चालुक्य, पल्लव एवं चोलों का प्रशासन एवं कला में योगदान: – बृहत् रूप से दक्षिण भारत से हमारा आशय उस सम्पूर्ण प्रायद्वीप से है जो नर्मदा के दक्षिण में और पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में अरब सागर से घिरा हुआ है ।
सामान्यत दक्षिण भारत या दक्षिणापथ से अभिप्राय उस भू-प्रदेश से है जो नर्मदा से कृष्णा नदी तक फैला हुआ है | कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों तक के समस्त प्रायद्वीप को हम सुदूर दक्षिण कह सकते हैं |
‘दक्षिण’ का नाम विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया जाता रहा है, परवर्ती चालुक्य अभिलेखों में दक्षिणापथ की परिभाषा रामेश्वर के सेतु से नर्मदा तक की गई है ।
गुप्तवंश के पतन के बाद एक ऐसी प्रवृत्ति का जन्म हुआ, जिसने विभिन्न रूपों में एक सहस्त्राब्दि तक प्रभावित किया । यह प्रवृत्ति थी- विकेन्द्रीकरण और क्षेत्रीयता की भावना ।
हर्ष के बाद से ही दक्षिण गतिविधियों का केन्द्र रहा । 550 ई.-750 ई. में दक्षिण के दो राजवंशों ने राजनीतिक गतिविधियों को अत्यधिक प्रभावित किया ।
ये राजवंश थे बादामी के चालुक्य और कांची के पल्लव । इसके अतिरिक्त चोलवंश भी उल्लेखनीय है जिसने 9वीं से 1 3वीं शताब्दी तक दक्षिण की राजनीति को प्रभावित किया ।
दक्षिण के इन तीनों राजवंशों चालुक्य, पल्लव और चोलों का प्रशासन एवं कला के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है ।
चालुक्य पल्लव एवं चोलों का प्रशासन एवं कला में योगदान – चालुक्य प्रशासन ।
दक्षिण भारत में छठी शताब्दी ई. के मध्य से आठवीं शताब्दी के मध्य तक चालुक्य वंश ने शासन किया । इनकी राजधानी कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में बादामी (वातापी) थी तथा यही से इस वंश का राजनीतिक उत्कर्ष हुआ, इसलिए इन चालुक्यों को ‘बादामी (वातापी) के चालुक्य’ कहा जाता है ।
इस चालुक्य वंश ने दक्षिण भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में एकीकृत करने का प्रयास किया | उत्तर भारत में इस वंश के समकालीन हर्षवर्धन का शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित था और दक्षिण में पल्लववंश का साम्राज्य था ।
बादामी के चालुक्यों का इतिहास जानने के लिए अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं जिनमें 634 ई. का पुलकेशी द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, 543 ई. का बादामी शिलालेख, 602 ई. का महाकूट अभिलेख, 612 ई. का दानपत्र लेख, पल्लव वंश के अभिलेख आदि उल्लेखनीय हैं ।
इसके अतिरिक्त कुछ विदेशियों के द्वारा दिए गए विवरण से भी चालुक्य वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है । हर्षवर्धन के शासन में आने वाला प्रसिद्ध चीनी यात्री हवेनसांग चालुक्यों के राज्य में गया था ।
उसने अपने यात्रा-वृत्तान्त में चालुक्य वंश के राज्य के विषय में विवरण प्रस्तुत किया है ।
इसी प्रकार पुलकेशी द्वितीय के ईरानी शासक खुसरो द्वितीय से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित थे जिनके विषय में ईरानी इतिहासकार ताबरी विवरण प्रस्तुत करता है ।
अत: इन दो विदेशी लेखकों के द्वारा दिए गए विवरण से भी तत्कालीन इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है
बादामी के चालुक्यों ने लगभग 200 वर्षों तक शासन किया । ये चालुक्य ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे । इन्होंने अश्वमेध, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था और धर्मशास्त्रों के अनुसार शासन का संचालन किया ।
चालुक्य शासन-व्यवस्था के गठन का आधार प्राचीन धर्मग्रन्थ थे और इन धर्मग्रन्थों में बतलायी गई राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली के अनुसार ही राजा राजतन्त्र का केन्द्र, सर्वशक्तिमान, निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने पर भी अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से करता था ।
इस वंश के राजाओं ने ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर’, ‘सत्याश्रय’, ‘श्रीबल्लभ’, ‘श्री पृथ्वीवल्लभ’ जैसी उपाधियाँ धारण की थीं |
राजा राज्य के बारे में पूर्ण जानकारी रखता था और अपना अधिकांश समय राजकीय मामलों को निपटाने के लिए सभामण्डप में ही व्यतीत करता था |
राजपद आनुवंशिक होता था फिर भी योग्यता और जन्म को विशेष महत्त्व दिया जाता था ।
वह युद्ध में प्रमुख सेनापति के कर्तव्य का पालन करता था तथा प्रजा के साथ सम्पर्क रखने के उद्देश्य रमे और विभिन्न भागों का दौरा करके समस्याओं से परिचित होता था तथा उनके निवारण में व्यक्तिगत रूचि लेता था ।
सामान्यत राजा के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राजसिंहासन का उत्तराधिकारी होता था, लेकिन अल्पायु के कारण शासक का भाई भी शासन कर सकता था ।
___ मन्त्रिपरिषद् का कोई उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन प्रशासन में उच्च पदों पर सामान्यत राजपरिवार के लोग नियुक्त किये जाते थे ।
राजा सदैव राज परिवार की योग्यता का यथा समय और आवश्यकतानुसार उपयोग किया करता था। ये सदस्य अपनी योग्यतानुसार ही प्रशासन के विभिन्न पदों पर नियुक्त किये जाते थे ।
सम्भवत यही राजा की परामर्शदात्री समिति रही होगी । लेखों में महासन्धिविग्रहिक विषयपति, ग्रामकूट, महत्तराधिकारिन आदि केन्द्रीय पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है ।
चालुक्यों ने अपने जीते हुए प्रदेशों पर सामन्तों को शासन करने का अधिकार प्रदान किया था, इसलिए राज्य में प्रशासनिक दृष्टि से एकरूपता और समानता का अभाव था ।
सभी प्रान्तों में वहाँ के सूबेदारों के अनुसार ही कानून, लगान, न्याय आदि की व्यवस्था होती थी | विशेष कर विजित प्रान्त के शासकों को आन्तरिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी ।
वे प्राय मनमाना शासन किया करते थे | विष्णुवर्धन के सतारा दानलेख में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है । आलुप, सिन्द, सेन्दक, बाण, गंग, तेलगु-चोड़ आदि चालुक्यों के शासक थे ।.
