मध्यकालीन राजस्थान, अर्थात् 1303 से 1761 ई. तक की अवधि, में देखेंगे कि कुछ प्रमुख राजपूत राजवशों का वर्चस्व बढ़ा जिनमें गुहिल-सीसोदिया, कछवाहे, राठौड एवं चौहान प्रमुख थे । दिल्ली में इस बीच सुलतानों और 16वीं शती से मुगलों का प्रभुत्व रहा । सुलतानों से तो राजपूतों की लड़ाई ही होती रही किन्तु मुगलों ने उन्हें मित्र बनाकर साथ ले लिया और मेवाड़ को छोड सभी राजपूत राजाओं ने कंधे से कंधा मिलाकर मुगल साम्राज्य के निर्माण में सहयोग दिया ।

मेवाड में राणा कुम्भा ने अपने राज्य की सीमा बढ़ाई उसके बाद राणा सांगा ने यद्यपि सब को साथ मिलाकर खानवा के मैदान में बाबर से सामना किया किन्तु वहाँ की हार से सबके हौसले पस्त हो गए | कुछ दिनों के लिए सूरवंश का शासन अवश्य रहा पर पानीपत की लड़ाई के बाद तय हो गया कि भारत पर मुगल ही राज्य करेंगे । अगले तीन सौ वर्षों में मुगल राजपूत सहयोग से देश का अधिकांश भाग एक सूत्र में बंध गया, पश्चिम में काबुल से लेकर पूर्व में आसाम तक और उत्तर में काश्मीर से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक मुगलों का आधिपत्य रहा, जहाँ सीमाओं के रक्षक आबेर के कछवाहे, बूंदी के चौहान, जोधपुर एवं बीकानेर के राठौड़ शासक थे । राजपूत राजे मुगल शासकों के लिए तो लड़े पर राजपूताने में अपेक्षाकृत शांति रही जिससे देश में समृद्धि आई । परिणामस्वरूप नए नगरों की स्थापना हुई उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़ नगर इसी काल में बसे, राजमहलों का निर्माण हुआ जिनमें सुख-सुविधा के लिए शीशमहल, फूलमहल, मोतीमहल, हवामहल, बादलमहल आदि भवनों का निर्माण हुआ | इन भवनों से जुड़े तथा स्वतंत्र रूप से भी बाग-बगीचे लगवाए गए | उदयपुर महाराणा ने सर्वऋतु विलास बनवाया तो आबेर में श्याम बाग, केसर क्यारी और दलाराम के बाग बने । जयपुर में नगर प्रसाद से जुड़ा जयीनवास उद्यान तथा जोधपुर के मण्डोर उद्यान भी बने जिनमें दुर्लभ प्रजातियों के फूल-फल लगाए गए |

सुरक्षा के लिए दुर्ग संरचना में भी कुछ परिवर्तन हुए । खानवा को लड़ाई में बारुद ने राजपूतशासकों की आखें खोल दी थी कि उनकी पराजय का प्रमुख कारण उनकी पुरानी युद्ध पद्धति थी | अत: राजपूताने के सभी शासकों ने अपने-अपने किले मजबूत किए और उनमें नए साधनों को भी इकट्ठा किया । चित्रकला के क्षेत्र में कई नए प्रयोग हुए पहले भित्तिचित्र ही बनते थे, समुचित माध्यम के अभाव में देवी-देवताओं के चित्र यदा कदा ताल पत्रों पर बना लिए जाते थे | किन्तु एक तो ताल पत्र इतना सुलभ नहीं था, दूसरे उसे तैयार करने की प्रक्रिया भी जटिल थी, और उससे भी बड़ी बात यह थी कि उसका आकार निश्चित था, उसी के अनुसार चित्र संयोजना करनी पड़ती थी, 13वीं शती में कागज के आगमन से ग्रन्थ चित्रण में वृद्धि हुई और गुणात्मक अन्तर आया । चित्रों का आकार रडा हुआ धार्मिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक और शृंगारिक ग्रन्थों पर आधारित चित्रावीलया बनी । व्यक्ति चित्रण की शुरुआत भी हुई । यों तो पहले मूर्तियां बनती थीं किन्तु अब तो कागज आ गया था जिस पर अंकन अपेक्षाकृत आसान था ।

संगीत नृत्य विषयक ग्रन्थो की रचना हुई क्लिस्ष्ट शैलियों को सरल बनाने की भी चेष्टा की गई, इस प्रक्रिया में ध्रुपद जैसे शुद्ध शास्त्रीय शैली से हवेली संगीत का विकास हुआ जो वैष्णव मंदिरों में गाई जाने लगी और आज भी गाई जाती है, इसका प्रमुख केन्द्र नाथद्वारा है । अधिकांश ग्रन्थ संस्कृत में थे जिन्हें कुछ विद्धान ही पढ़ सकते थे । अतएव उनके अनुवाद कराए गए जिसमें राजस्थान के शासकों और विद्वानों का बहुत यागदान रहा इस युग की ‘हिंदवी’ और ‘भाषा’ का जो रूप बना वही आगे चलकर आधुनिक हिन्दी हुई।

9.2 मध्यकालीन राजस्थान

कला एवं स्थापत्य की स्थिति का देश की राजनीतिक स्थिति से घनिष्ठ संबध है, जब देश में शान्ति होगी तो समृद्धि आएगी और समृद्धि आएगी तभी कला की उन्नति होगी इसलिए यहां पर मध्यकाल (1300-1761) में राजस्थान की राजनीतिक स्थिति का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक हैं । इस समयावधि के पूर्वार्द्ध में मेवाड, मारवाड, आंबेर और सिरोही के राज्य प्रमुख थे, उत्तरार्द्ध में पहले वागड क्षेत्र के स्वतंत्र राज्य डूंगरपुर और बांसवाडा बने, बीकानेर में बीकाजी ने स्वतंत्र सत्ता स्थापित की, बाद में कोटा अलग हुआ और फिर किशनगढ़ |

समकालीन स्रोतों के अनुसार आबू सिरोही, बूंदी, हाडआटी, चाटसू, रणथम्मौर, गागरोन, मण्डोर, सारंगपुर, नागौर व नरायणा सब मेवाड की सीमा में ही थे ।

मेवाड़ के जिन शासकों का कला-संस्कृति के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा, उनमें महाराणा कुम्भकर्ण (कुंभा 1433-61) संग्रामसिंह (सांगा 1508-28) राजसिंह (1652-80) और जयसिंह (1680-98) के नाम प्रथमपक्ति में आते हैं । इन लोगों ने कलाकारों को प्रश्रय दिया, कुंभा स्वयं निर्माता व संगीत प्रेमी थे, उन्होंने कुम्भलगढ दुर्ग एवं कीर्ति स्तंभ बनवाया | मेवाड की लड़ाई मालवा-गुजरात के सुलतानों से होती रहती थी किन्तु सांगा ने दिल्ली की ओर दृष्टि की और 1528 में खनवा की लड़ाई में बाबर के विरूद्ध लड़ते हुए मारा गया । इसके बाद दिल्ली के मुगल बादशाहों से संघर्ष होता रहा और जहांगीर के समय से शान्ति स्थापित हुई उदयपुर का जगनिवास बना, राजसिंह ने अकाल राहत कार्य में राजसमन्द बनवाया जिसके किनारे बना नौ चौकी घाट स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है । जयसिंह के समय में बड़ी-बडी चित्रावलिया बनी ।

13 वी शती मारवाड में राठौड़ों के पूर्वज सीहाजी ने पाली में एक छोटा राज्य स्थापित किया था जिसे उसके वंशजों ने आगे बढ़ाया और राव जोधा (1438-89) ने 1459 में जोधपुर नगर की स्थापना की, उसने महाराणा कुम्भा से संधि कर राजपूताने में शांति भी स्थापित की, जिससे कला संस्कृति को बढ़ाता मिला । आगे चलकर जोधपुर ने भी मुगलों से मित्रता की, इस वंश के राजाओं में गजसिंह प्रथम (1619- 1638) जसवन्त सिंह (1638-1678) और अजीत सिंह (1707-1724) बहुत बड़े निर्माता और कला संस्कृति के उन्नायक व पोषक हुए |

बीकानेर की स्थापना राव जोधा के पांचवें बेटे राव बीका (1465-1504) ने 1488 में की । यद्यपि इस राज्य का अधिकांश भाग रेगिस्तान है किन्तु भवन निर्माण, चित्रांकन व पुस्तक लेखन में यह प्रदेश अग्रणी रहा । यहां के राजाओं ने भी मुगलों से संधि कर ली थी और महत्वपूर्ण युद्धों में मुगलों की ओर से लडे । प्रमुख शासकों में राव लुणकर्ण (1505-26), रायसिंह (1574-1612) जिन्होंने जूनागढ़ बनवाया, करणसिंह (6831 – 1669), और अनूपसिंह (1669-1698) हुए, जिन्होंने अनूप संस्कृत पुस्तकालय स्थापित किया । राजाओं में साहित्यिक अभिरुचि तो थी ही, परिवार के अन्य सदस्यों में भी कई लोग बड़े प्रतिभावान थे | रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज डिंगल के अच्छे कवि थे और उनकी पुस्तक ‘कृष्ण रूक्मणि री बेलि’ बडी उच्च कोटि की रचना है । महाराजा अनूपसिंह के पुस्तक प्रेम का प्रमाण अनूप संस्कृत पुस्तकालय है जिसमें दुर्लभ पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं । इनके समय में कई चित्रवालियाँ भी तैयार हुई।

किशनगढ़ की स्थापना किशनसिंह ने की जो जोधपुर के महाराजा उदयसिंह के आठवे पुत्र थे, कला एवं साहित्य के क्षेत्र में किशनगढ़ अपनी चित्रशैली एवं महाराजा सावंतसिंह (1748-57) की रचनाओं के लिए प्रसिद्ध है । सावंतसिंह कृष्णभक्त कवि थे, ‘नागरीदास’ उनका उपनाम था, वह 1757 में राज्य त्याग कर वृन्दावन में रहने लगे थे ।

