__ छठी शताब्दी ई.पू. में भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक युग प्रारंभ होता है (ईसा पूर्व शताब्दी से भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक युग प्रारंभ होता हैं) इस शताब्दी में उत्तर भारत की मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में महत्वपूर्ण आर्थिक सामाजिक धार्मिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए | अनेक मतों तथा दर्शनों के प्रादुर्भाव में इसने बौद्धिक-धार्मिक का स्वरूप ग्रहण कर लिया ।
राजनीतिक स्थिति में भी महत्तपूर्ण बदलाव आया । छठी शताब्दी ई.पू. से पहले भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था । इन राज्यों में से कुछ तो राज्य राज्यतंत्रीय थे तथा कुछ गणतन्त्रात्मक वास्तव में भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत कुछ यूनान की राजनीतिक स्थिति से मिलती जुलती थी ।
छठी शताब्दी ई.पू. में भारत स्थित प्रत्येक राज्य जिन्हें जनपद के नाम से जाना जाता था, का अत्यधिक विस्तार हुआ| इस अत्यधिक विस्तार के कारण ही जनपदों को अब ‘महाजनपद’ कहा जाने लगा | छठी शताब्दी ई.पू. तक महाजनपदों की संख्या 16 तक पहुंच गयी थी । इन महाजनपदों को शोडष महाजनपदों के नाम से जाना जाता था । छठी शताब्दी ई.पू. का भारत भारतीय इतिहास में बौद्धकालीन भारत के नाम से जाना जाता है ।
प्राचीन भारत में मगध साम्राज्य का उत्कर्ष एक महत्त्वपूर्ण घटना थी । मगध साम्राज्य के उत्थान में कई राजवंशों का योगदान रहा उनमें प्र18मुख है बृहद्रथ, हर्यक, शैशुनाग और नंद वंश।
6.2 जनपदों के विकास के रूप
जनपदों के विकास को तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है । 1. कुछ जन या कबीले प्रारम्भ से ही उन्नत अवस्था में थे इसलिये वे शीघ्र ही जनपद के रूप में विकसित हो गए। उदाहरणत: – मत्स्य, चेदि, काशी व कौशल | 2. कुछ जनों में पहले संयोग हुआ फिर जनपदों का निर्माण हुआ जैसा कि पंचाल 3. अनेक जन अधिक शक्तिशाली जनों द्वारा विजित होने के कारण, उन्हीं में मिल गये जैसे अज जन
6.3 छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गणतंत्रो की शासन व्यवस्था बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों से हमें तत्कालीन विभिन्न गणतान्त्रिक जातियों के बारे में पता चलता है । रीज डैविडज (Rhys Davids) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘बुद्धिस्ट इण्डिया’ (Buddhist India) में निम्नलिखित 11 गणतान्त्रिक जातियाँ का उल्लेख किया है –
1. कपिलवस्थु (कपिलवस्तु) के शाक्य 2. अल्पकल्प के बुलि 3. केसपुत के कालाम 4. सुसुमारगिरि के भग्ग 5. रामग्राम के कोलिय 6. पावा के मल्ल 7. कुशीनारा के मल्ल 8. पिप्पलिवन के मोरिय 9. मिथिला के विदेह 10. वैशाली के लिच्छवी ऐसे राज्यों का शासन राजा द्वारा न, होकर गण अथवा संघ द्वारा होता था | चुनाव निश्चित समय के लिए ही होता था । सहायता के लिए सर्वोच्च प्रशासनिक संस्था मंत्री परिषद होती थी । परिषद की सदस्य संख्या 9 थी । बैठक संथागार में होती थी । केन्द्रीय समिति के सामने किसी भी प्रस्ताव का 3 बार पाठ होता था, और विरोध न होने पर उसे स्वीकार कर लिया जाता था । विरोध होने पर निर्णय बहुमत के आधार पर होता था । मतदान को छंद मतपत्रों को श्लाका कहते थे ।
6.4 महाजनपद का रूप
वैदिक काल में आर्य अनेक ‘जनों’ में विभक्त थे । ‘जन’ अपने को किसी एक पूर्वज की संतान मानते थे । प्रत्येक जन में अनेक कुटुम्ब होते थे । अत: एक ही जाति के पुरुष से उत्पन्न विभिन्न कुटुम्बों के समुदाय का नाम ‘जन’ था । ये वास्तव में ‘जन-राज्य’ या जातीय राज्य’ थे जिनका कोई निश्चित भौगोलिक आधार नहीं था । वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थे और उनकी पहचान का आधार जन विशेष ही था | ऋग्वेद में जनों का उल्लेख आता है, परन्तु ‘जनपदों’ का नहीं ।
उत्तरवैदिक काल तक आर्य-राज्यों का आधार जन या जाति था । जो जाति या वंश जहां निवास करता था, उसके नाम पर प्रदेश या प्रान्त का नाम पड़ जाता था । ऐसे राज्यों को ‘जन’ अथवा ‘जातीय राज्य कहा जाता था । राज्य की कल्पना ही जातीय थी ।उत्तर-वैदिक काल के पश्चात् राजनीतिक स्थिति में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ | भिन्न भिन्न प्रदेश जातियों के बस जाने के कारण ‘जनपद’ (जातियों के बसने के स्थान) कहलाने लगे । अब जातीय या जन के स्थान पर जनपद या प्रदेश का महत्व बढ़ा । राज्य की कल्पना जातीय के बदले भौगोलिक हो गयी तथा लोग अब जनपद के नाम से पुकारे जाने लगे |
प्राचीन भारत में साम्राज्यवाद की कल्पना इसी समय से प्रारम्भ हो गई थी इसकी पुष्टि हमें ब्राह्मण ग्रंथों से मिलती है । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि – “जो क्षत्रिय सर्वविजेता, सर्वश्रेष्ठ, सार्वभौम, शक्ति-सम्पन्न तथा धरती के एक कोने से सागर के तट तक अपना राज्य विस्तार करना चाहता है । उसे राजा इन्द्र के समान अपना राज्याभिषेक करना चाहिए | “इसी ब्राह्मण ग्रंथ में कहा है कि “मैं अपने आस-पास के राज्यों का राजा होऊ” |
शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में भी कहा गया है कि “एक शासक राजसूय (यज्ञ) करने से राजा तथा वाजपेय (यज्ञ) करने से सम्राट माना जाता है । राजा का पद छोटा सम्राट का पद बड़ा है । सम्भवत: राजा की इच्छा सम्राट बनने की हो सकती है, किन्तु सम्राट भला राजा क्यों बनना चाहेगा?”
