई देता है । महावीर स्वामी के जीवन काल में वह मुख्यत: मगध और अंग में ही प्रचारित हुआ | उनकी मृत्यु के बाद भी उसका प्रचार क्षेत्र मूलत: दक्षिण भारत एवं पश्चिमी भारत तक ही सीमित रहा । जैन धर्म कभी भी देशव्यापी नहीं बन सका । जैन धर्म के सीमित प्रचार के कई कारण थे –

(1) आचार-मार्ग की कठोरता- जैन-धर्म का आचार-मार्ग बहुत कठोर तथा कष्ट साध्य था जो सामान्य जनता के लिए अव्यावहारिक था, इसलिए वह उन्हें आकर्षित नहीं कर सका । जैन धर्म के अहिंसा, वस्त्रहीनता, कायाक्लेश अनेकात्मवाद जैसे सिद्धान्तों को जनसामान्य सहजता से आत्मसात् नहीं कर पाया । दूसरी ओर बौद्ध धर्म के सिद्धान्त अपेक्षाकृत अधिक सरल एवं व्यावहारिक थे ।

(2) ब्राह्मण धर्म से अपृथक्ता – ब्राह्मण धर्म के विरोध में जैन धर्म अपनी प्राचीन नूतनता और स्वतन्त्र अस्तित्व को धीरे-धीरे खोता चला गया । कालान्तर में ब्राह्मण धर्मों की बहुत सी बातें जैन धर्म ने स्वीकार कर ली । ब्राह्मण धर्म का भक्तिवाद उसके अनेक देवी-देवता जैन धर्म का अंग बन गए | जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को कृष्ण का अवतार मान लिया गया । बौद्ध धर्म ब्राह्मण धर्म की जटिलता के विरोध में अपनी नवीनता के कारण लोकप्रिय हुआ था, जैन धर्म यह विशिष्टता हासिल नहीं कर सका |

(3) व्यापक राज्याश्रय का अभाव – जैन धर्म को उस प्रकार का राजकीय आश्रय एवं समर्थन नहीं मिल सका जैसा कि बौद्ध धर्म को एक लम्बी अवधि तक निरन्तर मिलता रहा । बौद्ध धर्म को तो अशोक, कनिष्क एवं हर्ष जैसे नरेशों का विपुल राजकीय संरक्षण एवं प्रोत्साहन मिला लेकिन ऐसे महान् सम्राटों का राज्याश्रय जैन धर्म को उपलब्ध नहीं हो सका।

(4) जनतन्त्रात्मक संघ का अभाव – बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का कारण उसके संघों का जनतन्त्रात्मक गठन एवं संचालन था । जैन संघों में इस प्रकार का कोई स्पष्ट विधान नहीं था, वही शक्ति संघ के प्रमुख धर्माचार्यों के हाथ में ही प्राय: केन्द्रित रही । इसका परिणाम यह हुआ कि, समत्व की भावना के अभाव में: जनसामान्य या जनमानस जैन संघों की ओर अधिक आकृष्ट नहीं हो पाया ।

(5) कर्मठ साहसिक प्रचारकों का अभाव- बौद्ध धर्म के कर्मठ एवं साहसिक प्रचारकों ने तमाम बाधाओं को पार करते हुए देश एवं विदेश दोनों जगह अपने धर्म का खूब प्रचार किया | जैन धर्म के अनुयायियों में इस प्रकार की उत्कट प्रचार भावना का अपेक्षाकृत अभाव दिखाई देता है ।

7.11 जैन धर्म के स्थायित्व के कारण

जैन धर्म भारतवर्ष में आज भी जीवित है । दूसरी ओर, बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि भारत से लुप्तप्राय हो गया, यद्यपि दूसरे देशों में वह आज भी प्रचलित है | भारत में जैन धर्म के स्थायित्व के क्या कारण हैं ? इसके तीन प्रमुख कारण जान पड़ते हैं एक तो जैन धर्म के अनुयायी जाति के रूप में संगठित हो गये । दूसरे उसके अनुयायियों की संख्या कम रही और उन्होंने इसकी परम्परा को बनाये रखा, तीसरे कालान्तर में जैन धर्म ब्राह्मण धर्म से अभिन्न दिखाई देने लगा और ब्राह्मण धर्माचार्यों ने जैन धर्म का उतना कटु विरोध नहीं किया जैसा शंकराचार्य आदि ने बौद्ध धर्म का किया था।

7.12 जैन संगीतियाँ

जैन धर्म ग्रन्थों को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए दो सभाएँ (संगीतियाँ) समय-समय पर आयोजित की गई थीं

प्रथम जैन संगीति – यह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में (लगभग 300 ई.पू.) पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुई थी । यह संगीति स्थूलभद्र एवं सम्भूति विजय नामक स्थविरों के नेतृत्व में आयोजित की गई थी । इस संगीति में अंगों का सम्पादन किया गया । इस सभा के निर्णयों को भद्रबाहु और उसके अनुयायियों ने नहीं माना । परिणामत: जैन धर्म दो शाखाओं में विभक्त हो गया ।

द्वितीय जैन संगीति- यह संगीति गुजरात के वल्लभी में 513 ई. में आयोजित की गई । इस संगीति की अध्यक्षता देवरवधगणि ने की थी । इसमें धर्मग्रन्थों का संकलन कर उन्हें लिपिबद्ध किया गया था ।

7.13 जैन धर्म की विश्व को देन

यद्यपि जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अधिक नहीं हो पाया, फिर भी इस धर्म ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विभिन्न पक्षों को बहुत प्रभावित किया । संक्षेप में इसके योगदान का विवेचन निम्न प्रकार है –

(1) जैन धर्म की अहिंसा नीति प्रारम्भ से ही भारतीयों का अंग रही है | जैन विचारधारा ने सदाचार एवं संयमित जीवन की जो उपयोगिता बताई, वह भारतीय धर्मों का आधार बनी । अनेकान्तवाद का सिद्धान्त विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के बीच भेदभाव मिटाकर समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास माना जा सकता है |

(2) जैन धर्म की देन साहित्य के क्षेत्र में भी कम नहीं रही । जैन विद्वानों ने विभिन्न कालों में लोकभाषाओं के माध्यम से अपनी कृतियों की रचना करके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भाषाओं में जैन साहित्य का विशाल भण्डार आज भी जैन ग्रन्थ भण्डारों में मौजूद है । अकेले राजस्थान में ही अनेक दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें ताड़पत्रों पर लिखे हुए ग्रन्थ भी शामिल हैं | राजपूत काल में हेमचंद्र आदि जैन विद्वानों ने अनेक ग्रंथों को लिखकर भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया ।

(3) जैन धर्म का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में रहा । उड़ीसा के पुरी जिले में उदयगिरी एवं खण्डगिरि की 35 जैन गुफाएँ स्थापत्य के क्षेत्र में विरासत हैं । एलोरा में भी कई जैन गुफाएँ हैं । मध्यभारत में खजुराहो के कतिपय जैन मन्दिर दसवीं एवं ग्यारहवीं शताब्दी के हैं राजस्थान में आबू पर्वत के देलवाड़ा मन्दिर विश्व प्रसिद्ध हैं, जो संगमरमर के हैं । इन मन्दिरों की मूर्तिकला के अलावा तोरण द्वार, नक्काशी आदि का काम मन को मुग्ध कर देता है । यहाँ की बारीक नक्काशी की कला-मर्मज्ञों ने प्रशंसा की है । राजस्थान में ही ओसियाँ, रणकपुर और झालरापाटन के जैन मन्दिर भारत में प्रसिद्ध हैं | गुजरात की गिरनार की पालीताना पहाड़ियों पर जैन मन्दिरों के समूह हैं । मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में प्राचीन जैन मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं | श्रवणबेलगोला ;कर्नाटक में 983 ई. की बाहुबली प्रथम तीर्थंकर के पुत्र की 56 फुट ऊँची खण्डगासन मूर्ति विश्व प्रसिद्ध है । यह एक ही कठोर पाषाण से निर्मित है । इस मूर्ति में शक्ति तथा साधुत्व और बल तथा औदार्य की उदात्त भावनाओं का अपूर्व प्रदर्शन है । शत्रुजय पहाड़ी पर 500 जैन मन्दिरों का समूह दर्शनीय है ।

