मानव सभ्यता के इतिहास में मेसापोटामिया और मिस्र की तरह भारत को भी अति प्राचीन सभ्यता का प्रमुख केन्द्र होने का गौरव प्राप्त है । यदि पुरातत्त्व की दृष्टि से बात करें तो नव पाषाण युग में ग्रामीण समुदाय के लोगों ने पश्चिम तथा दक्षिण पूर्व एशिया में नील, दजला फरात, सिन्धु तथा ह्वांग-हो नदियों की घाटियों में महान् सभ्यताओं को विकसित किया । हमें धातुयुग में नदियों की सभ्यता के विकसित स्वरूप के दर्शन होते हैं |
नदियों के किनारों पर संस्कृतियों के उत्थान का कारण यह था कि यहां पर पर्याप्त मात्रा में उपजाऊ भूमि उपलब्ध थी, जिस पर सरलता से खेती की जा सकती थी । भूमि की सिंचाई हेतु पर्याप्त जल की सुविधा थी । नदियों में हर वर्ष बाढ़ आती थी । इसके अलावा नदिघाटियों में पशु-पालन हेतु हरे-भरे चारागाह भी उपलब्ध थे । नदियाँ यातायात की दृष्टि से उपयोगी थी और उनके किनारों पर भवन निर्माण हेतु अच्छी मिट्टी मिल जाती थी इसलिये भारत में भी सिन्धु नदी के किनारे पर सभ्यता विकसित हुई ।
सैन्धव सभ्यता जिस रूप में मिली है वह एक विकसित संस्कृति का रूप है । इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि इस संस्कृति का विकास क्रमिक रूप से हुआ । हमें प्राक् सैन्धव सभ्यता के प्रारम्मिक चरण की जानकारी उत्खनन के पश्चात् प्राप्त हुई है ।
3.2 प्राक् सैन्धव सभ्यता के प्रमुख केन्द्र
3.2.1 बलूचिस्तान
_सैन्धव सभ्यता या हड़प्पा संस्कृति का पूर्व स्वरूप हमें बोलन दरै; सिन्ध और बलूचिस्तान के कुछ भागों में मिलता है।
क्वेटा में जिस संस्कृति के अवशेष मिले हैं वे सबसे प्राचीन दृष्टिगोचर होते हैं । यहाँ पर मकान मिट्टी के बने हुए थे प्रथम स्तर पर जो फलक प्राप्त हुए हैं वे चर्ट जैस्पर या काल्सिडनी पत्थर के बने हुए हैं | वहां से हड्डी के सूए (awls) भी मिलते हैं | एक टूटा हुआ लोटा भी मिला है । किन्तु उनमें धातु की कोई भी वस्तु नहीं है । इस स्तर पर कोई मृगाण्ड नहीं मिले हैं परन्तु तीसरे स्तर पर कुछ मृगाण्ड प्राप्त हुए हैं । इस स्तर पर कुछ तांबा मिला है । चाक पर बने हुए जो मृद्राण्ड मिले हैं उनमें से कुछ का रंग गुलाबी या भूरा है । इन पर रेखागणितीय आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई हैं परन्तु पशुओं और पौधों के चित्र नहीं मिलते हैं । हमें कुछ गिलास कटोरे और तश्तरियां भी मिली हैं । यहां के बर्तनों की तुलना चौथी या तीसरी सहस्त्राब्दी ई.पू. की ईरानी संस्कृति से की गई है ।
डिका? के सर्वेक्षण के फलस्वरूप क्वेटा के दक्षिण की ओर सिन्धु के मैदान तक कई टीलों में तोगाऊ प्रकार के मृद्भाण्ड मिले हैं । इन पर लाल लेप और पशु चित्रण हैं और ये चाक पर बने हुए हैं | क्वेटा घाटी में स्थित दम्ब सद्दात के उत्खनन से सबसे प्राचीन (प्रथम काल) अवशेषों के साथ कैंची बेड़ा मृद्राण्ड मिलने से उन्हें किले गुल मोहम्मद का समकालीन माना जाता है । यहईंटों से निर्मित वस्तुओं के अवशेष मिले हैं । इनमें खानेदार मोहरे, पशुमूर्तियां, तराशे और घिसकर बनाये हुए पाषाण उपकरण मिट्टी और पत्थर की गोली, कीमती पत्थर के मनके और ताम्बा उल्लेखनीय है । यहाँ पर झोब संस्कृति की तरह मातृदेवी की मूर्तियाँ मिली है । भाण्डों पर अंकित चिह्नों का सिन्धु लिपि से साम्य होना महत्त्वपूर्ण है । क्वेटा में जैकोबाबाद जाने वाले मार्ग पर बलूचिस्तानी मैदान में स्थित पीराकब से भी मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं । जो पाण्डु, विरंगी एवं काले धूसर प्रकार के हैं ।
क्वेटा से 3.2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित किले गुल मोहम्मद में 1950 ई. में फेयर सर्विस ने खुदाई करवायी थी । यहाँ के उत्खनन में संस्कृति के चार चरण प्रकाश में आये हैं । प्रथम चरण में लोग मिट्टी और ईंटों के मकान में रहते थे । उन्होंने प्रस्तर औजारों का प्रयोग किया तथा भेड़, बकरी और गाय-बैल का पालन करते थे । इस स्थल की रेडियो कार्बन तिथि 3500-3100 ई.पू. के मध्य की है । द्वितीय चरण में लोगों ने हाथ से बने हुए बर्तनों का प्रयोग किया जबकि तृतीय चरण में बर्तन चाक पर बनने प्रारम्भ हो गये थे । इनकी सतह पर काले रंग के चित्र पाये जाते हैं । इन में लोगों ने ताम्बे की खोज कर ली थी । चतुर्थ चरण में लोगों ने बहुरंगी बर्तन बनाने प्रारम्भ कर दिये थे जिन्हें कैंची बेग, पाली क्रोम बर्तन कहा जाता है | राना घुण्डई जहाँ घोड़े के अवशेष प्राप्त हुए हैं, से भी इसी प्रकार के बर्तन मिले हैं । अत: कहा जा सकता है कि उपर्युक्त संस्कृतियों में उत्खनन से ज्ञात तृतीय चरण से पूर्व के लोग प्राक् हड़प्पा कालीन थे ।
दक्षिणी बलूचिस्तान में नाल नन्दारा संस्कृतियां अपने हरे रंग के बर्तनों के लिये प्रसिद्ध है । जिनमें नीले, लाल तथा पीले रंगों के चित्रण हैं । यहां ताम्बे के औजार तथा कुछ शवागार प्राप्त हुए हैं । फेयर सर्विस ने इस संस्कृति को दम्ब सद्दात के समकालीन माना है । कालान्तर में हड़प्पा संस्कृति से सम्पर्क होने के कारण यह संस्कृति आगे भी निरन्तर रही |
दक्षिणी बलूचिस्तान को ही कुल्ली संस्कृति के लोग मिट्टी की ईंटों के मकानों में रहते थे । इनके बर्तनों पर जानवरों के चित्र मिलते हैं | जो ईराक के तृतीय शती ई.पू. के अन्तिम चरण के बर्तनों जैसे दिखते हैं इसके अलावा मोहनजोदड़ो जैसे स्टीएटाइट के बक्से उल्लेखनीय है । यहां के बर्तन हड़प्पा के तथा मृण्ड मूर्तियां(चिड़िया) दम्ब सद्दात के तृतीय चरण से मेल खाती है । कुल्ली में हड़प्पा जैसे छिद्रितजार भी उपलब्ध हैं । यही के लोगों का दम्ब सद्दात तथा राना घुण्डई के लोगों से भी सम्पर्क था ।
उत्तरी बलूचिस्तान में राना घुण्डई टीले (पिगट में इसे झोब संस्कृति का स्थल माना है) के सर्वेक्षण में ‘रास’ को पांच प्रकालों के साक्ष्य मिले हैं । यहाँ इमारतों के अवशेष न मिलने से संकेतित है कि प्रारम्भ में लोग यायावर जीवन बिताते थे । इस काल में अलंकृत भाण्ड, चकमक पत्थर के फलक तथा बैल, घोड़े, गधे और भेड़ की हड्डियां मिली है । द्वितीय काल में यहाँ पर बर्तन चाक पर बनाये गये थे | उन पर कलात्मक बैल और हिरण बने हुए हैं । वे पाण्डु या लाल रंग से रंगे हुए हैं । द्वितीय काल के बाद यह क्षेत्र आबाद नहीं रहा । तृतीय काल में यहाँ पर भवनों का निर्माण किया गया। इस काल में बने हुए बर्तन सुन्दर हैं । कुछ बर्तनों पर लाल सतह पर काले और लाल रंग अर्थात् दुरंगे चित्र अंकित हैं। लाल लेप पर काले रंग का चित्रण इस संस्कृति की मुख्य विधा है । बर्तनों पर कुछ पशुओं तथा मछली का चित्र मिलता है । झोब संस्कृति के कई स्थलों से नारी (मातृदेवी) की रौद्र रूप में मूर्तियां मिली हैं ।
3.2.2 मुण्डीगाक (अफगानिस्तान)
दक्षिणी पूर्वी अफगानिस्तान में अस्थण्डाब नदी के किनारे पर इस संस्कृति के चार चरणों के अवशेष प्राप्त हुए हैं । इसके प्रथम चरण में प्रस्तर ब्लेड, अलाबास्टर के बर्तन, स्टीएटाईटं तथा लाजुली के मोती, ताम्बे के औजार तथा चाक पर बने हुए बर्तन पाये गये हैं । द्वितीय चरण में निर्माण सामग्री के अवशेष, शवागार, चाक पर बने हुए बर्तन, जो चित्रित हैं और मानव तथा पशुओं की मृण्डमूर्तियां प्राप्त हुई हैं । इनकी रेडियों कार्बन तिथि 2360 ई. पू मानी गई है । चतुर्थ चरण में इस संस्कृति के लोगों का मिलन हड़प्पा के लोगों से हो गया तब मुण्डीगाक गांव शहर में परिवर्तित हो गया । इसके तृतीय चरण के अवशेष प्राक् हडप्पा कालीन है ।
3.2.3 पंजाब एवं सिन्ध
1946 ई. में व्हीलर ने हड़प्पा में सुरक्षा दीवार के नीचे कुछ लाल बर्तन खोज निकाले थे | इन बर्तनों की गर्दन ऊंची थी तथा उस पर काले रंग द्वारा चित्रण किया गया था । ये बर्तन मोहन जोदड़ो से 40 किलोमीटर पूर्व में स्थित कोटदीजी से समानता रखते हैं | कोटदीजी का उत्खनन 1955-56 ई. में पाकिस्तान के एफ ए खान ने किया था । यहां प्राक् हड़प्पा के लोगों ने वर्षा से सुरक्षा हेतु पत्थरों का आधार बनाकर उसके ऊपर ईंटों से विशाल सुरक्षा दीवार का निर्माण करवाया था । यहां के निचले शहर की रेडियो कार्बन तिथियां 2250-2330 ई. पू. के मध्य पाई गई है । कोटदीजी से लाल तथा राख के रंग के बर्तन, कटोरे, घड़े, थालियाँ कप तथा बेलनाकार जार मिले हैं ।सत्तर के दशक में एम आर मुगल ने चोलिस्तान मरुस्थल (पाकिस्तान) में कोटदीजी संस्कृति से भी प्राचीन 30 प्रागैतिहासिक स्थलों का पता लगाया था ।
सिन्धु नदी के तट पर मोहन जोदड़ो से भी प्राक् हड़प्पा संस्कृति के अवशेष मिले हैं । यहां से 13 किलोमीटर दक्षिण में सिन्धु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित आमारी में एन जी मजूमदार तथा बाद में जे.एम. कसाल ने खुदाई करवायी थी । यहां संस्कृति के तीन चरण स्पष्ट हुए हैं । जिन में से प्रथम दो चरणों की संस्कृति हड़प्पा से भी प्राचीन है।
3.2.4 सराई खोला
यहा स्थल हारो नदी के पास तक्षशिला घाटी में स्थित है । यहाँ से प्रथम चरण में (सबसे नीचे) नवाष्मीय (Neolithic Culture) संस्कृति के और द्वितीय चरण में हड़प्पा कालीन संस्कृति अवशेष मिले है जिनमें चूड़ियां, बैल की मृण्डमूर्तियां तथा लघु आकार की गाड़ी प्रमुख है |
3.2.5 गुमला
यह स्थल पाकिस्तान में डेरा इस्माइल खां से 12 किलोमीटर की दूरी पर गोमल घाटी में स्थित है । यहां पर संस्कृति के पांच चरण उत्खनन से स्पष्ट हुए हैं । प्रथम चरण के लोगों को मिट्टी के बर्तनों का ज्ञान नहीं था तथा वे नवाष्मीय संस्कृति के लोग थे । द्वितीय चरण में कांसे के औजार, प्रस्तर औजार, स्त्रियों की मृण्डमूर्तियां; चाकलेटी भूरे रंग के मिट्टी बर्तन जो कालीबंगा के प्रथम चरण तथा मुण्डीगाक की मृण्डमूर्तियों के समान थे, प्राप्त हुए है । तृतीय चरण के लोगों ने कोटदीजी जैसे ही मकान बनाये थे बाद में यहाँ के लोगों का हड़प्पा संस्कृति से सम्पर्क हो गया था
3.2.6 गुजरात
गुजरात में प्राक् हड़प्पा तथा हड़प्पा कालीन संस्कृति के कई केन्द्रों का उत्खनन हुआ है । इसमें से कई केन्द्र समुद्र के निकट स्थित हैं । जबकि उत्तर हड़प्पा काल के केन्द्र स्थल समुद्र से दूर पाये गये हैं । गुजरात के कच्छ जिले में जो प्राक् हड़प्पा स्थल पाये गये हैं उनमें सुरकोटड़ा, धौलावीरा महत्त्वपूर्ण हैं | यहां से लाल चमकीले बहुरंगी (Polychrome) बहु चमक (Polytone) रिजर्व स्लिप तथा गहरे लाल रंग की पॉलिश वाले बर्तन प्राप्त हुए हैं । यहां के बर्तनों से कालीबंगा तथा कोटदीजी के बर्तनों की ही तरह काले तथा सफेद रंगों का प्रयोग मिलता है । यहां से प्राप्त प्रारम्भिक काल के बर्तन मोहनजोदड़ो और लोथल के मृण्डपात्रों जैसे हैं ।