ये सामन्त समय समय पर राजा को ‘कर’ प्रदान करते थे तथा युद्धों के समय अपनी सेना सहित राजा की सेवा में उपस्थित होते थे ।
ये सामन्त अपने क्षेत्र में लगभग स्वतन्त्रतापूर्वक शासन कार्य करते थे, किन्तु शर्तों का उल्लंघन करने पर राजा को हस्तक्षेप करना पड़ता था ।
‘ग्राम’ सबसे छोटी इकाई थी तथा उसके अधिकारी को ‘गामुण्ड’ कहा जाता था । इसके अतिरिक्त ‘महाजन’ का भी उल्लेख मिलता है जो ग्राम प्रशासन में सहायता प्रदान करता था । ‘गामुण्ड’ की नियुक्ति केन्द्र से होती थी | ग्राम संस्थाओं के शासन में केन्द्र का हस्तक्षेप बहुत अधिक था तथा उनका संचालन राजाज्ञाओं द्वारा ही होता था | ‘महाजन’ विशेष रूप से उद्योग व्यापार के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे ।
चालुक्य अभिलेखों में तत्कालीन कर व्यवस्था का अनुमान होता है जैसे लक्ष्मेश्वर लेख में भूमि तथा भवन-कर का उल्लेख है । पुलकेशी द्वितीय के हैदराबाद दानपत्र में निधि, उपनिधि (निक्षेप), विलप्त (लगान बन्दोबस्त) तथा उपरिकर (अधिभार) का उल्लेख मिलता है | नौसारी दानपत्र में उद्रंग (तहबजारी) तथा परिकर (चुंगी) का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त धार्मिक कर भी लिये जाते थे । कुछ विशेष अवसरों पर करों में छूट की व्यवस्थाएँ भी थी ।
चालुक्यों की कला
चालुक्य शासकों में अत्यधिक धार्मिक सहिष्णुता थी ।
वे ब्राह्मण धर्म के अनुयायी और शैव मतावलम्बी थे, किन्तु अन्य धर्मावलम्बियों को भी मुक्तहस्त दान देते थे । इसके परिणामस्वरूप इन शासकों ने कई प्रसिद्ध शैव मन्दिरों का निर्माण करवाया ।
इस युग में कई जैन मन्दिर और बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ । राजधानी वातापी में इनके मन्दिरों की बहुलता थी । इस युग में कई गुफा मन्दिरों का भी निर्माण हुआ |
यह काल कला एवं स्थापत्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण काल था । इस काल में बौद्ध एवं जैनों के अनुकरण पर हिन्दू देवी-देवताओं के लिए पाषाण पर्वतों को काट-काटकर मन्दिर बनाये गये ।
चालुक्यों ने बादामी, ऐहोल एवं पट्टडकल में अनेक मन्दिरों का निर्माण किया | बादामी में पाषाण को काटकर चार स्तम्भ युक्त मण्डप बनाए गए, जिनमें तीन हिन्दू एवं एक जैन धर्म से सम्बन्धित है ।
प्रत्येक में स्तम्भयुक्त बरामदा, मेहराबयुक्त हॉल, एक छोटा वर्गाकार गर्भगृह पाषाण में गहराई तक काटकर बनाये गये हैं । इनमें एक वैष्णव गुहा है ।
इसकी दीवारों पर विष्णु की दो मूर्तियाँ अंकित हैं । इन गुहाओं का वास्तु तथा उकेरण अत्यन्त उच्चकोटि का है । बादामी का मालगिती शैव मन्दिर वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसका निर्माण 625 ई. में हुआ था |
ऐहोल को ‘मन्दिरों का नगर’ कहा जाता है । यहाँ पर लगभग 90 मन्दिरों के अवशेष हैं | यहीं पर रविकीर्ति द्वारा बनवाया गया ‘मेगुती का मन्दिर’ भी है ।
अधिकांश मन्दिर विष्णु एवं शिव के हैं । ऐहोल का विष्णुमन्दिर अपेक्षाकृत सुरक्षित है । यही के हिन्दू गुहा मन्दिरों में सबसे सुन्दर सूर्य का मन्दिर है जिसे ‘लाढ खाँ’ का मन्दिर कहा जाता है |
इसकी छत चपटी है और इसमें एक छोटा वर्गाकार गर्भगृह है तथा द्वारमण्डप बना है । गर्भगृह के सामने स्तम्भों पर आधारित बरामदा तथा विशाल सभाकक्ष है | छत बड़े-बड़े पत्थरों से बनाई गई है ।
इस मन्दिर में शिखर नहीं है । यही दुर्गा का एक मन्दिर है जिसका निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर हुआ है | छत भी चपटी है । गर्भगृह के ऊपर शिखर है तथा बरामदे में प्रदक्षिणा-पथ बनाया गया है ।
पट्टडकल में भी चालुक्यकालीन मन्दिरों के सुन्दर उदाहरण हैं । यहाँ पर दस मन्दिर हैं जिनमें चार उत्तरी नागर शैली एवं छ दक्षिणी द्रविड़ शैली में बने हैं ।
उत्तरी शैली में बना ‘पापनाथ का मन्दिर’ तथा दक्षिणी शैली में बने ‘विरूपाक्ष’ एवं ‘संगमेश्वर’ मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पट्टडकल के मन्दिरों में सबसे सुन्दर एवं आकर्षक मन्दिर ‘विरूपाक्ष मन्दिर’ हैं | इसका निर्माण विक्रमादित्य की एक रानी ने 740 ई. के लगभग कराया था ।
इस मन्दिर के सामने नन्दी मण्डप है तथा चारों और वेदिका और तोरणद्वार हैं । मन्दिर की बाहरी दीवार में स्तम्भ जोडकर सुन्दर ताखों का निर्माण किया गया है जिनमें मूर्तियाँ रखी गई हैं ।
ये मूर्तियाँ शिव, नाग-नागिन तथा रामायण के दृश्यों को अभिव्यक्त करती हैं । मन्दिर के निर्माण पर पल्लव-द्रविड़ वास्तुशैली का प्रभाव देखा जा सकता है ।
इस मन्दिर के विषय में पर्सीब्राउन ने लिखा है, “विरूपाक्ष मन्दिर प्राचीनकाल की उन दुर्लभ इमारतों में से एक है जिनमें उन मनुष्यों की भावना अब भी टिकी हुई है जिन्होंने इसकी कल्पना की तथा अपने हाथों से निर्मित किया ।
कुछ विद्वानों के मतानुसार अजन्ता श्रृंखला में अनेक गुहाओं का निर्माण चालुक्य शासकों द्वारा करवाया गया था। गुफा संख्या 1 एवं 2 विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
इनमें बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का चित्रण है । अजन्ता की गुहाओं में जातक कथाओं के चित्र भी अंकित हैं । ये भित्तिचित्र अत्यन्त सजीव व चित्ताकर्षक हैं । गुहा मन्दिर निर्माण की परम्परा जो गुप्तकाल में प्रारम्भ हुई थी, चालुक्य काल में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई ।
पल्लव प्रशासन
पल्लव इतिहास की जानकारी के मुख्य स्रोत दानपत्र है जिन्हें उपहार या दान में दिया गया था । बहुत से घोषणापत्र भी हैं जिनसे प्रशासन सम्बन्धी सूचनाएँ मिलती है ।
प्राकृत एवं तमिल में भी इनके शिलालेख मिलते है । सातवाहनों के पतन के बाद दक्षिण भारत में जो राजवंश पैदा हुए उनकी प्रशासन व्यवस्था उसी प्रकार की थी जैसी उत्तर भारत में समकालीन राज्यों की, लेकिन उसमें कुछ विशिष्ट एवं स्थानीय तत्त्व भी थे ।
___पल्लव नरेश ब्राह्मण धर्मावलम्बी थे | पल्लव अभिलेखों से वाजपेय, राजसूय और अश्वमेध यज्ञों के सम्पादन का बोध होता है | कई पल्लव शासकों ने अनेक यज्ञों का सम्पादन किया ।
इसलिए इस वंश के शासकों ने ‘धर्ममहाराजाधिराज’ एवं ‘धर्ममहाराज’ जैसी उपाधियाँ धारण की । इनकी शासन प्रणाली में मौर्यों एवं गुप्तों की शासन प्रणाली की अनेक विशेषताएँ विद्यमान थी ।
प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी ‘राजा’ होता था । राजा में ईश्वरीय रूप की कामना की जाती थी । वह बड़ी-बड़ी उपाधियाँ धारण करता था और राज्य की सम्पूर्ण शक्तियाँ उसमें केन्द्रित थी ।
परन्तु राजा निरंकुश नहीं होता था, बल्कि प्रजा की भलाई करना अपना प्रमुख कर्तव्य मानता था ।
राजा ही मन्त्रियों एवं उच्चाधिकारियों की नियुक्ति करता था ।
युद्धों के समय वह स्वयं युद्ध में सेना का संचालन करता था । शान्ति के समय वह जन-कल्याण कार्य जैसे मन्दिरों एवं तालाबों का निर्माण आदि करवाता था एवं दान-दक्षिणा वितरित करता था ।
राजा अपने योग्यतम पुत्र को ‘युवराज’ नियुक्त करता था, जो उसे प्रशासन के संचालन में सहयोग देता था |
कभी-कभी तो उनकी भूमिका इतनी सक्रिय होती थी कि वे अपने अधिकार से भूमि अनुदान-पत्र भी जारी कर देते थे । राजा को प्रमुख विषयों पर कुछ विशेष मन्त्रियों का एक दल सलाह देता था, इस दल को ‘रहस्यादिकल’ कहा जाता था ।
लेकिन राजा का प्रमुख सहायक ‘युवराज’ ही होता था | पल्लव प्रशासन में वंशानुगत राजपद का ही प्रचलन था ।
राजकुमारों को साहित्य, दर्शन, विधि आदि की समुचित शिक्षा दी जाती थी और उनकी सम्पूर्ण क्षमताओं को उभारने का प्रयास किया जाता था | उत्तराधिकारी के अभाव में शासक का चुनाव किया जाता था।
‘पल्लवों’ का सम्पूर्ण साम्राज्य कई राष्ट्रों’ (प्रान्तों) में विभाजित था और राष्ट्र कई ‘विषयों’ (जिलों) में विभाजित था।
विषयों में कई ‘कोट्टम’ एवं ‘ग्राम’ होते थे । इस प्रकार पल्लव शासन-व्यवस्था में ग्राम सबसे छोटी इकाई थी | ग्राम का मुखिया ‘ग्रामभोजक’ कहलाता था |