(ब) बौद्ध धर्म ___ भारतीय धर्मो के इतिहास में बौद्ध धर्म का इतिहास अद्वितीय है । इस धर्म का उदय छठी शताब्दी ई. पू. में महात्मा बुद्ध के द्वारा हुआ था । बौद्ध धर्म तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम था । धार्मिक क्रान्ति के इस युग में बौद्ध धर्म का आगमन एक ध्रुव तारे के समान था ।

बौद्ध धर्म आज भी लोगों के लिए आकर्षक है | बौद्ध धर्म का उदय निवृत्तिवादी श्रमण परम्परा की ही एक कड़ी थी । वैदिक परम्परा का विरोध मुखरित कर बौद्ध धर्म ने एक सामाजिक एवं नैतिक आन्दोलन की शुरुआत की ।

7.14 बुद्ध का संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त

7.14.1 जन्म एवं बचपन –

बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु से 14 मील दूरी पर अवस्थित, लुम्बिनी ;वर्तमान रुम्मिनदेई वन में हुआ था जो नेपाल की तराई में है । महात्मा बुद्ध का जन्म नाम सिद्धार्थ था । गौतम गोत्र से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें गौतम भी कहा जाता है | इनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के प्रधान थे | बुद्ध की माता का नाम महामाया था, जो कोलिय गणराज्य की राजकन्या थी | बुद्ध के जन्म के सातवें दिन माता महामाया का निधन हो गया । उसके बाद बुद्ध का लालन-पालन उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया | कहा जाता है कि बुद्ध के जन्म पर कालदेवल नामक तपस्वी एवं भविष्यवेत्ता ब्राह्मण कौण्डिन्य ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बड़ा होकर एक चक्रवर्ती शासक या महान् संन्यासी बनेगा ।

7.14.2 महाभिनिष्क्रमण-

शद्धोदन के प्रयासों के बावजूद सिद्धार्थ बचपन से ही चिंतनशील रहने लगे । पिता द्वारा रास-रंग में बांधे रखने के प्रयास सफल नहीं हो पाये । उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में कोलिय गणराज्य की रूपलावण्यमयी राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया गया । कहीं-कहीं उनकी भार्या का नाम गोपा या बिम्बा भी दिया गया है । विवाह के 12 वर्ष पश्चात् उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल रखा गया । राहुल के जन्म का समाचार सुनकर गर्मम ने कुछ विचलित भाव से कहा, ‘आज मेरे कथन की श्रृंखला में एक कड़ी और जुड़ गई ।’

लगभग 13 वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक प्रवृतियों में नहीं लग सका । सिद्धार्थ के मन में वैराग्य भावना बढ़ती जा रही थी । बौद्ध साहित्य में ऐसी अनेक घटनाओं और दृश्यों के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे सिद्धार्थ की चिन्तनशील प्रवृत्ति को नई दिशा मिली । बौद्ध साहित्य के अनुसार, नगर भ्रमण के दौरान भिन्न-भिन्न अवसरों पर सिद्धार्थ ने मार्ग में पहले जर्जर शरीर वृद्ध, फिर व्यथापूर्ण रोगी, फिर मृतक और अन्त में प्रसन्नचित संन्यासी को देखा। इन दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ को पक्का विश्वास हो गया कि संसार दुःखों का घर है और यह शरीर, यौवन और सांसारिक सुख क्षणिक हैं । धीरे-धीरे सिद्धार्थ के मन में वैराग्य का विचार दृढ़ीभूत हो गया । इसी वैराग्य भावना ने उन्हें तृष्णा की जंजीर को तोड़ने, अज्ञान का कोहरा दूर भगाने तथा अपनेपन की मिथ्या-मति को मिटाने की प्रेरणा प्रदान की तथा एक रात्रि को अपने पुत्र, पत्नी और पिता तथा सम्पूर्ण राज्य वैभव को त्यागकर वे ज्ञान की खोज में निकल पड़े । उनके जीवन की इस घटना को बौद्ध धर्म एवं साहित्य में ‘महाभिनिष्क्रमण’ के नाम से पुकारा जाता है।

उस महाभिनिष्क्रमण की रात्रि को वह अपने घोड़े कथक पर 30 योजन दूर निकल गये और गोरखपुर के समीप अनोमा नदी के तट पर उन्होंने अपने राजसी वस्त्र उतार दिये और तलवार से अपने राजसी बाल काट डाले एवं अपने आभूषण तथा राजसी वस्त्र एक साधारण किसान को देकर स्वयं उसके वस्त्र धारण कर लिये । निश्चय ही अमावस्या की वह रात्रि अपने आगोश में अनेक विचारों एवं वंदवों को समेटे हुए होगी क्योंकि दुनिया में मानव जाति के लिए व्याकुल कोई व्यक्ति राजसी ठाट-बाट को छोड़कर एक वृहत् उद्देश्य के लिये जंगल की ओर निकल रहा था ।

7.14.3 सम्बोधि-

ज्ञान की खोज में गौतम एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगे । सबसे पहले उनका सम्पर्क वैशाली के समीप आलार कालाम नामक तपस्वी से हुआ जो सांख्य दर्शन का विद्वान् था | आलार कालाम के आश्रम में रहकर गौतम ने साधना कार्य किया लेकिन उन्हें शांति नहीं मिली । इसके बाद वे घूमते हुए राजगृह के निकट रुद्रक रामपुत्त नामक आचार्य के आश्रम में पहुँचे जो योग की शिक्षा प्रदान करते थे । वहाँ रहकर भी गौतम को सन्तोष नहीं मिला । यहाँ से वे उरुवेला की सुरम्य वनस्थली में आये और तपस्या में लीन हो गये । यहाँ उन्हें कौण्डिन्य आदि पाँच ब्राह्मण साधक संन्यासी भी मिल गये । अपने इन ब्राह्मण साथियों के साथ वे उरुवेला में कठोर तपस्या करने लगे | गौतम ने तपस्या को अधिक कठोर कर आहार का भी त्याग कर दिया, जिससे उनका शरीर निश्चल एवं शक्तिविहीन-सा हो गया, लेकिन उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ | ऐसी जनश्रुति है कि एक दिन नगर की कुछ स्त्रियां गीत गाती हुई उस ओर से निकली, जहाँ सिद्धार्थ तपस्यारत थे । उनके कान में स्त्रियों का एक गीत पड़ा, जिसका भावार्थ था, “वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ो । ढीला छोड़ देने से उनसे सुरीला स्वर न निकलेगा । परन्तु तारों को इतना भी मत कसो, जिससे वे टूट जाये।” कहते है कि सिद्धार्थ के हृदय में गीतों के भावों का गहरा असर पड़ा | यहीं से उन्हें जीवन में मध्यम मार्ग का दर्शन-ज्ञान हुआ | उन्होंने जान लिया कि योग साधना में हल्का आहार बाधक नहीं है । अतः गौतम ने पुन: अन्न ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया । उन्हें ऐसा करते देख उनके पाँच ब्राह्मण साथियों ने नाराज होकर कहा कि ‘गौतम भोगवादी है । वह अपने पथ से भ्रष्ट हो गया है।’ ऐसा कहकर वे गौतम का साथ छोड़कर चले गये ।

उरुवेला से गौतम गया चले आए और वहीं एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गये | सात दिन अखण्ड समाधि में स्थित रहने के बाद आठवें दिन वैशाखी पूर्णिमा की रात को उन्हें सम्बोधित (आन्तरिक ज्ञान) प्राप्त हुई और अब वे बुद्ध (जिसे ज्ञान प्राप्त हो) के नाम से विख्यात हुए । अब वे तथागत ;जिसने सत्य को जान लिया बौद्ध के नाम से भी जाने गये । जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोध प्राप्त हुआ था, उसका नाम बोधिवृक्ष पड़ा | गया अब बोधगया के नाम से प्रसिद्ध हुआ | इस घटना के बाद भी महात्मा बुद्ध चार सप्ताह तक उसी बोधिवृक्ष के नीचे रहे और धर्म के स्वरूप का चिन्तन करते रहे |

