कौटिल्य का कहना है कि राजा को अपने शत्रुओं सें सुरक्षा के लिए राज्य की सीमाओं पर दुर्गो का निर्माण करवाना चाहिये।
राजस्थान में प्राचीन काल से ही राजा महाराजा अपने निवास की सुरक्षा के लिए, सामग्री संग्रह के लिए, आक्रमण के समय अपनी प्रजा को सुरक्षित रखने के लिए तथा पशुधन को बचाने के लिए विभिन्न आकार-प्रकार के दुर्गो का निर्माण करते रहे है। प्राचीन लेखकों, ने दुर्ग को राज्य का अनिवार्य अंग बताया है।
शुक्रनीतिसार के अनुसार राज्य के सात अंग माने गए है जिनमे से एक दुर्ग है। इसीलिए किलों की अध्कि संख्या अपने अधिकार में रखना एक गौरव की बात मानी जाती थी। अतः किलों की स्थापत्य कला राजस्थान में बहुत अध्कि विकसित हुई।
शुक्रनीतिसार के अनुसार दुर्ग के नौ भेद बताए गये है-
एरण दुर्ग-खाई, तथा पत्थरों से जिनके मार्ग दुर्गम बने हो।
पारिख दुर्ग-जो चारों तरफ बहुत बड़ी खाई से घिरा हो।
परिध् दुर्ग-जो चारों तरफ ईट, पत्थर तथा मिट्टी से बने परकोटों से घिरा हो।
वन दुर्ग-जो बहुत बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों के समूह द्वारा चारो तरफ से घिरा हो।
धन्व दुर्ग-जो चारों तरफ बहुत दूर तक मरूभूमि से घिरा हो।
जल दुर्ग-जो चारों तरफ विस्तृत जलराशि से घिरा हो।
गिरी दुर्ग-जो किसी एकान्त पहाड़ी पर जल प्रबंध् के साथ हो।
सैन्य दुर्ग-व्यूह रचना में चतुर वीरों से व्याप्त होने से जो अभेध् (आक्रमण द्वारा अजेय) हो।
सहाय दुर्ग-जिससें सूर तथा सदा अनुकूल रहने वाले वान्ध्व रहते हो।
उपरोक्त सभी दुर्गो मे सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
राजस्थान के शासकों ने इसी दुर्ग निर्माण परम्परा का पालन किया। लेकिन मध्यकाल में मुस्लिम प्रभाव से दुर्ग स्थापत्य कला में एक नया मोड़ आया। जब ऊँची-ऊँची पहाड़ियों के जो ऊपर चौड़ी होती थी और जहाँ खेती और सिंचाई के साधन हो दुर्ग बनाने के काम मे ली जाने लगी और ऐसी पहाड़ियों पर प्राचीन
दुर्ग बने हुए थे तो उन्हें फिर से नया रूप दिया गया।
गिरी दुर्गो मे चित्तौड़ का किला सबसे प्राचीन तथा सब किलों का सिरमौर है। इसके लिए उक्ति प्रचलित है- गढ़ तो चित्तौड़ गढ़, बाकी बस गढ़ैया, जो इसकी देशव्यापी ख्याति का प्रमाण है।
गिरि दुर्गो में कुंभलगढ़, रणथम्भौर, सिवाणा, जालौर, अजमेर का तारागढ़ (गढवीटली), जोधपुर का मेहरानगढद्व आमेर का जयगढ़ स्थापत्य की दृष्टि से उत्कृष्ट गिरी दुर्ग है। जल दुर्ग की कोटि में गागरोण दुर्ग (झालावाड़) आता है। स्थल (धन्वय) दुर्गो में जैसलमेर का किला प्रमुख है, जिसे सिर्फ प्रस्तर खण्डों को जोड़कर बनाया गया है। इसमें कहीं भी चूने का प्रयोग नहीं है। जूनागढ़ (बीकानेर) तथा नागौर का किला भी स्थल दुर्गो की कोटि में आते है। जूनागढ़ का किला रेगिस्तान के किलों मे श्रेष्ठ है।
राजस्थान के समस्त किले बड़े ही सुदृढ़ तथा सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत है और साथ ही स्थापत्य कला की उत्कृष्टता संजोये हुये है।
आमेर दुर्ग
यह दुर्ग अपने स्थापत्य की दृष्टि से अन्य दुर्गो से सर्वथा भिन्न है। प्रायः सभी दुर्गो में, जहाँ राजप्रासाद प्राचीन के भीतर समतल भू-भाग पर बने पाये जाते है, वहीं आमेर दुर्ग में राजमहल ऊँचाई पर पर्वतीय ढलान पर इस तरह बने है कि इन्हें ही दुर्ग का स्वरूप दिया लगता है। इस किले की सुरक्षा व्यवस्था काफी मजबूत थी, फिर भी कछवाहा शासकों के शौर्य और मुगल शासकों से राजनीतिक मित्रता के कारण यह दुर्ग बाहरी आक्रमणों से सदैव बचा रहा। आमेर दुर्ग के नीचे मावठा तालाब और दौलाराम का बाग खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है। इस किले मे बने शिलादेवी, जगतशिरोमणि और अम्बिकेश्वर महादेव के मन्दिरों का ऐतिहासिक काल से ही महत्व रहा है।
मुख्य बिंदु
जयपुर- कच्छवाहों की पुरान राजधनी।
निर्माण-राजा मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह, सवाई जयसिंह।
दुर्ग के नीचे मावठा तालाब और दिलाराम का बाग।
प्राचीन शिलालेख, अलंकृत पाषाण स्तम्भ।
दीवान-ए-आम- यहाँ राजा का आम दरबार होता था। राजा यहॉं जन सामान्य से मिलता। निर्माण-मिर्जा राजा जयसिंह।
गणेशपोल-भव्य और अलंकृत प्रवेश द्वार, जहाँ से महलों के आंतरिक भाग में जाया जा सकता था, निर्माण-सवाई जयसिंह।
दीवान-ए-खास- इसे जय मंदिर कहते हैं, यहाँ पर राजा अपने विशिष्ट सामन्तों और अन्य प्रमुख लोगों से विचार विमर्श करता था।, निर्माण- मिर्जा राजा जयसिंह
शीश महल- आमेर के महलों में सर्वाध्कि प्रसिद्ध और चर्चित -छत और दीवारों पर कांच की सुन्दर जड़ाई। एक मोमबत्ती जलाते ही व्यक्ति के सैकड़ों प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ते हैं।
यंश मंदिर-दीवान-ए-खास की छत पर निर्मित इसमें सफेद संगमरमर की सुन्दर व अलंकृत जालिया लगी, जहाँ से रानियां दीवान ए खास का दृश्य देखा करती थी।
सौभाग्य मंदिर- यह एक आयताकार महल है जो रानियों के मनोविनोद तथा हास परिहास का स्थान था।
सुख मंदिर- दीवान-ए खास के सामने बगीचे के दूसरी तरफ निर्मित सुख मंदिर राजाओं का ग्रीष्मकालीन निवास
राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई की साल।
बिशप हैबर- ‘‘मैने क्रेमलिन में जो कुछ देखा है और अलब्रहृा के बारे में जो कुछ सुना है, उससे भी बढ़कर ये महल है।’’
नोटः- हाल ही में इस दुर्ग को यूनेस्कों की सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
कुंभलगढ़ दुर्ग
वर्तमान राजसमन्द जिले में अरावली पर्वतमाला की चोटी पर स्थित कुंभलगढ़ दुर्ग का निर्माण राणा कुंभा ने करवाया था। इस दुर्ग के शिल्पी मंडन मिश्र थे। कुंभलगढ़ संभवतः भारत का ऐसा किला है, जिसकी प्राचीर 36 किमी तक फैली है। दुर्ग रचना की दृष्टि से यह चित्तौड़ दुर्ग से ही नहीं बल्कि भारत के सभी दुर्गो में विलक्षण और अनुपम है। कुंभलगढ़ के भीतर ऊँचे भाग पर राणा कुंभा ने अपने निवास हेतु ‘कटारगढ़’ नामक अंतःदुर्ग का निर्माण करवाया था। इसी कटारगढ़ में राणा उदयसिंह का राज्याभिषेक और महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। कुंभलगढ़ मेवाड़ की संकटकालीन राजधनी रहा है। किले के भीतर कुंभश्याम मंदिर, कुंभा महल, झाली रानी का महल आदि प्रसिद्ध इमारते है।
मुख्य बिंदु
निर्माण-महाराणा कुम्भा (1448) , उद्देश्य -गोड़वाड़ क्षेत्र की सुरक्षा के लिए।
राजस्थान का सबसे दुर्भेद्य दुर्ग, भारतीय आदर्शों के अनुरूप निर्मित।
मेवाड़ -मारवाड़ की सीमा पर
अरावली पर्वतमाला में स्थित।
संकटकाल में मेवाड़ राजपरिवार का आश्रय स्थल। श्वेत, नील, हेमकूट, निषाद।
अबुल फजल-‘‘यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।’’
ऊंचाई-समुद्रतल से 3500 फीट।
शिल्पी -मण्डन।
अकबर के सेनापति शाहबाज खां के अलावा कोई भी इसे जीत नहीं सका। (1578)।
लघु दुर्ग – कटारंगढ (मेवाड़ की आंख), इसमें उदयकरण द्वारा कुंभा की हत्या, पन्ना धय ने उदयसिंह का पालन पोषण किया, उदयसिंह का राज्यभिषेक।
महाराणा प्रताप का जन्म (9 मई, 1540 ई.) पारिध् दुर्ग की श्रेणी में।
इसमें-कुंवर पृथ्वीराज सिसोदिया की छतरी, नीलकण्ठ महादेव मंदिर, बादल महल, झाली रानी का मालिया (उदयसिंह की रानी) झाली बावड़ी, ममादेव कुण्ड।
नोट :-हाल ही में इस दुर्ग को यूनेस्कों की सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
गागरोन का किला
झालावाड़ से चार किमी दूरी पर अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़ चट्टान पर कालीसिन्ध् और आहू नदियों के संगम पर बना यह किला जल दुर्ग की श्रेणी में आता है। इस किले का निर्माण कार्य डोड राजा बीजलदेव ने बारहवीं सदी में करवाया था। दुर्गम पथ, चौतरपफा विशाल खाई तथा मजबूत दीवारों के
कारण यह दुर्ग अपने आप में अनूठा और अद्भुत है। यह दुर्ग शौर्य ही नही भक्ति और त्याग की गाथाओं का साक्षी है।
संत रामानन्द के शिष्ट संत पीपा इसी गागरोन के शासक रहे है, जिन्होंने राजसी वैभव त्यागकर राज्य अपने अनुज अचलदास खींची को सौंप दिया था। गागरोन में मुस्लिम संत पीर मिट्ठे साहब की दरगाह भी है, जिनका उर्स आज भी प्रतिवर्ष यहाँ लगात है। यह किला अचलदास खींची की वीरता के लिए प्रसिद्ध रहा है जो 1423 में मांडू के सुल्तान हुशंगशाह से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। युद्धोपरांत रानियों ने अपनी रक्षार्थ जौहर किया।
मुख्य बिंदु
जलदुर्ग- मुकन्द पहाड़ी पर।
कालीसिन्ध् और आहू नदियों के संगम स्थल पर।
निर्माण-डोट (परमार) राजपूतों द्वारा।
उपनाम- डोडगढ़ या ध्ुलरगढ़।
गागरोण के खींची राजवंश के संस्थापक देवसिंह (उर्फ धरू) ने बीजलदेव नामक डोड शासक को (जो उसका बहनोई) मारकर अधिकार, नाम गागरोन रखा।
1303ई. जैतसिंह खींची के समय खुरासान से प्रसिद्ध सूफी संत हमीदुददीन चिश्ती गागरोन आये, यहीं समाधि्, (मीठ्ठे साहब), प्रतापसिंह खींची ने फिरोज तुगलक को पराजित किया (पीपाजी नाम से लोकप्रिय)
1423ई. मांडू के सुल्तान अल्प खाँ गोरी (होशंग शाह) के आक्रमण के समय राजा अचलदास खींची थे, (प्रथम साका)।
महमूद खिलजी ने इसमें ‘मुस्तपफाबाद’ नाम से लघु दुर्ग बनवाया।
अकबर की अबुल फजल के बड़े भाई पफैजी से भेंट।
पृथ्वीराज राठौड़ ने ‘वेलि किसन रूक्मणी री’ इसी दुर्ग में लिखी।
इसमें- जौहर कुण्ड, बारूद खाना, नक्कारखाना, कोटा राज्य की टकसाल, शीतला माता मंदिर, संत पीपा की छतरी, बुलन्द दरवाजा (औरंगजेब)।
गीध्कराई पहाड़ी-युद्ध (राजनैतिक) बन्दी को मृत्युदण्ड देने के लिए फेंका जाता।
नोटः- हाल ही में इस दुर्ग को यूनेस्कों की सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
चित्तौड़ का किला
राजस्थान के किलों मे क्षेत्र फल की दृष्टि से सबसे बड़ा चित्तौड़ का किला है। यह दुर्ग वीरता, त्याग, बलिदान, स्वतंत्र ता और स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में देश भर में विख्यात है। सात प्रवेश द्वारों से निर्मित इस किले का निर्माण चित्रांगद मौर्य ने करवाया था। यह किला गंभीरी और बेड़च नदियों के संगम पर स्थित है। दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर अवस्थित होने के कारण मध्यकाल में इस किले का सामरिक महत्व था। 1303 में इस किले को अलाउद्दीन खिलजी ने तथा
