___ स्वतन्त्रता पूर्व राजस्थान में 19 रियासतें थीं । ये रियासतें थीं, जयपुर, जोधपुर (मारवाड), उदयपुर (मेवाड), बीकानेर, कोटा, बूंदी, झालावाड़ा, टोंक, भरतपुर, अलवर, करौली, धौलपुर, किशनगढ़, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ़, शाहपुरा, सिरोही और जैसलमेर | अजमेर-मेरवाड़ा का क्षेत्र अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन में एक कमिशनरी के रूप में था । रियासतों में राजशाही और सामन्तवाद का बोलबाला था । दमन, शोषण और अत्याचार का सर्वत्र बोलचाल था | राजस्थान का राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ढांचा, बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में मध्ययुगीन कृषक सामन्ती स्तर का बना हुआ था । अंग्रेजों की सर्वोच्चता स्वीकार करने के साथ ही यहाँ स्वतन्त्र जीविकोपार्जन के पुराने सभी स्रोत अवरुद्ध होने लगे । राजस्थान में राजनीतिक जागृति ब्रिटिश भारतीय प्राप्तों की तुलना में अपेक्षाकृत देरी से हुई | इसका प्रमुख कारण यह था कि यहाँ की जनता को ब्रिटिश शासन, राजा और जागीरदारों की तिहरी दासता सहनी पडती थी । बीसवीं सदी के आरम्भ में राजपूताना में राष्ट्रीयता का विकास हो चुका था।
1927 में अखिल भारतीय देशी राज्य लोकपरिषद् की स्थापना ने रियासती आदोलन को नेतृत्व प्रदान किया । 1938 ई. के पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारतीय रियासतों से केवल सहानुभूति रखती थी । वह रियासतों के अन्य सभी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थी । कांग्रेस ने हरिपुरा अधिवेशन (1938) में रियासतों के जन आन्दोलन को कांग्रेस का जन-आन्दोलन बताया । इतनी ही नहीं कांग्रेस ने देशी रियासतों में कार्यकर्ताओं को सलाह दी कि वे अपने-अपने राज्यों में प्रजामण्डल संगठन बनाकर उत्तरदायी शासन की माँग करें । तदनुसार राजस्थान की विभिन्न रियासतों में प्रजामण्डलों की स्थापना हुई | कुछ रियासतों में जहाँ प्रजामण्डलों की स्थापना इससे पहले ही हो चुकी थी, उन्हें पुनर्सगठित किया गया | कहीं इन्हें प्रजामण्डल, कहीं प्रजा परिषद् और कहीं लोक परिषद् के नाम से पुकारा जाता था ।
आइए हम विभिन्न रियासतों में हो रहे प्रजामण्डल आन्दोलन का अध्ययन करें । सर्वप्रथम हम मेवाड में हो रहे प्रजा मण्डल आन्दोलन का सर्वेक्षण करेंगे ।
16.2 मेवाड़ में प्रजामण्डल आन्दोलन
मेवाड को इसकी राजधानी के नाम से उदयपुर राज्य भी कहा जाता है । मेवाड में जनजागृति का कार्य बिजोलिया बेगू व अन्य किसान और भील आन्दोलनों ने किया । हरिपुरा कांग्रेस के बाद माणिक्य लाल वर्मा ने बलवन्त सिंह मेहता की अध्यक्षता में 24 अप्रेल 1938 ई. को मेवाड़ प्रजा-मण्डल की स्थापना की । मेवाड के प्रधमण्डल के सचिव वर्मा को प्रजामण्डल की स्थापना की अनुमति राज्य सरकार से लेने का आदेश दिया, जबकि उस समय मेवाड में पब्लिक सोसायटी पंजीकरण अधिनियम लाग था ही नहीं | जब वर्मा जी ने उनके आदेश का पालन नहीं किया तो उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया गया ।
16.2.1 मेवाड प्रजामण्डल का प्रथम सत्याग्रह
प्रजामण्डल की बढ़ती हुई लोकप्रियता से घबराकर राज्य ने 11 मई 1938 ई. को सभाओं, भाषणों, जुलूसों और समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिये । 24 सितम्बर 1938 ई. मे प्रजामण्डल को अवैध घोषित कर दिया गया । प्रजामण्डल ने सरकार को यह अल्टिमेटम दिया कि अक्टूबर 1938 ई. तक यदि प्रतिबन्ध नहीं हटाये गये तो सत्याग्रह आरम्भ किया जायेगा | माणिक्यलाल वर्मा को डिक्टेटर बनाया गया । उन्होंने अजमेर में प्रजामण्डल का अस्थाई कार्यालय खोला | अल्टीमेटम समाप्त होने से पहले ही प्रजामण्डल कार्यकारिणी सदस्य प्रो. प्रेमनारायण माथुर और उपाध्यक्ष भूरेलाल बया को गिरफ्तार कर लिया गया । वर्माजी ने अजमेर से ‘मेवाड का वर्तमान शासन’ नामक लघु पुस्तिका प्रकाशित की । इसमें मेवाड सरकार की नीतियों की कटु आलोचना की गई और साथ ही उत्तरदायी शासन की मांग की गई । सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा |
मेवाड प्रजामण्डल ने 1939 विजयदशमी के दिन सत्याग्रह आरम्भ कर दिया । सरकारी दमन चक्र भी जारी हो गया और रमेश चन्द्र व्यास, बलवन्त मेहता आदि गिरफ्तार कर लिये गये | महिलाओं ने भी आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया । आन्दोलन धीर-धीरे चल रहा था । पुलिस ने 02 फरवरी 1939 को देवली के निकट उँजा गाँव में माणिक्य लाल वर्मा को धोखे से गिरफ्तार कर लिया । उन्हें अत्यधिक यातनाएँ दी गयी जिसकी गाँधीजी ने ‘हरिजन’ में भर्त्सना की । 1 मार्च 1939 ई. में गाँधीजी के निर्देश पर सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया । वर्माजी पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाकर दो वर्ष की सजा सुनाई गई लेकिन बीमारी के कारण उन्हें 08 जनवरी 1940 ई. को रिहा कर दिया गया ।
प्रजामण्डल ने अब रचनात्मक कार्य जैसे खादी प्रचार, गाँधी जयन्ती और राष्ट्रीय पर्वो का आयोजन कर जनता में राष्ट्रीय विचारों का प्रचार करना शुरू किया । 1940 ई. में जीलयाँवाला राग काण्ड की जयन्ती के अक्सर पर राष्ट्रीय सप्ताह मनाया गया ।
प्रजामण्डल निरन्तर प्रतिबन्ध हटाने की माँग कर रहा था । वर्ष 1940 के मध्य में धर्मनारायण के स्थान पर टी. विजय राघवाचार्य को दीवान नियुक्त किया गया जो प्रगतिशील विचारों के थे । मेवाड सरकार ने अन्तत: 22 फरवरी 1941 ई. को प्रजामण्डल से प्रतिबन्ध हटा दिया ।
16.2.2 मेवाड प्रजामण्डल का प्रथम अधिवेशन
