1857 ई. का प्रथम स्वतंत्राता संग्राम भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। अधिकांश अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे ‘‘सैनिक विद्रोह’’ या ‘‘गदर’’ ही माना है जो उचित नही है। यह सही है कि इस संग्राम का प्रमुख कारण सैनिक असंतोष था। लेकिन वास्तविकता यह है कि अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का एक सामूहिक संग्राम था। राजस्थान मे भी अनेक स्थानों पर अंग्रेजों को संघर्ष करना पड़ा।
1857 ई. के स्वतंत्राता संग्राम की पृष्ठभूमि एवं कारण
राजस्थान मे 1857 ई. की स्वतंत्राता संग्राम के अध्ययन से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि का अवलोकन किया जाना आवश्यक है। वस्तुतः यह संघर्ष 1818 ई. तक राजस्थान मे अंग्रेजी हस्तक्षेप तथा सर्वोपरिता की नीति का परिणाम था।
आपसी विवादो मे मध्यस्थता- 1818 ई. की संधि मे यह निश्चित किया गया था कि राज्यों के आपसी विवादो का निपटारा कंपनी सरकार ही करेगी। यह धारा राज्यों पर कंपनी की सार्वभौम सत्ता तथा राज्यों की अधीनस्थ स्थिति को प्रमाणित करती है। यदि किसी शासक ने इसका उल्लंघन किया तो उसके विरुद्ध सख्त कदम उठाये गये।
राजा तथा सामंतो का विवाद– 1818 ई. संधि के बाद राजाओं को सामंतों की सैनिक सेवा की आवश्यकता नही रही। अतः राजाओं ने सामंतों की शक्ति को नष्ट करना तथा उनकी जागीरे खालसा करना आरंभ कर दिया। ऐसी स्थिति मे सामंतों को अस्तित्व रक्षा हेतु अंग्रेजो की शरण मे आना पड़ा।
यद्यपि 1818 ई. की संधि् मे कंपनी सरकार स्पष्ट रूप से आंतरिक मामलों मे हस्तक्षेप नही करने का वचन किया था। लेकिन नरेशों तथा सामंतों के बीच विवादों ने अंग्रेजों को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान कर दिया। अंग्रेजों ने राजा तथा सामंतों मे से जो पक्ष अंग्रेजों के हितो के अनुकूल था उसी का पक्ष लिया। अंग्रेजो ने कोटा राज्य से की गई संधि् में झाला जालिम सिंह तथा उसके वंशजों को संपूर्ण सत्ता सौंप कर गृहयुद्ध के बीज बो दिये। उन्होने 1838 ई. मे अपने कृपा पात्रा मदन सिंह झाला के लिए कोटा राज्य
का अंग-भंग कर अलग झालावाड़ राज्य की स्थापना कर दी। इस नीति ने कोटा राज्य के जन साधरण को अंग्रेजो का शत्रा बना दिया।
उत्तराध्किर विवाद– अंग्रेजों की सर्वोच्चता प्रदर्शित करने की भावना राजस्थान के राज्यों मे होने वाले उत्तराध्किर विवादों मे दिखाई पड़ती है। जहां कही भी इस प्रकार का विवाद उत्पन्न होता या गोद लेने के लिए अनुमति का प्रश्न उठता, कंपनी सरकार ने वहां अपना हस्तक्षेप कर दिया।
1823 ई. में भरतपुर के राजा रणवीर सिंह की मृत्यु हो गयी. उसका कोइ पुत्र न होने के कारण उत्तराध्किर का विवाद उत्पन्न हो गया। सामंतों के समर्थन से दुर्जनशाल गद्दी पर बैठा किन्तु अंग्रेजों ने अपने स्वार्थो के कारण बलवत सिंह का पक्ष लेकर उसे गद्दी पर बिठा दिया तथा वैध् उत्तराध्किरी दुर्जनशाल बंदी बना लिया गया। 1815 ई. मे जब अलंवर का राजा बख्तावर सिंह की मृत्यु हो गई तब अंग्रेजों ने हस्तक्षेप करके राजसिंहासन बनेसिंह को दे दिया तथा प्रशासन बलवंत सिंह को दिलवा दिया। यही नही 1826 ईमे अंग्रेजो ने राज्य का विभाजन कर तिजारा बलवंत सिंह को दिलवा दिया। अंग्रेजों ने जयपुर के राजा रामसिंह की अल्पवयस्कता के काल मे सर्वोच्चता का तर्क देकर अपना नियंत्राण स्थापित कर लिया। स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने सर्वापरिता की आड मे अपने स्वार्थों की पूर्ति मात्रा की थी, जिससे उनके प्रति असंतोष बढता जा रहा था।
वार्षिक खिराज- 1818 ई. की संधि द्वारा प्रत्येक राज्य द्वारा अंग्रेजों को दी जाने वाली वार्षिक खिराज की राशि निर्धरित कर दी गई थी, यह खिराज अंग्रेजों ने राज्य के संसाध्नों का आंकलन किए बिना मनमाने तरीके से निर्धरित किया था। खिराज तो मराठों द्वारा भी लिया जाता था। लेकिन वह राज्य की स्थिति के अनुसार तथा किश्तों मे लिया जाता था। जबकि कंपनी सरकार खिराज निर्धरित समय पर नकद ही लेती थी।
वास्तव में खिराज अंग्रेजी सर्वोच्चता तथा देशी राज्यों की अधीनता का सूचक था। कम्पनी के अधिकारियोंने बलपूर्वक इसे वसूल भी किया। जिसके कारण राजस्थान का जनमानस अंग्रेजों से घृणा करने लगा।
अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित सेना का गठन– 1818 ई. की संधि मे आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता दिया जाना निश्चय कियागया था, लेकि न कंपनी ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये देशी राज्यों को अंग्रेज अधिकारियोंद्वारा नियंत्रित सेना रखने हेतु बाध्य किया। कोटा कंटिनजेंट, जोधपुर लीजन, मेवाड-भील कोर आदि इसी प्रकार की पलटने थी। इस सेना का खर्च भी राजस्थान के राज्यों पर ही थोप दिया गया।
राजस्थान के शासकों का इन सेवाओं पर कोई नियंत्राण नही था। इन सेनाओं मे राजस्थान की आदिवासी तथा लडाकू जातियों को भर्ती किया गया। इस प्रकार अंग्रेजों ने इन जातियों को अपने प्रति स्वामी भक्त बना लिया। यही नही इस सेनाओं की छावनी सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों पर स्थापित की गई। इस नीति के कारण सांमती सेना अनुपयोगी हो गई तथा बेरोजगारी बढ़ने लगी।
कंपनी सरकार के अधिकारी– राजस्थान मे अंग्रेजों ने अपना नियंत्राण स्थापित करने की दृष्टि से अजमेर मे ए.जी.जी. की नियुक्ति की गई समस्त राजस्थान के राज्य इसके अधीन थे। इसे 13 तोपों की सलामी दी जाती थी। इसका दर्जा जोधपुर तथा जयपुर के शासकों से भी ऊपर था।
ए.जी.जी. के अधीन विभिन्न राज्यों मे पोलिटिकल ऐजेन्ट थे। पोलिटिकल ऐजेन्ट तथा राज्य के बीच ऐजन्सी वकील होता था। ये सभी अधिकारी राज्यां के आंतरिक मामलो मे हस्तक्षेप करते थे। अनेक बार इन्होने राजा के विरुद्धषड़यंत्रा तथा गुटबंदी को भी प्रोत्साहित किया। राजस्थान की जनता ब्रिटिश सर्वोपरिता के प्रतीक कंपनी के इन प्रतिनिध्यिं से घृणा करने लगी थी।
साम्राज्यवादी आर्थिक शोषण– राजनीतिक अराजकता के बाद भी 18वीं सदी का उत्तरा(र् राजस्थान के लिए आर्थिक सम्पन्नता का युग था। मरूभूमि वाले राज्यों को व्यापारिक मार्गों के कारण पर्याप्त आय होती थी। मध्य एशिया से उत्तर-पश्चिम भारत होकर पश्चिम समुन्द्र तटो तक व्यापारिक मार्ग राजस्थान से गुजरते थे। आगरा से राजस्थान होकर सिंध् का मार्ग प्रमुख व्यापारिक मार्ग था।
प्रत्येक राज्य मे महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग थे।
राजस्थान से नमक, अफीम, रूई बड़ी मात्रा मे निर्यात होती थी। कर्नल टॉड स्वयं लिखते है कि यूरोप तथा कश्मीर की वस्तुएं मेवाड मे सुलभ थी। जैसलमेर जैसे मरूभूमि मे स्थित राज्य को पारगमन से 3 लाख रूपये वार्षिक आय होती थी। व्यापारी राजा तथा जागीरदारों को आवश्यकता होने पर धन उधर देते थे। हुण्डियों द्वारा धन भेजा जाता था। चुरू के मिर्जामल पोतदार की दिल्ली शाखा एक वर्ष मे 5000 हुण्डियों का लेनदेन करती थी।
1818 की संधि के बाद अंग्रेजी आर्थिक नीति ने राजस्थान के आर्थिक, व्यापारिक ढांचे का सर्वनाश कर दिया। अंग्रेज सरकार ने पारगमन व्यापार अंग्रेजी क्षेत्रा के व्यापार मार्गो से किए जाने की दिशा मे कार्य किये। इससे राजस्थान मे अंग्रेजी सामान की खपत बढ़ गई। दूसरा, इससे अंग्रेजों की व्यापारिक करों से आय बढ़ गई। अंग्रेजों ने राजस्थान से अंग्रेजी क्षेत्रा मे आने वाले माल पर कर बढ़ा दिये। इससे राजस्थान के व्यापारिक मार्गो से माल लाना ले जाना महंगा होने लगा। अंग्रेजों ने बम्बई का विकास किया। जिससे राजस्थान होकर समुद्र तक जाने वाले व्यापारिक मार्ग स्वतः समाप्त हो गये। अंग्रेजों ने राजस्थान मे सैनिक उद्देश्यों से मार्ग विकसित किए। इससे राजस्थान के परंपरागत व्यापारिक नगर जो इन नये मार्गो पर नही थे, उजडने लगे। जैसलमेर, नागौर, पाली, मालपुरा का व्यापारिक महत्व समाप्त होने लगा।
जयपुर राज्य को 1820 ई. में सीमा शुल्को से होने वाले साढे पांच लाख रूपये की आय 1850 ई. मे घटकर एक लाख पचास हजार रुपए रह गइ। जोधपुर , बीकानेर, कोटा,उदयपुर राज्यों की आय भी इसी प्रकार घटकर एक चौथाई रह गइ।
व्यापारियों का निष्क्रमण– 1818 ई. के बाद राजस्थान से व्यापारियां का निष्क्रमण आरंभ हुआ। अंग्रेजो ने एक ओर जहां राजस्थान के व्यापार को नष्ट किया वही उन्होने राजस्थान के व्यापारियों को अंग्रेजों क्षेत्रों मे रहने पर सुविधयें प्रदान की। उन्हें निशुल्क भूमि, उधर वसूली की गारंटी व माल परिवहन की सुरक्षा का आश्वासन दिया गया। परिणाम यह हुआ कि राजस्थान मे रोजगार के साधन समाप्त हो गये। व्यापारिक मार्गो की सुरक्षा के बदले सामंतो को व्यापारियों से होने वाली आय समाप्त हो गयी। साथ ही उनसे मिलने वाले रोजगार के स्त्रोत भी नष्ट हो गये।