1534 में गुजरात के बहादुरशाह ने अपने अधिकार मे ले लिया था। 1567-1568 में अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करके यहाँ भयंकर नरसंहार करवाया था। चित्तौड़गढ़ में इतिहास प्रसिद्ध साकों में 1303 का रानी पद्मिनी का जौहर और 1534 का रानी कर्णावती का जौहर मुख्य है। इस किले के साथ गोरा-बादल, जायमल-पत्ता की वीरता तथा पन्नाधाय के त्याग की अमर गाथाएँ जुड़ी है।
चित्तौड़गढ़ के भीतर राणा कुंभा द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ अपने शिल्प और स्थापत्य की दृष्टि से अनूठा है। इस किले के भीतर निर्मित महलों और मन्दिरों मे रानी पद्मिनी का महल, नवलखा भण्डार, कुंभश्याम मंदिर, समिशिध्वेसर मंदिर, मीरा मंदिर, कालिका माता मंदिर, शृंगार चँवरी आदि दर्शनीय है।
मुख्य बिंदु
राजस्थान का गौरव, किलों का सिरमौर, गढ़ तो चित्तौड़ बाकी सब गढैया।
गंभीर व बेडच नदियों के संगम स्थल के समीप।
अरावली पर्वतमाला में, क्षेत्र फल की दृष्टि से सबसे बड़ा (8km , 2km चौड़ा)।
उपनाम-चित्र कोट।
निर्माण मौर्य राजा चित्रांगद। कुमारपाल चरित के अनुसार निर्माण चित्रांग ने करवाया। आकार व्हेल मछली के समान।
दीवार की लम्बाई 10.5km।
इतिहास प्रसिद्ध तीन साकों हेतु प्रसिद्ध (1303, 1534, 1568)
बप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी में यह दुर्ग मान मौर्य से जीता (734 ई.), अलाउद्दीन ने इसका नाम खिज्राबाद रखा।
राणा सज्जा व सिंहा का स्मारक।
जयमल राठौड़, वीर कला राठौड़ का स्मारक।
पत्ता सिसोदिया का स्मारक।
नौ कोठा मकान या नवलंखा भण्डार, समिध्ेश्वर मंदिर, मीराबाई मंदिर।
तुलजा भवानी का मंदिर, कालिका माता का मंदिर (दसवीं शताब्दी के आस-पास बना सूर्य मंदिर), सतवीस देवरी (जैन मंदिर 11 वीं सदी में निर्मित)।
श्रृंगार चौरी (जैन मंदिर), जैन कीर्ति स्तम्भः- सात मंजिला, आदिनाथ का स्मारक, निर्माण बघेरवाल जैन जीजा द्वारा 10 वीं या 11 वीं शताब्दी।
भामाशाह की हवेली। हिंगलू आहड़ा के महल।
फतहप्रकाश महल-राजकीय संग्रहालय।
राज्य का सबसे बड़ा लिविंग पफोर्ट।
“यूज केसन-‘‘चित्तौड़ सुनसान परित्यक्त किले में विचरण करते समय मुझे ऐसा लगता मानों में किसी भीमकाय जहाज की छत पर चल रहा हूँ।’’
नोट :-हाल ही में इस दुर्ग को यूनेस्कों की सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
जालौर का किला
सोनगिरि पहाड़ी पर स्थित यह किला सूकड़ी नदी के किनारे बना हुआ है। शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालिपुर और किले का नाम सुवर्णगिरि मिलता है। इस किले का निर्माण प्रतिहारों द्वारा आठवीं सदी में करवाया गया था। इस किले पर परमार, चौहान, सोलंकियों, तुर्की और राठौड़ों का समय-समय पर आध्पित्य रहा।
किले के भीतर बनी तोपखाना मस्जिद जो पूर्व मे परमार शासक भोज द्वारा निर्मित संस्कृत पाठशाला थी, बहुत आकर्षक है। यहाँ का प्रसिद्ध शासक कान्हड़दे चौहान (1305-1311) था, जो अलाउद्दीन खिलजी से लड़ता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ।
मुख्य बिंदु
जाबालिपुर, जालहुर।
सोनगिर (सुवर्णगिरि) व कनकाचल पहाड़ी पर।
सोनगढ़।
चौहानों की ‘सोनगरा’ शाखा का शासन।
डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार प्रतिहार राजा ‘नागमह प्रथम’ निर्माता।
कीर्तिपाल ने सर्वप्रथम चौहानों की शाखा स्थापित की।
हसन निजामी-‘‘जालौर बहुत ही शक्तिशाली और अजेय दुर्ग है, जिसके द्वार कभी किसी विजेता के द्वारा नहीं खोले गये चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हों।’’
इसमें महाराजा मानसिंह के महल, जोगमाया मन्दिर, चामुण्डा माता मन्दिर, दहियों की पोल, सन्त मल्लिक शाह की दरगाह, परमार कालीन कीर्ति स्तम्भ, परमार राजा भोज द्वारा निर्मित संस्कृत पाठशाला, जहां पर वर्तमान में तोपखाना।
सूकड़ी नदी किनारे।
778 ई. जैन आचार्य उद्योतन सूरि ने कुवलय माला ग्रंथ की रचना की।
जूनागढ़ का किला
बीकानेर स्थित जूनागढ़ किले का निर्माण राठौड़ शासक रायसिंह ने करवाया था। यहाँ पूर्व मे स्थित पुराने किले के स्थान पर इस किले का निर्माण करवाने के कारण इसे जूनागढ़ के नाम से जाना
जाता है। जूनागढ़ के आन्तरिक प्रवेश द्वार सूरजपोल के दोनों तरफ जयमल मेड़तियाँ और फत्ता सिसोदिया की गजारूढ़ मूर्तियाँ स्थापित है, जो उनके पराक्रम और बलिदान का स्मरण कराती है।
सूरजपोल पर ही रायसिंह प्रशस्ति उत्कीर्ण है। शिल्प सौन्दर्य की अनूठी मिशाल लिए जूनागढ़ किले मे बने महल और उनकी बनावट मुगल स्थापत्य कला की बरबस ही याद दिलाते है। किले मे कुल 37 बुर्जे है, जिनके ऊपर कभी तोपें रखी जाती है।
सम्भवतः राजस्थान का यह एक मात्र ऐसा किला है, जिसकी दीवारें, महल इत्यादि मे शिल्प सौन्दर्य का अद्भुत मिश्रण है। गंगा निवास जूनागढ़ का ऐसा हॉल है, जिसमें पत्थर की बनावट और उस पर उत्कीर्ण कृष्ण रासलीला दर्शनीय है। पफूलमहल, गजमंदिर, अनूप महल, कर्ण महल, लाल निवास, सरदार निवास इत्यादि इस किले के प्रमुख वास्तु है।
