राजस्थान में जन आंदोलन एवं स्वतंत्रता संग्राम


यद्यपि 1857 की क्रांति मे राजस्थान की भूमिका अन्य राज्यों की अपेक्षा सक्रिय नही रही पिर भी ब्रिटिश सरकार ने राजाओं के माध्यम से यह पूरा प्रयास किया कि किसी प्रकार की राष्ट्रवादी भावनायें यहाँ न पनपने पायें। राजस्थान के पंरपरावादी सामंती समाज ने भी प्रगतिवादी प्रवृत्तियों को अधिक प्रश्रय नहीं दिया।

पिर भी यहाँ के लोगों मे स्वाधीन होने की प्रबल आकांक्षा किसी भी शक्ति द्वारा बाधित  नही हो पाई। आत्म सम्मान व स्वतंत्रता प्रेम यहाँ के निवासियों के चरित्र का प्रमुख हिस्सा है और अति दमनात्मक नीतियों के बावजूद अपने अधिकरों के लिये स्वतंत्रता प्रेमी संघर्ष करते रहे है।

राजस्थान मे जनजागृति के कारण

स्वामी दयानंद सरस्वती व उनका प्रभाव- आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द स्वदेशी व स्वराज का शंख फूंकने वाले पहले समाज सुधरक थे। 1865 ई. में वे करौली, जयपुर व अजमेर आये। उन्होने स्वर्ध्म, स्वदेशी, स्वभाषा व स्वराज्य का सूत्र दिया। जिसे शासक व जनता ने संहर्ष अनुमोदित किया।

1888-1890 ई. के बीच आर्य समाज की शाखायें राजस्थान मे स्थापित की गई एवं ‘‘वैदिक यंत्रलय’’ नामक प्रिटिंग प्रेम अजमेर मे लगाई गई। 1883 ई. मे स्वामी जी ने उदयपुर में ‘‘परोपकारिणी सभा’’ की स्थापना की, जो बाद में अजमेर स्थानान्तरित हो गई। इस प्रकार स्वराज्य के लिये प्रेरणा देने का प्रारम्भिक कार्य आर्य समाज ने किया।

समाचार पत्रों व साहित्य का योगदान– राजनीतिक चेतना के प्रसार में समाचार पत्रों का येगदान उल्लेखनीय है। 1885 ई. मे राजपूताना गजट, 1889 ई. में राजस्थान समाचार, प्रारम्भिक समाचार पत्र थे। 1920 ई. में पथिक ने ‘‘राजस्थान केसरी’’ का प्रकाशन आरम्भ किया, जिसने अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ

अपना स्वर ऊँचा किया। 1922 ई. में राजस्थान सेवा संघ ने ‘‘नवीन राजस्थान’’ नामक अखबार निकाला, जिसने कृषक आन्दोलनो के पक्ष में आवाज उठाई। 1923 ई. में इसे ‘‘तरूण राजस्थान’’ के नाम से प्रकाशित किया जाने लगा। 1932 ई. में प्रभात, 1936 ई. में नवज्योति, 1939 ई. में नवजीवन, 1935 ईमें

जयपुर समाचार, 1943 ई. मे लोकवाणी इत्यादि समाचार पत्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान की समस्याओं व आंदोलन का खुलासा किया व इनके लिये राष्ट्रीय सहमति बनाई।

इसी प्रकार ठाकुर केसरी सिह बारहठ, जयनारायण व्यास, पंहीरालाल शास्त्रारी की कविताओं मे देश प्रेम अपनी चरम सीमा पर परिलक्षित होता है। अर्जुनलाल सेठी की कृतियों ने वैचारिक क्रांति उत्पन्न की। इस संदर्भ मे महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा उचित ‘‘वीर सतसई’’ का उद्वरण विस्मृत नहीं किया जा सकता है जिसमें वीर रस व स्वदेश प्रेम का अनूठा सम्मिश्रण है।

मध्यम वर्ग की भूमिका- यद्यपि राजस्थान का साधरण मनुष्य भी विद्रोह की सामर्थ्य रखता था, पिर भी एक योग्य नेतृत्व उसे मध्यम वर्ग से ही मिला, जो आधुनिक शिक्षा प्राप्त था। यह नेतृत्व शिक्षक, वकील व पत्रकार वर्ग से आया। जयनारायण व्यास, मास्टर भोलानाथ, मघाराम वैद्य, अर्जुनलाल सेठी, विजय सिंह पथिक आदि इसी माध्यम वर्ग के प्रतिनिधि् थे।

प्रथम विश्वयुद्ध का प्रभाव– राजस्थान के लगभग सभी राज्यों की सेनाओं ने प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया। जो सैनिक लौटकर आये उन्होने अपने अनुभव बाँटे-नई वैचारिक क्रांति से राजस्थान के लोगो को परिचित कराया। दूसरी और युद्ध का समस्त भार भारतीय जनता द्वारा अंग्रेज सत्ता को कर चुका कर उठाना पड़ा और परिणामस्वरूप असंतोष का भाव अधिक पनपने लगा।