3.2.7 राजस्थान
अमलानन्द घोष ने 1952 में उत्तरी राजस्थान के घग्घर नदी के किनारे 25 हड़प्पा कालीन संस्कृति केन्द्र खोजे थे | उनमें से कालीबंगा जो घग्घर नदी के तट पर हनुमानगढ़ जिले में स्थित है, वहां पर 1961 से 1969 ई. तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने उत्खनन करवाया था । यहां पर स्थित तीन टीलों में जमाव के प्रथम चरण में प्राक् हड़प्पा संस्कृति तथा द्वितीय चरण में हड़प्पा संस्कृति के अवशेष मिले हैं । यहां के नागरिकों ने ईंटों का प्रयोग करके 1.9 मीटर चौड़ी सुरक्षा दीवार का निर्माण किया था | उन्होंने पक्के मकान बनवाये तथा तन्दुरी भट्टी का प्रयोग किया था | उत्खनन के दौरान एक जोता हुआ खेत भी मिलता है | बीबी.लाल तथा वी.के.थापर ने यहां के बर्तनों के छ: भागों में बांटा है। कालीबंगा से अगेट के ब्लेड, सैल तथा कालेलियन मोती, खिलौना-बैलगाड़ी, पहिये, बैल, ताम्बे की कुल्हाड़ियां, सिलबट्टे आदि प्राप्त हुए हैं | रेडियो कार्बन विधि के अनुसार कालीबंगा की प्राक् हड़प्पा संस्कृति की तिथि 2450-2300 ई. पू. ज्ञात हुई है ।
3.2.8 पंजाब-हरियाणा
पंजाब-हरियाणा में रोपड़, सिसवाल राखी गढ़ी, कोटला, निहग-खान कटपालन, बाड़ा आदि अनेक प्राक् हड़प्पा और हड़प्पा संस्कृति के केन्द्र ढूंढे जा चुके हैं | फतेहाबाद से 15 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित बाणावली से प्राक् हड़प्पा संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं । यहाँ के मकानों में 1:2:3 की नाप की ईंटे प्रयोग में ली गई हैं । यहाँ से सोने के मनके, मोती, अर्ध कीमती पत्थर, मिट्टी की चूड़ियाँ प्राप्त हुई हैं ।
3.2.9 सिसवाल
सिसवाल हरियाणा के हिसार जिले में महत्त्वपूर्ण प्राचीन केन्द्र है | सिसवाल संस्कृति के 16 केन्द्र चिह्नित किये जा चुके हैं । इनसे प्राक् हड़प्पा कालीन 6 प्रकार के बर्तन पाये गये हैं | इनमें से दूसरे चरण में प्रथम चरण के सभी प्रकारों के अलावा हड़प्पा संस्कृति के बर्तन गाबलेट, डिस, छिद्रित जार आदि पाये गये हैं । उत्खननकर्ता सूरजभान ने दूसरे चरण को प्राक् हड़प्पा तथा हड़प्पा संस्कृति का संक्रमण काल माना है ।
अत: निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि प्राक् हड़प्पा काल में जो संस्कृतियां विकसित हुई उनमें से कुछ यायावरी जीवन से और शेष ग्रामीण जीवन पर आधारित थी परन्तु मानव ने ताम्बे की खोज कर ली थी | डॉ. डी.पी. अग्रवाल ने इन संस्कृतियों को रेडियो कार्बन तिथि के आधार पर 2600-2400 ई.पू. के मध्य रखा है ।
3.3 सैन्धव सभ्यता के उत्खनन का इतिहास
सैन्धव सभ्यता पुरातत्व की एक महत्वपूर्ण देन है । 1922 ‘ई. से पूर्व तक प्राचीन भारत का इतिहास वैदिक काल से प्रारम्भ किया जाता था क्योंकि सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है । लेकिन मोहन जोदड़ो तथा हड़पा के उत्खनन ने सिद्ध कर दिया कि आर्यों की सभ्यता से पूर्व भारत में समृद्ध नगरीय सभ्यता का विकास हो चुका था | जो विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं से अधिक विकसित थी।
1856 ई. में भारत सरकार के निरीक्षण में कराची तथा लाहौर(वर्तमान पाकिस्तान) के मध्य रेल लाईन बिछाते हुए एक खण्डहर से ईटें निकाल कर उपयोग में ली गई । लेकिन इस तथ्य की जानकारी किसी को नहीं थी कि इन खण्डहरों के नीचे प्राचीन संस्कृति छिपी हुई है । 1872 ई. में सर अलेक्जेण्डर कनिंघम इस स्थल पर आये और सर्वेक्षण करके चले गये । 1920 ई. में माधो स्वरूप वत्स तथा दयाराम साहनी के पर्यवेक्षण में उत्खनन कार्य रावी नदी के तट पर हड़प्पा में प्रारम्भ हुआ । वहां प्राचीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए । 1922 ई. में राखलदास बनर्जी के निर्देशन में सिन्धु नदी के पश्चिमी तट पर लरकाना जिले में इस सभ्यता के दूसरे केन्द्र मोहनजोदड़ो को खोज निकाला गया | एन.जी. मजूमदार ने सैन्धव सभ्यता के कुछ और स्थल खोज निकाले थे । सर जॉन मार्शल ने 1924 ई. में हड़प्पा पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर सरकार को प्रस्तुत की । 1925 में अर्नेस्ट मैके ने मोहनजोदड़ो से 80 मील दूर दक्षिण पूर्व में स्थित चन्हूदड़ो नामक स्थल का उत्खनन कार्य के आधार पर सैन्धव सभ्यता को 2000 से 1500 ई.पू. और अल्चिन तथा श्रीमती अल्विन ने कोटदीजी तथा कालीबंगा के आधार पर उसे 2150-1750 ई.पू. के मध्य माना है | बुखनन ने सैन्धव सभ्यता का काल निर्धारित करते हुए उसे 2300-2000 ई.पू. के मध्य रखा है । डी.पी. अग्रवाल ने कार्बन 14 विधि के आधार पर सैन्धव सभ्यता के उत्थान एवं अवसान की तिथि 2300-1750 ई.पू. तक मानी है । इसमें यदि प्राक् सैन्धव सभ्यता के 1000 वर्ष जोड़ देते हैं तो सैन्धव सभ्यता का काल 3300-1750 ई.पू. के मध्य रखना आसान हो जाता है | वूली को सैन्धव सभ्यता की एक मुद्रा सुमेरियन सभ्यता के उस नगर में मिली थी जिसे उन्होंने 3200 ई.पू. की बतलाया था । इससे भी सैन्धव सभ्यता की तिथि 3500 ई. पू के आसपास चली जाती है । लोथल के उत्खनन कर्ता ‘राव’ का विचार है कि सैन्धव सभ्यता का उदय 2450 ई.पू. हुआ | उधर वाईडी. शर्मा ने निष्कर्ष निकाला है कि सैन्धव सभ्यता का अवसान 1400 ई.पू. में हुआ था । जबकि अमलानन्द घोष ने इसके उत्थान का काल 2500-2450 ई.पू. तथा पतन का काल 1900-1600 ई.पू. माना है । हमें डी.पी. अग्रवाल द्वारा प्रदत्त तिथि उपयुक्त प्रतीत होती है क्योंकि उसका आधार वैज्ञानिक है ।’ जबकि एच.डी. सांकलिया ने अपने ग्रन्थ प्री हिस्ट्री एण्ड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इण्डिया एण्ड पाकिस्तान में व्हीलर द्वारा प्रदत्त तिथि को सत्य के निकट माना है ।
3.4 सैन्धव सभ्यता के निर्माता
सैन्धव सभ्यता के निर्माता कौन थे, इस विषय पर विद्वान एक मत नहीं है | व्हीलर आदि विदवानों का विचार था कि अनार्य इस सभ्यता के निर्माता थे । लेकिन मानवशास्त्रियों का अनुमान है कि इस सभ्यता के प्रधान नगरों में मिश्रित जातियों के लोग रहते थे । व्यापारिक उन्नयन के कारण यहां पर विभिन्न प्रजातियों के लोग आकर बस गये थे । विभिन्न स्थलों से प्राप्त अस्थिपंजरों का जो परीक्षण किया गया है उससे संकेतित है कि वे लोग आदिम, आग्नेय, भूमध्य सागरीय, मंगोलियन और अल्पॉइन नस्लों के थे | पिगट महोदय का विचार था कि सैन्धव सभ्यता के निर्माता मूल रूप से भारतीय थे, किन्तु विदेशों से व्यापार सम्बन्ध होने के कारण हमें कुछ विदेशी जातियों के भी कंकाल प्राप्त हुए हैं । इसके अलावा यह विचार भी प्रस्तुत किया जाता है कि सैन्धव सभ्यता के निर्माता द्रविड़ जाति के थे जो पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान और सम्पूर्ण उत्तर भारत में रहते थे, कालान्तर में ये पश्चिम की ओर बढ़ते हुए मेसोपोटामिया में प्रविष्ट हो गये । वैसे सिन्धु प्रदेश में भूमध्य सागरीय जाति के लोग बहुसंख्या में निवास करते थे इसलिये हो सकता है कि इस सभ्यता के निर्माण में उनका पूरा योगदान रहा हो | व्हीलर महोदय का मत है कि अभी तक जितने भी कपालों का परीक्षण किया गया है वे अल्पसंख्यक हैं अत: हड़प्पा निवासियों की जाति के सम्बन्ध में कोई निश्चित अनुमान लगाना कठिन है ।
3.5 सैन्धव सभ्यता का तिथि क्रम
सैन्धव या हड़प्पा संस्कृति के तिथिक्रम के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है । मार्टिन व्हीलर ने हड़प्पा संस्कृति का काल 2500 से 1500 ई.पू. के मध्य माना था । पिगट ने इस मत का समर्थन किया है | जबकि जॉन मार्शल सैन्धव सभ्यता का काल 3250-2750 ई.पू. माना है । सी.जे. गैड्ड ने मेसोपोटामिया के विभिन्न स्थलों और सैन्धव सभ्यता की मुद्राओं का तुलनात्मक अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि सैन्धव सभ्यता का उत्थान 2350 से 1770 ई.पू. के मध्य हुआ था । मैके महोदय ने हड़प्पा संस्कृति को 2500 ई.पू. की माना है | माधोस्वरूप वत्स ने हड़प्पा से ऐसी सामग्री प्राप्त की जो मोहन जोदड़ो से 3200 ई.पू. के स्तरों से प्राप्त सामग्री से भी प्राचीन है । इसलिये उन्होंने हड़प्पा का प्राचीनतम स्तर 3500 ई.पू. माना था । दूसरी ओर उन्होंने हड़प्पा के एच कब्रिस्तान की तिथि 2500-2000 ई.पू. स्वीकार की थी इसलिये हड़प्पा सभ्यता का काल 3500-2000 ई.पू. के मध्य माना | केदारनाथ शास्त्री ने इस तिथि का समर्थन किया है । फेयर सर्विस ने क्वेटा से प्राप्त सामग्री सभ्यता का आविर्भाव पश्चिमी एशिया से न होकर भारत में ही हुआ |
3.6 सैन्धव सभ्यता के विकास में सहायक घटक
सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति का विषय भी रहस्यमय बना हुआ है । कुछ विद्वान सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति को पश्चिमी एशिया में ढूंढने का प्रयास किया है | कुछ पुरातत्त्वशास्त्री इस सभ्यता का उद्गम स्थल ईरान – बलूचिस्तान और सिन्ध की संस्कृतियों को माना है, जबकि राष्ट्रवादी इतिहासकारों का मत है कि सैन्धव सभ्यता प्राचीन भारतीय ग्रामीण सभ्यता का विकसित स्वरूप है | व्हीलर महोदय ने मेसोपोटामिया की स भ्यता को हड़प्पा संस्कृति का प्रेरक घटक माना है । उनके मत का समर्थन क्रेमर ने किया है | गार्डन का विचार है कि मेसोपोटामिया के लोग समुद्र मार्ग से भारत आये तथा सभ्यता की स्थापना की । लेकिन व्हीलर ने हड़प्पा में उपलब्ध मेसोपोटामिया की सामग्री के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था जो उचित नहीं है । फेयर सर्विस, स्टुअर्ट पिगट, सांकलिया और अल्विन का विचार है कि सैन्धव संस्कृति का उद्भव प्राक् सैन्धव काल की ग्रामीण संस्कृतियों से हुआ । विद्धानों का विचार है कि बलूचिस्तान की क्वेटा घाटी तथा किले गुल मुहम्मद जैसे स्थानों पर विकास के अवसर न होने के कारण वहां के लोग खेती की सुविधा को ध्यान में रखकर पंजाब तथा सिन्ध आ गये थे लेकिन यह मत भी ग्राह्य नहीं है क्योंकि ग्राम्य संस्कृतियों में पकी हुई ईंटों तथा ढकी हुई नालियों का प्रचलन नहीं था केवल मृण्डपात्रों पर उकेरे गये चित्रों की समानता के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं है । अमलानन्द घोष का विचार है कि सैन्धव सभ्यता का क्रमिक विकास भारतीय भू भाग पर ही हुआ | श्री घोष ने 1953 ई. में बीकानेर के सोथी नामक क्षेत्र का सर्वेक्षण किया था । बाद में वहां से प्राप्त मृद्भाण्डों जैसे पात्र कालीबंगा में भी मिले जो कि हड़प्पा संस्कृति के पूर्व के हैं । अमलानन्द घोष ने इसे सोथी संस्कृति कहकर पुकारा है। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि सोथी संस्कृति को सैन्धव सभ्यता का पूर्व स्वरूप कहना उचित न होगा | सैन्धव सभ्यता का विकास बाहर से आये लोगों ने नहीं अपितु सिन्ध प्रदेश के स्थानीय लोगों ने ही किया था हां इतना अवश्य हो सकता है कि सैन्धवों ने नगर निर्माण का ज्ञान सुमेरियन लोगों से प्राप्त कर अधिक नियोजित नगरों का निर्माण करवाया । अर्वाचीन विद्वान अब इस निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु प्रयासरत है कि सैन्धव करवाया । मोहनजोदड़ो के उत्खनन में जॉन मार्शल के अलावा हारग्रीव्ज, दीक्षित और सनाउल्लाह ने 1925-1927 ई. तक उत्खनन एवं शोध कार्य किया | 1946 ई. में व्हीलर ने भी हड़प्पा में कार्य किया और एच. डी. सांकलिया एस.आर. राव, तथा गार्डन चाइल्ड ने इसके विविध पक्षों पर प्रकाश डाला । हड़प्पा सभ्यता की खोज के बाद विद्वानों ने इसके विस्तृत क्षेत्र में उत्खनन करके उससे सम्बन्धित करीब एक हजार बस्तियों की जानकारी प्राप्त कर ली है | विद्वान अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि सैन्धव सभ्यता को वैदिक काल से पूर्व रखना उचित होगा । इस सभ्यता को सिन्धु (सैन्धव) सभ्यता, सिन्धु घाटी की सभ्यता कहा था और हड़प्पा सभ्यता से सैकड़ों स्थान का ज्ञान हो जाने तथा प्रथम खुदाई का कार्य वहां पर प्रारम्भ होने के कारण विद्वान इसे हड़प्पा सभ्यता कहना उचित मानते हैं । इसके अलावा पुरातत्व शास्त्र में प्राचीन संस्कृति का नामकरण उस स्थान के आधुनिक नाम से किया जाता है जहां उसके अस्तित्व का पहली बार ज्ञान प्राप्त हुआ हो भारत में इस सभ्यता के अधिकांश स्थल सरस्वती के प्रवाह मार्ग पर स्थित होने के कारण आजकल विद्वानों ने सैन्धव सभ्यता को सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के नाम से पुकारा जाना उचित मानते हैं |
3.7 सैन्धव सभ्यता का विस्तार
सैन्धव सभ्यता के उत्खनन के समय यह माना जा रहा था कि इस सभ्यता के केन्द्र केवल हड़प्पा और मोहनजोदड़ो हैं । अल्चिन ने सैन्धव सभ्यता के 70 स्थल ढूंढ निकाले थे । प्रो. ग्रीगोरी के अनुसार इस सभ्यता के कुल 2500 स्थल हैं जबकि वीरेन्द्रनाथ मिश्र ने उनकी संख्या 1500 स्वीकार की है । पोसेल के अनुसार इस सभ्यता के 500 स्थल गुजरात में, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा में 550 और उत्तरप्रदेश में 150 स्थल हैं । जहां तक सैन्धव सभ्यता की सीमाओं का प्रश्न है उत्तर में जम्मू के माण्डा और पंजाब में रोपड़ और पूर्व में बड़गांव और आलमगीरपुर इसके प्रमुख केन्द्र हैं । दक्षिण में गुजरात राज्य में लोथल, रंगपुर, रोजड़ी, प्रभास पट्टन तथा नर्मदा-ताप्ति नदियों के तट पर भग, मालवण, मेघम, तेलोद भगतराव में सैन्धव सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं । सैन्धव संस्कृति के पश्चिमी स्थल पाकिस्तान में सुत्कगेंण्डोर ईरान की सीमा से चालीस किलोमीटर पूर्व और अरब सागर ये 50 किलोमीटर उत्तर की ओर स्थित है । अन्य प्रमुख केन्द्रों में कुन्तसी, पदरी बणावली, मीताथल देसलवार का उल्लेख किया जा सकता है । पुरातत्व की दृष्टि से राजस्थान में कालीबंगा, गुजरात में लोथल, कच्छ में धौलावीरा तथा हरियाणा में राखीगढ़ी सैन्धव सभ्यता के महत्वपूर्ण केन्द्र हैं । उत्तरी बलूचिस्तान में डाबरकोट और मेहरगढ़ भी इस संस्कृति के केन्द्र रहे हैं । पूर्व की ओर बरेली के पास परिचक्रा नगरी में सैन्धव सभ्यता सम्बन्धी सामग्री मिलने से इस सभ्यता का प्रसार पूर्व में बरेली तक हो जाता है।
सैन्धव सभ्यता के प्रारम्भिक केन्द्र भारत विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान में चले गये । तब पुरातत्ववेत्ताओं ने अथक प्रयास करके राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में सैन्धव सभ्यता केन्द्र को खोज निकाला | राजस्थान में कालीबंगा में बी.बी. लाल, जगपति जोशी तथा बी.के.थापर ने उत्खनन कार्य करवाया । हरियाणा, उत्तरप्रदेश, कश्मीर तथा गुजरात के उत्खनन में आर.एस.बिश्ट, (धौलावीरा तथा बणावली), एस.आर. राव (लोथल तथा रंगपुर) जगपति जोशी (सूरकोटडा), यज्ञदत्त शर्मा (रोपड़) सूरजभान चौधरी (मिताथल) जगतपति जोशी (माण्डा- जग-कश्मीर), यज्ञदत्त शर्मा (आलमगीरपुर) और अमरेन्द्रनाथ (राखीगढ़ी) ने सर्वेक्षण कर उत्खनन कार्य को गति प्रदान की |
उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि सैन्धव सभ्यता के विस्तार क्षेत्र में बलूचिस्तान, उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त पंजाब, सिन्ध, काठियावाड़ का अधिकांश भाग, उत्तरी राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश का कुछ भाग सम्मिलित था । पश्चिम में सुत्कगेण्डोर से पूर्व में आलमगीरपुर तथा बरेली तक इसकी दूरी 1600 किलोमीटर से अधिक और उत्तर में जम्मू कश्मीर में माण्डा से दक्षिण में भगतराव तक 1100 किलोमीटर के लगभग है । इस सभ्यता से सम्बन्धित लगभग 13 किलोमीटर का समुद्र तट भी था । इस प्रकार सैन्धव सभ्यता एक उन्नत नगरीय जीवन की परिचायक थी और विशाल क्षेत्र में विस्तृत थी ।
3.8 सैन्धव सभ्यता के प्रमुख स्थल
3.8.1 सुत्कगेंण्डोर –
यह कराची से 300 मील पश्चिम में एवं बलूच मकरान समुद्रतट से 56 किलोमीटर उत्तर में दाश्त नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित है । स्टाइन ने 1927 में इस स्थल की खोज की तथा 1962 में जार्ज डेल्स ने यहां पर बन्दरगाह तथा दुर्ग होने की जानकारी दी ।
3.8.2 सात्काकोह -यह सुत्कगेण्डोर के पूर्व में स्थित है । डेल्स ने इस स्थल की 1962 में खोज की थी।
3.8.3 शोर्तुघई – उत्तर अफगानिस्तान में स्थित इस स्थल में सैन्धव सभ्यता के अवशेष मिले
3.8.4 डाबर कोट –
उत्तरी बलूचिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र में सिन्धु नदी से लगभग 200 किलोमीटर दूर लोरालाई घाटी में यह स्थल स्थित है । यहाँ से सैन्धव सभ्यता के अवशेष मिले
3.8.5 कोटदीजी –
यह स्थल पाकिस्तान के सिन्धु प्रान्त के खेदपुर नगर से 24 किलोमीटर दक्षिण में नया मोहन जोदड़ो से 40 किलोमीटर पूर्व में स्थित है । 1935 ई. में धूर्ये ने यहां से कुछ हड़प्पाकालीन सामग्री प्राप्त की तथा उसे बम्बई के प्रिन्स ऑव वेल्स म्यूजियम में सुरक्षित किया । 1955 तथा 1957 ई. में पाकिस्तान के पुरातत्त्व विभाग के निदेशक फजल अहमद ने यहां पर खुदाई करवाकर हड़प्पा संस्कृति की सामग्री प्राप्त की थी । यहाँ से ईंटों, एवं ताम्र तथा कांस्य के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं ।
3.8.6 अलीमुराद –
सिन्ध में दादू से लगभग 32 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में यह स्थल स्थित है।
3.8.7 मोहनजोदड़ो –
सिन्धु नदी के पूर्व किनारे पर यह नगर स्थित है | पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के लरकाना जिले में स्थित यह नगर हड़प्पा संस्कृति का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता है | यह नगर अपनी स्थापन योजना, भवनों, अन्न भण्डारों, गृह निर्माण और बाजार हेतु प्रसिद्ध था | सिन्धी भाषा में मोहनजोदड़ो का अर्थ मृतकों का टीला है । इस नगर को विश्व के सम्मुख लाने का श्रेय राखलदास बनर्जी तथा सर जॉन मार्शल को है | यह नगर 1922 ई. में प्रकाश में आया था । यह नगर समुद्र के निकट होने के कारण यहां के लोग फारस की खाड़ी तथा मेसोपोटामिया आसानी से पहुँच सकते थे ।
3.8.8 चन्हु दड़ों –
यह स्थल मोहनजोदड़ो से दक्षिण पूर्व में लगभग 128 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । एन.जी. मजूमदार ने इस स्थल को 1931 ई. में ढूंढा था तब 1935 ई. में मैके ने यहां पर उत्खनन करवाया ।
3.8.9 हड़प्पा (पाकिस्तान) –
हड़प्पा के पश्चिमी खण्ड से किलेबन्दी, अन्न भण्डार, चबूतरा, श्रमिक आवास के प्रमाण मिले हैं । रावी नदी के बांए तट पर स्थितहड़प्पा सैन्धव सभ्यता का मुख्य केन्द्र था । कनिंघम ने 1853 ई. तथा 1873 ई. में यहां से कुछ वस्तुएँ प्राप्त की थी । बाद में दयाराम साहनी ने 1923-24 ई., 1924-25 ई. में हड़प्पा का पुनरन्वेषण किया तथा उत्खनन करवाया । फिर माधोस्वरूप वत्स तथा व्हीलर ने भी यहां पर उत्खनन का कार्य करवाया | उत्खनन से सैन्धवों के नगर निर्माण तथा व्यापार वाणिज्य के सम्बन्ध में जानकारी मिली है ।
3.8.10 रोपड़ –
पंजाब में शिवालिक पहाड़ियों की घाटी में स्थित इस स्थान पर 1953 से 1956 ई. तक यज्ञदत्त शर्मा ने उत्खनन करवाया ।
3.8.11 कालीबंगा –
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में सूखी घग्घर नदी के किनारे पर कालीबंगा बसा हुआ है | यहां उत्खनन में अमलानन्द घोष तथा बृजवासी लाल ने विशेष रूप से सहयोग प्रदान किया था । यहां से प्राक् हड़प्पा तथा हड़प्पा कालीन संस्कृति के प्रमाण मिले हैं ।
3.8.12 आलमगीरपुर (उत्तरप्रदेश) –
यमुना की सहायक हिण्डन नदी के बायें तट पर उससे 3 किलोमीटर की दूरी पर सैन्धव सभ्यता के प्रमाण मिले हैं ।
3.8.13 बणावली –
यह स्थल हरियाणा में हिसार जिले में फतेहाबाद तहसील में सरस्वती नदी की घाटी में स्थित है। श्री रविन्द्र सिंह बिश्ट ने 1923-24 ई. में यहां पर उत्खनन कार्य सम्पन्न करवाया ।
3.8.14 माण्डा –
जम्मू-कश्मीर में अखनूर के निकट स्थित माण्डा से उत्तर हड़प्पा सभ्यता के प्रमाण मिले हैं |
3.8.15 रंगपुर गुजरात –
यह स्थल लोथल से 50 किलोमीटर उत्तर पूर्व में अहमदाबाद के दक्षिण पश्चिम में स्थित है। यहां पर माधोस्वरूप वत्स (1931-34ई.)ए, मोरेश्वर दीक्षित (1947 ई) तथा रंगनाथराव ने (1953ई.) उत्खनन करवाया था ।
3.8.16 लोथल –
