राजस्थान: इतिहास के स्रोत


इतिहास’, अतीत काल की घटनाओं का प्रमाणिक दस्तावेज है, जो इतिहासकार द्वारा लिखा गया है, अर्थात अतीत काल की घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से तो नही देखा जा सकता लेकिन कुछ ‘साक्ष्य’ या ‘प्रमाण’ ऐसे होते है, जो उसकी जानकारी देते है। ‘साक्ष्य’ स्वयं मे मूक होतें है, इतिहासकार उन्हें बुलवाता है। ये हमे कई रूपों में उपलब्ध् होते है जैसे-स्मारक, सिक्के, अभिलेख, साहित्य तथा दस्तावेज आदि। राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन काल के इतिहास को जानने के लिए केवल पुरातात्विक साक्ष्य ही उपलब्ध् होते है, क्योकि तब मानव ने पढ़ना लिखना भी
नहीं सीखा था। मध्यकाल मे इतिहास ज्ञात करने के अनेक साधन उपलब्ध् हो जाते है। समय-समय पर आने वाले विदेशी यात्रियों ने भी अपनी दृष्टि से यात्रा सम्बन्धी लेखन कार्य किया है। स्वतंत्राता प्राप्ति से पूर्व राजस्थान मे अनेक छोटी-बड़ी देशी रियासतें थी जिन्होने अपने स्तर पर अपने-अपने पूर्वजों का इतिहास संजोया था। इसलिए स्वतंत्राता से पूर्व राजस्थान का इतिहास इन्ही रियासतों का इतिहास है। इन सबके इतिहास को जोड़ कर देखा जाय तो राजस्थान का इतिहास दिखाई देता है। अतः राजस्थान के इतिहास के साधनों से निम्नलिखित चार भागों मे विभक्त कर सकते है-

  1. पुरातात्विक स्त्रोत।
  2. साहित्यिक स्त्रोत।
  3. पुरालेख।
  4. आधुनिक साहित्य।

पुरातात्विक स्त्रोत।

प्राचीन राजस्थान के इतिहास के निर्माण मे पुरातात्विक स्त्रोतों की अहम भूमिका है। पुरातत्व का अर्थ है भूतकाल के बचे हुए भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रियाकलापों का अध्ययन। ये अवशेष हमें अभिलेख, मुद्राएँ (सिक्के), मोहरे, भवन, स्मारक, मूतियाँ, उपकरण, मृदभाण्ड, आभूषण एवं अन्य रूपों में प्राप्त होते है। इतिहास की जानकारी के लिए पुरातात्विक स्त्रोतों का अधिक महत्व है, क्योकि साहित्यिक स्त्रोतों की तुलना मे इनसे प्राप्त जानकारी अधिक विश्वसनीय, प्रामाणिक एवं दोष रहित मानी जाती है। इसके दो कारण है। प्रथम, पुरातात्विक
अवशेष समसामयिक एवं प्रामाणिक दस्तावेज होते है। द्वितीय, सहित्यिक स्त्रोतों की तुलना मे इनमें अतिरंजना का अभाव होता है तथा ये काल विशेष के दोषरहित एवं पारदर्शी दस्तावेज होते है।
इन्हें पांच भागों मे विभक्त किया जा सकता है-
अभिलेख।
मुद्राएं या सिक्के।
स्मारक (दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तंभ)।
शैलचित्रा कला।
उत्खनित पुरावशेष (भवनावशेष, मृदभाण्ड उपकरण, आभूषण आदि।)


अभिलेख

पुरातात्विक स्त्रोतों के अंतर्गत सबसे अध्कि महत्वपूर्ण स्त्रोत अभिलेख है। इसका मुख्य कारण उनका तिथि युक्त एवं समसामयिक होना है। ये प्रायः पाषाणः पट्टिकाओं, स्तंभों, शिलाओं ताम्रपत्रां, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते है। ये अधिकान्सतःमहाजनी लिपि या हर्ष लिपि मे खोदे गये है। इनमें वंशावली क्रम तिथियाँ, विशेष घटना, विजय, दान आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है। इनमें राजा महाराजाओं की उपाध्यिँ उनके नाम के साथ लिखवायी गयी मिलती है, जिससे शासन स्वरूप की जानकारी मिलती है। स्पष्ट है, इन अभिलेखों मे शासक वर्ग की उपलब्ध्यिँ अंकित करवायी जाती थी। चित्तौड की प्राचीन स्थिति तथा मोरी वंश के इतिहास की जानकारी
‘मानमोरी के अभिलेख’ से, जो 713 ई. (770 वि.स.) का है, प्राप्त होती है। 946 ई. (1003 वि.स.) के ‘प्रतापगढ़ लेख’ से तत्कालीन कृषि समाज एवं धर्म की जानकारी मिलती है। 953 ई. (1010 वि.स.) के ‘सांडेश्वर के अभिलेख’ से वराह मंदिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाध्किरियों आदि के विषय मे पता चलता है। इसी तरह बीसलदेव चतुर्थ का ‘हरिकेलि’ नाटक तथा उसी के राजकवि सोमेश्वर रचित ‘ललित विग्रह नाटक’ शिलाओं पर लिखे है, जो चौहानो केइतिहास के प्रमुख स्त्रोत है। 1161 ई. (1218 वि.स.) के कुमारपाल के लेख मे आबू के परमारों की वंशावली प्रस्तुत की गयी है। 1169 ई. (1226 वि.स.) के बिजोलिया शिलालेख से चौहानों के समय की कृषि, धर्म तथा शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। 1460 ई. (1517 वि.स.) की कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति’ मे बप्पा, हम्मीर तथा कुंभा के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है। 1676 ई (1732 वि.स.) में मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने ‘राज प्रशस्ति’ लिखवाई। इसमें मेवाड़ का इतिहास व महाराणा की उपलब्ध्यि का वर्णन है। इसी प्रकार गौरी द्वारा चौहानों की पराजय के पश्चात भारत मे तुर्क प्रभाव स्थापित हुआ, और उन्होने भी फारसी भाषा मे अनेक अभिलेख लिखवाये। अजमेर मे ढ़ाई दिन के झोंपडे़ का अभिलेख 1200 ई. का फारसी अभिलेख है। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह मे 1637 ई. का शाहजहॉनी मस्जिद का अभिलेख है, जिससे ज्ञात होता है कि शाहजादा खुर्रम ने मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह को हराने के बाद यहां मस्ज़िद बनवायी थीं मुगलकाल में अजमेर, नागौर, रणथम्भोर, गागरोन, शाहबाद, चित्तौड़ आदि स्थानों पर पफारसी अभिलेख खुदवाये। इन
अभिलेखों मे हिज़री सम्वत् का प्रयोग है। अतः फारसी अभिलेख भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्त्रोत है।