बाह्म वातावरण का प्रभाव– राजस्थान शेष भारत में चल रही राजनीतिक गतिविधियों से अनभिज्ञ नही था। राष्ट्रीय स्तर के नताओं  व उनके  कर्कर्मो  का प्रभाव यहा भी पड़ा। जहा एक ओर हरि भाऊ उपाध्याय व जमनालाल बजाज जैसे लोग गांधीवादी नीतियों का अनुसरण कर रहे थे वहीं रास बिहारी बोस के विचारों से प्रेरित अर्जुन लाल सेठी, गोपालसिंह खरवा व बाहरठ परिवार भी स्वतंत्रता की अलख जगा रहे थे।

राजस्थान में किसान आंदोलन

राजस्थान की राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक संरचना सामंती रही है। यह सरंचना त्रिस्तरीय थी जिसमें क्रमशः शासक, जमींदार व कृषक वर्ग सम्मिलित थे। इन सभी के परस्पर अंतर्सम्बधि पर यह व्यवस्था टिकी थी। 19वीं शती के अंत मे संबध् सौहार्दपूर्ण रहे। जहाँ एक और शासक अपनी शक्ति के लिये सामंतों पर निर्भर रहते थे, वहीं सामंतों ने कृषकों को उनके परंपरागत अधिकरों से वंचित न करके अपना सुदृढ़ आधार तैयार कर रखा था। भूमि दो प्रकार की थी- खालसा व जागीरी और दोनों क्षेत्रों के किसानों की दशा में अंतर भी स्पष्ट दिखलाई पड़ता था।

19वीं शती के अन्त मे राजस्थान का परिदृश्य बदलना आरम्भ हो गया। इसका कुल कारण देशभर की बदली राजनीतिक परिस्थितियाँ, अंग्रेजो का आतंक, रियासतों की अव्यवस्था, जागीरदारों का शोषण व देश भर मे चल रहे राजनीतिक आंदोलनों का प्रभाव था।

कृषक असंतोष के कारण

जहाँ एक ओर राजस्थान के कृषको की राजनीतिक चेतना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित मानी जा सकती है, वहीं दूसरी ओर निश्चित रूप से कुछ ऐसी सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों थी जो राजस्थान के किसानों के लिये विशिष्ट थी।

अंग्रेजों के प्रभाव मे आकर शासकों ने अपनी प्रजा की ओर पर्याप्त ध्यान देना छोड़ दिया। शासकों व जागीरदारां ने स्वयं का अस्तित्व ही ब्रिटिश सत्ता पर आधरित समझ लिया। इसलिये, शासकों की निर्भरता जागीरदारों पर व जागीरदारों की निर्भारता कृषकों पर समाप्त होती चली गई।

राजस्व अधिक वसूलने के साथ-साथ ही कृषकों से ली जाने वाली बेगारों व लागों मे भी अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई। कुछ राज्यों मे तो लोगों की संख्या लगभग 300 तक थी।

जागीरदारों व सामंतों की निर्भरता धातु मुद्रा पर बढ़ती गई। यह अंग्रेजों की अत्यन्त विलासी जीवन शैली को अपनाने के कारण हुआ इनके नये खर्चो का बोझ कृषि व्यवस्था पर पड़ा। दूसरा कारण परम्परागत चाकरी को रोकड़ मे परिवर्तित करना था।

अंग्रेजी प्रशासनिक व्यवस्थाओं को अपनाने के पफलस्वरूप सामंतों का कृषको के प्रति उदार व पैतृक नजरिया बदल गया।

कृषक असंतोष का एक प्रमुख कारण अन्य व्यवसायों से विस्थापित लोगों का कृषि पर निर्भर हो जाना था। यह लक्षण अंग्रेजी औपनिवेशिक नीति का सीध परिणाम था। कृषक मजदूरों की संख्या में बढ़ोत्तरी होने से जागीरदारों के रूख मे अधिक कठोरता आ गई।

कृषि उत्पादित मूल्यों मे गिरावट व इजाफा दोनों स्थितियाँ कृषकों के लिये लाभकारी नही थे। जहाँ एक ओर कीमत मे गिरावट के कारण कृषकों की बचत की मूल्य कम हो जाता था, वहीं कीमते बढ़ने के कारण भी उसे लाभ का भाग नही मिल पाता था क्योकि जागीरदार लगान जिन्स में लेता था।

जागीरी क्षेत्र मे कृषकों का असंतोष जागीरदारों के जुल्मो के विरुद्ध होता था। किन्तु जागीरदारों के अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रहने के कारण उसे शासको अथवा अंग्रेज अधिकरियों से न्याय की उम्मीद नहीं