सौराष्ट्र क्षेत्र में सैन्धव सभ्यता का यह प्रमुख केन्द्र है । यहां से नियोजित नगर तथा बन्दरगाह के प्रमाण मिले हैं |
3.8.17 सुरकोटड़ा –
कच्छ जिले में अदेसर से 12 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित इस स्थल खोज जगपति जोशी ने की थी | उन्होंने ही यहां पर 1964 ई. में उत्खनन करवाया था |
3.8.18 रोजदि –
राजकोट(गुजरात) से 55 किलोमीटर दक्षिण में भादरा नदी के तट पर यह स्थल स्थित है । यहां से दीवार का घेरा मिला है जो हड़प्पा कालीन है ।
3.8.19 मालवण –
यह काठियावाड़ के सूरत जिले में तप्ती नदी के निचले मुहाने पर स्थित था । यह बन्दरगाह रहा होगा यहाँ पर अल्चिन तथा जगपति जोशी ने 1967 ई. में अन्वेषण कर 1970 ई. में खुदाई करवाई थी ।
3.8.20 धौलावीरा –
अहमदाबाद से 350 किलोमीटर दूर देसलपुर के निकट उत्तर में स्थित धौलावीरा नामक स्थल से हड़प्पा संस्कृति के प्रमाण मिले हैं । कच्छ के रन में स्थित धोलावीरा किसी नदी के किनारे पर स्थित नहीं था । यहां 1991 ई. में उत्खनन प्रारम्भ हुआ तब हड़प्पा संस्कृति के कई प्रमाण प्राप्त हुए थे । यहां से 4500 ई.पू. के सभ्यता सम्बन्धी अवशेष मिले हैं । यहां से दीवार से घिरे हुए क्षेत्र, किले के दरवाजे पर रक्षक गृह के प्रमाण मिले हैं । यहाँ से 20,000 पुरा वस्तुएं मिली जिसमें मृण्डमूर्तियां, मृद्भाण्ड तथा हाथीदांत की सामग्री मुख्य है । यहाँ से नगर, कंकाल, पक्की सड़के और 10 अक्षरों का लेख मिला है । यह नगर 3000-2900 ई.पू. के मध्य आबाद होकर 1800-1700 ई.पू. में कभी नष्ट हो गया | यहां के नागरिकों ने नालियों, माप यन्त्रों, ईंटों, कीमती पत्थरों, धातुओं, ताम्र हथियारों का प्रयोग किया था। इस स्थल का उत्खनन रवीन्द्र बिष्ट ने करवाया था ।
अभ्यास कार्य – 1. सैन्धव सभ्यता की तिथि का विवेचन कीजिए | 2. सैन्धव सभ्यता के उत्खनन के इतिहास पर प्रकाश डालिए | 3. सैन्धव सभ्यता के विस्तार का वर्णन कीजिए |
3.9 सैन्धवों का नगर नियोजन
3.9.1 नगर की आवासीय व्यवस्था
सैन्धव सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता के लोग प्राय: विकसित एवं उन्नत बस्तियों में निवास करते थे | उत्खनन में कई सुनियोजित नगरों के अवशेष प्राप्त हुए | ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग नगर की स्थापना से पूर्व उसका मानसिक रूप से नक्शा बनाकर फिर उसे मूर्त स्वरूप प्रदान करते थे । इनके नगरों की सड़कें प्राय: एक दूसरे को समकोण पर काटती थी । इसके उदाहरण मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, धौलावीरा, सुरकोटड़ा और लोथल में ढूँढे जा सकते हैं | मोहनजोदड़ो में सड़कें (राजपथ) 10 मीटर चौड़ी है । उन पर कई बैल गाड़ी एक साथ दौड़ सकती थी । सड़क के दोनों ओर भवनों का निर्माण किया गया था । आवासों का मुख्य द्वारा सड़क पर न होकर गली में बनाया जाता था ।
सैन्धवों के नगरों में कई जगहों पर टीले पाये जाते हैं । इन टीलों पर गढ़ी या सुरक्षा प्राचीर भी उत्खनन में पायो गई है । जबकि निचले टीलों पर सुरक्षा दीवार नहीं है ।।
सैन्धवों के भवन कई प्रकार के थे । जिनमें से कुछ भवन प्रशासकीय वर्ग या धनाढ्य वर्ग के रहे होंगे । साधारण भवन आम नागरिकों के लिये बने हुए थे जिनमें दुकानें या सार्वजनिक भवन सम्मिलित थे । मकान प्राय: चौकोर होते थे और उनके मध्य में आंगन होता था । प्रत्येक घर में स्नानागार, गन्दे पानी की निकासी हेतु नालियों का प्रबन्ध था और उनमें कुंआ भी बना हुआ होता था । गलियां सीधी तथा लगभग 2 मीटर चौड़ी होती थी । हड़प्पा संस्कृति के लोग शौकीन मिजाज के थे इसलिए उन्होंने भवनों के अलंकरण की ओर ध्यान दिया था | भवनों में मन्दिरों के अवशेष उपलब्ध नहीं हुए है । ईंटों पर चित्रकारी नहीं की गई है लेकिन कालीबंगा में भवनों के फर्श पर चित्रकारी की गई ईंटे मिलती है । भवन निर्माण में मिट्टी की पकाई हुई ईंटों, तराशे हुए पत्थरों तथा लकड़ी का प्रयोग किया जाता था । लकड़ी या काष्ठ के नष्ट हो जाने से उसके अवशेष नहीं मिलते हैं । भवन निर्माण हेतु काम में ली गई ईंटे अलग अलग आकार की हैं उसका माप 1:2:4 के अनुपात में हैं कुछ ईंटें 36.83 X 18.14 x 16.10 से.मी की हैं । सामान्य रूप से काम मे ली गई ईटें 27:94 x 13.97 x 6.35 से.मी. है । मोहन जोदड़ो के भवनों में उपयोग ली गई सबसे बड़ी ईट 51.43X26.27 x 6.35 से.मी है । इमारतों के कोनों पर चिनाई अंग्रेजी के अक्षर ‘एल’ जैसी समकोणदार बनी ईंटों से की गई है । लोक गोल कुंओं को बनाने हेतु फन्नीदार ईटों का प्रयोग करते थे । मोहनजोदड़ो के भवनों के स्नानागार गली की ओर पाये गये हैं ताकि उनके पानी का निकास बाहर की तरफ आसानी से हो सके । स्नानागरों में पकी हुई ईंटों का प्रयोग किया गया है । कदाचित कमरों में एक कोने पर भी स्नानागार मिले हैं । स्नान के पश्चात लोग झाबे से शरीर को साफ करते थे जैसे कि उत्खनन में अनेक झाबे पाये गये हैं । सैन्धवों के भवनों मे फर्श तीन प्रकार से बनाये जाते थे प्रथम मिट्टी की कुटाई करके, द्वितीय कच्ची ईंटे बिछाकर और तृतीय पकी हुई ईंटे लगाकर | लोग मकानों की पुताई भी किया करते थे सार्वजनिक भवनों के निर्माण में साहुल की भी सहायता ली गई है ।
मोहनजोदड़ो नगर में नालियों का निर्माण करते समय पानी का रिसाव, रोकने हेतु जिप्सम का प्रयोग किया गया था जबकि वहीं के विशाल स्नानागार के निर्माण हेतु गिरी पुष्पक प्रयोग में लाया गया | मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा के कुछ मकान बहु मंजिल थे । कुछ मकान ऐसे हैं जिनके प्रवेश हेतु रास्ता नहीं मिला है । सम्भवत: उन्हें गोदाम के रूप में प्रयोग में लाया जाता था । सामान्य रूप से दरवाजों की चौड़ाई एक मीटर है परन्तु कई बार वह 2.35 मीटर भी पायी गई है। मकानों में खिड़कियां बनाई जाती थी । हमें प्लास्टर की कुछ खण्डित जालियां भी मिली है । मकानों की छतें समतल होती थी ।
सैन्धवों के मकानों में स्तम्भों का प्रयोग किया जाता था । इनमें से अल्प मात्रा में चतुर्भुजाकार, वर्गाकार या गोल स्तम्भ पाये गये हैं । निर्माण में तोड़ा मेहराव का प्रयोग भी मिलता है । मकानों से जल की निकासी हेतु नालियां की व्यवस्था की जाती थी । ऐसी व्यवस्था केवल सैन्धव सभ्यता में ही मिलती है | बड़ी नालियों को पत्थर या ईंटों से ढका गया था । घरों या शौचालयों से निकासी की नालियां एक बड़ी नाली में मिलती थी । सभी घरों की ये नालियां एक बड़ी सार्वजनिक नाली में जाकर मिलती थी । सम्भवत: मकानों में पानी की निकासी मिट्टी के पाइपों द्वारा की जाती थी । इन पाइपों को एक दूसरे से फिट करके परनाला बनाया जाता था । कालीबंगा में लकड़ी की नाली के प्रमाण मिलते हैं | बहती हुई नालियों में जगह जगह गड्डे बनाये जाते थे ताकि उनमें कूड़ा करकट एकत्रित हो जाया करता था । कई घरों में नाली सार्वजनिक नाली में न जाकर एक गहरे गड्डे में जाती थी । जिसमें विशाल घड़ा रख कर उसमें छेद कर दिया जाता था । ताकि पानी रिसकर जमीन में चला जाये | बाद में कचरा साफ कर दिया जाताथा | पक्की ईंटों से बने हुए नाले चन्हूदड़ों में भी मिलते हैं |
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धौलावीरा में जब सैन्धव सभ्यता का पतन हो रहा था कुए नहीं बनाए जाते थे । प्रारम्भ में यहाँ पर गोल या वृत्ताकार कुएं बनाये जाते थे । उनका व्यास .91 मीटर, .61 मीटर या 2.13 मीटर होता था | कुंए के बाहर जगत तथा जाली बनाई जाती थी । धौलावीरा में कुंए की जगत तथा जाली बनाई जाती थी | धौलावीरा में कुंए की जगत पर बार बार पानी निकालने के कारण उस पर रस्सी के निशान पड़ गये थे | कुंओं से पानी निकाल कर उसे नाली द्वारा टैंक में पहुँचाया जाता था |
जो आवासीय भवन दो मंजिलों के होते थे उनमें ऊपरी मंजिल पर पहुंचने के लिए सीढियां बनाई जाती थी । सीढ़ियां बहुत छोटी 15 x 5 इंच की होती थी । मकान की दीवारें ढ़ाल युक्त होती थी | कुछ मकानों में दोहरी दीवार के अवशेष भी मिले हैं । मकानों की नींव में खण्डित ईंटों का प्रयोग किया जाता था | छत हेतु लकड़ी के लडे, नरकुल (बेंत जाति का पौधा)
और मिट्टी का प्रयोग किया जाता था | छत पर सरकंडों को चटाई की तरह बिछाकर उसे रस्सी से बान्ध दिया जाता था और उस पर मिट्टी की मोटी तह जमा दी जाती थी । धनी व्यक्तियों के आवास में छत हेतु खपड़े की पट्टियाँ टाईल्स की तरह लगाई जाती थी । भवनों में रोशनदान तथा कपाट और आलमारी भी बनाई जाती थी।
3.9.2 सार्वजनिक भवन –
सैन्धव सभ्यता के शहर दुर्गोकृत होते थे | उनके चारों ओर सुरक्षा दीवार होती थी । हड़प्पा, मोहनजोदडो कालीबंगा से दुर्ग के अवशेष मिले हैं । हड़प्पा में एक गढ़ी आकार में चतुर्भुज है जो उत्तर से दक्षिण में 420 मीटर और पूर्व से पश्चिम में 196 मीटर है । उसकी उंचाई 12 से 15 मीटर है |
इसकी दीवार नीचे 12.19 मीटर चौड़ी और ऊपर 106 मीटर चौड़ी है । गढ़ी का भीतरी मुख्य द्वार उत्तरी की तरफ उन्मुख था और पश्चिमी द्वार घुमाव लिये था जिसके साथ सीढियां बनी हुई थी । इस प्रकार सैन्धव सभ्यता में सार्वजनिक भवन बने हुए थे जिनमें अन्नागार स्नानागार, बन्दरगाह और बावड़ियां मुख्य हैं ।
3.9.3 विशाल अन्नागार –
हड़प्पा की एक इमारत को अन्नागार कहकर पुकारा गया है । इस विशाल अन्नागार का निर्माण खण्डों में किया गया ऐसे बारह खण्ड हैं जो 6-6 की पंक्तियों में विभक्त हैं उनका क्षेत्रफल 15.26 X 6.10 मीटर है | उन भण्डारगृहों का प्रवेश द्वार रावी नदी की तरफ खुलता था | भण्डारगृह का मार्ग ढालनुमा होता था। भण्डारगृह गेहूँ तथा जौ का भूसा मिला है । हड़प्पा का यह विशाल स्नानागार 168 मीटर लम्बा तथा 134 फीट चौड़ा था । अन्नागार की छत के लिये लकड़ी के लट्टे काम में लाये जाते थे । मोहन जोदड़ो में अन्नागार मिला है और पूर्व से पश्चिम में 45.72 मीटर लम्बा तथा उत्तर से दक्षिण में 22.86 मीटर चौड़ा है । उसमें सम्भवत: 27 खण्ड थे ।
3.9.4 विशाल स्नानागार –