सामान्यत राष्ट्रों’ (प्रान्तों) में राजा अपने परिवारजनों या निकट सम्बन्धियों को राष्ट्रीय’ के रूप में नियुक्त करता था | कभी-कभी राष्ट्रीय’ के पदों पर सामन्त भी नियुक्त किये जाते थे |
इस प्रकार राष्ट्रों (प्रान्तों) का सर्वोच्च पदाधिकारी राष्ट्रीय’ कहलाता था जिसे हम ‘प्रान्तपति’ कह सकते है ।
प्रत्येक राष्ट्र’ में कई ‘विषय’ होते थे और इन विषयों के उच्चाधिकारियों को “विषयपति’ कहा जाता था जो वर्तमान समय में जिलाधिकारी के समान अधिकारी होते थे ।
‘कोट्टम’ सम्भवत नगरों, कस्बों के लिए प्रयोग में लिया गया शब्द है, इसके उच्चाधिकारी को देशाधिकृत कहा जाता था । ग्रामों में ‘बपित्र के निर्देशों से शासन सम्बन्धी कार्य सम्पन्न किये जाते थे ।
‘मण्डपी’ नामक अधिकारी राज्य का कर संग्रह करता था तथा वन विभाग के अध्यक्ष को ‘गुमिक कहा जाता था | ‘तीर्थिक’ नामक पदाधिकारी तीर्थों, तड़ागों, जलाशयों आदि की देखरेख एवं उचित व्यवस्था करता था ।
ग्रामों में पूर्णतया स्वायत्त शासन प्रणाली प्रचलित थी । प्रत्येक ग्राम में ‘ग्रामसभा’ ग्रामीण विषयों, जैसे-मन्दिरों, तड़ागों, उद्यानों की व्यवस्था एवं उनकी देखरेख करती थी ।
सार्वजनिक कार्यों का सम्पादन करना ग्रामसभा का प्रमुख कार्य था । यह ग्रामसभा न्यायालय के रूप में भी कार्य करती थी । ग्रामीण बिषयों से सम्बन्धित विवादों पर निर्णय देने का अधिकार ग्रामसभा को था |
ग्रामों से कर एकत्रित करने वाले अधिकारी को मण्डवी कहते थे । रोमिला थापर ने दक्षिण की सभाओं का रोचक वर्णन किया है ।
सभाएँ अनेक प्रकार की और अनेक स्तरों पर होती थीं जिनमें वणिक, श्रेणियों, शिल्पियों तथा कारीगरों (जैसे जुलाहे तेली आदि), विद्यार्थियों, सन्यासियों एवं पुरोहितों की सभाएँ भी सम्मिलित थी ।
पल्लवों के साथ चालुक्यों एवं अन्य- जैसे गंग, पाण्ड्य एवं चोल वंशों से संघर्ष होते रहते थे, अत : इस स्थिति में इन्होंने सैन्य संगठन पर विशेष ध्यान दिया ।
सम्पूर्ण सेना का सर्वोच्च अधिकारी स्वयं ‘राजा’ होता था, लेकिन सैन्य संगठन एवं उसकी कार्य क्षमता को बनाए रखने के लिए इसका अध्यक्ष नियुक्त किया जाता था, जो सेनापति कहलाता था |
सन्धि, युद्ध, सेना के गठन आदि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण निर्णय राजा स्वयं ही लेता था | सेनापति के आधीन ‘नेयक’ नामक एक अन्य सेना का उच्चाधिकारी भी होता था |
पल्लव शासकों ने जलसेना का विकास भी कर लिया था | महाबलिपुरम् तथा नेगापत्तनम् में पोतांगनों का निर्माण किया जाता था । डॉ. रोमिला थापर के अनुसार पल्लवों की नौसेना युद्ध के अतिरिक्त और भी कार्य करती थी |
जल सेना की सहायता से ही पल्लवों ने सिहलद्वीप में सफलतापूर्वक हस्तक्षेप किये तथा बृहतर भारत के अन्य क्षेत्रों से सम्बन्ध स्थापित किये |
यह दक्षिण- पूर्वी एशिया के साथ व्यापार में भी सहायता देती थी । नि :सन्देह नौसेना की भूमिका भारतीय संस्कृति के प्रचार- प्रसार में भी अप्रत्यक्ष रूप से रही है ।
पल्लव कला।
भारत के सुदूर दक्षिणी क्षेत्र को, जिसे ‘तमिल प्रदेश’ कहा जाता है, प्राचीनकाल में ‘द्रविड़ प्रदेश’ कहा जाता था ।
इस द्रविड़ देश में पल्लव शासकों ने जिस स्थापत्य शैली का विकास किया, उसे ‘द्रविड़ शैली’ कहा जाता है । इस प्रदेश में पल्लवों ने छठी सदी ई. से दसवीं सदी ई. तक शासन किया है ।
इनके शासनकाल की वास्तुकला के उदाहरण उनकी राजधानी काञ्ची तथा महाबलिपुरम् में पाये जाते हैं | कुछ उदाहरण तंजौर प्रदेश और पुड्डुकोटाई में भी पाये जाते हैं ।
पल्लव कलाकारों ने काष्ठकला एवं गुहाकला से वास्तुकला को मुक्त किया । इनकी प्रारम्भिक कलाकृत्तियो में उन्हीं प्रणालियों का सहारा लिया गया, जिन्हें काष्ठ एवं कन्दरा (गुहा) कलाकार ने अपनाया था, धीरे- धीरे इस प्रणाली का लोप होता चला गया |
पल्लव शासकों ने पाषाण वास्तुकला को प्रारम्भ किया और उनके संरक्षण में अनेक मन्दिर पहाड़ों की चट्टानों को काटकर बनाए गए, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा अन्य हिन्दू देवी- देवताओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गई |
पल्लवकालीन वास्तुकला को चार शैलियों में विभक्त किया जा सकता है जो प्रमुख पल्लव नरेशों के नाम पर हैं।
(1) महेन्द्रवर्मन शैली (610 ई. 640 ई.) (2) मामल्ल शैली (640 ई. 674 ई.) (2) राजसिंह शैली (674 ई. 800 ई.) और (4) नन्दिवर्मन शैली (800-900 ई.)
पर्सीब्राउन ने लिखा है, “जिन सभी शक्तियों ने मिलकर दक्षिण भारत के इतिहास का निर्माण किया है, उनमें से किसी ने भी इस क्षेत्र के स्थापत्य को उतना प्रभावित नहीं किया है
जितना कि पल्लवों ने, जिनके द्वारा निर्मित भवनों ने द्रविड़ शैली को आधार प्रदान किया ।” 15.5.1 महेन्द्रवर्मन शैली (610 ई.640 ई.) इस शैली का विकास 610 ई. से 640 ई. के बीच हुआ ।
इस शैली के मन्दिरों को ‘मण्डप’ कहा जाता है । ये ‘मण्डप’ साधारण स्तम्भयुक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं, जो कठोर पाषाण को काटकर गुहा मन्दिर के रूप में निर्मित किये गये हैं ।
मण्डप के बाहर बने मुख्य द्वार के दोनों ओर द्वारपालों की सुन्दर मूर्तियाँ हैं । स्तम्भ सामान्यतया चौकोर हैं ।
महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्दु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पञ्चपाण्डप मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्र विष्णु गृहमण्डप, मामण्डूर का विष्णुमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
मामल्ल शैली (640 ई. 674 ई.)
इस शैली का विकास नरसिंहवर्मन प्रथम ‘महामल्ल’ के शासन काल में हुआ ।
‘महामल्ल’ नरसिंहवर्मन प्रथम की उपाधि थी, अत इसके शासनकाल की स्थापत्य विशिष्ट शैली को ‘मामल्ल शैली’ कहा गया है । इस शैली का प्रमुख केन्द्र मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम्) नगर था जिसकी स्थापना नरसिंहवर्मन प्रथम ने की थी ।
इस शैली के अन्तर्गत दो प्रकार के मन्दिरों का निर्माण हुआ प्रथम ‘मण्डपशैली’ के मन्दिर तथा द्वितीय ‘रथ’ के आकार के मन्दिर ।
ये ‘मण्डप’ वैसे ही मन्दिर हैं, जो महेन्द्रवर्मन के समय से निर्मित हो रहे थे, उन्हीं का कुछ विकसित रूप मामल्ल शैली में दिखाई देता है ।
महेन्द्रवर्मन शैली के मण्डपों में और इस काल में निर्मित मण्डपों में मुख्य रूप से अलंकरण में भिन्नता दिखाई देती है | मामल्ल शैली के मण्डप अपेक्षाकृत अधिक अलंकृत हैं ।
इन मण्डपों की विशेषता इनके स्तम्भ हैं, ये स्तम्भ सिंहों के शीर्ष पर स्थित हैं तथा स्तम्भों का शीर्ष भाग मंगलघट के आकार का है । इनमें आदिवराहमण्डप महषिमर्दिनी मण्डप, पञ्चपाण्डपमण्डप और रामानुजमण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
इस शैली में निर्मित दूसरे प्रकार के मन्दिर ‘रथ’ हैं । ये एकाश्मक मन्दिर हैं । इन्हें एक विशाल पाषाण चट्टान को काटकर बनाया गया है । ये रथ मन्दिर काष्ठ के रथों की आकृत्ति से समानता रखते हैं ।
इनकी वास्तुकला शैली मण्डप शैली के समान है । इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यगृहों से हुआ प्रतीत होता है । प्रमुख रथ मन्दिरों में द्रौपदी रथ अर्जुन रथ, नकुल-सहदेव रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिडारि रथ आदि उल्लेखनीय हैं। ये सभी रथ मन्दिर शैवमन्दिर हैं ।
द्रौपदी रथ सबसे छोटा है । धर्मराज रथ सबसे भव्य एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसका शिखर पिरामिड के आकार का है | यह मन्दिर दो भागों में है | नीचे का भाग एक वर्गाकार खण्ड है और इससे लगा हुआ संयुक्त बरामदा है, ऊपरी भाग में पिरामिड की आकृति का शिखर है ।
यह रथ मन्दिर आयताकार है तथा इसका शिखर ‘ढोलाकार’ आकृति का है | मामल्लशैली के रथ मन्दिर अपनी मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध हैं ।
इन रथों पर दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि की उत्कीर्ण मूर्तियाँ मिलती हैं | नरसिंहवर्मन मामल्ल के शासनकाल के अन्त के साथ ही इस शैली का भी अन्त हो गया ।
इसके पश्चात् अलग शैली के मन्दिरों का निर्माण होने लगा ।
राजसिंह शैली (674 ई. 800 ई.)