बूंदी-कोटा का इलाका चौहानों की हाडा शाखा के अधीन होने के कारण हाड़ौती कहलाता है, किन्तु बूंदी 16 वीं शती तक मेवाड का मित्र राज्य ही रहा, आंतरिक मामलों में स्वतंत्र होते हुए भी ये महाराणा के सहयोगी थे । 16 वीं शती में बूंदी के राव सुरजन (1554-85) ने मुगल बादशाह अकबर से संधि कर ली, और हाड़ा सरदारों ने भारत के विभिन्न भागों में मुगलों का साथ दिया | राव सुरजन को बनारस की जागीर मिली थी, जहां उसने महल, घाट वगैरह बनवाए, उनके इलाके हास बाग, रजकुण्ड और राजमन्दिर में बूंदी का कटारशाही सिक्का भी बाद के दिनों में चलने लगा था । बूंदी का विभाजन 1631 में हुआ जब राव रतन के दूसरे पुत्र माधोसिंह को कोटा की जागीर मिली ।

राजस्थानी चित्र शैली में बूंदी-कोटा कलम का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है बूंदी अपने शृंगारिक और कोटा शिकार चित्रों के लिए विशिष्ट माना जाता है । स्थापत्य में भी हाडा शासकों का बड़ा योगदान रहा | बूंदी के राव छत्रशाल (1631 -58) ने बूंदी में छत्रमहल और पाटन में केशवराव का मन्दिर बनवाया।

राव माधोसिंह ने चम्बल नदी के तट पर कोटा नगर बसाया और उनके बेटे राव मुकुन्द सिंह (1649-57) के नाम पर ही कोटा के पास का दरा मुकुन्द दरा कहलाता है, इनके वंशजों ने कोटा चित्रशैलीको समृद्ध बनाया |

9.3 स्थापत्य

मध्यकालीन राजस्थान के स्थापत्य को, अध्ययन की सुविधा के लिए बार श्रेणियों में रखा जा सकता है – धार्मिक, रिहायशी, सुरक्षात्मक और जल स्थापत्य ।

धार्मिक स्थापत्य के अन्तर्गत हिन्दू एवं जैन मन्दिर तथा मस्जिद ही आएंगे क्योंकि 1200 ई. तक देश के इस भाग में बौद्ध धर्म लगभग समाप्त हो गया था और ईसाई एवं सिख धर्मा का आगमन ही नहीं हुआ था । हां लोकधर्मो और सन्तों के स्थान अवश्य थे किन्तु इनके देवालयों के निर्माण इस काल में लगभग नहीं के बराबर हुए |

1200 ई. तक मन्दिरों का भव्य रूप निश्चित हो चुका था, सामान्यत: मन्दिर के पांच भाग होते थे – गर्भगृह जहां मुख्य देवता की मूर्ति प्रतिष्टित होती थी, मण्डप जहां भक्तगण इकट्ठे होकर भजन ‘कीर्तन करते थे, अर्द्ध मण्डप अथवा प्रवेश द्वार और परिक्रमा के लिए प्रदक्षिणा पथ, सबके ऊपर भव्य शिखर होता था | प्रदक्षिणा पथ कभी खुला होता था और कमी बंद । मंदिर के साथ कुण्ड अथक बाबड़ी और एक बगीची भी होती है, जिससे मन्दिर के लिए पानी एवं फूल आदि की व्यवस्था होती है । भक्तगण तथा आने वाले साधुसन्त इस जलाशय से पानी पीते हैं और पुष्प देवताओं के चढ़ाने के काम आते हैं । यह सामान्य व्यवस्था थी किन्तु निर्माण स्थल और निर्माता की आर्थिक स्थिति के अनुसार देवताओं की साज-सज्जा, रख-रखाब और उत्सवों में परिवर्तन होते रहते थे ।

मध्यकालीन बड़े मन्दिरों में महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाया कुम्भ-श्याम मन्दिर प्रसिद्ध है | वस्तुत: यह मन्दिर आठवीं शती का है जिसका जीर्णोद्वार कुम्भा ने करवाया था उसके बाद इष्ट देव श्याम की मूर्ति प्रतिष्ठित की और उन्हीं के नाम से यह कुंभश्याम का मन्दिर कहलाया । पत्थर में खुदाई का काम और भव्यता के कारण मध्यकालीन मन्दिरों में इसका विशिष्ट स्थान है ।।

कुम्भा के कोषाध्यक्ष भण्डारी बेलाक ने शांतिनाथ को समर्पित क्षार चौरी नामक जैन देवालय का निर्माण करवाया । इसी समय का एक प्रमुख निर्माण कीर्ति स्तंभ है । शास्त्रीय नियमों के आधार पर बनी मूर्तियों से सुसज्जित इस स्तम्भ को मूर्तियों का कोष कहा जा सकता है इसमें नौ मंजिलेंऔर 127 सीढ़ियां हैं । प्रत्येक मंजिल पर रोशनी आने के लिए झरोखे मे हुए हैं । इसका शिलान्यास संवत 1495 वी. और प्रतिष्ठा 1517 वि. में हुई।

कुम्भा के समय का ही बना एक अद्धितीय जैन मन्दिर रणकपुर (पाली) में हैं । मन्दिर समूह में पांच प्रसाद (मंदिर) हैं जिनमें से प्रमुख चार द्वार वाला चौमुखा मन्दिर है, इसे त्रैलोक्यदीपक कहते हैं । आदिनाथ को समर्पित यह मन्दिर वास्तुशास्त्र की दृष्टि से ‘त्रैमौमिक’ (तिमंजिला) ‘चतुरस’ (चौकोर) प्रकार का हैं । इसके निर्माता शतामा के प्रीतीपात्र पोरवाल जैन धरणकशाह थे जिनके नाम पर यह धरणविहार भी कहलाता है । इसका शिलान्यास संवत 1495 वि. में हुआ था और प्रतिष्ठा 1516 वि. में हुई।

17 वीं शती मेवाड के मन्दिरों में महाराणा जगतसिंह (1628- 1652) द्वारा बनवाया गया जगदीश मन्दिर उल्लेखनीय है जो उदयपुर में राजभवन के निकट ही जगदीश चौक में स्थित है । सडक से सीढ़ियां बढकर भव्य देवालय है जहां मुख्य द्वार पर बने दो विशाल हाथी स्वागत करते हैं | मन्दिर प्रांगण के बीचों बीच ऊंची जगती पर स्थित है चारों कोनों पर चार मन्दिर बने हैं जो इसे पंचायतन बनाते हैं । मन्दिर के मुख्य द्वार के सामने, सुन्दर छतरी में गरुड की धातु प्रतिमा है । मन्दिर अर्द्धमण्डप, समामण्डप अन्तराल और गर्भगह में विभक्त है, गर्भगह के उपर विशाल शिखर है । सभामण्डप की छत पिरामिड शैली की है, परिक्रमा के लिए प्रदक्षिणापथ बना हुआ है । मंदिर की साज-सज्जा पारम्परिक ढंग की है । अधिष्ठान शिला के उपर जाड्यकुम्भ कुर्णिका, ग्रास पट्टी और उसके ऊपर गजथर, अश्वथर और नरथर बने हैं । वेदी के ऊपर जंघा भाग है जो तीन भागों में विभक्त है – नागरी जंघा (सादा), लाटी जंघा (स्त्री-पुरूष युगल) और कपोतावली | इस स्तर पर मंदिर की प्रथम मंजिल पूरी होती है फिर दूसरी मंजिल और शिखर का हिस्सा हैं । इस पूर्वाभिमुख मंदिर के तीनों ओर गवाक्ष बने हैं और पुन: जंघा और कपोतावाली है और मूर्तियों की शृंखला हैं जिनमें विष्णु के दस अवतार, चौबीस स्वरूप, शृंगारिक आकृतियां, शार्दूल, गजसिंह, अश्वसिंह, सुर सुंदरियां एवं नृत्य- संगीतरत समूह हैं ।

इसके अतिरिक्त 17वीं शती में राजस्थान में कई नए मन्दिर बने, कई प्राचीन स्थलों पर ही नए निर्माण हुए | ऐसे मंदिरों में पाटन स्थित केशवराय का मन्दिर बड़ा भव है, मन्दिर के कारण ही यह कसा केशवराय पाटन कहलाता हैं | चम्बल नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन मन्दिर था जिसका उल्लेख हम्मीर महाकाव्य में भी हुआ है अवश्य ही वह भी विशाल देवालय रहा होगा किन्तु 17वीं शती में वह जीर्ण-शीर्ण हो गया था । इसका निर्माण राह शत्रुशाल ने पूर्णत: नए सिरे से करवाया ।

आंबेर के मन्दिरों में सूर्य मन्दिर, कल्याणराय जी का मन्दिर और अंबिकेश्वर शिवालय की विस्तृत चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि वे इस पाठ्यक्रम की समय सीमा से बाहर हैं किन्तु लक्ष्मीनारायण एवं जगतशिरोमणि मन्दिर क्या जैन मन्दिरों में सांघी जी का मन्दिर उल्लेखनीय हैं ।