ऐतरेय ब्राह्मण में यह उल्लेख मिलता है कि “पूर्वी दिशा के राजाओं ने अपना साम्राज्याभिषेक कराया था” अर्थात् मगध इस साम्राज्यवाद का केन्द्र था और स्पष्टत: छठी शताब्दी ई. पू. में मगध के साम्राज्यवाद का विकास इसी प्राचीन परम्परा का अनुशीलन था ।
छठी शताब्दी ई. पू. के प्रारम्भ में भारत में किसी का एकछत्र राज्य नहीं था । इस समय की राजनीतिक स्थिति तत्कालीन यूनान की स्थिति के समान थी, यद्यपि भारत के कुछ राजतंत्र यूनानी राज्यों से बहुत बड़े थे | भारतीय राज्यों के विषय में वी.सी.लॉ ने लिखा है कि – “आरम्भ में इनमें से अधिकांश में राजा ही शासन करते थे । यूनान के समान भारत में भी राजतंत्र के स्थान पर गणतंत्र राज्यों की स्थापना का मूल कारण सम्भवत: राजाओं की अयोग्यता एवं अत्याचार रहा होगा ।” छठी शताब्दी ई. पू. तक आते-आते प्रत्येक जनपद का विस्तार हो चुका था । सीमा विस्तार की भावना एवं पारस्परिक युद्धों से जनपद अपेक्षाकृत विस्तृत हो गये तथा ‘महाजनपद’ कहलाने लगे थे ।
6.5 षोडश महाजनपदों का विवरण
बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध के समय में सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है । बौद्ध ग्रंथों में जहाँ भी बुद्ध का वर्णन मिलता है वहाँ बार-बार इन महाजनपदों की मुख्य बस्तियों का भी वर्णन मिलता है । इतिहासकारों में बुद्ध के जीवन-काल की तिथियों के प्रति अभी भी मतभेद है । तथापि, यह माना जाता है कि बुद्ध छठी शताब्दी तथा पांचवी शताब्दी ईसापूर्व की दोनों ही शताब्दियों के कुछ भाग में जीवित थे । इसीलिए बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध के जीवन काल के उल्लेखों को इस युग के समाज के प्रतिबिंबन के उद्देश्य से देखा जाता है । इन उल्लेखों से हमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों की राजनीतिक एवं आर्थिक दशा पर अनेकश: जानकारी प्राप्त होती है । यह महाजनपद हजारों गांव और कुछ शहरों के विलय का नेतृत्व करते हैं। यह षोडश महाजनपद उत्तरी-पश्चिमी पाकिस्तान से लेकर पूर्वी बिहार तक तथा हिमालय के तराई क्षेत्रों से दक्षिण में गोदावरी नदी तक फैले हुए थे ।
‘अंगुतर निकाय नामक बौद्ध ग्रन्थ जो कि सुत्त पिटक का एक भाग है इसमें “महात्मा बुद्ध के आविर्भाव से पूर्व के महाजनपदों” का उल्लेख है जिनकी संख्या सोलह थी ये सोलह महाजनपद इस प्रकार है
(1) काशी (कासी)
(2) कौशल
(3) अंग
(4) मगध
(5) वज्जि (वृजि)
(6) मल्ल
(7) चेतिय (चेदि)
(8) वंस (वत्स)
(9) कुरु
(10) पंचाल
(11) मत्स्य
(12) शूरसेन
(13) अष्मक
(14) अवन्ती
(15) गन्धार
(16) कंबोज
महावस्तु नामक बौद्ध स्त्रोत में 16 महाजनपदों का ऐसा ही वर्णन मिलता है । लेकिन इसमें गांधार तथा कंबोज जो कि उत्तर-पूर्व में स्थित थे, उनका नाम नहीं जोड़ा है, इनके स्थान पर पंजाब में शिबि तथा मध्य भारत में ‘दर्शन’ के नाम जोड़े गए हैं ।
जैन ग्रंथ ‘भगवती सूत्र’ में सोलह महाजनपदों की एक अन्य सूची का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
(1) अंग
(2) बंग (वंग)
(3) शाह (मगध)
(4) मालव (क)
(5) मलय
(6) अच्छ
(7) वच्छ (वत्स)
(8) कोच्छ (कच्छ ?)
(9) पाढ (पाण्डय या पौण्ड)
(10) लाढ (लाट या राढ)
(11) बज्जि (वज्जि)
(12) मोली (मल्ल)
(13) कासी (काषी)
(14) कौशल
(15) अवाह
(16) सम्भुत्तर (सुम्होतर)
जिसमें वंग तथा मलय शामिल हैं । सूची में भिन्नता का कारण यह है कि बौद्ध और जैनों ने अपने-अपने महत्व के क्षेत्रों को सूची में शामिल किया होगा । अधिकांश महाजनपद मध्य गांगेय घाटी में स्थित थे ।
ये 16 महाजनपद इस प्रकार हैं :
(1) काशी
सोलह महाजनपदों में से काशी महाजनपद सबसे शक्तिशाली महाजनपद प्रतीत होता है | इसकी राजधानी वाराणसी थी जो गंगा तथा गोमती के संगम पर स्थित है | काशी सूती कपड़ों तथा घोड़ों के बाजार के लिए विश्व विख्यात था | बौद्ध भिक्षुओं के गेरुए वस्त्र जिन्हें संस्कृत में काषेय कहा जाता था, काशी में ही बनाए जाते थे । इससे बुद्ध के समय में काशी का कपड़ा उत्पादक केन्द्र और बाजार के रूप में संकेत मिलता है । एक प्रसंग में राम की कहानी का प्राचीनतम वृत्तान्त “दशरथ जातक” में दशरथ, राम आदि को अयोध्या के बजाए काशी का राजा बताया गया है । जैन सम्प्रदाय के तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के पिता को बनारस का राजा बताया गया है | महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश बनारस के निकट सारनाथ में दिया |
इस प्रकार प्राचीन भारत के तीनों मुख्य धर्म अपना संबंध बनारस से जोड़ते हैं । तत्कालीन वाराणसी की तुलना प्राचीन काल के बेबीलोन तथा मध्यकालीन रोम से की जा सकती है, क्योंकि इस पर सदैव लड़ाकू तथा अर्ध सभ्य देश ललचाये रहते थे । महात्मा बुद्ध के समय तक कौशल ने काशी पर कब्जा कर लिया था और काशी मगध एवं कौशल के बीच युद्ध का कारण बना हुआ था । अजातशत्रु के समय में काशी मगध का अंग बना |
(2) कौशल
यह महाजनपद पश्चिम में गोमती नदी से घिरा हुआ था । इसके पूर्व में सदानीरा नदी बहती थी जो इसे विदेह जनपद से अलग करती था, उत्तर में नेपाल की पहाड़ियों तथा दक्षिण में सर्पिका (स्यानदिका) नदी बहती थी । सरयू नदी इस जनपद को दो भागों में बाँटती थी-उत्तरी कौशल की राजधानी श्रावस्ती तथा दक्षिण कौशल की कुशावती थी । मज्झिम-निकाय में बुद्ध स्वयं को कौशल का निवासी बताते हैं । कौशल के राजा विदुधान ने शाक्यों को नष्ट कर दिया था । छठी शताब्दी ईसा पूर्व में मगध में शासकों में जिन राजाओं का उल्लेख है वे हिरण्यनाभ, महा कौशल, प्रसेनजित तथा शुद्धोदन है । इन राजाओं के बारे में अयोध्या, साकेत, कपिलवस्तु अथवा श्रावस्ती से शासन करने का अनुमान माना है | छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आरंभ में कौशल का नियंत्रण कई छोटे-छोटे कबीलायी सरदारों के हाथ में था जो छोटे-छोटे कस्बों में शासन करते थे ।