मुख्य बिंदु
जमीन का जेवर।
निर्माण-महाराजा रायसिंह ने (1588-1593)।
राव बीकाजी ने 1485 ई. बीकानेर के पुराने गढ़ की नीवं रखी, बीकाजी द्वारा बनाई गढ़ी को बीकाजी की टेकरी कहते हैं।
चतुष्कोण या चतुर्भुजाकृति-राताघाटी किला भी कहते है।
37 बुर्जे, धन्वन व पारिख दुर्ग की श्रेणी।
सूरजपोल दरवाजे पर रायसिंह प्रशस्ति अंकित। सूरजपोल दरवाजे के दोनों ओर जयमल मेड़तियां एंव पत्ता सिसोदिया की मूर्तियां स्थापित (औरंगजेब ने इस मूर्तियों को हटवा दिया)।
प्रांगण के दुर्लभ प्राचीन वस्तुओं, शस्त्रों, देवप्रतिमाओं, विविध् प्रकार के पात्रों और पफारसी व संस्कृत में लिखित हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रहालय।
तैतींस करोड़ देवी देवताओं का मंदिर।
टैस्सीटोरी द्वारा रंगमहल व बडोपल से प्राप्त वस्तुएं यहीं पर मौजूद।
रेगिस्तान का सर्वश्रेष्ठ दुर्ग।
अनूप महल मे बीकानेर के राजाओं का राजतिलक।
जैसलमेर का किला
राजस्थान की स्वर्णनगरी कहे जाने वाले जैसलमेर में त्रिकूट पहाड़ी पर पीले पत्थरों से निर्मित इस किले को ‘सोनार का किला’ भी कहा जाता है। इसका निर्माण बारहवीं सदी में भाटी शासक राव जैसल ने करवाया था। दूर से देखने पर यह किला पहाड़ी पर लंगर डाले एक जहाज का आभास कराता है। दुर्ग के
चारों और घाघरानुमा परकोटा बना हुआ है, जिसे ‘कमरकोट’ अथवा ‘पाडा’ कहा जाता है। इसे बनाने में चूने का प्रयोग नहीं किया गया बल्कि कारीगरों ने बड़े-बड़े पीले पत्थरों को परस्पर जोड़कर खड़ा किया है। 99 बुर्जो वाला यह किला मरूभूमि का महत्वपूर्ण किला है। किले के भीतर बने प्राचीन एवं भव्य जैन
मंदिर-पार्श्वनाथ और ऋषभदेव मंदिर अपने शिल्प एवं सौन्दर्य के कारण आबू के देलवाड़ा जैन मंदिर के तुल्य है। किले के महलो में रंगमहल, मोती महल, गजविलास और जवाहर विलास प्रमुख है। जैसलमेर का किला इस रूप में भी खासा प्रसिद्ध है कि यहाँ पर दुर्लभ और प्राचीन पाण्डुलिपियों का अमूल्य संग्रह है।
जैसलमेर का किला ‘ढाई साके’ के लिए प्रसिद्ध है। पहला साका अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के आक्रमण के दौरान, दूसरा साका फिरोज तुगलक (1351-1388) के आक्रमण के दौरान हुआ था। 1550 के कंधार के अमीर अली ने यहाँ के भाटी शासक लूणकरण को विश्वासघात करके मार दिया था परंतु भाटियो की विजय होने के कारण महिलाओं ने जौहर नहीं किया। यह घटना ‘अर्ध साका’ कहलाती है।
मुख्य बिंदु
सोनारगढ़, सोनगढ़।
निर्माण-1155 ई. भाटी राजा जैसल (12 जुलाई, 1155 ईं.)।
जैसल के पुत्र शालिवाहन प्प् ने दुर्ग का अध्किंश निर्माण करवाया।
त्रिकुटाकृति-जो त्रिकुट पहाड़ी पर बना।
99 बुर्जे बनी। (सर्वाध्कि बुर्जे)
लक्ष्मीनारायण मंदिर, हस्तलिखित ग्रन्थों का सबसे बड़ा संग्रह, जैन आचार्य जिन भद्र सूरी के नाम पर जिन भद्र सूरी ग्रन्थ भण्डार।
इतिहास, साहित्य व कला का त्रिवेणी संगम।
राज्य का दूसरा सबसे बड़ा लिविंग पफोर्ट।
सत्यजीत रे ने ‘‘सोनार बांग्ला’’ नामक फिल्म बनाई।
दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता मानो समुद्र में लंगर डाले जहाज खड़ा है।
इतिहास में प्रसिद्ध 2 1/2 (ढाई) साका हेतु प्रसिद्ध प्रथम साका-राव मूलराज के शासन काल में अलाउद्दीनखिलजी का आक्रमण (1314)।
द्वितीय साका-राव दूदा व उसके पुत्र त्रिलोकसी के शासन काल मे फिरोजशाह तुगलक का आक्रमण (14 वीं शताब्दी)।
तृतीया साका- 1550 ई. राव लुणकरण के (अर्ध साका)
समय कंधर के अमीर अली पठान का आक्रमण।
नोट :-हाल ही में इस दुर्ग को यूनेस्कों की सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
तारागढ़ (अजमेर) अजमेर में स्थित तारागढ़ को ‘गढ़बीठली’ के नाम से भी जाना जाता है। चौहान शासक अजयराज (1105-1133) द्वारा निर्मित इस किले के बारे में मान्यता है कि राणा सांगा के भाई कुँवर
पृथ्वीराज ने इस किले के कुछ भाग बनवाकर अपनी पत्नी तारा के नाम पर इसका नाम तारागढ़ रखा था। तारागढ़ के भीतर 14 विशाल बुर्जे, अनेक जलाशय और मुस्लिम संत मीरान साहब की दरगाह बनी हुई है।
मुख्य बिंदु
‘‘गौड़ पंवार सिसोदिया, चहुवाणां चितचारे।
तारागढ़ अजमेर रो गरवीजै गढ़ जोर।’’
गढ़ बीठली दुर्ग, संस्थापक-अजयराज चौहान (1113 ई.), अरावली पर्वत माला में स्थित।
कुंवर पृथ्वीराज की पत्नी ताराबाई के नाम पर तारागढ़।
शाहजहां के शासन काल में विट्टलदास ने जीर्णोद्वार करवाया, 1644 से 1656 ई. तक विट्टलदास दुर्गाध्यक्ष रहा।
भारत का प्रथम गिरि दुर्ग माना जाता।
इसमें संत मीरान साहब की दरगाह (किले के प्रथम गवर्नर मीर सैÕयद खिंगसवार की है जो 1202 ई. में शहीद हुए), प्राचीन गुपफा, शीशाखान (दुर्ग के नीचे स्थित जो गर्मियों में ठण्डी व सर्दी में गरम रहती है।)
रूठी रानी का महल।
तारागढ़ (बूँदी)
