इण्डो-ग्रीक, शुंग, शक, कुषाण एव सातवाहन: चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध को केन्द्र बनाकर भारत में प्रथम शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की ।

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मौर्य वंश के पतन के पश्चात् शुंग तथा कण्व वंशों ने उत्तर भारत में तथा सातवाहन वंश ने दक्षिण भारत में अपनी-अपनी सत्ता और शक्ति का विकास किया |

किन्तु दूसरी शताब्दी ई.पू. से तीसरी शताब्दी ई. के इस काल में प्रभावकारी केन्द्रीय सत्ता एवं साम्राज्य के अभाव के कारण भारत पर समय-समय पर इण्डो-ग्रीक,शक और कुषाण जातियों के आक्रमण हुए ।

इन्होंने अपने प्रभावक्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की । कालान्तर में वे परस्पर तथा यही के राजवंशों से संघर्ष करते हुए भारतीय संस्कृति में विलीन होकर भारतीय बन गए ।

इस प्रक्रिया के अन्तर्गत इनकी सभ्यता और संस्कृति के विशिष्ट तत्वों के समावेशन से भारत में बहुआयामी मिश्रित संस्कृति का विकास हुआ |

__इस प्रकार राजनीतिक रिक्तता एवं सांस्कृतिक विविधता के इस काल-खण्ड के अन्तर्गत कला और साहित्य सम्बन्धी अनेक प्रतिमान स्थापित हुए |

जिनकी संश्लिष्ट परिणति प्राचीन भारत का स्वर्णयुग माने जाने वाले गुप्त वंश के चरमोत्कर्ष के रूप में हुई।

इस सन्दर्भ में भारत में विदेशी शक्तियों के प्रवेश के विषय में जानकारी प्राप्त करना आवस्यक प्रतीत होता है ।

2 भारत में विदेशी शक्तियों का प्रवेश

हमें यह विदित है कि मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद की प्राय: पाँच शताब्दियाँ 200 ई.पू. से 300 ई. तक) भारतीय राजनीतिक इतिहास के अन्तर्गत बिखराव एवं अस्थिरता का काल हैं ।

इस युग में पश्चिमोत्तर से अनेक विदेशी जातियों-यूनानी, शक-पहल्व और कुषाणों के आक्रमण हुए ।

इनका सफलतापूर्वक सामना करने की क्षमता भारतीय शासकों में न. होने के कारण ये भारत में अपना राज्य स्थापित कर पाने में सफल रहे |

ऐसा माना जाता है कि मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में उत्तर-पश्चिम से यूनानियों के आक्रमण भी थे |

मौर्योत्तर काल में उत्तरापथ, अपरान्त एवं इनके निकटवर्ती मध्यदेश पर विदेशियों ने आधिपत्य स्थापित किया ।

इन विदेशी आक्रान्ताओं में डिमेट्रियस, यूक्रेटाइडीज़, मिनाण्डर तथा गोण्डोफर्नीज आदि प्रमुख हैं |

इन इण्डो-ग्रीक शासकों के अतिरिक्त शक वंशी नहपान और रूद्रदामन तथा कुषाण राजा कनिष्क प्रथम ने भी भारत में साम्राज्य-स्थापन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

इन विदेशी शक्तियों के समानान्तर शुंग शासक पुष्यमित्र शुंग एवं सातवाहन नरेश गौतमी पुत्र शातकर्णी ने भी अपने साम्राज्य स्थापित किए ।

साथ ही इनसे संघर्ष करते हुए इनकी प्रगति को अवरूद्ध किया । सारांशत: देशी-विदेशी शक्तियों के संघर्ष के इस युग में राजनीतिक उतार-चढ़ाव का दौर जारी रहा ।

सर्वमान्य केन्द्रीय सत्ता के अभाव में देश राजवंशों के उत्थान पतन का अखाड़ा बना रहा । आइये! इस प्रक्रिया का पृथक्-पृथक् विस्तृत आकलन करें ।

3 इण्डो-ग्रीक सत्ता का विकास – मिनाण्डर

इण्डो-ग्रीक

इण्डो-ग्रीक अथवा इण्डो-यूनानी शासक वे थे जिन्होंने भारत में अपना राज्य स्थापित किया था । इतिहासकार इण्डो-ग्रीक शासकों को बैक्ट्रियाईग्रीक शासकों से भिन्न मानते हैं ।

भारत पर द्वितीय शताब्दी ई.पू. में डिमेट्रियस के नेतृत्व में आक्रमण हुआ था |

यूनानी लेखक स्ट्रेबो के अतिरिक्त गार्गी संहिता के “युग-पुराण” खण्ड के अंतर्गत साकेत (अयोध्या) पांचाल, मथुरा एवं कुसुम ध्वज (पाटलिपुत्र) में मौर्य शासक शालिशूक के राज्यकाल में ग्रीक (यूनानी) आक्रमणों का उल्लेख हैं ।

पतंजलि के महाभाष्य में साकेत के अतिरिक्त मध्यमिका (चित्तौड़) पर यूनानी आक्रमण का वर्णन है । यद्यपि डिमेट्रियस (190 – 165 ई.पू.) के मध्य देश के अभियान तो बैक्ट्रिया में यूक्रेटाइडीज के विद्रोह के कारण विफल रहे तथापि उत्तरपश्चिमी भारत, पश्चिमी पंजाब तथा सिंध के क्षेत्रों में वह अपना आधिपत्य स्थापित करने में सफल रहा ।

अपोलोडोटस और स्ट्रेबो के अनुसार इण्डो-ग्रीक सत्ता का विस्तार सिंधु-घाटी के दक्षिणी भाग एवं सौराष्ट्र (काठियावाड़) तक हो गया था ।

डिमेट्रियस के उपरान्त यूक्रेटाइडीज (165- 150 ई.पू.) ने भारत में काबुल, गान्धार, एरिया, एराकोशिया और इंजियाना विजिट कर ‘यूक्रेटाइडिया’ नगर बसाया ।