सैन्धवों का स्नानागार उनके स्थापत्य प्रेम का उदाहरण है । मोहनजोदड़ो में गढ़ी टीले पर स्थित इस स्नानागार के अवशेष 180 फीट उत्तर दक्षिण तथा 108 फीट पूर्व से पश्चिम तक फैले हुए है । पकी हुई ईंटों से निर्मित यह स्नानागार 39 फीट 3 इंच लम्बा; 23 फीट 2 इंच चौड़ा और 8 फीट गहरा है । इसके प्रवेश द्वार की सीढ़ियां 4 ईंच चौड़ी और 8 ईंच ऊँची है । प्रत्येक सीढ़ी पर लकड़ी के पाटिये लगाये हुए थे । सीढ़ियों की समाप्ति पर 39 ईंच गुणा 16 ईच माप की एक पीठिका बनी हुई है । जिसके दोनों ओर सीढ़ियां है । इस स्नानागार का फर्श दक्षिण-पश्चिम की तरफ ढाल लिये हुए है । इसके कोने में पानी बाहर निकालने हेतु एक वर्गाकार मोरी बनाई गई है। ताकि समय समय पर स्नानागार की सफाई की जा सके | सीढ़ी के अन्तिम भाग में नीचे नाली 23 -5 x 8-26 सै.मी माप की बनी हुई है जो चौड़ी तथा गहरी है । इसके फर्श में जल का रिसाव रोकने हेतु जिप्सम का प्रयोग किया हुआ है । इसकी दीवार में तराशी हुई ईंटों का प्रयोग किया गया है । इसमें प्रयुक्त ईंटों के बीच दूरी बहुत कम रखी गई है और वे 27.94 X 13.1 X 5.65 से.मी तथा 12.78 X 12.95 X 5.95 से.मी माप की बनी हुई है । इसकी दीवारों को गिरने से बचाने हेतु 2.54 से.मी. मोटा बिटूमन लगाकर पक्की हुई इंटों की दीवार बना दी गई है | जॉन मार्शल का मत है कि उन दिनो उपलब्ध निर्माण सामग्री से इससे सुन्दर और मजबूत निर्माण कार्य की कल्पना नहीं की जा सकती है ।
स्नानागार के पूर्व में निर्मित 6-7 कमरों के मध्य एक कक्ष में अण्डाकार कुआ बना हुआ है जिससे स्नानागार में पानी भरा जाता था । इसके तीन तरफ कई कमरे बने हुए थे और दक्षिण की ओर लम्बा प्रकोष्ठ बना हुआ था जिसके दोनो तरफ कमरे बने हुए थे । इसी तरह उत्तर की ओर बड़े आकार के आठ कक्ष थे इन कमरों के ऊपर एक मंजिल और भी रही होगी क्योंकि उनके पूर्व में सीढ़ियों के अवशेष प्राप्त हुए है । प्रत्येक कक्ष 9.5 फीट लम्बा तथा 8 फीट चौड़ा था । सभी कमरों का निर्माण पकी हुई ईंटों से किया गया था | कमरों के द्वार आमने सामने न होकर दायें बायें बनाये हुए थे । ये कमरे वस्त्र बदलने या शुद्ध पानी से स्नान करने के काम में आते थे | पिगट की मान्यता है स्नानागार पर निर्मित कमरों में तीर्थ पण्डे या पुजारी रहते थे जो वहाँ आकर स्नान करने वाले लोगों को पूजा सम्पन्न करवाते थे । इस प्रकार यह महास्नानागार सैन्धव जनो की धार्मिक प्रवृत्ति का उदाहरण है । क्योंकि वर्तमान भारतीय समाज में इस प्रकार के स्नानागारों या कुण्डों का महत्व दृष्टिगोचर होता है ।
3.9.5 सभा भवन –
मोहन जोदड़ो में स्तूप टीले के पास कुछ दूरी पर दक्षिण में एक भवन बना हुआ था जहां सैन्धव जन सभा करते थे अथवा यह विद्यालय के रूप में काम में लाया जाता होगा । यह भवन 20 खम्भों पर बना हुआ था इसका माप 27.43 मीटर का था और यह वर्गाकार स्वरूप में था | इस भवन के स्तम्भ चार पंक्तियों में विभक्त थे । प्रत्येक पंक्ति में पाँच स्तम्भ थे और मुख्य इमारत तक पहुंचने के लिये उत्तरी छोर के मध्य रास्ता था । इसका फर्श पक्की ईंटों द्वारा बनाया गया था । इसका प्रयोग बैठने हेतु किया जाता था | मार्शल ने इस भवन को बौद्ध उपासना स्थल माना है जबकि मैके का विचार है कि यहां पर आर्थिक गतिविधियां संचालित की जाती थी । दीक्षित महोदय ने इस भवन को धार्मिक वाद-विवाद का स्थल और व्हीलर ने इसकी तुलना फारसी दरबार-ए-आम से की है ।
3.9.6 बावड़ियां –
धौलावीरा के उत्खनन से पूर्व यह माना जाता था कि सैन्धव जन पत्थरों का प्रयोग नहीं करते थे । लेकिन धौलावीरा के उत्खनन से ज्ञात होता है कि सिन्धु वासी जमीन के नीचे पत्थर काटकर जल संचय हेतु बावड़ियों का निर्माण करवाते थे । राजस्थान और गुजरात में तो बावड़ियों के निर्माण को प्राचीन परम्परा रही है ।
3.9.7 लोथल की गोदी –
लोथल (गुजरात) से पकी हुई ईटों से निर्मित 14 मीटर लम्बा और 36 मीटर चौड़ा एक ढांचा मिला था | राव महोदय ने इसकी पहिचान बन्दरगाह के गोदी स्थान से की है | यहाँ पर कृत्रिम रूप से जल एकत्रित करके भारी नौकाओं से माल उतारा और चढ़ाया जाता था । इस गोदी की गहराई 3.5 मीटर है | एस.आर. राव के अनुसार इसकी उत्तरी दीवार में 12 मीटर चौड़ा प्रवेश द्वार था । जिसमें नौकाओं का आवागमन होता था और यह भोगवा नदी से जुड़ी हुआ था जिसके जल से गोदी को भरा जाता था | एस.आर. राव ने यह विचार व्यक्त किया है कि लोथल की गोदी फिनीशिया और रोम की गोदियों से अधिक विकसित थी । लोथल की गोदी के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है | लारेंस लैसिक ने इसे गोदी न कहकर कुण्ड से अभिन्न माना है । लेकिन हमारा विचार है कि बन्दरगाह के इतिहास की दृष्टि से लोथल गोदी परम्परा का प्राचीनतम उदाहरण है ।
3.10 सैन्धव धर्म
सैन्धव सभ्यता के नागरिकों के धार्मिक जीवन की जानकारी मूर्तियों, मुद्राओं, मृद्भाण्ड, पत्थर या अन्य पदार्थो से निर्मित लिंगों, ताम्र फलक और कुछ कब्रिस्तानों से मिलती है । विकसित सैन्धव सभ्यता में कुछ धार्मिक सम्प्रदाय भी रहे होंगे लेकिन पुरातात्त्विक सामग्री से इस गूढ़ रहस्य का उद्घाटन नहीं हो पाया है । विशेष रूप से सैन्धव लिपि न पढ़े जाने से उनके जीवन के कुछ पक्षों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अधूरा है । हड़प्पा संस्कृति में ऐसा कोई भवन नहीं मिला है जिसे मन्दिर कहकर पुकारा जा सके । इसलिये अधिक सम्भावना यही है कि लोग अपने देवताओं की उपासना खुले आकाश में ही करते थे | लोग शुभ तिथियों और पुनीत अवसरों पर तीर्थ स्थानों पर जा कर स्नान करते थे और ऊपर जो भवन बने हुए थे उसमें पुजारियों के रहने की कल्पना कुछ पुराविदों ने की है । सम्भव है कि इन स्नानागारों के आसपास कोई मन्दिर भी रहा हो ।
3.10.1 मातृदेवी की उपासना –
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और चन्हू दड़ों के उत्खनन से मिट्टी की नारी मूर्तियां प्राप्त हुई है। वे पंखाकार शिरोभूषा, कई लड़ियों वाले हार, चुड़ियाँ, मेखला और कर्णाभरण पहने हुए है । पंखाकार शिरोभूशा के दोनो ओर दांयेबायें दीपक जैसी आकृतियों बनी हुई हैं जिसमें कालिख लगी है । जो इस बात की द्योतक है कि इसमें धूप या दीप बाती जलाई गई होगी । मकई का विचार है कि सम्भवत: इसमें तेल बाती डालकर प्रयोग किया गया होगा । मकई का मत है कि ये मूर्तियाँ आलो में रखकर पूजी जाती थी । विद्वान इन मूर्तियों को मातृदेवी की मूर्तियां मानते हैं । जिन मृण्डमूर्तियों में ग्रामीण नारी का रूपांकन है उन्हें पुत्र प्राप्ति हेतु चढ़ाई गई उद्देशिक भेंट माना जा सकता है । नारी मृण्डमूर्तियां सौम्य एवं रौद्र रूप में भी मिली है । मार्शल का मत है कि भारत में मातृ देवी की उपासना की जड़े बहुत गहरी है आज भी ग्राम देवता के रूप में अधिकांशत: मातृ देवी ही प्रतिष्ठित मिलती है । शाक्तो के अनुसार वह प्राण शक्ति है शिव भी बिना देवी शक्ति के शव के समान है । मातृ देवी सैन्धव सभ्यता में स्वतन्त्र रूप से पूजी जाती थी या किसी पुरुष देवता के साथ यह कहना कठिन है । हड़प्पा की मुद्राओं (मिट्टी या खड़िया की) पर अभिलेख के साथ दाहिनी ओर स्त्री सिर के बल खड़ी दिखाई दे रही है । उसकी योनी में एक पौधा प्रस्फुटित होते हुए दिखलाई दे रहा है तथा बायें ओर दो बाघ है । सम्भवत यह दृश्य मातृ देवी को प्रजनन शक्ति के रूप में प्रस्तुत कर रहा है । यह पृथ्वी देवी भी हो सकती है जो सम्पूर्ण जगत् की वनस्पति की उत्पति का आधार है । मोहनजोदड़ो से प्राय: एक अन्य मुद्रा के दूसरी ओर एक नारी और पुरूष दिखाये गये हैं । पुरूष के हाथ में हंसिया जैसी कोई वस्तु है स्त्री बैठी है और उसके हाथ ऊपर उठे हुए हैं तथा बाल बिखरे हुए है । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पुरूष बैठी हुई स्त्री का वध करने वाला है । मार्शल ने कहा है कि यह मुद्रा पृथ्वी देवी को बलि दिये जाने का अंकन है । एक अन्य मुद्रा में पीपल वृक्ष की दो शाखाओं के मध्य खड़ी हुई स्त्री आकृति के नीचे की ओर एक व्यक्ति बकरा लिये हुए खड़ा है । पास में कुछ लोगों का समूह चित्र है । अनुमान किया जाता है कि यहां देवी को प्रसन्न करने के लिये पशुबलि की तैयारी की जा रही है और लोग उसमें सामूहिक रूप से भाग ले रहे हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता में मातृदेवी की पूजा एक लोकप्रिय धर्म के रूप में प्रचलित नहीं थी । क्योंकि पाकिस्तान के सिन्ध और पंजाब क्षेत्रों के बाहर सैन्धव सभ्यता के पुरास्थलों से मातृदेवी की मूर्तियां अल्पसंख्या में मिली है । लेकिन भारत से बाहर एलम, मेसापोटामिया ट्रान्स काकेशिया, एशिया माइनर, सीरिया, फिलिस्तीन, क्रीट, बाल्कान और मिश्र से विशाल संख्या में नारी मूर्तियां मिली है । विद्वानों का मत है कि एशिया माइनर के अनातोलिया क्षेत्र से मातृदेवी की पूजा प्रारम्भ हुई थी।
मोहनजोदड़ो से विभिन्न पदार्थों से बने हुए चक्र प्राप्त हुए है जिनका व्यास 1.27 सेमी से 1.21 मीटर तक है | बड़े चक्र पत्थर के है तथा छोटे पत्थर कांचली मिट्टी, शंख तथा कार्निलियन से निर्मित है । हेनरी केजिन्स का मत है कि इन चक्रों का उपयोग स्तम्भों के शीर्ष भाग को अलंकृत करने में किया जाता था । कुछ लोग छोटे चक्रों को पाषाण मुद्रा मानते है लेकिन हड़प्पा की उन्नत सभ्यता में यह विचार उचित नहीं लगता है । सम्भवत: ये चक्र देवी शक्ति के प्रतीक थे। हड़प्पा मोहन जोदड़ो से प्राप्त चक्रों को मार्शल ने स्त्री जननांग (योनी) का प्रतीक माना है । उन्होंने सैन्धव सभ्यता में योनि पूजा का संकेत दिया है । इन चक्रों को योनि का प्रतीक भी माना गया है । क्योंकि स्टाइन को बलूचिस्तान में पेरियानों घुण्डई नामक स्थल से योनि का यथार्थ अंकन मिला है । सम्भवत: ये चक्र शक्ति या नारी की प्रजनन शक्ति के प्रतीक थे और समाज में उनकी पूजा का विशेष धार्मिक महत्त्व था ।
3.10.2 पशुपति शिव की उपासना –
मोहन जोदड़ो से प्राप्त कुछ मुहरों पर एक नग्न व्यक्ति योग मुद्रा में विराजमान है । इसके तीन मुख तथा शीश पर त्रिशूल के समान कोई वस्तु है । उनके बांयी ओर एक गेंडा तथा भैसा और दांयी तरफ एक हाथी और व्याघ्र है । उनके सम्मुख हिरण खड़ा है । इस योगी की बाहुओं में कलाई से लेकर बाजुओं तक बाजूबन्द है तथा भुजाएँ इस प्रकार तनी है कि हाथों के अंगूठे घुटनों को छू रहे है हो सकता है कि यह देवता चतुर्मुख रहा हो और इसका चौथा मुख पीछे होने के कारण मुद्रा पर अंकित नहीं किया जा सका हो । उपर्युक्त देवता को अधिकांश विद्वानों ने शिव का पूर्ण रूप माना है । शिव योगेश्वर तथा त्रिशूलधारी हैं वे पशुपति के रूप में भी प्रसिद्ध है | शिव का सम्बन्ध तीन से भी है वे व्यंबक भी कहे गये है |