25-26 नवम्बर 1941 को प्रजामण्डल का पहला अधिवेशन माणिक्य लाल वर्मा की अध्यक्षता में उदयपुर में हुआ । अधिवेशन का उद्घाटन आचार्य कृपलानी ने किया । इस अवसर पर लगाई गई प्रदर्शनी का उद्घाटन श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित ने किया । प्रजा मण्डल समस्त मेवाड़ में लोकप्रिय हो गया । मेवाड सरकार ने विवश होकर व्यवस्थापिका सभा की स्थापना की घोषणा की जिसमे जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों का बहुमत रखने की व्यवस्था थी ।
16.2.3 भारत छोड़ो आन्दोलन और मेवाड
माणिक्यलाल वर्मा ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के ऐतिहासिक सम्मेलन में मेवाड प्रजामण्डल के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया । गाँधीजी के निर्देशानुसार उदयपुर पहुंचते ही उन्होंने 20 अगस्त 1942 को एक पत्र भेजा, जिसमें यह चेतावनी दी गयी कि यदि 24 घन्टे के भीतर महाराणा ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध विच्छेद नहीं करते हैं तो जन आन्दोलन आरम्भ किया जाएगा । साथ ही उत्तरदायी शासन की भी मांग की गयी | उसी दिन शाम को जनता को इस चेतावनी से अवगत कराने के उद्देश्य से एक आमसभा का आयोजन किया गया । इस सभा में हजारों की संख्या में जनता ने माप लिया | रात को सभा समाप्त होते ही मेवाड़ प्रजामण्डल की कार्यकारिणी के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया । मेवाड प्रजामण्डल कार्यकारिणी के जो सदस्य, उदयपुर से बाहर थे, उनको भी गिरफ्तार कर लिया गया । कुछ छात्रों को भी जेल भेज दिया गया ।
कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी ने मेवाड़ प्रजामण्डल और राज़ सरकार के बीच संघर्ष का श्रीगणेश किया । गिरफ्तारी के समाचार न केवल उदयपुर में बल्कि सम्पूर्ण मेवाड़ मे बिजली की तरह फैल गये । गिरफ्तारियों के विरोध स्वरूप उदयपुर मैं उदयपुर के इतिहास का सबसे बड़ा जुलूस निकाला गया । जुलूस में विद्यार्थी और प्रजामण्डल के कुछ कार्यकर्ता ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा रहे थे । मेवाड सरकार ने 23 अगस्त 1942 को जुलूस इत्यादि पर प्रतिबन्ध लगा दिया ।
सरकारी दमनचक्र आरम्भ हो गया । अगले ही दिन उदयपुर में सार्वजनिक हडताल हुई । न केवल दुकानदार, बल्कि ठेले और खोमचे वाले भी हडताल में शामिल हुए | यहां तक कि तांगेवालो ने भी तांगे नहीं चलाये । सर्वत्र, ‘अंग्रेजों भारत छोडो ‘भारत माता की जय’ महात्मा गांधी की जय’ मेवाड प्रजामण्डल की जय’ वर्मा जी की जय’ के नारे गूंज रहे थे । बहुत बड़ी संख्या में सत्याग्रही गिरफ्तार कर लिये गये । स्त्रियां भी पीछे नहीं रहीं । माणिक्यलाल वर्मा की पत्नी नारायणी देवी, अपने छह माह के पुत्र दीनबन्धु को अपने साथ लेकर जेल गई । उनकी ज्येष्ठ पुत्री सुशीला और प्यारचन्द विश्नोई की पत्नी भगवती ने भी गिरफ्तारी दी । छात्र वर्ग भी अपना उत्तरदायित्व जानता था । महाराणा कॉलेज के छात्रों ने उदयपुर की सभी शिक्षण संस्थाओं को बन्द करा दिया । मेवाड़ सरकार ने छात्रों को आन्दोलन से अलग करने का हर सम्भव प्रयास किया । लगभग 600-700 छात्रों ने सत्याग्रह में भाग लिया ।
मेवाड प्रजामण्डल को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया । जेल में कैदियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती गई | 02 सितम्बर 1942 को कानोड निवासी वीरभद्र जोशी और रोशनलाल ने, उदयपुर उच्च न्यायालय की बालकोनी में कांग्रेस का तिरंगा फहराया | सत्याग्रहियों की भावनाओं को ठेस पंहुचाने के उद्देश्य से अंग्रेज अधिकारी कर्नल डान्ट ने राष्ट्रीय झण्डे को अपने पाँवों के तले कुचला । उदयपुर के अलावा नाथद्वारा में भी आन्दोलन सक्रिय रूप से चला | मोहनलाल सुखाडिया और माणिक्यलाल वर्मा की गिरफ्तारी के बाद नाथद्वारा में भी हडताल हुई । वहाँ के प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया | 25 जनवरी 1943 ई. को दो उत्साही नवयुवक राजेन्द्र सिंह चौधरी और नरोत्तम चौधरी साइकिल द्वारा रात को नाथद्वारा से उदयपुर के लिए निकले । उन्होंने गुलाब बाग स्थित महारानी विक्टोरिया के चेहरे को काला कर दिया और उसकी छाती पर क्यू. आई. (क्विट इंडिया) लिख दिया और सुबह साइकिल द्वारा नाथद्वारा पहुंच गये । भारत छोडो आन्दोलन मेवाड़ के अन्य जिलों में भी फैला | भीलवाड़ा जिले में बनेड़ा, जहाजपुर और हमीरगढ़, चित्तौड़ जिले में को कपासन और छोटी सादड़ी में कई व्यक्तियों को जेल में डाला गया ।
मेवाड सरकार येन-केन प्रकारेण आन्दोलन को कुचल देना चाहती थी | ग्वालियर के महाराजा ने कुछ समय पहले ही उत्तरदायी शासन की स्थापना का आश्वासन देकर अपने राज्य में आन्दोलन को शान्त कर दिया था | मेवाड के चतुर और अनुभवी दीवान सर टी. विजयराघवाचार्य इसी युक्ति से मेवाड प्रजामण्डल को पंगु और निष्क्रिय बना देना चाहते थे | महाराणा के संकेत पर ग्वालियर के प्रमुख राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उदयपुर आमंत्रित किया गया । इन कार्यकर्ताओं ने जेल जाकर माणिक्यलाल वर्मा को समझाने का प्रयत्न किया, किन्तु इसमें वे असफल रहे ।
उदयपुर के दीवान इस असफलता से विचलित नहीं हुए। उन्होंने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को, जो ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के विरोधी थे, 07 मार्च 1944 ई. को वर्मा के पास भेजा | राजगोपालाचारी ने पहले तो वर्मा को समझाया, फिर उनके समक्ष यह शर्त रखी कि यदि दे महाराणा को दिया हुआ अल्टीमेटमवापिस ले लें, तो मेवाड़ सरकार उत्तरदायी शासन की स्थापना करेगी | परन्तु वर्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया | इस असफलता से भी टी. विजयराघवाचार्य ने हार नहीं मानी । अब उन्होंने प्रजामण्डल के अन्य कार्यकर्ताओं को समझाकर वर्मा को अकेला करने का प्रयास किया | मेवाड के दीवान की यह युक्ति भी बेकार गई ।