बिजौलिया का किसान आंदोलन

बिजौलिया भीलवाड़ा जिले में स्थित हैं यहॉं किसान आंदोलन 1897 में प्रारम्भ तथा 1941 में समाप्त हुआ। बिजौलिया में मुख्यतः धकड़ जाति के किसान थे।

भारत में संगठित कृषक आंदोलन प्रारम्भ करने का श्रेय मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के ठिकाने बिजौलिया को है। बिजौलिया ठिकाने के संस्थापक अशोक परमार थे।

अशोक परमार अपने मूल स्थान जगमेर (भरतपुर) से मेवाड़ के राणा सांगा की सेवा में चित्तौड़ आ गया था। 1527 ई. में खानवा के युद्धमें अशोक की वीरता को देखते हुए राणा सांगा ने उसे ऊपरमाल की जागीर प्रदान की।

यहाँ के शासक राव कृष्णासिंह के समय बिजौलिया की जनता से 84 प्रकार की लागतें ली जाती थी।

1903 ई. राव कृष्णसिंह ने ऊपरमाल की जनता पर कन्या विवाह के अवसर पर 5 रूपये का ‘चंवरी कर’ लगाया। इसके विरोध् स्वरूप किसानों ने कन्याओं के विवाह स्थगित कर दिए तथा किसानों ने ठिकाने की भूमि पर खेती करना बंद कर दिया। विवश होकर राव कृष्णसिंह ने चंवरी कर समाप्त कर दिया तथा लगान भी 40 प्रतिशत कर दिया।

बिजौलिया के किसान आंदोलन का नेतृत्व सर्वप्रथम साधू सीताराम दास द्वारा किया गया।

1906 ई. में राव कृष्णसिंह की मृत्यु के बाद उसके उतराधिकारी पृथ्वीसिंह ने ‘तलवार बंधई’ की लागत

(उत्तराध्किरी शुल्क) लगा दी। किसानों ने साधू  सीताराम दास, फतहकरण चारण और ब्रहृदेव के नेतृत्व में इस कार्यवाही के विरोध् में 1913 ई. में ऊपरमाल के क्षेत्र को पड़त रखा और ठिकाने को भूमि कर नहीं दिया।

बिजौलिया के किसान आंदोलन में 1916 ई. में श्री विजयसिंह पथिक ने प्रवेश किया। विजयसिंह पथिक का मूल नाम भूपसिंह था। विजयसिंह पथिक ने ‘ऊमाजी के खेड़ा’ नामक स्थान को किसान क्रांति का केन्द्र स्थल बनाया।

पथिक ने 1917 ई. में श्री सीताराम दास एवं श्री माणिक्यलाल वर्मा के सहयोग से हरियाली अमावस्या के दिन ‘ऊपरमाल पंच बोर्ड’ नामक संगठन की स्थापना की तथा मन्ना पटेल को इस पंचायत का प्रमुख बनाया।

बिजोलिया ठिकाने में भूमि कर निश्चित करने के लिए ‘कूता प्रथा’ प्रचलित थी।

1916 ई. में किसानों ने साधू सीताराम दास की अध्यक्षता में ‘किसान पंच बोर्ड’ की स्थापना की।

भारत सरकार के ए.जी.जी. हॉलैण्ड व किसानों के बीच समझौते के अनुसार 84 में से 32 लागतें माफ कर दी गई, अन्ततः 1922 ई. में आंदोलन समाप्त हो गया, लेकिन ठिकानें ने समझौते का पालन नहीं किया।

श्री गणेश शंकर विद्यार्थी संपादित एवं कानपुर से प्रकाशित समाचार पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से तथा इसके साथ ही अभ्युदय, भारत, मित्र, मराठा आदि समाचार पत्रों के माध्यम से विजयसिंह पथिक ने बिजौलिया किसान आंदोलन को समूचे भारत में चर्चा का विषय बना दिया।

मेवाड़ के प्रधनमंत्र सर जी. विजयराघवाचार्य के प्रयास से किसानों को पुनः भूमि दे दी गई और 1941 ई. में बिजौलिया आंदोलन का पटाक्षेप हो गया।

बिजौलिया किसान आंदोलन सर्वाधिक  लंबे समय तक चलने वाला किसान आंदोलन था।

गांधीजी  ने अपने सचिव महादेव देसाई को किसानों की समस्या का अध्ययन करने के लिए बिजौलिया भेजा।

बिजौलिया किसान आंदोलन का मुख्य ध्येय बिजौलिया के जागीरदार द्वारा किसानों पर लगाये भारी करों, विभिन्न लागतों तथा बेगार प्रथा के विरुद्ध अपना असंतोष व्यक्त कर न्याय प्राप्त करना था।

बेंगू किसान आंदोलन

बेंगू किसान आंदोलन 1921 से 1925 के बीच चला।

बिजौलिया किसान आंदोलन से प्रेरित पड़ोस की जागीर बेंगू (चित्तौड़गढ़) मेनाल (भीलवाड़ा) नामक स्थान पर एकत्रित हुए और लाग बाग, बेगार और ऊँचे लगान के विरुद्ध आंदोलन करने का निश्चय किया।