अफीम नीति– मेवाड़, कोटा, झालावाड़, प्रतापगढ़ प्रमुख अपफीम उत्पादक राज्य थे। अपफीम इन राज्यों की ही नही इनके व्यापारियों तथा कृषकों की संपन्नता का आधर थी। अंग्रेजों ने इन राज्यों से समझौतों के द्वारा अपफीम के व्यापार पर नियंत्राण कर लिया। इन समझौतों द्वारा इन राज्यों को क्षतिपूर्ति की राशि निर्धरित कर दी गई। लेकिन यह राशि इन राज्यों को अपफीम व्यापार से होने वाली आय से कम थी। इन राज्यों ने इस नीति का विरोध् भी किया। लेकिन अंग्रेजो ने इससे परिवर्तन नही किया। अंग्रेजी नीति से तस्कर व्यापार को भी प्रोत्साहित मिला। अंग्रेजों ने किसानो को अपफीम की खेती के लिये विवश किया। इसके फलस्वरूप खाद्यान्न उत्पादन घटने लगा।
धर्मिक एवं सामाजिक परिदृश्य– 1818 ई. की संधि ने राजस्थान के जन-जीवन को चहुओर से प्रभावित किया। अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी हितो के पोषण को लिये प्रत्येक परंपरागत संस्था तथा नियमों मे टूटन पैदा कर दी।
बड़ी संख्या में ईसाई मिशनरियों ने राजस्थान मे प्रवेश किया। इन ईसाई प्रचारकों को कंपनी सरकार के अध्किरियो का पूर्ण सहयोग मिल रहा था। इनका उद्देश्य ईसाई धर्म प्रचार द्वारा ब्रिटिश शासन के समर्थक वर्ग की संख्या बढ़ाना था। लेकिन दूसरी और राजस्थान का शासक तथा सामंत वर्ग अंग्रेजों को प्रसन्न करने के लिये उनकी नीतियो मे सहायक बना हुआ था। इससे राजस्थान की धर्म भीरूजनता मे अंग्रेजों के प्रति घृणा बढ़ती जा रही थी। अंग्रेजो ने सामाजिक सुधरों के नाम पर राजस्थान के सामाजिक ढांचे को तोडने का कार्य किया। इससे राजस्थान का जनमानस अंग्रेजों के प्रति शंकालु हो उठा था।
इस विवेचना से स्पष्ट है कि 1857 ई. आते-आते राजस्थान आर्थिक दृष्टि से कंगाल हो चुका था। राजस्थान के लिए अंग्रेजों की आर्थिक नीतियां अध्कि कष्टदायक प्रमाणित हुई। शासक तथा सामंत वर्ग भी अपनी स्थिति से संतुष्ट नही था। जनसाधरण अंग्रेजों के विरुद्धआक्रोशित था। किन्तु नेतृत्वविहिनता के कारण 1857 ई. के पूर्व तक राजस्थान मे अंग्रेजो के विरुद्धकोई बड़ा संघर्ष नही किया।
राजस्थान में क्रांति का प्रसार एवं उसके प्रमुख केन्द्र
1857 ई. मे भारतीयों द्वारा अंग्रेजी सत्ता को सशस्त्रा चुनौती आधुनिक भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। अधिकांश पाश्चात्य इतिहासकारो ने इसे सैनिक विद्रोह माना है परंतु इसे स्वीकार कर लेना इतिहास के साथ अन्याय ही होगा। मुगल सम्राट बहादुर शाह द्वितीय के साथ दुर्व्यवहार के कारण भारत के हिन्दू तथा मुसलमानों मे समान रूप से आक्रोश था। डलहौजी के गोद निषेध् के सिधान्त ने भारतीय शासक वर्ग को अंग्रेजों के प्रति शंकालु बना दिया था। भारतीय शासक तथा समान अंग्रेज अधिकारियोंद्वारा लगातार हस्तक्षेप के कारण छटपटा उठे थे। यही नही अंग्रेजों ने सामाजिक सुधरों के नाम पर स्थापित रीति रिवाजों एवं परंपराओं से छेड-छाड़ आरंभ कर दी थी, ईसाई धर्म के प्रचार एवं मिशनरियों को संरक्षण दिए जाने के कारण भारतीय अंग्रेजी शासन से घृणा करने लगे थे। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण भारतीयां की गरीबी बढ़ रही थी।
भारत में स्वतंत्राता संग्राम का श्री गणेश ईस्ट इण्डिया कंपनी की सेनाओं के भारतीय सैनिकों ने किया। इसका तात्कालीन कारण एनपफील्ड राइफले थी। इन राइफलों मे प्रयोग किए जाने वाले कारतूस की टोपी ;केपद्ध को दांतो से हटाना पड़ता था। इन कारतूसों को चिकना करने के लिये गाय तथा सूअर की चर्बी काम मे लाई जाती थी। इसका पता चलते ही भारतीय सैनिकों में अंग्रेज शासकों के विरुद्धविद्रोह भड़क उठा। सैनिक यह समझ गये कि अंग्रेज उन्हें धर्म भ्रष्ट करना चाहते है।
यही कारण था कि स्वतंत्राता संग्राम का प्रारंभ नियत तिथि से पहले ही हो गया। 26 फरवरी1857 ई. को बरहामपुर छावनी के सैनिको ने इन कारतूसां को प्रयोग मे लेने से मना कर दिया। इस सैनिक टुकडी को अंग्रेजों द्वारा भंग कर दिया गया। 29 मार्च 1857 ई को बरैकपुर छावनी की 24वीं रेजीमेन्ट के सिपाही मंगलपाण्डें ने कारतूसों के प्रयोग का विरोध् करते हुए अपने अंगेज अधिकारी को गोली मार दी। मंगल पाण्डे को गिरफ्रतार कर फांसी दे दी गई। 10 मई को मेरठ छावनी के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। सैनिकों के इस विद्रोह को पेशवा नाना साहब, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, कुवंर सिंह तथा मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर ने नेतृत्व कर स्वतंत्राता संग्राम मे परिणत कर दिया।