जब भारत के अन्य भागों में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन समाप्त हो गया तो मेवाड सरकार ने धीरे-धीरे प्रजामण्डल के कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया । आखिरी जत्था फरवरी 1944 ई. में छोडा गया ।
16.2.4 के.एम. मुंशी संविधान
भारत में तेजी से हो रहे परिवर्तनों को ध्यान में रखकर महाराणा ने 1946 ई. में एक संविधान निर्मात्री परिषद् का गठन किया, जिसमें प्रजामण्डल. के कुछ सदस्य लिये गये | इस परिषद् की रिपोर्ट पर महाराणा ने 02 मार्च 1947 ई. को मेवाड में नवीन संविधान की घोषणा की | जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप न होने के कारण प्रजामण्डल ने इसे अस्वीकार कर दिया | तत्पश्चात् महाराणा ने के.एम. मुंशी को अप्रेल 1947 में अपना संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया । उन्होंने शीघ्र ही मेवाड के संविधान की रचना कर दी | मुंशी संविधान 23 मई 1947 को प्रताप जयन्ती के अवसर पर लागू किया गया | प्रजामण्डल ने इसका भी विरोध किया क्योंकि इसमें जागीरदारों को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार दिये गये थे । दबाव में आकर महाराणा ने अन्तरिम काल के लिए प्रजामण्डल के दो प्रतिनिधि और क्षत्रिय परिषद् (प्रजामण्डल की विरोधी संस्था) का एक प्रतिनिधि मंत्रिमण्डल में लेने की घोषणा की । दोनो दलों ने महाराणा का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया | प्रजामण्डल का विरोध जारी था, अत: महाराणा ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए 11 अक्टूबर 1947 को संविधान में अनेक संशोधनों की घोषणा की | किन्तु अभी भी प्रजामण्डल की मुख्य मांग कि कार्यकारिणी, व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी हो, पूरी नहीं हुई । अत: इस संविधान को दोषपूर्ण मानते हुए भी प्रजामण्डल ने निर्वाचन में भाग लेने का निश्चय किया | फरवरी 1948 ई. में चुनाव हुए जिसमें प्रजामण्डल के 08 उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए | 06 मार्च 1948 को महाराणा ने अपने जन्मदिन के अवसर पर कुछ और सुधारों की घोषणा की जिसमें महाराणा ने दीवान (प्रधानमंत्री) पद को छोड़ शेष मंत्रीमण्डल को विधानसभा के प्रति उत्तरदायी बनाना स्वीकार कर लिया | महाराणा ने बिना किसी हिचकिचाहट के भारतीय संघ में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया ।
___ अब हम जोधपुर राज्य में मारवाड में होने वाले लोक परिषद् आन्दोलन का अवलोकन करेंगे।
16.3 जोधपुर राज्य मेन मारवाड़ लोक परिषद आंदोलन
1934 ई. में मारवाड राज्य को जोधपुर राज्य के नाम से जाना जाने लगा | मारवाड सेवा संघ(1920), मारवाड़ हितकारिणी सभा (1921), मारवाड यूथ लीग(1931), बाल भारत सभा सिविल लिबर्टीज, यूनियन (1931), जोधपुर प्रजा मण्डल (1934), आदि मारवाड की आरम्भिक राजनीतिक संस्थाएं थीं, जिनके माध्यम से बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में मारवाड़ की स्थानीय समस्याओं को लेकर छोटे-मोटे जन आन्दोलनों का आयोजन कर, लोगों में राजनीतिक चेतना को जीवन्त रखा गया ।
फरवरी 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में स्वीकृत प्रस्ताव के अनुसार 16 मई 1938 ई. को जोधपुर में “मारवाड लोक परिषद् की स्थापना की गई । इसका मूल उद्देश्य महाराजा की छत्रछाया में उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था ।
राज्य में प्रवेश पर प्रतिबन्ध समाप्त होते ही जयनारायण व्यास ने मारवाड़ में जन-आन्दोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ली । लोक परिषद् ने राज्य की दमनकारी नीतियों के विरूद्ध आवाज उठानी आरम्भ कर दी ।
02 फरवरी 1939 को मारवाड़ राज्य सरकार ने जोधपुर में केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड और प्रत्येक हुकूमत में एक सलाहकार बोर्ड की स्थापना की । जयनारायण व्यास को केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड में गैर सरकारी प्रतिनिधि के रूप में मनोनीत किया गया । इसी वर्ष मारवाड मे भयंकर अकाल पड़ा । लोक परिषद् ने अकाल राहत कार्यों में उल्लेखनीय योगदान देकर लोकप्रियता प्राप्त की ।
सितम्बर 1939 ई. में द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ होते ही मारवाड़ राज्य सरकार ने ब्रिटिश सरकार को युद्ध में सभी प्रकार की सहायता देनी आरम्भ कर दी । लोक परिषद् ने राज्य सरकार का विरोध किया और व्यास जी ने सलाहकार बोर्ड से इस्तीफा दे दिया ।
इसी बीच 14 जनवरी 1940 ई. को लोक परिषद् ने अपनी बैठक में घोषणा की कि ‘अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् ‘ का प्रथम अधिवेशन मई 1940 ई. में जोधपुर में होगा | क्रुद्ध राज्य सरकार ने दमन चक्र और तीव्र कर दिया । अचानक 08 मार्च 1940 ई. को लोक परिषद् को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया | जयनारायण व्यास और उनके सहयोगी अचलेश्वर प्रसाद शर्मा, किशोरी लाल मेहता, अभयमल जैन आदि को गिरफ्तार कर लिया गया ।
16.3.1 मारवाड लोक परिषद् का प्रथम सत्याग्रह