बेगूं आंदोलन का नेतृत्व राजस्थान सेवा संघ के मंत्र श्री रामनारायण चोधरी  ने किया।

बेगूं आंदोलन को ‘बोल्शेविक क्रांति’ की संज्ञा भी दी जाती है।

1923 ई. में बेगूं ठाकूर अनूपसिंह ने किसानों से समझौता कर उनकी सब मांगे मान ली। परन्तु मेवाड़ सरकार और रेजिडेण्ट ने राजस्थान सेवा संघ और रावत अनूपसिंह के बीच हुए इस समझौते को ‘बोल्शेविक फैसले’ की संज्ञा दी।

बेगूं के किसान 13 जुलाई 1923 ई. को गोविन्दपुरा में एकत्र हुए जहॉ सेना ने गोलियॉ चला दी। इस हत्याकांड में ‘रूपाजी’ और कृपाजी’ नामक दो किसानों शहीद हो गए।

सेना के अत्याचारों से किसानों का मनोबल गिरता देख पथिकजी ने स्वयं बेगूं किसान आंदोलन का नेतृत्व संभाला।

1923 ई. में पथिक जी को गिरफ्रतार कर उन्हें 5 वर्ष की सजा दी गई।

अलवर किसान आंदोलन

1924 ई. में अलवर राज्य में भूमि बंदोबस्त कर लगान में वृद्धि की गई। अतः अलवर राज्य के खालसा क्षेत्र के राजपूत किसानों ने आंदोलन प्रारम्भ किया। 14 मई, 1925 ई. को कमाण्डर छाजुसिंह ने किसानों पर मशीनगनें चलाने के आदेश दिए व गांव में आग लगा दी। फलस्वरूप सैकड़ों- स्त्रा-पुरूष व बच्चे

हताहत हुए। ‘तरूण राजस्थान’ एवं ‘प्रताप’ नाम समाचार पत्र ने इस घटना का विवरण प्रकाशित किया।

महात्मा गांधीजी ने नीमूचाणा हत्याकाण्ड को ‘जलियांवाला बांग काण्ड’ से भी विभीषण बताया और उसे ‘दोहरी डायरशाही’ की संज्ञा दी।

1921 ई. में अलवर राज्य में जंगली सुअरों को अनाज खिलाकर होदों में पाला जाता है। ये सुअर किसानों की खड़ी फसलों को नष्ट कर देते थे। इन सुअरों को मारा नहीं जा सकता था, क्योंकि इनकों मारने पर राज्य की पांबदी थी। सुअरों के उत्वात के कारण 1921 ई. में राज्य के किसानों ने आंदोलन

प्रारम्भ कर दिया। अंततः महाराणा ने होदों को हटा दिया तथा कृषकों को सूअर मारने की इजाजत दे दी।

मेव किसान आंदोलन – अलवर व भरतपुर रियासत के मेवात क्षेत्र के किसानों ने 1932 में डॉ. मोहम्मद अली के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया।

मारवाड़ किसान आंदोलन

मारवाड़ किसान आंदोलन 1923 से 1947 ई. तक के बीच चला।

1923 ई. में श्री जयनारायण व्यास ने ‘मारवाड़ हितकारिणी सभा’ का गठन किया। और इसके माध्यम से मारवाड़ के किसानों को लागतों तथा बेगार के विरुद्ध जागृत करने का प्रयास किया।

जयनारायण व्यास ने अपने ‘ तरूण राजस्थान’ नामक समाचार पत्र के माध्यम से किसानों की दुर्दशा तथा जगीरदारों के जुल्मों का पर्दापफाश किया।

‘मारवाड़ा की दशा’ तथा ‘पोपाबाई का पोल’ नामक पम्पलेटों में भी जागीरी जुल्मों का मार्मिक वर्णन किया गया।

. जोधपुर  राज्य में ‘तरूण राजस्थान’ पर प्रतिबंध् लगाते हुए 20 जनवरी 1930 ई. को जयनारायण व्यास, आनंदराज सुराणा तथा भंवरलाल सर्राफ को बंदी बना लिया।

शेखावाटी किसान आंदोलन

बिलाऊ, डूडलोद, मलसीसर, मंडावा तथा नवलगढ़ जो ‘पंचपाणे’ कहलाती थीं शेखावटी की पांच प्रमुख जागीरें थी।

शेखावाटी क्षेत्र में कुल 421 जागीरदार थे।

राज्य सरकार द्वारा भेजे गये कमीशन ने किसानों की कुछ मांगों का समर्थन किया। इस पर ठिकानों को किसानों की कुछ मांगें माननी पड़ी व आंदोलनकारियों से सद्व्यवहार का आश्वासन देना पड़ा।

