राजपूताना के इतिहास में वर्ष 1817-18 ई. को एक विभाजन रेखा के रूप में देखा जाता है । इससे पूर्व के कुछ वर्षों को अंतर्राज्यीय युद्धों तथा पिंडारियों, मराठों और अमीरखा के अतिक्रमणों और आक्रमणों से उत्पन्न स्थिति से क्षेत्र में व्यापत अराजकता एवं असुरक्षा के कारण ‘जंगल राज’ की संज्ञा दी जा सकती है । उक्त वर्ष के बाद का काल रियासतों के लिए शान्ति एवं सुरक्षा प्रदान करने वाला माना जा सकता है, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने संधियों की ईमानदारी से पालना करने की अपेक्षा अपनी शक्ति के बल पर उनके उल्लंघन में अधिक तत्परता तथा रूचि दिखाई और राज्यों के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश प्रभुसत्ता’ के नए शब्दजाल के अंतर्गत उनका हस्तक्षेप बढ़ता ही गया । इसे रियासतों के शासकों की अदूरदर्शिता कहें अथवा अंग्रेजी सरकार की चतुराई और उनकी साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति, जिससे रियासतें संधियों के भंवरजाल में फंसकर न केवल अपनी स्वायत्तता से हाथ वो बैठी बल्कि ‘ब्रिटिश प्रभुसत्ता’ के मकड़जाल में फंसकर उसके बाहर तो नहीं निकल सकी परन्तु उस प्रयास में अपना अस्तित्व सदैव के लिए जरूर खो दिया ।
12.2 राजस्थान में सन 1817-18 से पूर्व की परिस्थितियां।
अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुगल सत्ता के निरन्तर कमजोर होने से मराठों का उत्कर्ष होता गया और वे न केवल उत्तरी भारत में प्रमुख घटनाओं में निर्णायक भूमिका निभाने लगे बल्कि धीरे-धीरे मुगल सम्राट शाह आलम – 2, जिसके दरबार में महादाजी सिंधिया ने सन् 1784 में वकील-ए-मुतलक (रीजेंट) के रूप में अपनी पुख्ता पैठ जमा ली थी, के भाग्य का फैसला करने की स्थिति में थे । सिंधिया तथा उसके फ्रांसिसी सेनानायकों की मुगल दरबार में स्थिति मजबूत होने से ब्रिटिश सरकार को भारत में उनसे खतरा पैदा होने का अंदेशा निर्मूल नहीं था, विशेषकर तब जबकि यूरोप में नेपोलियन का वर्चस्व लगातार बढ़ रहा था । लॉर्ड बेलेजली जो 1798 ई. में भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया, को शीघ्र ही यह आभास हो गया कि सिंधिया तथा फ्रांसिसी सेनानायकों का मुगल दरबार में बढ़ता हुआ प्रभुत्व ब्रिटिश सरकार के लिए अहितकर हो सकता है । दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध (1803-05 ई) में अंग्रेजों का प्रमुख उद्देश्य मुगल बादशाह को मराठों के प्रभाव से मुक्त कराकर दिल्ली दरबार में अपना प्रभुत्व स्थापित करना था ।
मराठों का उत्तर की ओर राजपूताना की कुछ रियासतों पर लगातार अतिक्रमण, जो अंग्रेजों की दृष्टि में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण थीं, को ब्रिटिश सरकार ने अपनी रक्षात्मक संधियों के घेरे में लाने का प्रयत्न किया । इस नीति के अनुसरण में ब्रिटिश कमाण्डर-इन-चीफ जनरल लेक को राजपूताना की विभिन्न रियासतों से संधि करने के लिए अधिकृत किया गया और भरतपुर, अलदर (माचेड़ी), जयपुर, जोधपुर, प्रतापगढ़ आदि राज्यों से संधियों की गई । एंग्लो-मराठा युद्ध में मराठों की पराजय से मुगल दरबार में फ्रांसिसी सेनानायकों का प्रभाव समाप्त हो गया तथा सितम्बर 1803 में दिल्ली में ब्रिटिश रेजिडेंसी स्थापित कर दी गई जिसमें नियुक्त ब्रिटिश रेजिडेंट मुगल दरबार में कम्पनी सरकार का प्रतिनिधित्व करने लगा । कालांतर में यह रेजिडेंट राजपूताना में स्थित राज्यों के मामलों में भी प्रतिनिधित्व करने लगा।
मराठों के विरूद्ध किए गए युद्धों के कारण बढ़ते हुए वित्तीय भार ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कोर्ट आफ डायरेक्टर्स का धैर्य समाप्त कर दिया और वेलेजली के स्थान पर लार्ड कॉर्नवालिस को भारत में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया । उन्होने हस्तक्षेप न करने की सामान्य नीति के अन्तर्गत पूर्व की संधियों को निरस्त कर दिया परन्तु धौलपुर (1606) भरतपुर (1805) तथा अलवर (1803,1805 एवं 1811) राज्यों के साथ हुई संधियां यथावत रखीं । उसके बाद जार्ज बालों तथा मिन्टो ने भी यही नीति अपनाई । इसके फलस्वरूप मराठों और पिंडारियों का आतंक बढ़ने लगा और राजपूताने की रियासतों की स्थिति बिगड़ने लगी । उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी का अंत राज्यों की आपसी कलह और राजनीतिक कुचक्र से ही हुआ जिसमें अमीरखा की भी भूमिका थी । इन कुचक्रों के कारण हुए आपसी युद्धों में जयपुर, जोधपुर और उदयपुर के राजकीय कोष खाली हो गए | जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने अलग-थलग पड़ने पर अंग्रेजों से सहायता मांगी परन्तु हस्तक्षेप न करने की नीति के कारण उसे निराशा ही हाथ लगी।
इसी बीच ढोकलसिंह जो जोधपुर राज्य के महाराजा के पद के लिए दावेदार बन गया था, ने जयपुर के महाराजा जगतसिंह से हाथ मिला लिए । जयपुर की सेना और अमीरखा के साथियों ने जोधपुर के दुर्ग को घेर लिया और लूटपाट मचा दी । मारवाड की यह दयनीय दशा देख ढोकलसिंह के राठौड सैनिकों ने जगतसिंह का साथ छोड़ दिया । अवसरवादी अमीरखां ने भी जगतसिंह का साथ छोड़, उसके जयपुर राज्य के इलाकों में लूटपाट करने लगा | जयपुर ने माचेडी (अलवर) के राव और दिल्ली ब्रिटिश रेजिडेंट से सहायता मांगी परन्तु असफल रहा । इन परिस्थितियों में जगतसिंह ने जोधपुर दुर्ग का घेरा उठा लिया और जयपुर आकर ब्रिटिश रेजिडेंट से रक्षात्मक संधि करने की पुन: चेष्टा की परन्तु निराश होना पड़ा ।