_लक्ष्मीनारायण मंदिर जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है वैष्णव मन्दिर है, इसका निर्माण महाराजा पृथ्वीराज की पत्नी बालाबाई ने करवाया था जो बीकानेर के राव लूणकरण की बेटी थी और परम वैष्णव थी । इसी रानी के प्रभाव में आकर पृथ्वीराज ने वैष्णव मत अंगीकार किया था | शिखर युक्त यह मन्दिर मध्यकालीन मन्दिर स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण है, सभामण्डप और प्रदेश द्वार भी है । दूसरा महत्वपूर्ण मन्दिर जगतशिरोमणि भी विष्णु को ही समर्पित है और राजा मानसिंह की रानी श्रृंगार देवी कनकावत जी का बनवाया हुआ है । उन्होने अपने पुत्र जगतसिंह की स्मृति में इस देवालय का निर्माण करवाया था । तोरणयुक्त इस दो मंजिले मन्दिर में बड़े सुन्दर चित्र बने हैं । मन्दिर के बाहर गरुड़ मण्डप है । बलुए पत्थर से निर्मित इस मन्दिर की बनावट शास्त्रानुसार है, जगती गजधर अश्वथर और नरथर में विभाजित है, गजधर में हाथियों की शृंखला होती थी और अश्वथर में घोडो की नरथर में तत्कालीन जन जीवन का चित्रण होता था । मध्यभाग में मूर्तियां है और उसके ऊपर शिखर है ।

जैन मन्दिरों में तीन शिखरों बाला सांघीजी का मन्दिर उल्लेखनीय है, गांधी चौक के निकट ही बाई ओर जाने वाली सड़क के कोने पर स्थित इस मन्दिर का निर्माण मूलत: मोहनदास ने संवत 1714 वि. (1657 ई) में कराया था, किन्तु इसका जीर्णोद्वार सांघी झंथाराम ने 19वीं शती में कराया जिसके कारण यह सांघी जी के मन्दिर के नाम से ही प्रसिद्ध है ।

मध्यकाल में मन्दिरों की एक नई शैली विकसित हुई जिसे हवेली शैली कहा जाता है, इसमें शिखर नहीं होता केवल चौक और चारों ओर बरामदा एवं कमरे होते हैं, उन्हीं बरामदों में से एक के अन्दर वाले कमरे में ठाकुर जी प्रतिष्ठित होते हैं और कभी कभी सुविधानुसार पृष्ठभाग को बढ़ाकर प्रदक्षिणापथ भी बना दिया जाता था । वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी कृष्ण के बालस्वरूप की पूजा करते थे और गौड़ीय सम्प्रदाय वाले राधा-कृष्ण के युगल छवि की, किन्तु दोनों ही मतों में यहां मन्दिर की कल्पना एक घर की थी जिसमें ठाकुर निवास करते थे | वल्लभ सम्प्रदाय के मन्दिरों में सर्वश्रेष्ठ उदाहरण नाथद्वारा (उदयपुर) और गौडीय सभदाय का गोविन्द देव जी (जयपुर) का है ।।

नाथद्वारा 1669 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब की ब्रज में वैष्णव विरोधी नीतियों से भयभीत बहुत से धर्माचायों ने अपने इष्ट देवताओं के साथ ब्रज का त्याग किया, इन्हीं में दामोदरलाल जी और उनके कुछ शिष्य भी थे जो श्री नाथ जी की मूर्ति लेकर राजस्थान आ गए, यहां महाराणा राजसिंह ने उनका स्वागत किया और जब मूर्ति की गाड़ी सिहाड गाँव में रूक गई तो वही मन्दिर बनवाने का निश्चय कर श्रीनाथ जी के विग्रह की प्रतिष्ठा कर दी गई । यही स्थान नाथद्वारा अर्थात् श्री नाथ का दरवाजा कहलाया (1671 ई.) । यहां जो मन्दिर बना, वह शिखरबन्ध मन्दिर नहीं था वरन् ठाकुर जी का घर था और सामान्य व्यक्ति की उपयोगिता को ध्यान में रखकर बनाया गया था यद्यपि धीरे-धीरे इसका आकार बढ़ता गया और हवेली कहलाने लगा | इस भवन के मुख्य द्वार पर दो विशाल हाथी चित्रित हैं, नौबत खाना है जहां संगीतकार बैठकर गायन-वादन करते हैं । मोतीमहल का द्वार बडा भव्य है, अन्दर कई चौकों वाली हवेली है जिनमें कमल चौक, गोवर्धन पूजा चौक और कई भण्डार हैं, इन सबके बीच निज मन्दिर में श्रीनाथ जी विराजते हैं । अन्दर द्वारिकाधीश विट्ठलनाथ जी और मदनमोहन जी के भी मन्दिर हैं । यहां का स्थापत्य 17वीं शती राजस्थान की हवेलियों से मिलता हैं । हां, यह अवश्य है कि इसके भवनों के नामकरण मन्दिर के उपयोग के अनुसार हुआ है ।

___श्री गोविन्द देव जी जयपुर स्थित श्री गोविन्द का विग्रह भी आक्रांताओं के भय से जब वृन्दावन से आंबेर के लिए रवाना हुआ तो कई स्थानों पर रूकते रूकते अंतत: आंबेर पहुंचा यहां स. जयसिंह ने इनके लिए सागर तट पर कनक वृन्दावन बनवाया हरे भरे बाग बगीचों के बीच शिखर बन्द मन्दिर, किन्तु शीघ्र ही नई राजधानी बनी जहां श्री गोविन्द को महलों में ही प्रतिष्ठित किया गया | महाराजा के शयन कक्ष से ही जयपुर के स्वामी गोविंद का दर्शन हो सके, ऐसी व्यवस्था थी; यह मन्दिर भी हवेली शैली का ही है शिखर नहीं हैं । एक तिबारे में श्री राधा-गोविन्द और सखियों के विग्रह है, प्रदक्षिणा पथ है और सामने खुला प्रांगण था जिस पर अब छत पड गई है । सेवा-पूजा की आवश्यकतानुसार कमरे बने हुए हैं सामने बगीचा है जिससे पूजा के लिए तुलसी दल और पुष्प आ जाते हैं । इन मध्यकालीन वैष्णव मन्दिरों में स्थापत्य संबंधी विस्तृत विधान नहीं हैं । 18वीं शती जयपुर में महाराजा जयसिंह और उनके पुत्र माधोसिंह तथा समश्द्ध महाजनों के बनवाए बहुत से मन्दिर हैं जिनमें गोपीनाथ जी का मन्दिर (पुरानी बस्ती), कल्कि जी का मन्दिर (सिरह ड्योढी बाजार), गिरधारी जी का मन्दिर (मोतीकटला बाजार) और लूणकरण नाटाणी का मन्दिर (छोटी चौपड) आदि अपने स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध है । इनमें छोटी चौपड स्थित रामचन्द्र जी का मन्दिर उतुंग शिखर के कारण दूर से ही दिखाई देता हैं स्थापत्य की दृष्टि से पारम्भिक प्रकार का है, सडक से मन्दिर तक सीढ़िया जाती है । ऊपर गर्भगृह और मण्डप हैं जो स्तम्भों पर आधारित है ।

9.4 रिहायशी महल एवं हवेलियां

रिहायशी भवनों में महल एवं हवेलियां आती हैं – जो उनमें रहने वालों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार बनाई जाती थीं । सामाजिक स्तर ही परिवार और व्यक्ति की आवश्यकताएं भी निश्चित करती है, उदाहरण के लिए राजा को दरबार के लिए दीवान खाना अर्थात बडे बैठक की आवश्यकता होती थी जबकि उसके मंत्री एवं अधीनस्थ अधिकारी छोटी बैठक खाने से ही काम चला सकते थे । दूसरा महत्वपूर्ण उपादान था भवन निर्माण सामग्री का जिस क्षेत्र में जो सामग्री आसानी से उपलब्ध थी, लोग उसी का उपयोग करते थे उदाहरणार्थ पश्चिमो राजस्थान में भवन निर्माण के लिए पत्थर का उपयोग अधिक होता है जबकि पूर्वी राजस्थान में ईट व मिट्टी का, यहां तक कि भरतपुर के प्राचीन किले की दीवार ही मिट्टी की है |

मध्यकालीन राजस्थान के महलों की योजना प्राचीन भारतीय पद्धति पर ही आधारित थी, पहले हर्षचरित में वर्णित महलों की योजना के बहुत निकट रही बाद में वह भी विशेषकर मुगल सम्पर्क में आने पर कुछ परिवर्तन अवश्य आए – महलों के साथ उद्यान पहले भी होते थे, पर अब उसकी योजना ‘चार बाग’ प्रकार की हो गई । इसी प्रकार जालियों में ज्यामितिक अलंकरणों की भरमार हो गई और मेहराब भी कटावदार प्रकार का हो गया । शाहजहाँ काल में 16वी शती के भारी स्तम्भ और हाथियों तथा मयूरों वाले घुडियों के स्थान पर लम्बे खम्भे बनने लगे जिनपर लम्बी पत्तियों वाला अलंकरण होता था । शृंगारिक अभिप्रायों में फूल-पत्तियों वाले पौधों का संयोजन होने लगा । इसी पृष्ठभूमि के साथ कुछ प्रमुख उदाहरणों की जानकारी आगे के पृष्ठों में दी जाएगी ।

महलों में सात ‘पोल’ या दरवाजे बनाये जाते थे जो सुविधानुसार कम भी कर दिए जाते थे, यहीं हम आंबेर के महलों का उदाहरण देंगे, सूरजपोल से अन्दर जाते ही जलेब चौक है जहां जलेबदार रक्षकों का पहरा रहता था । सूरजपोल के ठीक सामने चन्द्रपोल है जिससे आंबेर नगर में जाने का रास्ता है । जलेब चौक की सीढ़ियों से चढ़ कर एक बडे चौक में पहुंचते ही सामने बाई ओर दीवानखाना है और उससे लगे कार्यालय, दाई ओर गणेशपोल है जो महलों का प्रदेश द्वार है, इस दरवाजे से अन्दर जाने पर सामने उद्यान है और दोनों ओर रिहायशी बडे कमरे जिन्हें सुख मन्दिर व जस मन्दिर कहते हैं, राजस्थानी शब्दाबली में ‘दरीखाना’ भी कहा जा सकता है । उसके बाद जनाना महल और चौक इत्यादि । बाहर की ओर गणेशपोल के दाई ओर भोजनशाला और बाई ओर हमाम है । राजमहलों से ही लगा हुआ अस्तबल और हस्तिशाला भी होती थी । इन राजभवनों में कुछ हिस्सों के नाम उनकी बनावट व उपयोगिता पर आधारित होते थे जैसे बादल महल, जहां बैठ कर वर्षा ऋतु का आनंद लिया जा सके, ‘हवामहल’ जहां खूब हवा आए अर्थात् हवादार स्थान |