इस राज्य का एक महत्त्वपूर्ण राजा प्रसेनजित था, जो बुद्ध का समकालीन था |
प्रसेनजित के शासन काल में श्रावस्ती में राजकाराम और मल्लिकाराम विहारों के अतिरिक्त अन्य कई विहार बनवाये गये थे । इनमें एक जेतवन में था जिसे अनाथ पिण्डक नामक धनपति ने राजकुमार जेत से भूमि पर काहापण बिछाकर खरीदा था । दूसरा था मिगारभातु प्रासाद जिसे विशाखा ने बनवाया था ।
कौशल के राजा ब्राह्मणवाद तथा बौद्ध मत दोनों को प्रोत्साहन देते थे । प्रसन्नजित ने अपनी बहन कौशलदेवी या महाकौशला देवी का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार से कर काशी उसे दहेज में दे दिया था । ‘हरितमात’ और ‘वद्धकीसूकर’ जातकों के अनुसार काशी का एक गाँव जिसकी आय एक लाख मुद्राएँ थी ‘स्नान चूर्ण’ द्रव्य रूप में दिया था, इससे स्पष्ट है कि काशी राज्य इस घटना के पूर्व ही कौशल में मिला लिया गया था । बुद्ध के समय कौशल चार शक्तिशाली महाजनपदों में एक था ।
(3) अंग
अंग का प्राचीन इतिहास ‘तिमिराच्छन्न’ है । यह जनपद बिहार के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित था | इसमें बिहार के वर्तमान भागलपुर और मुंगेर जिले शामिल है | यह मगध के पूर्व में था, दोनों जनपदों के मध्य चम्पा नदी बहती थी । अंग जनपद की राजधानी का नाम भी चंपा था | बुद्धकालीन छ: बड़े नगरों में चंपा नगरी का नाम मिलता है |
भागलपुर के निकट चम्पा में खुदाई के दौरान उत्तरी काले चमकीले (NBPW) किए मृदभांड पर्याप्त मात्रा में मिले हैं । बुद्ध के समय में अंग और मगध जनपदों में सदा युद्ध की स्थिति बनी रहती थी । कुछ समय के लिए मगध अंग देश का भाग बन गया था परंतु शीघ्र ही अंग का पतन हो गया और बिम्बिसार ने न केवल मगध बल्कि अंग को भी अपने अधिकार में कर लिया ।
(4) मगध
ऋग्वेद में कीकट नाम के भू-भाग पर ‘प्रमगन्द’ नाम के एक सामन्त के शासन का उल्लेख मिलता है । यास्क के अनुसार कीकट भू भाग अनार्य प्रदेश था । बाद के ग्रन्थों में ‘कीकट’ शब्द को मगध का ही पर्याय कहा गया है ।
दक्षिण बिहार या गंगा के दक्षिण का भाग मगध कहलाता था । वर्तमान बिहार के पटना और गया जिले इस राज्य के अन्तर्गत थे । इसकी राजधानी गिरिव्रज या राजगृह थी । यह अपने वैभव के लिए प्रसिद्ध थी जैसे-राजगृह पाँच पहाड़ियों से घिरा अभेद्य शहर था । राजगृह की दीवारें भारत के इतिहास में किलेबंदी का प्राचीनतम उदाहरण है । राजगृह बुद्ध के प्रिय पड़ावस्थलों में से एक था । पहले यहाँ पर बार्हद्रथ-वंश का राज्य था । इस वंश में बृहद्रथ और उसका पुत्र जरासन्ध दो प्रसिद्ध राजा हुए |
प्रारम्भ में यह एक छोटा राज्य था पर इसकी शक्ति में निरंतर विकास होता गया । उपजाऊ खेतिहर जमीन, दक्षिण बिहार में कच्चे लोहे के भंडार मिले हैं । गंगा, गंडक तथा सोन नदी के व्यापार मार्गों पर इसके नियंत्रण के कारण इसे काफी राजस्व प्राप्त हो जाता था । कहा जाता है कि मगध के राजा बिम्बिसार ने 80,000 गाँवों के गामिनियों की एक सभा बुलाई थी । हो सकता है कि संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हो, लेकिन इससे यह ज्ञात होता है कि बिम्बिसार के प्रशासन में गांव संगठन की इकाई के रूप में उभर आए थे । गामिनी उसके नातेदार नहीं, बल्कि गांवों के मुखिया तथा प्रतिनिधि थे । इस प्रकार उसकी शक्ति उसके संबंधियों की कृपा पर आधारित नहीं थी, स्वयं की सफलता से थी । बुद्ध के काल में यह चार शक्तिशाली राजतंत्रों में एक था ।
(5) वज्जि
वज्जि शब्द का शाब्दिक अर्थ पशुपालक समुदाय है । वज्जि बिहार के वैशाली जिले में बसा हुआ है । उत्तर में यह महाजनपद नेपाल की तलहटी तक फैला हुआ था । गंडक नदी इसे कौशल से अलग करती थी |
वज्जि आठ राज्यों का गणतंत्रात्मक संघ था । इन राज्यों में लिच्छवी, विदेह और ज्ञात्रिक विशेष महत्त्वपूर्ण थे । विदेह की राजधानी मिथिला थी । इसे नेपाल का आधुनिक जनकपुर माना जाता है । यद्यपि रामायण में इसे राजा जनक के साथ जोड़ा गया है | बौद्ध स्रोतों में इसे कबीला भी परम्परा से जोड़ा गया है ।
लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी और ज्ञात्रिकों की राजधानी कुंडग्राम थी इसी में जैन गुरु महावीर का जन्म हुआ था। संगठन के अन्य समुदाय उग्र, भोग, कौरव तथा ऐक्षवाक थे । इनके संगठन का केन्द्र वैशाली था । ये सारे राज्य आधुनिक बिहार राज्य में स्थित थे । महात्मा बुद्ध के समय तक वज्जिसंघ एक शक्तिशाली गणराज्य था ।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह महाजनपद एक महत्वपूर्ण शक्ति बना हुआ था । लेकिन इनके पास न तो सेना थी और न ही इनके पास कृषि राजस्व प्राप्त करने की कोई व्यवस्था थी । बाद में मगध के राजा अजातशत्रु ने इसे अपने राज्य मगध में मिलाया जिसका उल्लेख हर्यक वंश में अजातशत्रु के अन्तर्गत किया गया है ।
(6) मल्ल
मल्ल राज्य भी एक गणतंत्रात्मक संघ था । वज्जि-जनपद के उत्तर-पश्चिम में हिमालय की तराई (आधुनिक देवरिया एवं गोरखपुर के कसिया क्षेत्र को माना गया है ।) में मल्ल जनपद था । इस संघ राज्य में मल्लों की दो शाखायें सम्मिलित थी । जिसमें एक की राजधानी कुशीनारा (वर्तमान कुशीनगर देवरिया जिला, उत्तर प्रदेश) में महात्मा बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था और मल्लों ने ही उनका अंतिम संस्कार किया था । और दूसरे की राजधानी पावा थी ।