राजस्थान के प्रमुख अभिलेख:

नगरी का लेख (200 बी-सी-150 बी-सी) .

यह चित्तौड़गढ़ जिले के प्राचीनत नगर माध्यमिक या नगरी से प्राप्त शिलालेख है, जो जैन या बोद्धों से संबंध्ति है।
यह बहुत छोटा शिलालेख है।


घोसुण्डी शिलालेख(चित्तौड़गढ)

दूसरी सदी ई. पू. की संस्कृत भाषा की ब्राह्मी लिपि प्रयुक्त है।
इसमें गजवंश के सर्वनाम द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख(भागवत धर्म का प्रचार) मिलता हे।


बसन्तगढ़ का लेख,सिरोही (625ई.)

यह कोटा के पास कणसवा गांव में स्थित है। इस अभिलेख में मौर्यवंशी राजा ध्वल का उल्लेख मिलता है।


कणसवा का लेख (738 ई.)


यह कोटा के पास कणवसा गांव में स्थित है। इस अभिलेख में मौर्यवंशी राजा ध्वल का उल्लेख मिलता है।


घटियाला के शिलालेख (837 ई)

जोधपुर जिले के गांव घटियाला के एक जैन मंदिर जिसे माता की साल कहते है जिससे गद्य पद्य संस्कृतभाषा में उत्कीर्ण की गयी है।

नाथ-प्रशस्ति-एकलिंग जी (971 ई.)

यह उदयपुर के पास स्थित कैलाशपुरी;एकलिंग जीद्ध के लकुलीश मंदिर में नरवाहनं के समय का संस्कृत भाषा व देवनागरी लिपि का अभिलेख है।


बिजोलिया का लेख (1170 ई.)

भीलवाड़ा जिले के गांव बिजोलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के पास जैन लोलाक ने मंदिर बनवाया जिसकी याद में उसने यह लेख उत्कीर्ण करवाया था।
इसमें सांभर व अजमेर के चौहानों को वत्स गोत्राय ब्राह्मण बताया गया।
इसमें उस समय के भूमिदान के डोहली कहा गया है।
रचयिता-गुणभ्रद।

जैन कीर्ति स्तम्भ लेख (13 वीं सदी)

चित्तौड़ दुर्ग में स्थित रणकपुर के चौमुखा मंदिर (आदिनाथ मंदिर) में सस्ंकृत भाषा व नागरी लिपि में उत्कीर्ण। इसमें कुम्भा के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

विजय, स्तम्भ प्रशस्ति (1460 ई.)

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित विजय स्तम्भ पर उत्कीर्ण। इसका प्रशस्तिकार कवि अत्रि व उसका पुत्रा महेश भट्ट था। इसमे बाण, हम्मीर मोकल का उल्लेख मिलता है। गणेश, शिव स्तुति मिलती है।
इसमें कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थों, विरूदों ;दानगुरू, राजगुरू,शैलगुरूद्ध का उल्लेख तथा मालवा व गुजरात की
सम्मिलित सेना को हराने का उल्लेख मिलता है।


कुम्भलगड़ शिलालेख (1460 ई.) :-

यह लेख राजसमंद जिले के कुम्भलगढ़ दुर्ग में स्थित कुम्भस्ंयाम मंदिर (मामादेव का मदिर -वर्तमान नाम) में संस्कृत भाषा एवं नागरी लिपि में पांच शिलाओं पर उत्कीर्ण है। . इसमें भौगोलिक स्थिति का, जनजीवन का, एकलिंग मंदिर का वर्णन, चित्तौड़ का वर्णन- (चित्रांग ताल, दुर्ग, वैष्णव तीर्थ के रूप में) किया गया है।
इसमें मुख्यतया कुम्भा के विजयों का विस्तार से वर्णन मिलता है।
इसका रचयिता कान्ह व्यास है। जबकि डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द औझा के अनुसार इसका रचयिता महेश भट्ट है।