प्रजामण्डल के कार्यकर्ताओं ने अकाल राहत कार्यों में शेखावटी के कृषकों को बड़ी सेवा कीं किन्तु समाज सेवी प्रजामण्डल सदस्य जमनालाल बजाज को गिरफ्रतार कर उनके जयपुर प्रदेश पर रोक लगा दी गई।

बाद में यह आंदोलन जयपुर में हीरालाल शास्त्रा के नेतृत्व में लोकप्रिय सरकार के गठन के पश्चात समाप्त हुआ।

1932 में झुंझुनूं के चोधरी  रिसाल की अध्यक्षता में जाट महासभा का अध्विशन हुआ।

सीकर किसान आंदोलन

सीकर आंदोलन का सूत्रपात्र जाट किसानों द्वारा किया गया। सीकर में 56 प्रतिशत भूमि जाट किसानों के पास थी। इस क्षेत्र में भू राजस्व की अनेक विषमताओं के अतिरिक्त अनेकों लाग-बाग, मापा आदि कर थे। इस प्रकार उपज का अधिकांश भाग ठिकानेदार व ठिकानों के अधिकरियों में बंट जाता था।

1922 ई. में राव राजा ठा. कल्याण सिंह द्वारा उपज का 50 प्रतिशत लगान लेना प्रारम्भ करते ही किसानों ने इसका विरोध् किया।

इस किसान आंदोलन के नेता रामनारायण चोधरी  व हरि ब्रहृचारी का सीकर तथा जयपुर राजा की सीमा में प्रवेश निषिध  कर दिया।

महिलाओं में जागृति के लिए सरदार हरलाल सिंह की पत्नी किशोरी देवी के नेतृत्व में सीकर जिले के कटराथल गांव में 1934 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें 10 हजार महिलाओं ने भाग लिया। सम्मेलन की प्रमुख वक्ता श्रीमती उतमा देवी (ठाकुर देशराज की पत्नी) थी। श्रीमती दुर्गा देवी शर्मा श्रीमती

रमा देवी, श्रीमती फूला देवी’ आदि अन्य प्रमुख महिलाएं थी जिन्होंने इस सम्मेलन में भाग लिया।

जयसिंहपुरा किसान हत्याकाण्ड -21 जून, 1934 को डूण्डलोद के ठाकुर के भाई ईश्वर सिंह ने डूण्डलोद में

जयसिंहपुरा गांव में खेत जोत रहे किसानों पर हमला कर गोली चलाकर उनकी हत्या कर दी।

कूदन गोली कांड – सीकर के कूदन गांव में किसानों पर 1935 में गोली चलाई गई, जिसमें 4 किसान मारे गये। गोठड़ा व पलथाणा में गोली काण्ड हुआ। 26 मई, 1935 को पूरे देश में सीकर दिवस मनाया गया।

कूदन गोली काण्ड की चर्चा ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में भी हुई।

खूड़ी गोलीकांड – 1935 ई. में सीकर में खूड़ी गांव में किसानों पर कैप्टन वेब ने लाठी चार्ज करवाया, जिसमें 4 किसान मारे गये। यह विवाद किसान दूल्हें द्वारा घोड़ी पर तोरण मारने के कारण हुआ।

1931 ई. में राजस्थान जाट क्षेत्रय सभा की स्थापना हुई।

1947 ई. में देश के वातावरण में बदलाव के साथ ही किसानों की समस्त मांगे मानते हुए लाग-बाग व बेगार प्रथा समाप्त कर दी गईं।

दूध्वा खारा (चूरू) किसान आंदोलन

1944 में यहॉ के जागीरदारों ने बकाया राशि के भुगतान का बहाना कर अनेक किसानों को उनकी जीत से बेदखल कर दिया। किसानों का नेतृत्व चोधरी हनुमानसिंह ने किया।।

बीकानेर प्रजा परिषद के अध्यक्ष पं. मघाराम वैद्य ने दूध्वा खारा के किसानों की समस्या एवं जागीरदारों के अत्याचारों को उजागर किया।

चूरू जिले के कांगड़ गांव में भी किसानों पर अत्याचार हुए।

डाबड़ा किसान आंदोलन

लोक परिषद तथा किसान सभा के नेता 13 मार्च, 1947 ई. को आयोजित किसान सम्मेलन में भाग लेने हेतु डाबड़ा (डीडवाना-नागौर) पहुंचे।

लगभग 600 जाट किसान सम्मेलन में सम्मिलित होने जा रहे थे किन्तु जागीरदार के लगभग 600 सशस्त्रा लोगों ने उन्हें घेर लेकिन इसके बाद बंदूकों, तलवारों और भालों का प्रयोग दोनों पक्षों की ओर से किया गया। इसमें चुन्नीलाल शर्मा व जग्गू जाट शहीद हुए। किसानों का नेतृत्व मथुरादास माथुर ने किया।

हाबड़ा हत्याकाण्ड का समाचार शीघ्र ही देशभर में फैल गया मुम्बई से प्रकाशित ‘वंदे मातरम’, जयपुर के ‘लोकवाणी’ जोधपुर  के ‘प्रजा सेवक और दिल्ली के हिन्दुस्तार टाइम्स आदि समाचार पत्रों ने इस जघन्य हत्याकांण्ड की घोर निंदा की।