नेताओं की गिरफ्तारी के साथ ही मारवाड में लोक परिषद् के पंजीकरण के लिए जन-आन्दोलन आरम्भ हो गया । लोक परिषद् ने अपना संविधान स्थगित कर मथुरादास माथुर को अपना पहला डिक्टेटर बनाया | माथुर के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला गया । पुलिस द्वारा मधुरादास माथुर को गिरफ्तार कर लिया गया । पुलिस ने जुलूस पर लाठी चार्ज किया । शीघ्र ही अन्य तीन डिक्टेटर एक के बाद एक गिरफ्तार कर लिए गये । राज्य की दमनकारी नीति की महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में कटु आलोचना की । अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् ने पण्डित द्वारकानाथ कचरू को मारवाड की स्थिति का अध्ययन के लिए जोधपुर भेजा, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने की अनुमति नहीं मिली । अत: आन्दोलन जारी रहा । अन्तत: 26 जून 1940 ई. को मारवाड़ लोक परिषद् और राज्य सरकार के बीच समझौता हो गया, जिसके परिणामस्वरूप मारवाड़ लोक परिषद् का पंजीयन स्वीकार कर लिया गया । सरकार ने नेताओं को रिहा कर दिया और आन्दोलन समाप्त कर दिया गया ।
___07-08 जून 1941 को जोधपुर में प्रथम बार नगर पालिका के चुनाव हुए | इन चुनावों में लोक परिषद् ने कुल 22 सीटों में से 18 सीटों पर विजय प्राप्त की । जयनारायण व्यास जोधपुर नगर पालिका के प्रथम निर्वाचित अध्यक्ष चुने गए ।
लोक परिषद् ने अब गाँवों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया | गाँवों में किसानों से बेगार और अवैध लागे ली जाती थीं । अब जागीरदार भी महाराजा और राज्य सरकार की तरह लोकपरिषद् के कट्टर विरोधी हो गये ।
जोधपुर महाराजा ने मई 1941 ई. में प्रतिनिधि सलाहकार सभा के गठन की घोषणा की, जिसमें जागीरदारों का बहुमत सुनिश्चिा था । अत: लोक परिषद् ने चुनावों का बहिष्कार किया ।
जोधपुर राज्य के जागीरदार भी सरकार का समर्थन पाकर उच्छंखल हो गये थे । 28 मार्च 1942 ई. को जब चंडादल, रोडू और गुन्दोज ठिकानों में ‘उत्तरदायी दिवस’ मनाया जाने लगा, तो लोक परिषद् के कार्यकर्ताओं पर लाठियां बरसाई गई । सरकार ने लोक परिषद् की शिकायतों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया ।
16.3.2 मारवाड लोक परिषद् का दूसरा सत्याग्रह
सरकार और लोक परिषद् के बीच निरन्तर कटुता बढ़ रही थी | विरोध स्वरूप जयनारायण व्यास ने नगर पालिका अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया | 11 मई 1942 को लोक परिषद् ने व्यास जी के नेतृत्व में दूसरा सत्याग्रह आरम्भ करने का निश्चय किया । उन्होंने एक विज्ञप्ति, “मारवाड में उत्तरदायी शासन का आन्दोलन” प्रकाशित कर आन्दोलन की आवश्यकता को स्पष्ट किया । सरकार के समक्ष दो मांग रखी गयी – 1. सर डोनाल्ड फील्ड को प्रधानमंत्री पद से हटाया जाये 2. उत्तरदायी शासन की स्थापना
आन्दोलन आरम्भ होते ही व्यास जी को गिरफ्तार कर लिया गया । एक के बाद एक अन्य डिक्टेटर भी कैद कर लिये गये । लेकिन आन्दोलन चलता रहा | जोधपुर की महिलाओं ने भी इस आन्दोलन में सहर्ष भाग लिया । 11 जून 1942 ई. को जेल में सत्याग्रहियों की भूख-हडताल के बाद लाठी चार्ज किया गया | घायल और बीमार बालमुकुन्द बिस्सा को अस्पताल में भर्ती किया गया, जहां 19 जून 1942 ई. को उनकी मृत्यु हो गई; 16.3.3 भारत छोड़ो आन्दोलन और मारवाड़ अगस्त 08, 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन आरम्भ किया । लोक परिषद् के कार्यकर्ताओं ने, जो जेल में नहीं थे, गांधी जी द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलने का निश्चय किया । आन्दोलन पहले ही चल रहा था, उसमें और तेजी आ गई | नवयुवकों ने संगठित होकर छोटी फेरियां और सभाएं करनी आरम्भ कर दी । इन सभाओं में छात्रों और राजकीय कर्मचारियों से हडताल पर जाने, राज्य को अनुत्तरदायी सरकार को समाप्त करने और अखिल भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थन करने की अपील की गयी । कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में कॉलेज और स्कूल के छात्रों ने 10 अगस्त 1942 ई. को हडताल की और जुलूस निकाला | 02 अक्टूबर 1942 ई. से 09 अक्टूबर 1942 ई. तक गांधी जयन्ती सप्ताह मनाया गया । आन्दोलनकारी स्कूल और कॉलेज में हड़ताल करवाते । स्कूल, कॉलेज और सरकारी कार्यालयों तथा म्यूनिसीपल भवनों पर तिरंगा फहराने का कार्य करते।
छात्रों ने इस आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया | मारवाड की स्त्रियों ने भी आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान किया है | 18 अगस्त 1942 को पाँच स्त्रियों ने कुछ स्कूली छात्रों के साथ मिलकर ब्रिटिश विरोधी नारे लगाते हुए प्रभात फेरी निकाली | शीघ्र की भीड इकट्ठी हो गई । घुड़सवार पुलिस को रोकने के उद्देश्य से स्त्रियां सड़क पर लेट गई । क्रुद्ध जनता ने पुलिस को बुरा-भला कहा और उस पर पत्थर फेंके | रमादेवी जयनारायण व्यास की पुत्री थी | कुछ स्त्रियों ने 22 सितम्बर 1942ई को एक सभा में उत्तरदायी शासन सम्बन्धी गीत गाये |
मारवाड के नवयुवको ने हिंसा, तोड-फोड़ और अन्य कई क्रान्तिकारी कार्य किये । युवकों ने यूरोपीय अधिकारियों को भारत छोड़ने की सलाह देते हुए पत्र लिखे और भारतीय अधिकारियों से इस कार्य में सहायता मांगी | 18 अगस्त 1942 को आन्दोलनकारियों ने पुलिस की एक लॉरी को जलाने का असफल प्रयास किया । जोधपुर-फलौदी मार्ग में तार काटने की घटना हुई । ऐसी स्थिति में राज्य सेना को भी पुलिस सहायता के लिए बुलाया गया ।