बीकानेर की प्रशस्ति (1594) :-

बीकानेर दुर्ग में बीका से रायसिंह तक की उपलब्ध्यिं, जूनागढ़ दुर्ग के निर्माण व कर्मचंद द्वारा निरीक्षण का वर्णन मिलता है।
इसका रचयिता ‘जइता’ नामक जैन मुनि था।
इसकी भाषा संस्कृत है।

जगन्नाथराय प्रशस्ति (1676) :-

यह जगदीश मंदिर, उदयपुर में उत्कीर्ण है।
इसमें बाप्पा से सांगा तक की उपलब्ध्यिं का वर्णन है।
यह मंदिर जगतसिंह प्रथम द्वारा बनाया गया।
यह पंचायतन शैली का लेख है। जिसे अर्जुन की निगरानी में तथा सूत्राकार भाणा व उसके पुत्रा मुकन्द की अध्यक्षता में बनवाया गया।

राजप्रशस्ति (1676) :-

यह प्रशस्ति राजसंमद झील के तट पर नौ चौकी स्थान के ताकों में 27 काली पाषाण शिलाओं पर पद्य संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है।
इसका रचयिता तेलंग ब्राह्मण रणछोड़ भट्ट था।
इस प्रशस्ति के उत्कीर्ण कर्ता गजध्र मुकुन्दर, अर्जुन, सुखदेव, केशव, सुन्दरलालों, लखों आदि थें।
मेवाड़ के शासकों की उपलब्ध्यिं का वर्णन मिलता है।
यह प्रशस्ति जगतसिंह प्रथम तथा राजसिंह के काल की उपलब्ध्यिँ जानने के लिए महत्वपूर्ण स्त्रोत है, यह विश्व की सबसे बड़ी पाषाण उत्कीर्ण प्रशस्ति है।

मुद्राएँ (सिक्केद्ध)

राजस्थान के प्राचीन इतिहास के लेखन मे मुद्राओं या सिक्कों से बड़ी सहायता मिली है, ये सोने, चांदी, ताम्बे और मिश्रित धतुओं के है। इन पर अनेक प्रकार के चिन्ह-त्रिशूल, छत्रा, हाथी, घोड़े, चँवर, वृक्ष, देवी-देवताओं की आकृति, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रा आदि खुदे रहते है। तिथि-क्रम, शिल्प कौशल, आर्थिक स्थिति, राजाओं के नाम तथा उनकी धर्मिक अभिरूचि आदि पर ये प्रचुर प्रकाश डालते है। सिक्कों की उपलब्ध्ता राज्य की सीमा निर्धरित करती है। राजस्थान के विभिन्न भागों में मालव, शिवि, यौध्ेय आदि जनपदों के सिक्के मिलते है। राजस्थान मे रेढ के उत्खनन से 3075 चांदी के ‘पंचमार्क’ सिक्के मिले है। ये सिक्के भारत के प्राचीनतम सिक्के है। इन पर विशेष प्रकार के चिन्ह टंकित है और कोई लेख नही है। 10-11वीं शताब्दी मे प्रचलित सिक्कों पर गधे के समान आकृति का अंकन मिलता है, इन्हें ‘गधिया सिक्के’ कहा जाता है। महारणा कुंभा के चांदी एवं ताम्बे के सिक्के मिलते है। मुगल शासन काल मे जयपुर में ‘झाड़शाही’, जोध्पुर में ‘विजयशाही’ सिक्कों का प्रचलन हुआ। ब्रिटिश शासन काल मे अंग्रेजों ने अपने शासक के नाम के चांदी के सिक्के ढ़लवाये।


राजस्थान के प्रमुख सिक्के
झाड़शाही सिक्के – जयपुर
मुहम्मदशाही सिक्के – जैसलमेर
अखेशाही सिक्के – जैसलमेर
विजयशाही सिक्के – जोध्पुर
भीमशाही सिक्के – जोध्पुर
गजशाही सिक्के – बीकानेर
गुमानशाही सिक्के – कोटा
मदनशाही सिक्के – झालावाड़
स्वरूपशाही सिक्के – उदयपुर
चांदोड़ी सिक्के – उदयपुर
उदयशाही सिक्के – डूंगरपुर
तमचाशाही सिक्के – धैलपुर

स्मारक (दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तंभ)