7.14.4 धर्म-चक्र-प्रवर्तन-

बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् पीड़ित मानवता के उद्धार के लिए ज्ञान का सबको उपदेश देने का निश्चय किया । वे गया से सारनाथ (बनारस) पहुँचे और वहाँ उन्होंने सर्वप्रथम धर्म का उपदेश उन ब्राह्मण साथियों को दिया, जो उन्हें गया में छोड़कर चले गये थे । बौद्ध साहित्य में प्रथम धर्म उपदेश की यह घटना ‘धर्म-चक्र-प्रवर्तन’ (धर्मरूपी चक्र का चलना) कहलाती है | चक्र शब्द यही धर्म के चक्रवर्ती साम्राज्य का प्रतीक है ।

इसके बाद महात्मा बुद्ध काशी पहुँचे । वहाँ का एक धनिक व्यक्ति यश महात्मा बुद्ध का शिष्य एवं बौद्ध भिक्षुक हो गया और उसके परिवारजन भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये । शीघ्र ही महात्मा बुद्ध के शिष्यों की संख्या आठ हो गई । उन्होंने इन शिष्यों को धर्म प्रचार का दायित्व सौंपते हुए कहा “हे भिक्षुओं, आरम्भ में कल्याणकर, मध्य में कल्याणकर और अंत में कल्याणकर, इस धर्म का उपदेश करो | लोगों के हित के लिए, लोगों के कल्याण के लिए विचरण करो | एक साथ दो मत जाओ” |

काशी से बुद्ध उरुवेला पहुंचे, जहाँ काश्यप के नेतृत्व में अनेक ब्राह्मण पुरोहित बुद्ध के शिष्य बन गये । उरुवेला से अपने शिष्यों के साथ बुद्ध राजगृह पहुंचे, जहाँ मगध नरेश बिम्बिसार अपने अनुचरों के साथ बुद्ध के दर्शन एवं उनके उपदेश सुनने के लिए स्वयं उपस्थित हुआ । इसी समय सारिपुत्र एवं, मौदगल्यायन भी बुद्ध के शिष्य बन गये । बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में इन ब्राह्मण विद्वानों का उल्लेखनीय हाथ रहा | कुछ ही समय में बुद्ध के शिष्यों की संख्या 60 हो गई। तब उन्होंने एक संघ की स्थापना की, जिनकी सहायता से लगभग 45 वर्षों तक बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया ।

धर्म प्रचार करते हुए बुद्ध अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु पहुँचे । वहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ । उसी समय उनका पुत्र राहुल एवं परिवार के अन्य सदस्य उनके शिष्य बन गये । यहाँ से तथागत वैशाली पहुँचे । वैशाली की विख्यात नगरवधू आम्रपाली बुद्ध की शिष्या बन गई और उसने भिक्षुओं के निवास के लिए अपनी आमवाटिका प्रदान की । यहीं पर महात्मा बुद्ध ने महाप्रजापति गौतमी के विशेष आग्रह पर स्त्रियों को संघ मे प्रवेश की स्वीकृति प्रदान की । इसके बाद कोसल जनपद की राजधानी श्रावस्ती पहुँचे । वहाँ का एक अत्यन्त धनी सेठ अनाथपिण्डक बुद्ध का अनुयायी बन गया । उसने राजकुमार जेत से बहुमूल्य जेतवन विहार खरीदा और उसे बौद्ध संघ को प्रदान किया । कौशल नरेश प्रसेनजित भी महात्मा बुद्ध की शरण में आ गया और उसने संघ के लिए पूर्वाराम नामक विहार बनवाया । कौशल जनपद में ही अंगुलिमाल नामक दुर्दान्त डाकू उनका शिष्य बन गया |

बुद्ध जीवनपर्यन्त मगध, काशी, कौशल, वज्जि मल्ल, वत्स, शाक्य. कोलिय मोरिय, अंग आदि जनपदों में विचरते रहे और अपनी शिक्षाओं का प्रचार करते रहे | उन्होंने अपना सर्वाधिक समय कोसल जनपद में बिताया । अवंति राज्य में उन्होंने महाकच्चायन के नेतृत्व में अपने शिष्यों का एक दल भेजा था, जिसका वहाँ अभूतपूर्व स्वागत हुआ |

7.14.5 महापरिनिर्वाण-

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में बुद्ध भ्रमण करते हुए मल्ल जनपद की राजधानी पावा पहुँचे। वहाँ उन्होंने चुन्द नामक व्यक्ति के यहाँ भोजन किया, जिसके बाद उन्हें अतिसार हो गया । इस कष्ट को सहन करते हुए वे कुशीनारा पहुँचे । यहाँ 483 ई.पू. में अस्सी वर्ष की अवस्था में, उन्होंने हिरण्यवती नदी के तट पर शरीर त्याग दिया | इस घटना को बौद्ध ग्रन्थों’ में ‘महापरिनिर्वाण कहा जाता है । निर्वाण के पूर्व उन्होनें भिक्षुओं को संबोधित किया। आनन्द सम्भवतः तुमने ऐसा सोचा कि हमारे शास्त्र चले गए, अब हमारा शास्त्र नहीं हैं आनंद इसे ऐसा मत समझना मैने जो धर्म और विनय उपदेश किये है, प्रज्ञप्त किये हैं, मेरे बाद वे ही तुम्हारे शास्त्र होगे…… | इसलिए आनंद आत्मदीप, आत्मशरण, अनन्यशरण, धर्मदीप, धर्मशरण होकर विहरो ! (महापरिनिब्बान सुत दीर्घानिकाव्य)

7.15 बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ

बौद्ध धर्म मूल रूप से आचारमूलक और व्यावहारिक धर्म है । महात्मा बुद्ध ने धर्म के दार्शनिक पक्ष के स्थान पर व्यवहार पर अधिक बल दिया है । निःसन्देह वे व्यावहारिक और नैतिक धर्म के संस्थापक थे । उनकी दृष्टि में धार्मिक क्रियाओं और गूढ़ चिन्तन की अपेक्षा शुद्ध आचरण, शुद्ध विचार, शद्ध कर्म और शुद्ध भावना अधिक महत्वपूर्ण है । उनका धर्म ‘मानवता की उच्चतम सीमा’ तक पहुंच गया था । वे दार्शनिक प्रश्नों में नहीं उलझ | कई जटिल प्रश्नों को उन्होंने ‘अव्याकृत’ कहा | अनावश्यक एवं अव्यावहारिक प्रश्नों में उलझने की दृष्टि को बुद्ध ने ‘दृष्टियों का जंगल, दृष्टियों का जाल एवं दृष्टियों का बन्धन’ कहा है । बुद्ध अपने उपदेशों में कहा करते थे, “भिक्षुओं ! मैं दो बातों का ही उपदेश देता हूँ- दुःख और दुःख निरोध | दुःख संसार है और दुख निरोध निर्वाण है।

7.15.1 चार आर्य सत्य-

बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की आधारशिला उसके चार आर्य सत्यों (चत्वारि आर्य सत्यानि) में निहित है । ये चार आर्य सत्य हैं- (1) दुःख (2) दुःख समुदाय (3)दुःख निरोध और (4) दुःख निरोध मार्ग ।

1. दुःख- प्रथम आर्य सत्य यह है कि जीवन दुःखमय है । संसार में सर्वत्र दुःख छाया हुआ है । ‘जन्म भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मरण भी दुःख है, अप्रिय लोगों से मिलना भी दुःख है, प्रिय लोगों का बिछुड़ना भी दुःख है और इच्छा करने पर किसी वस्तु का न मिलना भी दुःख है ।

2. दुःख समुदाय- द्वितीय आर्य सत्य यह है कि दुःख अकारण नहीं है । जब दुःख है तो कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये । बौद्ध धर्म के प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम के अनुसार, सृष्टि का चक्र कार्य-कारण श्रृंखला में बंधा है । इसका अर्थ है कि कारण के होने पर ही कार्य होता है, यह नियम अटल है । इसलिए दुःख का भी कारण है । दुःख का मूल कारण अविद्या है, जिसका अर्थ है-अपने वास्तविक स्वरूप के बारे में मिथ्या धारणा । अविद्या से तृष्णा उत्पन्न होती है, जो मनुष्य को अन्तत: दुःखों के सागर में डुबो देती है |