पल्लव शासक राजसिंह के शासनकाल में गुहामन्दिरो के स्थान पर ईट, पाषाण आदि की सहायता से एक भिन्न एवं स्वतन्त्र शैली के मन्दिरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ | जिसे ‘राजसिंह शैली’ कहा जाता है ।
महाबलीपुरम् में समुद्र तट पर स्थित ‘तटीय मन्दिर’ (शोर मन्दिर) और काञ्ची में ‘कैलाशनाथ मन्दिर’ तथा ‘बैकुण्ठ-पेरुमाल’ मन्दिर इस शैली के महत्त्वपूर्ण मन्दिर हैं ।
महाबलीपुरम् में समुद्रतट पर बना शोर-मन्दिर (तटीय शैव मन्दिर) पल्लव स्थापत्य एवं शिल्पकला का अद्भुत स्मारक है | यह मन्दिर एक विशाल प्रांगण में बनाया गया है ।
इसका गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा मन्दिर का प्रवेशद्वार पश्चिम की ओर है और इसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है । इसका शिखर सीढ़ीदार है और शीर्ष पर स्तूपिका निर्मित है ।
इसकी दीवारों पर गणेश, स्कन्द, गज, शार्दूल आदि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । मन्दिर के विभिन्न अंगों में सुन्दर समन्वय है ।
___ काञ्ची के कैलाशनाथ मन्दिर के निर्माण में राजसिंह शैली का चरम उत्कर्ष दिखाई देता है ।
इस मन्दिर का निर्माण नरसिंहवर्मन द्वितीय ‘राजसिंह’ के शासनकाल में प्रारम्भ हुआ और उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन द्वितीय के समय पूरा हुआ |
इस मन्दिर में द्रविड़ शैली की सभी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं, जैसे- परिवेष्ठित प्रांगण, गोपुरम्, स्तम्भयुक्त मण्डप, विमान आदि ।
मन्दिर में शिव की क्रीड़ाओं से सम्बन्धित अनेक दृश्यों का मूर्तियों के द्वारा सुन्दर प्रदर्शन किया गया है ।
कैलाशनाथ मन्दिर के निर्माण के पश्चात् बैकुण्ठ पेरूमाल का मन्दिर बना, जो पल्लव वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है । यह विष्णु मन्दिर है । इसमें प्रदक्षिणा पथ युक्त गर्भगृह तथा सोपानयुक्त मण्डप है |
इस मन्दिर का विमान वर्गाकार तथा चार मंजिला है जो लगभग 60 फुट ऊँचा है । प्रथम मंजिल में विष्णु की विभिन्न मुद्राओं की मूर्तियाँ हैं तथा मन्दिर की भीतरी दीवारों पर राज्याभिषेक, उत्तराधिकार चयन, अश्वमेध, युद्ध एवं नगर-जीवन के दृश्य अंकित है ।
यह मन्दिर पल्लव वास्तुकला का पूर्ण विकसित स्वरूप प्रस्तुत करता है ।
नन्दिवर्मन शैली (800 ई.-900 ई.)
इस शैली के मन्दिरों में कोई नवीन वास्तु तत्त्व दिखाई नहीं देता, लेकिन ये आकार-प्रकार में निरन्तर छोटे दृष्टिगोचर होते हैं और पूर्वकाल में बने हुए मन्दिरों की प्रतिकृति मात्र दिखाई देते हैं ।
ऐसा प्रतीत होता है कि ये मन्दिर स्वतन्त्र मन्दिर शैली के अन्तिम चरण के हैं ।
इस शैली में नन्दिवर्मन एवं उसके उत्तराधिकारियों के काल में बने मन्दिर आते हैं जिनमें काञ्चीपुर के मुक्तेश्वर तथा मातंगगेश्वर मन्दिर तथा गुडीमल्लम का परशुरामेश्वर मन्दिर उल्लेखनीय है ।
इस शैली के मन्दिरों के स्तम्भ-शीर्षों में कुछ विकास दिखाई देता है, लेकिन इनमें ओज का अभाव है ।
ये इस बात की ओर संकेत करते है कि बाहरी आक्रमण (पश्चिमी चालुक्यों) के कारण राजवंश की शक्ति क्षीण हो रही थी और सम्भवत: इनके निर्माता या समाज संकट के दौर से गुजर रहे थे ।
कलात्मक प्रवृत्तियाँ सुखद एवं शान्तिकाल की परिचायक होती हैं 10वी शताब्दी तक इन मन्दिरों का निर्माण लगभग बन्द हो गया ।
इस प्रकार पल्लव वास्तुकला का प्राचीन भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है |
पल्लवों ने बौद्ध चैत्यों से विरासत में प्राप्त कला का स्वतंत्र विकास करके कला की नवीन शैलियों को जन्म दिया, जो चोल एवं पाण्ड्य शासनकाल में पूर्णरूप से विकसित हुई ।
पल्लक्कला की – विशेषताएँ दक्षिण-पूर्वी एशिया तक विस्तृत हुई । वहाँ के मन्दिरों में पल्लव-कला की विशेषताएँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं ।
चालुक्य पल्लव एवं चोलों का प्रशासन एवं कला में योगदान चोल प्रशासन
चोलराजा साहसी सैनिक, आक्रान्ता एवं विजेता ही नहीं थे, वरन् उनकी रचनात्मक शक्ति एवं क्षमता भी कम नहीं थी ।
एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना के साथ ही चोल राजाओं ने अपने साम्राज्य में एक सुविचारित, सुसंगठित. सुव्यवस्थित एवं सुदृढ़ प्रशासन की स्थापना की, जिसकी अपनी अनेक प्रमुख विशेषताएँ थी ।
उनका शासन-तन्त्र राजसत्तात्मक होते हुए भी नागरिकों के अधिकारों को महत्त्व प्रदान करने वाला था । सुदृढ़ केन्द्रीय प्रशासन के साथ ही चोल प्रशासन में अत्यधिक स्थानीय स्वायत्तता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है |
राजा
साम्राज्य की सम्पूर्ण सत्ता का स्रोत ‘राजा’ ही था जो प्रशासन का प्रमुख संचालक और प्रधान था । उसका केन्द्रीय शासन व्यवस्था पर पूर्ण अधिकार था ।
राजपद वंशानुगत था, कदाचित् ‘राजा’ योग्यता के आधार पर छोटे पुत्रों को भी युवराज घोषित कर देता था |
सेना के सभी अंगों का प्रधान ‘राजा’ ही होता था और उसके अधिकारों पर कोई संवैधानिक नियन्त्रण नहीं था ।
एस.कृष्णा स्वामी आयंगर, नीलकण्ठ शास्त्री तथा टी.वी. महालिंगम आदि विद्वानों के मतानुसार चोल राजाओं ने एक सुदृढ़ केन्द्रीकृत व्यवस्था स्थापित की थी |
चोल शासक अपना राज्याभिषेक तंजौर, गंगैकोण्ड चोलपुरम् चिदम्बरम् आदि स्थानों पर करवाते थे और सम्माजनक उपाधियाँ धारण करते थे, यथा-चक्रवतिबल, त्रिलोकसम्राट् आदि ।
राजा सामान्यत मौखिक आदेश दिया करता था, जिन्हें उनका निजी सचिव लिखकर पुष्टि हेतु भेज देता था ।
वह अपने उत्तराधिकारी का चुनाव अपने जीवन काल में ही कर लेता था । राजा धर्म व आचार के अनुसार कार्य करता था और निरंकुश नहीं होता था ।
सार्वजनिक हितों के कार्यों में वह व्यक्तिगत रूचि लेता था । राजा को व्यक्तिगत स्तर पर समयानुकूल परामर्श देने के लिये, राजप्रासाद की व्यवस्था के लिये तथा प्रशासन के विभिन्न विभागों की देखरेख के लिये बड़ी संख्या में मन्त्रियों और पदाधिकारियों की नियुक्ति की जीती थी |
ताम्रपत्रों में एक ब्राह्मण सचिव को भूमिदान का उल्लेख मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि राजा अपने शासकीय निर्णयों के औचित्य-अनौचित्य पर परामर्श हेतु ब्राह्मणों से अवश्य सलाह लेता था |
राजाज्ञाओं को लागू करने के लिये दो उच्च पदाधिकारियों और पाँच प्रतिष्ठित विद्वानों की स्वीकृति के पश्चात् स्थानीय गवर्नर के निरीक्षण के पश्चात् सम्बन्धित अधिकारियों को भेजा जाता था |
अधिकारी तन्त्र
चोल अभिलेखों में किसी मन्त्रिमण्डल का उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि चोल प्रशासन में अधिकारी तन्त्र का गठन हो चुका था जो राजा की योजनाओं को मूर्त रूप देते थे ।