जस्टिन के अनुसार सीस्तान, पैरो पेनिसिडाई तथा कपिशा प्रदेश भी उसके अधिकार में थे । जो उसने डिमेट्रियस और उसके वंशजों से जीते थे । यहाँ से उसके सिक्के प्राप्त हुए हैं ।

मिनाण्डर (155 – 130 ई.पू.) सर्वप्रथम महत्वपूर्ण इण्डो-ग्रीक शासक था, जिसका विवरण न केवल स्ट्रेबो, टोगस प्लूटार्क और जस्टिन ने दिया है वरन् प्राचीन पालि साहित्य में भी उसकी चर्चा है ।

मिनाण्डर की साम्यता नागसेन कृत मिलिन्द-प्रश्न (मिलिन्द-पहो) एवं क्षेमेन्द्र कृत अवदान-कल्पलता के मिलिन्द से स्थापित की जाती है |

उसका साम्राज्य काबुल और सिंधु-घाटी से मथुरा-कन्नौज तक विस्तृत था । राजपूताना और काठियावाड़ भी उसके राज्य में थे ।

. इन क्षेत्रों से प्राप्त उसके सिक्कों से उसके राज्य-विस्तार के अतिरिक्त उसका बौद्ध धर्मानुयायी होना भी प्रमाणित होता है।

एंटिआलकिडस के विषय में उसके सिक्कों के अतिरिक्त उसके दूत हेलिओडोरस द्वारा विदिशा में स्थापित गरूड़-ध्वज विष्णु-स्तम्भ लेख से जानकारी प्राप्त होती है ।

इसका राज्य हिदूकुश पर्वत से तक्षशिला तक विस्तृत बताया जाता है। इसे यूक्रेटाइडीज का वंशज माना जाता

एंटिआलकिडस के निर्बल उत्तराधिकारियों आर्चबियस एवं हर्मियस के समय भारत में शक और कुषाणों के आक्रमण आरंभ हो गए थे ।

फलत: शनै: शनै: इण्डोग्रीक सत्ता अवसान की ओर बढ़ चली । यद्यपि सातवाहन शासकों के साथ संघर्ष तथा कालिदास के ‘रघुवंश’ में इनके उल्लेख इनकी परवर्ती उपस्थिति सिद्ध करते हैं तथापि गुप्तकाल तक इनका अस्तित्व समाप्त हो गया ।

4 शुंग वंश का उद्भव – पुष्प मित्र शुंग

शुंग

मौर्य सम्राट बृहद्रथ का 185-184 ई.पू. में वध कर उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा मगध में शुंग वंश की राज-सत्ता स्थापित की गई ।

शुंग वंश के इतिहास के मुख्य स्रोत पुराण, हर्ष चरित, मालविकाग्निमित्रम् गार्गी संहिता, महाभाष्य, दिव्यावदान, आर्यमंजुश्री मूलकल्प और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के विवरण रहे हैं ।

पुष्ट मित्र शुंग (184-148 ई.पू.) ने पूर्व में मौर्य-साम्राज्य के अंग रहे विदर्भ प्रदेश को अपने पुत्र अग्निमित्र की वीरता से पुनर्विजित किया ।

अग्निमित्र के शासनकाल में साकेत और मध्यमिका पर हुए यूनानी आक्रमणों तथा सिंधु नदी के दक्षिणी तट पर यज्ञीय अश्वसेना के साथ वसुमित्र से संघर्ष का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य तथा कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में हुआ है ।

संभवत: इन आक्रमणों को उसके द्वारा अवरूद्ध कर दिया गया था । पुष्यमित्र ने मौर्य शासकों के बौद्ध धर्म के प्रति विशेष अनुराग की प्रतिक्रिया में वैदिक धर्म के पुनरूत्थान के प्रतीक रूप अश्वमेध यज्ञ का आयोजन पतंजलि के पौरोहित्य में किया ।

संभवत: उसने दो अश्वमेध यज्ञ किए । प्रथम राज्याभिषेक के पश्चात् तथा द्वितीय यूनानी सेनाओं को पराजित करने के उपलक्ष्य में ।

पुष्यमित्र यद्यपि मौर्य-साम्राज्य के पूर्व गौरव को तो पुनर्स्थापित नहीं कर पाया तथापि उसने अपना साम्राज्य बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश तथा महाराष्ट्र तक विस्तृत किया ।

बौद्ध साहित्य के अंतर्गत पुष्यमित्र को बौद्ध धर्म का विरोधी तथा बौद्धों का उत्पीड़क निर्दिष्ट करते हुए उसे बौद्ध भिक्षुओं का हन्ता एवं स्तूपविहारों का भंजक बताया गया है ।

परन्तु तटस्थ विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अत्याचार के स्थल बताए गए क्षेत्र उसके साम्राज्य में ही नहीं थे ।

साथ ही उसके काल में साँची और भरहुत के स्तूपों के चारों ओर अलंकृत प्रवेश द्वारों तथा रेलिंग का निर्माण कराया गया था, तब विध्वंस का आरोप विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता ।

संभवत: ये आरोप मौर्य काल में प्राप्त राज्याश्रय छिन जाने से बौद्धों में शुंगों के प्रति उत्पन्न

द्वेष का ही परिणाम रहे हों अथवा सीमान्त क्षेत्रों में बौद्धों द्वारा यूनानियों को समर्थन रूपी देशद्रोह से कुपित पुष्यमित्र द्वारा दिए गए दंड को अतिरंजित रूप से प्रस्तुत किया गया हो ।

वस्तुत: वैदिक धर्म के प्रति झुकाव के बावजूद उसने अपने साम्राज्य के केन्द्र में बौद्ध धर्म के प्रति दुर्भावना का परिचय नहीं दिया ।

पुष्यमित्र के पश्चात् उसके नौ वंशजो अग्निमित्र, सुज्येष्ठ, वसुमित्र, आन्ध्रक, पुलिंदक, घोष, वज़मित्र, भागवत तथा देवभूति ने क्रमश: प्राय: 76 वर्ष राज्य किया ।