कुछ मुद्राओं पर जो चीनी मिट्टी की है उन पर एक योगासीन व्यक्ति का चित्र है ।जिसके दोनो तरफ एक नाग है तथा सामने दो नाग बैठे हैं । विद्वानों ने नागों से घिरे इस योगी को भी शिव से अभिन्न माना है । इसी प्रकार एक मुद्रा पर धनुर्धारी शिकारी का चित्र अंकित है । जिसकी पहिचान विद्वानों ने किरात वेशधारी शिव के साथ की है ।
कुछ विद्वानो के अनुसार मोहनजोदड़ो की मुद्रा में शिव को ऊर्ध्वलिंगी अंकित किया गया है । शिव पूजा के साथ लिंग पूजा का होना स्वाभाविक था | सैन्धव सभ्यता में अनेक लिंग मिले हैं जो लाल अथवा नीले बलुआ पत्थर, चीनी मिट्टी, सीप के बने हुए है। इन लिंगों का शीर्ष भाग गोल है । इनमें कोई तो इतना लघु है कि उसे जेब में रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता था | सम्भवत: बड़े लिंगों को किसी विशेष स्थान पर स्थापित करके उनकी उपासना की जाती होगी । इस प्रकार लिंग सैन्धव सभ्यता में शिव का प्रतीक था । भारत की तरह प्राचीन काल में मिस्र, यूनान और रोम में भी लिंग पूजा प्रचलित थी | मार्शल का मत है कि छोटे बड़े लिंगों को भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के लोग पूजते थे । मैके इन लिंगों को पूजन प्रतीक न मानकर कूटने पीसने के काम लाया जाने वाला यन्त्र माना है । हड़प्पा की कुछ मुद्राओं पर वृषभ का चित्र मिला है । उसे पौराणिक नन्दी से अभिन्न माना जा सकता है । जो परवर्ती काल में शिव का वाहन या प्रतीक माना गया है ।
3.10.3 वृक्ष पूजा –
सिन्धु सभ्यता के लोग वृक्षों में देवताओं का निवास मानते हुए उनकी उपासना करते थे । प्राय: लोग पीपल और नीम के वृक्षों की पूजा किया करते थे । मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मृद्रा पर एक देवता को वृक्ष की शाखाओं के मध्य खडा हुआ दिखलाया गया है । उसके सामने एक व्यक्ति हाथ जोड़े बैठा है उसके भी बाल लम्बे और सिर पर सींग है । इसके पीछे एक पशु शरीरधारी पुरूष खड़ा है । उसका कुछ भाग बकरी तथा बाकी बैल का है । इसके बाद सात नारी आकृतियां दिखलाई दे रही है । वे सिर पर पीपल की टहनियाँ लटकाये हुए है । मकई ने उन्हें शीतला तथा उसकी छ: बहने माना है । टी.एन. रामचन्द्रन इस मत से सहमत नहीं है । मोहन जोदड़ो से प्राप्त एक अन्य मुद्रा पर एक श्रृंग युक्त आकृति है जो दो पीपल वृक्षों के बीच में खड़ी है । उसके बांयी ओर मालाएँ पहने हुए बकरा खड़ा है । पीछे एक पुरुषाकृति दृष्टिगोचर हो रही है इसे पशु बलि का दृश्य माखौल उडाया गया है । विज्ञानेश्वर ने पन्द्रह प्रकार के दासों का उल्लेख किया है । मेधातिथि और अपरार्क ने लिखा है कि ब्राह्मण कभी किसी का दास नहीं हो सकता था | राजतरंगिणी में कल्हण ने मध्यकाल के प्रथम चरण में सामाजिक संगठन एवं भूमि व्यवस्था का वर्णन किया है । अरब लेखकों में सुलेमान ने पाल और प्रतिहार शासन केय माना गया है । एक मृण्ट् मुद्रा पर वृक्ष के सिरे पर पशु का सिर दिखलाई दे रहा है उसके सींगों से वनस्पति निकलते हुए दृष्टिगोचर हो रही है । हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा पर वृक्ष के मेहराब के मध्य किसी देवता का अंकन मिलता है । एक अन्य मुद्रा पर दो व्यक्तियों के हाथ में एक एक पेड़ दिखलाई दे रहे हैं। इस मुद्रा के दूसरी ओर झुका हुआ व्यक्ति मानो नीम के पेड़ की पूजा करते हुए दिखलाया गया है | मृदाण्डों पर भी पीपल की पत्तियां दिखलाई दे रही है । इस प्रकार सिन्धु घाटी के लोग वृक्ष देवता के उपासक थे ।
3.10.4 पशु पूजा –
सैन्धव सभ्यता में पशुपूजा के साक्ष्य भी मिलते हैं । मुद्राओं पर पशु दो तरह के दिखलाये गये हैं प्रथम वास्तविक और द्वितीय काल्पनिक | श्रृंग पशु का चित्र वास्तविक या काल्पनिक यह कहना कठिन है । यह भी सम्भव है कि इन मुखाकृत्तियों में दो शक्तियों को सम्मिलित रूप से दिखलाने का प्रयास किया गया हो । एक मुद्रा में श्रृंग पशु के तीन सिर दिखलाये गये हैं जिसमें दो अन्य सिर भैंसा तथा बकरे के है । किसी अन्य मुद्रा पर श्रृंग पशु के साथ गेंण्डा दृष्टिगोचर हो रहा है । कुछ मुद्राओं पर अर्धमानव तथा अर्धपशु भी दिखलाये हुए हैं । परवर्ती मुद्राओं पर वृषभ का भी अंकन मिलता है । सिन्धु घाटी की कुछ मुद्राओं पर जानवरों को देव की तरह से भी प्रदर्शित किया गया है । संभवत: भैंस, कूबड़वालाबैल, गेण्डा छोटे सींग वाला बैल, बाघ, हाथी और घड़ियाल शक्ति सम्पन्न होने के कारण पूजे जाते थे । जैसे भेंसा यम का, बैल शिव का, गरूड़ विष्णु का, हाथी इन्द्र का, मकर गंगा के वाहन माने जाते हैं ऐसी ही कल्पना सैन्धवों ने भी की होगी ।
3.10.5 नागपूजा –
सिन्धु घाटी के कुछ बर्तनों पर सांप का चित्रण भी हुआ है । मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर देवता के दोनो तरफ सांप दिखलाये गये हैं । मिट्टी की मुद्रा से बने एक ताबीज से भी नागपूजा की जानकारी मिलती है । इसमें देवता के सिर पर मणिधारी सांप दृष्टिगोचर हो रहा है । मृगाण्ड पर भी सांप का चित्र उत्कीर्ण है । इससे संकेतित है कि सिन्धु घाटी के लोग नाग की देवता की तरह पूजा करते थे । बाद में वैदिक काल में नाग पूजा जारी रही ।
3.10.6 धूप–
दीप – सिन्धु घाटी की मुद्राओं पर प्राप्त अंकन से कई बार एक विशिष्ट पात्र रखा हुआ मिलता है । जो एक डंडे पर बनाया गया है । मार्शल ने इसे धूपदानी माना है ।
3.10.7 देवदासी की कल्पना –
यद्यपि सिन्धु घाटी की सभ्यता में मन्दिर के प्रमाण नहीं मिलते हैं । फिर भी सम्भव है कि नृत्य धार्मिक अनुष्ठान का अंग रहा होगा । मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांस्य नर्तकी और सलेटी पत्थर की नृत्य मुद्रा में निर्मित मूर्ति उल्लेखनीय है । यहां कल्पना की जा सकती है कि सैन्धवों की नृत्य परम्परा से ही परवर्तीकाल में देवदासी प्रथा विकसित हुई । विद्वान इस मत को स्वीकार नहीं करते हैं ।
3.10.8 योग साधना –
मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर कोई देवता योगासन मुद्रा में बैठा है । इससे संकेतित है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता में लोग योग साधना की पद्धति से परिचित थे । पशुपति की मुद्रा में शिव पद्मासन मुद्रा में बैठे हैं । विद्वान भारत में निवृतियाँ की परम्परा का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से मानते हैं ।
3.10.9 सूर्य पूजा, मंगल चिन्ह एवं ताबीज –
सैन्धवों की मुद्रा पर स्वास्तिक चक्र तथा क्रास का चित्र मिलता है । स्वास्तिक का सम्बन्ध सूर्य पूजा से था | मिट्टी से बनी कुछ गुटिकाओं का ताबीजों के रूप में प्रयोग किया जाता था | ताबीज रक्षा कवच माने जाते थे । एक गांठदार सीपी का भी यही प्रयोजन जान पड़ता है ।
3.10.10 अग्निवेदिका या अग्निकृत्य –
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो से अग्निकुण्ड या वेदी के निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं । मार्शल ने मोहनजोदड़ो के एच.आर क्षेत्र में एक गड्ढा पाया जाने का उल्लेख किया है परन्तु यह प्रमाण असंदिग्ध है | कालीबंगा, लोथल, बाणावली एवं राखीगढ़ी के उत्खननों से हमें अनेक अग्निवेदिकाएँ मिली हैं एवं कुछ स्थलों पर उनके साथ ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे उनके धार्मिक प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त होने की सम्भावना प्रतीत होती है
कालीबंगा में ईंटों से बने चबूतरे पर सात आयताकार अग्निवेदियाँ मिली हैं जिनके पास से स्नान हेतु चौकी और कुंआ भी है । अग्नि वेदियों से राख, कोयले के अवशेष, साथ ही मिट्टी के पिण्ड एवं मिट्टी के स्तम्भ मिले हैं | कालीबंगा के एक अन्य अग्निकुण्ड में पशुओं की हड्डियाँ तथा हिरण के सींग मिले है | वहां घरों में भी अग्निवेदियां मिली हैं । लोथल में एस.आर. रौद ने अग्नि वेदी जैसे स्थान की खोज की थी । इससे स्पष्ट है कि हड़प्पा संस्कृति के लोग धार्मिक अनुष्ठान करते थे और उसमें देव उपासना का माध्यम अग्निदेव थे ।
3.10.11 मृतक संस्कार –
मार्शल के अनुसार सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग परलोक एवं पुनर्जन्म में विश्वास करते थे | वे लोग शवों का अन्तिम संस्कार तीन प्रकार से करते थे – प्रथम – पूर्ण समाधी करण अर्थात् सम्पूर्ण शव जमीन में गाड़ दिया जाता था । द्वितीय – आंशिक समाधि करण – इसमें शव को खुले में छोड़ दिया जाता था | तृतीय – दाह कर्म – इसमें शव जला दिया जाता था और बाद में अस्थियाँ एवं भस्म मिट्टी के बर्तन में डालकर जमीन में गाड़ दी जाती थी । शवों के साथ आभूषण, मांस, भोजन तथा शस्त्र भी रखे जाते थे । लोथल की एक कब्र में स्त्री तथा पुरुष के कंकाल एक साथ मिले है । सिन्धु घाटी के लोग पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे इसीलिये शवों के साथ कई प्रकार की सामग्री गाड़ देते थे । कालीबंगा से प्राप्त एक खोपड़ी के कंकाल के कपाल में छेद है जो कपाल क्रिया का प्रतीक माना जाता है ।
3.11 सैन्धवों का राजनीतिक जीवन
सैन्धव सभ्यता की राजनीतिक व्यवस्था की जानकारी स्पष्ट नहीं है । व्हीलर तथा पिगट की मान्यता है कि हड़प्पा तथा मोहन जोदड़ो में शासन का संचालन पुरोहित या धर्माधिकारी के हाथ में केन्द्रित था । जबकि अन्य विद्वान इस मत से सहमत नहीं है क्योंकि सिन्धु सभ्यता में कहीं भी मन्दिर नहीं मिला है । सम्भवत: सैन्धवों का प्रशासन व्यापारी वर्ग के हाथ मे रहा होगा | विकसित नगर नियोजन, बाट, माप और उपकरणों का निर्माण किसी कुशल शासक के नियन्त्रण में ही सम्भव है । जे.एम. कैसल के अनुसार इस बात की भी सम्भावना है कि सम्पूर्ण साम्राज्य के चार प्रमुख केन्द्र रहे होंगे जैसे मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा और लोथल । इस प्रकार ये नगर राज्यों की राजधानियाँ रहे होंगे । कुनाल (हिसार जिला, हरियाणा)से एक चांदी का राजमुकुट प्राप्त हुआ है जो राजा के अस्तित्व का संकेत माना जा सकता है परन्तु अभी तक उत्खनन में न तो राजमहल मिला है और न सिंहासन | मार्क के लोयर का मत है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता में राजत्व अधिकार विभिन्न कुलीन वर्गों के हाथ में थे जिनमें व्यापारी, पुजारी एंव प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित थे । एक सम्भावना यह भी व्यक्ति की गई है कि सैन्धव सभ्यता में सत्ता नागरिकों के हाथ में थी । सुव्यवस्थित नगरों के आधार पर कहा जा सकता है कि कोई नगर पालिका जैसी संस्था व्यवस्था सम्बन्धी कार्य करती होगी । सैन्धव जन शान्तिप्रिय थे, इसलिये उत्खनन में शस्त्र बहुत कम मिले है । हथियारों में कांसे की आरी ताम्बे की तलवारे, कांस्य के भाले के अग्रभाग, कटारे, चाकू और नोकदार बाणों के अग्रभाग विशेष उल्लेखनीय है । स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में सैन्धवों के राजनीतिक जीवन पर निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है ।