अभिलेखों में अधिकारी, पुरवुवरि आदि उच्च पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता हैं ।
11वीं व 12वीं सदी के चोल अभिलेखों में ‘उदनकुट्टम्’ का उल्लेख मिलता है, जो पदाधिकारियों की कार्यकारिणी प्रतीत होती है ।
ये केन्द्रीय अधिकारी प्रतीत होते हैं । ये राजा के बहुत निकट थे तथा राजा प्रत्येक कार्य इनकी सम्मति से करता था । महालिंगम इसकी तुलना संस्कृत ग्रन्थों की अमात्य-परिषद् अथवा मन्त्रिपरिषद् से करते हैं ।
पदाधिकारियों की दो प्रकार की श्रेणियाँ थी- वरिष्ठ अधिकारियों को ‘पेरुन्दरम्’ का पद दिया जाता था तथा छोटे अधिकारियों को ‘शिरुतरम’ का ।
अधिकारियों के पद वंशानुगत भी होते थे । उन्हें नकद वेतन के स्थान पर भूखण्ड प्रदान किये जाते थे । राजा के प्रशासकीय आदेशों को कार्यान्वित कराने का उत्तरदायित्व ‘औले नामक विशिष्ट पदाधिकारी को सौंपा जाता था, जो राजा की इच्छानुसार एक कच्चा राजकीय आदेश-पत्र तैयार करते थे जिसकी जाँच ‘औलनायकम’ करते थे ।
बाद में इन आदेशों को लिपिबद्ध करके सम्बन्धित विभागों तक पहुँचाया जाता था । राजा भी दूरस्थ प्रदेशों तक प्रशासन पर दृष्टि रखता था समय-समय पर वह साम्राज्य का दौरा भी करता था । था |
परम शक्तिमान होते हुए भी चोल राजा निरंकुश नहीं थे । साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों, स्थानीय शासन की परम्पराओं तथा विधि-निषेधों की मर्यादा का उसे पूर्णरूपेण ध्यान रहता था ।
साम्राज्य विभाजन
प्रशासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण चोल साम्राज्य को अनेक मण्डलों (प्रान्तों) में विभाजित किया गया था । प्रत्येक मण्डल को विशाल प्रान्तीय उपविभागों या कोट्टम में विभाजित किया गया था ।
प्रत्येक प्रान्त का शासन एक प्रान्तपति द्वारा संचालित होता था । इस पद पर राजपरिवार के व्यक्तियों और उच्च वर्ग के लोगों को ही नियुक्त किया जाता था ।
विजित प्रान्तों के प्रान्तपति चोल राजा को लगान देते थे और आवश्यकता पड़ने पर सैन्य सहायता भी उपलब्ध कराते थे । प्रत्येक कोट्टम’ को जनपद जैसे ‘नाडुओं और ‘नाडुओं को ‘कुर्रम’ (ग्राम समूहों) में विभाजित किया जाता था ।
कुर्रम में ग्राम समूहों के अतिरिक्त नगरों को भी सम्मिलित किया गया था । ‘नाडु’ की सभा नाट्टार कहलाती थी, इसमें सभी गाँवों तथा नगरों के प्रतिनिधि होते थे जिनका प्रमुख कार्य भू-राजस्व का प्रबन्ध करना था ।
प्रशासन चलाने के लिये न केवल राजकीय पदाधिकारी होते थे अपितु जनता की सभाऐ भी होती थी । नगर और ग्राम में कमश ‘नगस्तार’ और ‘ऊर’ नामक सभाएँ थी ।
ब्राह्मणों को दान में दिये गये ग्राम को ‘चतुर्वेदिमंगलम्’ कहा जाता था और इसकी व्यवस्था ब्राह्मणों की सभा करती थी |
समितियाँ
चोल प्रशासन की एक मौलिक व्यवस्था थी कि राजतन्त्रात्मक होते हुए भी गाँव, नगर, जिले और प्रान्त आदि समस्त प्रशासन इकाइयों के शासन संचालन के लिए सार्वजनिक समितियाँ बनी हुई थीं ।
इन समितियों का गठन एक सुनियोजित स्पष्ट और व्यवस्थित चुनाव प्रणाली के माध्यम से होता था । इनमें प्रतिवर्ष चुनाव होना और नवीन व्यक्तियों का चयन करना सामान्यत आवश्यक था ।
प्रत्याशियों की योग्यता के सम्बन्ध में भी निश्चित नियम थे । प्रान्त की समिति प्रान्तीय लोगों द्वारा निर्वाचित होती थी । जिला समिति को ‘नाट्टर’ कहा जाता था और नगर की समिति को नगरहार कहा जाता था ।
स्थानीय शासन संचालन के लिये ‘श्रेणियाँ पूंग’ आदि संस्थाएँ भी विद्यमान थीं | व्यापारियों की संस्थाओं को राज्य की तरफ से मान्यता प्राप्त थी । उनके पास अपनी सेनाएँ भी होती थी ।
ग्राम सभा प्रशासन की छोटी इकाई थी । 16.6.5 राजस्व प्रशासन अन्य राज्यों के समान चोलराज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था |
राजराज प्रथम और कुलोतुंग प्रथम के उदाहरणों से ज्ञात होता है कि भूमिकर निर्धारित करने से पूर्व चोल नरेश भूमि का सर्वेक्षण कराते थे और भूमि के वर्गीकरण के आधार पर भूमिकर निश्चित करते थे ।
भूमि का सर्वेक्षण और उसका वर्गीकरण समय-समय पर होता रहता था । अत: एक ही ग्राम में भूमिकर के परिमाण में अन्तर होता रहता था ।
सामान्यत भूमिकर उपज का 1/6 भाग होता था । यह आधे से लेकर चौथाई भाग तक भी हो सकता था । अकाल. बाढ़ आदि विशेष परिस्थितियों में कर कम अथवा समाप्त भी किया जा सकता था । कर नकद अथवा माल किसी भी रूप में अदा किया जा सकता था ।
भूमि कर संग्रह करने का कार्य ग्राम सभाओं का था । भू राजस्व का निर्धारण सामान्यत खेत की उर्वरता, सिंचाई की सुविधा एवं वार्षिक फसल चक को ध्यान में रखकर किया जाता था।
चोल अभिलेखों में उपज के आधार पर खेतों को 12 श्रेणियों में विभाजित किया गया था | राजस्व विभाग के प्रमुख अधिकारी को “वरित्पोत्तगक्क’ कहते थे ।
नगरों में कर संग्रह ‘नगरम्’ करते थे, जो विभिन्न प्रकार के करों को वसूल करके केन्द्रीय कोष में जमा कराते थे । कभी-कभो करों को वसूल करते समय जनता के साथ कठोर व्यवहार किया जाता था ।
तंजौर से प्राप्त 13वीं शती ई. के एक चोल लेरव के अनुसार एक व्यक्ति जिस पर 10 वर्ष का लगान बकाया था, वह अपना गाँव छोड़कर पाण्ड्व राज्य में बस गया |
ग्रामसभा ने बाद में उसकी जमीन को बेचकर बकाया लगान की धनराशि को केन्द्रीय कोष में जमा करा दिया।
राज्य की आय के अन्य साधन वन सम्पदा, खानें, आयात और निर्यात कर तथा स्थानीय शुल्क आदि थे ।
विभिन्न स्तरों पर दोषी व्यक्तियों से अनेक अपराधों के लिये अर्थदण्ड भी लिया जाता था, जुर्माने के रूप में मिलने वाली राशि को ‘मूरूपाडु’ कहा जाता था |
अधीनस्थ राजाओं तथा सामन्तों से प्राप्त वार्षिक कर, भेंट, उपहार आदि से भी आय होती थी । सम्भवत चोल राज्य के अन्तर्गत करों की संख्या और मात्रा अधिक थी ।
इसीलिये कुलोत्तुंग प्रथम ने अनेक करों को समाप्त कर ‘शुगन्दविर्त’ (करों को हटाने वाला) की उपाधि धारण की । कर न देने वाले व्यक्ति की भूमि को राज्य बेच भी सकता था ।
सार्वजनिक कार्यों के लिए राज्य लोगों से बेगार भी ले सकता था । प्रारम्भिक चोल नरेशों के शासन काल में कर वसूली कुछ उदार थी ।
परन्तु परवर्ती चोल शासकों के शासन काल में सामन्तवाद के बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप शारीरिक उत्पीड़न एवं कठोर दण्ड का भी प्रयोग किया जाने लगा ।
यह कठोर तथा उत्पीड़नात्मक कर-व्यवस्था चोल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण बनी ।