कुछ हिस्सों के नाम उनके निर्माताओं अथवा रहने बालों पर भी रखे जाते थे जैसे जयपुर नग प्रसाद का प्रताप मन्दिर, महाराजा प्रतापसिंह ने बनवाया था और उदयपुर में जगतसिंह की चित्रशाला, महाराणा जगतसिंह ने बनवायी थी । विशिष्ट व्यक्तियों, पुरोहितों एवं प्रमुख उमरावों व सरदारों के निवास, राजमहलों के छोटे संस्करण ही थे, यहाँ भी जनाने एवं मरदाने हिस्से पृथक-पृथक होते थे, बड़ी-बड़ी बैठकें होती थी और सुन्दर भित्ति चित्रों से युक्त शयनकक्ष सहित घोडे, हाथियों और बहीलयों के रखने की जगह सहित ये हवेलियां कभी-कभी राजमहलों से भी मथ होती थी ।

जयपुर में छोटी चौपड स्थित नाटाणी की हवेली जिसमें आजकल बालिका विद्यालय है, इसी प्रकार की है । तीन चौकों वाली इस हवेली में घोड़ों, रथों व बहीलयों के खड़े करने के स्थान भी हैं | ब्रह्मपुरी स्थित सवाई जयसिंह के गुरु रत्नाकर पुण्डरीक की हवेली और गणगौरी बाजार में पुरोहित प्रतापनारायण जी की हवेली अपने भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध हैं । जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियां पत्थर की खुदाई के लिए प्रसिद्ध हैं । यहां के घरों में पानी के टांके बनाने की भी प्रथा थी और हर घर में पालर (बरसाती) पानी के लिए टांके बने होते थे । जैसलमेर में सालिमीसंह व नथमल की हवेली, कोटा में बुधसिंह बाफना की हवेली मध्यकालीन हवेली स्थापत्य के अच्छे उदाहरण है ।

महलों एवं हवेलियों के दो भाग होते थे, जनाना एवं मरदाना, जो अपने आप में स्वतंत्र होते थे । महलों में प्रत्येक रानी, राजमाता वगैरह का अपना ‘रावला’ होता था जो आज के अपार्टमेंट की तरह ही था, अपने आप में पूरा निवास, एक चौक चारों और बरामदे और कमरे, साथ ही स्नानघर और रसोई भी होती थी । जनाना में4 जो जनानी ड्योढ़ी कहलाती थी, एक सरकारी चौक भी होता था, जब राजा अपने किसी निकट के रिश्तेदार की मेजबानी करता जिसमें महिलाओं के कार्यक्रम भी होते या महारानी या राजमाता किसी उत्सव का आयोजन करती तो वह कार्यक्रम यही होता था । इसके स्थापत्य में बड़ा चौक और उसमें बहुत बड़ी खुली बारहदरी होती, जयपुर जनानी ड्योढ़ी में संगमरमर का बहुत अच्छा काम हुआ है ।

9.5 सुरक्षात्मक दुर्ग

सुरक्षा संबंधी स्थापत्य में चौकियाँ और छोटे-छोटे दुर्ग (किले) आते है | चौकियों में कुछ सैनिक रहते थे जो जो बदलते रहते थे, इनका स्थापत्य सामान्य होता था किन्तु दुर्ग वस्तुत: साधन सम्पन्न स्थान थे जहां से शासक सैन्य संचालन करता था ।

शास्त्रों में किलों के प्रकार आदि की विस्तृत चर्चा हुई है और इनकी विशेषताएं भी बताई गई हैं, किन्तु दुर्गम होना सबसे मुख्य विशेषता थी ताकि शत्रु आसानी से नहीं पहुंच सके, और यदि आक्रमण हो जाए तो छिप कर लड़ा जा सके, गुप्त सुरंगों से सेनाएं, हथियार व खाद्य सामग्री मंगाई जा सके | पहाडों पर बने किलों में यही सुविधा थी, अन्दर बैठी सेना ऊपर से शत्रु को देख कर सकती थी किन्तु बाहर वाले नीचे से अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सकते थे । वायु मार्ग से हमले उन दिनों होते नहीं थे, इसीलिए मनु ने भी सभी दुर्गो में गिरि दुर्गा को ही श्रेष्ठ माना है ।

स्थिति और बनाबट की दृष्टि से राजस्थान के गिरि दुर्गा में चित्तौड सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, कहावत प्रसिद्ध है – गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गलैया । चित्रांग मौर्य ने इसका निर्माण 7 वीं शती में कराया था, बाद में गुहिल बप्पा रावल ने मान मौर्य से इस किले को लेकर अपनी राजधानी बनाई | 7वीं शती से लेकर आज तक इस किले का महत्व उतना ही बना हुआ है यहीं चौदह सौ वर्षा के इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है राजनीतिक व सामाजिक उतार-चढाव को देखा जा सकता है – किला धीरे-धीरे नगर बना, राजा, उसके परिवार और सैनिकों के साथ प्रजा भी सुरक्षा की दृष्टि से अन्दर ही रहती थी, वहाँ पानी का समुचित प्रबन्ध था, खेती होती थी, राजा-प्रजा सब सुरक्षित थे | सीधी चढ़ाई के बाद घुमाव दार सात दरवाजों को पार करने के बाद ही किले में पहुंचा जा सकता था | यह भी जानने योग्य है कि किस प्रकार तत्कालीन हथियारों से 1303 में अलाउद्दीन खिलजी, 1533 में गुजरात के बहादुरशाह और 1579 में मुगल सम्राट अकबर ने इस पर विजय प्राप्त कीया जिसमें तोपों को बैल गाडियों से बढ़ाया गया था । ‘अकबरनामा के चित्र इसके साक्षी हैं ।

गिरि दुर्गा में ऐसा ही महत्वपूर्ण है, सवाई माधोपुर के निकट स्थित रणथम्मौर का किला जिसके निर्माता के विषय में निश्चित रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता पर जन मानस में यह चौहानों का किला ही प्रसिद्ध है, अलाउद्दीन के बाद समय-समय पर यह दिल्ली सुलतानों के हाथ में ही रहा और अंतत: मुगलों के पास आ गया जिसे बादशाह ने 1754 में जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम को उसकी सेवाओं के बदले में दे दिया ।

सामान्यतया दुर्ग पत्थरों को काट कर ही बनाए गए हैं, अन्दर के महलात चूना, सुर्थी एवं पत्थर आदि से ही बनते थे, ऊपर लोई का पलस्तर होता था । मोटे तौर पर किलों के निर्माण की तिथि 7वीं से 18वीं शती तक है और इनका उपयोग आज तक हो रहा हैं, स्वाभाविक है कि बदलती जीवन शैली का इन पर प्रभाव पड़े और आवश्यकतानुसार फेर बदल हो । उदाहरण के लिए जयगढ़ में पुराने और नए ढंग के शौचालय एक साथ देखे जा सकते हैं, इसी प्रकार घोड़ों के अस्तबल का उपयोग सिपाहियों की बैरक के रूप में होने लगा ।

किले सुरक्षा से जुड़े हुए थे यही कारण था कि बदलती युद्ध शैली, हथियारों को बनाने की तकनीक एवं अस्त्र-शस्त्रों में होने वाले नए आविष्कारों के साथ उनके स्थापत्य में कुछ परिवर्तन आए । युद्ध की प्रणाली बदली तो सामग्री बदली और सामग्री बदली तो भण्डारण की व्यवस्था में परिवर्तन आया | पहले केवल तीर-धनुष एवं ढाल-तलवारों के रखने की व्यवस्था करनी होती थी, जब बारुद का आविष्कार हुआ तो तोपें बनी, बन्दूकें बनी इन्हें रखने के साथ बारुद के भण्डार बने, यही नहीं बारुद निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री, शोरा आदि को भी किलों में रखा जाता था ताकि आवश्यकता पड़ने पर बही बारुद तैयार कर ली जाए ।

किलों के दरवाजे यों तो लकडी के होते थे किन्तु उन पर लोहे की मोटी चादरें बढ़ी होती थी और उनमें बाहर की ओर नुकीली कीलें लगी होती थी । युद्धकाल में जब ये दरवाजे बन्द होते थे तो हाथियों के धक्के से इन्हें खोलने की कोशिश की जाती थी, उस समय हाथियों को हटाने के लिए किले के अन्दर से गर्म तेल डाला जाता था । समृद्ध किलों में तेल के विशाल भण्डार होते थे, तेल ‘सीधद्धों-चमडे के बने पात्रों में रखा जाता था ।

स्थापत्य की दृष्टि से देखें तो बाहरी तौर पर किलों की बनावट वही रही, पर्वतों की चोटियों पर, खाई से घिरे किले अथवा नदी पर स्थित दुर्ग | स्थापत्य की इकाईयों के नाम भी वही रहे, काम बदल गए, उदाहरण के लिए किले के प्राचीर में बने मोखों से बाण (तीर) छोडे जाते थे | योद्धा प्राचीर के पीछे होते थे, ऊपर बने मोखों से शत्रु को देखते ही निशाना साधते, 16वीं शती में जब बन्दूकें आई तो इन्हीं मोखों से बन्दूकों के वार होने लगे । जब इन मोखों से तीर चलते थे तो इन्हें तीरकश कहा जाता था किन्तु जब यहां से बन्दूकें चलने लगी तब भी इनका नाम ‘तीरकश ही रहा । ऐसे अनेक उदाहरण हैं ।