देवभूति अपने ब्राह्मण मंत्री वासुदेव कण्व के द्वारा 72 ई.पू. में मारा गया । उसके द्वारा संस्थापित कण्व वंश के चार शासकों-वासुदेव भूमिमित्र, नारायण और सुशर्मा ने प्राय: 45 वर्ष शासन किया ।

कण्व वंश का अंत आंध्रों (सातवाहन) द्वारा 27 ई.पू. में मगध पर अधिकार के साथ हो गया ।

5 विभिन्न क्षेत्रों के शक क्षेत्रप – रूद्रदामन

शक

शकों का मूल स्थान मध्य एशिया का सीथिया प्रदेश था ।

यहाँ युइचि जाति से परास्त होकर शक पहल्वों को पराजित करते हुए बोलन दर्रे को पार कर सिंधुघाटी के अन्तर्गत पश्चिमी भारत में बस गये |

भारतीय साहित्य में रामायण, महाभारत, हरिवंश पुराण एवं पतंजलि कृत महाभाष्य में शकों का उल्लेख यवन, कम्बोज, पहल्व, बर्बर और किरात जातियों के साथ हुआ है |

मध्यकालीन जैन ग्रंथ “कालका चार्य कथानक” के अन्तर्गत शकों द्वारा दक्षिणी गुजरात के राजाओं की सहायता से उज्जयिनी के शासक गर्दभिल्ल को हराकर बन्दी बनाने एव 14 वर्ष पश्चात् गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा शकों को मालवा से भगाकर 57 ई. पू. में विक्रम संवत् प्रवर्तित करने का वर्णन है ।

भारत में शकों की चार शाखाओं ने अपने प्रभाव क्षेत्र स्थापित किए |

उत्तरी भारत में पंजाब की शक शाखा का प्रथम शासक मोअ (20 ई.पू से 5 ई.पू) को माना जाता है ।

‘मोअ’ का समीकरण तक्षशिला ताम्र पत्र के ‘मोअ’ से किया जाता है । संभवत: वह पहलवों का अधीनस्थ था किन्तु बाद में स्वतंत्र हो जाने के कारण सिक्कों में उसे ‘महाराज’ कहा गया।

सिक्कों के आधार पर उसका राज्य पुष्कलावती से तक्षशिला तथा कपिशा तक विस्तृत माना जा सकता है ।

मोअ के उत्तराधिकारी क्रमश: अय-I (एजेस), अयिलिष (एजेलिसीज) और अय- || बताए जाते हैं ।

जिन्होंने 5 ई.पू. से 79 ई. तक शासन किया । पहृवा ने तक्षशिला में इनका शासन समाप्त कर दिया ।

मथुरा मोअ के काल में ही शक क्षत्रपों का केन्द्र बन चुकी थी ।

रजुबुल यहाँ का प्रथम शक शासक था, जिसने पहले क्षत्रप और बाद में महाक्षत्रप के रूप में राज्य किया था ।

इसका उत्तराधिकारी शोडास था । इसी प्रकार यहाँ प्राप्त सिक्कों से हगान तथा हगामश नामक क्षत्रपों की जानकारी होती है ।

शिव घोष एवं शिवदत्त नामक दो अन्य क्षत्रपों के सिक्के भी मथुरा क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं जिससे अनुमान होता है कि इन क्षत्रपों ने ब्राह्मण धर्म अंगीकार कर लिया था |

कुषाणों ने 78 ई. के लगभग मथुरा के शकों का अन्त कर दिया ।

पश्चिमी भारत में शक-शासन का प्रथम उल्लेख पेरिप्लस ऑव दि एरिन्थ्रियन सी (70 80 ई.) में प्राप्त होता है ।

इसके अनुसार सीस्तान (शकस्थान) से शकों के पश्चिमी भारत में बस जाने के कारण सिंधु नदी की निचली घाटी को भारतीय शकस्थान कहा जाने लगा ।

इसकी राजधानी मीननगर सिंधु के तट पर समुद्र से कुछ दूर स्थित थी । प्रथम शताब्दी ई. मे यहाँ मम्बारस नामक क्षत्रप का राज्य था ।

इसके राज्य के सिन्ध, काठियावाड़, कच्छ और राजस्थान के कुछ भागों से प्राप्त सिक्कों से ज्ञात होता है कि इन प्रदेशों पर शक क्षत्रपों के क्षहरात तथा कार्दमक दो वंशों ने राज्य किया था।

मम्बारस के वंश अथवा उसकी स्वतंत्रता का अन्त कुषाणों द्वारा कर दिये जाने के कारण क्षहरात वंशी क्षत्रपों ने संभवत: कनिष्क- |

तथा उसके वंशजों की अधीनता में सौराष्ट्र पर शासन किया था |

क्षहरात वंश के दो शासक भूमक और नहपान ही ज्ञात भूमक के सिंध, सौराष्ट्र, मालवा और राजस्थान से ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों में अंकित सिक्कों की उपलब्धि से उसका राज्य इन क्षेत्रों में माना जाता है ।

इन सिक्कों के अग्र भाग पर बाण, चक्र और वज़ के चिह्न एवं पृष्ठ भाग पर अंकित लेख “क्षहरातस क्षत्रप अक” के साथ-साथ धर्मचक्र सहित सिंह शीर्ष से विदित होता है कि उसने ये सिक्के क्षत्रप के रूप में ही जारी किये थे ।

क्षहरात वंश के द्वितीय शासक नहपान (119- 125 ई.) का भूमक के साथ संबंध अज्ञात है ।

उसे आरंभिक लेखों में क्षत्रप तथा 46 वें वर्ष के लेख में ‘महाक्षत्रप’ बताया गया है ।

उसके दामाद उषवदात के दान-अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसका राज्य दक्षिणी गुजरात, भड़ौच से सोपारा, नासिक और पूना, सुराष्ट्र, कुकर, दक्षिणी राजस्थान, आकर, अवन्ति, मध्य राजस्थान, अजमेर-पुष्कर तक विस्तृत था ।