मल्ल राज्य में पहले शासन की बागडोर राजा के हाथ में होती थी | महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद ही मल्ल राष्ट्र ने अपनी स्वतंत्रता खो दी थी | मल्ल राज्य वालों तथा लिच्छवियों को मनु ने व्रात्य क्षत्रिय कहा है । ये लोग भी अपने पूर्वीय पड़ोसियों की तरह बौद्ध मत के कट्टर अनुयायी थे और अन्तत: मल्ल राज्य को मगध द्वारा आत्मसात कर लिया गया |
(7) चेदि
चेदि जनपद वत्स जनपद के दक्षिण में काशी के पश्चिम, अवन्ति के पूर्व, एवं शूरसेन तथा मत्स्य के दक्षिण-पूर्व में स्थित था । डॉ. श्री राम गोयल के अनुसार यह यमुना के दक्षिण में था और यह नदी इसे वत्स से पृथक करती थी।
चेदि जनपद के अन्तर्गत आधुनिक बुंदेलखण्ड तथा उसका सीमावर्ती प्रदेश था । मध्यकाल में इसकी राजधानी त्रिपुरी नगर था । ‘चेतिय जातक’ में चेतिय जनपद की राजधानी सोत्थिवती (पालि में) बतायी गयी है जिसकी पहचान नन्दलाल डे ने महाभारत में उल्लिखित शुक्तिमती या शुक्तिसाहय से की है ।
चेदि राज्य उतना प्राचीन माना जाता है जितना कि ऋग्वेद, क्योंकि दान-स्तुति के स्रोतों के अन्त में कसु वैद्य का नाम आया है । रैप्सन ने राजा कसु को ही महाभारत का ‘वसु’ माना
चेदि जन भारत की एक प्राचीन जाति थी, इसकी एक शाखा कलिंग में बसी जिसमें सुप्रसिद्ध नरेश खारवेल उत्पन्न हुआ था | कृष्ण का शत्रु शिशुपाल चेदियों का ही शासक था | ‘सहजाति’ एवं ‘त्रिपुरी इसके मुख्य नगर थे ।
(8) वत्स
आधुनिक इलाहाबाद इस जनपद का मुख्य क्षेत्र रहा है । इसकी राजधानी कौशाम्बी थी, जो कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व का सबसे शक्तिशाली केन्द्र था, जिसे जैन ग्रन्थों में वच्छ कहा गया है । भास द्वारा रचित नाटक स्वप्नवासवदत्ता के मुख्य पात्र उदयन बुद्ध का समकालीन माना जाता है, इसी जनपद से संबंधित था । यह नाटक उदयन तथा अवन्ति की राजकुमारी वासवदत्ता के बीच प्रेम संबंध की कहानी पर आधारित है । हर्ष रचित ‘प्रियदर्शिका’ नाटिका में अंग के राजा दृढ़वर्मा की पुत्री से उदयन के विवाह का उल्लेख है । दूसरी नाटिका ‘रत्नावली’ में उसकी रानी वासवदत्ता बतलाई गई। वत्स का राज्य चार प्रमुख राजतंत्रों में से एक था |
(9) कुरु
कुरु जनपद आधुनिक मेरठ जिला और दक्षिण-पूर्व हरियाणा का प्रदेश था । इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली के निकट इन्द्रपत गाँव) थी । अर्थशास्त्र तथा अन्य ग्रंथों में उन्हें राजशब्दोंपजीविन अर्थात् राजा की पदवी रखने वालों की संज्ञा दी गई है ।
हस्तिनापुर इस राज्य का प्रसिद्ध नगर था जो कि बाढ़ में नष्ट हो गया – इसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। शायद महाभारत काल का हस्तिनापुर सम्भवत: यही था | बड़े पैमाने पर युद्ध महाजनपदों के उदय के बाद ही आरंभ हुए । इससे पूर्व के चरण में यह केवल मवेशी हांक ले जाने तक सीमित था । महाभारत में यूनानियों का उल्लेख है जो कि भारत के सम्पर्क में 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व के याद ही आए | अत: यूनानियों के साथ युद्ध की संभावना केवल प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में ही हो सकती थी । बुद्ध के समय तक कुरु राज्य का प्राचीन गौरव अस्त हो चुका था, परन्तु यह अपने आधार और शील के लिए प्रसिद्ध था ।
(10) पंचाल
पंचाल जनपद के अन्तर्गत वर्तमान रुहेलखंड तथा इसके समीपवर्ती फर्रुखाबाद, बदायूँ पीलीभीत, अलीगढ़, बरेली, जिले के क्षेत्र सम्मिलित थे । पंचाल जनपद उत्तरवैदिक काल से ही प्रसिद्ध था । इसके दो भाग थे उत्तरी पंचाल जिसकी राजधानी अहिच्छत्र या छत्रावती (आधुनिक रामनगर जो उत्तर प्रदेश के बरेली में) थी और दक्षिणी पंचाल जिसकी राजधानी काम्पिल्य (फर्रुखाबाद जिले में फतहगढ़ से 28 मील दूर) थी । हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में
चंबल नदी तक तथा पूर्व में कौशल और पश्चिम में कुरु जनपद इसकी सीमाएँ थीं । पंचाल मूलत: एक राजतंत्र था किंतु कौटिल्य के समय तक वह एक गणराज्य हो गया था ।
(11) मत्स्य
मत्स्य देश का विस्तार राजस्थान के जयपुर, अलवर एवं भरतपुर के क्षेत्रों में था । इसकी राजधानी विराटनगर (आधुनिक बैराठ) थी, जहाँ से अशोक के कुछ शिलालेख मिले हैं । महाभारत के अनुसार पांडवों ने अज्ञातवास का समय यहीं व्यतीत किया था । इसके समीप उपलब्ध नाम का कस्बा था |
(12) शूरसेन
__ वर्तमान बृजमण्डल का क्षेत्र इस जनपद के अन्तर्गत आता था और मथुरा इसकी राजधानी थी | मथुरा नगर प्राचीन भारत का एक प्रमुख नगर था तथा बौद्ध धर्म, जैन धर्म, कृष्ण सम्प्रदाय और मूर्तिकला का एक प्रधान केन्द्र था । पुराणों के अनुसार इस प्रदेश का नाम शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन के नाम पर पड़ा था | महाभारत के समय इस नगर की विशेष महत्ता थी और यहाँ पर यादववंशी राजाओं का शासन था | शूरसेन से पहले यदुवंशी अंधक-वृष्णियों का गणराज्य था, परन्तु बुद्ध के समय यहाँ राजतंत्र की स्थापना हो गई थी ।
(13) अश्मक
यह राज्य दक्षिण भारतीय जनपद का माना गया है । यह राज्य गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ था । हैदराबाद निजाम क्षेत्र में पड़ने वाले बोधन को हम अश्मक की राजधानी कह सकते हैं । इसका प्राचीन नाम पोतलि या पोदन था । इससे लगता है कि यह स्थान मूलक तथा कलिंग के बीच का था | ‘सोणनन्द जातक’ में यह अवन्ति के अधीन हो गया था। अश्मकों का आदि निवास स्थान सम्भवत: पश्चिमोत्तर भारत में था।