संगृहीत राजस्व का उपयोग साम्राज्य के सैन्य-संगठन, अन्तःपुर एवं राजमहलों की शान-शौकत, केन्द्रीय कर्मचारियों का वेतन, नगर-विन्यास, दुर्ग-निर्माण, प्रासाद-निर्माण, राजमार्ग-निर्माण, सिंचाई आदि व्यवस्थाओं पर किया जाता था ।
चोल नरेश केन्द्रीय राजस्व का उपयोग प्राय: विशाल मन्दिरों के निर्माण, बन्दरगाहों तथा समुद्री जहाजी-बेड़ों के विकास पर अधिक किया करते थे ।
इसके अतिरिक्त राजस्व का एक बड़ा भाग राजकीय दानों, समारोहों, यज्ञों और विभिन्न महोत्सवों पर भी खर्च होता था |
चोल शासन काल में अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि आदि प्रकोपों का भी हमें उल्लेख मिलता है ।
ये प्राकृतिक विपत्तियाँ कभी-कभी तो स्थानीय होती थी और कभी-कभी सम्पूर्ण साम्राज्य इनसे प्रभावित होता था । ऐसी स्थिति में राज्य आर्थिक सहायता प्रदान करता था ।
न्याय-व्यवस्था
चोल शासकों ने न्याय व्यवस्था का भी समुचित प्रबन्ध कर रखा था | चोल-अभिलेखों में ‘धर्मासन’ अर्थात् अन्तिम न्याय-प्राप्ति हेतु दरबार का उल्लेख मिलता है ।
‘धर्मासन’ का निर्णय ‘धर्मासन भट्ट’ (स्मृतिशास्त्र ब्राह्मणविद्वान्) की सहायता से ही किया जाता था । यहाँ पहुँचने से पहले न्यायालय की छोटी इकाइयों से होकर मुकदमा चलता था |
मुकदमों का प्रारम्भिक निर्णय देने का अधिकार ग्राम पंचायतों को प्राप्त था। छोटे-छोटे मुकदमों का निर्णय स्थानीय निगमों द्वारा ले लिया जाता था |
चोलों की न्याय-व्यवस्था एवं दण्ड-व्यवस्था उदार थी । हत्या जैसे जघन्य अपराधों के अतिरिक्त अन्य अपराधों में आर्थिक दण्ड तथा सामाजिक अपमान करने का दण्ड दिया जाता था |
अपराध सिद्ध होने पर एक हजार काशु (मुद्रा) तक अर्थदण्ड दिया जाता था । परन्तु कर प्रवंचकों, चोरों, डाकुओं एवं अन्य व्यभिचारियो को शारीरिक दण्ड एवं अर्थदण्ड देने के अतिरिक्त उनका सामाजिक अपमान करने के लिये इन्हें गधे पर बिठाकर ग्राम अथवा नगर के मोहल्लों में घुमाया जाता था ।
हत्या के आरोपी को मात्र 16 गायों का जुर्माना अदा करना पड़ता था और मृतक की आत्मशान्ति के लिये हत्यारे को राजमन्दिर में दीपक जलाना पडता था, इसे केवल प्रायश्चित ही माना जा सकता है।
लेकिन जान-बूझकर निर्मम हत्या करने के अभियोग में अभियुक्त को अंगच्छेद, मृत्युदण्ड अथवा आजीवन कारावास की सजा दी जाती थी ।
मृत्युदण्ड प्राय हाथी के पैरों के नीचे कुचलवाकर दिया जाता था । राजद्रोह भी भयंकर अपराध था जिसका निर्णय स्वयं राजा करता था ।
इसमें अपराधी को मृत्युदण्ड के साथ उसकी सम्पत्ति भी जब्त कर ली जाती थी । अग्नि एवं जल से दिव्य परीक्षाओं का विधान मिलता है ।
सामान्य अपराध के लिये अभियुक्त को लकड़ी के खम्भे से बांधकर 50, 70 अथवा 100 कोड़े मारे जाते थे । लेकिन जघन्य अपराधों के लिए मृत्युदण्ड दिया जाता था |
सैन्य व्यवस्था
चोल राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये एक विशाल, प्रशिक्षित, अनुशासित एवं संगठित सेना का गठन किया ।
चोल सेना ‘मुन्नूकई-महासेनई कहलाती थी | उनकी सेना के तीन अंग थे- पदाति, अश्वारोही और गजारोही । अपनी सेना के बल पर ही चोल नरेशों ने मलाया द्वीप समूह, लंका व हिन्द महासागर के कई द्वीपों पर विजय प्राप्त कर भारतीय संस्कृति का प्रचार किया |
सम्पूर्ण सेना में लगभग 1, 50, 000 सैनिक थे । इनमें कुशल धनुर्धर पैदल सेना के प्रमुख अंग थे तथा 60, 000 गजारोहियो की संख्या थी ।
अश्वारोहियों का भी चोलसेना में प्रमुख स्थान होता था । सेना के लिये चोल नरेश बड़ी संख्या में घोड़े ईरान तथा अरब देशों से मँगाते थे ।
पदाति सैन्य-दल के ‘कैककोलस (अतिशक्तिशाली बाहुबली तथा ‘शैगुन्दर’ (भाला चलाने में निपुण सैनिक) प्रमुख थे । राजा के अंगरक्षक विशेष विश्वसनीय व्यक्ति होते थे, जिन्हें ‘वेलैक्कार’ कहा जाता था |
अंगरक्षक स्थायी सैनिक होते थे । सेना की विभिन्न टुकड़ियाँ अलग-अलग ‘गुल्मों ‘ और छावनियों (कड़गम) में रहती थीं । चोल अभिलेखों में सेना की 70 रेजिमेण्टों का उल्लेख मिलता है । सैनिकों के प्रशिक्षण एवं अनुशासन पर विशेष ध्यान दिया जाता था ।
शान्तिकाल में सैनिक सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में योगदान देते थे ।
युद्ध के अवसर पर चोल सेना का नेतृत्व ‘राजा’ अथवा ‘युवराज’ करता था ।
युद्धभूमि में विशेष पराक्रम दिखाने वाले योद्धाओं तथा सेनापतियों को ‘क्षत्रिय शिखामणि’ की उपाधि दी जाती थी । सेना का सम्पूर्ण कार्य सेनापति के निरीक्षण में होता था ।
अन्य सैनिक पदाधिकारियों में ‘महादण्डनायक’ और ‘नायक’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । ब्राह्मण सेनापतियों का उल्लेख भी मिलता है जिन्हें ‘ब्रह्मादिराज’ कहा जाता था | चोल शासकों ने एक शक्तिशाली नौसेना का भी संगठन किया था |
राजराज प्रथम और राजेन्द्र प्रथम के समय में चोलों की नौसेना विशेष रूप से शक्तिशाली हो गई थी । इसी के आधार पर उन्हे लंका, पूर्वी समुद्र तटवर्ती राज्यों एवं दक्षिणी पूर्वी एशियायी द्वीपों पर विजय प्राप्त की ।
बंगाल की खाड़ी में चोल नौसना का प्रभाव इतना स्थापित हो गया था कि उस खाड़ी को ‘चोलों की झील’ कहा जाने लगा था । लड़ाकू जहाजों के अतिरिक्त इस सेना में व्यापारी जहाज भी थे ।
अधीनस्थ शासकों और सामन्तों की सेना भी चोल सेना के साथ मिलकर लड़ती थी | चोल सेना का व्यवहार शत्रु देशों की जनता के साथ बहुत बर्बर होता था ।
वे स्त्रियों से अभद्रतापूर्ण आचरण के साथ वही की जनता को लूटते भी थे । इसके बावजूद भी इस युग में चोल सैन्य कला बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी।
जनकल्याणकारी कार्य
चोल शासकों ने कतिपय जनकल्याणकारी कार्यों में भी अपनी रुचि दिखाई | चोलों ने विशाल सिंचाई परियोजनाओं को प्रारम्भ किया ।
उन्होंने कुछ विशाल तड़ागों का निर्माण कराने के साथ-साथ कावेरी तथा अन्य नदियों पर प्रस्तरों के द्वारा विशाल बाँध निर्मित कराये तथा विशाल भू-क्षेत्र को सिंचाई की सुविधा प्रदान करने के लिये नहरों का निर्माण करवाया ।
राजेन्द्र चोल प्रथम ने अपनी नवीन राजधानी गंगैकोण्डचोलपुरम् में एक विशाल तड़ाग बनवाया, जिसे कोलेरून तथा वेल्लार नदियों के जल से आपूरित किया गया इस विशाल तालाब के तटबन्ध सोलह मील तक फैले हुए थे और इसमें प्रस्तर की नालियों एवं नहरों की भी व्यवस्था की गई ।
चोलों मै वाणिज्य एवं संचार के साधनों का विकास करने के लिये विशाल राजमार्गों का निर्माण करवाया । इन राजमार्गों पर निश्चित दूरी पर सुरक्षा की दृष्टि से सैन्य टुकड़ियों को नियुक्त किया गया और नदी जलमार्गों पर सार्वजनिक नौकाओं की व्यवस्था की गई ।