राजस्थान मे अनेक स्थलों से प्राप्त भवन, दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तम्भ आदि से तत्कालीन सामाजिक, धर्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। हड़प्पा संस्कृति से सम्बन्ध उत्तरी राजस्थान के हनुमानगढ़ जिल में कालीबांगा के पुरातात्विक उत्खनन मे अनेक भग्नावशेष प्राप्त हुए है, जिनसे तत्कालीन सामाजिक, धर्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। राजस्थान दुर्गो के कारण प्रसिद्ध है। यहां अनेक भव्य एवं कलात्मक मंदिर है।
विराटनगर मे बीजक पहाड़ी पर मौर्ययुगीन बोद्ध स्थापत्य के पुरावशेष, क्षेत्रा मे बोद्ध होना सिद्ध करते है। हर्ष माता का मंदिर (आभानेरी), देव सोमनाथ का मंदिर (सोम नदी के तट पर), सास-बहु का मंदिर (नागदा), देलवाडा का मंदिर (आबू) पुष्कर, चित्तौड़ एवं झालरापाटन के सूर्य मंदिर, किराडू और ओसियाँ के मंदिर बाडोली एवं दरा के मंदिर अपने समय की सभ्यता, धर्मिक विश्वास तथा शिल्प कौशल को अभिव्यक्त करते है।
राजस्थान की मध्ययुगीन इमारते, जिनमें भग्नावशेष, दुर्ग, राजप्रसाद आदि सम्मिलित है, से भी इतिहास विषयक जानकारी प्राप्त होती है। चितौडगढ़, कुम्भलगढ़, गागरोन, रणथम्भोर, आमेर, जालौर, जोधपुर, जैसलमेर, आदि दुर्ग सुरक्षा व्यवस्था पर ही प्रकाश नही डालते बल्कि उस समय के राजपरिवार तथा जन साधरण के जीवन, स्तर को भी अभिव्यक्त करते है।

शैलचित्रकला

प्रागैतिहासिक काल में मानव पर्वतों की गुफाओं, नदियों की कगारों तथा चट्टानां, शिलाखण्डों द्वारा बने आश्रय स्थलों मे शरण लेता था। ये स्थल उसके आवास स्वरूप थे। नैसर्गिक रूप से बनी इन पर्वतीय संरचनाओं को ‘शैलाश्रय’ कहा जाता है। राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला मे तथा चम्बल नदी घाटी मे नदी कगारों के रूप मे बहुत से ऐसे शैलाश्रय प्राप्त हुए है जिनमें प्रागैतिहासिक काल के मानव द्वारा प्रयोग मे लिये गये पाषाण उपकरण, अस्थि अवशेष एवं अन्य पुरासामग्री प्राप्त हुई है। इन शैलाश्रयों की छत, भित्ति, कभी-कभी फर्श आदि पर इस प्रकार की कलाकृतियाँ दिखाई देती है, जो रंगों द्वारा या कठोर उपकरणों द्वारा कुरेद-कुरेद कर बनायी गयी है, इन्हें रॉकआर्ट तथा चित्रांकन को ‘शैलचित्र’ कहते है। ये शैलचित्र तत्कालीन मानव द्वारा विभिन्न प्रकार के रंगों मे बनाये गये है। सामान्यतः आसानी से उपलब्ध् गेरू के द्वारा लाल रंग के बने चित्र प्राप्त होते है। गेरू या हेमेटाइट’ (लौह खनिज) के टुकडे को घिसने पर लाल रंग का चूर्ण बन जाता है, उसके द्वारा तत्कालीन मानव ने शैलाश्रयों की दीवारों पर विभिन्न प्रकार के द्रश्यों का बहुत अच्छे ढंग से चित्रांकन किया है। इनमें सर्वाधिक आखेट दृश्य
उपलब्ध् होते है, जिनमें तत्कालीन आखेटक जीवन के विभिन्न पक्ष जैसे उपकरणों के प्रयोग की विध्यिँ, उनके प्रकार, जीव जन्तुओं की प्रजातियाँ तथा तत्संबंधी पर्यावरण आदि की विशद् जानकारी प्राप्त होती है। अर्थात शैलाश्रयों मे किया गया चित्रांकन तत्कालीन मानव द्वारा निर्मित उसके अभिलेखीय साक्ष्य है। चित्रित शैलाश्रयों की दृष्टि से चम्बल नदी घाटी का क्षेत्रा उल्लेखनीय है। यहां कन्यादय, रावतभाटा, अलनियाँ, दरा आदि स्थलों मे
अनेक चित्रित शैलाश्रय प्रकाश मे आये है। बूंदी जिले मे छाजा नदी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इस क्षेत्र मे ओमप्रकाश शर्मा द्वारा शर्वाधिक महत्वपूर्ण चित्रित शैलाश्रय प्रकाश मे लाये गये है। विराटनगर (जयपुर), सोहनपुरा (सीकर) तथा हरसौरा, डडीकर (अलवर) भी अनेक चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए है।


उत्खनित पुरावशेष (भग्नावशेष, मृद्भाण्ड, उपकरण, आभूषण आदि)


अन्वेषण एवं उत्खनन में प्राचीन काल की सामग्री उपलब्ध् होती रहती है, जैसे- पाषाण उपकरण, मृद्भाण्ड, धातु उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, बर्तन आभूषण आदि। लेकिन मृद्भाण्डो की उपलब्धि् सर्वाधिक है जिनको उनकी गठन, बनावट तथा तकनीक के आधर पर चार सांस्कृतिक वर्गो मे विभाजित किया जाता है, जो निम्नानुसार है-
ऽ गेरूए रंग मृद्भाण्ड संस्कृति(OCP)।
ऽ काले एवं लाल रंग की मृद्भाण्ड संस्कृति (b&r)।
ऽ चित्रित सलेटी रंग की मृद्भाण्ड संस्कृति (PGW)
ऽ उत्तरी-काली चमकीली मृद्भाण्ड संस्कृति (PBW)।
मृदभाण्डों की भाति, प्राचीन काल के पाषाण एवं धातु उपकरणों की सहायता से संस्कृतियों के विकास-क्रम को समझने मे सहायता मिलती है।