बूंदी किसान आंदोलन

पं. नयनूराम शर्मा के नेतृत्व में 1922 ई. में बूंदी के किसानों ने बेगार, लाल-बाग और ऊँची लगान दरों के विरुद्ध आंदोलन किया। स्त्रियों ने भी इस आंदोलन में भाग लिया। राज्य ने दमन का सहारा लिया। यह किसान आंदोलन बरड़ क्षेत्र में हरिभाई किंकर, रामनारायण चोधरी  और पं. नयनूराम शर्मा ने चलाया।

अप्रैल 1923 में डाबी में सम्पन्न हुए किसानों के सम्मेलन पर पुलिस ने गोली चला दी, इस आंदोलन में ‘नानकजी भल’ घटनास्थल पर ही शहीद हो गये।

टोंक किसान आंदोलन

टोंक में पिण्डारी शासक अमीर खाँ पिण्डारी के उतराधिकारी इब्राहिम खॉं के अदूरदर्शी प्रशासन से 1920-21 ई. में प्रथम जन आंदोलन हुआ, जिसमें किसानों की सक्रिय भूमिका रही।

अजगर सभा– शाहपुरा के राजा हुकुमसिंह के निर्देशन में इस सभा का गठन हुआ। अ-अहीर,ज-जाट, ग-गुर्जर, र-राजपुत इन चारों शब्दों का संबंध् उपरोक्त चार जातियों से था तथा कहा गया कि हम सभी क्षत्रय है। आपस में परस्पर भेद नहीं होना चाहिए।

राजस्थान को देशी रियासतों में रचनात्मक गतिविधियाँ प्रारम्भ करने का श्रेय प्रजामण्डलों को है। प्रजामंडल की स्थापना का उद्देश्य रियासती कुशासन को समाप्त कर उनमें व्याप्त बुराईयों

को दूर करना तथा नागरिकों को उनके मौलिक अधिकर दिलवाना है। संगठनों का तात्कालिक उद्देश्य अपनी-अपनी रियासतों से संबंध्ति नरेशों की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था।

राजस्थान में लिये जाने वाले लाग-बाग (कर)

कमठाण लाग– गढ़ के निर्माण व मरम्मत हेतु दो रूपये प्रति घर से वसूले जाते थे।

हल लाग- खेती पर प्रति हल लगने वाली ‘हल लाग’ कहलाती थी।

चूड़ा लाग- ठकुराइन द्वारा नया चूड़ा पहनने पर मूल्य काश्तकारों से वसूल किया जाता था।

खरड़ा लाग- मोची, छीपा, कुम्हार आदि श्रमजीवी जातियों से वसूली जाती थी।

खिचड़ी लाग- राज्य की सेना जब किसी गांव के पास पड़ा व डालती, तो उनके भोजन के लिए गांव के लोगों से वसूल की जाने वाली लाग खिचड़ी लाग कहलाती थी।

कांसा लाग-शादी अथवा गमी के अवसर पर ठिकाने को दी जाने वाली रकम के साथ कम से कम पच्चीस पत्तल खाना भेजना कांसा लाग कहलाता था।

अंग लाग– प्रत्येक किसान के परिवार में पांच वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक सदस्य से एक रूपया वार्षिक कर लिया जाता था। यह अंग लाग कहलाता था।

ऊडी लाग– इसके अंतर्गत जागीरदार प्रत्येक काश्तकार से एक मण पर दस सेर अनाज अपनी काश्त के लिए बीज के रूप में लेता था।

कुंवरजी के घोड़े की लाग– कुंवर के बड़े होने पर उसे घुड़सवारी सिखाने तथा उसके लिए घोड़ा खरीदने के लिए प्रति घर एक रूपया कर के रूप में लिया जाता था।

कुम्हार लाग– कुम्हार बेगार के रूप में ठिकाने का पानी भरता था। इसके बदले प्रत्येक काश्तकार को पांच से दस सेर धन कुम्हार को देना पड़ता था।

कोटड़ी खर्च की लाग – ठिकाने को कोटड़ी के खेर्चे के लिए प्रत्येक परिवार से 1 से 6 रूपये तक वार्षिक कर लिया जाता था।

खरच-भोग की भाग- भू-राजस्व वसूली में होने वाले व्यय की पूर्ति के लिए ली जाने वाली लाग को खर्च-भोग की लाग कहा जाता था।

गर्ज की लाग – जब जागीरदार अपने पट्टे के गांव में जाता था तब गांव वाले रूपये इकट्ठे कर जागीरदार को भेंट देते थे।

चंवरी लाग- किसानों के पुत्र या पुत्र के विवाह पर उन पर लगने वाली लाग चंवरी लाग कहलाती है।