चुल्ल कलिंग जातक में अश्मक के एक राजा का नाम अरुण तथा उसके मंत्री का नाम नन्दिसेन कहा गया है। यह भी उल्लेख है कि इस राजा ने एक बार कलिंग के राजा पर विजय प्राप्त की थी।
(14) अवंति
यह जनपद वर्तमान में मालवा के क्षेत्र में स्थित था । इस राज्य का मुख्य क्षेत्र मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले से लेकर नर्मदा नदी तक फैला हुआ था । इसकी मुख्य राजधानी उज्जयिनी नगरी (वर्तमान उज्जैन) थी । इसके दो भाग दक्षिण भाग की राजधानी माहिष्मती (आधुनिक मान्धाता) थी । दूसरा भाग उत्तरी अवन्ति थी जिसकी राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) थी ।
प्राचीन काल में यहाँ पर हैहय वंश ने राज्य किया था, इसके पूर्व इक्ष्वाकु वंश ने राज्य किया था । बुद्ध के समय अवंति राज्य अत्यन्त शक्तिशाली राज्य था और चार प्रमुख महाजनपदों में से एक था । इस समय यहाँ प्रद्योत-वंश राज्य करता था । चण्डप्रद्योत इस वंश का प्रसिद्ध राजा था जिसने वत्सराज उदयन को बंदी बनाया था । अवंति बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध केंद्र था ।
(15) गन्धार
इस जनपद के अन्तर्गत अफगानिस्तान का पूर्वी भाग कश्मीर घाटी का क्षेत्र, तक्षशिला सहित पंजाब का पश्चिमोत्तर प्रदेश सम्मिलित था । सीमान्त प्रदेश में स्थित होने के कारण यह व्यापार का प्रमुख केन्द्र था | तक्षशिला इस राज्य की राजधानी थी । छठी शताब्दी ई.पू. में गन्धार का शासक पुष्कर सारिन या पुक्कुसांती मगध शासक बिम्बिसार और बुद्ध का समकालीन था । अवन्ति के शासक प्रद्योत के साथ पुक्कुसांती के अनेक युद्ध हुए थे जिनमें गन्धार शासक की विजय हुई थी | आधुनिक तक्षशिला की खुदाई से पता चलता है कि इस स्थान पर 1000 ईसा पूर्व में ही लोग बस चुके थे और बाद के दिनों में नगरों का उदय हुआ |
(16) कंबोज
कंबोज, गंधार जनपद का पड़ोसी राज्य था जैसा कि बौद्ध ग्रंथों से विदित होता है । गंधार का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र इसके अन्तर्गत आता था । इसकी राजधानी राजपुर थी । इसकी दूसरी मुख्य नगरी द्वारका थी | महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है | 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व में ही कंबोजो को ब्राह्मणीय ग्रंथों में असभ्य लोगों की संज्ञा दी गई थी । यह अपने शानदार घोडों के लिए प्रसिद्ध था ।
6.8 मगध में साम्राज्यवाद – उदय के कारण एवं आधार
भारत के विविध आर्य-जनपदों में अन्यतम मगध था | मगध राज्य का विस्तार वर्तमान बिहार के दक्षिणी भाग में स्थित पटना और गया जिलों में था । इसके उत्तर में गंगा और पश्चिम में सोन नदियाँ थी, दक्षिण में विन्ध्य पर्वत की श्रेणियों थीं और पूर्व में चम्पा नदी थी । इसकी प्राचीन राजधानी राजगृह थी । बाद में राजा उदायी भद्र ने पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) को इसकी राजधानी निश्चित किया थ । मगध के इस आर्य-जनपद में आर्य-भिन्न निवासियों की संख्या बहुत अधिक थी । यही कारण है कि बहुत प्राचीनकाल से इनमें एक नये प्रकार के साम्राज्यवाद का विकास हो रहा था । अन्य आर्य राजाओं के समान मगध के राजा अपने प्रतिद्वन्द्वी राजाओं को परास्त कर उनसे अधीनता स्वीकार कराके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते थे । वे उनको समूल नष्ट कर देते थे और उनके प्रदेशों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित करने के लिए प्रयत्नशील रहते थे ।
ऐतरेय ब्राह्मण में प्राची दिशा के राज्यों के संबंध में लिखा है, कि वही के जो राजा हैं वे सम्राट कहलाते हैं, उनका साम्राज्य के लिए ‘सम्राट’ के रूप में ही अभिषेक होता है । प्राच्य जनपदों में मगध सर्वप्रमुख था ।
सातवीं और छठी शताब्दी ई.पू. में देश विभिन्न महाजनपदों में विभक्त था जिनमें अपनी-अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष दिखाई देता है जिसमें अन्ततोगत्वा मगध विजयी होता है, अत: स्वाभाविक प्रश्न है कि वे कौन से कारण एवं परिस्थितियाँ थीं जिनके कारण मगध अन्य राज्यों की तुलना में अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सफल हो सका |
साम्राज्य की सफलता या असफलता मुख्यत: राजतंत्रात्मक शासन में बहुत कुछ पर निर्भर करती है । सौभाग्य से मगध को बिम्बिसार, अजातशत्रु एवं शिशुनाग जैसे कुशल शक्तिशाली और कूटनीतिक शासकों का सानिध्य प्राप्त हुआ जिन्होंने मगध को सही अर्थों में एक साम्राज्य के रूप में प्रतिष्ठित करने में महती प्रयास किया, लेकिन अन्य कारणों की भी उल्लेखनीय भूमिका रही है ।
भौगोलिक दृष्टिकोण से मगध की स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थी । मगध की राजधानी राजगृह उस स्थल के निकट थी, जहाँ लोहे के पर्याप्त भण्डार थे । परिणामत: शस्त्र निर्माण की दृष्टि से मगध की स्थिति अपने प्रतिद्वन्द्वी राज्यों की तुलना में महत्त्वपूर्ण बन गई । उल्लेखनीय है कि यद्यपि अवन्ति में भी लोहे के पर्याप्त भण्डार थे और उन्होंने भी उन्नत किस्म के हथियारों का निर्माण किया | यही कारण है कि मगध को उस पर अधिकार करने में 100 वर्ष से भी अधिक समय लगा, लेकिन अन्य परिस्थितियों की दृष्टि से मगध की स्थिति महत्वपूर्ण थी | मगध की राजधानियाँ राजगृह और पाटलिपुत्र सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थलों पर स्थित थीं | राजगृह पाँच पर्वत (वैहार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि चैत्यक) श्रृंखलाओं से घिरा हुआ था जहाँ शत्रु के लिए पहुँचना दुष्कर था तो पाटलिपुत्र, गंगा, सोन, गण्डक नदियों से आवृत था |