संपूर्ण भारतीय उप महाद्वीप मे राजस्थान की विशेष स्थिति थी। भारतीय शासकों के नियंत्राण में इतना विशाल राज्य क्षेत्रा अंयत्रा नही था। राजस्थान मे कंपनी की सेना की 6 सैनिक छावनियां थी। अजमेर के निकट नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, ऐरनपुरा तथा खैरवाड़ा।
यद्यपि राजस्थान मे जगह-जगह अंग्रेजी सेना के केन्द्र थे, लेकिन इनमे अंग्रेज सैनिक नही थे। देवली मे कोटा कन्टिजेन्ट, ब्यावर मे मेर रेजीमेन्ट, ऐरनपुरा मे जोधपुर लीजन, खैरवाड़ा मे भील कोर तथा नसीराबाद मे बंगाल नेटिव इन्पफैन्ट्री थी। इन सभी छावनियों मे भारतीयों सैनिकों की संख्या लगभग 5000 थी।
राजस्थान के ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स को मेरठ के संघर्ष की सूचना 19 मई, 1857 ई. को प्राप्त हुई। सूचना मिलते ही उसने राजस्थान के सभी के सभी शासकों को पत्रा लिखकर निर्देश दिया कि वह अपने-अपने राज्यों मे शांति व्यवस्था बनाए रखें, क्रांतिकारियों को अपनी सीमाओं मे प्रवेश न करने दें तथा यदि प्रवेश कर लिया हो, तो उन्हें तत्काल बंदी बना लिया जावे। उसने यह भी निर्देश दिया कि ये राज्य अपनी सेनाओं को अंग्रेजी भारत की सीमाओं के निकट रखे ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता ली जा सके।
राजस्थान के सभी राज्यों के शासकों ने ए.जी.जी. के इस निर्देश का पालन तत्परता से किया। जोधपुर तथा मेवाड़ के राजाओं ने अपनी संपूर्ण सैन्य शक्ति समर्पित करने के प्रस्ताव भेजे। उनका अनुकरण अन्य शासको ने भी किया।
मुख्य घटनाक्रम
1.नसीराबाद – 27 मई 1857 को यूरोपीय सेना व तोप माँगवाने की गुप्त योजना से भारतीयों में असन्तोष पफैल गया जिसके कारण 28 मई को 15वीं नेटिव इंपफेन्ट्री के सिपाही बख्तावर सिंह ने कर्नल पैनी व न्यूबरी के टुकड़े-टुकड़े करके क्रान्ति को बिगुल बजा दिया।
2. नीमच – 2 जून, 1857 को सैन्य अधिकारी कर्नल एबोट ने नसीराबाद के विद्रोह की सूचना मिलते ही सैनिकों को कर्तव्य पालन की शपथ दिलाई गई लेकिन इसका विरोध् मोहम्मद अली बेग ने अंग्रेजों से कर्तव्य पूछकर किया।
– 3 जून, 1857 को सम्पूर्ण छावनी के घिर जाने पर अधिकारियोंको डूंगला गाँव के रूंगाराम किसान के घर
जाकर शरण लेनी पड़ी और पॉलिटिकल एजेन्ट केप्टन शावर्स को मेवाड़ के महाराणा स्वरूप सिंह ने जगमन्दिर व जग निवास में शरण दी।
3. देवली – जून 1857 में नीमच के क्रान्तिकारियों ने देवली को आग के हवाले कर दिया और ब्रिटिश अधिकारियों को जहाजपुर (भीलवाड़ा) में शरण लेनी पड़ी।
4. ऐरनपुरा – 23 अगस्त 1857 को मोती खाँ, तिलक राम व शीतलप्रसाद ने ऐरनपुरा छावनी में क्रान्ति का बिगुल बजा दिया ‘‘चलो दिल्ली और मारो पिफरंगी’’ का नारा देते हुए दिल्ली की ओर प्रस्थान किया और रास्ते में आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत का नेतृत्व प्राप्त किया।
5. आउवा – आउवा जोधपुर से 80 कि.मी. दूर पाली का गाँव था यहाँ कि जनता तत्कालीन मारवाड़ शासक तख्तसिंह के अत्याचारों से अप्रसन्न थी। इसलिए ऐरनपुरा के क्रान्तिकारियों को आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह आलणिवास ठाकुर अजीत सिंह तथा अन्य छोटे-छोटे जागीरदारों की सैन्य सहायता प्राप्त की।
विशेष – परिणामतः विद्रोह को दबाने के लिए A.G.G लारेन्स बम्बई की 12वीं रेजिमेन्ट तथा तख्तसिंह की सेना सहित आउवा की ओर पहुँचा और 8 सितम्बर, 1857 को अंग्रेजों की संयुक्त सेना तथा क्रांतिकारियों के मध्य बिठुर/बिथौरा का युद्ध हुआ जिसमें कुशाल सिंह चम्पावत के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना/राजकीय सेना के 76 व्यक्तियों को मार गिराया तथा उनकी तोपों वे गोला बारूद पर कब्जा कर दिया।
*18 सितम्बर, 1857 को बिठुरा की पराजय के पश्चात् A. G. G. लॉरेन्स पॉलिटिकल एजेंट जी.एफ. मोकमेसन के साथ सेना सहित आउवा पहुँचा और इस भीषण युद्ध में कई सैनिक व ब्रिटिश अधिकारी मारे गये तथा जी. ऐफ. मोकमेसन का सिर धड से अलग करके विजय के प्रतीक के रूप में आउवा के किले के दरवाजे पर लटका दिया जिसे सूचना मिलते ही चम्पावत ने ससम्मान अन्तिम संस्कार किया।
* 20 जनवरी 1858 को तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड केनिंग ने ब्रिगेडियर होम्स के नेतृत्व में विशाल सेना भेजी और तख्तसिंह की संयुक्त सेना के साथ आउवा पर आक्रमण कर दिया।
* 5 दिन घेरा डालने के पश्चात् नियुक्त किलेदार को रिश्वत देकर अंग्रेज किले में घुसने में सफल हो गए लेकिन कुशाल सिंह चम्पावत वर्षा व रात का फायदा उठाकर सलूम्बर के पहाड़ों में भाग गया। हताश अंग्रेजो ने चार दिन की भयंकर लूटपात व मारकाट के बाद आउवा के किले को जनशून्य कर दिया। तथा अपने साथ चम्पावत की कुलदेवी 54 हाथ वाली और 10 सिर वाली सुगाली माता की मूर्ति अजमेर ले गये जो वर्तमान में पाली संग्रहालय में है।