इसी समय बापूजी सिंधिया ने जयपुर पर आक्रमण कर दिया और चालीस लाख रूपयों की मांग की । जगतसिंह ने अमीरखां और होल्कर से सहायता की पेशकश की परन्तु सफलता नहीं मिली । जगतसिंह ने एक बार फिर अंग्रेजों से मध्यस्थता एवं संधि के लिए कोशिश की परन्तु कामयाब नहीं हुआ | चारों ओर से निराश होकर जगतसिंह ने अंत में सिंधिया को रकन चुका कर उससे छुटकारा पाया और मानसिंह से मतभेद भुलाकर आपस में वैवाहिक सबक स्थापित कर लिए । अमीरखां जो इस समय मेवाड के इलाके में लूटपाट कर रहा था, जोधपुर एवं जयपुर के बीच हुई सुलह से विचलित हो गया और उसने जयपुर पर आक्रमण करने की धमकी दे दी और सन् 1811 के प्रारम्भ में जयपुर राज्य में लूटपाट शुरू कर दी । सुरक्षा का कोई उपाय नहीं होने से जगतसिंह ने अमीरखां को सत्रह लाख रूपए की रकम चुका दी और उसके अधिकारी मोहम्मद शाह खां को शेखावाटी क्षेत्र से जयपुर राज्य को मिलने वाले कर (ट्रिब्यूट) के छह लाख रूपए को अपना हिस्सा मानकर वसूल करने के लिए अधिकृत कर दिया ।
इसी समय माचेडी (अलवर) के राव ने अपनी सेना भेजकर जयपुर राज्य के कुछ इलाकों पर कब्जा कर लिया । ब्रिटिश रेजिडेंट सी.टी. मेटकॉफ ने माचेडी के राव को इस कृत्य के लिए चेतावनी दी तथा नहीं मानने पर अपनी सेना भेजकर जयपुर राज्य को उसके इलाके वापस दिलवाए |
अमीरखा और सिंधिया पुन: बारी-बारी से जयपुर के इलाके में लूटपाट करने आए और महाराजा से बड़ी रकम ऐंठ कर ले गए | जयपुर के महाराजा ने पुन: दो बार अंग्रेजों से सहायता की प्रार्थना की परन्तु सफलता नहीं मिली । सिंधिया, होल्कर तथा अमीरखा के उदयपुर राज्य के इलाकों में लूटपाट करने और रकम ऐंठ कर ले जाने से उस राज्य की माली हालत इतनी बिगड गई कि महाराणा को अपने खर्च के लिए कोटा राज्य के रीजेंट जालिम सिंह पर निर्भर रहना पड़ता था । अमीरखां ने जोधपुर को भी नहीं बख्शा और लगभग दो वर्षा तक उसके खजाने का पूरा दोहन किया । महाराजा मानसिंह राजकार्य के प्रति उदासीन हो गए तथा उन्होने छतरसिह को युवराज घोषित करके एक रीजेंसी स्थापित कर दी।
राजपूताना की अन्य रियासतों – बूंदी, कोटा, करौली, बांसवाडा आदि ने भी समय-समय पर मराठों के अतिक्रमण का उत्पीडन सहा |
12.3 राज्यों और ईस्ट कम्पनी के बीच हुई संधियों के कारण
लॉर्ड मिन्टो (1807-1813 ई) के पश्चात् लार्ड हैस्टिंग्ज (1813-23 ई) गवर्नर जनरल बन कर आए जो राज्यों में हस्तक्षेप की नीति के समर्थक थे । दिल्ली के रेजिडेंट सी.टी. मेटकॉफ ने उन्हें अपनी एक योजना पेश की जिसमें छोटी बड़ी रियासतों को रक्षात्मक संधियों के माध्यम से ब्रिटिश सुरक्षा देना तथा रियासतों की संयुक्त सैन्यशक्ति से सिंधिया, होल्कर, अमीरखां और पिंडारियों की लूटपाट की नीति पर लगाम लगाना और ब्रिटिश इलाकों पर उन्हें अतिक्रमण करने से रोक कर अपने लिए एक सुरक्षा कवच सुनिश्चित करना था । इसलिए जब मार्च 1816 में जयपुर ने पुन: ब्रिटिश रेजिडेंट को संधि के लिए अपील की तो दिल्ली स्थित रेजिडेंट को अपनी योजना को क्रियानित करने का अवसर मिला । परन्तु संधि की शर्तों को लेकर, विशेषकर रियासत द्वारा दिए जाने वाले कर (ट्रिब्यूट) के बारे में मतभेद होने के कारण संधि नहीं हो पाई । इसके बाद मेटकॉफ ने दबाव की नीति अपनाई । उन्होने जयपुर राज्य को कर चुकाने वाले ठिकानों पर अलग से ब्रिटिश सरकार से संधि करने के लिए दबाव डाला | खेतडी व उणियारा के ठिकानों से बातचीत की और उन्हें ब्रिटिश संरक्षण देने की पेशकश की ताकि उनकी वफादारी जयपुर राज्य से हटकर ब्रिटिश सरकार की तरफ हो जाये | इन दांवपेचों से न केवल राज्य की संप्रभुता में कमी होती बल्कि उसके राजस्व के संसाधनों और सैन्य शक्ति में भी कमी होती । अत: जयपुर को संधि की शर्तों के बारे में झुकना पड़ा और अंत में अप्रेल 1818 में संधि पर हस्ताक्षर हो गए।
अमीरखां ने भी सन् 1817 में ब्रिटिश सरकार से रक्षात्मक संधि की पेशकश की जिसे ब्रिटिश सरकार ने कुछ समय बाद अपनी शर्तो पर मान लिया । नौ नवंबर 1817 को हुई इस संधि के अनुसार (1) अमीरखां के पास होल्कर के जो इलाके थे, वे अमीरखां और उसके उत्तराधिकारियों के पास ही रहेंगे, ऐसी ब्रिटिश सरकार ने गारन्टी दी तथा उन इलाकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले ली (2) अमीरखां अपनी सेना को भंग कर देगा तथा उतनी ही सैन्य टुकड़ियां रखेगा जितनी उसके अंदरूनी सुरक्षा के लिए आवश्यक हो (3) वह अब किसी इलाके पर आक्रमण नहीं करेगा, पिडारियो और लूटपाट करने वाले अन्य कबीलों से अपने संबंध तोड देगा और अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें दबाने और सजा देने के लिए ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करेगा । ब्रिटिश सरकार की रजामंदी के बिना वह किसी से भी संबंध नहीं बनायेगा (4) वह अपनी तोपें और अन्य सैन्य सामान ब्रिटिश सरकार को सौंप देगा जिसके बदले में उसे मुआवजा दे दिया जाएगा | वह केवल अपनी आंतरिक सुरक्षा के लिए व दुर्गो की रक्षा के लिए ही कुछ आवश्यक सैन्य सामान रख सकेगा (5) वह सेना जो अमीरखां अपने पास रखेगा, उसे भी अंग्रेजी सरकार द्वारा मांगने पर भेजना होगा |