इस प्रकार चोल शासक सदैव जनकल्याण के कार्यों में संलग्न रहते थे ।
ग्राम प्रशासन
चोल शासन व्यवस्था की सर्वोपरि विशेषता एक प्रभावशाली एवं विकसित स्वशासन प्रणाली थी जिसके अन्तर्गत ग्राम प्रशासन को लोकप्रिय आधार पर सुसंगठित किया गया |
चोल प्रशासन की ग्राम सभाएँ केन्द्रीय शासन के हस्तक्षेप से मुक्त एवं पूर्णत स्वायत्त थीं ।
दक्षिण में यह मान्यता प्रचलित थी कि स्थानीय शासन स्थानीय लोगों के द्वारा ही संचालित होना चाहिये । विद्वानों ने ‘लघु गणराज्यों’ के रूप में इनकी प्रशंसा की है ।
नीलकण्ठशास्त्री के मतानुसार ‘चोल प्रशासन’ की सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी स्वशासी ग्रामीण संस्थाओं के कार्य संचालन में पायी जाने वाली असाधारण दक्षता तथा ओज की भावना ।
” यद्यपि नाडुओं और शहरों में भी सभाएँ थी, तथापि स्वायत्त शासन यदि कहीं पूर्णरूपेण लागू था तो वह ग्रामों में था नाट्टर और नगस्तार सभाएँ पूर्ण रूप से जनतंत्रात्मक नहीं थी, किन्तु ग्रामों की सभा के चुनाव होते थे ।
ग्रामों में मुख्यत दो प्रकार की संस्थाएँ थीं-
(1) ऊर- यह जनसाधारण की सभा थी ।
(2) सभा (अथवा महासभा)- इसे ‘पेरूण्गुडि’ भी कहा जाता है ।
यह ‘अग्रहार’ (ब्राह्मणवर्ग) की सभा थी । ये संस्थाएं शासन चलाने के लिये अनेक समितियों में विभाजित थी । इन समितियों को ‘वरियम’ कहा जाता था ।
इन समितियों में संवत्सर वारियम (वार्षिक समिति), टोट्टवारियम (उपवन समिति), एरिवारियम (तड़ाग समिति), पोनवारियम (स्वर्ण समिति) आदि का उल्लेख परान्तक प्रथम के उत्तरमेरूर के 919 ई. और 929 ई. अभिलेख करते हैं ।
अन्य अभिलेखों में उदासीन वारियम का भी उल्लेख मिलता है, जो सम्भवत परदेशियों के लिए गठित समिति थी ।
कुछ -अन्य समितियों का उल्लेख भी मिलता है, प्रत्येक ग्राम में समितियों की संख्या आवश्यकतानुसार होती थी ।
इन समितियों के सदस्यों की संख्या भी निश्चित नहीं थी । प्रत्येक वारियम के सदस्यों को ‘वरियप्पेरुकलम्’ कहा गया है । ये अवैतनिक थे ।
परान्तक प्रथम के उत्तरमेरूर के दो अभिलेखों में ‘वारियम’ के सदस्यों के निर्वाचन की प्रणाली का उल्लेख मिलता है।
निर्वाचन के लिये ग्राम को ‘कुडुम्ब’ (क्षेत्रों) में बाँटा जाता था । निर्वाचन ‘कुडवोलाई (मतपत्रों) के आधार पर होता था |
सभी चुनने योग्य उम्मीदवारों के नाम अलग-अलग ताड़पत्रों पर लिख दिये जाते थे और एक बर्तन में डालकर उन्हें अच्छी तरह से हिलाया जाता था ।
एक छोटा बालक उन पत्तियों को निकालता था और जिन उम्मीदवारों के नाम की पत्ती निकल आती थी, वे एक वर्ष के लिये निर्वाचित घोषित कर दिये जाते थे ।
निर्वाचन के लिए प्रत्येक उम्मीदवार में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक थी-
(1) आयु 35 से 70 वर्ष
(2) वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों का ज्ञान अथवा / वेलि 3/4 एकड़) भूमि पर अधिकार तथा एक वेद और भाष्य का ज्ञान
(3) अथवा 1/4 वेलि (1 1/2 एकड़) भूमि का स्वामित्व
(4) निजी घर में निवास ।
निम्नलिखित आधार पर कोई भी व्यक्ति निर्वाचन के लिये अयोग्य भी घोषित किया जाता सकता था ।
(1) यदि वह पिछले तीन वर्षों से किसी समिति का लगातार सदस्य रहा हो
(2) यदि उसने समिति की आय-व्यय का हिसाब न दिया हो यदि वह व्यभिचारी अथवा अपराधी हो
(4) यदि वह चोरी के अपराध में दण्डित किया गया हो ।
(5) यदि वह शूद्रों के सम्पर्क से अपवित्र हो गया हो ।
समितियों की बैठक अधिकांशत मन्दिर में होती थी । ऐसा प्रतीत होता है कि विचारणीय विषयों पर विचार-विमर्श कर सर्वोत्तम व्यवस्थाई (प्रस्ताव) पारित कर दिया जाता था ।
ग्राम सभा का कार्य क्षेत्र और क्षेत्राधिकार बहुत विस्तृत था ।
इनका प्रमुख कार्य भूमि कर संग्रह करना होता था ।
यह प्रत्येक ग्राम की उर्वर और बंजर भूमि तथा वनों का लेखा-जोखा रखती थीं । भूमि की उपज के आधार पर भूमि कर निश्चित करती थीं ।
भूमिकर न देने वाले व्यक्ति की भूमि को सभा बेच भी सकती थी | भूमि सम्बन्धी गाड़ी का हल करना भी इनका कार्य था । सभा किसानों के समय-समय पर उनके भूमिकर में छूट भी दे सकती थी ।
भूमि के वर्गीकरण का एक मात्र अधिकार सभा को ही था । समय-समय पर चोल नरेश भूमि का सर्वेक्षण कराते थे, परन्तु भूमि के वर्गीकरण में परिवर्तन करने से पूर्व उन्हें सभा से अनुमति लेनी पड़ती थी |
ग्राम की सार्वजनिक भूमि पर भी सभा का अधिकार था |
ग्राम की पुरानी सड़ की मरम्मत कराना, नई सड़कों का निर्माण करना, खेतों की सिंचाई के लिये तालाबों और नहरों का निर्माण कराना भी सभा का उत्तरदायित्व था ।
सभा की एक विशेष समिति होती थी जिसे ‘धर्मवारियम’ कहते थे जो पाठशालाओं, औषधालयों, मन्दिरों आदि का निर्माण एवं देख-रेख करती थी ।
सभा की एक अन्य समिति न्याय-सम्बन्धी कार्य भी करती थी । अपराधी का पता लगाना, उसके ऊपर मुकदमा चलाना तथा दोषी सिद्ध होने पर उसे दण्ड देना इस न्याय-समिति का कार्य था ।
सम्भवत इस समिति में न्यायाधीशों के साथ-साथ ग्राम के शिक्षित एवं सम्मानित व्यक्ति इसके सदस्य होते थे ।
इस प्रकार चोल प्रशासन में ग्राम सभाएँ अपने आन्तरिक विषयों में पूर्णतया स्वतन्त्र थी ।
राज्य उनके कार्यों में उस समय हस्तक्षेप करता था, जब उनमें कोई भारी अनियमितता आ जाती थी अथवा उनमें आपसी मनमुटाव और झगड़ा हो जाता था ।
सामान्यत चोल प्रशासन के अन्तर्गत केन्द्र केवल साम्राज्य की सुरक्षा, विदेश नीति, आन्तरिक शान्ति और सुरक्षा तथा लोक कल्याण के कार्यों को ही करता था, शेष कार्य नगरों और प्राप्तों की स्थानीय सभाएँ करती थीं |
इस प्रकार स्पष्ट है कि ग्राम सभाएँ ग्राम के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण योगदान देती थी ।
नगर स्वशासन
चोल अभिलेखों में ‘नगरम्’ (नगर-सभा) का उल्लेख प्राय व्यापारिक केन्द्रों के प्रबन्ध कार्य हेतु किया गया है ।
नगरम् की प्रशासन-व्यवस्था में मुख्य रूप से व्यापारियों को ही सम्मिलित किया जाता था जिनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन देना था ।
विभिन्न व्यापारिक वर्गों, प्रतिष्ठानों तथा उद्योगों पर कर की दरों का निर्धारण तथा वसूली का दायित्व ‘नगरम्’ का ही होता था |
नगरों में लायी जाने वाली वस्तुओं पर कर-निर्धारण एवं कर वसूली का कार्य भी ‘नगरम्’ नामक संस्था करती थीं ।
नगरम् की प्रबन्ध-समिति करों के द्वारा संगृहीत धन का ‘उपयोग नगर विकास, यातायात, हाट बाजार की व्यवस्था तथा नगर के औद्योगिक एक – व्यापारिक विकास के लिये करती थी |
राजराजेश्वर मन्दिर अभिलेख में ‘नगरम्’ द्वारा फल, केसर,. गा, पान, सुपारी, मसलों एवं खाद्यानों पर बिक्रीकर संग्रह करने का उल्लेख है ।