उसकी राजधानी पूर्वोक्त्त मीननगर के अतिरिक्त दशपुर और भृगुकच्छ भी बताई जाती हैं ।

पेरिप्लस के अनुसार भृगुकच्छ पश्चिमी देशों के साथ व्यापार का बड़ा बन्दरगाह था । यहाँ निर्यात हेतु पैठन, टेर तथा उज्जैन से सामान पहुँचता था ।

विदेशों से चाँदी के सुंदर बहु मूल्य पात्र रूपवती कुमारियाँ, उत्कृष्ट मदिरा, महीन वस्त्र आदि भोग-विलास की सामग्रियों का आयात किया जाता था |

नहपान के राज्य का अन्त सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा 125 ई. में हुआ |

पश्चिमी भारत में क्षहरात वंश के पतन के पश्चात् शक क्षत्रपों का पुनरूत्थान कार्दमक वंश के शकों ने किया ।

इसके संस्थापक यसमोतिक के पुत्र महाक्षत्रप चष्टन (125- 145 ई.) ने उज्जयिनी एवं काठियावाड़ में स्वतंत्र शक राज्य की स्थापना की ।

इसने वंश की परंपरा के अनुरूप अपने पुत्र जयदामन को क्षत्रप बनाकर सहशासक बनाया |

किन्तु जयदामन की मृत्यु हो जाने पर चष्टन ने अपने पौत्र रूद्रदामन को क्षत्रप नियुक्त कर संयुक्त रूप से शासन किया ।

चष्टन एक मात्र शासक था जिसके सिक्कों के अन्तर्गत यूनानी, खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि का प्रयोग हुआ ।

रूद्रदामन (145- 170 ई.) के इतिहास का शान जूनागढ़ अभिलेख (150 ई.) से होता है ।

जिसके अंतर्गत रुद्रदामन द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य के गवर्नर पुष्यगुप्त द्वारा गिरनार की पर्वतमाला से निकलने वाली सुवर्णसिकता एवं पलाशिनी नदियों पर बाँध बनाकर निर्मित कराई गई सुदर्शन झील के जीर्णोद्वार के प्रसंग से अपनी उपलब्धियों का विवरण प्रस्तुत किया गया है ।

रूद्रदामन के प्रांतीय शासक सुविशाख ने यह कार्य सम्पन्न किया । इसका समस्त व्यय रूद्रदामन ने अपने कोष से वहन किया, प्रजा पर अतिरिक्त कर नहीं लगाये ।

जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार उसने आकर (पूर्वी मालवा) अवंति (पश्चिम मालवा) अनूप (दक्षिण मलवा) निवृत-आनर्त (उत्तरीकाठियावाड़), सुराष्ट्र (दक्षिणी काठियावाड़) श्वभ्र (साबरमती) कच्छ, मरू, सिन्दु-सौवीर, कुकुर (पश्चिमी मध्य भारत) निषाद (विन्ध्याचल) अपरान्त (उत्तरी कोंकण) और अरावली पर्वतमाला का प्रदेश विजित किया था ।

इस प्रकार उसका साम्राज्य सिंध, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र तक सम्पूर्ण मध्य एवं पश्चिमी भारत में फैला हुआ था ।

उसने दक्षिणापथपति शातकर्णि (वाशिष्ठीपुत्र शातकर्णि) को दो बार परास्त किया । साथ ही पूर्वी पंजाब के यौधेयों के गण को भी पराजित किया था ।

गिरनार अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह प्रजावत्सल तथा न्यायप्रिय जनकल्याणकारी राजा था ।

उसकी मंत्रिपरिषद अनेक सचिवों से युक्त थी एवं उसका राज्य अनेक प्रांतों में विभक्त था । उसका उत्तराधिकारी दामजद (170- 175 ई.) हुआ ।

इसके उपरान्त इसके भाई रूद्रसिंह तथा पुत्र जयदामन ने 199 ई. तक राज्य किया । अंतिम शक शासक रूद्रसिंह तृतीय था ।

जिसका संहार 388 ई. में शकारि चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य द्वारा कर शकों का उन्मूलन कर दिया गया ।

इसी प्रकार पार्थिया के निवासी पहल्व प्रथम शताब्दी ई.पू. के मध्य में भारत के सीमावर्ती सीस्तान, काबुल एवं कन्धार पर आधिपत्य स्थापित कर भारत में प्रविष्ट हुए |

वोनोनीज़ (58-18 ई.पू.) ने गांधार तथा सिंधु का क्षेत्र विजित कर “महाराजाधिराज” की उपाधि धारण की ।

उसके उत्तराधिकारी स्पैलिरिसिस के उपरांत गोण्डोफरनीज़ (28-45 ई.) ने पेशावर अभिलेख के अनुसार पश्चिमोत्तर प्रदेश में राज्य किया ।

भारत में पहलों का शासन कुषाण राजा कुजुल कद फिसस द्वारा समाप्त किया गया।

6 कुषाण साम्राज्य की स्थापना – कनिष्क – |

शुमाचियेन के चीनी इतिहास ग्रन्थ “शी-की” के अनुसार कुषाण-जाति का मूल चीन के प्राप्त कानसू की पश्चिमी सीमा की निवासी युइचि जाति से संबद्ध था ।

यह जाति हंग-नू (हूण) जाति से पराजित होकर 165 ई.पू. के लगभग दो शाखाओं में तिब्बती एवं सीर नदी की उपत्यका में पहुंच गई ।

पश्चिम की ओर बढ़ते हुए युइच लोगों ने वूसुन नामक एक अन्य घुमन्तू जाति को परास्त किया ।

किन्तु वूसुन राजा के पुत्र ने रंग-नू की सहायता से युइचि को दक्षिण-पश्चिम की ओर खदेड़ दिया । वहाँ वे शकों को पराजित कर आक्सस नदी के उत्तर में बस गये ।