नोटः – कुशालसिंह को सलूम्बर के रावत केसरीसिंह चूडावत ने शरण दी थी और कुशालसिंह के विद्रोह की जाँच के लिये ‘टेलर आयोग’ गठित किया गया।
* 1870 में कुशालसिंह चम्पावत के पुत्र देवीसिंह चम्पावत को आउवा की जागीर पुनः प्राप्त हो गई।
नोटः – उल्लेखनीय है 18 सितम्बर 1857 को लड़े गये आउवा के युद्ध को ‘चैलावास का युद्ध ’ कहा जाता है तथा आउवा व अंग्रेजों के मध्य हुए संघर्ष को ‘काले गोरे का युद्ध ’ भी कहा जाता है।
6.कोटा – कोटा में सैनिक छावनी रही थी यहाँ विद्रोह राजकीय सेना व आम जनता ने किया।
*कोटा के पॉलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन थे जो 12 अक्टूबर, 1857 को झालावाड़ व बून्दी की राजकीय सेना सहित कोटा पहुँच गये।
* कोटा क्रांतिकारियों का नेतृत्व पूर्व सरकारी वकील लाला जयदयाल, मेहराव खाँ कर रहे थे।
* 15 अक्टूबर, 1857 को 2000 जाबांज क्रांतिकारियों में से दो भवानी व नारायण ने पॉलिटिकल एजेन्ट बर्टन व एक डॉक्टर शेडलर व भारतीय ईसाई शैविल की हत्या कर दी।
* बर्टन के सिर को काटकर सम्पूर्ण कोटा में घुमाया तथा कोटा के शासक महाराव रामसिंह को नजरबंद कर दिया तथा छः माह तक कोटा पर क्रान्तिकारियों का अधिकार रहा।
* 30 मार्च, 1858 को मेजर जनरल रॉबर्ट्स के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने क्रान्तिकारियों को हराने में सफलता प्राप्त की तथा जयदयाल व मेहराव खाँ को फाँसी देदी गई।
नोटः – उल्लेखनीय राजपूताना में अंग्रेजों के विरुद्धकोटा जैसा सुनियोजित व सुनियंत्रित संघर्ष राजस्थान में अन्यत्र कही नहीं हुआ कोटा एकमात्रा रियासत थी जहाँ क्रान्तिकारियों ने शासक को नजरबंद करके शासन की बागडोर अपने हाथ में ली।
* करौली के महारावल मदनपाल ने कोटा के शासक महारावल रामसिंह द्वितीय को क्रांतिकारियों की कैद से मुक्त कराया।
7. धोलपुर – अक्टूबर 1857 में ग्वालियर व इन्दौर के क्रान्तिकारियों ने राव रामचन्द्र व हीरालाल के नेतृत्व में स्थानीय सैनिकों की सहायता से शासन पर अधिकार कर लिया और दो माह तक धोलपुर के शासक को अधिकार विहीन रखा।
* दिसम्बर 1857 को पटियाला की सेना ने आकर विद्रोह समाप्त किया।
नोटः – उल्लेखनीय है धोलपुर का विद्रोह एकमात्रा ऐसा विद्रोह रहा है जिसने क्रान्तिकारियों के हाथ में रही और क्रान्ति को दबाने का कार्य भी राज्य के क्रान्तिकारियों ने किया।
* उल्लेखनीय है कि रामचन्द्र-हीरालाल धोलपुर की तोप को आगरा लेकर भाग गये।
8. टोंक – जून, 1857 में तत्कालीन नबाव व अंग्रेजों के चहेते वजीर खाँ के विरुद्धमामा मीर आलम खाँ भाई मोइनुद्दीन
व खान बहादुर ने विद्रोह कर दिया लेकिन उन्हें मार दिया गया तत्पश्चात् नीमच छावनी के क्रान्तिकारियों को स्थानीय लोगों की सहायता से नवाब का किला घेरकर बकाया वेतन वसूल किया और दिल्ली की ओर चल गये।
अन्य स्थान
1. करौली – करौली में मोहम्मद खाँ के नेतृत्व में विद्रोह हुआ जिसने हिण्डौन की पहाड़ी पर विद्रोह किया गया, लेकिन करौली के शासक मदनपाल ने मोहम्मद खाँ की हत्या करवाकर अंग्रेज भक्ति का परिचय दिया।
2. अजमेर – 9 अगस्त, 1857 को अजमेर के कारागार में विद्रोह हुआ और 60 कैदी भाग गए।
3. भरतपुर – भरतपुर में तत्कालीन समय पर अल्पवयस्क जसवन्त सिंह का शासन था इसलिए पॉलिटिकल ऐजेन्ट मोरिसन ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ले रखी थी।
* यहाँ 31 मई, 1857 को क्रान्तिकारियों ने 20 अंग्रेज अधिकारियोंको बन्ध्क बना लिया तथा कुछ दिनों के
लिए शासन की बागडोर हाथ में ले ली।
4. अलवर – 1857 की क्रांति के समय क्रांतिकारियों ने आगरा के दुर्ग में अंग्रेज अधिकारियों (परिवारों) को कैद कर लिया। जिसे रिहा करवाने के लिये विनयसिंह विशाल सेना लेकर अलवर से रवाना हुआ। लेकिन 11 जुलाई, 1857 को अचनेरा (भरतपुर) के पास विद्रोहियों ने विनयसिंह का सारा खजाना लूट लिया।
5. आबू – 21 अगस्त, 1857 को विद्रोहियों ने आबू के पॉलिटिकल एजेन्ट एक्लेजेन्डर व AGG लॉरेन्स को खिड़कियों से गोली चलाकर बुरी तरह घायल कर दिया और खजाना लूटकर ऐरनपुरा भाग गये।
तांत्या टोपे का राजस्थान आगमन