क्रान्तिकारी गतिविधियाँ 17 अक्टूबर 1942 ई. को अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी, जब स्टेडियम सिनेमा में बम विस्फोट किया गया । उस दिन दशहरा था और शनिवार होने के कारण अंग्रेजी फिल्म ’50 गौरवमयी वर्ष का प्रदर्शन हो रहा था | क्रान्तिकारी गतिविधियां अभी बन्द नहीं हुई थीं | 13 अप्रेल 1943 को सिवांची गेट के निकट एक बम विस्फोट हुआ जिसमें सीतारम और सूरजप्रकाश को गिरफ्तार किया गया । इसी सप्ताह तीन और बम विस्फोट हुए । प्रथम रेजीडेन्सी कार्यालय में दूसरा म्यूनिसिपल बोर्ड में और तीसरा खांडा फलसा पुलिस चौकी में |
मारवाड में जोधपुर शहर के अतिरिक्त फलौदी में भी ‘भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रभाव पड़ा | आन्दोलन मन्द गीत से दो वर्षा तक चला । अन्ततोगत्वा एक समझौते के बाद सभी राजनैतिक बन्दियों को 27 मई 1944 ई. को रिहा किया गया ।
नवम्बर 1944 ई. में हुए जोधपुर नगरपालिका | चुनावों में लोक परिषद् को पुन: बहुमत प्राप्त हुआ | जून 1945 ई में पण्डित जवाहर लाल नेहरू जोधपुर आये और उनकी सलाह पर महाराज उम्मेद सिंह ने डोनाल्ड फील्ड के स्थान पर सी.एस वेंकटचारी को मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्त किया |
16.3.4 सुधालकर रिपोर्ट
संवैधानिक सुधारों पर अपने सुझाव देने के लिए महाराजा द्वारा नियुक्त सुधालकर कमेटी की रिपोर्ट जुताई 1945 में प्रकाशित की गयी । इसमें व्यवस्थापिका सभा का गठन इस प्रकार किया गया कि वास्तविक सत्ता महाराजा, मुख्यमंत्री और महाराजा के नामजद मंत्रियों के हाथ में रहे । इतना ही नही दो वर्ष का कारावास भोग चुके व्यक्ति सभा के लिए चुनाव नहीं लड़ सकते थे । अत: लोक परिषद् ने रिपोर्ट का विरोध किया । राज्य सरकार तथा जागीरदार परिषद् का दमन करने के लिए कटिबद्ध थे | 13 मार्च 1947 ई. को डीडवाना जिले के डाबड़ा गांव में जागीरदारों ने एक हजार राजपूतों से लोक परिषद् कार्यकर्ताओं पर अमानवीय अत्याचार करवाये | राष्ट्रीय समाचार पत्रों में इस काण्ड की तीव्र आलोचना की गयी, लेकिन महाराजा पर इसका कोई असर नहीं पड़ा ।
इसी बीच महाराजा उम्मेद सिंह के देहान्त के बाद उनके नवयुवक पुत्र महाराजा हनुमना सिंह 21 जून 1947 ई. को सिंहासन पर बैठे । उन्होंने अक्टूबर 1947 को वेंकटचारी के स्थान पर अपने चाचा अजीत सिंह को नया मुख्यमंत्री बनाया । लोक परिषद् ने इसका अत्यधिक विरोध किया ।
28 फरवरी 1948 को भारत सरकार द्वारा भेजे गए वी.पी.मेनन के समझाने पर महाराजा ने व्यास जी के नेतृत्व में मिला-जुला मंत्रिमण्डल बनाया । लेकिन यह मंत्रिमण्डल सुचारू रूप से न चल सका । इसमें कई फेर-बदल किये गये । अन्त में सितम्बर 1948 में जयनारायण व्यास का नया मंत्रिमण्डल बना, जिसमें पहली बार मारवाड लोक परिषद् का बहुमत था । दिसम्बर 1948 में वी.पी मेनन और महाराजा के बीच जोधपुर के राजस्थान में शामिल होने के सम्बन्ध में वार्ता हुई जिसके फलस्वरूप महाराजा ने जोधपुर को वृहद राजस्थान में शामिल करने की सहमति दी ।
16.5 भरतपुर
बीसवीं सदी के तृतीय दशक में भरतपुर राज्य में भू-राजस्व नीति के प्रति किसानों में अत्यधिक रोष था । अप्रेल 1927 में किसानों ने इस नीति के खिलाफ कई सभाएँ की । इसी वर्ष भरतपुर में “हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ ‘ के अवसर पर राष्ट्रीय नेताओं की उपस्थिति ने किसान आन्दोलन में नई शक्ति का संचार किया । वह भरतपुर में उत्तरदायी शासन की मांग करने लगा | महाराजा किशन सिंह ने 15 सितम्बर 1927 की घोषणा में उत्तरदायी शासन की स्थापना का आश्वासन दे दिया । लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गद्दी से हटाकर, राज्य से निर्वासित कर दिया । प्रशासन के समस्त अधिकार ब्रिटिश दीवान मैकेन्जी को सौंप दिये गये । मैकेन्जी ने सार्वजनिक सभाओं और प्रकाशन पर रोक लगा दी तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता जगन्नाथ दास अधिकारी को राज्य से निर्वासित कर दिया ।
16.5.1 भरतपुर राज्य प्रजा संघ की स्थापना
दीवान की दमनकारी नीति और पुलिस अत्याचार के विरोध में 06 जनवरी 1929 को भरतपुर राज्य प्रजा संध की स्थापना की थी । प्रतिक्रियावादी दीवान ने शीघ्र की संघ के अध्यक्ष गोपीलाल यादव और सचिव देशराज को बन्दी बना लिया । 1930-31 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के लिए भरतपुर से एक जत्था अजमेर गया |
हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के बाद भरतपुर के प्रमुख राजनीतिक, कार्यकताओं ने राज्य से बाहर रेवाड़ी में दिसम्बर 1938 में ‘भरतपुर राज्य प्रजा मण्डल’ की स्थापना की | गोपीलाल यादव को इसका अध्यक्ष, देशराज व युगल किशोर चतुर्वेदी को उपाध्यक्ष और मास्टर आदित्येन्द्र को कोषाध्यक्ष बनाया गया |
16.5.2 भरतपुर प्रजामण्डल का प्रथम सत्याग्रह
राज्य सरकार ने शीघ्र ही प्रजामण्डल के गैर कानूनी घोषित कर दिया । विरोधस्वरूप प्रजामण्डल ने 21 अप्रेल 1939 को सत्याग्रह आरम्भ कर दिया । इस दौरान जुलूस निकाले गये और आम सभाएं हुई । सरकार ने दमनचक्र जारी कर दिया । आन्दोलन में महिलाओं ने भी भाग लिया । अन्तत: 23 दिसम्बर 1939 को महाराजा बृजेन्द्रसिंह के सिंहासनारोहण के शीघ्र बाद प्रजामण्डल और राज्य सरकार के बीच समझैता हो गया । ‘भरतपुर प्रजामण्डल का पंजीकरण ‘भरतपुर प्रजा परिषद् ‘ के नाम से कर दिया गया | सभी नेताओं को रिहा कर दिया गया । प्रजा परिषद् के उद्देश्य प्रशासनिक सुधारों पर बल देना, सार्वजनिक समस्याओं को प्रस्तुत करना और जनमत को शिक्षित करना रखे गये ।
प्रजा परिषद् ने 27 अगस्त -02 सितम्बर 1940 के मध्य राष्ट्रीय सप्ताह मनाया । 30 दिसम्बर 1940 को परिषद् का प्रथम अधिवेशन जयनारायण व्यास की अध्यक्षता में हुआ | दोनो अवसर पर उत्तरदायी शासन की स्थापना की मांग की गई । लेकिन सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