राजपूताना की अन्य अग्रांकित रियासतों के साथ भी संधियां इसी समय हुई करौली (9 नवम्बर 1817), कोटा (26 दिसम्बर 1817), जोधपुर (6 जनवरी 1818), उदयपुर (13 जनवरी 1818), बूंदी (10 फरवरी 1818), बीकानेर (9 मार्च 1818), किशनगढ़ (26 मार्च 1818), जयपुर (2 अप्रैल 1818), बांसवाडा (25 दिसम्बर 1818), प्रतापगढ़ (5 अक्टूबर 1818) डूंगरपुर (11 दिसम्बर 1818), जैसलमेर (12 दिसम्बर 1818) तथा सिरोही (11 सितम्बर 1823) | शाहपुरा को उस समय रियासत का दर्जा प्राप्त नहीं था । इसको कचोला का हिस्सा मेवाड द्वारा जागीर में दिया गया था तथा शाहपुरा (फूलिया क्षेत्र) ब्रिटिश सरकार ने अजमेर इलाके से दिया था | सन् 1848 में ब्रिटिश सरकार ने एक सनद जारी करके शाहपुरा द्वारा देय कर (ट्रिब्यूट) 10,000 रू. वार्षिक तय कर दिया । साथ ही राजा को फूलिया परगना में दीवानी एवं फौजदारी मामलों को स्वतंत्र रूप से निपटाने तथा सजा देने के अधिकार दे दिए परन्तु उन सभी गंभीर अपराधों को, जिनमें मृत्युदण्ड अथश आजन्म कारावास का प्रावधान था, गवर्नर जनरल के एजेन्ट को सूचीत करने तथा उसकी सलाह से निपटाने का प्रावधान था ।
12.4 संधियों की मुख्य धाराएँ
सामान्य शर्त:- सन् 1817-18 से पूर्व की गई संधियां सहयोगी-सुरक्षा व्यवस्था पर आधारित थी परन्तु 1817- 18 की संधियों में राज्यों द्वारा ब्रिटिश सरकार की प्रभुता स्वीकार की गई थी और राज्यों के शासकों को अधीनस्थ दर्जा दिया गया था | परन्तु जो बात पूर्व की संधियों और बाद की संधियों में समान थी, वह भी लॉर्ड वेलेजली (1798-1805) द्वारा प्रतिपादित नीति जो प्रायद्वीप में एकमात्र अंग्रेजी सरकार की सर्वभौमिकता बनाए रखने की समर्थक थी और देशी राज्यों की राजनीतिक स्वतंत्रता छीनकर उन्हें केवल नाममात्र की सत्ता के चिन्ह धारण करने की अनुमति देना था ।
प्रत्येक राज्य के साथ संधि में उस राज्य की परिस्थितियों तथा ब्रिटिश सरकार की अपनी आवश्यकताओं के संदर्भ में शर्ते रखी गई थीं । कुछेक शर्त सभी राज्यों के लिए समान थी । सबसे महत्वपूर्ण शर्त वह थी, जिसका उद्देश्य सभी राज्यों को एक दूसरे से अलग-थलग करना था ताकि उनमें एकता न हो जाये | यह धारा सीधे सादे शब्दों में न कहकर घुमा फिराकर संधि में जोड़ी गई, जैसे, शासक एवं उनके वंशज उत्तराधिकारी दूसरी रियासत के शासक अथवा रियासत से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखेगें | वे बिना ब्रिटिश सरकार की जानकारी में लाए एवं बिना उनकी अनुमति के किसी अन्य रियासत अथवा उसके शासक के साथ किसी तरह की शर्ता या समझौता नहीं करेगें | वे तथा उनके वंशज व वारिस किसी राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे ।
दूसरी महत्वपूर्ण शर्त वह थी जिसके द्वारा शासकों ने ब्रिटिश सरकार के अधीनस्थ सहयोगी के रूप में कार्य करना स्वीकार किया और ब्रिटिश सरकार की सर्वाच्चसत्ता को स्वीकारा | यदि दो राज्यों में कोई विवाद हो जाये तो उक्त विवाद ब्रिटिश सरकार को मध्यस्थता एवं निर्णय के लिए सौंपा जावेगा | इन् संधियों में पीढ़ी दर पीढ़ी दोस्ती, मित्रता तथा आपसी हितों की समानता दर्शाते हुए कहा गया कि एक पक्ष का शत्रु अथवा मित्र दूसरे पक्ष का भी शत्रु अथवा मित्र माना जावेगा । राज्यों की सुरक्षा का दायित्व ब्रिटिश सरकार पर होगा तथा राज्यों के शासक ब्रिटिश सरकारके मांगने पर अपने राज्य के सैन्यदल उपलब्ध करायेंगे । कुछेक राज्यों से की गई संधियों में उन्होंने ब्रिटिश सरकार को नियमित रूप से कर (ट्रिब्यूट) देना स्वीकार किया । कुछेक राज्यों के साथ संधि में ब्रिटिश सरकार ने यह स्वीकार किया कि वह उन राज्यों में अपना कोई अधिकार-क्षेत्र (ज्यूरिसिड़शन) नहीं स्थापित करेगी ।
विशेष शर्त:-कुछेक राज्यों के साथ हुई संधियों में विशेष शर्त थीं जिनसे ब्रिटिश सरकार का हित किसी भी तरह प्रभावित होता था । उदाहरणार्थ, खोरासन एवं काबुल व सिरसा के बीच ब्रिटिश व्यापार बीकानेर राज्य के मध्य से गुजरने बाले मार्ग से होता था । ब्रिटिश हित में यह था कि यह मार्ग व्यापार व वाणिज्य के लिए सुरक्षित हो तथा माल पर कस्टम चुंगी नहीं बढ़ाई जावे | अत: बीकानेर राज्य से हुई संधि में ये शर्त धारा 10 में रखकर 155 राज्य के शासक को इनकी पालना के लिए पाबन्द कर दिया । इसी तरह धारा 7 में प्रावधान किया गया कि शासक के विरूद्ध कार्य करने वाले उपद्रवी ठाकुरों अथश राज्य के अन्य लोगों द्वारा विद्रोह करने अथश शासक की सत्ता उलटने की कोशिश करने बालों को काबू में करने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार की होगी परन्तु इसके लिए सेना पर होने वाले व्यव के भुगतान की जिम्मेदारी शासक की होगी | यदि शासक इसमें असमर्थ हुआ तो राज्य का कुछ इलाका वह ब्रिटिश सरकार को सुपुर्द कर देगा जो भुगतान के पश्चात् राज्य को वापस लौटा दिया जायेगा।
इसी प्रकार जोधपुर रियासत से की गई संधि में धारा 8 के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया कि ब्रिटिश सरकार के कभी भी चाहने पर रियासत 1500 घुडसवार की सैन्य टुकडी उनकी सेवा में उपलब्ध करायेगी और आवश्यक हुआ तो रियासत की पूी सेना भी ब्रिटिश सेना की सेवा में आयेगी सिवाय इतने सैनिक छोड़कर जो रियासत के आंतरिक प्रशासन चलाने के लिए आवश्यक हों |
उदयपुर, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ और बांसवाडा राज्यों से हुई संधियों में कुछ धाराएं ऐसी थी जिनकी कथनी और करनी में विरधोभास था । उदयपुर से हुई संधि की धारा 9 के अनुसार महाराणा अपनी रियासत के खुद मुख्तार (एबसोल्यूट) शासक होगें और उनके राज्य में अंग्रेजी हुक्मूत का दखल नहीं होगा । इस धारा के विपरीत कैफेन जेम्स टॉड जो ब्रिटिश सरकार का मेवाड में स्वय पॉलिटिकल एजेण्ट नियुक्त वा था ने सारी रियासत के प्रशासन को अपने कजे में लेकर पूर्णरूप से राजकाज को चलाया और मई 1818 में महाराणा और उसके सामंती के बीच एक कौलनामा कराया जिसमें उन सभी को उसमें लिखित शती की पालना के लिए पाबन्द किया ।