साहित्यिक स्त्रोत

साहित्य समाज का दर्पण होता है। ग्रंथ, चाहे वह धर्म से संबंध्ति हो, एतिहासिक हो या लौकिक हो, उसमें अपने रचना काल की प्रवृत्तियाँ समाविष्ट रहती है। इसलिए इतिहास की दृष्टि से ये महत्वपूर्ण स्त्रोत है। राजस्थान मे साहित्य का सृजन संस्कृत, राजस्थानी, हिन्दी एवं पफारसी भाषा में किया गया है। अनेक राजा महाराजाओं ने अपने दरबार मे विद्वान कवियों एवं साहित्यकारों को आश्रय दिया है। उनकी कृतियाँ इतिहास के प्रमुख स्त्रोत है।
लेकिन दरबारी लेखन अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण की पूरी संभावना रहती है, जिसकी पुष्टि इतिहासकार अन्यत्रा किये गये स्वतंत्रा लेखन से करते है।



संस्कृत साहित्य

12वीं शताब्दी मे जयानक ने ‘पृथ्वीराज विजय’ की रचना की। इसमें सपादलक्ष में चौहानो के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। जयचन्द सूरि द्वारा रचित ‘हम्मीर महाकाव्य’ रणथम्भोर के चौहान वंश की जानकारी का स्त्रोत ह।ै चन्द्रशेखर कृत ‘सजु र्न चरित’ समाज जीवन के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी देता है।
मेवाड़ की शिल्पी मण्डन द्वारा रचित ‘राजबल्लभ’ में महाराणा कुंभा के काल की जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त मेरूतुंग रचित ‘प्रबंध् चिंतामणि’, राजशेखर कृत ‘प्रबंध् कोष’, रणछोड भट्ट द्वारा रचित ‘अमर काव्य वंशावली’ आदि महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

राजस्थानी एवं हिन्दी साहित्य

राजस्थानी भाषा मे भी अनेक ग्रंथों की रचना हुई जिनका इतिहास लेखन हेतु स्त्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है, जैसे ‘पृथ्वीराज रासो’ की काव्य रचना चन्दरबरदाई ने की। इसमें पृथ्वीराज चौहान तथा मुहम्मद गौरी के मध्य युद्ध का वर्णन है।
हम्मीर की उपलब्धियों का उल्लेख विजयस कृत ‘हमीर देव चौसाई’, जोधराज कृत ‘हम्मीर रासों’, चन्द्रशेखर कृत ‘हम्मीर हठ’, तथा राजरूप रचित ‘हम्मीर राछाड़ा’ मे मिलता है।
जालौर के शासक कान्हड़ दे के समय रचित ‘कान्हड़ दे प्रबंध्’ एक महत्वपूर्ण कृति है। इसकी रचना पद्मानाभ ने
की। करणीदान द्वारा रचित ‘सरू ज प्रकाश’ ग्रन्थ मे जोधपुर नरेश अजय सिंह के शासन काल की महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण है।

ख्यात सहित्य

ऐसा साहित्य जो ‘ख्याति’ को प्रतिपादित करे, यह ख्यात साहित्य कहलाता है। ख्यातों का विस्तृत रूप 16वीं शताब्दी के अंत से मिलता है। ये राजस्थानी भाषा मे गद्य मे लिखा गया साहित्य है।
अधिकंसतः ख्यात लेखक दरबार के चारण या भाट होते थे किन्तु मुहणोत नैणसी इसके अपवाद है। ‘मुहणोत नैणसी री ख्यात’, ‘बांकीदास री ख्यात’, ‘दयालदास री ख्यात’, ‘राजा मानसिंह जी ख्यात’ और इसी तरह पफलौदी, सांचौर, जैसलमेर तथा किशनगढ़ री ख्यात उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त राजस्थानी भाषा में रचित ‘अचलदास खींची री वचनिका’ गागरोन के खींची शासको की जानकारी का स्त्रोत है। महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण कृत ‘वंश भास्कर’ एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक गं्रथ है, जो मराठों के आक्रमणों के विषय में जानकारी उपलब्ध् करवाता है।

फारसी साहित्य

मध्ययुगीन राजस्थान की घटनाआें की जानकारी का महत्वपूर्ण स्त्रोत उर्दू तथा फारसी साहित्य है। इसके लेखक दिल्ली के सुल्तान या मुगलों के संरक्षण मे ग्रंथों की रचना करते थे। अतः अतिश्योक्ति पूर्ण विवरण भी इनकी रचनाओं मे उपलब्ध् होता है जिनका उपयोग करते समय सावधनी की आवश्यकता है।
‘चचनामा’ मे सिन्ध् प्रदेश मे अरबी आक्रमण का वर्णन है। ‘तबकाते नासिरी’ मे मिनहाज सिराज ने 1260 ई. तक के सुल्तानो के विषय मे लिखा है। ‘ताज उल मासिर’ मे हसन निजामी ने राजस्थान में मुस्लिम सत्ता की स्थापना का उल्लेख किया है।