बूँदी का दुर्ग तारागढ़ पर्वत की ऊँचा चोटी पर तारे के समान दिखाई देने के कारण ‘तारागढ़’ के नाम से प्रसिद्ध है। हाड़ा शासक बरसिंह द्वारा चौदहवीं सदी मे बनवाये गये इस किले को मालवा के महमूद खिलजी, मेवाड़ के राणा क्षेत्र सिंह और जयपुर के सवाई जयसिंह के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। यहाँ के शासक सुर्जन हाड़ा द्वारा 1569 में अकबर की अध्ीनता स्वीकारने के कारण यह किला अप्रत्यक्ष रूप से मुगल अध्ीनता में चला गया। तारागढ़ के महलों के भीतर सुन्दर चित्र कारी (भित्तिचित्र ) हाड़ौती कला के सजीव रूप का प्रतिनिध्त्वि करती है। किले मे छत्र महल, अनिरू( महल, पफूल महल इत्यादि बने हुये है।
मुख्य बिंदु
निर्माण-राव बरसिंह (1354 ई.), उद्देश्य-मेवाड़, मालवा और गुजरात की ओर से संभावित आक्रमणों से सुरक्षा हेतु।
धरती से आकाश की ओर देखने पर तारे की आकृति का प्रतीत होती है।
इसमें -छत्र महल, अनिरुद्ध महल, रतन महल, बादल महल, पफूल महल, जीवरखा महल, दीवान ए आम, सिलह खाना, नौबत खाना, दूध महल, 84 खंभों की छतरी, शिकार बुर्ज।
राणा लाखा इस दुर्ग को कभी जीत नहीं पाए तो मन की शांति के लिए इस पर अधिकार के लिए मिट्टी का दुर्ग बना विजय प्राप्त की।
‘गुर्भ गुंजन’ तोप तोप रखी गयी।
नाहरगढ़
जयपुर के पहरेदार के रूप मे प्रसिद्ध इस किले का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया था। इस किले को सुदर्शनगढ़ के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस किले का निर्माण सवाई जयसिंह ने मराठों के विरू( सुरक्षा की दृष्टि से करवाया था। इस किले में सवाई माधेसिंह ने अपनी नौ पासवानों के नाम पर एक समान नौ महल बनवाये।
मुख्य बिंदु
जयपुर, उपनाम-मीठड़ी का किला।
इस किले को सुदर्शनगढ़ के नाम से भी जाना जाता है।
निर्माण-सवाई जयंसिंह (1734ई.), भव्य और सुदृढ़ दुर्ग जयपुर के मुकुट के समान है तथा शहर की ओर झाकता हुआ सा प्रतीत होता है।
उद्देश्य-मराठों के विरुद्ध सुरक्षा।
सवाई माधेसिंह-II ने अपनी नौ प्रेयसियों के नाम पर यहॉं नौ इकमंजिले और दुमंजिले महलों का निर्माण करवाया।
इसमें जयपुर के विलासी महाराजा सवाई जगतसिंह की प्रेयसी रसकपूर भी कुछ अरसे तक कैद रही थी।
जोधपुर दुर्ग
निर्माण -12 मई 1459 विक्रम संवत 1515 ज्येष्ठ सुदी (शनिवार)
चिड़िया टूंक पहाड़ी पर।
मयूरध्वज गढ (मोरध्वज गढ़)
ध्न्ना और भींवा (मामा और भान्जा) की छतरी बनी हुई है।
1544 ई. शेरशाह ने मस्जिद का निर्माण करवाया।
मोती महल : महाराजा सूरसिंह ने विक्रम संवत् 1602 ई.) के लगभग निर्मित। इसकी छत व दीवारों पर सोने का पालिश का काम महाराजा तख्तसिंह द्वारा।
फूल महल :
पत्थर की बारीक खुदाई व कोराई के लिए प्रसिद्ध। महाराजा अभयसिंह द्वारा निर्मित (विक्रम संवत्
1781)।
चौखेलाव महल।
महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश : पुस्तकालय।
श्रृंगार चौकी (चंवरी)-महाराजा तखतसिंह द्वारा निर्मित, राजाओं का राजतिलक होता।
चामुण्डा माता मंदिर।
राणीसर और पदमसर तालाब।
9 अगस्त, 1857 को महाराजा तख्तसिंह के शासनकाल में दुर्ग में स्थित बारूद खाने पर आकाशीय बिजली गिरने से 150 लोगों की मृत्यु।
30 सितम्बर 2008 को चामुण्डा माता मंदिर हादसा 217 लोगों की मृत्यु।
रणथम्भौर दुर्ग
सवाई माधेपुर शहर के निकट स्थित रणथम्भौर दुर्ग अरावली पर्वत की विषम आकृति वाली सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यह किला यद्यपि एक ऊँचे शिखर पर स्थित है, तथापि समीप जाने पर ही दिखाई देता है। यह दुर्ग चारों और से घने जंगलों से घिरा हुआ है तथा इसकी किलेबन्दी कापफी सुदृढ़ है। इसलिए
अबुल फज़ल ने इसे बख्तरबंद किला कहा है। ऐसी मान्यता है कि इसका निर्माण आठवीं शताब्दी मे चौहान शासकों ने करवाया था।
हम्मीर देव चौहान की आन-बान का प्रतीक रणथम्भौर दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी ने 1301 में ऐतिहासिक आक्रमण किया था। हम्मीर विश्वासघात के परिणामस्वरूप लड़ता हुआ वीरगति से प्राप्त हुआ तथा उसकी पत्नी रंगादेवी ने जौहर कर लिया। यह जौहर राजस्थान के इतिहास का प्रथम जौहर माना जाता है।
रणथम्भौर किले में बने हम्मीर महल, हम्मीर की कचहरी, सुंपारी महल, बादल महल, बत्तीस खंभों की छतरी, जैन मंदिर तथा त्रिनेत्र गणेश मंदिर उल्लेखनीय है। गणेश मंदिर की विशेष मान्यता है।
मुख्य बिंदु
निर्माण -आठवीं शताब्दी के लगभग, अजमेर के चौहान शासकों ने।
हम्मीर की आन, बान व शान का प्रतीक।
एरण दुर्ग, गिरि दुर्ग (अरावली पर्वत माला में)।
अबुल फजल-‘‘बाकी सबदुर्ग नगें केवल यही दुर्ग है जो बख्तर बन्द है।’’
दर्शनीय स्थल-जिनेत्र गणेश मन्दिर (रणतभंवर के लाडला, गौरापुत्र गणेश), त्रिपोलिया दरवाजा (अंध्ेरी दरवाजा), हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर की कचहरी, सुपारी महल (इसमें मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर बने है), बादल महल, जौरा-भौरा (अनाज के गोदाम), 32 खंभों की छतरी (हम्मीर ने अपने पिता जयसिंह (जैत्र सिंह) के 32 वर्षा के शासन काल की याद मे बनवाई पीर सदरूद्दीन की दरगाह, लक्ष्मीनारायण मंदिर, पदमला तालाब, नौलखा दरवाजा, रनिहाड तालाब।
अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाह को जागीर में दे दिया। मुगल काल में शाही कारागर के रूप में उपयोग।
जयपुर के सवाई माघोसिंह प्रथम ने सामंत अनूपसिंह खंगारोत के प्रयासों से दुर्ग को जयपुर में मिला दिया जो एकीकरण तक रहा।
अकबर ने शाही टकसाल स्थापित की।
नोट :-हाल ही में इस दुर्ग को यूनेस्कों की सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
लोहागढ़
राजस्थान के सिंहद्वार भरतपुर मे जाट राजाओं की वीरता एवं शौर्य गाथाओं को अपने आंचल मे समेटे लोहागढ़ का किला अजेयता एवं सुदृढ़ता के लिए प्रसिद्ध है। जाट शासक सूरजमल ने इसे 1733 में बनवाया था। लोहागढ़ को यहाँ पूर्व में एक मिट्टी की गढ़ी को विकसित करके वर्तमान रूप में परिवर्तित किया गया। किले के प्रवेश्द्वार पर अष्टधतु निर्मित कलात्मक और महबूत दरवाजा आज भी लोहागढ़ का लोहा मनवाता प्रतीत होता है। इस कलात्मक दरवाजे को महाराजा जवाहरसिंह 1765 में दिल्ली से विजय करके लाये थे। इस किले की अभेद्यता का कारण इसकी दीवारों की चौड़ाई है। किले की बाहरी प्राचीर
मिट्टी की बनी है तथा इसके चारों ओर एक गहरी खाई है।
अंग्रेज जनरल लॉर्ड लेक ने तो अपनी विशाल सेना और तोपखाने के साथ पाँच बार इस किले पर चढ़ाई की परंतु हर बार उसे पराजय का सामना करना पड़ा। किले मे बने किशोरी महल, जवाहर बुर्ज, कोठी खास, दादी माँ का महल, वजीर की कोठी, गंगा मंदिर, लक्ष्मण मंदिर आदि दर्शनीय है।
मुख्य बिंदु
पूर्वी सीमान्त प्रहरी।
मिट्टी से निर्मित।
पारिख व पारिध् की श्रेणी में।
निर्माण-1733ई. महाराजा सूरजमल, जहाँ नींव रखी वहाँ खेमकरण जाट की गढ़ी थी।
विमान के आविष्कार से पूर्व इसे जीतना मुश्किल माना जाता था।
इसमें मोतीझील से सुजानगंगा नहर से पानी लाया जाता है।
जवाहर बुर्ज- सबसे प्रमुख महाराजा जवाहर सिंह की दिल्ली विजय की याद में।
फतेह बुर्ज-1806ई. अंग्रेजों पर विजय का प्रतीक।
1805 जनरल लेक ने रणजीत सिंह के समय आक्रमण रणजीतसिंह द्वारा मराठा जसवंतराव होल्कर को शरण देने के कारण।
मेहरानगढ़
सूर्यनगरी के नाम से विख्यात जोधपुर की चिड़ियाटूक पहाड़ी पर राव जोध ने 1459 में मेहरानगढ़ का निर्माण करवाया था। मयूर की आकृति मे बने इस दुर्ग को मयूरध्वज के नाम से जाना जाता है। मेहरानगढ़ दो मंजिला है। इसमें रखी लम्बी दूरी तक मार करने वाली अनेक तोपों का अपना गौरवमयी इतिहास है। इनमें किलकिला, भवानी इत्यादि तोपें अत्यध्कि भारी और अद्भुत है। यह दुर्ग वीर दुर्गादास की स्वामिभक्ति का साक्षी है। लाल बलुआ पत्थर से निर्मित मेहरानगढ़ वास्तुकला की दृष्टि से बेजोड़
है। इस किले के स्थापत्यों मे मोती महल, फतह महल, जनाना महल, शृंगार चौकी, तख्तविलास, अजीत विलास, उम्मेद विलास इत्यादि का वैभव प्रशंसनीय है। इसमें स्थिति महलों की नक्काशी, मेहराब, झरोखें और जालियों की बनावट हैरत डालने वाली है।
जयगढ़
मध्ययुगीन भारत की प्रमुख सैनिक इमारतो मे से आमेर के पास पहाड़ियों मे अवस्थित जयगढ़ दुर्ग की खास बात यह कि इसमें तोपें ढालने का विशाल कारखाना था, जो शायद की किसी अन्य भारतीय दुर्ग में रहा है। इस किले मे रखी ‘जयबाण’ तोप को एशिया की सबसे बड़ी तोप माना जाता है। जयगढ़ अपने
विशाल पानी के टांकों के लिये भी जाना जाता है। जल संग्रहण की खास तकनीक के अंतर्गत जयगढ़ किले के चारों और पहाड़ियों पर बनी पक्की नालियों से बरसात का पानी इन टांकों मे एकत्र होता रहा है। इस किले का निर्माण एवं विस्तार में विभिन्न कछवाहा शासकों का योगदान रहा है, परंतु इसे वर्तमान
स्वरूप सवाई जयसिंह ने प्रदान किया। जयगढ़ को रहस्यमय दुर्ग भी कहा जाता है, क्योकि इसमें कई गुप्त सुरंगे है। इस किले में राजनीतिक बन्दी रखे जाते थे। ऐसा माना जाता है कि मानसिंह ने यहाँ सुरक्षा की दृष्टि से अपना खजाना छिपाया था। वर्तमान में जयगढ़ किले में मध्यकालीन शस्त्रास्त्रों का विशाल संग्रहालय है। यहाँ के महल दर्शनीय है।
अकबर का किला
अजमेर मे स्थित इस किले का निर्माण 1570 में अकबर ने करवाया था। इस किले को दौलतखाना या मैग्जीन के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू-मुस्लिम पद्त्ति से निर्मित इस किले का निर्माण अकबर ने ख्वाजा मुइनद्दीन हसन चिश्ती के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने हेतु करवाया था। 1576 में महाराजा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी युद्ध की योजना को भी अन्तिम रूप इसी किले में दिया गया था। जहाँगीर मेवाड़ को अध्ीनता में लाने के लिए तीन वर्ष तक इसी किले मे रूका था। इस दौरान ब्रिटिश सम्राट
जेम्स प्रथम के राजदूत सर टॉमस रो ने इसी किले में 10 जनवरी, 1616 को जहाँगीर से मुलाकात की थी। 1801 में अंग्रेजों ने इस किले पर अधिकार कर इसे अपना शस्त्रागार (मैग्जीन) बना लिया। किले मे स्थित आलीशान चित्र कारी तथा जनाने कक्षों की दीवारों मे पच्चीकारी का कार्य बड़ा कलापूर्ण ढंग से किया गया है। वर्तमान में यहाँ राजकीय संग्रहालय स्थित है।
मुख्य बिंदु
अजमेर नगर में। उपनाम-अकबर का दौलत खाना व मुगल किला ।