3.12 सैन्धवों का सामाजिक जीवन
सैन्धवों के सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में उत्खनन से प्राप्त सामग्री के आधार पर विचार किया जा सकता है | व्हीलर ने मत प्रकट किया है कि हड़प्पा की सभ्यता में प्रशासनिक क्षेत्र में धार्मिक तत्व अर्थात् पुरोहित वर्ग का विशेष प्रभाव था । गार्डन चाइल्ड का विचार है कि समाज श्रेणियों में विभाजित था । ऐसा प्रतीत होता है कि समाज में केवल दो ही वर्ग थे प्रथम व्यावसायिकों का और दूसरा मजदूरों या कर्मकारों का तथा पुरोहित वर्ग का समाज में सम्मान पूर्ण स्थान था । सैन्धवों के समाज में व्यापारिक वर्ग समृद्ध था | आर.एस. शर्मा ने समाज में दास वर्ग होने की भी कल्पना की है । डी.एच. गार्डन की मान्यता है कि सैन्धव क्षेत्र से कुछ आकृतियाँ मिली है जो दासी जैसी है । मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा से भारी मात्रा में नारी मूर्तियाँ मिली है जिनसे संकेतित है कि समाज में सम्भवत: मातृ सत्रात्मक व्यवस्था रही होगी। लेकिन प्राय: मूर्तियों से इस प्रकार का कोई संकेत नहीं मिला है ।
3.12.1 आभूषण एवं परिधान –
अभी तक जो उत्खनन हुआ है उसमें सैन्धव क्षेत्र से कई पुरुष आकृतियाँ या मूर्तियाँ मिली है । इनमें से अधिकांश खण्डित है । मोहनजोदड़ो से घीया पत्थर की एक मूर्ति मिली है जिसे योगी की मूर्ति कहा जाता है । इस मूर्ति से ज्ञात होता है कि पुरूष शाल का प्रयोग करते थे जिसे बायें कन्धे को ढकते हुए दाहिने हाथ से निकाला जाना था । इस शाल पर अलंकरण दृष्टिगोचर होता है । पुरुषों के वस्त्र सूती और ऊनी होते थे । स्त्रियों के वस्त्र तथा आभूषण की जानकारी मृण्डमूर्तियों से मिलती है । मातृदेवी की मूर्ति के शरीर का ऊपरी भाग वस्त्रहीन दिखलाया गया है । अधोभाग में घुटनों तक घेरदार वस्त्र पहना हुआ है । थपल्याल तथा शुक्ल का मत है कि इस प्रकार के वस्त्रों की परम्परा गुप्तकाल में भी जारी रही । घेरदार वस्त्र को कमर पर करधनी द्वारा आबद्ध कर सामने पिन द्वारा कसा जाता था । कुछ स्त्रियों के सिर पर पंख के आकृति की शिरोभूषा अथवा दो डलियां जैसी वस्तु दिखलाई गई है ।
स्त्रियाँ केश विन्यास की कला से परिचित थी । मोहन जोदड़ो से प्राप्त कांस्य मूर्ति मे कुण्डलीकृत केशों को सिर के पीछे की तरफ लटकते हुए दिखाया गया है | घीया पत्थर की एक अन्य मूर्ति से भी केश सज्जा की जानकारी मिलती है। पुरुष भी केश विन्यास के प्रति सावधान थे । पुरुषों में योगी के सिर के मध्य से मांग निकाली गई है और पीछे से केशराशि को किसी फीते से कसकर बांध दिया गया है | केश विन्यास के लिये कंघी का प्रयोग किया जाता था । उत्खनन में हाथी दांत की कंघी और कांस्य का दर्पण प्राप्त हुआ है । पुरुष छोटी खसखसी दाढी और गल गुच्छ रखते थे । वे होंठ के ऊपर के बाल साफ करवा देते थे । योगी की मूर्ति में मूछे साफ है परन्तु हल्की दाढ़ी दृष्टिगोचर हो रही है ।
सैन्धव सभ्यता में स्त्री तथा पुरुष दोनो आभूषण प्रिय थे । वे गुर्रियों से निर्मित आभूषण प्रयोग में लाते थे । हड़प्पा से छ: लड़ियों का सोने के मनकों का हार मिला है । इस हार के मध्य सूर्यकान्त मणि (जैस्पर) एवं हकीक के (अगेट) के सात लटकन भी लगे है | स्त्रियों की प्रतिमाओं में मेखला, पाद भूषण और पैरों में कड़ी का प्रयोग मिला है । स्त्रियों कानों में भी आभूषण धारण करती थी । मोहनजोदड़ो की मृण्डमूर्तियों में कर्णाभूषण दृष्टिगोचर होता है । उत्खनन में कुछ सुरमेदानियां भी मिली है । इसमें संकेतित है कि आंखों को सुन्दर दिखलाने हेतु स्त्रियाँ सुरमेदानी का प्रयोग करती थी । स्त्रियाँ बालों में तैल भी लगाती थी और स्त्रियां शिर स्त्राण तथा पुरूष पगड़ी पहनते थे | बच्चों के कुछ खिलौने उत्खनन में प्राप्त हुए है । मिट्टी की गेंद के रूप में झुनझुने और चिड़ियां के आकार की सीढ़ियाँ प्राप्त हुई है । कुछ लोग मनोरंजन हेतु पासे का खेल खेलते थे । उत्खनन में मिट्टी तथा पत्थर के बने हुए पासे मिले हैं । इन पासों पर कुछ कलाकृति और संख्या के निशान भी अंकित है । जो एक से छ: तक है । एक कांस्य मूर्ति जो नर्तकी की है उससे सैन्धवों के नृत्य संगीत प्रेम की जानकारी मिलती है । एक मूर्ति पर ढोलक भी दृष्टिगोचर रही है । उत्खनन में करतल का एक जोड़ा भी मिला है । एक मृण्डमुद्रा पर मुर्गे का चित्र है जिससे ज्ञात होता है कि लोग मुर्गों की लड़ाई से मनोरंजन करते थे। शिकार करना, मछली पकड़ना और पक्षियों को फंसाना भी मनोरंजन का साधन था ।
3.12.2 खानपान –
सिन्धु घाटी के लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी थे । गेहूँ तथा जौ उनके मुख्य भोज्य पदार्थ थे । कुछ क्षेत्रों में चावल भी खाया जाता था | वे विभिन्न प्रकार के फलों, सब्जियों, दूध, दही, मांस और मछली का भोजन में प्रयोग करते थे । भोजन पकाने हेतु मिट्टी तथा धातु के बर्तन काम लेते थे । कालीबंगा के आसपास के क्षेत्रों में लोग जौ खाते थे । गुजरात के रंगपुर तथा सुरकोटड़ा में चावल तथा बाजरा का अधिक प्रयोग होता था । सम्भवत: तिल तथा सरसों के तेल और घी का भी प्रयोग करते थे | लोग केला, खरबूजा, नींबू अंजीर काम में लेते थे । मटर तथा दालों के प्रयोग के भी संकेत प्राप्त हुए हैं । उत्खनन में हिरण, भालू भेड़ और बकरियों की हड्डियाँ मिली है । हड़प्पा से उन्नाव तथा खजूर के बीज मिले हैं । सम्भवत: मीठे के लिये शहद काम में लेते थे क्योंकि गन्ने के उपयोग के प्रमाण नही मिलते है ।
3.12.3 सैन्धव लिपि –
सैन्धव जनों की लिपि के पढ़ने में अभी तक सफलता नहीं मिल पायी है | सैन्धव लिपि के लेख मिट्टी या सेलखड़ी की मुद्रा पर अंकित है । इस लिपि से सम्बन्धित 2467 वस्तुएं मिली है । इसे 1925 में वैडेल ने पढ़ने का प्रयास किया । यह लिपि चित्रात्मक भाव चित्रात्मक या अक्षर सूचक हैं । प्रसिद्ध विद्धान लैगडन सी.जे गैडस तथा सिडनी स्मिथ ने इसे संस्कृत की भाषा के निकट माना है । प्राणनाथ ने इस लिपि को ब्राह्मी लिपि के समान माना है | सैन्धव लिपि के लिखने की दिशा के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं है । कोई उसे बाये से दांये या खरोष्ठी की तरह बायें से दायें लिखना मानते हैं । सम्भवत: इसे बायीं से दायीं और लिखा जाता था । 1931 में लैगडन और 1934 हण्टर ने सैन्धव लिपि पढ़ने का वैज्ञानिक आधार पर प्रयास किया था । फादर हेरास ने इस लिपि को द्रविड़ भाषा और कृष्ण राव ने उसे संस्कृत से सम्बन्धित माना है | शंकरानन्द ने सैन्धवलिपि को तान्त्रिक प्रतीक स्वरूप माना है | डॉ. फतह सिंह तथा एस.आर. राव का मत है कि सैन्धव लिपि संस्कृत के निकट है । राव के अनुसार इस लिपि में 390 चिह्न थे जो घटते घटते 20 रह गये । अरूण पाठक तथा एन.के. वर्मा का विचार है कि सैन्धव मुद्राओं पर प्राप्त लिपि संथाल लिपि के नजदीक है । आम्तो, सिमी पारपाला, आस्कोपारपाला तथा एस कोस्केन्नियेमी और रूसी पुरातत्त्व शास्त्रियों ने सैन्धव लिपि को साधारण एवं कम्प्यूटर से पढ़ने का दावा किया है परन्तु अभी तक उन्हें सफलता नहीं मिली है ।
3.13 आर्थिक जीवन
3.13.1 कृषि –
डी.डी. कोसाम्बी ने अनुमान लगाया है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग हल या कुदाल से खेती नहीं करते थे । लेकिन यह तथ्य विस्मयकारी है । हल बिना संसार में कहीं भी बड़े नगर विकसित नहीं हुए हैं । दूसरी ओर बी.बी. लाल को कालीबंगा से जुते हुए खेतों के प्रमाण मिल चुके है | लोग बान्ध बनाकर सिंचाई करते थे ओर नदियों द्वारा लाई उपजाऊ मिट्टी में जौ, गेहूँ, राई, मटर, सरसों, धान, तिल और कपास पैदा करते थे | मोहन जोदड़ो के एक चांदी पात्र के एक ओर चिपका हुआ सूती वस्त्र मिला है। पिगट के अनुसार भारतीय वस्त्र सिन्धु नाम से प्रसिद्ध थे और उनका निर्यात किया जाता था | लोग मांस के लिए शिकार करते थे ।
खेतों में फसल काटने के लिये पत्थर या कांसे के हांसिये का प्रयोग किया जाता था । लोथल तथा रंगपुर से धान की भूसी मिली है । अनाज के अलावा खजूर, तरबूज, नारियल, नीम्बू अनार आदि फल और सब्जियां उगाई जाती थी । अनाज को राज्य के गोदामों में सुरक्षित रखा जाता था । किसान घरों में बड़े बड़े गड्डे बनाकर अनाज सुरक्षित रखते थे | चूहों से बचाव हेतु व्यवस्था की गई थी । खुदाई में मिट्टी से बनी चूहे दानियाँ प्राप्त हुई है । इस प्रकार सैन्धव समाज में कृषि पर विशेष ध्यान दिया जाता था ।
3.13.2 पशुपालन –
कृषि के अतिरिक्त लोग पशुपालन पर भी ध्यान देते थे । पशुओं से दूध, दही, घी, मांस तो मिलते ही थे साथ ही उनका उपयोग बोझ ढोने तथा गाड़ी खींचने के लिये किया जाता था | मिट्टी के बर्तनों, मुहरों, अस्थि अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि सूअर, भेड़, बकरी, गाय से उन्हें दूध तथा मांस प्राप्त होता था | बड़े जानवरों जैसे कूबड़ वाले बैल तथा बिना कूबड़ वाले बैल, भैंस, गधा, ऊंट, हाथी आदि बोझ ढोने के काम आते थे । कुत्ते बिल्लियां घर की सुरक्षा करते थे । लोग जंगली जानवरों यथा बाघ, चीते, गैंण्डे आदि से परिचित थे । घोड़े के अस्तित्व के संदिग्ध प्रमाण मोहनजोदड़ो, लोथल, सुरकोटड़ा आदि स्थानों से मिले हैं | लोगों को मोर, बतख और खरगोश की जानकारी प्राप्त थी । आखेट करना तथा मछली पकड़ना उनके आर्थिक जीवन का अंग था । हड़प्पा की एक मूर्ति के मुंह में खरगोश को पकड़े हुए दिखलाया गया है सैन्धवों के भोजन में कछुआ भी सम्मिलित रहा होगा |