मगध के राजाओं को वेतनभोगी सैनिकों को भर्ती करने में कोई कठिनाई नहीं थी । कौटिल्य ने मौल सेना के अतिरिक्त मृत और आटविक (वेतनभोगी एवं बनवासी लोगों की) सेनाओं का उल्लेख किया है । मगध के समीप ही महाकान्तार था जहाँ वन्य जातियाँ बसती थी । यह सुविधा कौशल आदि को प्राप्त नहीं थी ।
यह भी ज्ञातव्य है दक्षिण बिहार के घने जंगलों में हाथियों की प्रचुरता थी जिनका प्रयोग युद्ध कार्यों में मुख्यत: शत्रुओं के. दुर्गा को ध्वस्त करने में किया गया । यूनानी इतिहासकारों के द्वारा नन्द सेना में हाथियों की संख्या संबंधी उल्लेख तथा चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सेल्युकस को 500 हाथी देने के साक्ष्य इस तथ्य की पुष्टि करते हैं ।
यह भी कहा जाता है कि इस क्षेत्र में ब्राह्मण प्रतिक्रियावादी विचार श्रेष्ठता प्राप्त न कर सकें और यहाँ उदारता व समन्वय का वातावरण बना रहा जिससे मगध में विस्तृत दृष्टिकोण का विकास हुआ जो विशाल साम्राज्य के निर्माण में सहायक था ।
रूढ़िवादी ब्राह्मण सभ्यता द्वारा लगाये गये सामाजिक बन्धनों में शिथिलता और बौद्ध तथा जैन धर्मा के सार्वजनिक दृष्टिकोण ने जिन्हें मगध में सुखद स्थान प्राप्त हुआ इस क्षेत्र के राजनीतिक दृष्टिकोण को विस्तृत कर दिया और इस क्षेत्र को एक शक्तिशाली साम्राज्य का केन्द्र बना दिया ।
6.9 बृहद्रथ – वंश
मगध पर शासन करने वाला प्राचीनतम ज्ञात राजवंश ‘बृहद्रथ-वंश’ है । महाभारत व पुराणों से ज्ञात होता है कि प्राग-ऐतिहासिक काल में चेदिराज वसु के पुत्र बृहद्रथ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था | बृहद्रथ को ही मगध साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है, उसके द्वारा स्थापित राजवंश को ‘बृहद्रथ-वंश’ कहा गया |
इस वंश का सबसे प्रतापी शासक जरासंध था, जो बृहद्रथ का पुत्र था | जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था । हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है कि उसने काशी कौशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पाड्य, सौबीर, मद्र, काश्मीर, और गन्धार के राजाओं को परास्त किया था । इसी कारण पुराणों में जरासंध को महाबाहु, महाबली और देवेन्द्र के समान तेजवाला कहा गया है । महाभारत में भी जरासंध के लिए कहा गया है, “जिस प्रकार सिंह महाहस्तियो को पकड़ कर गिरिराज की गुफाओं में बन्द कर देता है, ठीक उसी प्रकार जरासंध ने राजाओं को परास्त कर उन्हें गिरिव्रज में कैद कर रखा था ।” जरासंध ने अपने साम्राज्यवाद से अन्य राजाओं को भयभीत कर दिया था । कृष्ण भी इसके भय के कारण मथुरा छोड़ द्वारका में चले गये थे – हरिवंश पुराण |
जरासंध की मृत्यु के बाद मगध पतन की ओर अग्रसर हो गया, बृहद्रथ-वंश का अन्तिम शासक रिपुंजय था । जिसकी हत्या उसके मंत्री पुलिक ने कर दी तथा अपने पुत्र ‘बालक’ को मगध का शासक नियुक्त किया था । कुछ समय पश्चात् महिय नामक एक सामन्त ने बालक की हत्या करके अपने पुत्र बिम्बिसार को मगध की गद्दी पर बैठाया था ।
6.10 हर्यक वंश (545 ई.पू. से 412 ई.पू.)
हर्यक वंश नागवंशी क्षत्रियों का एक उपवंश माना जाता है । ‘हर्यक’ शब्द के अर्थ से भी यही द्योतित होता है : ‘हरि’ अर्थात् नाग: ‘अंक’ अर्थात् चिन्ह : अत: ‘हर्यक’ यानी ‘नाग चिन्हांकित’ ।
6.10.1 बिम्बिसार – (545 ई.पू. से 493 ई.पू.)
मगध के साम्राज्यवादी स्वरूप का प्रवर्तक या संस्थापक बिम्बिसार था । वह दक्षिणी बिहार के एक छोटे-से सामन्त का पुत्र था । इसके पिता का नाम भटीय या भट्टीय था तिब्बतबासी इसे महापद्मनंद कहते थे, विभिन्न ग्रंथों में इसे हेमजित क्षेत्रोजा, बोधिस भी कहा गया है । बिम्बिसार का दूसरा नाम ‘श्रेणिक’ (जैन साहित्य) रखा गया था ।
डी.आर. भण्डारकर का अनुमान है कि बिम्बिसार शुरु में लिच्छवियों का सेनापति था जो उस समय मगध पर शासन कर रहे थे । ‘महावंश’ में कहा गया है कि बिम्बिसार जब 15 वर्ष का था, तब उसके पिता ने उसका राजतिलक किया! इससे ज्ञात होता है कि बिम्बिसार किसी राजवंश का संस्थापक नहीं था । बिम्बिसार के पिता स्वयं राजा थे ।
बिम्बिसार एक महत्वाकांक्षी, कुशल एवं कूटनीतिज्ञ शासक था । उसने तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का सही आकलन किया और अपनी दूरदर्शिता पूर्ण नीति से मगध के साम्राज्य एवं प्रभुत्व को फैलाने का प्रयास किया था । बिम्बिसार के राज्य का विस्तार पालि ग्रंथों में 300 योजन बताया गया है और कहा गया है कि उसके राज्य में 80 हजार गांव थे । ‘सुमंगलविलासिनी’ के अनुसार उसे महती सेना का स्वामी होने के कारण ‘सेनिय’ कहा जाता था |
बिम्बिसार राजनीतिक गणित का कुशल खिलाड़ी था । इसे यह ज्ञात था कि समकालीन राजनीतिक शक्तियों को युद्ध-क्षेत्र में एक साथ परास्त कर पाना मगध के लिए संभव नहीं है, इसलिए उसने कुछ राजवंशों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये जो उसके राज्य की समवर्ती सीमाओं को सुरक्षित रखने में सहायक बनें तथा अन्य दिशाओं में मगध की विस्तारवादी नीति के समर्थक | बिम्बिसार द्वारा चार वैवाहिक संबंध राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है – (1) प्रधान पत्नी:- कौशल नरेश प्रसेनजित की बहन कौशलयादेवी से बिम्बिसार ने विवाह किया ।