चीला लाग- जागीरदार द्वारा अपने ठिकाने की सीमा में से निकलने वाली प्रत्येक गाड़ी से 6 पाई प्रति गाड़ी लाग ली जाती थी।

जट लाग- रायका एवं रैबारियों द्वारा ठिकाने में जाजम बनाने के लिए ऊॅंट के बाल दिए जाते थे। इसे जट लाग कहते थे।

तोल लाग – यह लाग जागीरदार द्वारा हासिल वसूल कर करने के बाद अध्भिर के रूप में 2 से 10 सेर अनाज के रूप में ली जाती थी।

दूध- लाग ठिकानों के लिए ग्रामीणों से प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति और प्रति परिवार दूध् मंगाया जाता था।

न्यौता लाग – यह लाग जागीरदार, पटेल एवे चोधरी  द्वारा अपने लड़के-लड़की की शादी के अवसर पर किसानों से वसूल की लाती थी।

पंडित की लाग– यह लाग शिक्षा के नाम पर जागीरदारों से वसूल की जाती थी।

पान चराई – खालसा भूमि में किसानों से पशुओं को पत्ते चरने देने के लिए जाने वाला कर पान चराई कहलाता था।

फाड्या लाग– जागीरदार द्वारा हासिल का हिस्सा लेने के लिए लाए गए कपड़ों के लिए एक से डेढ़मण धन लाग के रूप में लिया जाता था

बकरा लाग– प्रत्येक काश्तकार से जागीरदार एक बकरा स्वयं के खाने के लिए लेता था और कुछ जागीरदार बकरे के बदले कुछ वार्षिक कर लेते थे।

माचा लाग– काश्तकार को प्रत्येक हर्ष अपने खर्चे से ठिकाने को एक माचा (चारपाई) देनी होती थी।

मायरा की लाग– किसान की पुत्र-पुत्र के विवाह के अवसर पर जब ननिहाल पक्ष के लोब मायरा (भात) लाते थे तो जागीरदार उनसे मायरा लाग के रूप में एक रूपया लेता था।

राली लाग – प्रतिवर्ष काश्तकार एक गददा बनाकर देता था, जो जागीरदार या उसके कर्मचारियों के काम आता था.

जनजातीय आंदोलन

राजस्थान में नव राजनीतिक चेतना का श्रीगणेश यहाँ के किसानों व जनजातीय समाज ने किया। यहां के कृषको ने अत्यधिक  वित्तीय बोझ के विरोध् मे अपना स्वर ऊँचा करके तत्कालीन राजनीतिक

व्यवस्था को चुनौती दे डाली। ये आंदोलन पूर्णतया अहिंसक थे और परिपक्व राजनीतिक दृष्टि का परिचायक थे। इसी प्रकार राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों मे भी असंतोष स्वतः स्पफूर्त था।

अपने परंपरागत अधिकरों के उल्लंघन की स्थिति मे ये आंदोलन शुरू हुए, जिन्होने बाद में कुशल नेतृत्व के हाथों में जाने से व्यवस्थित रूप ले लिया। कहना गलत न होगा कि ये स्वतः स्पफूर्त

आंदोलन थे, जो अन्याय व अनावश्यक उत्पीड़न के विरुद्ध शुरू हुए एवं भावी राजनीतिक आंदोलनों के प्रेरणा सूत्र बने।

राजस्थान मे दक्षिणी क्षेत्र में भील निवास करते है, जो मुख्यतः डूंगरपुर, मेवाड़, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ व कुशलगढ़ के इलाके है। भील अत्यन्त परम्परावादी जाति है जो अपने सामाजिक व आर्थिक स्तर को लेकर सजग रहती है। जब इनके परंपरागत अधिकरों का हनन हुआ तो इन्होने अपना विरोध् प्रकट किया,

चाहे वह पिफर अंग्रेजों के विरुद्ध हो या पिफर शासक के विरुद्ध हो। राजस्थान में स्वाधीनता के लिए हुए आंदोलनों में भील, मीणा, व गरासिया आदि जनजातियों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया

था। इसके आंदोलन निम्न प्रकार है-

स्वामी गोविन्द्र गुरू (गिरि)

स्वामी गोविन्द गिरि का जन्म 1858 ई. में डूँगरपुर राज्य के बांसियों ग्राम में एक बंजारे के घर में हुआ।

इनके द्वारा चलाया गया आंदोलन भगत आंदोलन कहलाता है।

स्वामी गोविन्द गिरि ने आदिवासयिं की सेवा के लिए 1883,ई. में एक संस्था ‘संप सभा’ की सिरोही में स्थापना की।

संप सभा के माध्यम से उन्होंने मेवाड़ डूँगरपुर, गुजरात, ईडर, विजय नगर और मालवा के भील-गरासियों को संगठित किया।

गोविन्द गिरि ने इस जनजातियों में व्याप्त सामाजिक बुराईयों को दूर करने और कुरीतियों को मिटाने का प्रयत्न किया तथा उनकों अपने मूलभूत अधिकरों का बोध् कराया।