3. दुःख निरोध- तृतीय आर्य सत्य है कि जहाँ दुःख का कारण है, वहाँ उससे छुटकारा भी है | दुःख को दूर करने के उपाय उसके कारण को दूर करना है । दुःख का कारण जो तृष्णा है, उसको जड़ से उखाड़ फेंक देने से दुःख का निरोध हो सकता है । अविद्या एवं तृष्णा की समाप्ति ही दुःख के अन्त का उपाय है । ___4. दुःख निरोध मार्ग- चतुर्थ आर्य सत्य यह है कि यदि दुःख का कारण है, दुःख का निदान सम्भव है तो फिर इसका कोई तरीका अथवा मार्ग भी होना चाहिए | महात्मा बुद्ध ने इस मार्ग को ‘दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा’ या ‘दुःख निरोध मार्ग’ कहा । इसे अष्टांगिक मार्ग भी कहा गया है क्योंकि इसमें आठ चरणों का उल्लेख है, जो इस प्रकार है –

(1) सम्यक् दृष्टि – सत्य दृष्टि, सत्य-असत्य को पहचानने का ज्ञान | सभी प्रकार के अच्छे बुरे कर्मों का ज्ञान। बुद्ध के वचनों में विश्वास और आर्य सत्यों का ज्ञान ।

(2) सम्यक् संकल्प – इच्छा एवं हिंसारहित संकल्प | आत्म कल्याण का पक्का निश्चय ही सम्यक् संकल्प है । (3) सम्यक् वाणी – सत्य एवं मृदु वाणी । झूठ, चुगली, कदुभाषण एवं अनावश्यक वाणी प्रयोग से बचना वाणी पर संयम।।

(4) सम्यक् कर्मान्त – सभी कर्मों में पवित्रता रखना | हिंसा, चोरी, व्यभिचार रहित कर्म । दया, दान, करुणा, मैत्री, अहिंसा का आचरण ।

(5) सम्यक् आजीव – जीवन-यापन का सदाचारपूर्ण एवं उचित मार्ग | जीवन निर्वाह के लिए निषिद्ध मार्गों का त्याग। हथियार व्यापार, मांस व्यापार, मदिरा एवं विष का व्यापार आदि अनुचित । नैतिक नियमों के अनुकूल जीविका के साधन |

(6) सम्यक् व्यायाम – विवेकपूर्ण प्रयत्न, शुद्ध एवं ज्ञान युक्त प्रयत्न, मानसिक दोषों को हटाकर अपने व्यक्तित्व को शुद्ध बनाने के लिए प्रयत्न । अशुभ कर्मों का त्याग और शुभ कर्मों के लिए प्रयत्नशील।

(7) सम्यक् स्मृति – शरीर एवं मन की दुर्बलताओं की निरंतर स्मृति एवं मन को ठीक विषय पर लगाना। चित्त को संतापों से बचाना । उत्तम शिक्षाओं का स्मरण | सदा जागरूक बने रहना ।

(8) सम्यक् समाधि – चित्त की एकाग्रता, चित्त के विक्षेप को दूर करना, चार आर्य सत्यों का निरन्तर ध्यान ।

इस प्रकार दुःख निरोध मार्ग एक मध्यम मार्ग है । इसे मध्यम प्रतिपदा भी कहा जाता है । यह मार्ग दो अतियों के बीच का मार्ग है, जिसमें अत्यधिक शारीरिक कष्ट एवं अत्यधिक शारीरिक सुख, इन दोनों स्थितियों का निषेध है । बुद्ध ने न तो अत्यधिक तपस्या का विधान किया और न अधिक भोग-विलास का । वास्तव में उन्होंने भोग और त्याग के बीच का मार्ग अपनाया । इस प्रकार बुद्ध मध्यम मार्ग के प्रवर्तक थे । ।

7.15.2 प्रतीत्यसमुत्पाद –

प्रतीत्यसमुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है-किसी वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरे की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर कार्य की उत्पत्ति अथवा ऐसा होने पर वैसा उत्पन्न होता है | प्रतीत्यसमुत्पाद के तीन सूत्र बताये गये हैं – (1) इसके होने पर यह होता है (2) इसके न होने पर यह नहीं होता हैं । (3) इसका निरोध होने पर यह निरुद्ध हो जाता है | इस नियम के अनुसार संसार के सारे पदार्थ तथा अवस्थाएँ किन्हीं कारणों पर निर्भर हैं । प्रत्येक वस्तु या घटना का कोई न कोई कारण अवश्य होता है । किसी कारण के बिना किसी भी घटना या कर्म का जन्म नहीं होता है । इसी प्रकार कर्म या घटना को उत्पन्न किए बिना कारण भी नहीं रह सकता | प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम को बुद्ध ने दुःखमय संसार पर लाग किया और दुःख के कारणों को ढूँढा | प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम एवं दुःख के कारणों का ज्ञान हो जाने से ही सिद्धार्थ अन्त में महात्मा बुद्ध बन सके | वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दुःख की उत्पत्ति का कारण अविद्या है । अत: अविद्या के निवारण द्वारा उससे उत्पन्न होने वाले दुःख से भी छुटकारा पाया जा सकता है | बुद्ध प्रतीत्यसमुत्पाद के नियमों को इतना महत्वपूर्ण मानते थे कि उन्होंने इसका नाम धर्म दिया |

7.15.3 निर्वाण –

निर्वाण बौद्ध धर्म का चरम लक्ष्य है । जिसे हिन्दू धर्म में मोक्ष एवं जैन धर्म में कैवल्य कहा गया है, उसी स्थिति को बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा गया है । निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है, दीपक के समान बुझ जाना या शान्त हो जाना । परन्तु बौद्ध दर्शन के अनुसार, निर्वाण परम आनन्द, परम सुख, परम ज्ञान और परम शान्ति की अवस्था है। निर्वाण कोई ऐसी अवस्था नहीं है, जो मरणोपरान्त प्राप्त होती हो । मनुष्य के जीवित रहते हुए भी पूर्णता की यह अवस्था प्राप्त हो सकती है । महात्मा बुद्ध ने मृत्यु के पूर्व ही निर्वाण प्राप्त किया था ।

निर्वाण का अर्थ निष्क्रियता नहीं है, क्योंकि निर्वाण प्राप्ति के बाद भी बुद्ध धर्म प्रचार के कार्य में निरन्तर रत रहे । अत: निर्वाण जीवन काल में ही प्राप्त होने वाली परम शान्ति की वह अवस्था है, जिसकी तुलना किसी भी प्रकार के सांसारिक सुखों से नहीं की जा सकती, जो वर्णनातीत है । निर्वाण प्राप्ति के साथ ही दुःखों तथा पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाती है |

7.15.4 कर्मवाद –

बौद्ध धर्म कर्म प्रधान है । कर्म का बौद्ध धर्म में अर्थ मनुष्य की समस्त शारीरिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाओं से है । बौद्ध धर्म सृष्टि के कर्ता या नियन्ता के रूप में किसी ईश्वर या दैवीय शक्ति को नहीं मानता है । उसके अनुसार, समस्त जगत् के कार्य व्यापारों का नियन्ता कर्म है | बौद्ध धर्म में कर्म का ही स्थान है, जो आस्तिक धर्म में ईश्वर का है | बुद्ध ने कहा था, ‘जो भी व्यक्ति, चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो अथवा शूद्र हो, सम्यक् कर्म करेगा, वह निर्वाण प्राप्त कर सकेगा ।’ महात्मा बुद्ध ने कर्म के आधार पर प्राणियों की हीनता और उत्तमता के भेद की व्याख्या करते हुए कहा था, ‘प्राणी कर्म के अधीन है, कर्म ही उसकी वर्तमान दशा का कारण हैं | कर्म ही प्राणियों का बन्धु और आश्रय है । प्राणियों में जो हीनता और उत्तमता दिखाई देती है, उसका कारण भी कर्म है ।’ 7.16 क्षणिकवाद, अनात्मवाद, पुनर्जन्म