‘खजाइन-उन-फुतूह’ मे अमीर खुसरों ने अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियानों का आंखों देखा विवरण लिपिब( किया है।
‘तारीख-ए-पिफरोजशाही’ मे जियाउद्ददीन बरनी ने खिलजी एवं तुगलक सुल्तानों का वर्णन किया है।
‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ मे याहया बिन अहमद अब्दुलशाह सरहिन्दी ने चम्बल क्षेत्रा के अनेक मार्गो की जानकारी के साथ मुबारकशाह खिलजी द्वारा मेवात क्षेत्रा मे किये गये आक्रमण का उल्लेख किया है।
‘तुजुक-ए-बाबरी’ मे बाबर ने मेवाड़ के राणा सांगा के साथ संबंधें का विवरण लिखा है। हुमायूं की बहिन गुलबदन
बेगम द्वारा रचित ‘हुमायूँनामा’ मे तथा जौहर आपफताबची द्वारा रचित ‘तज किराते-उल-वाकियात’ मे मारवाड़ के मालदेव तथा जैसलमेर के भाटी मालदेव का वर्णन किया अब्बास सरवानी ने ‘तारीखे शेरशाही’ मे शेरशाह के राजस्थान अभियान का विस्तृत विवरण दिया है।
अकबर कालीन इतिहासकारो मे अबुल पफजल ने ‘अकबरनामा’ मे, बदायूँनी ने ‘मुन्तख्वाबत-उत्-तवारीख’ में,
पफरिश्ता ने ‘तारीख-ए-पफरिश्ता’ में राजस्थान की अनेक घटनाओं का वर्णन किया है। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-जहाँगीरी’ में अपने निकट संबंध्ी शासको का वर्णन किया है।

पुरालेख

लिखित दस्तावेज ‘पुरालेख’ कहलाते है। 16वीं शताब्दी मे राजस्थान के सभी शासकों के पास ऐसे अधिकारी दिखाई देते है, जो राजकीय कागज-पत्रों को संभाल कर रखने का काम करते है।
इनमें विभिन्न राजा महाराजाओ से प्राप्त पत्र तथा उनके प्रेषित पत्रों की प्रतियाँ, भूमि विषयक कार्यवाही, राजस्व संबंध्ी विवरण, यहां तक कि दरबार की कार्यवाही का रिकार्ड भी संभाल कर रखा जाने लगा।
राजपूत घरानों मे भी रिकार्ड रखने की प्रथा प्रचलित थी। यहां बहियाँ लिखी जाती थी। ये एक तरह की फाइल थी। प्रत्येक विषय की बही अलग-अलग होती थी जैसे- विवाह री बही, हकीकत री बही, हुकूमत री बही अर्थात जिसमें सरकारी आदेशो की नकल होती थी, पट्टा बही, परवाना बही आदि इसके अतिरिक्त ‘अडसट्टा रिकार्ड’ है जिसमे भूमि की किस्म, किसान का नाम, भूमि के माप, पफसलो का विवरण, लगान का हिसाब आदि का
विवरण उपलब्ध् होता है। कुछ बहियाँ व्यापारियों की भी है जिनमें वस्तुओं का बाजार भाव, मण्डियो के नाम, वस्तुओं का उल्लेख जो बाजार मे बिकने आती थी का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार इतिहास को जानने के लिए पुरालेख अत्यन्त महत्वपूर्ण साध्न है। ये सब रिकॉर्ड विभिन्न अभिलेखागारो में संग्रहित है। हमारे राज्य का प्रमुख अभिलेखागार बीकानेर मे स्थित है।

आधुनिक साहित्य

राजस्थान के इतिहास का लेखन 19वीं शताब्दी के शुरू मे कर्नल टॉड ने किया है। टॉड द्वारा रचित ‘एनल्स एण्ड एन्टीक्वीटीज ऑपफ राजस्थान’ राजस्थान के इतिहास की महत्वपूर्ण कृति है।
टॉड ने प्राचीन ग्रंथों, शिलालेखों, दानपत्रों, सिक्कों, ख्यातो और वंशावली संग्रह के आधर पर अपने ग्रंथ की रचना की। टॉड ने उस समय उपलब्ध् सभी साध्नों का प्रयोग करके यह ग्रंथ लिखा लेकिन पिफर अनेक नवीन स्त्रोत सामने आये है। वह एक विदेशी था, शासक वर्ग से संबंध्ति था अतः उसकी सीमाएं थी। वह भारतीय भाषा रीति-रिवाज आदि को ठीक से नही समझ सका और हो सकता है कि उपलब्ध् साहित्यिक साक्ष्य उसे मिल न सके हो। परवर्ती काल मे गौरीशंकर हीराचनद ओझा ने राजस्थान के इतिहास पर नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। ओझा के
इस प्रयत्न ने राजस्थान इतिहास लेखन की परम्परा प्रारम्भ की।
इनके पश्चात श्यामलदास, जगदीश सिंह गहलोत तथा डॉ. दशरथ शर्मा ने राजस्थान के इतिहास विषयक ग्रंथों की रचना की।
राजस्थान के इतिहास के लेखकों में डॉ. गोपीनाथ शर्मा का नाम भी उल्लेखनीय है। आध्ुनिक राजस्थान के लेखन मे डॉ. एम.एसजैन का योगदान भी महत्वपूर्ण है। राजस्थान के इतिहास के प्रमुख लेखक-