गोविन्द गुरू ने संप सभा का पहला अध्विशन 1903 ई. में ‘मानगढ़ की पहाड़ी’ (बांसवाड़ा) पर बुलाया।

1903 के बाद प्रतिवर्ष मानगढ़ पहाड़ी पर संपसभा का अध्विशन होने लगा।

17 नवम्बर 1913 को अश्विन पूर्णिमा के दिन सम्पसभा का अध्विशन चल रहा था। तब की गई गोली-बारी से 1500 से अधिक भील शहीद हो गये, इसे राजस्थान का दूसरा जलियांवाला बांग हत्याकाण्ड कहते है। (प्रथम नीमूचाणा, अलवर)

मोतीलाल तेजावत

जन्म – कोल्यारी (उदयपुर)

उपनाम – आदिवासियों का मसीहा, बावजी।

मोतीलाल तेजावत द्वारा चलाये गये आन्दोलन को एकी आंदोलन के नाम से जानते है।

एकी आंदोलन की शुरूआत मातृकुण्डिया, (राशमी), चित्तौड़ से की।

मोतीलाल तेजावत ने 1921 ई. में कोटड़ा झाड़ोल, मादड़ी आदि क्षेत्रों में भीलों को संगठित किया।

1922 में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में नीमड़ा नामक स्थान पर एक आंदोलन का सम्मेलन चल रहा था। तब अंग्रेजों द्वारा की गई गोली-बारी से 1200 से अधिक आदिवासी भील मारे गये।

मोतीलाल तेजावत ने जीवन भर आदिवासियों के लिए संघर्ष किया। 5 दिसम्बर, 1963 ई. को निधन  हो गया।

मोतीलाल तेजावत ने 21 सूत्र मांगपत्र तैयार किया जिसे  ‘मेवाड़ पुकार’ की संज्ञा दी जाती है।

मोतीलाल तेजावत ने भीलों की समाजिक स्थिति को सुधरने हेतु 1936 में ‘वनवासी संघ’ की स्थापना की।

राजस्थान में मीणा आंदेलन

राजपूतानें के कई राज्यों में मीणा जनजाति निवास करती थी।

पूर्व खोह, मांची गेटोर, आमेर, झोटवाड़ा, भांडारेज नरेठ आदि क्षेत्रों में मीणों के जनपद थे तथा वहॉ मीणा शासक राज्य करते थे।

मीणों का मुख्य क्षेत्र ढूंढ़ाढ था। वहाँ के कछवाहा राजपूतों ने उनका राज्य छीन लिया।

दुलहराय और उसके साथियों द्वारा खोह-गंग के मीणा शासक आलनसिंह एवं उसके 1500 सहयोगियों को मारने के बाद दुलहराय ने खोह-गंग पर अधिकर कर ढूंढ़ाड़ में 1137 ईमें कछवाहा राज्य की नींव डाली।

राज्य में कई भागों में शासन करने वाली मीणा जनजाति के लोगों ने बाद में चोरी डकैती एवं लूटमार को अपना व्यवसाय बना लिया था। अतः उन पर नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से 1924 ई. में ही छोटूराम झरवाल, महादेव राम पबड़, जवाहर राम, आदि ने ‘मीणा जाति सुधर कमेटी’ नाम की एक संस्था की स्थापना की।

1930 ई. में जयपुर राज्य में भी ‘जयायम – पेशा कानून’ लागू हुआ। जिसमें हर आयु के बच्चों के लिए निकटस्थ पुलिस थाने में नाम दर्ज करवाना और दैनिक हाजरी देना अनिवार्य कर दिया।

1933 ई. में ‘मीणा क्षत्रिय महासभा’ की स्थापना हुई।

जिसमें ‘जयराम-पेशा कानून’ रद्द करने की मांग की।

जैन मुनि मगनसागर की अध्यक्षता में 1944 ई. में सम्पन्न नीम का थाना सम्मेलन में ‘जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति’ नामक संस्था की स्थापना हुई।

इस समिति के अध्यक्ष श्री बंशीध्र शर्मा, मंत्र श्री राजेन्द्र कुमार ‘अजेय तथा संयुक्त मंत्र श्री लक्ष्मीनारायण झरवाल थे।

उदयपुर में 31 दिसम्बर 1945 को आयोजित भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के अध्विशन में भी जयराम-पेशा कानून रदद करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। परिषद के अध्यक्ष पंजवाहरलाल नेहरू थे।

28 अक्टूबर, 1946 को बागावास में एक विशाल सम्मेलन में चौकीदार मीणों ने स्वेच्छा से चौकीदारी के काम से इस्तीफा दे दिया।

1952 ई. में राजस्थान की विभिन्न रियासतों से भी जयराम पेशा कानून रदद कर दिया गया।



Don`t copy text!
0 Shares
Share via
Copy link
Powered by Social Snap