बौद्ध दर्शन जगत् की किसी वस्तु या विचार की नित्यता में विश्वास नहीं करता है । उसके अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु अनित्य और क्षणिक है । आत्मा और जगत् प्रति क्षण बदलते रहते हैं । परिवर्तन जीवन और जगत् का वास्तविक नियम है | किसी भी वस्तु या विचार में स्थायित्व या अपरिवर्तनशीलता मन की एक झूठी कल्पना है । जिस प्रकार नदी में जल और जलते हुए दीपक की लौ की स्थिति में प्रति क्षण परिवर्तन होते रहने पर भी उसका रूप एक-सा प्रतीत होता है, वैसे ही आत्मा और जगत् भी क्षणिक और अनित्य होने पर भी प्रवाह के रूप में बने रहने के कारण नित्य और स्थायी प्रतीत होते हैं |

बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है । अनात्मवाद का सिद्धान्त क्षणिकवाद के सिद्धान्त का ही परिणाम है | बौद्ध मत स्थायी आत्मा की सत्ता को नहीं मानता । आत्मा शरीर के ही समान नाशवान है । आत्मा में वे सभी विकार हैं, जो शरीर में है । आत्मा भी शरीर के साथ बदलती है | जिसे हम आत्मा मानते हैं, वह एक विज्ञान संघात मात्र है । उनका कथन था कि जिस प्रकार एक कारीगर पहिया और धुरी आदि को मिलाकर गाड़ी तैयार करता है, उसी प्रकार हमारे शरीर की रचना भी संस्कार, संज्ञा, रूप, वेदना एवं विज्ञान रूपी तत्त्वों के समूह से मिलकर हुई है । जब तक इन तत्त्वों की समष्टि बनी रहती है, तभी तक मनुष्य बना रहता है और जब ये नष्ट हो जाते हैं, तब मनुष्य का भी अन्त हो जाता है । अत: संसार में आत्मा जैसी कोई सत्ता नहीं है।

अन्य भारतीय दर्शनों की तरह बौद्ध धर्म भी पुनर्जन्म में विश्वास करता है किन्तु आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता है । जैसा पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि बौद्ध धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है । कर्मों का फल भोगने के लिए मनुष्य को बार-बार जन्म लेना पड़ता है । जिस प्रकार जल प्रवाह में एक लहर के पश्चात् दूसरी लहर आती है और यह क्रम अनवरत जारी रहता है और उसमें कहीं भी व्यवधान नहीं पड़ता है, उसी प्रकार एक जन्म की अन्तिम चेतना के विलय होते ही, दूसरे जन्म की प्रथम चेतना का उदय होता है । यह परिवर्तन इस प्रकार होता है कि विलय और उदय के बीच कोई व्यवधान नहीं पडता ।

7.17 बौद्ध धर्म का विभाजन एवं महायान सम्प्रदाय का उदय

सामान्यत: यह माना जाता है कि महायान सम्प्रदाय का उदय बौद्धों की चतुर्थ संगीति के परिणामस्वरूप हुआ था । रालिन्सन का कथन है कि कनिष्क के शासनकाल में होने वाली चतुर्थ बौद्ध संगीति बौद्ध धर्म के इतिहास में नवीन युग के प्रारम्भ होने की सूचना देती है । यह नवीन युग था-महायान का उदय, जो हीनयान के प्रारम्भिक बौद्ध धर्म से उतना ही भिन्न था, जितना कि मध्यकालीन ईसाई धर्म प्रथम शताब्दी ईस्वी के ईसाइयों के सरल सिद्धान्त से भिन्न है | यह विचार भी है कि महायान पंथ का उदय कुछ तो अश्वघोष जैसे विद्वान् ब्राह्मणों के प्रयत्नों का प्रतिफल था, जिन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था और जो इसे हिन्दू धर्म के निकट लाना चाहते थे । उनका कहना है कि इसके उदय के कारणों में अधिकांशत: यह बात थी कि पश्चिम भारत में अनेक नवीन प्रभावों का प्रवेश हो चुका था । विदेशी आक्रमणकारियों में से अनेक जातियाँ भारत में बस गयी और अनेक विदेशी वर्गों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । इन विदेशी बौद्ध धर्मावलम्बियों ने धीरे-धीरे अपनी अनेक मान्यताओं को भी बौद्ध धर्म में प्रविष्ट करा दिया । इस विचारधारा के विद्वानों का कहना है कि जब बौद्ध धर्म विदेशों में पहुंचा तो उस पर विदेशी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था | बौद्ध धर्म को विशेष रूप से मध्य एशिया और ईरान की धार्मिक अवस्थाओं ने बड़ा प्रभावित किया । इसी प्रभाव के अन्तर्गत बौद्ध धर्म के अन्तर्गत महायान सम्प्रदाय का उदय हुआ |

हीनयान धर्म सिद्धान्तमूलक था । इसकी दृढ़ आचारवादिता साधारण जनता की मनोवृत्ति के अनुकूल नहीं थी । इसकी निरीश्वरवादिता और स्वावलम्बन पर अत्यधिक बल आदि ऐसे तत्त्व थे, जो जनसाधारण के लिए नितान्त दुर्बोध थे । परन्तु महायान सम्प्रदाय में उन तत्त्वों का समावेश किया गया, जो जनसाधारण की भावनाओं को प्रतिबिम्बित करता था । महायान ने विदेशों में धर्म प्रचार को सुगम कर दिया । भारत में भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में महायान सम्प्रदाय का प्रमुख हाथ है । ‘महायानमार्गी बौद्धों को बौद्ध धर्म विकसित करने का श्रेय प्रमुख रूप से है क्योंकि उन्होंने ही इसे जनता के अधिक निकट पहुँचाया । उसको उदार सरस, सरल एवं सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य बनाने का श्रेय महायान सम्प्रदाय के प्रवर्तक एवं उनके अनुयायियों को ही है । ए.एल.बॉशम का मत है कि बौद्धों में यह भावना जागृत हो गई थी कि महात्मा बुद्ध साधारण मनुष्य नहीं वरन् भगवान् के अवतार थे । अत: वे उनकी पूजा करने लगे ।

7.18 हीनयान-महायान में तुलना

हीनयानी अपने को मूल बौद्ध धर्म का संरक्षक मानते हैं और उसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना को स्वीकार नहीं करते । महायानी सम्प्रदाय के अनुयायियों ने बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में काफी परिवर्तन कर उसे अधिक उदार एवं लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया । इस अर्थ में महायानी स्वयं को ‘महा’ ‘यान’ यानी बड़ी गाड़ी का स्वामी मानते हैं और तिरस्कार स्वरूप दूसरे वर्ग को ‘हीन’ ‘यान’ यानी छोटी गाड़ी का संवाहक मानते हैं । कालान्तर में ये शब्द महायान और हीनयान दोनों वर्ग के अनुयायियों के लिए रूढ़ हो गये । एक जापानी विद्वान् लेखक के अनुसार, ‘महायान ने बुद्ध की शिक्षाओं के आन्तरिक महत्व का खण्डन किए बिना बौद्ध धर्म के मौलिक क्षेत्र को विस्तृत कर दिया ।’ हीनयान का प्रसार श्रीलंका एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में हुआ जबकि महायान का प्रसार केन्द्रीय एशिया, चीन एवं जापान में हुआ । हीनयान और महायान के निम्नांकित अन्तर इस प्रकार हैं –

हीनयान महायान

1. बुद्ध महापुरुष ईश्वर का अवतार

2. मुख्यतया दर्शन मुख्यतया धर्म

3. शील को प्रमुख स्थान करुणा पर अधिक बल

4. व्यक्ति को निर्वाण के लिया करुणा की आवश्यकता

स्वयं व्यक्ति को निर्वाण के लिया

बुद्ध को कीको प्रयासों आवश्यकता

5. व्यक्तिवादी, लक्ष्यस्वयं की मुक्ति विश्व की मुक्ति

समष्टिवादी लक्ष्यसम्पूर्ण

6. कठोर नियम एवं अपरिवर्तशील लचीले नियम एवं परिवर्तशीलता

7. केवल बुद्ध की शिक्षाओं में विश्वास

बुद्ध के साथ अनेक बोधिसत्वों, अवलोकितेश्वरों की पूजाअर्चना – में विश्वास

8. ग्रंथ पाली भाषा में ग्रंथ संस्कृत भाषा में

9. प्राचीन एवं मौलिक स्वरूप मे मूर्तिपूजा आदि तत्वों का समावेश

कोई परिवर्तन का आग्रही, अवतारवाद,

भक्तिवाद परिवर्तन नहीं

10. निर्वाण के लिया भिक्षु जीवन निर्वाण आवश्यक

गृहस्थ को भी सम्भव

7.19 बौद्ध संगीतियाँ

बौद्ध धर्म के विकास में बौद्ध संगीतियों या धर्मसभाओं अथवा धर्म सम्मेलनों का विशिष्ट योगदान है, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