13वीं शती से लें तो पिछले 6-7 सौ वर्षा में राजस्थान में सैकड़ों की संख्या में किले बने । कई राजवंश आए, उनके शासकों ने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए सुदृढ़ दुर्गा का निर्माण करवाया, आगे आने वालों ने समय-समय पर उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी कराया किन्तु थानों की प्रासंगिकता बनी रही । जयगढ़ में खड़े होकर जब हम राडार पर दृष्टि डालते हैं तो लगता है कि स्थान का चुनाव कितना उपयुक्त था, एक सहस्राब्दी के बाद भी वही रहा ।

प्रदेश के किलों को देखें तो इन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है – एक तो वह किलेबन्द नगर और दूसरे सामरिक दृष्टि से बनाए गए छोटे दुर्ग | किलेबन्द नगर, जहां राजा और उसकी प्रजा सुरक्षित रह सकती थी, इनके चारों ओर सुदृढ़ प्राचीर होता था, रात्रि को दरवाजे बन्द हो जाते थे । ऐसे किलों में अन्दर बसावट होती थी, पानी का प्रबन्ध होता, अन्दर खेती होती, जीवन चलता रहता, शत्रु बरसों घेरा डाले तो भी असर नहीं होता था, ये दुर्भेद्य किले होते थे जहाँ आपसी फूट के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता था । चित्तौड और रणथम्मौर इसके सर्वात्तम उदाहरण है । रणथम्मौर पर बरसों अलाउद्दीन का घेरा पड़ा रहा, कोई प्रभाव नहीं पडा, बाहर खिलजीपुर जिसे अव खिलचीपुर कहते हैं, गांव भी बस गया किन्तु विजय नहीं मिली तब भेदिए के माध्यम से ही शत्रु अन्दर घुसे, हम्मीर विजय काथ में इस घटना का विस्तृत विवरण आता है । मुगलों के जमाने में राव सुरजन किले के अधिपति थे, स्वयं मुगल सम्राट अकबर ही भेदिया बनकर आंबेर के राजा मानसिंह के साथ किले में पहुंच गए तो रत सुरजन ने किले की चाभी उन्हें सौंप दी ।

दूसरे प्रकार के किले बड़े राज्यों की सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से बनाए जाते थे, जैसे बूंदी की सुरक्षा के लिए बनाया गया तारागढ़ और आंबेर की सुरक्षा के लिग बनाया गया छोटा किला जयगढ़, जहाँ शस्त्र भण्डार, तोप बनाने का कारखाना और बारुद के गोदाम थे, इन सबके रख रखाव के लिए सेना की एक टुकडी भी रहती थी ।

ये किले सुरक्षा की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण थे ही, जन जीवन से भी जुडे राजस्थान के साहित्य में भी इनका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । इतिहास प्रसिद्ध लड़ाइयां तो यहां लड़ी ही गई, इन पर गीत गजल भी लिखे गए | यहां बैठकर कवियों ने साहित्यिक रचनाएं भी की, उदाहरण के लिए महाराज पृथ्वीराज ने गागरोण के गढ़ में बैठकर ही डिंगल की अनुपम कृति ‘कृष्ण रुक्मणी री वेलि’ की रचना की | किलों के साथ उनके निवासियों और रक्षकों का बड़ा घनिष्ठ संबंध था, साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से उन्हें और उनके किलेदारों को अमर कर दिया, वे मात्र पत्थर, सुर्थी / चूने से निर्मित सुरक्षा के लिए बनाए गए भवन ही नहीं थे, थे अपने रहवासियों से बात करते थे । उदाहरण के लिए जोधपुर क्षेत्र में परमार वीरनारायण द्वारा निर्मित सिवाणा का दुर्ग प्रसिद्ध है, कहा जाता है एक बार कल्ला राठौड ने वहाँ शरण ली, तो किला बडा प्रसन्न हुआ कि कल्ला राठौड़ जैसा वीर वहाँ आया कवि कहता है |

किलो अणखलो यूं कहे, आव कल्ला राठौड | मो सिर उतरे मेहणो, तो सिर बांधे मीड ।

आओ कल्ला राठौड (स्वागत है) तुम्हारे आगमन से दो बातें बनेंगी, तुम्हें सिवाणा विजय का श्रेय मिल जाएगा और मुझे विजित करने वाला अर्थात् यह मेरे लिए भी गर्व की बात होगी कि कल्ला राठौड़ ने मुझे जीता ।

दूसरा उदाहरण चित्तौड़ के किलेदार जयमल का है जिसने प्राण तो दे दिए पर किला नहीं छोड़ा | जब अकबर का आक्रमण हुआ तो चित्तौड की रक्षा का भार जयमल पर था किले की रक्षा करता हुआ जयमल मारा गया तो कवि ने कहा –

तूं जयमल दानी कृपण, तूं सारा सिरमौर

सिर दीधो पातसाह ने ना दीधी चित्तौर जयमल की प्रशंसा करते हुए काई ने उसे दानी और कृपण दोनों ही बताया जिसने अपना सिर तो उदारतापूर्वक दे दिया किन्तु चित्तौड का गढ़ नहीं दिया ।

इसी प्रकार बीकानेर कोट के किलेदार कुशलसिह का कहना था कि, ‘मो हुता नहीं जावसी, भले न उगे भाण | दोहा इस प्रकार है –

कुसलो पूछे कोट सूं बिलखत क्यूं बीकाण |

मो हुंता नहीं जावसी, भले न उगे भाण | | अर्थात् तुम क्यों दुःखी हो मेरे प्रिय बीकानेर (कोट), जीवित रहते मैं तुम्हें दूसरे के हाथों में नहीं जाने दूंगा भले ही सूर्य न उगे (किन्तु तुम मेरे ही रहोगे) ।

19वीं शती तक आते-आते किलों का महत्व कम हो गया, एक तो लड़ाई के तौर तरीके बदले रहे थे दूसरे ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ हुई सन्धि के बाद राजस्थानी रियासतों में अपेक्षाकृत शांति ही बनी रही।

9.6 जल स्थापत्य

अधिकांश भाग मरूस्थल होने के कारण राजस्थान में पानी को संजो कर रखने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जाते रहे हैं । वर्षा के पानी को इस तरह इकट्ठा करके रखा जाता है कि अगली वर्षा तक उससे आवश्यकताएं पूरी हो सकें – मनुष्यों एवं पशुओं के पीने, नहाने, धोने के लिए पानी मिले और खेतों में सिंचाई भी हो सके । प्रदेश में पानी का इतना महत्व था कि बहुत’ से मध्यकालीन स्थानों के नाम ही कुंओं और तालाबों के नाम से जुड़े हुए थे जैसे किरात कूप (किराडू-बाडमेर), पलास कूपिका (फलासिया – मेवाड), प्रहलाद कूप (पल्लू-बीकानेर), सरोवरों के नाम पर कोडमदेसर, राजलदेसर, तालाब के नाम पर नागदा (नाग-हद) आदि ।

पानी को संजोने, इकट्ठा करने के लिए निर्माण-स्थापत्य निर्माण की आवश्यकता हुई जिसके लिए यहाँ सुन्दर कुंए, कुंड, टांके और बावडिया बनीं |

कुंए का निर्माण आसान था, ग्रामीण लोग स्वयं खोदते थे, जब पानी निकल आता तो किनारे पक्के कर दिये जाते थे, बडे कुओं से लाव-चडस से पानी निकाला जाता था | जल जीवन है इसलिए समाज के सम्पन्न लोग, और कई बार सामान्य लोग भी जन हितार्थ कुंए खुदवाते थे । ऐसे कुंए बहुत गहरे और बड़े होते थे इनके चारों ओर ऊंचा चबूतरा होता था जिसके चारों कोनों पर खम्भे बने होते थे इन पर आराईश का सुन्दर काम होता था । यहाँ पशुओं के लिए पानी पीने की अलग व्यवस्था होती थी | शेखावटी के रेतीले क्षेत्र में इन कुओं का विशेष महत्व था । यही कारण है कि इस क्षेत्र में बड़े सुन्दर कुंए मिलते हैं ।

टांके पक्के होते थे इनमें भी बरसात का पानी ही इकट्ठा किया जाता था, कहीं ढलान पर एक पक्की हौज बना दी जाती थी जिसके आस-पास नालियां और बड़ा टांका हो तो नहरे बनी होती थी जिनसे होकर पानी हौज (टांका) मे इकट्ठा हो जाता था, इसे ढंक कर ही रखते थे ताकि किसी प्रकार की गन्दगी न जा पाए | इसका वास्तु सादा होता था । टांके निजी तथा सार्वजनिक दोनों प्रकार के होते थे । निजी टांके घर के एक हिस्से में जमीन के नीचे बनाए जाते थे ताकि उपर का स्थान काम में आए और पानी नीचे स्वच्छ एवं सुरक्षित रहे । टांकों का सर्वोत्तम उदाहरण जयगढ़ के टांके हैं ।

बाबडिया स्थापत्य की दृष्टि से बावडियां बहुत ही आकर्षक होती हैं, उपयोगिता तो अपने स्थान पर है ही किन्तु इनके निर्माण में हास्तु सौन्दर्य का विशेष ध्यान रखा जाता था | बावड़ी कई मंजिलों की होती थी, इसमें सीढ़ियां बनी होती थीं और आखिर में एक कुंआ भी होता था क्योंकि जब बावडी में पानी कम हो जाता तो लोग कुंए से पानी निकाल सकें | बीच के आयताकार भाग में पानी होता था, दोनों ओर बरामदे जिनमें देवी देवताओं की मूर्तियाँ होती थी । लोग स्नान करने के बाद पूजा-पाठ भी यही कर लेते ।