3.13.3 व्यवसाय –
हड़प्पा सभ्यता में लकड़ी काटने तथा दरवाजे बनाने वाले बढ़ई का अस्तित्व रहा होगा । ईंटों को बनाकर पकाने तथा मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य कुम्हार करते होंगे । कुछ लोग भवन निर्माण विशेषज्ञ रहे होंगे । उत्खनन में हमें सोना, चांदी, ताम्बा, कांसा आदि धातुओं के आभूषण, गुरियां, मुद्राएँ और बर्तन आदि मिले हैं जिससे स्पष्ट है कि समाज में स्वर्णकार का काम करने वाला वर्ग विद्यमान था । स्वर्णकार धातु गलाना जानते थे । चन्दहुदड़ो से मैके को इक्के के खिलौने मिल थे । हड़प्पा से गाड़ी के पहिये तथा धातु का इक्का मिला है ।
सैन्धवों का स्वर्णकार वर्ग विभिन्न धातुओं के गहनों के अलावा बहुमूल्य पत्थरों से निर्मित गुर्रियों अथवा मनकों से आभूषण बनाते थे । गुर्रियों तामड़ा (कार्निलियन) यशब(जेड) हरीक(अगेट) करकेतन (चार्ल्स डनी), राजावर्त (लेपिस लेजुली), शंख (शेल) या घीया पत्थर की बनाई जाती थी । चन्हूदड़ों में गुर्रियों का छोटा कारखाना था । जहां पर नग को चीरकर छड़ बनाई जाती थी एवं उसे गोल बनाया जाता था फिर घिसकर उसमें चमक लाने जैसे कार्य की कल्पना वासुदेव शरण अग्रवाल ने की है । चन्दहूदड़ों लोथल, रंगपुर और खम्भात मनका उद्योग के मुख्य केन्द्र थे । हड़प्पा के लोग कीमती पत्थर आयात करते थे | चन्दहूदड़ों में लाल पत्थर तथा गोमेद के मनके बनाये जाते थे । सम्भवत: कढाई और बुनाई एक लोकप्रिय व्यवसाय था क्योंकि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के घरों से सूत कातने वाली तकलियां प्राप्त हुई | मोहनजोदड़ो से मिला सूती वस्त्र जो ताम्बे के उपकरण को लपेटे हुए है मजीठ के लाल रंग से रंगा हुआ है इससे स्पष्ट है कि कुछ लोग रंगरेज का कार्य करते थे । लोथल से चक्की के दो पाट मिले हैं । इससे ज्ञात होता है कि कुछ लोग आटा पीसने का व्यवसाय करते थे | पत्थर धातु और मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण कार्य भी महत्त्वपूर्ण उद्योग रहा होगा | मुद्राओं को तैयार करने वालों का भी विशेष वर्ग होता था । कुछ लोग हाथी दांत की वस्तुएं बनाते थे । लोथल इसका प्रमुख केन्द्र था जहां से यह सामान निर्यात किया जाता था | नगरों में पुरोहितों, वैद्यों और ज्योतिषियों का भी वर्ग रहा होगा ।
3.13.4 व्यापार वाणिज्य –
उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार मोहन जोदड़ो, हड़प्पा और लोथल व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे । वहां के व्यापारी भारत तथा बाहर के देशों से व्यापार करते थे | कुछ मुहरों पर मस्तूल वाले जहाजों तथा नावों की आकृतियाँ मिली है । सिन्धु घाटी के लोग चांदी ईरान और अफगानिस्तान से, सोना दक्षिण भारत (मैसूर) से, ताम्बा राजस्थान, बलूचिस्तान तथा अरब देशों से, टीन अफगानिस्तान, ईरान, राजस्थान से मंगवाते थे । सिन्धु घाटी अर्द्ध बहुमूल्य पत्थर जैसे लाजवर्म, गोमेद, पन्ना, मूंगा, इत्यादि अफगानिस्तान, ईरान, महाराष्ट्र, राजस्थान और कश्मीर से मंगवाया करते थे । मेसोपोटामिया, मिस्र तथा मध्य एशिया के देशों के साथ सैन्धवों के व्यापारिक सम्बन्ध थे । सैन्धवों की मुहरें मेसोपोटामिया में और वहां की मुहरें सिन्धु घाटी में मिली है । सीरीया ईरान, तुर्कमेनिस्तान में सिन्धु सभ्यता की बनी हुई वस्तुएं हाथी दांत की छड़े, मुहर, मनके और बर्तन प्राप्त हुए हैं । मेसोपोटामिया के अभिलेखों में कहा गया है कि हर नगर के व्यापारी मेलुहा (सिन्ध प्रदेश या सौराष्ट्र) से व्यापार करते थे । लोथल में भी समुद्री व्यापार होता था | व्यापारियों की मुहरें होती थी जिनका प्रयोग वे हुण्डी के रूप में करते थे | आवागमन के साधनों के रूप में गाड़ियों, पशुओं, नावों और जहाजों का प्रयोग किया जाता था । आन्तरिक व्यापार सड़कों के किनारे बनी हुई दुकानों से संचालित होता था | गार्डन चाइल्ड का मत है कि सिन्ध के नगरों में शिल्पी बिक्री के लिये वस्तुएं बनाते थे । इन सामानों का विनिमय की सुविधा के लिये समाज मे मुद्राओं का प्रचलन था या नहीं इसके सम्बन्ध में कुछ भी कहना कठिन है ।
3.13.5 अस्त्र शस्त्र –
सैन्धव सभ्यता के लोग ताम्बे के हथियार तथा औजार बनाते थे जिनमें कटार, गदा, तीर ओर कुल्हाड़ी मुख्य थे शायद वे लोग तलवार और कवच का प्रयोग भी करते थे | वे लोग हंसिया दरांती, आरी, छैनी और उस्तरे भी बनाते थे | सभी शस्त्र ताम्बे और कांसे या सख्त पत्थर के बने हुए मिले है । रक्षाशस्त्र कम मिलने से ऐसा लगता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग युद्ध प्रिय नहीं थे ।
3.13.6 माप व तोल –
मोहनजोदडो से सीप का एक स्केल मिला हैं । मकई के अनुसार यह 16.55 से.मी. लम्बा, 1.55 से.मी. चौड़ा और 6.75 से.मी मोटा है । इस पर बराबर दूरी से नौ निशान बने है | किन्हीं दो स्थानों के बीच की दूरी 066 से.मी. है । हड़प्पा के माधो स्वरूप वत्स को भी स्केल मिला था जो 3.75 से.मी. लम्बा है इस पर 0.93 की विभाजन रेखाएं खिंची हुई है | लोथल से मिले स्केल (हाथी दांत) की लम्बाई 128 मिलीमीटर है इस पर 46 मिलीमीटर की लम्बाई में 27 विभाजन रेखाएं बनी हुई है दो रेखाओं की बीच की दूरी 1.7 मिलीमीटर है ।
सिन्धु घाटी के लोग तौल के लिये बाट का प्रयोग करते थे । हड़प्पा, मोहन जोदड़ो, चन्हूदड़ो से भूरे चर्ट पत्थर, चूना पत्थर, स्लेट पत्थर और सेलखडी के बाट मिले है । पिगट के अनुमान किया है कि ये तोल 1,2,3,4,8 / 3,16,32,64,60,200,320 और 640 के अनुमान में आगे बढते है । इस प्रक्रिया में 16 तोल की इकाई रहा होगा जो कि 13.64 ग्राम के बराबर है |
3.13.7 शिल्प कला –
सैन्धव नगरों में मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा शिल्प कला के भी प्रमुख केन्द्र थे । वहां से पत्थर एवं धातु की कलाकृतियाँ मिली है । मोहनजोदड़ो से 11 छोटी बड़ी मूर्तियाँ तथा हड़प्पा से दो कबन्ध मूर्तियाँ मिली है । मोहनजोदड़ो की श्रेष्ठ मूर्ति हल्के पीले रंग की है तथा यह 9 इन्च उँची पुरुष की आवक्ष मूर्ति है जो शाल ओढे हुए हैं। मूर्ति नेत्र मूंदे हुए सिर तथा दाढी के कैश सलीके से बनाये हुए है । हल्पा से प्राप्त दो कबन्धो में एक पुरुष और एक नारी का हैं | पुरुष मूर्ति लाल पत्थर की तथा स्त्री मूर्ति स्लेट रंग के पत्थर की बनी हुई है | पुरुष मूर्ति में नग्न शरीर की मांसल जांधो तथा वक्ष और उदर सुन्दर बन पड़ा है | मोहन जोदड़ो से कई नग्न मूर्तियाँ मिली है इसी प्रकार ताम्बे की दो नारी मूर्तियाँ में एक नर्तकी की 4 इंच ऊंची मूर्ति उल्लेखनीय है । नग्न नर्तकी ने कमर पर हाथ रखा हैं और नृत्य भंगिमा को प्रदर्शित कर रही है । ताम्बे की भैसें तथा मेढ़े की मूर्तियाँ भी सुन्दर बन पड़ी है । सैन्धव शिल्प कला के दर्शन उनकी मुद्राओं से भी होते है जो लोथल हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से मिली है ये मुद्राएँ जो घिया पत्थर व मिट्टी की है वे गोल, आयताकार, बेलदार और त्रिपार्श्व आकार में 2 इन्च लम्बी ओर 2 इन्च चौड़ी है । उन पर वृषभ, हस्ति, घड़ियाल,बाघ गेंडा, एक श्रृंगी पशुओं, मातृ देवी और पशुपति का चित्रण मिलता है ।
3.14 सैन्धव सभ्यता के अवसान के कारण
सैन्धव सभ्यता नष्ट किन कारणों से हुई यह प्रश्न विवादास्पद है । साधारणतया इसके लिये निम्न कारण सुझायें गये है :
1. बी.गार्डन चाइल्ड के समर्थन करते हुए व्हीलर का मत है कि आर्यों के आक्रमण के कारण सैन्धव सभ्यता नष्ट हो गई | ऋग्वेद में इन्द्र को दुर्गों को नष्ट करने वाला कहा गया है । जार्ज एक देल्स ने मोहन जोदड़ो मानव कलाओं को आक्रमण का परिणाम बताने वाले तर्क का खण्डन किया । ये कंकाल अंतिम चरण के हैं । इनमें से केवल एक कंकाल पर चोट के निशान हैं ।
2. पिगट का मत है कि नगरों के विकास से जंगल नष्ट हो गये थे । भूमि पर शुष्कता और सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ गये अर्थात् आर्द्रता में ह्रास इस सभ्यता के पतन का मुख्य कारण बना इस मत का विरोध डेल्स, फेयर सर्विस, राइक्स और डाइसन ने किया है ।
3. शायद सैन्धव नगरों में बाढ़ आ गई थी जिससे वे नष्ट हो गये जबकि माधोस्वरूप का विचार है कि हड़प्पा के पतन का कारण रावी नदी का मार्ग बदलना था । हड़प्पा के नागरिकों हेतु जलस्त्रोत का दूर होना उनकी समृद्धि पर घातक प्रभाव डालने वाला था | मार्शल का विचार है कि सैन्धव सभ्यता के पतन का कारण बाढ़ रहा होगा इसीलिये उन्होंने मकानों का पुनर्निर्माण उंचे धरातल पर करवाया | एम आर साहनी ने विचार प्रकट किया है कि बाढ से जल प्लावन हो गया था | राइक्स का मत है कि बाढ़ से मोहनजोदड़ो के आसपास दलदल हो गया जिससे लोग अपना निवास स्थान छोड़कर चले गये । लैम्ब्रिक इस मन से असहमत है उन्होंने सैन्धव सभ्यता के पतन का कारण कच्ची ईटों का गलना माना है | मार्शल ने प्रशासनिक शिथिलता से नागरिक जीवन का ह्रास होना सैन्धव सभ्यता के पतनका कारण माना है ।
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4. फेयर सर्विस का मत है जनसंख्या वृद्धि और वातावरण में शुष्कता से उत्पादन तथा वितरण का संतुलन बिगड़ गया था । अपर्याप्त साधनों ईधन और खाद्यान्न के कारण लोग सैन्धव क्षेत्र को छोड़कर भले गये और यह सभ्यता नष्ट हो गई।
3.15 सैन्धव संस्कृति की निरन्तरता
यद्यपि विभिन्न कारणों से सैन्धव सभ्यता नष्ट हो गई लेकिन वहां के निवासी अन्य स्थानों के लिये पलायन कर गये। उन्होंने वे जहां भी गये सिन्धु संस्कृति के तत्त्वों को नया रूप देकर विकसित किया | उज्जैन से 25 कि.मी. पूर्व मे चम्बल नदी की उपनदी काली सिन्ध के तट पर कायथ संस्कृति, राजस्थान मे अहाड़, नबदाटोली (मालवा), जार्वे नेवास (महाराष्ट्र), दायमाबाद (महाराष्ट्र) बाडा (पंजाब) आदि स्थानों पर जो उल्खन कार्य हुआ है उससे ज्ञात होता है कि उपर्युक्त स्थलों पर सैन्धव संस्कृति या ताम्र संस्कृति की निरन्तरता सैन्धवो के पतन के बाद भी जारी रही ।
इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि भारत में आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व में उन्नत नगरीय सभ्यता का विकास हो चुका था जिसमें ताम्र का उपयोग बृहद स्तर पर किया गया था ।