इस समय तक वे घुमन्तू जीवन का परित्याग कर पाँच राज्यों में विभक्त हो गये थे ।

इनमें से एक वंश कुई-शुआंग अथवा कुषाण वंश था ।

युइचि जाति के विभाजन के सौ वर्ष से भी अधिक समय बीत जाने के पश्चात् कुई-शुआंग जाति के नायक की औ-सीओ-कि-ओ अथवा कीओ-त्सियु-कीओ ने अन्य वंशों के चारों राज्यों को विजित कर स्वयं को युइचि का वांग (राजा) घोषित किया ।

इसका तादात्म्य इतिहासकार कुषाण वश के प्रथम शासक कुजुल कदफिसस से स्थापित करते हैं ।

इसने पहल्वों को पराजित करने के समानान्तर हिन्दूकुश के पार काबुल और कपिशा पर भी अधिकार किया था ।

सिक्कों के अनुसार इण्डो-ग्रीक शासक हर्मियस से इसका सम्बन्ध था ।

शक-पहल्वों द्वारा हर्मियस की पराजय हो जाने पर इसने काबुल और कन्धार में पहल्वों का शासन समाप्त किया । इसका राज्यकाल 15 से 65 ई. का माना जाता है ।

विम कद फिसस (65-78ई.) का राज्य भारत में पंजाब से मथुरा तक विस्तृत था । इसके अतिरिक्त मध्य एशिया के अफगानिस्तान, तुर्किस्तान और बुखारा के कुछ प्रदेश भी उसके राज्य में सम्मिलित थे |

उसके सिक्कों पर अंकित लेख “महरजस रजदिरजस सर्वलोग ईश्वरस महेश्वरस विमकथफिसस तरस । के अन्तर्गत उसे माहेश्वर कहे जाने एवं उसकी मुद्राओं पर त्रिशूल-नन्दी सहित शिव तथा शैव धर्म संबंधी अन्य चिह्नों के उत्कीर्णन से उसका शैव धर्मानुयायी एवं भारतीय संस्कृति। से प्रभावित होना प्रमाणित होता है ।

भारत में वह पहला शासक था जिसने प्रभूत परिमाण में स्वर्णमुद्राओं की परम्परा का प्रचलन किया | उसने ताँबे के सिक्के भी चलाये ।

कनिष्क |

(78- 102ई.) कुषाण वंश का महानतम शासक था |

भारत में उसका साम्राज्य उत्तरापथ, मध्यप्रदेश और अपरान्त तक विस्तृत था ।

पामीर के पार उसने मध्य एशिया में चीनी शासकों को परास्त कर काशगर, यारकंद तथा खोतान पर अधिकार किया ।

इस प्रकार उसका साम्राज्य पूर्व में बिहार से पश्चिम में खुरासान एव उत्तर में खोतान से दक्षिण में कोंकण तक फैला हुआ था |

उसके प्रयाग सारनाथ, बहावलपुर, रावलपिंडी, मथुरा, विदिशा और काबुल में प्राप्त अभिलेखों एवं श्रावस्ती, आजमगढ़, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया, रांची, वैशाली, राजगीर और सुल्लान गंज में प्राप्त सिक्कों से उसका पूर्वोक्त्त राज्याधिकार प्रमाणित होता है ।

साथ ही कुमारलात के ग्रन्थ ‘कल्पनामण्डितिका से उसके पूर्वी भारत में विजय अभियान का विवरण मिलता है ।

बौद्ध विद्वान् अश्वघोष को वह यहाँ से साथ ले गया था | कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से उसके कश्मीर पर आधिपत्य तथा हवेनसांग की सी-यू-की’ पुष्टि होती है ।

राज्यकाल के अंतिम वर्षों में कनिष्क को चीनी सेनापति पान-चाओ से पराजित होना पड़ा ।

कनिष्क बौद्ध धर्म के कर्मठ अनुयायी और संरक्षक के रूप में विख्यात है ।

उसके अभिलेखों एवं सिक्कों के अनुसार उसने अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) में विशाल बौद्ध स्तम्भ तथा विहार का निर्माण कराया ।

यहाँ एक टीले की खुदाई में स्वर्ण के ओप वाली धातु-मंजूषा प्राप्त हुई है ।

उसने अपने गुरू पार्शव की सहमति से मूल बौद्ध ग्रंथों पर प्रामाणिक भाष्य बनाने के उद्देश्य से कश्मीर के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया ।

वसुमित्र इसका सभापति तथा अश्वघोष उपसभापति था । इस सभा में एकत्र 500 बौद्ध विद्वानों ने बौद्ध ग्रन्थों का गहन अनुशीलन कर तीनों पिटकों पर विस्तृत टीकाएं लिखीं, जिन्हें ‘महाविभाष’ नाम से संकलित किया गया ।

इस संगीति में महायान बौद्ध धर्म की व्याख्या की गई। कनिष्क बौद्ध धर्म का प्रबल पोषक होते हुए भी अशोक के समान अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति सहिष्णु और उदार था।

कनिष्क विविध कलाओं एवं विद्याओं का अनुरागी तथा संरक्षक था |

यूनानी वास्तुकार अगीसिलोस ने पुरुषपुर का प्रसिद्ध विहार बनाया । कनिष्क के काल में गान्धार और मथुरा कला शैलियों का विकास हुआ था |

उसने पुरुषपुर एवं कनिष्कपुर नगर बसाये | साथ ही अनेक विहार तथा स्तूप भी बनवाये ।

साहित्य के क्षेत्र में अश्वघोष द्वारा बुद्धचरित, ललित विस्तर एवं सौन्दरानन्द की रचना की गई । नागार्जुन ने ‘शून्यवाद’ का दार्शनिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया ।

प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य चरक ने ‘चरक-संहिता’ का प्रणयन किया । इसी प्रकार सुश्रुत ने भी सहिता की रचना की । प्रबुद्ध कूटनीतिज्ञ मथर उसका मंत्री तथा संघरक्षक राजपुरोहित थे ।