मध्यकालीन राजस्थान के जन-जीवन में बावड़ियों का बहुत महत्व था प्यासे को पानी पिलाना पुण्यकर्म समझा जाता है, इस विचार से प्रेरित हो बहुत से साधन सम्पन्न व्यक्तियों ने बावडियां एवं कुंडों का निर्माण करवाया उनमें से कुछ प्रमुख का परिचय नीचे दिया जा रहा हैं ।

जोधपुर के राव गंगा की पत्नी रानी उत्तमदे ने पदम सागर बनवाया था इन्हीं की तीसरी रानी ने जो सिरोही के राव जगमाल की पुत्री थी ने इस तालाब के विस्तार में सहयोग दिया । इस पुण्य कार्य में केवल रानियां ही सहयोग नहीं करती थी वरन शासकों की उप-पत्नियाँ और अन्य समर्थ लोग भी कुएं, बावड़ियों का निर्माण करवाते थे । उदाहरण के लिए महाराजा गजसिंह प्रथम की मुस्लिम पासवान अनारा बेगम ने एक बावडी बनवाई थी जो आज भी विद्याशाला में विद्यमान है । इन्हीं महाराजा गजसिंह की दूसरी मुस्लिम परदायत सुगंधा ने भी एक बावडी बनवाई थी जो जोशियों की बगीची में थी अब इसे पाट दिया गया | उप-पत्नियों द्वारा बनाए गए जलाशयों में गुलाब सागर प्रमुख है । गुलाबराय, महाराजा विजयसिंह (1753-1793) की पासवान थी । स्वभाव से धार्मिक होने के कारण राज्य में इसका बडा दबदबा था । इसका निर्माण सवंत 1837(1780ई.) में शुरू हुआ और संवत 1844 (1787 ई) में पुरा हुआ । यह विशाल सागर शहर के बीच बना हुआ है और आज भी नगर के जनजीवन से जुड़ा हुआ है । देवझूलनी एकादशी, गणेश चतुर्थी आदि त्यौहारों पर यहाँ मेले लगते है | गुलाबराय ने अपने पुत्र तेजसिंह की मृत्यु के बाद इस बड़े सरोवर से लगा एक छोटा सरोवर भी बनवाया जो ‘गुलाब सागर का बच्चा’ कहलाता है ।

___महाराणा राजसिंह (1652-80) की रानी रामरसदे की बनवाई त्रिमुखी बावडी उल्लेखनीय है, इसमें तीन ओर से सीढ़ियां बनी हैं और प्रत्येक दिशा में ये सीढ़ियां तीन खण्डों में विभक्त हैं । प्रत्येक खण्ड में नौ सीढ़ियाँ है और नौ सीढ़ियों के समाप्त होने पर एक चबूतरा बना है, इस चबूतरे पर स्तम्भयुक्त मण्डप है । इस प्रकार तीनों सोपानों को मिलाकर कुल 81 सीढ़ियां और 9 स्तम्भ युक्त मण्डप हैं । इन मण्डपों के बीच आले में देव मूर्तियां भी थी जिनमें से बहुत सी अब गायब हो गई हैं

| महाराणा राजसिंह के समय की बनी इस बावड़ी की बनावट और इसके नौ सोपान, वास्तु की दृष्टि से राजसमन्द की नौचौकी के बहुत निकट हैं जो स्वाभाविक है क्योंकि एक तो समय वही था दूसरी बात यह भी हो सकती है कि महारानी ने उन्हीं कारीगरों की सेवाये ली हो । त्रिमुखी बावडी का लेख भी बड़ा महत्वपूर्ण है, इसमें बापा रावल से लेकर महाराणा राजसिंह तक की मेवाड की वंशावली महाराणा जगतसिंह के समय की प्रमुख घटनाएं, दान एवं निर्माण तथा महाराणा राजसिंह के समय की घटनाएं भी वर्णित हैं | लेख की भाषा यों तो संस्कृत है पर मेवाडी का पुट भी कहीं-कहीं मिलता है । मुख्य शिल्पी नाथू गौड़ था और प्रशस्ति का रचयिता रणछोड भट्ट जिसने नौ चौकी के शिलालेख की रचना की थी ।

डूंगरपुर से थोडी दूर लगभग दो किलोमीटर पर स्थित है नौलखा बावड़ी । इस बावडी का निर्माण महारावल आसकरण (1549-1580) की ज्येष्ठ महारानी और महारावल सहस्त्रमल (1580-1606) की माता चौहान प्रीमल देवी, जिनके पीहर का नाम तारबाई था, ने सवंत 1659(1602 ई.) में करवाया था | बावड़ी पर लगे परेवा-पत्थर पर उत्कीर्ण लेख में वंश परिचय के बाद तारबाई की तीर्थ यात्रा की चर्चा हुई हैं जिसमें कहा गया है कि वह आबू द्वारिका और एकलिंग जी के दर्शनों के लिए गई । बावडी के मुख्य शिल्पी (सिलावट) जयवंत के पुत्र लीलाधर को वस्त्र, वाहन और भूमि देने तथा वैरामीगर को भी भूमि देने का वर्णन किया गया है | प्रशस्ति में यह भी कहा गया है वैशाख शुक्ला 5,1638 वि. (1581 ई) को बावडी खोदने का मुहूर्त किया गया और कार्तिक कृष्ण 5,1643 वि. (1586 ई) को प्रतिष्ठा की गई और कार्तिक कृष्ण 5 को ही व्यास बैकुण्ठ ने यह प्रशस्ति लिखी |

बूंदी स्थित रानी जी की बाव (बावडी) उपयोगिता के साथ ही कला की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, इसमें बड़े सुन्दर चित्र बने हैं तथा देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं । बूंदी नगर के मध्य स्थित इस बावडी का निर्माण महाराव अनिरुद्ध सिंह की पली नाथावत लाडकंवर ने 1757 वि. (1700 ई.) में करवाया था । इस बावडी के तोरण बडे आकर्षक हैं और बिन्दु के दशावतारों और भैरव की मूर्तिया भी । यहां का लेख महत्वपूर्ण है । पहली सीढ़ी के पास ही सफेद संगमरमर की पट्टिका पर खुदे 31 पंक्तियों के इस लेख की शुरुआत गणपति वंदना से होती है । पारम्परिक वंश परिचय के बाद यह कहा गया है कि लाडकंवर ने पुण्यार्थ यह बावड़ी कराई, पुरोहितों के नाम दिए हैं, बावडी के कामदार दारोगा पुहाल कान्ह जी मुशरफ रघुनाथ, उसतागार पटेल उदाराम एवं पटेल मीरू थे, जोशी श्रीपति ने इस लेख की संरचना की, और अंत में महारानी की दो सेविकाओं बडारणि लाछा और बडारणि सुखा के नाम भी दिए गए हैं ।

कुंए, बावड़ियों और अन्य प्रकार के जलाशयों के निर्माण में समृद्ध वर्ग और राज परिवार की महिलाओं का योगदान अधिक रहा किन्तु अन्य लोग भी जो निर्माण करशने में समर्थ थे, पीछे नहीं रहे । दौसा में ‘सालू की बावड़ी’ संभवत: नागर ब्राह्मण परिवार की महिला द्वारा बनवायी गयी थी, यह आज भी विद्यमान है, इसी प्रकार कूकस (आंबेर के पास) में प्रोहताणी की बावडी किसी पुरोहित परिवार की महिला द्वारा बनवायी गयी थी |

बावड़ियों का ही एक प्रकार था कुंड – कुंड खुले होते थे, इनमें पक्की सीढ़ियां बनी होती थी किन्तु कहीं-कहीं बडे एवं गहरे कुंडों में पानी खींचने की व्यवस्था भी होती थी जैसे आबानेरी की चांद बावडी में | कुंडों का सर्वोत्तम उदाहरण है आवेर स्थित पन्ना मियां का कुंड । इसके कोनों पर छतरियां नी हुई हैं और पानी तक जाने के लिए सीढ़ियां इसका निर्माण सवाई जयसिंह के विश्वस्त सेवक पन्ना मिया ने करवाया था । 9.7 चित्रकला

भित्ति चित्रण की परम्परा तो राजस्थान में प्राचीनकाल से चली आ रही थी किन्तु मध्यकाल (13वीं शती) में कागज के आगमन से चित्रण कला में विशेष प्रगति हुई नए-नए विषयों पर चित्र बने, ग्रन्थ चित्रित हुए | राजस्थानी शैली का रूप निश्चित हुआ और कई केन्द्रों में इसकी उपशैलियों में चित्रण हुआ |

राजस्थानी चित्रों को प्रकाश में लाने का श्रेय कला इतिहासकार आनन्द कुमार स्वामी को हैं । सर्वप्रथम उन्होंने ही अपने लेखों व पुस्तकों-राजपूत पेंटिंग के माध्यम से इनका परिचय कला जगत को कराया उसके बाद रायकृष्ण दास, डॉ. मोतीचन्द्र इस्तु जी. आर्चर, कार्ल खण्डालवाला एवं एम.एस. रंधावा आदि ने इन्हें प्रकाशित कर विद्वत जगत को इनकी जानकारी दी।

राजस्थानी शैली का उदभव एवं विकास मध्यकाल में ही हुआ अत: आरम्भ में इसकी उत्पत्ति के विषय में बताते हुए आरम्भिक स्वरूप और उपशैलियों का परिचय यहाँ दिया जाएगा ।