इससे इसे कौशल जनपद की मित्रता का लाभ हुआ, साथ ही दहेज के रूप में एक लाख के वार्षिक भू-राजस्व वाला काशी ग्राम भी प्राप्त हुआ । उल्लेखनीय है कि काशी ग्राम मगध को कौशला देवी के ‘स्नान व श्रृंगार’ के खर्च को पूरा करने के लिए दिया गया था । (2) दूसरी पत्नी – चेल्लना – लिच्छवी राज चेटक की पुत्री थी जिसके कारण वज्जिसंघ से संबंध सुधरे थे । इससे सीमा को सुरक्षित कर लिया, व्यापारिक लाभ भी हुये । (3) तीसरी पत्नी – खेमा – पंजाब के मद्र नरेश, मद्र की बेटी थी । विवाह कर मैत्री पूर्ण संबंध स्थापित कर लिये। (4) चौथी पत्नी – वासवी थी जो कि विदेह के राजा की पुत्री थी । इससे विवाह कर अपने शत्रु अंग देश को, उत्तर-पश्चिम की ओर से मैत्री विहीन कर दिया । अनुमान है कि बिम्बिसार ने समकालीन कुछ अन्य राजवशों के साथ भी वैवाहिक संबंध स्थापित किये होगें |
वैवाहिक संबंधों के अतिरिक्त, बिम्बिसार ने कुछ अन्य राज्यों के साथ राजनयिक (दौत्य या कूटनीतिक) या सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित कर, मगध की स्थिति को, मित्रों के बाहुल्य से और अधिक सुदृढ़ बना लिया रोरुक (सिन्ध) का राजा रुद्रायन एवं गंधार का राजा पुक्कुसाति (या पष्कर सारी) बिम्बिसार के नये मित्र थे । गंधार के राजा पुक्कुसति ने मगध की राजसभा में एक दूत भी भेजा था । बिम्बिसार ने अवन्ति के प्रतापी राजा प्रद्योत से भी सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित कर लिये | एक बार राजा प्रद्योत जब पाण्डुरोग (पीलिया) से ग्रस्त हो गया था तब बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उसके उपचार के लिए भेजा था । बिम्बिसार ने शत्रु राज्यों के विरूद्ध आक्रमण नीति का भी अनुसरण किया, इसने अंग राज्य पर आक्रमण कर अंग राजा ब्रह्मदत्त को मार दिया, और अंग राज्य मगध में शामिल कर लिया । साम्राज्य निर्माण के बारे में हेमचन्द्र राय चौधरी ने कहा है कि – “इस प्रकार कूटनीति और ताकत के बल पर बिम्बिसार ने अंग राज्य तथा काशी के एक भाग को मगध में मिला लिया था फिर तो मगध निरन्तर विस्तार की ओर बढ़ता गया और तब तक बढ़ता गया जब तक कि महान् अशोक ने कलिंग के बाद अपनी तलवार नहीं रख दी । “
बिम्बिसार ने 493 ई.पू. तक अर्थात् लगभग 52 वर्षों तक शासन किया । लेकिन उसके जीवन का अंतिम समय बड़ा दुःखद रहा । बौद्ध तथा जैन साहित्य से विदित होता हैं की बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने अपने पिता के सुदीर्घ शासन काल से परेशान होकर उसे बंदीगृह में डाल दिया | बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अजातशत्रु ने बंदीगृह में अपने पिता को मरवा दिया जबकि जैन ग्रंथों के अनुसार बिम्बिसार ने कारागार में विष खाकर अपने प्राण दे दिये | इस प्रकार मगध साम्राज्य के प्रवर्तक एवं सुयोग्य राजा बिम्बिसार का बड़ा दुःखमय अन्त हुआ |
6.10.2 अजातशत्रु – (493 ई.पू. से 461 ई.पू.)
अजातशत्रु का दूसरा नाम कुणिक या कुणिय था | अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर मगध को सिंहासन प्राप्त किया था । इसने अपनी आक्रामक नीति से मगध साम्राज्य का विस्तार किया तथा उसकी प्रभुता और शक्ति सम्पन्नता को ऊँचाइयों के नये आयाम प्रदान किये । अजातशत्रु का शासन काल हर्यंकवंश का चरमोत्कर्ष काल माना जाता था |
अजातशत्रु ने एक लम्बे संघर्ष के बाद काशी प्रदेश जो कि कौशल प्रदेश से प्राप्त था इसे अपने साम्राज्य में मिलाने के लिये युद्ध किया था इसे अनेक इतिहासकार एक युद्ध की घटना ही मानते हैं परन्तु डॉ. श्री राम गोयल ने कौशल के साथ दो बार युद्ध का उल्लेख किया है जिसे इस प्रकार बताया है – बिम्बिसार (पिता) को बन्दी बनाने के बाद अजातशत्रु ने कौशल-नरेश प्रसेनजित से जो दो युद्ध लड़े उनका उल्लेख ‘संयुक्त निकाय’ के ‘संगामसुत्तों में मिलता है । प्रथम ‘संग्रामसुत्त’ के अनुसार मगध-कौशल संघर्ष में कौशल की पराजय हुई और दूसरे ‘संगामसुत्त’ में वर्णित-युद्ध में मगध को पराजित होना पड़ा था । पहला व दूसरे युद्ध के मध्य 15 से 20 वर्ष का अन्तर अवश्य रहा होगा | पहला युद्ध के लड़े जाने के समय अजातशत्रु के सम्मुख कोई कठिनाई नहीं थी इसलिए उसने प्रसेनजित को परास्त करने में सफलता पाई और बिम्बिसार कैद में ही पड़ा रह गया । इसके विपरीत दूसरे युद्ध के दौरान अजातशत्रु वज्जिसंघ से युद्धरत था इसलिए परास्त हुआ | किन्तु फिर भी प्रसेनजित ने उससे सन्धि कर ली और उसे अपनी पुत्री वजिरा का हाथ व काशी के ग्राम की विवादग्रस्त आय दोनों अजातशत्रु को दे दिये । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम युद्ध अजातशत्रु द्वारा बिम्बिसार से कैद करने के कारण हुआ था और दूसरा बिम्बिसार की हत्या के बाद हुआ था ।
अजातशत्रु का दूसरा संघर्ष वैशाली के लिच्छवियों (वज्जियाँ) से हुआ था । उसने वैशाली के युद्ध में रथमूसल एवं महाशिलाकण्टक नाम के हथियारों का प्रयोग किया था । रथमूसल एक प्रकार का रथ होता था, जिसमें गदा लगी होती थी । महाशिलाकण्टक एक प्रकार का इंजन होता था, जो बड़े-बड़े बच्चे को लेकर भीड़ पर फेंकने का काम करता था । प्राचीन रथमूसल की तुलना आजकल के युद्धों में प्रयोग किये जाने वाले अस्त्रों से की जा सकती है ।
अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह की सुरक्षा हेतु एक मजबूत दुर्ग का निर्माण करवाया । इसके शासन काल के आठवें वर्ष में बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था | महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार अजातशत्रु ने बुद्ध के कुछ अवशेषों को लेकर राजगृह में एक स्तूप निर्मित कराया।