1. प्रथम बौद्ध संगीति – 483 ई. पू. राजगृह में: शासक अजातशत्रु महाकस्यप, अध्यक्ष, बुद्ध की शिक्षाओं के संकलन हेतु सत एवं विनय पिटक तैयार । आनन्द एवं उपालि क्रमश: धर्म एवं विनय के प्रमाण ।

2. द्वितीय बौद्ध संगीति – 383 ई.पू. वैशाली में, शासक कालाशोक, साबकमीर अध्यक्षद्ध बौद्ध भिक्षु के आचरण सम्बन्धी विवादपूर्ण विषयों के मतभेदों को दूर करने हेतु, वैशाली के भिक्षु नियमों में ढिलाई के इच्छुक, बौद्ध संघ में मतभेद के कारण दो शाखाएँ बन गई – (i) स्थविर (थेरवादी)-परम्परागत नियमों के अनुयायी, नेतृत्वकर्ता-महाकच्चायन, कालान्तर में स्थविर हीनयानी कहलाये । (ii) महासांघिक-जो नवीन नियमों के हामी, नेतृत्वकर्ता-साबाकमीर कालाशोक, कालान्तर में महासांघिक महायानी कहलाये |

3. तृतीय बौद्ध संगीति – 250 ई.पू., पाटलिपुत्र में, शासक सम्राट अशोक, अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स, अभिधम्मपिटक का संकलन, थेरवादियों की प्रधानता रही, भारत के बाहर बौद्ध धर्म के प्रचार की प्रक्रिया का शुभारम्भ |

4. चतुर्थ बौद्ध संगीति – प्रथम शताब्दी ई. में, कश्मीर (कुण्डलवन) में, शासक कनिष्क । अध्यक्ष-वसुमित्र,उपाध्यक्ष-अश्वघोष। महायान का जन्म एवं मान्यता, परम्परागत सम्प्रदाय हीनयान कहलाया, महासांघिकों का बोलबाला, बौद्ध ग्रन्थों के ऊपर टीकाएँ विभाषा में लिपिबद्ध हुई पाली के स्थान पर संस्कृत को अपनाया ।

7.20 बौद्ध धर्म ग्रन्थ

प्रारम्मिक बौद्ध ग्रंथ पाली पवित्र पाठ भाषा में है | भाषा के रूप में पाली प्राचीन प्राकृत है तथा बुद्ध के समय यह मगध तथा समीपवर्ती प्रदेशों में बोली जाती थी । बौद्ध धर्म ग्रन्थों में पाली भाषा में लिपिबद्ध पिटक सबसे प्रमुख है जो संख्या में तीन हैं –

(1) विनय पिटक – इसमें बौद्ध संघ के लिए आचरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख है ।

प्रत्येक नियम के साथ उन परिस्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमे बुद्ध ने उस नियम का विधान किया । इसमें 226 प्रकार के पापों की सूची तथा उनके प्रायश्चित दिए हैं । भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए विस्तृत आचरण सम्बन्धी नियमों, जिनका पालन उन्हें करना होता था, का उल्लेख है । वस्त्र धारण भोजन ग्रहण एवं शयन विद्या से सम्बन्धी नियमों का भी इनमें विवरण है । (2) सुत्त पिटक – यह तीनों पिटकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विस्तृत है । यह पाँच निकायों में विभक्त है – (i) दीग्ध निकाय – इसमें भगवान बुद्ध की शिक्षाओं और संवादों का संकलन है । उन परिस्थितियों का भी वर्णन है, जिनसे प्रेरित होकर बुद्ध ने उनका प्रवचन दिया ।

सुत्तों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ‘महापरिनिब्बान सुत्त’ है । (ii) मज्झिम निकाय – इनमें उपदेश तथा वार्तालाप के साथ बहुत से आख्यान भी हैं जो गद्य-पद्य में वर्णित हैं ।

(iii) संयुत्त निकाय – इसमें बौद्ध धर्म से सम्बन्धित प्राय: सभी विषयों का उल्लेख है तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक दशा का विवरण है । इसमें नैतिक तथा दार्शनिक समस्याओं से संबन्धित विषयों का वर्णन है ।

(iv)अंगुत्तर निकाय – इसमें 2000 से कुछ अधिक संक्षिप्त कथनों का संग्रह है, जिन्हें अप्रकृत रूप से प्रत्येक कथन के विषय की संख्यानुसार क्रमबद्ध किया गया है |

(v) खुद्दक निकाय – इसका अर्थ है-सुत्तों का क्षुद्र संग्रह | इसकी रचनाएँ विभिन्न समय ___ की हैं तथा किसी एक संग्रह का अंश नहीं हैं । इसके अन्तर्गत बौद्ध धर्म-दर्शन से सम्बन्धित 15 ग्रंथों का संकलन है ।

(3) अभिधम्म पिटक – इसमें बुद्ध की शिक्षाओं से उपलब्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख, है । सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक में प्रतिपादित विषय एक से है । अन्तर केवल इतना है कि अभिधम्म पिटक में इनकी चर्चा, व्याख्या, वर्गीकरण, विभाजन आदि विद्वतापूर्ण ढंग से किया गया है । इसके अन्तर्गत सात पुस्तकें हैं, जिनमें मोग्गलिपुत्त तिस्स द्वारा रचित ‘कथावस्तु’ सर्वाधिक महत्त्व की है | बौद्ध दार्शनिक प्रश्नों का इसमें विशद विवेचन है ।

7.21 बौद्ध धर्म की विश्व को देन

महात्मा बुद्ध तथा अन्य बौद्ध विचारकों ने अपनी-अपनी शिक्षाओं में सदाचार के उच्च आदर्श-क्षमा, अहिंसा, शील, विनय, मानव-कल्याण, करुणा आदि पर बल दिया । इन आदर्शों ने भारतीय जन-जीवन में नैतिक चेतना जागृत की । बौद्ध धर्म ने ऊँच-नीच के भेद का खण्डन किया और सबकी समानता की घोषणा की । बौद्ध धर्म की देन को निम्न बिन्दुओं में विभक्त किया जा सकता है – (1) धार्मिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन – महात्मा बुद्ध ने एक ऐसा सरल धर्म विश्व को दिया, जो सब प्रकार से कर्मकाण्ड तथा अन्धविश्वासों से रहित था, जो बुद्धिवाद तथा मानववाद पर आधारित था और जो दुःखी मानव को मुक्त करने हेतु कृत-संकल्प था । बौद्ध-धर्म ने त्याग तथा संन्यासी निवृत्ति की विचार धारा को भारत में लोकप्रिय बनाया | सभी वर्गों एवं जातियों के लिए बौद्ध धर्म एवं बौद्ध संघ के द्वार खोल दिये गये थे । बुद्ध ने जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था का खण्डन किया । स्त्रियों को बौद्ध संघ में प्रवेश की आज्ञा देकर बुद्ध ने उनकी समानता एवं स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया । बौद्ध संघ के आदर्श ने भारत में लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना में सहयोग दिया । (2) साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में देन – हीनयान के लेखकों ने पालि भाषा के साहित्य को तथा महायान के लेखकों ने संस्कृत भाषा के साहित्य को समृद्ध बनाया | महात्मा बुद्ध ने स्वतन्त्र विचार को हमेशा प्रोत्साहन दिया । बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष, नागार्जुन, बसुबन्धु तथा धर्मकीर्ति की संसार के महान् दर्शन-शास्त्रियों में गणना की जा सकती है । बुद्ध चरित नामक महाकाव्य तथा दिव्यावदान नामक ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्व के समझे जाते हैं । शिक्षा के क्षेत्र में बौद्ध मठों अथवा विहारों का योगदान अनूठा रहा । इनमें नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, उद्दन्तपुरी आदि प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के रूप में विकसित हुए |