ईसा की प्रथम सहस्राब्दी के अन्त तक चित्रकला की जो शैली निश्चित हो गई थी उसका पश्चिम भारतीय स्वरूप था – ‘परली आँख’ से युक्त चेहरे जिनके नाक-नक्श तीखे थे और वस्त्रों के अंकन में भी नुकीलापन था | आकृतियों की कद काठी छरहरी थी | शुरुआत होती है तालपत्रों व भुर्ज पत्रों पर चित्रण से, पहले कुछ आलंकारिक अभिप्राय फिर देवी-देवताओ के अंकन मूलत: विषय धार्मिक थे, जैन धार्मिक कथाएं । इसीलिए इसे जैन शैली की संज्ञा दी गई, बाद में वसन्त विलास जैसे शृंगारिक विषयों का अंकन भी इसी शैली में मिला तो इसे जैन के स्थान पर पश्चमी भारतीय शैली कहा जाने लगा | जब जौनपुर (पूर्वी उत्तरप्रदेश) में बनी कल्पसूत्र की एक प्रति मिली तो पश्चिमी भारतीय नाम भी उचित नहीं लगा, इस पर रायकृष्ण दास जी ने इसे अजन्ता का अपभ्रंश मानते हुए’अपभ्रंश शैली’ कहा जो आगे चलता रहा ।

पूर्वी भारत के कुछ भाग को छोड़कर लगभग समस्त उत्तर भारत व गुजरात तक परली आँख वाली शैली में ही चित्र बनते रहे, कागज आने के बाद मध्यम अवश्य बदला किन्तु पोथियों का आकार वही रहा – 3-4′ चौडी और 10-12″ लंबे पत्र जिसे दो भागों में बांट कर जमगज लिखा जाता था, बीच में ग्रन्थ बांधने के लिए एक छेद हेता था और बीच-बीच में मुख्य घटनाएं चित्रित कर दी जाती थी । रंग सीमित होते थे – – लाल, हरा, पीला आदि मुख्य रंग । यह क्रम 15वीं शती तक चला और धीरे-धीरे परती आँख गायब हो गई, चेहरे एक चश्मी हो गए, रेखाओं का नुकीलापन कम हो गया और रंगों में भी विविधता आई | 1516 आगरा के अरण्यपर्व, पालम में बने आदिनाथ और 1545 में गोपाचलदुर्ग (ग्वालियर) में बने ग्रन्थों में जो चित्र बने ये ही राजस्थानी शैली के पूर्व रूप हैं, जिनका पूर्ण विकास 17वीं शती मेवाड, बूंदी व बीकानेर के चित्रों में मिलता है ।

मेवाड: 1605 ई. चावण्ड मेवाड) में बनी रागमाला, राजस्थान की भौगोलिक सीमा बनी, अब तक प्राप्त प्राचीनतम तिथियुक्त चित्र है । इसमें चेहरे भारी है, आकृतियां छोटी हैं और इनका आकार भी पोथी चित्रों की तरह नहीं होकर चौकोर है | चित्रों का विषय और उनके संयोजन में भी परिवर्तन दिखाई देता हैं, चित्रकार निसारदीन है । यह चित्रावली लोकशैली के बहुत निकट है। किन्तु कुछ वर्षा में ही मेवाडी शैली में उसका निजत्व दिखाई देने लगता है, रंग मीने जैसे चमकदार हो गए, चित्र संयोजनों में कलाकारों का सधा हुआ हाथ दिखने लगता हैं और रेखाएं स्पष्ट एवं सशक्त हो गई । मेवाड की शैली शृंगारिक ही रही हों, लता गुल्मों और पशु-पक्षियों के अंकन में थोड़ी वास्तविकता तो है परन्तु इतनी ही कि पहचान हो जाए | व्यक्ति चित्रण में यर्थाथता अवश्य दिखती है और लगता है कि मेवाडी चित्रकार यथार्थ चित्रण कर तो सकता था किन्तु वह अपनी शृंगारिकता वाली पहचान बनाए रखना चाहता था । 1627 में बनी साहबदीन की रागमाला इसका अच्छा उदाहरण है ।।

मेवाड की अगली तिथियुक्त चित्रावली का विषय रामायण है जो 1648 में बनी । मनोहर नामक चित्रकार की बनाई इस चित्रावली को देखकर ऐसा लगता है मानों कथा देख रहे हों । 17वीं शती के अन्त में महाराणा राज जयसिंह के समय के बने चित्रों की संख्या देखकर कहना पड़ता है कि मेवाडी चित्रकारों ने संभवत: कोई क्षेत्र नहीं छोडा, सभी विषयों पर उनकी तूलिका चली, संस्कृत के ग्रन्थ स्कंदपुराण का काशी खण्ड, एकलिंग माहात्मय कादमरी पंचतंत्र, भगवद्गीता, भागवत, रसिक प्रिया, रागमाला, मालती माधव और मुल्ला दो प्याज़ा आदि पर हजारों की संख्या में चित्र बने ।

17वीं शती के अन्त तक आते मेवाडी चित्रों की विषय वस्तु में बदलाव आता हैं, चित्रकार व स्वयं महाराणा, राजदरबार में होने वाले त्योहारों, उत्सवों, शिकार यात्राओं में अधिक रूचि लेने लगे । अब रस चित्रों का स्थान राजसी वैभव के प्रदर्शन ने ले लिया । परिणामस्वरूप बड़े बड़े चित्र बने जिनमें महाराणा अपने दरबारियों के साथ होली खेल रहे हैं, दशहरे पर खेजडी पूजन कर रहे हैं अथवा महलों में संगीत सुन रहे हैं । 18वीं शती के इन चित्रों में प्रलेखन को बहुत महत्व दिया गया जिन घटनाओं का चित्रण होता था उनका पूरा विवरण चित्र के पीछे लिखा जाता था । धीरे-धीरे मेवाडी शैली पर 19वीं शती में बाहरी प्रमाव भी आया और 19वीं शती के मध्य में फोटोग्राफी के आने पर चित्रों की उपयोगिता सीमित हो गई।

बूंदी 16वीं शती के अन्त में चुनार दुर्ग (उत्तरप्रदेश) में बनी एक रागमाला (1592 इ) बूंदी शैली की शुरुआत मानी जाती है क्योंकि उस समय चुनार के अधिपति बूंदी के राव भोज (1585-1607) थे, यद्यपि इन चित्रों पर आश्रयदाता का नाम नहीं है | यही नहीं बाद में बने बूंदी के तिथियुक्त चित्रों की शैली भी इन चित्रों के निकट हैं |

17वी शती के चित्रों में रनिवासों के बहुत से फुटकर चित्र भारतीय और विदेशी संग्रहालय में हैं जिनमें स्त्रियों को तिलार खेलते और दाना चुगते कबूतरों को देखते हुए बनाया गया हैं । चित्रायलियों में केशवदास की रसिक प्रिया, भागवत, कृष्ण रुक्मिणीरी वेली एवं रागमाला पर आधारित चित्रों को रख सकते हैं । महाराजा जयपुर के निजी संग्रह में एक लम्बे खरडे पर बने काशी के घाटों का अंकन (रेखाचित्र) अपने ढंग का अनोखा काम है । हाडौती क्षेत्र अपनी नदियों, बन क्षेत्रों – वहाँ रहने वाली जीव जन्तु और हरीतिमा के लिए प्रसिद्ध है, ये सभी चित्रों में मिलते हैं । कलाकारों ने आम और केले के पेड, उनसे लिपटी लताओं और पुष्प गुच्छों का बड़ा सजीव अंकन किया है । इन चित्रों में बूंदी के स्थापत्य को बड़े विस्तार से दिखाया गया है कि यदि चेहरे नहीं भी देखें तो स्थापत्य देखकर बूंदी कलम की पहचान की जा सकती है । चित्रकार की पैनी दृष्टि कबूतरों की विभिन्न जातियों के अंकन में दिखाई देती है | बूंदी के चित्रों में स्त्री आकृतियां लंबोतरी, आखे कमलदल की भांति, भौहे घनी व मुखाकृति गोल होती है | पुरुषाकृतियों की पगडी थोडी नीचे की ओर झुकी हुई होती है । चित्रकारों में सुरजन अहमद, रामलाल, श्री किशन, मीरबगस, डालू आदि प्रमुख हैं |

बीकानेर 17वीं शती बीकानेर में बहुत चित्र बने – जिनमें भागवत, रागमाला और दशावतार की चित्रावलियाँ उल्लेखनीय हैं । महाराजा रायसिंह (1571 -1611) बहुत से मुगल चित्रकारों को आगरे से बीकानेर लाए थे जिन्होंने यहाँ चित्र बनाए | रायसिंह के उत्तराधिकारियों-करनीसंह (1631 -1669) और अनूपसिंह (1669-1698) के समय में चित्रकारों को खूब प्रोत्साहित किया गया । इस समय के बने व्यक्ति चित्रों में व्यक्ति साम्य के साथ-साथ मुगल प्रभाव स्पष्ट है, अनूपसिंह के समय में बने बीकानेरी चित्रों में दकनी कलम का प्रभाव भी दिखता है क्योंकि उनकी नियुक्ति दकन में थी और उनके चित्रकार महाराजा के साथ रहते हुए वहां के चित्रकारों के सम्पर्क में आए होंगे | शाहजहाँ के समय अधिक मुगल चित्रकार बीकानेर आए क्योंकि बादशाह के रूचि स्थापत्य में अधिक थी और बीकानेर में करनसिह का शासन था जो चित्रकला के पारखी थे । इसका अनुमान एक चित्र से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने वैकुण्ठ स्थित लक्ष्मीनारायण को चित्रित कराया । लक्ष्मीनारायण उनके इष्ट देवता थे, स्वण में उन्हें वैकुण्ठ दर्शन हुए महाराजा ने अपने सक के विषय में चित्रकार को बताकर इस विषय को चित्रित कराया | यहां के चित्रकारों में रूकनुद्दीन, अलीरजा शाहदीन हामिद, अहमद, कासिम, शाह मुहम्मद