डूंगरपुर के साथ हुई संधि (धारा 4) में महारावल को राज्य का खुदमुख्तार (एबसोल्युट) शासक माना गया और कहा गया कि उनके राज्य में ब्रिटिश सरकार की दीशनी और फौजदारी हुकूमत दाखिल नहीं होगी परन्तु धारा 5 में लिखा गया कि राज्य के मामले अंग्रेज सरकार की सलाह के अनुसार तय होगें और इस काम में महाराश्ल की मर्जी का यथासाध्य पूरा ध्यान रखा जावेगा |
प्रतापगढ़ राज्य से हुई संधि की धारा 5 में कहा गया कि राजा अपने राज्य के स्वामी रहेंगे और लुटेरी जातियों का दमन करने एवं पुन: शांति व सुशासन स्थापित करने के अतिरिक्त उनके प्रबन्ध में अंग्रेजी सरकार कभी हस्तक्षेप नहीं करेगी राजा इकरार करते हैं कि वे अंग्रेजी सरकार की राय पर चलेंगे और अपने राज्य मे टकसाल या सौदागरों तथा व्यापार की वस्तुओं पर कोई अनुचित कर नहीं लगायेंगे | स्पष्ट है कि संधि में विसंगति के कारण राजा में निहित शक्तियां कबूल करके भी नकार दी गई।
सिरोही रियासत के महाराव के रीजेंट के साथ हुई संधि की शर्त ऐसी थी जिसकी वजह से रियासत को ब्रिटिश सरकार पर आश्रित एक कॉलोनी के रूप में काम करने को बाध्य कर दिया । संधि की शर्त 4 के अनुसार अंग्रेजी हुकूमत सिरोही रियासत में दाखिल नहीं होगी लेकिन यहां के राजा हमेशा अंग्रेजी सरकार के अफसरों की सलाह के अनुसार रियासती इंतजाम करेगें और उनकी राय पर अमल करेंगे । शर्त 5 के अनुसार रीजेंट ने जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने संधि में जीवनपर्यन्त के लिए रीजेंट मान लिया था, खुले रूप से वादा किया कि वे ब्रिटिश सरकार के हाकिमों की सलाह के अनुसार जिस बात
से राज्य को समृद्ध बनाने में ठीक समझा जावेगा, उसपर अमल करेंगे । ब्रिटिश हितों की रक्षार्थ शर्त संख्या 9 व 10 समाहित की गई । शर्त 9 में कहा गया कि ब्रिटिश अधिकारी सिरोही रियासत के इलाके में राहदारी व चुंगी आदि की दरें समय-समय पर निर्धारित करने में सक्षम होगें ताकि व्यापार और प्रजा को प्रोत्साहन मिले । शर्त 10 के मुताबिक जब कोई अंग्रेजी फौज की टुकड़ी सिरोही राज्य में अथवा आसपास के इलाकों में नियुक्त हो तो उसके लिए रसद व जरूरी सामान का प्रबन्ध बिना उस पर कोई महसूल लगाए, रियासत करेगी । यदि ब्रिटिश सरकार की राय होगी कि कुछ अंग्रेजी फौज सिरोही में रखी जावे तो राजा को इस बात से असंतोष या नाराजगी नहीं होगी । अगर यह जरूरी हो कि रियासत की जरूरत के वास्ते फौज की भर्ती हो और उसमें अंग्रेज अफसर रहें और वे फौज को नियंत्रित करें तो राजा इस मामले में अंग्रेजी हिदायतों की पालना करेंगे और राजा की यह फौज हमेशा अंग्रेजी सरकार के अफसरों के अधीन काम करने के लिए तैयार रहेगी ।
2.5 संधियों के प्रभाव
इन संधियों का तत्काल प्रणव यह हुआ कि मराठों, पिंडारियों और अन्य लूटपाट करने वाले कबीलों से राजपूताने की रियासतों को छुटकारा मिल गया, उन के द्वारा किया जा रहा शोषण समाप्त हुआ और राजाओं ने चैन की सास ली । संधियों के बाद उन्होने बाहरी एवं आंतरिक खतरों से राहत महसूस की क्योंकि आगे से राज्यों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार ने ले ली थी । आगे से अंतर्राज्यीय युद्धों की संभावना भी नहीं के बराबर हो गई क्योंकि आगे से अंतर्राज्यीय झगड़ों को ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थता द्वारा हल करने का प्रावधान रखा गया था । दूसरा प्रभाव यह हुआ कि अब सैनिक सहायता के लिए राजा अपने सामंतों की बजाय अंग्रेजी सरकार पर निर्भर हो गए | परन्तु इन संधियों के दूरगामी प्रभाव राज्यों के हित में नहीं थे, विशेषकर बित्तीय, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में ।
(1) राज्य वित्तीय रूप से पंगु हो गए: कई रियासतों के साथ की गई सन्धियों में एक शर्त यह भी जोड़ दी गई थी कि वे ब्रिटिश सरकार को नियमित रूप से खिराज (ट्रीब्यूट) देगें । इसके भुगतान की शर्त भी भिन्न-भिन्न थी | जयपुर के साथ हुई सधइ (शर्त 6) के अनुसार रियासत प्रथम वर्ष में कुछ भी भुगतान नहीं करेगी, परन्तु दूसरे वर्ष 4 लाख रूपए, तीसरे वर्ष 5 लाख, चौथे वर्ष 6 लाख, पांचवे वर्ष 7 लाख और छठे वर्ष 8 लाख रूपये भुगतान करेगी । आगे के वर्षों में भी आठ लाख रूपये वार्षिक तब तक देती रहेगी जब तक कि राज्य का राजस्व 40 लाख रूपये वार्षिक से ऊपर नहीं होता । राजस्व 40 लाख से ऊपर होने पर 8 लाख के अलावा चालीस लाख से ऊपर की राशि का 5/16 भाग अतिरिक्त देय होगा | बाद की घटनाओं से स्पष्ट द्वा कि राज इतनी बड़ी रकम देने की स्थिति में नहीं था । अत: राज्य पर कर्जा बढ़ता गया और खिराज का बकाया भी बढ़ता गया । सन् 1833 में यह बकाया 16 लाख रूपए हो गया तथा राजपूताना स्थित गवर्नर जनरल के एजेन्ट ने सरकार को सुझाव दिया कि छह माह का बकाया हो जाने पर उस पर 12 प्रतिशत की दर से आज वसूला जाये ताकि दरबार को देरी का बहाना न मिले । अन्य राज्यों के लिए भी बाज की यह दर लाग करने की नीति बना ली | जयपुर राज्य से ब्रिटिश सरकार ने सन् 1819 से 1835 तक खिराज (ट्रिब्यूट) के रूप में 1.18 करोड़ रूपयों की मांग की जिनमें से 96.75 लाख रुपए चुकाए जा चुके थे तथा वर्ष 1835 के अंत में 23.50 लाख रूपए (12 प्रतिशत बाज सहित) बकाया थे । रकम नहीं चुकाने का परिणाम यह हुआ कि राज्य के आंतरिक कामकाज में ब्रिटिश हस्तक्षेप बढ़ता गया और अंत में जोधपुर – जयपुर की शामलात सांभर झील को ब्रिटिश सरकार ने ले लिया ताकि खिराज की बकाया राशि नमक की आय से वसूली जा सके । आखिरकार ब्रिटिश सरकार को अहसास हुआ कि उन द्वारा शुरू में तय किया गया खिराज राज्य की वास्तविक आय के अनुपात से अधिक था । इसलिए उन्होने सन् 1842 में 46 लाख रूपए माफ कर दिए और उस वर्ष के बाद खिराज की राशि घटाकर 4 लाख रू. वार्षिक तय कर दी ।