16.5.3 भारत छोडो आन्दोलन और भरतपुर
__ भारत छोड़ो आन्दोलन की गूंज भरतपुर में भी सुनाई दी | राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार फैलते ही 10 अगस्त 1942 को समस्त भरतपुर शहर कस्बों और बहुत से गाँवों में हडताल रखी गई । उसी दिन सरकार ने परिषद् के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया । ‘भारत छोड़ो ‘ आन्दोलन आरम्भ होते ही नगरपालिका में प्रजापरिषद्, के तीनों सदस्यों में इस्तीफा दे दिया । भरतपुर शहर में प्रतिदिन जुलूस निकाले जाते, जिनमें स्त्रियां भी सरस्वती बोहरा के नेतृत्व में भाग लेती ।
पडौसी शहर आगरा और मथुरा की गतिविधियों का प्रभाव भरतपुर के छात्रों पर भी पड़ा | उन्होंने कॉलेज के अधिकारियों से अखिल भारतीय छात्रसंघ से सम्बद्धता तथा एक छात्रसंघ की स्थापना की अनुमति केवल चौबीस घंटे के भीतर-भीतर मांगी | 14 अगस्त 1942 ई. को भरतपुर में प्रदर्शन अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया | पूरे भरतपुर शहर में आम हडताल रखी गई । मुसलमानों ने भी अपनी दुकानें बन्द रखी । कॉलेज के छात्रों ने स्कूलों में जाकर छात्रों को स्कूल से बाहर निकाल दिया | दोपहर को जुम्मे की नमाज के दौरान प्रजापीरषद्, कार्यकर्ता प्रभुराम और रामभरोसे जामा मस्जिद गये, जहां उन्होंने मुसलमानों को आन्दोलन में कूद पड़ने का आहवान किया । शाम को एक नकली शवयात्रा पंडित रेवतीशरण के घर से आरम्भ की गई । कॉफिन के चारों दिशाओं में निम्नलिखित नारे लिखे थे – जनाजा गैर उत्तरदायी हुकूमत का, बत्राशाही मुर्दाबाद, नमक कानून मुर्दाबाद, मौजूदा अनाज व्यवस्था हाय हाय । उपर्युक्त नारे प्रजापीरषद् की मांगों के सूचक थे । शवयात्रा शहर में घूमकर लक्षण जी के मन्दिर पहुंची । नकली शव को बाकायदा अग्नि दी गई।
आन्दोलनकारियों ने 28-29 अगस्त 1942 की रात को भरतपुर-कुम्हेर मार्ग पर टेलीफोन के तार काट दिये । भरतपुर शहर के अलावा अन्य कस्बों, कुम्हेर, बयाना, डीग आदि में भी भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रभाव पड़ा | बाढ़ और मलेरिया के प्रकोप के कारण प्रजा परिषद् ने 23 सितम्बर 1942 को आन्दोलन पूर्णत: समाप्त कर दिया । सरकार से समझौता वार्ता के बाद राजनीतिक बंदी रिहा कर दिये गये |
16.5.4 ब्रज जय प्रतिनिधि सभा
अक्टूबर 1942 में सरकार ने केन्द्रीय सलाहकार परिषद् के स्थान पर बृज जय प्रतिनिधि सभा के गठन की घोषणा की । अगस्त 1943 ई. में हुए चुनावों में 37 प्रस्तावित निर्वाचित सदस्यों में से 27 सीटें प्रजा परिषद् को प्राप्त हुई । सरकार की असहयोग की नीति के कारण प्रजा परिषद् ने अप्रेल 1945 ई. में ‘बृज जय प्रतिनिधि सभा’ का बहिष्कार कर दिया ।
23-14 मई 1945 को भरतपुर प्रजा परिषद् का दूसरा अधिवेशन जयनारायण व्यास की अधयक्षता में हुआ । इसमें पुन: उत्तरदायी शासन की माँग की गई । जब प्रजापरिषद् ने राज्य की अन्न नीति की तीव्र आलोचना की तो उसके प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । अन्तत: महाराजा के हस्तक्षेप से प्रजामण्डल के सभी कार्यकर्ता रिहा कर दिये गये ।
25 नवम्बर 1945 ई. को भरतपुर प्रजा परिषद् का दूसरा अधिवेशन जयनारायण व्यास की अध्यक्षता में हुआ । इसमें पुन: उत्तरदायी शासन की मांग की और चेतावनी दी कि यदि इस मांग को स्वीकार नहीं किया गया तो प्रजा परिषद् 12 दिसम्बर 1945 से सत्याग्रह आरम्भ कर देगी । लेकिन महाराजा से वार्ता के बाद सत्याग्रह टाल दिया गया।
राज्य सरकार ने संवैधानिक सुधारों के लिए एक समिति नियुक्त की, जिसमें प्रजा परिषद् के सदस्यों का बहुमत रखा गया | किन्तु महाराजा ने धीरेधीरे परिषद् के सदस्यों की संख्या कम कर दी । 17-18 दिसम्बर 1948 को प्रजा परिषद् ने अपने तीसरे अधिवेशन में पुन: उत्तरदायी शासन की स्थापना की और बेगार समाप्त करने की मांग दोहरायी।
___04 जनवरी 1947 को जब महाराजा के जन्मदिन के अवसर पर भारत के तत्कालीन बायसराय लाई वेवल और बीकानेर महाराजा सादुल सिंह जल मुर्गियों का शिकार करने भरतपुर पहुंचे तो राज्य प्रशासन के विरूद्ध व्यापक प्रदर्शन हुए | पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बर अत्याचार किये । इसके विरूद्ध भरतपुर में 17 दिन तक हड़ताल रही । पुलिस दमन जारी रहा । विभिन्न स्थानों पर उपद्रव हुए जो शीघ्र ही साम्प्रदायिक झगडों में बदल गए | जाट और भेदों के पारस्परिक संघर्ष को राज्य सरकार नियन्त्रित न कर सकी । अत: विवश होकर जनवरी 1948 में 04 लोकप्रिय मंत्रियों को नियुक्त किया गया | 18 मार्च 1948 को मत्स्य संघ के बन जाने से भरतपुर राज्य का पृथक अस्तित्व समाप्त हो गया ।
आइए अब हम राजस्थान की अन्य रियासतों के प्रजामण्डल आन्दोलन का संक्षिप्त विवरण प्राप्त करें। 16.6 अन्य राज्यों में प्रजा मण्डल आन्दोलन
16.6.1 जयपुर
जयपुर राज्य में राजनीतिक जागरण का श्रेय अर्जुनलाल सेठी को जाता है | कपूरचन्द पाटनी ने 1931 ई. में ही जयपुर में प्रजामण्डल की स्थापना कर दी थी, लेकिन यह संस्था प्रभावशाली न हो सकी । हरिपुरा प्रस्ताव के बाद जमनालाल बजाज और हीरालाल शास्त्री ने जयपुर प्रजामण्डल का पुनर्गठन किया | 09 मई 1938 ई. में अपने प्रथम अधिवेशन में उसने उत्तरदायी शासन की मांग की । प्रजामण्डल को पंजीकरण के लिए 11 फरवरी 1939 ई. को सत्याग्रह करना पड़ा । गांधी जी के दबाव के कारण सरकार और प्रजामण्डल में समझौता हो गया । मार्च 1940 में जयपुर प्रजामण्डल का पंजीकरण हो गया | 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में प्रजामण्डल की भूमि का विवादस्पद रही । प्रजामण्डल अध्यक्ष हीरा लाल शास्त्री ने प्रधानमंत्री के मिर्जा इस्माइल के साथ जेन्टलमेन्स समझौता कर लिया । दूसरी ओर बाबा हरीशचन्द्र ने आजाद मोर्चे की स्थापना कर आन्दोलन आरम्भ किया । 27 मार्च 1947 को जयपुर महाराजा ने कुछ और सुधारों की घोषणा की तत्पश्चात् हीरालाल मुख्य सचिव बने । जुलाई 1947 की नरेन्द्र मण्डल की सभा में जयपुर नरेश ने भारतीय संघ में मिलने की घोषणा