और हाशिम के नाम और तिथि से युक्त चित्र मिलते हैं जो बीकानेर के जूनागढ़, भारत कला भवन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी और राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली के संग्रहों में हैं, इनमें मुगल कलम की बारीकियां और रंग योजना देखने को मिलती है | 18वीं शती बीकानेरी चित्रकला में कोई महत्त्वपूर्ण कृति नहीं बनी किन्तु नियमित ढंग से चित्र बनते रहे ।

18वीं शती राजस्थान के मेवाड, बूंदी एबं बीकानेर राज्यों में चित्र तो बहुत बने परन्तु चित्रों में बह ताजगी नहीं रही जो 17वीं शती में थी । चित्रों का संयोजन नए ढंग से हुआ किन्तु नए विषय नहीं चित्रित हुए रागमाला, बारहमासा, गीतगोविन्द आदि की ही पुनरावृत्ति होती रही । रेखांकन में स्थिरता आ गई, आकृतियों में गति नही दिखाई देती, वे कठपुतली की तरह खडी दिखती हैं, रंगों के

चुनाव में भी कलाकर की मौलिकता और सृजनशीलता नहीं है । इसके विपरीत जयपुर, किशनगढ़, कोटा, मारवाड-जोधपुर और जैसलमेर में अत्यधिक चित्र बने, इनमें रंग तेज है और रेखाएं प्रवाह पूर्ण | नए विषयों के आने से कलाकारों को नए संयोजन करने पड़े जिससे विविधता आई । 18-19वीं शती कोटा में शिकार दृश्यों का अंकन हुआ जिसमें जंगली जानवरों की गीत देखने योग्य है । जंगल के वृक्षों एवं हरियाली का अंकन तो इतना यथार्थ दिखाई देता है कि प्रसिद्ध कला इतिहासकार डब्ल्यू.जी. आर्चर इन दृश्यों को प्रसिद्ध यूरोपीय कलाकार रूसो की कृतियों के समकक्ष रखते हैं ।

जयपुर की चित्रकला में भागवत गीतगोविन्द एवं राधा-कृष्ण, रागमाला, देही भागवत और व्यक्ति चित्रों का वर्चस्व बना रहा | सवाई जयसिंह के समय में रागमाला, बारहमासा, ईश्वरी सिंह के समय के बने जानवरों की लड़ाई के दृश्य, प्रतापसिंह के समय का भागवत, दुर्गापाठ, कृष्ण लीला और गीतगोविन्द प्रमुख हैं । साहिबराम घासी, सालिगराम और रामजी प्रमुख चित्रकार हुए |

किशनगढ़ में सावंतसिंह के समय में निहालचन्द प्रमुख चित्रकार झा जिसकी कृति बणी ठणी, राजस्थानी चित्रकला का पर्याय बन गई । वहां भी चित्रकला का केन्द्र राधा-कृष्ण और गीत गोविन्द ही रहा ।

जोधपुर में 17वीं शती में राजाओं की कुछ तस्वीरें तो मुगल प्रभाव में बनी थीं, किन्तु विजयीसंह के चित्रकारों ने रामायण और हितोपदेश पर आधारित चित्रावलियां तैयार की जो वस्तुत: भव्य हैं । महाराजा मानसिंह नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी थे, अतएव उनके समय में शिवचरित, सिद्ध सिद्धान्त पद्धति पर आधारित चित्र बने । मानसिंह जी के स्वयं के व्यक्ति चित्र और उनके गुरु आयसनाथ देवनाथ के चित्र भी बहुत बड़ी संख्या में बने । जिसमें उन्हें पूजापाठ करते हुए चित्रित किया गया हैं। मानसिंह स्वयं अच्छे कवि एवं संगीतज्ञ थे इसलिये कई चित्रों में उन्हें नृत्य संगीत सुनते हुए भी बनाया है। इन सभी चित्रों में दरबारी वैभव तो दिखाई देता है किन्तु जोधपुर कलम की तैयारी और सफाई भी स्पष्ट है, कहीं कोई कमी नहीं है । पिछबई और फडचित्र: नाथद्वारा शैली एवं पिछवई 17वीं शती में जब श्रीनाथजी – कृष्ण का एक स्वरूप, मेवाड के सिहाड नामक ग्राम में स्थापित किया गया तो नित्य पूजा, उत्सवों तथा त्यौहारों के लिए चित्र बनाने वाले कलाकारों की आवश्यकता हुई तब उदयपुर तथा आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के चित्रकार यहां आकर बस गए | इन लोगों ने एक विशिष्ट शैली विकसित की जो नाथद्वारा शैली कहलाई । इसमें कृष्ण का स्वरूप काले पत्थर का है । विग्रह के साथ विभिन्न झांकियों और मन्दिरों के गोस्वामियों के व्यक्ति चित्र बनने लगे । चित्रों में पशु-पक्षियों तथा पत्र-गुणों का अंकन तो शृंगारिक ही है पर जलि चित्रण में स्वाभविकता है । ये चित्र कागज पर बनते थे किन्तु कृष्ण मन्दिरों में पिछवई की एक परंपरा है, निज गृह में मूर्ति के पीछे अवसर के अनुकूल एक परदा लगता है जो पिछवई कहलाता है । पिछवई कपडे पर बनती है और वैष्णव त्योहारों और उत्सवों के अनुसार उनके विषय बनाए जाते यथा शरद् पूर्णिमा पर मूर्ति श्वेत अथवा मोतिया रंगत का परिधान पहनती तो बसन्त में पीला | वर्षा ऋतु में मोरकुटी की पिछवई बनती जिसमें नृत्य करते हुए मयूर होते तो अन्नकूट के अवसर पर लगने वाली पिछवई में बर्तनों में सजे विविध प्रकार के व्यंजन । यहां आने वाले भक्तों के लिए कृष्ण लीला के चित्र बहुत बड़ी संख्या में बनते थे और आज भी बन रहे हैं । 19वीं शती के उत्तरार्द्ध और 20वीं शती के पूर्वार्द्ध में इन्हीं चित्रों के आधार पर भारी संख्या में कैलेण्डर बने जो मध्यमवर्गीय भारतीय घरों के पूजा गृह की शोभा बने । नाथद्वारा में हाथी दांत पर चित्र बनाने की प्रथा भी थी । फड या पटचित्र कपडों पर बने वे चित्र हैं जिन्हें देखकर भोपा (गायक) कथा गायन करता है | यह पूर्णत: लोक शैली है, समाजसेवी लोग जिन्होंने सेवा में अपने जीवन की बलि दे दी, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का माध्यम है | फडू 10-12 मीटर लम्बे और लगभग पौन मीटर चौडे कपडे पर चित्रित होते हैं, इनका विषय नायक के जीवन की विभिन्न घटनाएं होती हैं | मेवाड, के शाहपुरा में फड़ बनाने वाले जोशी चित्रकार रहते हैं जो लोक नायक पाबूजी ओर देवनारायण के फड बनाते हैं, मोटे रंगों से बने इनके चित्रों में चेहरे भारी और आकृतियां छोटी बनती हैं । चित्रों का भाव मूलतः शृंगारिकही होती है ।

9.8 मूर्तिकला एवं अन्य

मध्यकाल की मूर्तिकला में यद्यपि पहले की भव्यता नहीं दिखती किन्तु मंदिरो में मूर्तियाँ बनती रही, स्वतंत्र मूर्तियों का अभाव ही रहा । इस युग में धातु मूर्तियों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में हुआ और वह भी जैन तीर्थकरों की मूर्तियां व चौबीसी-जिसमें चौबीस तीर्थकर साथ बनाए जाते हैं, इनमें से अधिकांश तिथियुक्त है, इसलिए इनके क्रमिक विकास के अध्ययन में भी सुविधा है । पत्थर मूर्तियों में इस अवधि में काले पत्थर का बहुत प्रयोग हुआ औ वैद्याव धर्म के प्रभाव से कृष्ण की लगभग सभी मूर्तियां काले पत्थर की ही है जिनमें उनके गोवर्धनधारी अथवा वांसुरी वादक स्वरूप को बनाया है । संगीत विषयक साहित्य के लिए यह स्वर्ण युग रहा । यहां के राजाओं के आश्रय में कई उल्लेखनीय ग्रन्थों की रचना हुआ |

लोक शैलियों में पश्चिमी राजस्थान के लगा, मांगणियारों के गीत मध्यकाल में भी गाए जाते थे और लोकवाद्यों से उनका संगत होता था | मांड, नक्काल, नट बहुरूपिये, बाजीगर आदि राजा-प्रजा सभी का मनोरंजन करते थे । कठपुतली नचाने का काम माट लोग करते थे इसे राजघरानों में भी पसन्द किया जाता हैं जयपुर के जयगडू में तो कठपुतली के कार्यक्रम के लिए प्रेक्षागह ही बना हुआ है ।

वस्त्रकला के क्षेत्र में रंग छपे वस्त्रों के लिए राजस्थान प्रसिद्ध रहा | बारा, जयपुर, जोधपुर की बंधेज तथा अजमेर के छपे वस्त्रों का निर्यात मध्यकाल में हो रहा था जिसके उल्लेख ईस्ट इडिया कंपनी के पत्र व्यवहार में मिलता है |

काष्ठ कला के भी कई केन्द्र विकसित हुए | चित्तौड के पास बस्सी में काष्ठ कला का बहुत बड़ा केन्द्र है । जहां लकड़ी की मूर्तियां, खिलौने, एवं ईसर गणगौर, काले गोरे भैरव बनते हैं । यहां के सुथार कांवड बनाते थे जिसे मध्यकालीन चित्रकथा कहा जा सकता है | 10-12 चित्रों वाली कथा जिसमे लकड़ी के पटरों पर रामकथा के प्रमुख दृश्य चित्रित होते थे और उन्हें इस तरह जोडा जाता था कि डबे के रूप में बन्द दरवाजों को खोलने से एक के बाद एक दृश्य सामने आते थे और कांवड गायक गा-गाकर कथा सुनाता था ।