कनिष्क ने अपने साम्राज्य को अनेक प्रांतों में विभक्त कर रखा था ।

विभिन्न क्षत्रप एवं महाक्षत्रप इनके प्रशासन हेतु उत्तरदायी होते थे ।

इनमें महाक्षत्रप खरपल्लान तथा क्षत्रप वनस्पर, वेशपति और शक क्षत्रप नहपान प्रमुख थे । दण्डनायक लल भी कोई प्रांतीय शासक ही रहा होगा |

चीनी अनुश्रुतियों के अनुसार कनिष्क के सैनिक अभियानों से त्रस्त होकर उसके मंत्रियों ने उसके बीमार पड़ने पर उसे रजाई ओढ़ाकर पीट-पीट कर मार दिया ।

कनिष्क के उत्तराधिकारी वासिष्क (102-106 ई.) हु विष्क (106-138 ई.) कनिष्क- || (138-145 ई.) और वासुदेव (1 45-176 ई.) थे |

वासुदेव के काल में ही कुषाणों की शक्ति क्षीण हो गई । उत्तर-पश्चिम में सस्सेनियन शासकों ने तथा दक्षिण-पूर्व में यौधेय, कुणिन्द एवं भारशिवों ने कुषाण सत्ता को समाप्त कर दिया । वैसे गुप्त काल के आरम्भ तक उनका अस्तित्व बना रहा ।

7 दक्षिण भारत का सातवाहन वंश – गौतमी पुत्र शातकर्णी

इतिहासकारों के मतानुसार सातवाहन ब्राह्मण थे । इनका मूल स्थान महाराष्ट्र अथवा आंध्रप्रदेश था । संभवत: इसी कारण ये आन्ध्र कहलाये ।

पुराणों के उल्लेखानुसार आंध्रजातीय सिमुक अथवा सिन्धुक (27-04 ई.पू.) ने कण्व शासक सुशर्मा को मारकर राज्य-सत्ता हस्तगत की ।

उसने शुंगों को पराभूत कर दक्षिणापथ में अपना प्रभाव बढाया । सिमुक के उपरान्त उसके भाई कृष्ण (04 ई०पू. से 24 ई.) ने दक्षिण-पश्चिमी भारत में नासिक तक राज्य-विस्तार किया ।

इसके पश्चात् शातकर्णि-८ (24-42 ई.) ने मालवा तक राज्य बढ़ाते हुए दो अश्वमेध एवं एक राजसूय यज्ञ किये ।

नानाघाट अभिलेख के अनुसार उसने दक्षिणापथपति एवं ‘अप्रतिहत-चक्र’ की उपाधियाँ धारण की ।

इसके साम्राज्य में मालवा, विदर्भ, मध्यभारत, नर्मदा का दक्षिणी प्रदेश, उत्तरी कोंकण, काठियावाड़ तथा उत्तरी दकन सम्मिलित थे ।

उसके पश्चात् अनेक दुर्बल शासकों ने प्राय: 64 वर्षों तक शासन किया । इस दौरान शकों ने सातवाहनों से उत्तरी महाराष्ट्र, कोंकण, मालवा एवं सुराष्ट्र के प्रदेश छीन लिये थे ।

गौतमीपुत्र शातकर्णि (106- 130 ई.) परम प्रतापी सातवाहन शासक सिद्ध हुआ |

उसके शासनकाल की जानकारी का प्रधान स्रोत उसके पुत्र पुलुमावि के शासन के उन्नीसवें वर्ष में उत्कीर्ण गौतमी बल श्री का नासिक गुहा लेख है ।

इसके अन्तर्गत उसे शकों, पहल्वों, यवनों की शक्ति का नाशक (शक-यवन-पहल्व-निसूदनस) एवं सातवाहन वंश की कीर्ति का प्रतिष्ठापक (सातवाहन-कुल-यश-प्रतिष्ठापन-करस) कहा गया है ।

साथ ही क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाला (खतिदपमानमदनस) और क्षहरात वंश का उन्मूलक (खरखातवसनिरवसेसकरस) भी घोषित किया गया है ।

उसकी विजयों के सन्दर्भ में उसे युद्ध. में अनेक शत्रुओं का विजेता (अनेक समराविजित शत्रुसंघस्य), अपराजित (अपराजतविजयपताक:) तथा जिसके वाहनों ने तीनों समुद्रों का जल पिया, (त्रिसमुद्रतोयपीतवाहनस्य) इत्यादि विशेषणों से अलंकृत किया गया है ।

नासिक अभिलेख के अनुसार उसके साम्राज्य में असिक (कृष्णा तट का प्रदेश) अश्मक, मूलक, विदर्भ, सुराष्ट्र (दक्षिणी काठियावाड़), अपरान्त (उत्तरी कोंकण), अनूप (महिष्मती), कुकुर, आकर-अवंति (पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा) विन्ध्य, ऋक्षवत् (दक्षिणी मालवा) पारियात्र (पश्चिमीविंध्य), सह्य (पश्चिमी घाट), मलय और महेन्द्र (पूर्वी घाट) आदि प्रदेश थे ।

इस प्रकार वह उत्तर में सुराष्ट्र एवं मालवा से दक्षिण में कृष्णा नदी और पूर्व में विदर्भ तथा महेन्द्र से पश्चिम में कोंकण तक विस्तृत भूभाग का स्वामी था ।

उसने पूर्व में सातवाहनों का पराभव करने वाले क्षहरातों पर विजय प्राप्त कर कुल की शक्ति की पुनर्प्रतिष्ठा की ।

जैन लेखक जिनदासगणि के अनुसार गौतमी पुत्र शातकर्णि ने महाक्षत्रप नहपान की राजधानी भृगुकच्छ पर 125 ई. में आक्रमण कर उसे पराजित किया ।

इसकी पुष्टि नासिक अभिलेख के अतिरिक्त जोगल थम्बी से उपलब्ध 13250 सिक्कों में से नहपान के 9270 सिक्कों से भी होती है ।