1857 ई. के स्वतंत्राता संग्राम मे तांत्या टोपे का राजस्थान आगमन महत्वपूर्ण घटना है। तांत्या टोपे की इस यात्रा ने जागीरदारों सैनिकों तथा जन-साधरण में उत्तेजना का संचार किया। ग्वालियर मे असफल होने पर तांत्या टोपे सहायता की आशा मे हाड़ौती होते हुए जयपुर की ओर बढ़ा। सहायता न मिलने पर वह लालसोट होते हुए टोंक आ गया। ब्रिगेडियर होम्स उसका पीछा कर रहा था। टोंक मे सेना ने उसका समर्थन किया। यहां से वह सलूंबर चला गया। सलूंबर के रावत ने उसकी सहायता की। अंग्रेजों ने तांत्या टोपे को 9 अगस्त 1858 को हराया पांच दिन बाद बनास नदी के तट पर पुनः तांत्या टोपे की पराजय हुई। इसके बाद तांत्या हाड़ौती मे आ गया तथा उसने झालरापाटन पर अधिकार कर लिया। स्थानीय जनता ने उसे पूर्ण सहयोग दिया। लेकिन इसके बाद सितंबर माह मे ही अंग्रेजों ने उसे दो बार हराया। विवश तांत्या टोपे राजस्थान से चला गया।
दिसम्बर 1858 ई. मे तांत्या टोपे पुनः राजस्थान आया तथा बांसवाड़ा पर अधिकार कर लिया। यहां से वह संलूबर आया। यहां उसे
पूरी सहायता दी गई। टोपे दौसा तथा सीकर भी गया। यहां अंग्रेजी सेनाओं ने उसे पराजित कर खदेड़ दिया। नरवर के जागीरदार मानसिंह ने विश्वासघात करके तांत्यां टोपे को अंग्रेजो के हाथों पकड़वा दिया। अप्रैल 1859 ई. मे तांत्या टोपे को पफांसी दे दी गई।
तांत्या टोपे को सहायता देने के आरोप में अंग्रेजों ने सीकर के सामन्त को बंदी बना लिया तथा 1862 ई. में उसे मृत्युदण्ड दे दिया।
क्रांति के समय अंग्रेजों का साथ देने वाली विभिन्न रेयासते.
रियासत -रियासत शासक
जयपुर – रामसिंह द्वितीय
जोधपुर – तख्तसिंह
कोटा – रामसिंह
उदयपुर – महाराणा स्वरूप सिंह
अलवर – विनयसिंह
करौली -मदनपाल
धोलपुर -भगवन्त सिंह
टोंक -नबाव वजीर खाँ
क्रांतिकारी स्थलों पर निम्न तिथियों को क्रांति का आगाज किया गया
रियासत -शासक
नसीराबाद -28 मई 1857
नीमच -3 जून 1857
ऐरनपुर -23 अगस्त 1857
बिठुरा -8 सितम्बर 1857
आउवा -18 सितम्बर 1857
आउवा द्वितीय -20 जनवरी 1858
कोटा -18 अक्टूबर 1857
टोंक -जून 1857
स्वतंत्राता संग्राम की असफलता के कारण
21 सितम्बर 1857 ई. को मुगल बादशाह बहादुर शाह उनकी बेगम जीनत महल तथा उनके पुत्रों को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया गया।
1858 ई. के मध्य मे क्रांति की गति काफी धीमी हो चुकी थी। तांत्या टोपे की गिरफ्रतारी के साथ ही भारतीयों का प्रथम स्वतंत्राता संग्राम राजस्थान मे समाप्त हो गया।
राजस्थान मे इस समय तीव्र ब्रिटिश विरोधी भावना दिखाई दी। जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का खुला प्रदर्शन किया। महाराणा से मिलने जाते समय उदयपुर की जनता ने कप्तान शावर्स को खुलेआम गालियॉ दी। जोधपुर की सेना ने कप्तान सदर लैण्ड के स्मारक पर पत्थर बरसाये। कोटा, भरतपुर, अलवर तथा टोंक की जनता ने शासकों की नीति के विरुद्धक्रांतिकारियों का साथ दिया। फिर भी राजस्थान में क्रांति असफल हुई। इसके अधेलिखित कारण थे-
नेतृत्व का अभाव
राजस्थान 18 राज्यो मे विभाजित था। अनेक स्थानों पर क्रांति होने पर भी विद्रोहियो का कोई सर्वमान्य नेतृत्व नही था। राजपूत शासकों ने मेवाड़ के महाराणा से सपंर्क किया। किन्तु महाराणा ने इस संबंध् में समस्त पत्रा व्यवहार अंग्रेजों को सौंप दिया। मारवाड़ के सामंतों तथा सैनिको ने मुगल बादशाह के नेतृत्व मे संघर्ष का प्रयास किया। किंतु मुगल बादशाह दिल्ली से बाहर राजस्थान मे नेतृत्व प्रदान नही कर सका। फलतः क्रांतिकारी एकजुट होकर संघर्ष नही कर सके तथा उन्हें असफल होना पड़ा।
समन्वय का अभाव
राजस्थान में क्रांति का प्रस्पफुटन अनेक स्थानां पर हुआ। लेकिन क्रांतिकारियों के बीच समन्वय का अभाव था। नसीराबाद, नीमच, आऊवा तथा कोटा के क्रांतिकारियां मे संपर्क तथा तालमेल नही था। यही कारण है कि भारतीयों को सफलता प्राप्त नही हुई।
रणनीति का अभाव
क्रांतिकारियों के प्रयास योजनाबद्ध नही थे। विद्रोह के पश्चात उनमे बिखराव आता चला गया। दूसरी और अंग्रेजी ने योजनाबद्ध ढंग से क्रांतिकारियों की शक्ति को नष्ट किया। अंग्रेजी सेनाओं का नेतृत्व कुशल सैन्य अधिकारी कर रहे थे। उनकी रसद तथा हथियारों की आपूर्ति सम्पूर्ण भारत से हो रही थी। जबकि क्रांतिकारी सैनिको के पास साधनों का अभाव था। उदाहरणाथर् कोटा तथा धोलपुर के
शासकों को क्रांति को दबाने के लिये अंग्रेजों के अतिरिक्त करौली तथा पटियाला से सहायता दी गई थी।
शासकों का असहयोग