(3) कला के क्षेत्र में देन- भारतीय कला का वास्तविक इतिहास बौद्ध कलाकृतियों से ही प्रारम्भ होता है | अशोक द्वारा निर्मित स्तम्भों से भारतीय कला का अत्यन्त गौरवपूर्ण अध्याय प्रारम्भ होता है । साँची, भरहुत एवं अमरावती के स्तूप, कन्हेरी (मुम्बई), कार्ले-भाजा और अजन्ता से प्राप्त गुहायें, चैत्य और विहार बौद्ध कला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं । शीध्र ही मथुरा, नालन्दा और सारनाथ में मूर्तिकला की प्रसिद्ध शैलियाँ विकसित हुई । सारनाथ केन्द्र की बुद्ध प्रतिमा मूर्तिकला का सुन्दरतम नमूना है । मूर्तिकला के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की देन स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है । महायान सम्प्रदाय के विकास के पश्चात् बौद्ध धर्म में मूर्तियों के बनने का ऐसा सिलसिला चला, जो इस्लाम की आँधी से पहले तक कमोवेश चलता रहा ।चित्रकला के क्षेत्र में अजन्ता की चित्रकारी विश्व प्रसिद्ध है | बादामी, बाघ, सित्तनबासल तथा बराबर की गुफाओं में भी बौद्ध चित्रकला के अनुपम उदाहरण हैं ।

7.22 जैन धर्म और बौद्ध धर्म की तुलना

जैन धर्म और बौद्ध धर्म की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि बहुत से स्तरों पर इनमें बड़ी समानता है, लेकिन कुछ अन्य स्तरों पर इनमें व्यापक भेद भी हैं –

7.22.1 समानताएँ

(1) दोनों ही धर्म वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं करते । (2) दोनों ही ब्राह्माण धर्म के यज्ञवाद, देववाद एवं जन्म-आधारित वर्ण व्यवस्था का विरोध करते हैं । (3) दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । (4) दोनों ही कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास करते है । (5) दोनों ही निवृत्तिमार्गी हैं और संसार-त्याग पर जोर देते है । (6) दोनों ही अहिंसामूलक हैं और नैतिकता तथा आचार-तत्त्व को प्रधानता देते हैं । (7) दोनों ही जनवादी तथा मानवतावादी आन्दोलनों के रूप में विकसित हुए | महावीर और बुद्ध दोनों ने लोगों की जन भाषा में अपने धर्मो का उपदेश दिया, जाति-प्रथा की निन्दा की तथा स्त्री और पुरूष की समानता का समर्थन किया ।

7.22.2 असमानताएँ –

(1) जैन धर्म बौद्ध धर्म से कहीं अधिक प्राचीन है । (2) जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, जबकि बौद्ध धर्म अनात्मवादी है । (3) जैन धर्म कठोर तपस्या पर बल देता है जबकि बौद्ध धर्म अत्यधिक काया-क्लेश और भोग-विलास के बीच मध्यम-वर्ग का अनुसरण करता है । (4) जैन धर्म बौद्ध धर्म की अपेक्षा अहिंसा के सिद्धान्त पर कहीं अधिक जोर देता हैं ।

7.23 बौद्ध धर्म के प्रसार के कारक

महात्मा बुद्ध ने जिस धर्म का प्रवर्तन किया, वह उनके जीवन-काल में ही उत्तरी-भारत का एक लोकप्रिय धर्म बन गया था । राहुल सांकृत्यायन के अनुसार बुद्ध के जीवनकाल में ही उनके उपदेशों का प्रसार कोसी से कुरुक्षेत्र और हिमालय से विध्याचल के प्रदेशों के बीच हो चुका था | महात्मा बुद्ध के अनुयायियों के प्रयत्नों से बहुत कम समय में बोद्ध धर्म का प्रसार भारत और विदेशों में हो गया । यह धर्म मध्य एशिया, कोरिया, चीन, जापान, तिब्बती आदि देशों में फैल गया। दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में भी इसका व्यापक प्रसार हुआ | लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चम्पा, इण्डोनेशिया आदि देश भी बौद्ध धर्म के प्रसाद में आ गये । बौद्ध धर्म का इतना व्यापक प्रसार विश्व इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय है । बौद्ध धर्म के प्रसार के निम्नांकित कारक रहे

(1) महात्मा बुद्ध का व्यक्तित्व- महात्मा बुद्ध का आकर्षक व्यक्तित्व एवं उनकी रोमांचकारी जीवनी ने उनके धर्म को एक विशिष्ट स्थान प्रदान किया | आम व्यक्ति की चिन्ता उनके मन समायी हुई थी । वे जहाँ भी जाते, उनके आगमन की चर्चा पहले से ही पहुँच जाती । जनाख्यान महात्मा बुद्ध के आगमन के पूर्व ही गाँव-गाँव में होने लगता था । परिणाम यह होता था कि स्त्री पुरुष, बालक-वृद्ध, ऊँच-नीच, राजा-रंक, सभी उनके दर्शन के निमित्त एकत्र हो जाते थे । निःसन्देह महात्मा बुद्ध का सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रभावोत्पादक था । कैसा भी व्यक्ति हो, उनके समक्ष आकर विनीत हो जाता था | सम्बोधि प्राप्त करने के पश्चात् महात्मा बुद्ध के मुखमण्डल पर अनुपम तेज देखकर उनका पूर्व निर्णय छू-मन्तर हो जाता था और किसी अन्तर्भावना से प्रेरित सहज ही उनका आदर-सत्कार करने लगता था । विषम से विषम परिस्थिति में भी वे उद्विग्र, क्षुब्ध अथवा क्रुद्ध नहीं होते थे । वे विनीत इतने थे कि उन्होंने किसी के ऊपर भी अपने मत का अरुचिपूर्ण आरोपण नं किया । वस्तुत: ‘उनका व्यक्तित्व चिन्तक, सुधारक, उपदेशक, जनसेवक

और आदर्शवादी नीति प्रचारक के विभिन्न गुणों का सम्मिश्रण था ।’

(2) सरल एवं प्रभावी धम्म – बुद्ध द्वारा उपदिष्ट धर्म सरल एवं सुबोध था । न उसमें कर्मकाण्ड की जटिलता थी और न दर्शन-शास्त्र की दुर्बोधता | उन्होंने दुःख से त्रस्त मानवता की चिंता कर सम्पूर्ण दुनिया का तारणहार बनने में पहल की । उन्होनें सार्वभौम समस्याओं पर ही अपने चिन्तन को केन्द्रित किया । वे दार्शनिक विचारों में नहीं उलझे । दुःख निरोध का मार्ग तथागत ने बनाया, वह वस्तुत: नैतिक मार्ग था, सदाचार का मार्ग था । उन्होंने सार्वभौम समस्याओं पर ही अपने चिन्तन को केन्द्रित किया । वे दार्शनिक विचारों में नही उलझे । दुःख निरोध का मार्ग तथागत ने बताया, वह वस्तुत: नैतिक मार्ग था, सदाचार का मार्ग था | उन्होंने कहा, “मनुष्य के कर्म ही उसे मोक्ष दिला सकते हैं ।” दुष्कर्म मनुष्य का कोई भी उद्धार नहीं कर सकता । इस प्रकार के विचार व्यक्त कर उन्होंने एक ओर तो भारतीय नैतिक जीवन को बल दिया और दूसरी ओर मानव ओर मोक्ष के बीच खड़े हुए शतशत अवरोधों को गिराकर एकमात्र कर्मवाद की स्थापना की । उन्होंने धम्म को मानववादी स्वरूप प्रदान करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी । ‘जाति मत पूछ’ का उद्घोष युग-युग तक बौद्ध धर्म के निर्विशेष मानववाद की दुहाई देता रहेगा।

(3) संघ का अनूठा स्वरूप – महात्मा बुद्ध की संगठनात्मक प्रतिभा का सर्वप्रमुख उदाहरण उनके द्वारा बौद्ध संघ की स्थापना है | बौद्ध संघ भिक्षुओं की जीवन प्रणाली का नियामक और बौद्धधर्म का सर्वश्रेष्ठ प्रचारक था । महात्मा बुद्ध ने गणतन्त्रात्मक प्रणाली को धार्मिक क्षेत्र में भी कार्यान्वित किया । उनका भिक्षु संघ वस्तुत: एक धार्मिक गणतन्त्र था | उसमें समस्त सदस्यों के अधिकार समान थे | महात्मा बुद्ध ने अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था |