मुहणोत नैणसी

इनकी इतिहास विषयक घटनाओ मे बचपन से ही रूचि थी।
चारण भाटो से प्राप्त जानकारी को ये लिपिबद्ध कर लेते थे।
मुहणोत नैणसी का जन्म ओसवाल वैश्यो की मुहणोत शाखा में 1610 ई. मे हुआ। इनके पिता जयमल एवं माता स्वरूप देवी थी।
मुंहणोत घराना कई पीढ़ियों से मारवाड़ राजघराने की सेवा मे काम करता आया था। युवावस्था मे नैणसी को भी राज्य की सेवा में नियुक्त कर लिया गया। 1657-58 ई. मे नैणसी की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता को देखकर महाराजा जसवन्त सिंह ने उसे अपना दीवान नियुक्त किया। उन्होने दस वर्ष तक राज्य की सेवा की। जब औरंगजेब ने महाराजा जसवन्त सिंह को शिवाजी का दमन करने के लिए औरंगाबाद भेजा तो वे अपने साथ नैणसी तथा उसके भाई सुन्दरदास को भी लेते गये। वहां महाराजा जसवन्त सिंह उनसे नाराज हो गये तथा दोनों भाईयो को बन्दी बना लिया गया तथा अन्त में उन्हें जोध्पुर भेजते समय मरवा दिया गया। यह विस्मय जनक घटना है।
नैणसी ने दो महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे है-

  • मुहतो नैणसी री ख्यात।
  • मारवाड़ रा परगना री विगत।

कर्नल जेम्स टॉड

20 मार्च 1782 ई. को इंग्लैण्ड मे जन्मे टॉड 1798 ई. में इण्डिया कम्पनी मे एक सैनिक रंगरूट बनकर भारत आया। उसने 1801 ई. में उसने दिल्ली के निकट एक पुरानी नहर की पैमाइश का काम किया तथा 1805 ई. में वह दौलतराव सिंध्यि के दरबार मे एक सैनिक टुकड़ी मे नियुक्त किया। 1817 से 1822 ई. के मध्य टॉड को पश्चिमी राजपूत राज्यों मे ईस्ट इण्डिया कम्पनी का पॉलिटीकल एजेन्ट बनाकर भेजा गया। इस अवधि् मे
टॉड ने वहां की इतिहास विषयक जानकारी एकत्र की। उसे राजपूत शासकों से इतना अधिक लगाव हो गया था कि उसके अध्किरियो को भी उसकी स्वामी भक्ति पर संदेह उत्पन्न हो गया। उसे 1822 ई. में स्वास्थ्य के पर त्यागपत्रा देना पड़ा।
तत्पश्चात टॉड इंग्लैण्ड चला गया और 1829 ई. मे उसके प्रसि( ग्रंथ ‘‘एनल्स’’ का प्रथम खण्ड तथा 1832 ई. मे द्वितीय खण्ड प्रकाशित हुआ। ‘‘पश्चिमी भारत की यात्रा’’ नामक ग्रंथ उसकी मृत्यु (1835 ई.) के पश्चात 1839 ई. में प्रकाशित हुआ।
टॉड द्वारा रचित ‘एनल्स’ राजस्थान के राजपूतों के विषय में विश्वकोष है। एनल्स के प्रथम खण्ड में राजपूताने की भौगोलिक स्थिति, राजपूतों की वंशावली, सामन्ती व्यवस्था और वीर भूमि मेवाड़ का इतिहास है। द्वितीय खण्ड में मारवाड़ बीकानेर, जैसलमेर, आमेर और हाड़ौती के राज्य का इतिहास है। ‘पश्चिमी भारत की यात्रा’ नामक ग्रंथ मे भ्रमण करते समय व्यक्तिगत अनुभवों के साथ-साथ राजपूती परम्पराओं, अन्ध्विश्वासों, आदिवासियां के जीवन मंदिरों, मूर्तियों, पण्डे-पुजारियों और अन्हिनलवाड़ा, अहमदाबाद तथा बड़ौदा का इतिहास लिखा राजस्थान विशेष है। एक विदेशी होते हुए उसने राजपूती समाज के विषय में विस्तृत विवरण दिया है। टॉड की मान्यता ने कि ‘‘राजस्थान म े कोई छोटा सा राज्य भी ऐसा नही है जिसमें थर्मोपोली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले जहां लियोनिडस जैसा वीर पुरूष पैदा न हुआ हो।’’
टॉड का ग्रन्थ इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी दोष युक्त है।
उसने राजपूत जाति के विषय में अपूर्ण विवरण दिया है। यह वैज्ञानिक प(ति द्वारा लिखा ग्रंथ नही है। संभवतः राजस्थान के इतिहास से संबंध्ति टॉड को इतनी सामग्री उपलब्ध् नही हो पायी थी, जितनी वर्तमान मे उपलब्ध् है। वह संस्कृत, प्राकृत, अरबी, पफारसी भाषाओ का जानकार भी नहीं था। उस समय वह अनुवादकों पर निर्भर था। अनुवादकों की त्राटियां का समावेश भी उसके लेखन को दोषपूर्ण बनाता है।.