इसी प्रकार उदयपुर से हुई संधि (शर्त 6) के अनुसार राज्य की आय का चौथाई भाग प्रतिवर्ष पांच वर्ष तक खिराज के रूप में दिया जाना तय हुआ और उसके बाद आय का 378 भाग प्रतिवर्ष देना तय हुआ | चूंकि राज्य यह राशि नियमित रूप से देने में असफल रहा परिणामस्वरूप सन् 1823 तक आठ लाख रूपया बकाया हो गया और महाजनों से लिया कर्ज 2 लाख रूपये हो गया । अत: राज्य का प्रबन्तध अंग्रेजी सरकार ने एक ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेन्ट को सीमा । महाराणा को प्रतिदिन खर्च के लिए एक हजार रूपये मिलते थे । राज्य के कुछ इलाकों का राजस्व केवल रिटिश सरकार को नियमित कर चुकाने के लिए आवांटित करना पड़ा । महाराणा जबान सिंह के शासन काल (1828-38 ई)में काफी खिराज बकाया हो गया और राज्य कर्ज से दब गया । उसके दत्तक पुत्र और उत्तराधिकारी सरदार सिंह के 1838 ई. में गद्दी पर बैठते समय राज्य पर लगभग 20 लाख रूपए का ऋण था जिसमें से 8 लाख खिराज की राशि थी । अंत में ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि यदि राज्य बकाया नहीं चुकाता है तो कुछ इलाके जमानत के रूप में ले लिए जावे | बाद में यह जानकर कि राज्य के लिए इतना खिराज चुकाना संभव नहीं है, सन् 1846 अरु में इसे घटाकर 2 लाख रूपए प्रतिवर्ष कर दिया।
अन्य राज्यों-जोधपुर, झालावाड़, बूंदी, कोटा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा आदि, जिनकी संधियों में खिराज देने का प्रावधान था, भी वित्तीय समस्याओं से ग्रसित हो गए | जो राज्य उदयपुर के ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेण्ट के अधीन थे, वहां चुंगी वसूलने का अधिकार ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथों में ले लिया ताकि खिराज की राशि इस धन से वसूली जा सके | साथ ही राज्यों को आगाह कर दिया कि खिराज चुकाने का कोई संतोषप्रद प्रबन्ध नहीं किया गया तो ब्रिटिश सरकार को उनके इलाकों पर कब्जा करने का अधिकार है ।
2. आर्थिक शोषण :
संधियों में स्पष्ट रूप से कोई ऐसा प्रावधान नहीं था जिससे ब्रिटिश सरकार की इन राज्यों में आर्थिक लाभ के लिए घुसपैठ का इरादा प्रकट होता हो सिवाय इसके कि कुछेक राज्यों में चुंगी की दर नियमित करने में उन्होने रुचि अवश्य दिखाई । परन्तु संधियों के पश्चात् उन्होने अपने व्यापारिक हितों के लिए रियायतों की मांग की ।
दौलतराव सिंधिया और ब्रिटिश सरकार के बीच दिनांक 25 जून 1818 को हुई संधि से अजमेर क्षेत्र अंग्रेजों के कव्वे में आ गया था जिसका वार्षिक राजस्व लगभग 5 लाख रू. था । उन्होने 28 जुलाई 1818 को अपना एक सुपीरन्टेंडेण्ट वहाँ नियुक्त कर दिया | अजमेर के मेरवाडा क्षेत्र के आसपास के गांव जो मारवाड और मेवाड राज्यों के थे, उनका प्रशासन भी अंग्रेजों ने उक्त राज्यों से संधियाँ करके अपने हाथों में ले लिया था | कालांतर में यहां ब्रिटिश कोष (ट्रेजरी) स्थापित होने से राज्यों द्वारा खिराज यहीं जमा कराया जाने लगा | सेठ साहूकारों को रियायत देकर अजमेर में बसने के लिए आकर्षित किया गया । सन् 1836 में एक नया शहर (नया नगर अथवा ब्यापार) बसाया गया जहां बाहर के आपारियो को रियायत देकर आने के लिए प्रेरित किया गया । बाबर के बसने से पाली (जोधपुर राज्य) का ब्यापारिक केन्द्र के रूप में महल समाप्त हो गया और खबर एक व्यापारिक केन्द्र बन गया ।
ब्रिटिश सरकार का ध्यान शीघ्र ही मालवा और हाडौती के क्षेत्र में पैदा होने बाले अफीम की ओर गया | मालवा का अफीम चीन के बाजारों में ब्रिटिश सरकार के बंगाल के अफीम से प्रतिस्पर्धा में ऊंचा रहता था । अत:मालवा व हाडौती के अफीम की पैदाकर और आपार को काबू में करने के लिए अंग्रेजी सरकार ने सभी प्रकार के तरीके अपनाए । उन्होने बूंदी और कोटा राज्यों पर अनुचित दबाव डालकर गुरु संधियां की परन्तु उसके बाबजूद वे न तो पैदावार और न ही व्यापार को नियंत्रित कर सके । अंत में उन्होने इस पर भारी चुंगी लगा दी और तस्करी रोकने के लिए विभिन्न उपाय किए | यह व्यापारिक मार्गों से होकर कराची जाता था जहां से यह जहाजों से चीन पहुंचता था । व्यापारिक मार्गों पर ब्रिटिश सरकार द्वारा निगरानी रखी जाने लगी और अफीम पकड़ने वालों को इनाम देने की घोषणा की गई । कुछेक राज्यों के शासकों ने ब्रिटिश सरकार के इस संबंध में दिए गए निर्देशों की अवहेलना की । राज्यों की आमदनी पर इस जापार के रोक-टोक से असर पड़ने लगा और बिरोध शुरू हो गया । अत: ब्रिटिश सरकार ने अफीम पर चुंगी बडा दी और नए व्यापारिक मार्ग खोले जिससे इस पर उनका नियंत्रण बना रहे |