अजातशत्रु के शासनकाल में ही राजगृह में सप्तपर्णि गुफा में 483 ई.पू. में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ, जहाँ पर युद्ध की शिक्षाओं को सुत्तपिटक एवं विनयपिटक में विभाजित किया गया । अजातशत्रु ने पुराणों के अनुसार 28 वर्ष एवं बौद्ध साक्ष्य के आधार पर 32 वर्ष तक शासन किया । अन्तिम समय में अजातशत्रु की हत्या पुत्र उदायिन द्वारा कर दी गयी ।
6.10.3 उदायिन या उदय भद्र – (461 ई.पू.-445 ई.पू.):
उदायिन या उदयभद्र अपने पिता के राज्यकाल में चम्पा का उपराजा था । इसके काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख परिशिष्टपर्वन, गार्गीसंहिता एवं वायु पुराण के अनुसार गंगा एवं सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) नामक राजधानी की स्थापना थी । पुराणों के अनुसार उदायिन ने पाटलिपुत्र में 33 वर्ष एवं महावंश के अनुसार 16 वर्ष तक शासन किया | उदायिन जैन धर्म का अनुयायी था और अपनी राजधानी के मध्य में उसने एक जैन चैत्यगृह का निर्माण जैन धर्म का अनुयायी था और अपनी राजधानी के मध्य में उसने एक जैन चैत्यगृह का निर्माण करवाया था।
बौद्ध साहित्य के अनुसार उदायिन के बाद अनुरुद्ध, मुण्ड और नागदशक (दर्शक) ने मिलकर करीब 445 ई.पू. से लेकर 412 ई.पू. तक शासन किया । इन तीनों को पितृहन्ता कहा गया है । इस वंश के अन्तिम शासक नागदशक को शिशुनाग नाम के एक योग्य अमात्य ने अपदस्थ कर दिया । अन्तिम राजा नागदशक प्रसिद्ध था पुराणों में उसे ‘दर्शक’ कहा गया है । इस प्रकार मगध में हर्यक वंश के शासन का अंत हुआ तथा एक नये वंश शैशुनाग वंश के शासन का आरम्भ हुआ|
6.11 शिशुनाग वंश – (412 ई.पू. -344 ई.पू.)
यह भी नागवंश की ही किसी शाखा से संबंद्ध था, ‘शिशुनाग’ शब्द के अर्थ ‘लघु या छोटा नाग’ से भी संकेत यह मिलता है । इसीलिये वंश का नाम शैशुनाग-वंश रखा गया था |
6.11.1 शिशुनाग (412 ई.पू. से 394 ई.पू.)।
शिशुनाग ने मगध साम्राज्य में अवन्ति एवं वत्सराज को जीत कर मिलाया था जिससे मगध साम्राज्य का विस्तार उत्तरी भारत में मालवा से बंगाल तक हो गया और मगध उत्तर भारत की सबसे बड़ी शक्ति बन गई । पुराणों के अनुसार शिशुनाग ने बनारस में अपने पुत्र को नियुक्त किया और स्वयं गिरिव्रज में रहने लगा । इस प्रकार उसने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से हटाकर गिरिव्रज में स्थापित की | उसने अपनी दूसरी राजधानी वैशाली नगर को बनाया |
6.11.2 कालाशोक या काकवर्ण (394 ई.पू.- 366 ई.पू.)
पुराण एवं दिव्यावदान में कालाशोक का नाम काकवर्ण मिलता है । इसने वैशाली के स्थान पर पुन: पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया । सिंहली महाकाव्यों के अनुसार बुद्ध के महापरिनिर्वाण के करीब सौ वर्ष बाद कालाशोक के शासन काल के दसवें वर्ष वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ । इसी संगीति (383 ई.पू.) में बौद्ध संघ स्थविर एवं महासांघिक के रूप में बंट गया था । दीपवंश एवं महावंश के अनुसार कालाशोक ने करीब 28 वर्ष तक शासन किया ।
‘महावंश’ के अनुसार कालाशोक के दस पुत्र थे जिनके नाम इस प्रकार हैं – भद्रसेन, कोरण्डवर्ण, मंगुर, सरवंजह, जालिक, उम्भक, संजय, कोरव्य, नन्दिवर्धन तथा पंचमक जिन्होंने सम्मिलित रूप से 22 वर्ष राज्य किया । इन दस राजाओं के नामों में केवल नन्दिवर्धन का नाम पौराणिक सूची में मिलता है । इसके पश्चात् मगध में शैशुनाग वंश के शासन का अंत हुआ और नन्द वंश के शासन का आरम्भ हुआ |
6.12 नन्द वंश :- (344 ई.पू. से 322 ई.पू.)
नंदकाल बृहत् मगध साम्राज्य की स्थापना का काल था | नन्द वंश के 9 राजाओं के नाम मिलते है जिन्हें सम्मिलित रूप से ‘नवनन्द’ कहा जाता है | महाबोधि वंश के अनुसार ये 9 नन्द राजा इस प्रकार है – उग्रसेन, पण्डुक, पण्डुगति भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविषाणक, दशसिद्धक, कैवर्त तथा घननन्द था ।
क्षत्रियोत्तर वंश में नंद वंश पहला वंश था जो निम्न वंश का था फिर यह प्रक्रिया चलती रही । पुराणों के अनुसार इस वंश का संस्थापक महापद्मनंद उग्रसेन एकशूद्र शासक था । पुराणों में इसके लिए एकच्छत्र पृथ्वी का राजा ‘अनुल्लंधित शासक, भार्गव (परशुराम) के समान ‘सर्वक्षत्रान्तक’ (क्षत्रियों का नाश करने वाला) एवं एकराट् आदि उपाधियाँ दी गयी है। ‘महाबोधिवंश’ उसे ‘उग्रसेन’ कहता है । उग्रसेन का पुत्र ‘औग्रसैन्य’ संभवत: यूनानी भाषा का ‘अग्रमीज’ है।
अपनी विजयों के फलस्वरूप महापद्मनंद ने मगध को एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया । खारवेल के हाथी गुफा अभिलेख से उसकी कलिंग विजय सूचित होती है । इसके अनुसार नन्दराजा जिनसेन की एक प्रतिमा उठा ले गया तथा उसने कलिंग में एक नहर का निर्माण कराया ।
घननंद अंतिम शासक था जो कि सिकन्दर के आक्रमण के समय राज्य कर रहा था |चन्दुगुप्त मौर्य ने इसे हटाकर के ही मगध का सिंहासन संभाला था ।
नन्दों का महत्व राजनीतिक दृष्टिकोण से अधिक है । इन्होंने ही विभिन्न छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त भारत को राजनीतिक एकता के पथ पर अग्रसर किया जिससे भावी सम्राटों को एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने में पर्याप्त सहायता मिली। नन्दों के सामरिक महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती, यदयपि उनकी आर्थिक नीति शोषण पर आधारित थी ।