कविराजा श्यामलदास

महामहोपाध्याय कविराजा श्यालदास का जन्म मेवाड़ के ढोकलिया गांव में 1838 ई. मे हुआ। इन्हें मेवाड के महाराणा शम्भूसिंह ने राज्य का इतिहास लेखन का दायित्व सौंपा। इस हेतु महाराणा ने एक पृथक विभाग स्थापित किया तथा दो अन्य सहायकों की नियुक्ति की। इस विभाग मे उपलब्ध् ऐतिहासिक सामग्री की सहायता से श्यामलदास ने 1871 ई. में ‘वीर विनोद’ ग्रंथ लिखना प्रारम्भ किया, जो 1886 ई. के आसपास छपकर तैयार हुआ। दो खण्डो मे उपलब्ध् ‘वीर विनोद’ 2684 पृष्ठो का विशाल ग्रन्थ है.
जिसे लिखने मे 15 वर्ष लगे। ‘वीर-विनोद’ मुख्य रूप से उदयपुर राज्य का इतिहास है। लेकिन इसमें प्रसंगवश उन राज्यों का भी इतिहास है जो किसी न किसी प्रकार से उदयपुर से संबंध्ति हुए, इस प्रकार से यह ग्रंथ राजस्थान का संपूर्ण इतिहास है। महाराणा ने इन्हें ‘कविराजा’ की उपाधि् प्रदान की।

महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण

सूर्यमल्ल मिश्रण का जन्म 1815 ई. मे पिता चण्डीदान एवं माता भवानी बाई के घर में हुआ। चण्डीदान बून्दी नरेश महाराव रामसिंह के आश्रित कवि थे। अपने पिता के पश्चात सूर्यमल्ल ने महाराव रामसिंह क े दरबार म े कवि क े रूप में प्रसिद्धि उन्होने ‘वंश भास्कर’, ‘वीर सतसई’, ‘वल्लभ्द्विलास’, ‘छंदोभ मूल’, ‘सती रासों’ आदि ग्रंथों की रचना की। महाराव की आज्ञानुसार 1840 ई. मे ‘वंश भास्कर’ लिखना प्रारम्भ किया लेकिन किन्ही कारणों से 1856 ई. में लेखन कार्य बंद कर देना पड़ा।
तत्पश्चात उनके दत्तक पुत्र मुरारीदान ने इस ग्रंथ को पूर्ण किया। यह मूल ग्रंथ 2500 पृष्ठो का है। सूर्यमल्ल मिश्रण ने बूंदी का इतिहास लेखन प्रारंभ किया था लेकिन वंश भास्कर मे राजपूताने का ही नहीं अपितु उत्तरी भारत का संपूर्ण इतिहास समाया हुआ है। राजनैतिक इतिहास के साथ-साथ वंश भास्कर मे सामाजिक और सांस्कृतिक विवरण भी विस्तर पूर्वक उल्लेखित है।

गौरीशंकर हीराचन्द ओझा

इनका जन्म 1863 ई. में सिरोठी राज्य के रोहिड़ा ग्राम में हुआ था। ये बंबई से हाई स्कूल की परीक्षा पास कर उदयपुर मे बस गये। उदयपुर मे अंग्रेजी रेजीडेन्ट ने इन्हें एक संग्रहालय के निर्माण का कार्य सौंपा। इसके पश्चात वे अजमेर मे राजस्थान के रेजीडेन्ट अर्सकीन के संपर्क मे आये। अर्सकीन ने 1908 में उन्हें अजमेर बुलाकर राजस्थान म्यूजियम का क्यूरेटर बना दिया। ओझा जी ने 30 वर्ष तक इस पद पर कार्य किया।
ओझा जी द्वारा रचित ‘‘सिरोही राज्य का इतिहास’’ 1911 ई. में प्रकाशित हुआ। इसके बाद उन्होने उदयपुर, डूँगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ के गुहिल-सिसोदिया राज्यों का इतिहास लिखा। इसके पश्चात ‘बीकानेर राज्य का इतिहास’ लिखा। पिफर उन्होने ‘ का इतिहास लिखना प्रारम्भ किया, जिसकी दो जिल्द ही प्रकाशित हो पायी। यद्यपि इसके द्वारा राजस्थान के संपूर्ण राज्यों के इतिहास ग्रंथ नही लिखे गये लेकिन इन्हें पूर्ण राजस्थान का इतिहासकार कहा जा सकता है। ओझा जी पुरातत्ववेता थे। उन्हें लिपिमाला तथा स्थापत्य कला की
विशेष जानकारी थी। उन्होने अपने गं्रथों के लेखन मे पुरासामग्री का भरपूर प्रयोग किया है।

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