राजपूताना में नमक का उत्पादन जोधपुर रियासत के सांभर डीडवाना, पचपद्रा, फलोदी, पोकरण, सरगोट नाश, गुदा, तथा भरतपुर व बीकानेर के कुछ हिस्सों में होता था । सन् 1835 से 1843 तक सांभर झील (जोधपुर-जयपुर का शामलात भाग) को ब्रिटिश सरकार ने ले लिया था तथा इस काल में उनकी इस स्रोत से आय 11.55 लाख रूपये हुई । यह नमक भिकनी, दिल्ली, आगरा, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, ग्वालियर, बुन्देलखण्ड तथा सेण्ट्रल प्रोविसेज को जाता था । इतने बड़े कारोबार को लेने के लिए ब्रिटिश सरकार लालायित थी और सन् 1856 में इस संबंध में संधियां करने का मानस बनाया परन्तु 1357 के विद्रोह के कारण बात आगे नहीं बढ़ पाई । सन् 1869 में जयपुर से संधि करके सांभर शामलात का जयपुर का भाग ब्रिटिश सरकार ने 2.75 लाख रूपये वार्षिक पर लीज पर ले लिया | अगले वर्ष (1870) जोधपुर ने भी अपने हिस्से की सांभर झील को ब्रिटिश सरकार को लीज पर दे दिया | उसी वर्ष दूसरी संधि के द्वारा गुढा व नाश को भी लीज पर दे दिया गया । सन् 1879 में जोधपुर से हुई संधि के द्वारा पचपद्रा, डीडवाना, फलोदी व की क्षेत्र लीज पर दे दिए गए । अन्य राज्यों, बीकानेर (लूनकरणसर व ताल छापर क्षेत्र) जैसलमेर, सिरोही, भरतपुर आदि से भी संधियां हुई । ब्रिटिश सरकार को सांभर , डीडवाना पचपद्रा आदि झीलों से उन्नीसवीं सदी के अंत में 1.11 करोड़ रूपयों की वार्षिक आय होती थी।
12.6 ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना
वित्तीय एवं आर्थिक हितों के साथ-साथ अंग्रेजी सरकार ने राज्यों पर राजनीतिक शिकंजा भी कसना शुरू किया जिससे कालांतर में उनकी प्रभुसत्ता स्थापित हो गई । उन्होने अपने पॉलिटिकल एजेण्ट्स इन राज्यों में नियुक्त कर दिए यद्यपि उनके साथ की गई संधियों में इस प्रकार की नियुक्तियों का कहीं भी उल्लेख अथवा प्रावधान नहीं था । जब बीकानेर राज्य के सुजानगढ़ कस्बे में सन् 1668 में पोलिटिकल एजेण्ट नियुक्त किया गया तो महाराजा ने इसके लिए विरोध जताया । अंग्रेजों का उत्तर था कि संधियों में ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है कि अंग्रेजी सरकार इस प्रकार की नियुक्तियाँ नहीं करेगी और पॉलिटिकल एजेण्ट की नियुक्ति कर दी गई । सन् 1832 में अजमेर में ‘एजेण्ट टू द गवर्नर जनरल इन राजपूताना स्टेट्स’ की नियुक्ति के पश्चात् राजस्थान स्थित सभी रियासतों पर ब्रिटिश नियंत्रण कसता गया।
ब्रिटिश सरकार धीरे-धीरे संधियों की शर्तो की पालना की बजाय उनकी अवहेलना और उल्लंघन में लिप्त हो गई । जोधपुर के महाराजा मानसिंह और उनके ठाकुरों के बीच, जो धोकलसिंह को उनकी जगह गद्दी पर बिठाना चाहते थे, सन् 1827 में विवाद बहुत बढ़ गया था तथा मानसिंह ने संधि की धारा के तहत अंग्रेजी सरकार से मदद मांगी परन्तु ब्रिटिश सरकार मदद के लिए नहीं आई इस दलील के साथ कि यह बाहरी आक्रमण नहीं था हालांकि धोकलसिंह की अगुवाई में ठाकुर जयपुर इलाके से जोधपुर पर आक्रमण की तैयारी कर रहे थे । इसी तरह जब 1839 में ठाकुरों और मानसिंह के बीच फिर टकराव हुआ तो ब्रिटिश सरकार ने मानसिंह को मदद देने की बजाय जोधपुर पर आक्रमण कर पांच महीने तक जोधपुर के किले को अपने कव्वे में रखा और महाराजा पर दबाव बढाकर एक कौलनामा लिखवाया कि भविष्य में वे अपना राज्य प्रबन्ध ठीक प्रकार से करेंगे । इस प्रकार ब्रिटिश सरकार संधि की शर्तों के मामले में दोहरे मापदण्ड अपनाती रही ।
इसी प्रकार बीकानेर महाराजा ने सन् 1830 में अपने विद्रोही ठाकुरों के खिलाफ संधि की शर्त 7 के तहत मदद मांगी । इस शर्त में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि महाराजा के मांगने पर, अंग्रेज सरकार महाराजा से विद्रोह करने वाले और उनकी सत्ता को न मानने वाले ठाकुरों तथा राज्य के अन्य पुरुषों को उनके अधीन करेगी परन्तु अंग्रेजी सरकार ने संधि की व्याख्या अपनी मर्जी से करते हुए कहा कि यह प्रावधान अस्थाई परिस्थितियों के लिए था तथा महाराजा को अधिकार नहीं देता कि वह ब्रिटिश सरकार से भश्षि में सहायता की गुहार करें । सरकार ने रेजिडेंट को लिखा कि रियासतों के आंतरिक झगड़ों को निपटाने के लिए ब्रिटिश सहायता कभी नहीं दी जावे जब तक कि ब्रिटिश सरकार के इस बारे में स्पष्ट निर्देश न हो । ब्रिटिश सरकार के इस कृत्य पर डॉ. करणीसिंह लिखते हैं कि बीकानेर दरबार को जब ब्रिटिश सहायता की सख्त आवश्यकता थी, तब उन्हें अधरझूल में छोड़कर उनके साथ विश्वासघात किया गया ।
कोटा से दिसम्बर 1817 में हुई संधि में एक पूरक शर्त फरवरी 1818 में जोड दी जिसके तहत कोटा राज्य का राज्य प्रबन्ध तत्कालीन दीवान राजराणा जालिमसिंह के बंशजों और उत्तराधिकारियों में निहित कर दिया । इस प्रावधान से महाराव नाममात्र का शासक रह गया और शासक व दीशन में निरन्तर टकराव एवं द्वेष रहने लगा । अंत में ब्रिटिश सरकार ने इसका हल सन् 1638 में निकाला और कोटा राज्य का बिमाजन करके झालावाड का नया राज्य बनाया जिसे जालिमसिंह के बंशजों को दे दिया गया ।
संधियों में दो प्रावधान ‘अधीनस्थ सहयोग’ और ‘ब्रिटिश सरकार की प्रभुसत्ता ऐसे थे जिनकी आड में ब्रिटिश सरकार ने राज्यों के आतरिक मामलों में खुलकर हस्तक्षेप किश, जिससे राज्यों की संप्रभुता पर आघात हुआ | किसी भी राज्य का सिक्का उसकी संप्रभुता का चिन्ह होता था | ब्रिटिश सरकार ने राजाओं के सिक्के ढालने के अधिकार और उनकी मुद्रा को प्रचलन में आने से रोकने का प्रयत्न किया | इसका राज्यों ने विरोध भी किया परन्तु सफल नहीं हुए | इसी प्रकार राज्यों की डाक सेवा को बन्द करवा कर इम्पीरियल डाक सेवा के लिए राज्यों में डाकघर चालू किए, अपने हित के लिए राज्यों में रेलवे सेवा शुरू की जिसके लिए जमीन और अन्य अधिकार राज्यों से प्राप्त किए जबकि संधियों में स्पष्ट था कि वे राज्यों में अपना कोई भी ‘अधिकार क्षेत्र’ (जुरिसिडक्शन) नहीं कायम करेगें