राजस्थान के शासकों का सहयोग नही मिलना भी असफलता का प्रमुख कारण था। यही नही, राजस्थान के अधिकांश शासकों ने न केवल राजस्थान बल्कि राजस्थान के बाहर भी अंग्रेजों को पूर्ण सहायता प्रदान की। शासकों की इस देशद्रोही नीति ने उखड़ी हुई ब्रिटिश सत्ता की पुर्नस्थापना मे महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वतंत्राता संग्राम के परिणाम
1857 ई. का क्रांति के परिणाम दूरगामी थे। इस क्रांति ने अंग्रेजों की इस धरणा को निराधर सि( कर दिया कि मुगलो एवं मराठो की लूट से त्रास्त राजस्थान की जनता ब्रिटिश शासन की समर्थक है-
देशी राज्यों के प्रति नीति परिवर्तन
राजस्थान के शासकों ने क्रांति के प्रवाह को रोकने हेतु बांध् का कार्य किया था। अंग्रेज शासकों ने यह समझ लिया कि भारत पर शासन की दृष्टि से देशी राजा उनके लिये उपयोगी है। अतः अब ब्रिटिश नीति मे परिवर्तन किया गया। शासकों को संतुष्ट करने हेतु ‘‘गोद निषेध्’’ का सिधान्त समाप्त कर दिया गया। राजाओं की अंग्रेजी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध् किया जाने लगा। उनकी सेवाओं के लिये उन्हें पुरस्कार तथा उपाध्यिं दी गई, ताकि उनमे ब्रिटिश ताज तथा पश्चिमी सभ्यता के प्रति आस्था मे वृद्धि हो सके।
सामंतों की शक्ति नष्ट करना
विद्रोह काल में सामंत वर्ग ने अंग्रेजों के विरुद्धसंघर्ष किया। फलतः विद्रोह समाप्ति के बाद अंग्रेजो ने सामंत वर्ग की शक्ति समाप्त करने की नीति अपनाई। सामंतों द्वारा दी जाने वाली सैनिक सेवा के बदले नगद राशि ली जाने लगी। फलतः सामंतो को अपनी सेनायें भंग करनी पडी। सामंतों से न्यायालय शुल्क लिया जाने लगा। उनके न्यायिक अधिकार छीन लिये गये, उनका राहदारी शुल्क वसूली का
अधिकार भी समाप्त कर दिया गया। ऐसे कानून बनाए गये जिनसे व्यापारी वर्ग अपना ऋण न्यायालय द्वारा वसूल कर सके। इस नीति के फलस्वरूप व्यापारी वर्ग तथा जनता पर सामंतों का प्रभाव समाप्त होने लगा।
नौकरशाही मे परिवर्तन
सभी राज्यों के प्रशासन मे महत्वपूर्ण पदो पर सामतों का अधिकार था। क्रांति के बाद सभी शासकों ने सामंतो को शक्तिहीन करने तथा प्रशासन पर अपना नियंत्राण बढ़ाने के लिए नौकरशाही मे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त, अनुभवी एवं स्वामी भक्त व्यक्तियों को नियुक्ति प्रदान की। इसके फलस्वरूप राजभक्त, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मध्यम वर्ग का विकास हुआ।
यातायात के साधन
संघर्ष के समय में अंग्रेजों को सेनायें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने मे कठिनाई का सामना करना पड़ा। विद्रोह के पश्चात सैनिक तथा व्यापारिक हितों को ध्यान मे रखते हुए यातायात के साधनों का विकास किया गया। नसीराबाद, नीमच, डीसा तथा देवली को अजमेर तथा आगरा से सड़कों द्वारा जोड दिया गया। रेल कम्पनियों को रेल मार्ग निर्माण हेतु प्रोत्साहित किया गया। अंग्रेज सरकार ने देशी राज्यों पर भी सड़को तथा रेलों के निर्माण हेतु दबाव डाला इसके फलस्वरूप यातायात के साध्नों का त्वरित विकास हुआ।
सामाजिक परिवर्तन
अंग्रेजी सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा अद्द्ती का विस्तार किया। दूसरी ओर अंग्रेजी शिक्षा का महत्व बढ़ जाने के फलस्वरूप मध्यम वर्ग का विकास हुआ। इस वर्ग ने अंग्रेजी शिक्षा लेकर प्रशासन तथा अन्य क्षेत्रो मे महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया। अंग्रेजों ने अपने व्यापारिक
स्वार्थो के कारण वैश्य वर्ग को संरक्षण प्रदान किया। कानान्तर मे ब्राह्मण तथा राजपूत वर्ग का प्रभाव कम होता चला गया।
क्रांति का स्वरूप
यद्यपि राजस्थान मे क्रांति का प्रारंभ सेना द्वारा किया गया, लेकिन इसे पूर्ण रूप से सैनिक विद्रोह कहना उचित नही होगा। मेलीसन इसे ‘‘शासकों के विरुद्ध सामंती प्रतिक्रिया’’ मानते है। यह ठीक है कि सामंत अपने स्वार्थो के कारण इसमे सम्मिलित हुए थे। लेकिन जन साधरण का एक ही उद्देश्य था अंग्रेजो को देश से निकाल देना।
राजस्थान मे क्रांति अंग्रेजों के विरुद्धसभी वर्गो मे व्याप्त रोष का परिणाम था। नसीराबाद, नीमच तथा ऐरनपुरा का संघर्ष भारत व्यापी स्वतंत्राता संग्राम का ही अंग था। जन साधरण ने भी इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया था। जन आक्रोश के कारण ही भरतपुर के राजा ने मोरीसन को राज्य छोड़ देने का परामर्श दिया था। कोटा के महाराव ने भी इसी कारण मेजर बर्टन को कोटा नही आने के लिए कहा था। जन आक्रोश के कारण ही टोंक के नवाब ने अंग्रेजों को अपने राज्य की सीमा से नही गुजरने के लिए कहा था इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि राजस्थान मे शासकों को छोड़कर सभी वर्गो ने अंग्रेजों के विरुद्धसंघर्ष मे भाग लिया। राजस्थान के जन साधरण ने भारत व्यापी स्वतंत्राता संग्राम मे अपनी और से यथाशक्ति सहयोग प्रदान किया। निःस्संदेह 1857 ई. का संघर्ष राजस्थान मे अंग्रेजों की दासता से मुक्ति का संग्राम था।