जिन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णि ने पुनर्मुद्रित करवाकर अपना नाम अंकित कराया था । उसने क्षहरात शकों के साथ पंजाब और सिन्ध में अवस्थित यूनानियों तथा पहलों को भी परास्त किया था ।

पुलुमावि एवं गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख के अन्तर्गत गौतमी पुत्र शातकर्णि के कृतित्व के समानान्तर व्यक्तित्व का भी विशद विवेचन हुआ है ।

वह धर्मानुसार शासन करते हुए शास्त्र विहित कर लगाता था । उसने राज्य में वर्ण व्यवस्था को बनाये रखने एवं वर्ण संकरता को रोकने का प्रयास किया |

उसने ‘वर वरण विक्रम चारू विक्रम’ की उपाधि धारण की । कतिपय इतिहास विदों ने इस उपाधि के आधार पर उसे जननायक सम्राट विक्रमादित्य माना है किन्तु कालक्रम एवं अन्य विसंगतियों के कारण उसे जनश्रुतियों का विक्रमादित्य मानना उचित प्रतीत नहीं होता ।

उसका उत्तराधिकारी वाशिष्ठी पुत्र पुलुभावि (130-159 ई.) था ।

उसके काल में सातवाहनों के सैनिक तथा व्यापारिक क्षेत्र में सामुद्रिक रूचि बढ़ने के निर्देश प्राप्त होते हैं ।

जिसकी पुष्टि कोरो मंडल तट से पुलुमावि की मस्तूल वाले जहाज से अंकित मुद्राओं से होती है ।

संभवत: गौतमी पुत्र शातकर्णि के निधन के तुरन्त पश्चात् कार्दमक शकों ने सातवाहन साम्राज्य के उत्तरी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था ।

रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रूद्रदामन ने नहपान द्वारा हारे नासिक और पूना के अतिरिक्त समस्त प्रदेश दक्षिणापथपति शातकर्णि से जीत लिये थे एवं निकट संबंधी होने के कारण उसे छोड़ दिया था ।

कन्हेरी अभिलेख के अनुसार वाशिष्ठी पुत्र शातकर्णि महाक्षत्रप रूद्रदामन का दामाद था । साथ ही वह वाशिष्ठी पुत्र पुलुमावि का भाई था ।

सातवाहन राज्य के उत्तरी प्राप्त शकों के हाथ गंवाने के बावजूद पुलुमावि ने बेल्लारी तथा कृष्णा नदी मुहाने का प्रदेश राज्य में सम्मिलित कर लिया ।

उसके पश्चात् वाशिष्ठी पुत्र शिव श्री शातकर्णि (159- 167 ई.) ने राज्य को कृष्णा और गोदावरी क्षेत्र तक विस्तृत किया।

इसी का विवाह रूद्रदामन की पुत्री से हुआ था । तत्पश्चात् क्रमश: स्कन्ध शातकर्णि (167- 174 ई.) एवं यज्ञ श्री शातकर्णि (174-203 ई.) सतारूढ़ हुए |

यज्ञश्री के कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र, विदर्भ, मालवा, उत्तरी कोंकण, सोपारा, सौराष्ट्र तथा बड़ौदा से प्राप्त सिक्कों से विदित होता है कि उसके उपरांत, पश्चिमी भारत एवं नर्मदा-घाटी के अन्तर्गत शक-शक्ति का उन्मूलन कर दिया था ।

उसका राज्य दक्षिणापथ में पूर्व तथा पश्चिम पाश्र्यों के मध्य विस्तीर्ण था ।

यज्ञ श्री के पश्चात् राजकुल के अनेक वंशजों के मध्य सातवाहन-साम्राज्य विभाजित हो गया ।

इसके समानान्तर पश्चिम में नासिक प्रदेश में आभीरों, ने पूर्व के कृष्णा और गुण्टूर क्षेत्र में इक्ष्वाकुओं ने, दक्षिण-पश्चिम के कुन्तल प्रान्त पर चुटु वंश ने एवं दक्षिण-पूर्वी भाग में पल्लवों ने स्वतंत्र सत्ता की स्थापना की ।

सातवाहन वंश का अन्तिम शासक पुलुमावि चतुर्थ (219-227 ई.) था । इस प्रकार तीसरी शताब्दी ई. के पूर्वार्द्ध में सातवाहन वंश अवसान को प्राप्त हुआ |

सातवाहन वश के राजनीतिक इतिहास के समानान्तर सांस्कृतिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में हाल (80-85 ई.) का विशिष्ट स्थान रहा है ।

उसे गाहासतसई (गाथासप्तशती) का रचयिता माना जाता है । उसके काल में गुणाढ्य ने पैशाची भाषा में “बृहत्कथा” का सृजन किया ।

8 तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति

द्वितीय शताब्दी ई.पू. से गुप्त वंश के अभ्युदय तक प्राय: पाँच सौ वर्ष का समय दो युगों में विभक्त किया जा सकता है ।

प्रथम युग में जहाँ विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारत में साम्राज्य स्थापित किये गये । वहीं द्वितीय युग भारतीयों द्वारा विदेशी सत्ता का अन्त कर धर्म और संस्कृति की पुन: प्रतिष्ठा का था ।

इसी प्रकार यह काल विदेशी जातियों के कारण परम्परागत सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत समुत्पन्न विक्षोभ, संकट एवं समाधान के समानान्तर व्यावसायिक-सांस्कृतिक उन्नति-समृद्धि तथा अभिनव प्रवृत्तियों के विकास का काल था ।

भारत में विदेशियों के बस जाने और आर्थिक विकास के कारण अनेक नवीन व्यवसायों से संबद्ध अनार्य जातियाँ यहाँ के समाज में प्रविष्ट हो वर्णाश्रम व्यवस्था के विश्रृंखलन का संकट उत्पन्न करने लगी ।

गार्गीसंहिता महाभारत एवं पुराणों में इसके प्रति निराशा तथा चिन्ता का भाव व्यक्त किया गया है ।