महात्मा बुद्ध ने संघ के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था,“भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु लोग एक साथ एकत्र होकर बहुधा अपनी सभाएँ करते रहेंगे तब तक भिक्षुओं की वृद्धि समझना, हानि नहीं ।

भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु लोग एक ही बैठक करते रहेंगे, एक ही उत्थान करते रहेंगे और एक ही संघ के कार्यो को सम्पन्न करते रहेंगे-तब तक भिक्षुओं की वृद्धि समझना, हानि नहीं ।

भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु लोग संघ विदित नियमों का उल्लंघन नहीं करेंगे, संघ विरुद्ध नियमों का अनुसरण नहीं करेंगे, पुरातन भिक्षु नियमों का पालन करते रहेंगे तब तक उनकी वृद्धि होगी, हानि नही ।” आदि ।

इस प्रकार नियमों में आबद्ध कर महात्मा बुद्ध ने संघ के अन्तर्गत भिक्षु जीवन को जिस कुशलता के साथ संगठित किया था, वह कालान्तर में सफल हुई । संघ के संगठित रूप से जिस त्यागपरता, सदाचारिता, अध्ययनशीलता और अध्यवसायशीलता का परिचय दिया, उससे बौद्ध धर्म जनता की अपूर्व श्रद्धा का केन्द्र बन गया ।

(4) अनुयायियों की धर्मपरायणता – बौद्ध धर्म को प्रारम्भ से ही ऐसे बौद्ध भिक्षु और गृहस्थ उपासक, दोनों ही प्राप्त हुए जिन्होंने अपनी धर्मपरता और निःस्वार्थ साधना से ही महत्ती सेवा की तथा नये अनुयायियों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया । महात्मा बुद्ध का कथन ‘धर्म देशना अखण्ड रहेगी’ उनके अनुयायियों के लिए आदर्श बन गया था । भिक्षु तन, मन एवं धन से धर्म प्रचार में तल्लीन हो गए । सारिपुत्र, मौद्गल्यायन, महाकश्यप, आनन्द आदि भिक्षुओं, बिम्बिसार, अनाथपिण्डक आदि श्रावकों विशाखा, सुप्रवासा आदि श्राविकाओं ने जिस श्रद्धा भक्ति के साथ बौद्ध धर्म के प्रसार में योग दिया, वह चिरस्मरणीय रहेगा ।

(5) नयी आर्थिक व्यवस्था को समर्थन – बौद्ध धर्म की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारक यह था कि इसने नयी अर्थव्यवस्था को समर्थन दिया | छठी शती ई.पू. के पहिले ही शालेय क्षेत्र में लौह प्रोद्योगिकी के प्रयोग के फलस्वरूप कृषि में भारत में पूर्व उन्नति हुई अधिशेष उत्पाद से गृहशिल्प और लघु का विकास हुआ अत: व्यापार वाणिज्य गतिमान हुआ | कृषक एवं ,व्यवसायी वर्गों तथा व्यापारियों को राहत मिली । समुद्री व्यापार, व्यक्तिगत सम्पति, कर्ज, सूद आदि पर बौद्ध साहित्य का रुख नकारात्मक नहीं रहा । ये सब बातें वैश्यों के माफिक थी । अत: बहुत बड़ी संख्या में व्यापारी बुद्ध के समर्थक बन गये । श्रावस्ती के अनाथपिण्डक बनारस के यश जैसे अनेक धनाढ्य व्यापारियों ने बौद्ध धर्म को अपनाया तथा इसे अभूतपूर्व आर्थिक सहयोग प्रदान किया ।

(6) राजकीय प्रश्रय – बौद्ध धर्म के प्रसार में शासकों एवं राज्य परिवारों का सहयोग भरपूर रहा | महात्मा बुद्ध शाक्य नरेश के पुत्र थे । अत: शाक्य जाति उन्हें अति सम्मान की दृष्टि से देखती थी । शाक्यों ने अपने नवनिर्मित संथागार का उद्घाटन महात्मा बुद्ध से ही कराया था । लिच्छवि गणराज्य में बुद्ध धर्म प्रचार के लिए कई बार आये थे । शाक्यों एवं लिच्छवियों की भाँति मल्लों का गणराज्य भी महात्मा बुद्ध मे अपार श्रद्धा रखता था | मल्लों के प्रति प्रेम के कारण महात्मा बुद्ध ने अपनी देह का त्याग कुशीनारा में ही किया । इस प्रकार शाक्य, लिच्छवि एवं मल्ल गणराज्यों ने बौद्ध धर्म के प्रसार में योगदान दिया । इनके अतिरिक्त कोलिय (रामग्राम के), मोरिय, पिप्पलिवन के, भग्ग(सुंसुभारगिरि के), कालाम, के सपुत्र के, बुलि (अलकप्प के) आदि गणराज्यों ने महात्मा बुद्ध के अवशेषों के लिए अपनी-अपनी माँग प्रस्तुत की थी। इससे प्रकट होता है कि गणराज्य महात्मा बुद्ध के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु थे । इन गणराज्यों की सहायता बौद्ध धर्म के प्रचार मे बहुत सहायक रही होगी ।

गणराज्यों की भाँति राजतन्त्रात्मक राज्य भी महात्मा बुद्ध में प्रति आदर भाव रखते थे । मगध शासक बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का विशेष भक्त था | कौशलराज प्रसेनजित भी महात्मा बुद्ध में अपार श्रद्धा रखता था । तथागत अनेक बार उसकी राजधानी श्रावस्ती गये थे । वत्स नरेश उदयन प्रारम्भ में बौद्ध धर्म का विरोधी होने के बावजूद अपने जीवन के अन्तिम चरण में महात्मा बुद्ध में श्रद्धा रखने लगा था |

मौर्य शासक अशोक, कुषाण शासक कनिष्क तथा वर्धन शासक हर्षवर्धन ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए कार्य किया, वह अप्रतिम है | सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अपनी सारी शक्ति लगा दी थी । हेमचन्द्रराय चौधरी के अनुसार, “सम्राट अशोक ने गंगा की घाटी में फैले बौद्ध धर्म को विश्व धर्म बना दिया ।” तृतीय बौद्ध संगीति अशोक के समय हुई थी । कनिष्क की कीर्ति उसकी विजयों की अपेक्षा शाक्य मुनि के धर्म को राज्याश्रय प्रदान करने पर अवलम्बित है । चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन कनिष्क के शासन काल की महत्त्वपूर्ण घटना थी । महायान सम्प्रदाय का उदय इसी समय हुआ | इस सम्प्रदाय ने बौद्ध धर्म को जनता के अत्यधिक निकट पहुँचाया । बौद्ध धर्म को उदार, सरस व सर्वग्राह्य बनाने का श्रेय महायानियों को ही जाता है । हर्षवर्धन ने बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय को विशेष प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया था | वह स्वयं बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया था | धम्म के प्रचार के लिए उसने कन्नोज एवं प्रयाग में क्रमश: धार्मिक सभा एवं धार्मिक सम्मेलन भी आयोजित किया । इन शासकों के अतिरिक्त बंगाल के पाल शासकों ने भी बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान किया ।

(7) जन साधारण की भाषा में प्रचार- यद्यपि महात्मा बुद्ध अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे परन्तु उन्होंने अपने उपदेश जनभाषा में दिये | उन्होंने अभिजात वर्ग की भाषा संस्कृत में अपने उपदेश नहीं देकर बौद्ध धर्म को बहुत लाभ पहुँचाया । इससे बौद्ध धर्म जनसाधारण तक पहुचं सका । उन्होंने मागधी अथवा पाली भाषा में अपने उपदेश दिये, जो एक क्रान्तिकारी कदम था । अपनी भाषा में कहे गए धर्म को समझना जनता के लिए सुगम था ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म अपनी अन्तर्निहित विशेषताओं एवं अन्य कारणों से विश्व का लोकप्रिय धर्म बन गया । इसका प्रसार तत्कालीन संसार के अनेक भागों में हुआ । आज भी इसके अनुयायियों की संख्या संसार में तीसरे नम्बर पर है । आज भी एशिया में इसके अनुयायी सर्वाधिक हैं ।