राजस्थान में 1857 के शहीद
शहीद का नाम – विप्लव में योगदान
अब्बाव बेग मिर्जा कोटा राज्य की सेना मे कार्यरत (दफादार) अब्बास बेग मिर्जा ने ब्रिटिश सेना और कोटा के महाराव की सेना के विरुद्धअनेक युद्ध लड़े।
अकबर खाँन मेहराव खाँन का सहयोगी, इन्होने ब्रिटिश सरकार और कोटा राज्य के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े। 1858 में बंदी बनाए गए और मार डाले गए।
अलीम खाँन, हफीज उन-उमर टोंक के नवाब क विरुद्धकिए गए आक्रमण का संगठनकर्ता, अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए।
भैंरू सिंह जोधा गेराओ का जागीरदार भैरूसिंह आउवा के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ।
गुल मोहम्मद कोटा राज्य की सेना का जीमदार एवं विद्रोही नेता मेहराव खाँन का छोटा भाई, ब्रिटिश सेना व कोटा महाराव की सेना के विरुद्धअनेक युद्ध लड़े।
गुल मोहम्मद, निशान्ची हाफिज टोंक राज्य की सेना के बन्दूकची, टोंक से दिल्ली की ओर जाने वाली विद्रोही सेना के साथ अंग्रेजो के विरुद्धयुद्ध लड़ा और दिल्ली मे वीरगति को प्राप्त हुए।
हरदयाल भटनागर कोटा राज्य में कार्यरत श्री हरदयाल भटनागर ने जनरल राबर्ट की सेना के विरुद्धविद्रोही सेना का नेतृत्व किया और वीर गति को प्राप्त हुए।
हरनाथसिंह ठाकुर जनरल लारेन्स के विरुद्धआऊवा युद्ध मे भाग लिया और वीरगति को प्राप्त हुए।
हीरासिंह विद्रोहियो के साथी हीरासिंह ने कोटा राज्य मे ब्रिटिश सेना और कोटा के महाराव की सेना के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए।
लाला जायदयाल भटनागर कोटा राज्य के विद्रोहियो का संगठनकर्ता और प्रमुख नेता, कोटा महाराव के द्वारा इनकी गिरफ्रतारी के निए 10 हजार रूपए की घोषणा। 1860 में अंग्रेजो द्वारा फांसी।
जियालाल निम्बाहेड़ा के मुख्य पटेल, कप्तान शावर्स के आदेशों का पालन न करना, विद्रोही सेना का गठन, अंग्रेजों के विरुद्धअनेक युद्ध लड़े, बंदी बनाए गए और मार डाले गए।
कामदार खाँन कोटा राज्य मे पाटनपोल युद्ध मे कोटा के महाराव की सेना के विरुद्धलड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
खंवास खाँन उर्फ एवाज खांन 15 अक्टूबर, 1857 को इन्होने ब्रिटिश एजेंट के घर पर किए गए आक्रमण का नेतृत्व किया। एजेट की हत्या कर दी गई। अतः अंग्रेजों ने इन्हे पफांसी दे दी।
मेहराब खाँन कोटा राज्य की सेना के रिसालदार ने अक्टूबर, 1857 के युद्ध मे विद्रोहियो का साथ दिया। 1859 में बंदी बनाए गए और 1860 में पफांसी पर लटका दिया गया।
मोहम्मद खाँन कोटा राज्य में रिसालदार के पद पर कार्यरत मोहम्मद खांन ने विद्रोहियों का साथ दिया और अंग्रेजों द्वारा बंदी बना लिए गए तथा मार डाले गए।
मुनव्वर खाँन टोंक राज्य की सेना के सिपाही मुनव्वर खांन ने विद्रोही सेन के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना का विरोध् किया और दिल्ली में लड़तें हुए मारे गए।
नवी शेर खाँ कोटा राज्य की सेना के इस सिपाही ने विद्रोहियों को अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए और अंग्रेजी सेना के विरुद्धअनेक युद्ध लड़े। मार्च, 1858 में अंग्रेजों ने इन्हें गोली से उड़ा दिया।
नसीर मोहम्मद कोटा सेना के अफसर नसीर मोहम्मद ने अंग्रेजी सेना के विरुद्धअनेक युद्ध लड़े और कोटा के किले पर किए गए आक्रमण का नेतृत्व करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए।
रोशन बेग कोटा राज्य की सैनिक क्रांति के प्रमुख नेता, इन्होने कोटा राज्य की सेना के संपूर्ण अस्त्र-शस्त्र विद्रोहियों को सौंप दिए। कैथूनीपोल युद्ध मे जनरल राबर्ट के विरुद्धलड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए।
सफदर का खाँन दिल्ली के मुगलकोट मे कार्यरत सफदर खांन ने विद्रोहियो का पूर्ण सहयोग किया, अंग्रेजों ने इन्हें बंदी बना लिया और पफांसी दे दी।
सरदार अली कोटा राज्य की सेना के सहायक सेनाध्किरी सरदार अली ने 15 अक्टूबर, 1857 के युद्ध में विद्रोहियों का साथ दिया और लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए।
शत्तिफदान ठाकुर आऊवा युद्ध में विप्लवकारियों का समर्थन, कारावास की अवधि् में