| डाक, तार व रेलवे कर्मचारियों की राज्यों में तैनाती राजाओं को हमेशा ब्रिटिश सरकार की उपस्थिति का अहसास कराती रहती । अपने हित अथवा राजाओं के अहित के लिए ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकार, नाबालिग राजा के काल में राज्य प्रबन्ध, राजा को राजगद्दी से पदच्युत करना इत्यादि मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए सदैव तत्पर रहती थी । कालांतर में राज्यों में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेजी अफसरों की नियुक्ति से राज्यों के भू-प्रबन्ध में सिद्धान्त, तिटिश राज्य आधारित पुलिस प्रशासन एवं चाय पालिका संबंधी कानून वनाए गए और उन्हें राज्यों में लाग कर दिया गया । देशी शिक्षा प्रणाली के स्थान पर रिटिश शिक्षा प्रणाली और देशी औषधालयों के स्थान पर ब्रिटिश आधारित चिकित्सा पद्धति का ढांचा राज्यों में खड़ा कर दिया गया ।
इन संधियों का सरसे पड़ा प्रभाव यह हुआ कि राजा- महाराजा अपनी ही सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार पर निर्भर हो गए । दे अपनी एवं प्रजा की सुरक्षा के प्रति उदासीन रहने लगे । राजा और प्रजा का आपसी संबंध ढीला होता चला गया और राज्य का प्रशासन कमजोर हो गया जिस पर अंग्रेज अफसरों अथवा अंग्रेजों के प्रति वफादार हिन्दुस्तानी अफसरों का कब्जा हो गया । धीरे-धीरे ब्रिटिश प्रभुसत्ता पोषित होती चली गई ।
इस प्रकार ब्रिटिश सरकार और राज्यों के आपसी संबंध संधियों के प्रावधानों पर कम और ब्रिटिश हितों और समय की आवश्यकताओं पर ज्यादा आधारित होने लगे । संधियों की शर्तों के विपरीत किए गए मनमाने कार्यो को नजीर और परिपाटी के रूप में उद्धृत करके भविष्य में प्रावधानों के उल्लंघन को न्यायोचित करार दे दिया जाता था । धीरे-धीरे इन स्वेच्छाचारी कार्यकलापों से ब्रिटिश प्रभुसत्ता रूपी एक ऐसा शब्दजाल बन गया जिसके तहत सभी जायज- नाजायज कार्यो को उचित ठहराया जाने लगा । कैसी विडंबना थी कि रियासतों और ब्रिटिश सरकार के बीच किसी विवाद की और निर्णय की मध्यस्थता का अधिकार भी ब्रिटिश सरकार को ही था और उसका फैसला रियासतों को मानना पडता था । सन् 1857 के विप्लव के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत में प्रशासन समाप्त हो गया और गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट 1858 के द्वारा प्रशासन ब्रिटिश साम्राज्ञी के अधीन हो गया । नवंबर 1, 1858 को ब्रिटिश महारानी की घोषणा के द्वारा भारतीय रियासतें ब्रिटिश साम्राज्य का अंग हो गई और उनकी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ हुई संधियों व इकरारनामा को ब्रिटिश सरकार ने भी पालनार्थ स्वीकार कर लिया । ब्रिटेन की रानी ने भारत की सम्राज्ञी (केसरे-हिन्द) का खिताब धारण कर यह दिखाने की कोशिश की कि वह मुगल साम्राज्य की उत्तराधिकारी थी परन्तु यह वास्तविकता नहीं थी । राज्यों का ब्रिटिश सरकार से संबंध संधियों और इकरारनामों से था और दोनों इन अनुबंधों से बंधे थे । सन् 1877 में लॉर्ड लिटन द्वारा दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया जिसमें राजाओं को बुलाकर यह दर्शाने की चेष्टा की गई कि ब्रिटिश सरकार और उनका संबंध राजा-सामंत (sovereign feudal) जैसा है और उनकी (राजाओं की) हैसियत अथवा स्तर मुगलों के राजपाट समाप्त होने से नहीं बदले हैं, केवल उनके स्वामी बदल गए हैं । यही धारणा ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना के मूल में थी जो आगे चलकर ब्रिटिश निरंकुशता में बदल गई ।
सन् 1858 तक ब्रिटिश सरकार की रियासतों के प्रति नीति अस्पष्ट थी क्योंकि भारत की सैकड़ों रियासतों की समस्याएं एवं परिस्थितियां भिन्न थीं और बदलती रहती थी | परन्तु 1658 के बाद राज्यो से संबंधों को नियंत्रित करने हेतु एक सैद्धान्तिक आधार तैयार किया गया ।
प्रश्न यह उठता है कि ब्रिटिश सम्राट को भारतीय रियासतों पर प्रभुसत्ता का उपभोग करने का अधिकार किसने दिया | सीधा सा उत्तर हैं । उनकी सैनिक ताकत ने | ली-वार्नर लिखते हैं कि ब्रिटिश सत्ता को ललकारा नहीं जा सकता क्योंकि ब्रिटिश सरकार और रियासतों की हैसियत बराबर की नहीं है, ब्रिटिश सरकार सर्वोच्च है और वह अपने अधिकारों और आदेशों की पालना करवाने में अपनी ताकत में कभी भी कमी नहीं होने देगी | ब्रिटिश सम्राट की प्रभुसत्ता को निम्नलिखित तलों के माध्यम से लागू किया जाता था
शाही विशेषाधिकार (रॉयल प्रिरोगेटिव्ज) सन् 1858 में भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश सम्राज्ञी द्वारा लिए जाने पर सभी राजाओं ने अपनी स्वामिभक्ति और निष्ठा सम्राज्ञी को अर्पित कर दी | किसी राजा की गद्दीनशीनी अथवा गद्दी से हटाने को मान्यता तभी मिलती थी जब ब्रिटिश सम्राट अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करके इस प्रकार का आदेश देता था |
पार्लियामेन्ट के अधिनियम: ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के अधिनियम अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सम्राट को प्रभुसत्ता के अधिकार प्रदान करते थे । उदाहरणार्थ, ब्रिटिश कानून के अनुसार ब्रिटिश भारत में रहने वाला कोई भी व्यक्ति रियासतों को रूपया उधार नहीं दे सकता था और न ही रियासतों के नाम पर रूपया एकत्रित कर सकता था ।