मुस्लिम पद्वति से बना राज्य का एक मात्र दुर्गं।
निर्माण-1570-72 ई. अकबर।
सर टॉमस रो का यहाँ जहाँगीर से परिचय (10 जनवरी,1616 ई.)।
1908 से राजपूताना संग्रहालय (इसमें गुप्तकाल से मध्यकाल की सामग्री)।
इस किले पर कोई आक्रमण नहीं हुआ।
इस किले में दिल्ली सरकार का ‘असला’रहा इस कारण इसे मैग्जीन के नाम से जाना जाता है।
18 नवम्बर, 1613 से 10 नवम्बर, 1616 तक जहॉंगीर इस किले में ठहरा।
भटनेर दुर्ग
उत्तरी सीमा का प्रहरी।
निर्माण तीसरी शताब्दी भाटी राजा भूपत।
धन्वन दुर्ग की श्रेणी।
महमूद गजनवी ने 1001 ई. दुर्ग पर अधिकार किया।
तैमूर आक्रमण के समय हिन्दू मुस्लिम महिलाओं ने जौहर किया।
शेर खां की कब्र।
बीकानेर महाराजा सूरतसिंह के शासन काल में 1805 ईभटनेर पर अधिकार हो गया, मंगलवार का दिन होने के कारण इस दुर्ग का नाम हनुमानगढ़ रखा।
भैसरोड़गढ़
चित्तौड़गढ चम्बल व बामनी नदियों के संगम स्थल के समीप।
जल दुर्ग (तीन ओर से पानी से घिरा)
निर्माण-भैसाशाह (व्यापारी) व रोड़ा चारण (बनजारा) (जेम्स टॉड के अनुसार)
‘राजस्थान का वेल्लोर’। अरावली पर्वतमाला हों।
सिवाना का किला- बाड़मेर।
निर्माण-वीर नारायण पंवार (दसवीं शताब्दी) राजा, भोज का पुत्र ।
इसे अणखलौ तथा कुमटगढ़ दुर्ग भी कहते है।
1538ई. राव मालदेव का अधिकार, परकोठे का निर्माण करवाया।
गिरि सुमेल के बाद शेरशाह द्वारा पीछा किये जाने के समय राव मालदेव ने इस दुर्ग में शरण ली।
राव चन्द्रसेन की संकटकालीन राजधनी। वीर कल्ला रायमलोत की वीरता हेतु प्रसिद्ध।
प्रथम साकाः- 1308-09 ई. चौहान शासक वीर सातलदेव के समय अलाउददीन खिलजी का आक्रमण, भांडेलाव तालाब को गौमांस से दूषित किया।
वीर सातल ओर सोम शहीद, महिलाओं ने जौहर किया।
अलाउददीन खिलजी, ने दुर्ग का नाम खैराबाद रखा व कमालउदीन गुर्ग को दुर्ग रक्षक नियुक्त।
द्वितीय साकाः- 1587, अकबर ने मोटा राजा उदयसिंह के नेतृत्व में आक्रमण, शासक वीर कल्ला रायमलोत (कल्याण मल), राजपूत वीर शहीद, महिलाओं ने हाडी रानी के नेतृत्व में जौहर।
अचलगढ़
माउण्ड आबू (सिरोही)।
निर्माण-परमार शासकों द्वारा।
1425 ई. महाराणा कुंभा ने इस प्राचीन दुर्ग के भग्नावशेषों पर एक नये दुर्ग का निर्माण करवाया।
1311ई. राव लूबा ने देवड़ा चौहान शाखा स्थापित की।
इसमें-मन्दाकिनी कुण्ड, मानसिंह की छतरी (सिरोही महाराव), पार्श्वनाथ जैन मंदिर, ओखी रानी महल (महाराणा कुंभा की पत्नी), सावन-भादो झील है।
जयगढ़ दुर्ग
संकट मोचक दुर्ग।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण मानसिंह-प् ने शुरू करवाया व मिर्जा राजा जयसिंह ने पूर्ण किया।
1726ई. सवाई जयसिंह ने वर्तमान स्वरूप प्रदान किया।
उपनाम-चिल्ह का टोला (टीला)
स्वतंत्रता प्राप्ति तक सिवाय स्वयं महाराजा तथा उनके द्वारा नियुक्त दो किलेदारों के जो महाराज के परम विश्वस्त सामन्तों में से हुआ करते थे, किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं थी।
यहाँ कच्छवाह राजाओं का दपफीना (राजकोष) रखा जाता था।
यह दुर्ग राजनैतिक बंदियों के लिए कारागृह के रूप में। जिस व्यक्ति को एक बार इस दुर्ग में डाला जाता था वह वापिस जिन्दा नहीं निकल पाता।
श्रीमती इंदिरा गांध्ी ने आपातकाल में इसकी खुदाई करवाई।
राज्य का एकमात्र दुर्ग है जहॉं तोप ढालने का संयत्र लगा हुआ था। ‘जय बाण’ नामक तोप इसी संयत्र से ढली हुई।
इसमें एक लद्यु दुर्ग, जिसमें सवाई जयसिंह ने अपनी प्रतिद्वन्दी छोटे भाई विजयसिंह को कैद रखा जिसे विजयगढ़ी कहते है।
राजाओं के मनोरंजन के लिए ‘कठपुतली घर’ भी किले में बना हुआ।
नागौर दुर्ग
धन्वन दुर्ग की श्रेणी में।
नागदुर्ग, नागपुर, नागाणा और अहिच्छत्र पुर इत्यादि नाम।
निर्माण- चौहान राजा सोमेश्वर के सामन्त कैमास ने।
यह मुस्लिम मिशनरियों की प्रारम्भिक गतिविध्यों और व्यापारिक काफिलों का भी आगमन स्थल रहा।
अकबर अपने शासन काल के 15 वें वर्ष अर्थात् 1570ई अजमेर में ख्वाजा साहब की जियारत करने के बाद नागौर आया तथा नागौर दरबार, लगाया, एक शुक्र तालाब खुदवाया।
मांडलगढ़
भीलवाड़ा ।
बनास, बेडच और मेनाल के संगम पर (अरावली पर्वतमाला में स्थित)
कटोरनुमा अथवा मंडलाकृति।
बीजासण को पहाड़ पर स्थित।
वीर विनोद के अनुसार दुर्ग का निर्माण मंडिया भील व चनणा गूजर ने किया।
ओझाजी के अनुसार निर्माण अजमेर के चौहान शासकों ने।
कर्नल टॉड के अनुसार बालनोत सोलंकी (सरदार) द्वारा मांडलगढ का जीर्णोद्वार।
शेरगढ़
धोलपुर , चम्बल नदी के किनारे।
निर्माण कुषाण वंश के शासन काल में मालदेव द्वारा। डॉंदशरथ शर्मा के अनुसार निर्माण जोधपुर राजा मालदेव द्वारा।
1540 ई. शेरशाह ने पुनः बनवाया व नाम शेरगढ़ रखा।
धोलपुर के प्रथम राजा कीरतसिंह की राजधनी में रहा।
हुनहुंकार तोपः- निर्माण महाराजा कीरतसिंह ने करवाया
कारीगर श्री सीताराम
शेरगढ़ (कोशवर्धन)
बाराँ (अटरू)। परवन नदी के किनारे। शेरशाह ने इस का नाम कोशवर्धन दुर्ग रखा।
विभिन्न शासकों द्वारा सैनिक छावनी के रूप में उपयोग।