16.6.2 अलवर
अलवर राज्य में जन जागृति के अग्रदूत पण्डित हरि नारायण शर्मा थे | शर्मा और कुंज बिहारी लाल मोदी ने 1938 ई. में अलवर राज्य प्रजामण्डल की स्थापना की । संघर्ष के बाद सरकार ने मार्च 1940 ई. को इसका पंजीकरण किया । 1940 में जब सरकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए चन्दा वसूल करना आरम किया, तो विरोध करने वाले प्रजामण्डल के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । अगस्त 1946 में प्रजामण्डल ने उत्तरदायी शासन की मांग की । संवैधानिक सुधार समिति (अक्टूबर 1946) की रिपोर्ट का प्रजामण्डल ने विरोध किया | मार्च 1948 ई. में अलवर का मत्सय संघ में विलय हो गया ।
16.6.3 बीकानेर
बीकानेर के शासक महाराजा गंगासिंह यद्यपि प्रगतिशील विचारों के थे, परन्तु जब मघाराम वैध ने अक्टूबर 1934 ई. में बीकानेर प्रजामण्डल की स्थापना की, तो उसे राज्य से निष्कासित कर दिया गया | इसी प्रकार 22 जुलाई 1942 ई. को रघुवर दयाल गोयल ने बीकानेर प्रजा प्ररिषद का गठन किया, तो उसे भी राज्य से निष्कासित कर दिया गया । प्रजा मण्डल को भी अवैध घोषित कर दिया गया । इसके विरूद्ध हुए आन्दोलन का सरकार ने सख्ती से दमन कर दिया । अन्तत: 1942 में बीकानेर नरेश संवैधानिक सुधारों के लिए राजी हो गये | बहुत बादविवाद के बाद बीकानेर नरेश ने 30 मार्च 1949 को वृहद राजस्थान में मिलना स्वीकार कर लिया ।
16.6.4 कोटा
कोटा राज्य में जनजागृति के जनक पण्डित नयनूराम शर्मा 1934 में ही हाड़ौती प्रजामण्डल की स्थापना कर चुके थे । परन्तु यह विशेष कार्य न कर सकी । 1939 ई. में शर्मा और अभिन्न हरि ने कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना की | भारत छोडो आन्दोलन से पूर्व रियासती कार्यकर्ताओं की बैठक के बाद, अभिन्न हरि को कोटा पहुँचते ही गिरफ्तार कर लिया गया । जैसे ही प्रजामण्डल अध्यक्ष मोती लाल जैन ने महाराज को अंग्रजो से सम्बन्ध विच्छेद करने को कहा, प्रजामण्डल कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी आरम्भ कर दी गयी । इसी दौरान नाथूलाल जैन के नेतृत्व में युवकों ने शहर कोतवाली पर अधिकार कर तिरंगा फहरा दिया । जनता ने 15 दिन तक नगर प्रशासन पर अपना कब्जा रखा | कोटा महाराज ने 1948 के आरम्भ में अभिन्न हीर के नेतृत्व में लोकप्रिय सरकार बनाने का निर्णय लिया ।
16.6.5 बूंदी
बूंदी में 1931 ई. में ही कान्तिलाल की अध्यक्षता में प्रजामण्डल की स्थापना हो चुकी थी, परन्तु सरकार ने राज्य में सारे प्रतिबन्ध लगा दिये । काँग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के बाद ऋषि दत्त मेहता ने बूंदी लौटते ही जन आन्दोलन आरम्भ कर दिया | रिहा होते ही उन्होंने 1944 में बूंदी राज्य लोक परिषद् का गठन कर उत्तरदायी शासन की माँग की । इससे पहले कि संविधान निर्मात्री सभा द्वारा पारित विधान स्वीकृत हो, बूंदी ने राजस्थान संघ में विलीन होना स्वीकार कर लिया |
16.6.6 जैसलमेर
जैसलमेर में 1920 में ही राष्ट्रीय भावना अंकुरित हो चुकी थी । 1937 ई. में सागरमल गोपा और उनके साथियों ने जब लोक परिषद् की स्थापना की तो उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया गया | 1940 में गोपा ने ‘जैसलमेर में गुंडा राज्य” नामक पुस्तक प्रकाशित कर जन साधारण में वितरित करता दी । जब पिता की मृत्यु पर 1941 ई. में वे जैसलमेर आए तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया | जेल में ही थानेदार ने 03 अप्रेल 1946 को उन्हें अग्नि की भेंट चढ़ा दिया । जनता ने जांच की माँग की । जाँच में इस काण्ड को आत्महत्या करार दिया गया । मीठा लाल व्यास 1945 में ही प्रजामण्डल की स्थापना कर चुके थे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी महारावल का रूख कठोर रहा । 30 मार्च 1948 को जैसलमेर का राजस्थान में विलय हुआ |
16.6.7 धौलपुर
धौलपुर में आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानन्द ने 1918 ई. में निरंकुश राजतंत्र के विरूद्ध अभियान चलाया । 1936 में कृष्णदत्त पालीवाल ने धौलपुर राज्य प्रजामण्डल का गठन किया । अप्रेल 1940 में भंदई गाँव में पूर्वी राजस्थान के राज्यों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में उत्तरदायी शासन की मांग की गई | नवम्बर 1946 में प्रजामण्डल के तासीमों गाँव के अधिवेशन में पुलिस ने गोली चलाई । नवम्बर 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राज्य से अनुमति न मिलने के बावजूद भी अपना अधिवेशन आयोजित किया । अन्तत: 04 मार्च 1948 को राज्य ने संवैधानिक सुधार कर उत्तरदायी शासन स्थापित करना स्वीकार किया । किन्तु इसी माह मत्स्य संघ स्थापित हो गया ।
16.6.8 करौली
करौली में राजनीतिक जागृति 1938 ई. में मुंशी त्रिलोकचन्द माथुर द्वारा प्रजामण्डल की स्थापना से हुई । प्रजामण्डल ने प्रारम्भ में उत्तरदायी शासन की माँग नहीं की, फिर भी राज्य ने दमन-नीति अपनायी । नवम्बर 1946 में पहली बार उत्तरदायी शासन की मांग की गयी । जुलाई 1947 में महाराजा ने संवैधानिक सुधारों के दौरान प्रजामण्डल के सुझाव स्वीकार नहीं किये । 16 मार्च 1948 को करौली का मत्सय संघ में विलय हो गया ।
16.6.9 बाँसवाड़ा