ऐसी संक्रमण युक्त अवस्था में मनु तथा याज्ञवल्क्य सरीखे स्मृतिकारों ने मूल वर्णव्यवस्था की परिधि के अन्तर्गत विदेशी एवं नवअस्तित्वमान जातियों को समाविष्ट कर सामाजिक नियमों का प्रतिपादन किया ।

यद्यपि वर्गों का निरूपण सैद्धान्तिक रूप से गुण-कर्मानुसार होता था तथापि व्यवहारत: जन्म से वर्ण का निर्धारण होने के कारण वर्ण ‘जाति’ के रूप में मान्य हुए |

चतुर्वर्ण के मौलिक ढाँचे से बाहर इन जातियों को वर्णसंकरता जन्य घोषित कर जात्युत्कर्ष तथा जात्यपकर्ष के सिद्धान्त से संयुक्त करते हुए वैधानिकता प्रदान की गई । इस युग में अस्पृश्यता मात्र चाण्डालों और समकक्ष जातियों तक ही सीमित थी ।

समकालीन भारतीय समाज की रूढ़िमुक्त एवं विदेशी जातियों को आत्मसात् करने की प्रवृत्ति का समुचित प्रत्युत्तर प्रदान करते हुए इन जाति-समूहों ने अपनी भाषा-लिपि तथा देवी देवताओं के समानान्तर भारतीय भाषा-लिपि (ब्राह्मी खरोष्ठी) एवं वैदिक देवताओं और बुद्ध को जीवन-व्यवहार में अपनाया ।

यथा- हेलियोडोरस विमकदफिसस, कनिष्क, नहपान एवं मिनाण्डर का क्रमश: भागवत, शैव तथा बौद्ध धर्म का अनुगमन करना ।

योनक धर्मदेव के पुत्र इन्द्राग्निदत्त, यवन सिंहवाय शक उषवदात तथा उसके पुत्र मितदेवगणक यवन हरिल और चिट द्वारा बौद्ध संघों को अनेक दान दिये गये ।

यूनानियों के समानान्तर शक, कुषाण एवं पहल्व, भी भारतीय समाज-संस्कृति में विलीन हो गए | शक शासक कालान्तर में यूनानी पंचांग के स्थान पर भारतीय पंचांग के अनुसार पक्षों तथा महीनों का प्रयोग करने लगे थे ।

इसी प्रकार शक कुषाण, राजाओं के सिक्कों पर भारतीय चिह्नों एवं देवी-देवताओं का अंकन भारतीय नामों को अपनाना तथा सातवाहन और इक्ष्वाकु वंशी राजाओं के साथ वैवाहिक संबंध (इक्ष्वाकु वंशी राजा वीर पुरुषदत्त की पटरानी रूद्रभट्टारिका उज्जयिनी के शक शासक की पुत्री थी ।)

इन विदेशी जातियों के भारतीयकरण के उदाहरण हैं |

इस युग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता प्रचलित धर्मो के अंतर्गत अभिनव विचार-दृष्टि एवं नूतन तत्वों का उन्मेष है।

भागवत, शैव तथा महायान सम्प्रदायों का उद्भव इस तथ्य को प्रमाणित करता है । वस्तुत: यह काल वैदिक धर्म की रूढ़ियों के विरूद्ध हुई जैन बौद्ध क्रांतियों के प्रति अपने सिद्धांतों की पुनव्यख्यिा कर वैदिक धर्म द्वारा की गई प्रति क्रान्ति का था ।

इसके फलस्वरूप ज्ञान और कर्मकाण्ड प्रधान धर्म ने भक्ति प्रधान वैष्णव तथा शैव सम्प्रदायों का स्वरूप ग्रहण कर लिया ।

जो पर्याप्त लोकप्रिय सिद्ध हुए | बौद्ध धर्म में यही भूमिका महायान सम्प्रदाय ने निभाई।

साहित्य के क्षेत्र में सर्वांगीण उत्कर्ष के इस युग में संस्कृत और प्राकृत के समानान्तर संगम साहित्य के रूप में तमिल में भी कालजयी कृतियों की रचना हुई ।

पतंजलि अश्वघोष, भास, शूद्रक, चरक, सुश्रुत, वात्स्यायन, नागार्जुन, वसुबंधु, नागसेन, हाल और गुणाढ्य इस काल के प्रमुख रचनाकार थे ।

षड दर्शन के सिद्धान्तों का सुव्यवस्थित संकलन, विविध स्मृतियों का प्रणयन, वैज्ञानिक एवं लौकिक साहित्य का सृजन इस काल की विशेषता थे ।

रामायण, महाभारत और पुराणों के अनेक अंशों की रचना भी इसी काल में हुई बताई जाती है ।

__ कला के अन्तर्गत गांधार तथा मथुरा शैलियों के उद्भव के समानान्तर काष्ठ के स्थान पर प्रस्तर-शिल्प विशेषत: पर्वतों की शिलाओं को काटकर गुफा, चैत्य, विहार एवं संघारामों के निर्माण की कला का विकास इसी युग की देन है ।

बुद्ध के साथ-साथ ब्राह्मण और जैन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इस काल में प्रचुर परिमाण में निर्मित हुई ।

पूर्व कालीन मौर्यकला का राजकीय स्वरूप अब शुंग सातवाहन तथा कुषाण कला के अन्तर्गत जनजीवन की झाँकी के प्रस्तुतीकरण का आधार बन गया ।

साँची और भरहुत के स्पूत, कार्ले का चैत्य तथा महाराष्ट्र-उड़ीसा की अलंकृत गुफाएं इसी के उदाहरण है |

युगीन मथुरा कला शैली जहाँ आदर्शवादी थी वहीं गांधार कला शैली यथार्थवादी ।

अमरावती की शिल्पकला के अंतर्गत मानव-मूर्तियों के उत्कीर्णन से समकालीन लोक जीवन प्रतिबिंबित हुआ है ।