जालिमसिंह झाला ने इस का जीर्णोद्वार करवाया व झालाओं की हवेली’ नामक महल बनवाये।
इसमें-सोमनाथ महादेव मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, चार भुजा मंदिर, झालाओं की हवेली, अमीर खॉं के महल, शाहबाद दुर्ग
बाराँ- चारों गहरे प्राकृतिक झरने तथा तीसरी ओर एक तालाब से घिरा।
निर्माण 9वीं शताब्दी ई. परमार शासकों द्वारा। दूसरी मान्यता के अनुसार निर्माण चौहान राजा मुकटमणि ने द्वारा
जामा मस्जिद का निर्माण करवाया।
नवलबाण तोप।
दौसा का किला
देवगिरि पहाड़ी पर।
ढुंढाड के कच्छवाह वंश की प्रथम राजधनी।
1562ई. भारमल के भाई रूपसी की जागीर में। निर्माण संभवतः गुर्जर प्रतिहारों (बड़गुजरों ने)।
महासिंह की मृत्यु होने पर उसकी विध्वा सिसोदिया रानी दमयंती ने अपने पुत्र मिर्जा राजा जयंसिह का पालन पोषण किया।
सूप की आकृति (छाजले)।
राजाजी का कुंआ।
14 राजाओं की साल।
अलवर दुर्ग (बाला किला), अलघुराय दुर्ग
निर्माण :- विक्रमी संवत 1106 में आमेर नरेश कोकिलदेव के कनिष्ठ पुत्र अलघुराय ने इस पर्वत शिखर पर एक छोटा दुर्ग बनाकर उसके नीचे एक नगर बसाया जिसका नाम अलपुर रखा गया।
राजा सूरजमल जाट ने सूरज कुण्ड बनाया। 1775 ई कच्छवाहों की नरूका शाखा के प्रतापसिंह का अधिकार।
सीताराम मंदिर का (निर्माण 1832 ई. प्रतापसिंह द्वारा)
बयाना दुर्ग (विजय मंदिर गढ़)
निर्माण-विजयपाल (1040 ई. के लगभग)। मानी पहाड़ी पर।
बयाना का प्राचीन नाम ‘भादानक’ (श्रीपंथ राजधनी)।
विजयपाल ने ‘महाराजध्रिज परम भट्टारक’ की उपाधि्।
डच यात्र फ्रेंको पैल्सर्ट ने नील खेती व व्यापार का वर्णन किया।
दुर्ग के भीतर लाल पत्थरों से बनी एक ऊॅंची लाट या स्तम्भ है जो भीमलाट के नाम से प्रसिद्ध (26 पफीट चौड़ी), विष्णु
वर्धन ने विक्रमी संवत् 428 में पुण्डरीक यज्ञ की समाप्ति पर इसे वहाँ स्थापित किया।
विक्रम संवत् 1012 में रानी चित्र लेखा द्वारा निर्मित ऊषा मंदिर बनवाया।
तिमनगढ़ (त्रिभुवन गढ़)
करौली।
यह दुर्ग राजस्थान का खजुराहों माना जाता है।
महाराज विजयपाल के पुत्र त्रिभुवनपाल ने 11वीं शताब्दी
ईस्वी में उस दुर्ग का निर्माण करवाया।
मुस्लिम आध्पित्य के बाद इसका नाम इस्लामाबाद।
अर्जुनपाल ने कल्याण जी का मंदिर बनवाया।
ननंद भौजाई का कूँआ।
कुचामन का किला
नावां तहसील, नागौर।
जागीरी किलों में सिरमौर दुर्ग।
‘‘ऐसा किला राणी जाये के पास भले ही हो, ठुकराणी जाये के पास नहीं।’’
विक्रम संवत्1715 ई. रघुनाथ सिंह मेड़तिया ने इस दुर्ग पर अधिकार, तत्पश्चात यह भू-भाग जोधपुर रियासत के अध्ीन।
कुचामन के ठाकुर केसरी सिंह को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा’ राव बहादुर का खिताब।
माधेराजपुरा का किला
दौसा।
सवाई माधेसिंह-प् ने मराठों पर विजय के उपरान्त माधेराज पुरा का कस्बा अपने नाम पर बसाया। कच्छवाहों की नरूका शाखा का अधिकार।
भरतसिंह नरूका ने अमीर खाँ पिण्डारी की बेगमों को बन्ध्क बनाकर रखा।
जयपुर की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभाने वाली महिला, जयसिंह तृतीय की धय रूपा बढ़ारण को उसके दरबारी षड्यन्त्रों और कुचक्रों की सजा देने हेतु इस किले में नजरबन्द।
चौमू का किला
चौमूहागढ़- जयपुर।
ठाकुर कर्णसिंह ने (1595-97 ई.) के लगभग बेणीदास एक संत के आर्शीवाद से नींव रखी।
उपनाम- रघुनाथ, धराधर गढ़।
किले के शीर्ष भाग की बनावट कमल के पफूल के समान।
इसमें- कृष्ण निवास, शीश महल, रतन निवास, मोती महल, देवी निवास (जयपुर के एलबर्ट हॉल की भांति), सीताराम मंदिर।
खण्डार का किला
सवाई माधेपुर।
रणथम्भौर दुर्ग का सहायक दुर्ग।
गिरिदुर्ग, वन दुर्ग की श्रेणी में।
बनास और गालण्डी नदियों के किनारे।
आकृति-त्रिभुजाकार।
शारदा तोप।
सज्जनगढ़ का किला
उदयपुर। बांसदरा पहाड़ी पर।
मंडरायल दुर्ग
करौली।
निर्माण बृंजबहादुर ने।
ग्वालियर दुर्ग की कुँजी।
टौडगढ़
अजमेर। कर्नल टॉड द्वारा निर्मित।
उपनाम- बोराड़वाड़ा का नाम।
नीमराणा का किला
अलवर।
उपनाम-पंचमहल।
निर्माण-1464 ई. में चौहान शासकों द्वारा।
फतेहपुर का किला
सीकर।
शेखावटी का सबसे महत्वपूर्ण दुर्ग।
कायम खानियों द्वारा निर्मित।
1453 ई. में फतह खाँ कायम खानी ने बनाया।
पठानी शैली में निर्मित।
तेलिन का प्रसिद्ध महल।
नवलगढ़ किला
झुंझुनॅं।
ठाकुर नवलसिंह द्वारा निर्मित।
भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध।
लक्ष्मणगढ़ का किला
सीकर।
बेड़ पहाड़ी पर।
निर्माण-1805 ई. राव राजा लक्ष्मणसिंह।
बुर्जों की दीवारों से बना होने के कारण देश भर में प्रसिद्ध
डुंडलोद का किला
झुंझुनूँ।
निर्माण-ठाकुर केसरी सिंह 1750 ई.।
वर्तमान में हैरिटेज होटल के रूप में।
चुरू का किला
चुरू।
निर्माण-ठाकुर कुशलसिंह 1649 ई.।
बीकानेर महाराजा सूरतसिंह 1814 ई. इस दुर्ग पर आक्रमण,
यहॉं के ठाकुर शिवसिंह ने गोला बारू( खत्म होने पर चाँंदी के गोले दागे। (बीकानेर सेना ने अमरचंद सुराणा के नेतृत्व में आक्रमण किया)
विश्व इतिहास में चाँदी के गोले दागने वाला एक मात्र ।
शिवसिंह ने इसमें गोपीनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।