बाँसवाड़ा में भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी ने अपने साथियों के साथ 1943 ई. में प्रजामण्डल की स्थापना की । सरकार आरम्भ से ही इसकी विरोधी थी । 1948 ई. ने प्रजामण्डल ने अपने अधिवेशन में उत्तरदायी शासन की माँग की । अन्त में 1948 ई. के आरम्भ में त्रिवेदी ने लोकप्रिय मन्त्रिमण्डल बनाया । 16 अप्रेल 1948 को राज्य का संयुक्त राजस्थान में विलय हुआ |
16.6.10 डूंगरपुर
डूंगरपुर में भोगीलाल पण्डया ने भीलों में जागृति उत्पन्न करने के लिए एक सेवा संघ की स्थापना की । भारत छोडो आन्दोलन के समय सेवा संघ के तत्वावधान में जुलूस, सभाएँ और हड़तालों हुई । अगस्त 1944 ई. में पंडाल, हरिदेव जोशी आदि ने डूंगरपुर प्रजामण्डल की स्थापना की । अप्रेल 1946 गे पहले अधिवेशन में प्रजामण्डल की उत्तदायी शासन की माँग के साथ ही सरकार ने जोशी को राज्य से निष्कासित और पंड्या को कैद कर लिया । 19 जून 1947 को ग्राम रास्तापाल मे पुलिस का अत्याचार उस समय चरम सीमा पर पहुँच गया तब 12वर्षीय भील कन्या काली बाई पुलिस की गोली से शहीद हुई । 16 अप्रेल 1948 के पूर्व डूंगरपुर का संयुक्त राजस्थान में विलय हो गया ।
16.6.11 प्रतापगढ़
प्रतापगढ़ राज्य में अमृतलाल पाठक और चुन्नीलाल प्रभाकर ने 1945 में प्रजामण्डल की स्थापना की | 1947 में प्रतापगढ़ राज्य भारतीय संघ में शामिल हो गया । 16 अप्रेल को प्रतापगढ़ का संयुक्त राजस्थान में विलय हो गया।
16.6.12 शाहपुरा
शाहपुरा में प्रो. गोकुल लाल असावा समिति द्वारा निर्मित संविधान को स्वीकार कर, 14 अगस्त 1947 को असावा के ही नेतृत्व में उत्तरदायी मंत्रिमण्डल का गठन किया गया, 18 अप्रेल 1948 को शाहपुरा का संयुक्त राजस्थान में विलय हुआ |
16.6.13 सिरोही
कुछ युवकों ने बम्बई में 1934 ई. में सिरोही प्रजामण्डल की स्थापना की जिसका उद्देश्य महाराज की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था । लेकिन यह संस्था अधिक सक्रिय नहीं हो सकी । फिर 23 जनवरी 1939 ई. को गोकुल भाई भट्ट ने सिरोही में प्रजामण्डल की स्थापना की । अन्य राज्यों की तरह राज्य ने यहाँ में राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर अत्याचार किये | जिसके फलस्वरूप जन आन्दोलन हुआ । अन्ततः महाराज ने प्रजामण्डल का अस्तित्व स्वीकार कर लिया । ‘भारत छोडो आन्दोलन’ की प्रतिध्वनि सिरोही में भी सुनाई दी । संयुक्त राजस्थान के निर्माण के समय मार्च 1948 में सिरोही को बम्बई राज्य में मिला दिया गया । लेकिन गोकुल भाई भट्ट और हीरालाल शास्त्री के अथक प्रयासों से नवम्बर 1956 ई. में सिरोही को राजस्थान में मिलाया गया ।
16.6.14 किशनगढ़
किशनगढ़ में 1939 में प्रजामण्डल की स्थापना की गई। 13 अप्रेल 1948 को राज्य का संयुक्त राजस्थान में विलय हुआ | झालावाड़ में 1947 में प्रजामण्डल की प्रथम सभा में सुधारों की माँग, की गयी । इस मांग को तुरन्त स्वीकार कर लिया गया । 18 अप्रेल 1948 को राज्य का संयुक्त राजस्थान में विलय कर लिया गया । टोंक में प्रजामण्डल की स्थापना नहीं हुई ।
सारांश
प्रजामण्डलों को 1938-39 में स्थापना के शीघ्र बाद ही राजस्थान के सभी बड़े राज्य जैसे जोधपुर, मेवाड, जयपुर, कोटा, बूंदी और बीकानेर में मान्यता हेतु सत्याग्रह करने पड़े । राज्यों में प्रजामण्डल आन्दोलनों के दो समानान्तर उद्देश्य थे – (1) राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना (2) साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के विस्तार के रूप में, जिसका लक्ष्य रियासतों की स्वतन्त्रता प्राप्ति था ।
प्रजामण्डलों के मार्ग दर्शन में ही ब्रिटिश भारत में होने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन राजस्थान की विभिन्न रियासतों में हुआ | समयसमय पर प्रजामण्डल को राष्ट्रीय नेताओं के सुझाव और प्रोत्साहन प्राप्त होते रहे । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब रियायतों के शासकों ने अंग्रेजों को सहायता प्रदान की तो प्रजामण्डलों ने इसका विरोध किया।
1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में प्रजामण्डलों ने उत्साह से भाग लिया । यह पहला अवसर था जब भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में देशी रियासतों की प्रजा सम्मिलित हुई । भारतीय आजादी के संघर्ष की दो प्रमुख धाराएँ – कांग्रेस और प्रजामण्डल, अब मिलकर एक हो गयी | जन आन्दोलन के दौरान लोगों को भीषण यातनाएं सहनी पड़ी । रियासतों की जनता को तीन शक्तियों-राजा, ठिकानेदार और ब्रिटिश सरकार का सामना करना पड़ा । ये तीनों शक्तियाँ मिलकर जन आन्दोलन का दमन करती रहीं । किन्तु जनता निर्भीकता से संघर्ष करती रही ।
अन्तत: प्रजामण्डल ने अपने दोनों उद्देश्य प्राप्त कर लिये | राजस्थान के राज्यों में होने वाले आन्दोलनों ने यह प्रमाणित कर दिया कि देशी रियासतों की जनता भी, ब्रिटिश भारत की जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर भारत को स्वतन्त्र करवाना चाहती थी ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश शासकों ने प्रजामण्डल आन्दोलनों से भयभीत होकर ही अखिल भारतीय संघ में मिलना स्वीकार किया । इस दृष्टि से प्रजामण्डल देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधने की दिशा में भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुए । निष्कर्षत हम यह कह सकते हैं कि प्रजामण्डल आन्दोलन भारतीय रियासतों में भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का विस्तृत रूप था, जिससे स्वाधीनता संग्राम को और अधिक दृढ़ता मिली ।