इस कानून से राजाओं द्वारा उधार लेने पर अप्रत्यक्ष रूप से रोक लग गई । इसी प्रकार इण्डियन आर्स एक्ट (1878) के तहत शस्त्रों तथा युद्धोपकरण का आयात-निर्यात ब्रिटिश सरकार द्वारा नियंत्रित होता था । इसका परिणाम यह रूप कि रियासतों को हथियारों के जरिये शक्तिशाली नहीं होने दिया जाता |
प्राकशतिक नियम: इसके अंतर्गत ब्रिटिश प्रभुसत्ता ने अमानवीय कृत्यों जैसे दास प्रथा, शिशुवध व सती को रोकने में अपने को सक्षम समझा ।
‘रियासतों से सीधा संबंध: संधियों और समझौतों के रूप में ब्रिटिश सरकार द्वारा द्वितीय पक्ष से सीधा इकरार करना प्रभुसत्ता की शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत था । मूल संधियों में संशोधन करना अथवा उनमें कुछ जोड़ना अथवा पूरक संधियों को मूल संधियों से जोड़कर कुछ नई गतिविधियां जैसे रेलवे, डाकघर, तारघर आदि जो मूल संधियों के समय विद्यमान नहीं थे, को नियंत्रित करना इस कृत्य में शामिल थे ।
दस्तूर, लोकाचार एवं प्रथाएं: दस्तूर, लोकाचार तथा प्रथाएं शाही विशेषाधिकारों के प्रमुख स्रोत थे । स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी बहुधा मौके पर ही परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के संदर्भ में कुछ निर्णय ले लेते थे और ये निर्णय कालांतर में प्रथागत कानून का रूप ले लेते थे ।
इस प्रकार की कार्यप्रणाली के कारण ब्रिटिश प्रभुसत्ता की प्रकृति लचीली थी और प्रभुसता का प्रमुख आधार था शक्तिशाली होना । ब्रिटिश प्रभुसत्ता का आधार यह नहीं था कि वह पूर्णरूपेण अधिकार सम्पन्न थी बल्कि यह था कि प्रथमत: तथा मूलत: वह प्रभुसत्ता थी और इसी कारण वह अधिकारों
का उपभोग करती थी और इसीलिए वह अंत तक अपरिभाषित रही ।
सारांश
राजपूताना की रियासतों में आपसी युद्ध, पिंडारियों की लूटपाट और अमीरखां के आक्रमण तथा कुटिल षडयंत्रो ने इस क्षेत्र में अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर दी थी । राजकोष खाली हो चले थे | वाणिज्य और व्यापार तय हो गए थे । ब्रिटिश सरकार भी पिंडारियों और मराठों से तंग आ चुकी थी । उनको अलग-अलग करने और अपनी शक्ति, को बढ़ाने की नीति के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने लार्ड हैस्टिंग्ज (1813-23 ई) के गवर्नर जनरल के कार्यकाल में रियासतों से 1817- 18 ई. में संधियां कर ली । अमीर खां और ब्रिटिश सरकार के बीच भी 1817 ई. मे संधि हो गई जिससे उस पर अंकुश लग गया । उसके पुनवार्स हेतु एक नई रियासत टोंक कायम की गई, जिसका उसे नवाब बना दिया गया।
अन्य रियासतों से हुई संधियों में शासको ने ब्रिटिश सरकार की सर्वोच्चता मानते हुए अपने को उसके एक अधीनस्थ सहयोगी के रूप में कार्य करना स्वीकार किया । संधियों की शर्तों के अनुसार वे आपस में कोई संबंध नहीं रख सकती थीं, आक्रमण नहीं कर सकती थी, आपसी विवाद को सुलझाने के लिए ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थता और उसका निर्णय उन्हें मान्य था । राज्यों की सुरक्षा की जिम्मेदारी अब ब्रिटिश सरकार की होगी तथा ब्रिटिश सरकार और राज्यों के बीच संबंधों में एक पक्ष का शत्रु अथवा मित्र दूसरे पक्ष का भी शत्रु अथवा मित्र माना जाएगा ब्रिटिश सरकार के मांगने पर शासकों को अपने राज्य के सैन्य दल भेजने पड़ेगें | संधि के अनुसार कुछेक राज्यों से नियमित खिराज (ट्रिब्यूट) मांगा गया । कुछेक संधियों में ब्रिटिश व्यापार के हितों संबंधी व अन्य विशेष प्रावधान रखे गये | सिरोही रियासत के रीजेंट से की गई संधि (1823 इ)ई की शर्ते तो ऐसी थीं जिससे वह रियासत ब्रिटिश सरकार की एक कॉलोनी बनकर रह गई।
इन संधियों का तत्काल प्रभाव यह हुआ कि मराठों पिंडारियों और अमीरखां का आतंक समाप्त हो गया और क्षेत्र में शांति स्थापित हो गई । रियासतों ने बाहरी और आतंरिक खतरों से राहत पाई | परन्तु इनके दूरगामी परिणाम राज्यों के लिए घातक सिद्ध हुए । जिन राज्यों से नियमित खिराज मांगी गई थी वह राशि इतनी अधिक थी कि वित्तीय रूप और आर्थिक रूप से वे पंगु हो गए और कर्ज से दब गए जिसे चुकाने के लिए उन्हें साहूकारों से कर्ज लेना पड़ा अथवा अपने राज्य के इलाके ब्रिटिश सरकार को गिरवी रखने पड़े । अफीम और नमक के व्यापार पर ब्रिटिश नियंत्रण हो गया।
धीरे-धीरे राज्यों के आंतरिक प्रशासन में ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप बढ़ने लगा और अंग्रेज अफसरों की राज्यों में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां होने लगी जिन्होने वहां के प्रशासन को बदल कर अपने सिद्धांतों के अनुरूप बनाया । रेल, डाक, तार, चिकित्सा, भूप्रबन्ध, पुलिस तंत्र, शिक्षा पद्धति, न्यायपालिका आदि के माध्यम से सभी क्षेत्रों में परिवर्तन आए । राजा की प्रशासन पर पकड़ कमजोर हो गई और प्रजा से उसका फासला बढ़ता गया । सामंती से भी उसका पहले जैसा संबंध नहीं रहा क्योंकि अब वह अपनी राज्य की सुरक्षा के लिए सामंतों पर नहीं बल्कि अंग्रेजी सरकार पर निर्भर था । धीरे-धीरे राज्यों और ब्रिटिश सरकार के संबंध संधियों के प्रावधानों पर कम और ब्रिटिश हितों पर अधिक आधारित होने लगे।
__ कालान्तर में हर काम में हस्तक्षेप बढ़ने और राज्यों के मुकाबले अधिक शक्तिशाली पक्ष होने के कारण ब्रिटिश प्रभुसता स्थापित हो गई । इस दासता से मुक्ति पाने के लिए उन्हें अपना अस्तित्व सदैव के लिए खोना पड़ा ।