विभिन्न उद्योगों के संगठनों, जैसे-नमक (उपपायम्), हाथकरघा, चक्कियों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों (अंगाडिपट्टम्), स्वर्णकारों के संगठन (तट्टोपट्टम्), बांटों के संगठन (इडैवरि) से नगरम् ही कर वसूली करते थे ।
विभिन्न जातियाँ भी अपने-अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये अपने-अपने समुदायों का गठन कर लेती थी ।
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि चोलों का महत्त्व उनकी प्रशासनिक व्यवस्था के कारण अधिक है |
यह एक उत्कृष्ट शासन व्यवस्था थी, जिसमें स्थानीय स्वशासन के साथ-साथ केन्द्रीयकरण भी विद्यमान था ।
सामान्य जन में प्रजातान्त्रिक भावना थी और नागरिकों के मताधिकार को विशेष महत्त्व दिया जाता था । राजा शक्तिशाली था लेकिन शासन की सबसे छोटी इकाई (कुरम) थी |
चोलों के प्रशासन की मौलिक विशेषता उनके साम्राज्य में समितियों का होना था जिनका गठन व्यवस्थित चुनाव प्रणाली के माध्यम से होता था | ये समितियाँ अनेक प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करती थीं ।
चोलकला
चोल शासकों की कला में अत्यधिक अभिरुचि थी जिसके परिणामस्वरूप उनके शासनकाल में वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि कलाओं का समुचित विकास हुआ |
उनके द्वारा निर्मित विभिन्न मन्दिरों, मठों, विद्यालयों, सड़, नहरों, झीलों, तालाबों, उद्यानों आदि में उनकी रचनात्मक प्रतिभा देखने को मिलती है |
चोलवंश के राजाओं ने अपने पूर्ववर्ती पल्लव राजाओं की कलात्मक समृद्धि एवं बारीकियों को समझा और उन्हें विकसित किया जिसके परिणामस्वरूप उनके काल में द्रविड़ स्थापत्य एवं शिल्पकला अपने चरम शिखर पर पहुँच गयी |
चोल काल में मन्दिर निर्माण कला का बड़ा विकास हुआ और उपगपुर, तंजोर, कांची, गंगैकोण्डचोलपुरम् आदि में भव्यमन्दिरों का निर्माण कराया गया ।
इन मन्दिरों के बारे में फर्ग्युसन ने तो यहाँ तक कहा है कि चोल कलाकारों ने दैत्यों के समान कल्पना की तथा जौहरियों के समान उसे पूरा किया ।
इसका ज्वलन्त उदाहरण तंजौर का बृहदीश्वर अथवा राजराजेश्वर मन्दिर है ।
चोलकालीन मन्दिर स्थापत्य कला को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है ।
प्रथम, 10वीं शताब्दी तक निर्मित प्रारम्भिक चोल मन्दिर हैं, जिनमें तिरुकट्टलाई का सुन्दरेश्वर मन्दिर, नरत मालै का विजयालय मन्दिर एव कदम्बरमलाई मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो मन्दिर कला के प्रारम्भिक कला के प्रतीक है ।
चोलकला का पूर्ण विकास तंजौर तथा गंगैकोण्डचोलपुरम् में मिलता है ।
दूसरे वर्ग के चोलकालीन मन्दिर स्थापत्य कला का युग तंजौर के बृहूदीश्वर अथवा राजराजेश्वर मन्दिर के साथ प्रारम्भ होता है ।
यह मन्दिर द्रविड़ स्थापत्य कला शैली का विकासमान रूप है जो तेरह मंजिल ऊँची एक अद्भुत कृति है ।
नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार भारत के मन्दिरों में सबसे बड़ा तथा लम्बा यह मन्दिर एक उत्कृष्ट कलाकृति है जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला के चरमोत्कर्ष को प्रकट करती है ।
इसकी भव्यता एवं सौन्दर्य को देखते हुये इसे दक्षिण भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्दू स्मारक कहा जा सकता है । इस मन्दिर का निर्माण कार्य 1003 ई. में प्रारम्भ हुआ और 1010 ई. में समाप्त हुआ ।
इसका विशाल प्रांगण 160 मीटर लम्बा और 80 मीटर चौड़ा जिसमें ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है । गर्भगृह के ऊपर पश्चिम में लगभग 60 मीटर ऊँचा आकर्षक विमान है जिसका आधार 82 वर्ग फीट है ।
इसी के ऊपर तेरह मंजिलों वाला पिरामिड है । इसके निर्माण के दो शताब्दियों बाद तक चोलों ने सम्पूर्ण सुदूर दक्षिण एवं श्रीलंका में श्रृंखलाबद्ध रूप में अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था ।
चोलों ने मन्दिरों के निर्माण के लिये प्रस्तरखण्डो एवं शिलाओं का प्रयोग किया ।
इस काल के मन्दिरों का आकार अत्यधिक विशाल है और इनको धार्मिक कार्यों के अतिरिक्त सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक प्रयोजनों के लिये भी उपयोग किया जाता था ।
इतने विशाल मन्दिरों की समुचित व्यवस्था के लिये मन्दिरों को प्रभूत भूमि अनुदान प्रदान किये गये और हजारों सेवकों को भी नियुक्त किया गया |
पर्सीब्राउन का कथन है कि बृहदीश्वर मन्दिर का विमान भारतीय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है । मन्दिर के गर्भगृह में विशाल शिवलिंग है जिसे ‘बृहदीश्वर’ कहा जाता है ।
सम्पूर्ण मन्दिर को अन्दर और बाहर दोनों ओर से मूर्तियों और शिल्प अलंकरणों से सजाया गया है ।
इसी मन्दिर की अनुकृति पर राजेन्द्र चोल प्रथम ने गंगैकोण्डचोलपुरम् में एक शिव मन्दिर का निर्माण करवाया, जो आठ मंजिला है । इसका निर्माण 1030 ई. में हुआ था ।
यह मन्दिर भी चोल कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है | राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों ने भी मन्दिर निर्माण परम्परा को जारी रखा ।
इनमें तिरूबालीश्वरम् एरतवतेश्वर, कम्बारेश्वर आदि के मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । मन्दिरों में उत्सव के समय मनोरंजन के लिये संगीत एवं नृत्यकला का भी समुचित विकास हुआ |
चोल शासकों ने स्थापत्य कला के साथ-साथ मूर्तिकला तक्षणकला का भी विकास किया ।
देवी-देवताओं की अनेक मूर्तियों का अंकन किया गया, जिनमें शैवधर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ अधिक हैं । इस काल में प्रस्तर एवं धातु दोनों ही प्रकार की सुन्दर मूर्तियों की रचना की गई ।
परन्तु प्रस्तर मूर्तियों की तुलना में धातु या कांस्य की प्रतिमाएँ कहीं अधिक सुन्दर है ।
चोलयुगीन मूर्तियों में नटराज या नृत्य करते हुये शिव की कांस्य प्रतिमा अन्य प्रतिमाओं में सर्वोत्कृष्ट है ।
नटराज एवं अन्य शिव मूर्तियों के साथ-साथ पार्वती, स्कन्द कार्तिकेय, गणेश आदि की असंख्य प्रतिमाएँ भी निर्मित की गई, लेकिन इनमें चोलयुगीन नटराज की मूर्ति को चोलकला का सांस्कृतिक निचोड़’ (सार) कहा जाता है |
स्पष्ट है चोल-युग कला की दृष्टि से गौरवमय काल था |
चोलों ने चार शताब्दियों तक अपने लम्बे शासन काल में दक्षिण भारत में कला को समृद्ध किया ।
किसी भी शासक राजवंश ने इतने भव्य और विशाल मन्दिरों का निर्माण नहीं कराया, जितना कि चोलों ने किया |
उनकी इन उपलब्धियों से स्पष्ट है कि दक्षिण भारत के इतिहास में चोलों का महत्त्वपूर्ण स्थान था ।